तिरुक्कुरल : तिरुवल्लुवर, अनुवादक : एम. जी. वेंकटकृष्णन

Thirukkural : Thiruvalluvar, Translator : M.G. Venkatakrishnan

तिरुक्कुरल, भाग–२: अर्थ- कांड : तिरुवल्लुवर


अध्याय 39. महीश महिमा

381 सैन्य राष्ट्र धन मित्रगण, दुर्ग अमात्य षड़ंग । राजाओं में सिंह है, जिसके हों ये संग ॥ 382 दानशीलता निडरपन, बुद्धि तथा उत्साह । इन चारों से पूर्ण हो, स्वभाव से नरनाह ॥ 383 धैर्य तथा अविलंबना, विद्या भी हो साथ । ये तीनों भू पाल को, कभी न छोड़ें साथ ॥ 384 राजधर्म से च्युत न हो, दूर अधर्म निकाल । वीरधर्म से च्युत न हो, मानी वही नृपाल ॥ 385 कर उपाय धन-वृद्धि का, अर्जन भी कर खूब । रक्षण, फिर विनियोग में, सक्षम जो वह भूप ॥ 386 दर्शन जिसके सुलभ हैं, और न वचन कठोर । ऐसे नृप के राज्य की, शंसा हो बरजोर ॥ 387 जो प्रिय वचयुत दान कर, ढिता रक्षण-भार । बनता उसके यश सहित, मनचाहा संसार ॥ 388 नीति बरत कर भूप जो, करता है जन-रक्ष । प्रजा मानती है उसे, ईश तुल्य प्रत्यक्ष ॥ 389 जिस नृप में बच कर्ण कटु, शने का संस्कार । उसकी छत्रच्छाँह में, टिकता है संसार ॥ 390 प्रजा-सुरक्षण प्रिय वचन, तथा सुशासन दान । इन चारों से पूर्ण नृप, महीप-दीप समान ॥

अध्याय 40. शिक्षा

391 सीख सीखने योग्य सब, भ्रम संशय बिन सीख । कर उसके अनुसार फिर, योग्य आचरण ठीक ॥ 392 अक्षर कहते है जिसे, जिसको कहते आँक । दोनों जीवित मनुज के, कहलाते हैं आँख ॥ 393 कहलाते हैं नेत्रयुत, जो हैं विद्यावान । मुख पर रखते घाव दो, जो है अपढ़ अजान ॥ 394 हर्षप्रद होता मिलन, चिन्ताजनक वियोग । विद्वज्जन का धर्म है, ऐसा गुण-संयोग ॥ 395 धनी समक्ष दरिद्र सम, झुक झुक हो कर दीन । शिक्षित बनना श्रेष्ठ है, निकृष्ट विद्याहीन ॥ 396 जितना खोदो पुलिन में, उतना नीर-निकास । जितना शिक्षित नर बने, उतना बुद्धि-विकास ॥ 397 अपना है विद्वान का, कोई पुर या राज । फिर क्यों रहता मृत्यु तक, कोई अपढ़ अकाज ॥ 398 जो विद्या इक जन्म में, नर से पायी जाय । सात जन्म तक भी उसे, करती वही सहाय ॥ 399 हर्ष हेतु अपने लिये, वैसे जग हित जान । उस विद्या में और रत, होते हैं विद्वान ॥ 400 शिक्षा-धन है मनुज हित, अक्षय और यथेष्ट । अन्य सभी संपत्तियाँ, होती हैं नहिं श्रेष्ठ ॥

अध्याय 41. अशिक्षा

401 सभा-मध्य यों बोलना, बिना पढ़े सदग्रन्थ । है पासे का खेल ज्यों, बिन चौसर का बंध ॥ 402 यों है अपढ़ मनुष्य की, भाषण-पटुता-चाह । ज्यों दोनों कुचरहित की, स्त्रीत्व-भोग की चाह ॥ 403 अपढ़ लोग भी मानिये, उत्तम गुण का भौन । विद्वानों के सामने, यदि साधेंगे मौन ॥ 404 बहुत श्रेष्ठ ही क्यों न हो, कभी मूर्ख का ज्ञान । विद्वज्जन का तो उसे, नहीं मिलेगा मान ॥ 405 माने यदि कोई अपढ़, बुद्धिमान ही आप । मिटे भाव वह जब करें, बुध से वार्त्तालाप ॥ 406 जीवित मात्र रहा अपढ़, और न कुछ वह, जान । उत्पादक जो ना रही, ऊसर भूमि समान ॥ 407 सूक्ष्म बुद्धि जिसकी नहीं, प्रतिभा नहीं अनूप । मिट्टी की सुठि मूर्ति सम, उसका खिलता रूप ॥ 408 शिक्षित के दारिद्रय से, करती अधिक विपत्ति । मूर्ख जनों के पास जो, जमी हुई संपत्ति ॥ 409 उच्छ जाति का क्यों न हो, तो भी अपढ़ अजान । नीच किन्तु शिक्षित सदृश, पाता नहिं सम्मान ॥ 410 नर से पशु की जो रहा, तुलना में अति भेद । अध्येत सद्‍ग्रन्थ के, तथा अपढ़ में भेद ॥

अध्याय 42. श्रवण

411 धन धन में तो श्रवण-धन, रहता अधिक प्रधान । सभी धनों में धन वही, पाता शीर्षस्थान ॥ 412 कानों को जब ना मिले, श्रवण रूप रस पान । दिया जाय तब पेट को, कुछ भोजन का दान ॥ 413 जिनके कानों को मिला, श्रवण रूप में भोग । हवि के भोजी देव सम, भुवि में हैं वे लोग ॥ 414 यद्यपि शिक्षित है नहीं, करे श्रवण सविवेक । क्लांत दशा में वह उसे, देगा सहाय टेक ॥ 415 फिसलन पर चलते हुए, ज्यों लाठी की टेक । त्यों हैं, चरित्रवान के, मूँह के वच सविवेक ॥ 416 श्रवण करो सद्विषय का, जितना ही हो अल्प । अल्प श्रवण भी तो तुम्हें, देगा मान अनल्प ॥ 417 जो जन अनुसंधान कर, रहें बहु-श्रुत साथ । यद्यपि भूलें मोहवश, करें न जड़ की बात ॥ 418 श्रवण श्रवण करके भला, छिद न गये जो कान । श्रवण-शक्ति रखते हुए, बहरे कान समान ॥ 419 जिन लोगों को है नहीं, सूक्ष्म श्रवण का ज्ञान । नम्र वचन भी बोलना, उनको दुष्कर जान ॥ 420 जो जाने बिन श्रवण रस, रखता जिह्‍वा-स्वाद । चाहे जीये या मरे, उससे सुख न विषाद ॥

अध्याय 43. बुद्धिमत्ता

421 रक्षा हित कै नाश से, बुद्धिरूप औजार । है भी रिपुओं के लिये, दुर्गम दुर्ग आपार ॥ 422 मनमाना जाने न दे, पाप-मार्ग से थाम । मन को लाना सुपथ पर, रहा बुद्धि का काम ॥ 423 चाहे जिससे भी सुनें, कोई भी हो बात । तत्व-बोध उस बात का, बुद्धि युक्तता ज्ञात ॥ 424 कह प्रभावकर ढंग से, सुगम बना स्वविचार । सुधी समझता अन्य के, सूक्ष्म कथन का सार ॥ 425 मैत्री उत्तम जगत की, करते हैं धीमान । खिल कर सकुचाती नहीं, सुधी-मित्रता बान ॥ 426 जैसा लोकाचार है, उसके ही उपयुक्त । जो करना है आचारण, वही सुधी के युक्त ॥ 427 बुद्धिमान वे हैं जिन्हें, है भविष्य का ज्ञान । बुद्धिहीन वे हैं जिन्हें, प्राप्त नहीं वह ज्ञान ॥ 428 निर्भयता भेतव्य से, है जड़ता का नाम । भय रखना भेतव्य से, रहा सुधी का काम ॥ 429 जो भावी को जान कर, रक्षा करता आप । दुःख न दे उस प्राज्ञ को, भयकारी संताप ॥ 430 सब धन से संपन्न हैं, जो होते मतिमान । चाहे सब कुछ क्यों न हो, मूर्ख दरिद्र समान ॥

अध्याय 44. दोष-निवारण

431 काम क्रोध मद दोष से, जो होते हैं मुक्त । उनकी जो बढ़ती हुई, होती महिमा-युक्त ॥ 432 हाथ खींचना दान से, रखना मिथ्या मान । नृप का अति दाक्षिण्य भी, मानो दोष अमान ॥ 433 निन्दा का डर है जोन्हें, तिलभर निज अपराध । होता तो बस ताड़ सम, मानें उसे अगाध ॥ 434 बचकर रहना दोष से, लक्ष्य मान अत्यंत । परम शत्रु है दोष ही, जो कर देगा अंत ॥ 435 दोष उपस्थिति पूर्व ही, किया न जीवन रक्ष । तो वह मिटता है यथा, भूसा अग्नि समक्ष ॥ 436 दोष-मुक्त कर आपको, बाद पराया दाष । जो देखे उस भूप में, हो सकता क्या दोष ॥ 437 जो धन में आसक्त है, बिना किये कर्तव्य । जमता उसके पास जो, व्यर्थ जाय वह द्रव्य ॥ 438 धनासक्ति जो लोभ है, वह है दोष विशेश | अन्तर्गत उनके नहीं, जितने दोष अशेष ॥ 439 श्रेष्ठ समझ कर आपको, कभी न कर अभिमान । चाह न हो उस कर्म की, जो न करे कल्याण ॥ 440 भोगेगा यदि गुप्त रख, मनचाहा सब काम । रिपुओं का षड्‍यंत्र तब, हो जावे बेकाम ॥

अध्याय 45. सत्संग-लाभ

441 ज्ञानवृद्ध जो बन गये, धर्म-सूक्ष्म को जान । मैत्री उनकी, ढ़ंग से, पा लो महत्व जान ॥ 442 आगत दुःख निवार कर, भावी दुःख से त्राण । करते जो, अपना उन्हें, करके आदर-मान ॥ 443 दुर्लभ सब में है यही, दुर्लभ भाग्य महान । स्वजन बनाना मान से, जो हैं पुरुष महान ॥ 444 करना ऐसा आचरण, जिससे पुरुष महान । बन जावें आत्मीय जन, उत्तम बल यह जान ॥ 445 आँख बना कर सचिव को, ढोता शासन-भार । सो नृप चुन ले सचिव को, करके सोच विचार ॥ 446 योग्य जनों का बन्धु बन, करता जो व्यवहार । उसका कर सकते नहीं, शत्रु लोग अपकार ॥ 447 दोष देख कर डाँटने जब हैं मित्र सुयोग्य । तब नृप का करने अहित, कौन शत्रु है योग्य ॥ 448 डांट-डपटते मित्र की, रक्षा बिन नरकंत । शत्रु बिना भी हानिकर, पा जाता है अंत ॥ 449 बिना मूलधन वणिक जन, पावेंगे नहिं लाभ । सहचर-आश्रय रहित नृप, करें न स्थिरता लाभ ॥ 450 बहुत जनों की शत्रुता, करने में जो हानि । उससे बढ़ सत्संग को, तजने में है हानि ॥

अध्याय 46. कुसंग-वर्जन

451 ओछों से डरना रहा, उत्तम जन की बान । गले लगाना बन्धु सम, है ओछों की बान ॥ 452 मिट्टी गुणानुसार ज्यों, बदले वारि-स्वभाव । संगति से त्यों मनुज का, बदले बुद्धि-स्वभाव ॥ 453 मनोजन्य है मनुज का, प्राकृत इन्द्रियज्ञान । ऐसा यह यों नाम तो, संग-जन्य है जान ॥ 454 मनोजन्य सा दीखता, भले बुरे का ज्ञान । संग-जन्य रहता मगर, नर का ऐसा ज्ञान ॥ 455 मन की होना शुद्धता, तथा कर्म की शुद्धि । दोनों का अवलंब है, संगति की परिशुद्धि ॥ 456 पातें सत्सन्तान हैं, जिनका है मन शुद्ध । विफल कर्म होता नहीं, जिनका रंग विशुद्ध ॥ 457 मन की शुद्धि मनुष्य को, देती है ऐश्वर्य । सत्संगति तो फिर उसे, देती सब यश वर्य ॥ 458 शुद्ध चित्तवाले स्वतः, रहते साधु महान । सत्संगति फिर भी उन्हें, करती शक्ति प्रदान ॥ 459 चित्त-शुद्धि परलोक का, देती है आनन्द । वही शुद्धि सत्संग से होती और बुलन्द ॥ 460 साथी कोई है नहीं, साध- संग से उच्च । बढ़ कर कुसंग से नहीं, शत्रु हानिकर तुच्छ ॥

अध्याय 47. सुविचारित कार्य-कुशलता

461 कर विचार व्यय-आय का, करना लाभ-विचार । फिर हो प्रवृत्त कार्य में, करके सोच-विचार ॥ 462 आप्तों से कर मंत्रणा, करता स्वयं विचार । उस कर्मी को है नहीं, कुछ भी असाध्य कार ॥ 463 कितना भावी लाभ हो, इसपर दे कर ध्यान । पूँजी-नाशक कर्म तो, करते नहिं मतिमान ॥ 464 अपयश के आरोप से, जो होते हैं भीत । शुरू न करते कर्म वे, स्पष्ट न जिसकी रीत ॥ 465 टूट पडे जो शत्रु पर, बिन सोचे सब मर्म । शत्रु-गुल्म हित तो बने, क्यारी ज्यों वह कर्म ॥ 466 करता अनुचित कर्म तो, होता है नर नष्ट । उचित कर्म को छोड़ता, तो भी होता नष्ट ॥ 467 होना प्रवृत्त कर्म में, करके सोच-विचार । ‘हो कर प्रवृत्त सोच लें’, है यह गलत विचार ॥ 468 जो भी साध्य उपाय बिन, किया जायगा यत्न । कई समर्थक क्यों न हों, खाली हो वह यत्न ॥ 469 बिन जाने गुण शत्रु का, यदि उसके अनुकूल । किया गया सदुपाय तो, उससे भी हो भूल ॥ 470 अनुपयुक्त जो है तुम्हें, जग न करे स्वीकार । करना अनिंध कार्य ही, करके सोच-विचार ॥

अध्याय 48. शक्ति का बोध

471 निज बल रिपु-बल कार्य-बल, साथी-बल भी जान । सोच-समझ कर चाहिये, करना कार्य निदान ॥ 472 साध्य कार्य को समझ कर, समझ कार्य हित ज्ञेय । जम कर धावा जो करे, उसको कुछ न अजेय ॥ 473 बोध नहीं निज शक्ति का, वश हो कर उत्साह । कार्य शुरू कर, बीच में, मिटे कई नरनाह ॥ 474 शान्ति-युक्त बरबात बिन, निज बल मान न जान । अहम्मन्य भी जो रहे, शीघ्र मिटेगा जान ॥ 475 मोर-पंख से ही सही, छकड़ा लादा जाय । यदि लादो वह अत्यधिक, अक्ष भग्न हो जाय ॥ 476 चढ़ा उच्चतम डाल पर, फिर भी जोश अनंत । करके यदि आगे बढ़े, होगा जीवन-अंत ॥ 477 निज धन की मात्रा समझ, करो रीती से दान । जीने को है क्षेम से, उचित मार्ग वह जान ॥ 478 तंग रहा तो कुछ नहीं, धन आने का मार्ग । यदि विस्तृत भी ना रहा, धन जाने का मार्ग ॥ 479 निज धन की सीमा समझ, यदि न किया निर्वाह । जीवन समृद्ध भासता, हो जायगा तबाह ॥ 480 लोकोपकारिता हुई, धन-सीमा नहिं जान । तो सीमा संपत्ति की, शीघ्र मिटेगी जान ॥

अध्याय 49. समय का बोध

481 दिन में उल्लू पर विजय, पा लेता है काक । नृप जिगीषु को चाहिये, उचित समय की ताक ॥ 482 लगना जो है कार्य में, अवसर को पहचान । श्री को जाने से जकड़, रखती रस्सी जान ॥ 483 है क्या कार्य असाध्य भी, यदि अवसर को जान । समिचित साधन के सहित, करता कार्य सुजान ॥ 484 चाहे तो भूलोक भी, आ जायेगा हाथ । समय समझ कर यदि करे, युक्त स्थान के साथ ॥ 485 जिनको निश्चित रूप से, विश्व-विजय की चाह । उचित समय की ताक में, वें हैं बेपरवाह ॥ 486 रहता है यों सिकुड़ नृप, रखते हुए बिसात । ज्यों मेढ़ा पीछे हटे, करने को आघात ॥ 487 रूठते न झट प्रगट कर, रिपु-अति से नरनाह । पर कुढ़ते हैं वे सुधी, देख समय की राह ॥ 488 रिपु को असमय देख कर, सिर पर ढो संभाल । सिर के बल गिर वह मिटे, आते अन्तिम काल ॥ 489 दुर्लभ अवसर यदि मिले, उसको खोने पूर्व । करना कार्य उसी समय, जो दुष्कर था पूर्व ॥ 490 बक सम रहना सिकुड़ कर, जब करना नहिं वार । चोंच-मार उसकी यथा, पा कर समय, प्रहार ॥

अध्याय 50. स्थान का बोध

491 कोई काम न कर शुरू, तथा न कर उपहास । जब तक रिपु को घेरने, स्थल की है नहिं आस ॥ 492 शत्रु-भाव से पुष्ट औ’, जो हों अति बलवान । उनको भी गढ़-रक्ष तो, बहु फल करे प्रदान ॥ 493 निर्बल भी बन कर सबल, पावें जय-सम्मान । यदि रिपु पर धावा करें, ख़ोज सुरक्षित स्थान ॥ 494 रिपु निज विजय विचार से, धो बैठेंगे हाथ । स्थान समझ यदि कार्य में, जुड़ते दृढ नरनाथ ॥ 495 गहरे जल में मगर की, अन्यों पर हो जीत । जल से बाहर अन्य सब, पावें जय विपरीत ॥ 496 भारी रथ दृढ चक्रयुत, चले न सागर पार । सागरगामी नाव भी, चले न भू पर तार ॥ 497 निर्भय के अतिरिक्त तो, चाहिये न सहकार । उचित जगह पर यदि करें, खूब सोच कर कार ॥ 498 यदि पाता लघु-सैन्य-युत, आश्रय स्थल अनुकूल । उसपर चढ़ बहु-सैन्य युत, होगा नष्ट समूल ॥ 499 सदृढ़ दुर्ग साधन बड़ा, है नहिं रिपु के पास । फिर भी उसके क्षेत्र में, भिड़ना व्यर्थ प्रयास ॥ 500 जिस निर्भय गजराज के, दन्तलग्न बरछैत । गीदड़ भी मारे उसे, जब दलदल में कैंद ॥

अध्याय 51. परख कर विश्वास करना

501 धर्म-अर्थ औ’ काम से, मिला प्राण-भय चार । इन उपधाओं से परख, विश्वस्त है विचार ॥ 502 जो कुलीन निर्दोष हो, निन्दा से भयभीत । तथा लजीला हो वही, विश्वस्त है पुनीत ॥ 503 ज्ञाता विशिष्ट शास्त्र के, औ’ निर्दोष स्वभाव । फिर भी परखो तो उन्हें, नहिं अज्ञता-अभाव ॥ 504 परख गुणों को फिर परख, दोषों को भी छान । उनमें बहुतायत परख, उससे कर पहचान ॥ 505 महिमा या लघिमा सही, इनकी करने जाँच । नर के निज निज कर्म ही, बनें कसौटी साँच ॥ 506 विश्वसनीय न मानिये, बन्धुहीन जो लोग । निन्दा से लज्जित न हैं, स्नेह शून्य वे लोग ॥ 507 मूर्ख जनों पर प्रेमवश, जो करता विश्वास । सभी तरह से वह बने, जड़ता का आवास । 508 परखे बिन अज्ञात पर, किया अगर विश्वास । संतित को चिरकाल तक, लेनी पड़े असाँस ॥ 509 किसी व्यक्ति पर मत करो, परखे बिन विश्वास । बेशक सौंपो योग्य यद, करने पर विश्वास ॥ 510 परखे बिन विश्वास भी, औ’ करके विश्वास । फिर करना सन्देह भी, देते हैं चिर नाश ॥

अध्याय 52. परख कर कार्य सौंपना

511 भले-बुरे को परख जो, करता भला पसंद । उसके योग्य नियुक्ति को, करना सही प्रबन्ध ॥ 512 आय-वृद्धि-साधन बढ़ा, धन-वर्द्धक कर कार्य । विघ्न परख जो टालता, वही करे नृप-कार्य ॥ 513 प्रेम, बुद्धि, दृढ़-चित्तता, निर्लोभता-सुनीति । चारों जिसमें पूर्ण हों, उसपर करो प्रतीति ॥ 514 सभी तरह की परख से, योग्य दिखें जो लोग । उनमें कार्य निबाहते, विकृत बने बहु लोग ॥ 515 जो करता है धैर्य से, खूब समझ सदुपाय । उसे छोड़ प्रिय बन्धु को, कार्य न सौंपा जाय ॥ 516 कर्ता का लक्षण परख, परख कर्म की रीति । संयोजित कर काल से, सौंपों सहित प्रतीति ॥ 517 इस साधन से व्यक्ति यह, कर सकता यह कार्य । परिशीलन कर इस तरह, सौंप उसे वह कार्य ॥ 518 यदि पाया इक व्यक्ति को, परख कार्य के योग्य । तो फिर उसे नियुक्त कर, पदवी देना योग्य ॥ 519 तत्परता-वश कार्य में, हुआ मित्र व्यवहार । उसको समझे अन्यता, तो श्री जावे पार ॥ 520 राज-भृत्य यदि विकृत नहिं, विकृत न होगा राज । रोज़ परखना चाहिये, नृप को उसका काज ॥

अध्याय 53. बन्धुओं को अपनाना

521 यद्यपि निर्धन हो गये, पहले कृत उपकार । कहते रहे बखान कर, केवल नातेदार ॥ 522 बन्धु-वर्ग ऐसा मिले, जिसका प्रेम अटूट । तो वह दे संपत्ति सब , जिसकी वृद्धि अटूट ॥ 523 मिलनसार जो है नहीं, जीवन उसका व्यर्थ । तट बिन विस्तृत ताल ज्यों, भरता जल से व्यर्थ ॥ 524 अपने को पाया धनी, तो फल हो यह प्राप्त । बन्धु-मंडली घिर रहे, यों रहना बन आप्त ॥ 525 मधुर वचन जो बोलता, करता भी है दान । बन्धुवर्ग के वर्ग से, घिरा रहेगा जान ॥ 526 महादान करते हुए, जो है क्रोध-विमुक्त । उसके सम भू में नहीं, बन्धुवर्ग से युक्त ॥ 527 बिना छिपाये काँव कर, कौआ खाता भोज्य । जो हैं उसी स्वभाव के, पाते हैं सब भोग्य ॥ 528 सब को सम देखे नहीं, देखे क्षमता एक । इस गुण से स्थायी रहें, नृप के बन्धु अनेक ॥ 529 बन्धु बने जो जन रहे, तोड़े यदि बन्धुत्व । अनबन का कारण मिटे, तो बनता बन्धुत्व ॥ 530 कारण बिन जो बिछुड़ कर, लौटे कारण साथ । साध-पूर्ति कर नृप उसे, परख, मिला के साथ ॥

अध्याय 54. अविस्मृति

531 अमित हर्ष से मस्त हो, रहना असावधान । अमित क्रोध से भी अधिक, हानि करेगा जान ॥ 532 ज्यों है नित्यदारिद्रता, करती बुद्धि-विनाश । त्यों है असावधानता, करती कीर्ति-विनाश ॥ 533 जो विस्मृत हैं वे नहीं, यश पाने के योग । जग में यों हैं एकमत, शास्त्रकार सब लोग ॥ 534 लाभ नहीं है दुर्ग से, उनको जो भयशील । वैसे उनको ना भला, जो हैं विस्मृतिशील ॥ 535 पहले से रक्षा न की, रह कर असावधान । विपदा आने पर रहा, पछताता अज्ञान ॥ 536 सब जन से सब काल में, अविस्मरण की बान । बरती जाय अचूक तो, उसके है न समान ॥ 537 रह कर विस्मृति के बिना, सोच-समझ कर कार्य । यदि करता है तो उसे, कुछ नहिं असाध्य कार्य ॥ 538 करना श्रद्धा-भाव से, शास्त्रकार-स्तुत काम । रहा उपेक्षक, यदि न कर, सात जन्म बेकाम ॥ 539 जब अपने संतोष में, मस्त बनेंगे आप । गफलत से जो हैं मिटे, उन्हें विचारो आप ॥ 540 बना रहेगा यदि सदा, लक्ष्य मात्र का ध्यान । अपने इच्छित लक्ष्य को, पाना है आसान ॥

अध्याय 55. सुशासन

541 सबसे निर्दाक्षिण्य हो, सोच दोष की रीती । उचित दण्ड़ निष्पक्ष रह, देना ही है नीति ॥ 542 जीवित हैं ज्यों जीव सब, ताक मेघ की ओर । प्रजा ताक कर जी रही, राजदण्ड की ओर ॥ 543 ब्राहमण-पोषित वेद औ’, उसमें प्रस्तुत धर्म । इनका स्थिर आधार है, राजदण्ड का धर्म ॥ 544 प्रजा-पाल जो हो रहा, ढोता शासन-भार । पाँव पकड़ उस भूप के, टिकता है संसार ॥ 545 है जिस नृप के देश में, शासन सुनीतिपूर्ण । साथ मौसिमी वृष्टि के, रहे उपज भी पूर्ण ॥ 546 रजा को भाला नहीं, जो देता है जीत । राजदण्ड ही दे विजय, यदि उसमें है सीध ॥ 547 रक्षा सारे जगत की, करता है नरनाथ । उसका रक्षक नीति है, यदि वह चले अबाध ॥ 548 न्याय करे नहिं सोच कर, तथा भेंट भी कष्ट । ऐसा नृप हो कर पतित, होता खुद ही नष्ट ॥ 549 जन-रक्षण कर शत्रु से, करता पालन-कर्म । दोषी को दे दण्ड तो, दोष न, पर नृप-धर्म ॥ 550 यथा निराता खेत को, रखने फसल किसान । मृत्यु-दण्ड नृप का उन्हें, जो हैं दुष्ट महान ॥

अध्याय 56. क्रूर-शासन

551 हत्यारे से भी अधिक, वह राजा है क्रूर । जो जन को हैरान कर, करे पाप भरपूर ॥ 552 भाला ले कर हो खड़े, डाकू की ज्यों माँग । राजदण्डयुत की रही, त्यों भिक्षा की माँग ॥ 553 दिन दिन नीति विचार कर, नृप न करे यदि राज । ह्रासोन्मुख होता रहे, दिन दिन उसका राज ॥ 554 नीतिहीन शासन करे, बिन सोचे नरनाथ । तो वह प्रजा व वित्त को, खो बैठे इक साथ ॥ 555 उतपीड़ित जन रो पड़े, जब वेदना अपार । श्री का नाशक शास्त्र है, क्या न नेत्र-जल-धार ॥ 556 नीतिपूर्ण शासन रखे, नृप का वश चिरकाल । नीति न हो तो, भूप का, यश न रहे सब काल ॥ 557 अनावृष्टि से दुःख जो, पाती भूमि अतीव । दयावृष्टि बिन भूप की, पाते हैं सब जिव ॥ 558 अति दुःखद है सधनता, रहने से धनहीन । यदि अन्यायी राज के, रहना पड़े अधीन ॥ 559 यदि राजा शासन करे, राजधर्म से चूक । पानी बरसेगा नहीं, ऋतु में बादल चूक ॥ 560 षटकर्मी को स्मृति नहीं, दूध न देगी गाय । यदि जन-रक्षक भूप से, रक्षा की नहिं जाय ॥

अध्याय 57. भयकारी कर्म न करना

561 भूप वही जो दोष का, करके उचित विचार । योग्य दण्ड से इस तरह, फिर नहिं हो वह कार ॥ 562 राजश्री चिरकाल यदि, रखना चाहें साथ । दिखा दण्ड की उग्रता, करना मृदु आघात ॥ 563 यदि भयकारी कर्म कर, करे प्रजा को त्रस्त । निश्चय जल्दी कूर वह, हो जावेगा अस्त ॥ 564 जिस नृप की दुष्कीर्ति हो, ‘राजा है अति क्रूर’ । अल्प आयु हो जल्द वह, होगा नष्ट ज़रूर ॥ 565 अप्रसन्न जिसका वदन, भेंट नहीं आसान । ज्यों अपार धन भूत-वश, उसका धन भी जान ॥ 566 कटु भाषी यदि हो तथा, दया-दृष्टि से हीन । विपुल विभव नृप का मिटे, तत्क्षण हो स्थितिहीन ॥ 567 कटु भाषण नृप का तथा, देना दण्ड अमान । शत्रु-दमन की शक्ति को, घिसती रेती जान ॥ 568 सचिवों की न सलाह ले, फिर होने पर कष्ट । आग-बबूला नृप हुआ, तो श्री होगी नष्ट ॥ 569 दुर्ग बनाया यदि नहीं, रक्षा के अनुरूप । युद्ध छिड़ा तो हकबका, शीघ्र मिटे वह भूप ॥ 570 मूर्खों को मंत्री रखे, यदि शासक बहु क्रूर । उनसे औ’ नहिं भूमि को, भार रूप भरपूर ॥

अध्याय 58.दया-दृष्टि

571 करुणा रूपी सोहती, सुषमा रही अपार । नृप में उसके राजते, टिकता है संसार ॥ 572 करुणा से है चल रहा, सांसारिक व्यवहार । जो नर उससे रहित है, केवल भू का भार ॥ 573 मेल न हो तो गान से, तान करे क्या काम । दया न हो तो दृष्टि में, दृग आये क्या काम ॥ 574 करुणा कलित नयन नहीं, समुचित सीमाबद्ध । तो क्या आवें काम वे, मुख से रह संबन्ध ॥ 575 आभूषण है नेत्र का, करुणा का सद्‍भाव । उसके बिन जाने उसे, केवल मुख पर घाव ॥ 576 रहने पर भी आँख के, जिसके है नहिं आँख । यथा ईख भू में लगी, जिसके भी हैं आँख ॥ 577 आँखहीन ही हैं मनुज, यदि न आँख का भाव । आँखयुक्त में आँख का, होता भी न अभाव ॥ 578 हानि बिना निज धर्म की, करुणा का व्यवहार । जो कर सकता है उसे, जग पर है अधिकार ॥ 579 अपनी क्षति भी जो करे, उसपर करुणा-भाव । धारण कर, करना क्षमा, नृप का श्रेष्ठ स्वभाव ॥ 580 देख मिलाते गरल भी, खा जाते वह भोग । वाँछनीय दाक्षिण्य के, इच्छुक हैं जो लोग ॥

अध्याय 59. गुप्तचर-व्यवस्था

581 जो अपने चर हैं तथा, नीतिशास्त्र विख्यात । ये दोनों निज नेत्र हैं, नृप को होना ज्ञात ॥ 582 सब पर जो जो घटित हों, सब बातें सब काल । राजधर्म है जानना, चारों से तत्काल ॥ 583 बात चरों से जानते, आशय का नहिं ज्ञान । तो उस नृप की विजय का, मार्ग नहीं है आन ॥ 584 राजकर्मचारी, स्वजन, तथा शत्रु जो वाम । सब के सब को परखना, रहा गुप्तचर-काम ॥ 585 रूप देख कर शक न हो, आँख हुई, निर्भीक । कहीं कहे नहिं मर्म को, सक्षम वह चर ठीक ॥ 586 साधु वेष में घुस चले, पता लगाते मर्म । फिर कुछ भी हो चुप रहे, यही गुप्तचर-कर्म ॥ 587 भेद लगाने में चतुर, फिर जो बातें ज्ञात । उनमें संशयरहित हो, वही भेदिया ख्यात ॥ 588 पता लगा कर भेद का, लाया यदि इक चार । भेद लगा फिर अन्य से, तुलना कर स्वीकार ॥ 589 चर चर को जाने नहीं, यों कर शासन-कर्म । सत्य मान, जब तीन चर, कहें एक सा मर्म ॥ 590 खुले आम जासूस का, करना मत सम्मान । अगर किया तो भेद को, प्रकट किया खुद जान ॥

अध्याय 60. उत्साहयुक्तता

591 धनी कहाने योग्य है, यदि हो धन उत्साह । उसके बिन यदि अन्य धन, हो तो क्या परवाह ॥ 592 एक स्वत्व उत्साह है, स्थायी स्वत्व ज़रूर । अस्थायी रह अन्य धन, हो जायेंगे दूर ॥ 593 रहता जिनके हाथ में, उमंग का स्थिर वित्त । ‘वित्त गया’ कहते हुए, ना हों अधीर-चित्त ॥ 594 जिस उत्साही पुरुष का, अचल रहे उत्साह । वित्त चले उसके यहाँ, पूछ-ताछ कर राह ॥ 595 जलज-नाल उतनी बड़ी, जितनी जल की थाह । नर होता उतना बड़ा, जितना हो उत्साह ॥ 596 जो विचार मन में उठें, सब हों उच्च विचार । यद्यपि सिद्ध न उच्चता, विफल न वे सुविचार ॥ 597 दुर्गति में भी उद्यमी, होते नहीं अधीर । घायल भी शर-राशि से, गज रहता है धीर ॥ 598 ‘हम तो हैं इस जगत में, दानी महा धुरीण’ । कर सकते नहिं गर्व यों, जो हैं जोश-विहीन ॥ 599 यद्यपि विशालकाय है, तथा तेज़ हैं दांत । डरता है गज बाघ से, होने पर आक्रांत ॥ 600 सच्ची शक्ति मनुष्य की, है उत्साह अपार । उसके बिन नर वृक्ष सम, केवल नर आकार ॥

अध्याय 61. आलस्यहीनता

601 जब तम से आलस्य के, आच्छादित हो जाय । अक्षय दीप कुटुंब का, मंद मंद बुझ जाय ॥ 602 जो चाहें निज वंश का, बना रहे उत्कर्ष । नाश करें आलस्य का, करते उसका धर्ष ॥ 603 गोद लिये आलस्य को, जो जड़ करे विलास । होगा उसके पूर्व ही, जात-वंश का नाश ॥ 604 जो सुस्ती में मग्न हों, यत्न बिना सुविशेष । तो उनका कुल नष्ट हो, बढ़ें दोष निःशेष ॥ 605 दीर्घसूत्रता, विस्मरण, सुस्ती, निद्रा-चाव । जो जन चाहें डूबना, चारों हैं प्रिय नाव ॥ 606 सार्वभौम की श्री स्वयं, चाहे आवे पास । तो भी जो हैं आलसी, पावें नहिं फल ख़ास ॥ 607 सुस्ती-प्रिय बन, यत्न सुठि, करते नहिं जो लोग । डांट तथा उपहास भी, सुनते हैं वे लोग ॥ 608 घर कर ले आलस्य यदि, रह कुलीन के पास । उसके रिपु के वश उसे, बनायगा वह दास ॥ 609 सुस्ती-पालन बान का, कर देगा यदि अंत । वंश और पुरुषार्थ में, लगे दोष हों अंत ॥ 610 क़दम बढ़ा कर विष्णु ने, जिसे किया था व्याप्त । वह सब आलसहीन नृप, करे एकदम प्राप्त ॥

अध्याय 62. उद्यमशीलता

611 दुष्कर यह यों समझकर, होना नहीं निरास । जानो योग्य महानता, देगा सतत प्रयास ॥ 612 ढीला पड़ना यत्न में, कर दो बिलकुल त्याग । त्यागेंगे जो यत्न को, उन्हें करे जग त्याग ॥ 613 यत्नशीलता जो रही, उत्तम गुणस्वरूप । उसपर स्थित है श्रेष्ठता, परोपकार स्वरूप ॥ 614 यों है उद्यमरहित का, करना परोपकार । कोई कायर व्यर्थ ज्यों, चला रहा तलवार ॥ 615 जिसे न सुख की चाह है, कर्म-पूर्ति है चाह । स्तंभ बने वह थामता, मिटा बन्धुजन-आह ॥ 616 बढ़ती धन-संपत्ति की, कर देता है यत्न । दारिद्रय को घुसेड़ कर, देता रहे अयत्न ॥ 617 करती है आलस्य में, काली ज्येष्ठा वास । यत्नशील के यत्न में, कमला का है वास ॥ 618 यदि विधि नहिं अनुकूल है, तो न किसी का दोष । खूब जान ज्ञातव्य को, यत्न न करना दोष ॥ 619 यद्यपि मिले न दैववश, इच्छित फल जो भोग्य । श्रम देगा पारिश्रमिक, निज देह-श्रम-योग्य ॥ 620 विधि पर भी पाते विजय, जो हैं उद्यमशील । सतत यत्न करते हुए, बिना किये कुछ ढील ॥

अध्याय 63. संकट में अनाकुलता

621 जब दुख-संकट आ पड़े, तब करना उल्लास । तत्सम कोई ना करे, भिड़ कर उसका नाश ॥ 622 जो आवेगा बाढ़ सा, बुद्धिमान को कष्ट । मनोधैर्य से सोचते, हो जावे वह नष्ट ॥ 623 दुख-संकट जब आ पड़े, दुखी न हो जो लोग । दुख-संकट को दुख में, डालेंगे वे लोग ॥ 624 ऊबट में भी खींचते, बैल सदृष जो जाय । उसपर जो दुख आ पड़े, उस दुख पर दुख आय ॥ 625 दुख निरंतर हो रहा, फिर भी धैर्य न जाय । ऐसों को यदि दुख हुआ, उस दुख पर दुख आय ॥ 626 धन पा कर, आग्रह सहित, जो नहिं करते लोभ । धन खो कर क्या खिन्न हो, कभी करेंगे क्षोभ ॥ 627 देह दुख का लक्ष्य तो, होती है यों जान । क्षुब्ध न होते दुख से, जो हैं पुरुष महान ॥ 628 विधिवश होता दुख है, यों जिसको है ज्ञान । तथा न सुख की चाह भी, दुखी न हो वह प्राण ॥ 629 सुख में सुख की चाह से, जो न करेगा भोग । दुःखी होकर दुःख में, वह न करेगा शोक ॥ 630 दुख को भी सुख सदृश ही, यदि ले कोई मान । तो उसको उपलब्ध हो, रिपु से मानित मान ॥

अध्याय 64. अमात्य

631 साधन, काल, उपाय औ’, कार्यसिद्धि दुस्साध्य । इनका श्रेष्ठ विधान जो, करता वही अमात्य ॥ 632 दृढ़ता, कुल-रक्षण तथा, यत्न, सुशिक्षा, ज्ञान । पाँच गुणों से युक्त जो, वही अमात्य सुजान ॥ 633 फूट डालना शत्रु में, पालन मैत्री-भाव । लेना बिछुड़ों को मिला, योग्य आमात्य-स्वभाव ॥ 634 विश्लेषण करता तथा, परख कार्य को साध्य । दृढ़ता पूर्वक मंत्रणा, देता योग्य अमात्य ॥ 635 धर्म जान, संयम सहित, ज्ञानपूर्ण कर बात । सदा समझता शक्ति को, साथी है वह ख्यात ॥ 636 शास्त्र जानते जो रहा, सूक्ष्म बुद्धि का भौन । उसका करते सामना, सूक्ष्म प्रश्न अति कौन ॥ 637 यद्यपि विधियों का रहा, शास्त्र रीति से ज्ञान । फिर भी करना चाहिये, लोकरीति को जान ॥ 638 हत्या कर उपदेश की, खुद हो अज्ञ नरेश । फिर भी धर्म अमात्य का, देना दृढ़ उपदेश ॥ 639 हानि विचारे निकट रह, यदि दुर्मंत्री एक । उससे सत्तर कोटि रिपु, मानों बढ़ कर नेक ॥ 640 यद्यपि क्रम से सोच कर, शुरू करे सब कर्म । जिनमें दृढ़ क्षमता नहीं, करें अधूरा कर्म ॥

अध्याय 65. वाक्- पटुत्व

641 वाक्‌- शक्ति की संपदा, है मंत्री को श्रेष्ठ । उनके अन्तर्गत नहीं, जो गुण अन्य यथेष्ट ॥ 642 अपनी वाणी ही रही, लाभ- हानि का मूल । इससे रहना सजग़ हो, न हो बोलते भूल ॥ 643 जो सुनते वश में पडे, भाषण वही समर्थ । वे भी जो सुनते नहीं, चाहें गुण के अर्थ ॥ 644 शक्ति समझ कर चाहिये, करना शब्द प्रयोग । इससे बढ़ कर है नहीं, धर्म अर्थ का योग ॥ 645 बात बताना जान यह, अन्य न कोई बात । ऐसी जो उस बात को, कर सकती है मात ॥ 646 सारग्रहण पर-वचन का, स्वयं करे प्रिय बात । निर्मल गुणयुत सचिव में, है यह गुण विख्यात ॥ 647 भाषण-पटु, निर्भय तथा, रहता जो अश्रान्त । उसपर जय प्रतिवाद में, पाना कठिन नितान्त ॥ 648 भाषण- पटु जो ढंग से, करता मीठी बात । यदि पाये तो जगत झट, माने उसकी बात ॥ 649 थोडे बचन दोष रहित, कहने में असमर्थ । निश्चय वे हैं चाहते, बहुत बोलना व्यर्थ ॥ 650 पठित ग्रन्थ व्याख्या सहित, प्रवचन में असमर्थ । खिला किन्तु खुशबू रहित, पुष्य-गुच्छ सम व्यर्थ ॥

अध्याय 66. कर्म-शुद्धि

651 साथी की परिशुद्धता, दे देती है प्रेय । कर्मों की परिशुद्धता, देती है सब श्रेय ॥ 652 सदा त्यागना चाहिये, जो हैं ऐसे कर्म । कीर्ति-लाभ के साथ जो, देते हैं नहिं धर्म ॥ 653 ‘उन्नति करनी चाहिये’, यों जिनको हो राग । निज गौरव को हानिकर, करें कर्म वे त्याग ॥ 654 यद्यपि संकट-ग्रस्त हों, जिनका निश्चल ज्ञान । निंद्य कर्म फिर भी सुधी, नहीं करेंगे जान ॥ 655 जिससे पश्चात्ताप हो, करो न ऐसा कार्य । अगर किया तो फिर भला, ना कर ऐसा कार्य ॥ 656 जननी को भूखी सही, यद्यपि देखा जाय । सज्जन-निन्दित कार्य को, तो भी किया न जाय ॥ 657 दोष वहन कर प्राप्त जो, सज्जन को ऐश्वर्य । उससे अति दारिद्रय ही, सहना उसको वर्य ॥ 658 वर्ज किये बिन वर्ज्य सब, जो करता दुष्कर्म । कार्य-पूर्ति ही क्यों न हो, पीड़ा दें वे कर्म ॥ 659 रुला अन्य को प्राप्त सब, रुला उसे वह जाय । खो कर भी सत्संपदा, पीछे फल दे जाय ॥ 660 छल से धन को जोड़ कर, रखने की तदबीर । कच्चे मिट्टी कलश में, भर रखना ज्यों नीर ॥

अध्याय 67. कर्म में दृढ़ता

661 दृढ़ रहना ही कर्म में, मन की दृढ़ता जान । दृढ़ता कहलाती नहीं, जो है दृढ़ता आन ॥ 662 दुष्ट न करना, यदि हुआ, तो फिर न हो अधीर । मत यह है नीतिज्ञ का, दो पथ मानें मीर ॥ 663 प्रकट किया कर्मान्त में, तो है योग्य सुधीर । प्रकट किया यदि बीच में, देगा अनन्त पीर ॥ 664 कहना तो सब के लिये, रहता है आसान । करना जो जैसा कहे, है दुस्साध्य निदान ॥ 665 कीर्ति दिला कर सचित को, कर्म-निष्ठता-बान । नृप पर डाल प्रभाव वह, पावेगी सम्मान ॥ 666 संकल्पित सब वस्तुएँ, यथा किया संकल्प । संकल्पक का जायगा, यदि वह दृढ़-संकल्प ॥ 667 तिरस्कार करना नहीं, छोटा क़द अवलोक । चलते भारी यान में, अक्ष-आणि सम लोग ॥ 668 सोच समझ निश्चय किया, करने का जो कर्म । हिचके बिन अविलम्ब ही, कर देना वह कर्म ॥ 669 यद्यपि होगा बहुत दुख, दृढ़ता से काम । सुख-फल दायक ही रहा, जिसका शुभ परिणाम ॥ 670 अन्य विषय में सदृढ़ता, रखते सचिव सुजान । यदि दृढ़ता नहिं कर्म की, जग न करेगा मान ॥

अध्याय 68. कर्म करने की रीति

671 निश्चय कर लेना रहा, विचार का परिणाम । हानि करेगा देर से, रुकना निश्चित काम ॥ 672 जो विलम्ब के योग्य है, करो उसे सविलम्ब । जो होना अविलम्ब ही, करो उसे अविलम्ब ॥ 673 जहाँ जहाँ वश चल सके, भलाकार्य हो जाय । वश न चले तो कीजिये, संभव देख उपाय ॥ 674 कर्म-शेष रखना तथा, शत्रु जनों में शेष । अग्नि-शेष सम ही करें, दोनों हानि विशेष ॥ 675 धन साधन अवसर तथा, स्थान व निश्चित कर्म । पाँचों पर भ्रम के बिना, विचार कर कर कर्म ॥ 676 साधन में श्रम, विघ्न भी, पूरा हो जब कर्म । प्राप लाभ कितना बड़ा, देख इन्हें कर कर्म ॥ 677 विधि है कर्मी को यही, जब करता है कर्म । उसके अति मर्मज्ञ से, ग्रहण करे वह मर्म ॥ 678 एक कर्म करते हुए, और कर्म हो जाय । मद गज से मद-मत्त गज, जैसे पकड़ा जाय ॥ 679 करने से हित कार्य भी, मित्रों के उपयुक्त । शत्रु जनों को शीघ्र ही, मित्र बनाना युक्त ॥ 680 भीति समझकर स्वजन की, मंत्री जो कमज़ोर । संधि करेंगे नमन कर, रिपु यदि है बरज़ोर ॥

अध्याय 69. दूत

681 स्नेहशीलता उच्चकुल, नृप-इच्छित आचार । राज-दूत में चाहिये, यह उत्तम संस्कार ॥ 682 प्रेम बुद्धिमानी तथा, वाक्शक्ति सविवेक । ये तीनों अनिवार्य हैं, राजदूत को एक ॥ 683 रिपु-नृप से जा जो करे, निज नृप की जय-बात । लक्षण उसका वह रहे, विज्ञों में विख्यात ॥ 684 दूत कार्य हित वह चले, जिसके रहें अधीन । शिक्षा अनुसंधानयुत, बुद्धि, रूप ये तीन ॥ 685 पुरुष वचन को त्याग कर, करे समन्वित बात । लाभ करे प्रिय बोल कर, वही दूत है ज्ञात ॥ 686 नीति सीख हर, हो निडर, कर प्रभावकर बात । समयोचित जो जान ले, वही दूत है ज्ञात ॥ 687 स्थान समय कर्तव्य भी, इनका कर सुविचार । बात करे जो सोच कर, उत्तम दूत निहार ॥ 688 शुद्ध आचरण संग-बल, तथा धैर्य ये तीन । इनके ऊपर सत्यता, लक्षण दूत प्रवीण ॥ 689 नृप को जो संदेशवह, यों हो वह गुण-सिद्ध । भूल चूक भी निंद्य वच, कहे न वह दृढ़-चित्त ॥ 690 चाहे हो प्राणान्त भी, निज नृप का गुण-गान । करता जो भय के बिना, दूत उसी को जान ॥

अध्याय 70. राजा से योग्य व्यवहार

691 दूर न पास न रह यथा, तापों उसी प्रकार । भाव-बदलते भूप से, करना है व्यवहार ॥ 692 राजा को जो प्रिय रहें, उनकी हो नहिं चाह । उससे स्थायी संपदा, दिलायगा नरनाह ॥ 693 यदि बचना है तो बचो, दोषों से विकराल । समाधान सभव नहीं, शक करते नरपाल ॥ 694 कानाफूसी साथ ही, हँसी अन्य के साथ । महाराज के साथ में, छोड़ो इनका साथ ॥ 695 छिपे सुनो मत भेद को, पूछो मत 'क्या बात' । प्रकट करे यदि नृप स्वयं, तो सुन लो वह बात ॥ 696 भाव समझ समयज्ञ हो, छोड़ घृणित सब बात । नृप-मनचाहा ढंग से, कह आवश्यक बात ॥ 697 नृप से वांछित बात कह, मगर निरर्थक बात । पूछें तो भी बिन कहे, सदा त्याग वह बात ॥ 698 ‘छोटे हैं, ये बन्धु हैं’, यों नहिं कर अपमान । किया जाय नरपाल का, देव तुल्य सम्मान ॥ 699 ‘नृप के प्रिय हम बन गये’, ऐसा कर सुविचार । जो हैं निश्चल बुद्धि के, करें न अप्रिय कार ॥ 700 ‘चिरपरिचित हैं’, यों समझ, नृप से दुर्व्यवहार । करने का अधिकार तो, करता हानि अपार ॥

अध्याय 71. भावज्ञता

701 बिना कहे जो जान ले, मुख-मुद्रा से भाव । सदा रहा वह भूमि का, भूषण महानुभाव ॥ 702 बिना किसी संदेह के, हृदयस्थित सब बात । जो जाने मानो उसे, देव तुल्य साक्षात ॥ 703 मनोभाव मुख-भाव से, जो जानता निहार । अंगों में कुछ भी दिला, करो उसे स्वीकार ॥ 704 बिना कहे भावज्ञ हैं, उनके सम भी लोग । आकृति में तो हैं मगर, रहें भिन्न वे लोग ॥ 705 यदि नहिं जाना भाव को, मुख-मुद्रा अवलोक । अंगों में से आँख का, क्या होगा उपयोग ॥ 706 बिम्बित करता स्फटिक ज्यों, निकट वस्तु का रंग । मन के अतिशय भाव को, मुख करता बहिरंग ॥ 707 मुख से बढ़ कर बोधयुत, है क्या वस्तु विशेष । पहले वह बिम्बित करे, प्रसन्नता या द्वेष ॥ 708 बीती समझे देखकर, यदि ऐसा नर प्राप्त । अभिमुख उसके हो खड़े, रहना है पर्याप्त ॥ 709 बतलायेंगे नेत्र ही, शत्रु-मित्र का भाव । अगर मिलें जो जानते, दृग का भिन्न स्वभाव ॥ 710 जो कहते हैं, ‘हम रहे’, सूक्ष्म बुद्धि से धन्य । मान-दण्ड उनका रहा, केवल नेत्र, न अन्य ॥

अध्याय 72. सभा-ज्ञान

711 शब्द-शक्ति के ज्ञानयुत, जो हैं पावन लोग । समझ सभा को, सोच कर, करना शब्द-प्रयोग ॥ 712 शब्दों की शैली समझ, जिनको है अधिकार । सभासदों का देख रुख़, बोलें स्पष्ट प्रकार ॥ 713 उद्यत हो जो बोलने, सभा-प्रकृति से अज्ञ । भाषण में असमर्थ वे, शब्द-रीति से अज्ञ ॥ 714 प्राज्ञों के सम्मुख रहो, तुम भी प्राज्ञ सुजान । मूर्खों के सम्मुख बनो, चून सफेद समान ॥ 715 भले गुणों में है भला, ज्ञानी गुरुजन मध्य । आगे बढ़ बोलें नहीं, ऐसा संयम पथ्य ॥ 716 विद्वानों के सामने, जिनका विस्तृत ज्ञान । जो पा गया कलंक, वह, योग-भ्रष्ट समान ॥ 717 निपुण पारखी शब्द के, जो हैं, उनके पास । विद्वत्ता शास्त्रज्ञ की, पाती खूब प्रकाश ॥ 718 बुद्धिमान के सामने, जो बोलता सुजान । क्यारी बढ़ती फसल की, यथा सींचना जान ॥ 719 सज्जन-मण्डल में करें, जो प्रभावकर बात । मूर्ख-सभा में भूल भी, करें न कोई बात ॥ 720 यथा उँडेला अमृत है, आंगन में अपवित्र । भाषण देना है वहाँ, जहाँ न गण हैं मित्र ॥

अध्याय 73. सभा में निर्भीकता

721 शब्द शक्ति के ज्ञानयुत, जो जन हैं निर्दोष । प्राज्ञ-सभा में ढब समझ, करें न शब्द सदोष ॥ 722 जो प्रभावकर ढ़ंग से, आर्जित शास्त्र-ज्ञान । प्रगटे विज्ञ-समझ, वह, विज्ञों में विद्वान ॥ 723 शत्रु-मध्य मरते निडर, मिलते सुलभ अनेक । सभा-मध्य भाषण निडर, करते दुर्लभ एक ॥ 724 विज्ञ-मध्य स्वज्ञान की, कर प्रभावकर बात । अपने से भी विज्ञ से, सीखो विशेष बात ॥ 725 सभा-मध्य निर्भीक हो, उत्तर देने ठीक । शब्द-शास्त्र, फिर ध्यान से, तर्क-शास्त्र भी सीख ॥ 726 निडर नहीं हैं जो उन्हें, खाँडे से क्या काम । सभा-भीरु जो हैं उन्हें, पोथी से क्या काम ॥ 727 सभा-भीरु को प्राप्त है, जो भी शास्त्र-ज्ञान । कायर-कर रण-भूमि में, तीक्षण खड्ग समान ॥ 728 रह कर भी बहु शास्त्रविद, है ही नहिं उपयोग । विज्ञ-सभा पर असर कर, कह न सके जो लोग ॥ 729 जो होते भयभीत हैं, विज्ञ-सभा के बीच । रखते शास्त्रज्ञान भी, अनपढ़ से हैं नीच ॥ 730 जो प्रभावकर ढ़ंग से, कह न सका निज ज्ञान । सभा-भीरु वह मृतक सम, यद्यपि है सप्राण ॥

अध्याय 74. राष्ट्र

731 अक्षय उपज सुयोग्य जन, ह्रासहीन धनवान । मिल कर रहते हैं जहाँ, है वह राष्ट्र महान ॥ 732 अति धन से कमनीय बन, नाशहीनता युक्त । प्रचुर उपज होती जहाँ, राष्ट्र वही है उक्त ॥ 733 एक साथ जब आ पड़ें, तब भी सह सब भार । देता जो राजस्व सब, है वह राष्ट्र अपार ॥ 734 भूख अपार न है जहाँ, रोग निरंतर है न । और न नाशक शत्रु भी, श्रेष्ठ राष्ट्र की सैन ॥ 735 होते नहीं, विभिन्न दल, नाशक अंतर-वैर । नृप-कंटक खूनी नहीं, वही राष्ट्र है, ख़ैर ॥ 736 नाश न होता, यदि हुआ, तो भी उपज यथेष्ट । जिसमें कम होती नहीं, वह राष्ट्रों में श्रेष्ठ ॥ 737 कूप सरोवर नद-नदी, इनके पानी संग । सुस्थित पर्वत सुदृढ़ गढ़, बनते राष्ट्र-सुअंग ॥ 738 प्रचुर उपज, नीरोगता, प्रसन्नता, ऐश्वर्य । और सुरक्षा, पाँच हैं, राष्ट्र-अलंकृति वर्य ॥ 739 राष्ट्र वही जिसकी उपज, होती है बिन यत्न । राष्ट्र नहीं वह यदि उपज, होती है कर यत्न ॥ 740 उपर्युक्त साधन सभी, होते हुए अपार । प्रजा-भूप-सद्‍भाव बिन, राष्ट्र रहा बेकार ॥

अध्याय 75. दुर्ग

741 आक्रामक को दुर्ग है, साधन महत्वपूर्ण । शरणार्थी-रक्षक वही, जो रिपु-भय से चूर्ण ॥ 742 मणि सम जल, मरु भूमि औ’, जंगल घना पहाड़ । कहलाता है दुर्ग वह, जब हो इनसे आड़ ॥ 743 उँचा, चौड़ा और दृढ़, अगम्य भी अत्यंत । चारों गुणयुत दुर्ग है, यों कहते हैं ग्रन्थ ॥ 744 अति विस्तृत होते हुए, रक्षणीय थल तंग । दुर्ग वही जो शत्रु का, करता नष्ट उमंग ॥ 745 जो रहता दुर्जेय है, रखता यथेष्ट अन्न । अंतरस्थ टिकते सुलभ, दुर्ग वही संपन्न ॥ 746 कहलाता है दुर्ग वह, जो रख सभी पदार्थ । देता संकट काल में, योग्य वीर रक्षार्थ ॥ 747 पिल पड़ कर या घेर कर, या करके छलछिद्र । जिसको हथिया ना सके, है वह दुर्ग विचित्र ॥ 748 दुर्ग वही यदि चतुर रिपु, घेरा डालें घोर । अंतरस्थ डट कर लडें, पावें जय बरज़ोर ॥ 749 शत्रु-नाश हो युद्ध में, ऐसे शस्त्र प्रयोग । करने के साधन जहाँ, है गढ़ वही अमोघ ॥ 750 गढ़-रक्षक रण-कार्य में, यदि हैं नहीं समर्थ । अत्युत्तम गढ़ क्यों न हो, होता है वह व्यर्थ ॥

अध्याय 76. वित्त-साधन-विधि

751 धन जो देता है बना, नगण्य को भी गण्य । उसे छोड़ कर मनुज को, गण्य वस्तु नहिं अन्य ॥ 752 निर्धन लोगो का सभी, करते हैं अपमान । धनवनों का तो सभी, करते हैं सम्मन ॥ 753 धनरूपी दीपक अमर, देता हुआ प्रकाश । मनचाहा सब देश चल, करता है नम-नाश ॥ 754 पाप-मार्ग को छोड़कर, न्याय रीति को जान । अर्जित धन है सुखद औ’, करता धर्म प्रदान ॥ 755 दया और प्रिय भाव से, प्राप्त नहीं जो वित्त । जाने दो उस लाभ को, जमे न उसपर चित्त ॥ 756 धन जिसका वारिस नहीं, धन चूँगी से प्राप्त । विजित शत्रु का भेंट-धन, धन हैं नृप हित आप्त ॥ 757 जन्माता है प्रेम जो, दयारूप शिशु सुष्ट । पालित हो धन-धाय से, होता है बह पुष्ट ॥ 758 निज धन रखते हाथ में, करना कोई कार्य । गिरि पर चढ़ गज-समर का, ईक्षण सदृश विचार्य ॥ 759 शत्रु-गर्व को चिरने, तेज शास्त्र जो सिद्ध । धन से बढ़ कर है नहीं, सो संग्रह कर वित्त ॥ 760 धर्म, काम दोनों सुलभ, मिलते हैं इक साथ । न्यायार्जित धन प्रचुर हो, लगता जिसके हाथ ॥

अध्याय 77. सैन्य-माहात्म्य

761 सब अंगों से युक्त हो, क्षत से जो निर्भीक । जयी सैन्य है भूप के, ऐश्वर्यों में नीक ॥ 762 छोटा फिर भी विपद में, निर्भय सहना चोट । यह साहस संभव नहीं, मूल सैन्य को छोड़ ॥ 763 चूहे-शत्रु समुद्र सम, गरजें तो क्या कष्ट । सर्पराज फुफकारते, होते हैं सब नष्ट ॥ 764 अविनाशी रहते हुए, छल का हो न शिकार । पुश्तैनी साहस जहाँ, वही सैन्य निर्धार ॥ 765 क्रोधिक हो यम आ भिड़े, फिर भी हो कर एक । जो समर्थ मुठ-भेड़ में, सैन्य वही है नेक ॥ 766 शौर्य, मान, विश्वस्तता, करना सद्‍व्यवहार । ये ही सेना के लिये, रक्षक गुण हैं चार ॥ 767 चढ़ आने पर शत्रु के, व्यूह समझ रच व्यूह । रोक चढ़ाई खुद चढ़े, यही सैन्य की रूह ॥ 768 यद्यपि संहारक तथा, सहन शक्ति से हीन । तड़क-भड़क से पायगी, सेना नाम धुरीण ॥ 769 लगातार करना घृणा, क्षय होना औ’ दैन्य । जिसमें ये होते नहीं, पाता जय वह सैन्य ॥ 770 रखने पर भी सैन्य में, अगणित स्थायी वीर । स्थायी वह रहता नहीं, बिन सेनापति धीर ॥

अध्याय 78. सैन्य-साहस

771 डटे रहो मत शत्रुओ, मेरे अधिप समक्ष । डट कर कई शिला हुए, मेरे अधिप समक्ष ॥ 772 वन में शश पर जो लगा, धरने से वह बाण । गज पर चूके भाल को, धरने में है मान ॥ 773 निर्दय साहस को कहें, महा धीरता सार । संकट में उपकार है, उसकी तीक्षण धार ॥ 774 कर-भाला गज पर चला, फिरा खोजते अन्य । खींच भाल छाती लगा, हर्षित हुआ सुधन्य ॥ 775 क्रुद्ध नेत्र यदि देख कर, रिपु का भाल-प्रहार । झपकेंगे तो क्या नहीं, वह वीरों को हार ॥ 776 ‘गहरा घाव लगा नहीं’, ऐसे दिन सब व्यर्थ । बीते निज दिन गणन कर, यों मानता समर्थ ॥ 777 जग व्यापी यश चाहते, प्राणों की नहिं चाह । ऐसों का धरना कड़ा, शोभाकर है, वाह ॥ 778 प्राण-भय-रहित वीर जो, जब छिड़ता है युद्ध । साहस खो कर ना रुकें, नृप भी रोकें क्रुद्ध ॥ 779 प्रण रखने हित प्राण भी, छोड़ेंगे जो चण्ड । कौन उन्हें प्रण-भंग का, दे सकता है दण्ड़ ॥ 780 दृग भर आये भूप के, सुन जिसका देहांत । ग्रहण योग्य है माँग कर, उसका जैसा अंत ॥

अध्याय 79. मैत्री

781 करने को मैत्री सदृश, कृति है कौन महान । दुर्लभ-रक्षक शत्रु से, उसके कौन समान ॥ 782 प्राज्ञ मित्रता यों बढ़े, यथा दूज का चाँद । मूर्ख मित्रता यों घटे, ज्यों पूनो के बाद ॥ 783 करते करते अध्ययन्, अधिक सुखद ज्यों ग्रन्थ । परिचय बढ़ बढ़ सुजन की, मैत्री दे आनन्द ॥ 784 हँसी-खेल करना नहीं, मैत्री का उपकार । आगे बढ़ अति देख कर, करना है फटकार ॥ 785 परिचय औ’ संपर्क की, नहीं ज़रूरत यार । देता है भावैक्य ही, मैत्री का अधिकार ॥ 786 केवल मुख खिल जाय तो, मैत्री कहा न जाय । सही मित्रता है वही, जिससे जी खिल जाय ॥ 787 चला सुपथ पर मित्र को, हटा कुपथ से दूर । सह सकती दुख विपद में, मैत्री वही ज़रूर ॥ 788 ज्यों धोती के खिसकते, थाम उसे ले हस्त । मित्र वही जो दुःख हो, तो झट कर दे पस्त ॥ 789 यथा शक्ति सब काल में, भेद बिना उपकार । करने की क्षमता सुदृढ़, है मैत्री-दरबार ॥ 790 ‘ऐसे ये मेरे लिये’, ‘मैं हूँ इनका यार’ । मैत्री की महिमा गयी, यों करते उपचार ॥

अध्याय 80. मैत्री की परख

791 जाँचे बिन मैत्री सदृश, हानि नहीं है अन्य । मित्र बना तो छूट नहीं, जिसमें वह सौजन्य ॥ 792 परख परख कर जो नहीं, किया गया सौहार्द । मरण दिलाता अन्त में, यों, करता वह आर्त ॥ 793 गुण को कुल को दोष को, जितने बन्धु अनल्प । उन सब को भी परख कर, कर मैत्री का कल्प ॥ 794 जो लज्जित बदनाम से, रहते हैं कुलवान । कर लो उनकी मित्रता, कर भी मूल्य-प्रदान ॥ 795 झिड़की दे कर या रुला, समझावे व्यवहार । ऐसे समर्थ को परख, मैत्री कर स्वीकार ॥ 796 होने पर भी विपद के, बड़ा लाभ है एक । मित्र-खेत सब मापता, मान-दंड वह एक ॥ 797 मूर्खों के सौहार्द से, बच कर तजना साफ़ । इसको ही नर के लिये, कहा गया है लाभ ॥ 798 ऐसे कर्म न सोचिये, जिनसे घटे उमंग । मित्र न हो जो दुख में, छोड़ जायगा संग ॥ 799 विपद समय जो बन्धु जन, साथ छोड़ दें आप । मरण समय भी वह स्मरण, दिल को देगा ताप ॥ 800 निर्मल चरित्रवान की, मैत्री लेना जोड़ । कुछ दे सही अयोग्य की, मैत्री देना छोड़ ॥

अध्याय 81. चिर-मैत्री

801 जो कुछ भी अधिकार से, करते हैं जन इष्ट । तिरस्कार बिन मानना, मैत्री कहो धनिष्ठ ॥ 802 हक्र से करना कार्य है, मैत्री का ही अंग । फ़र्ज़ समझ सज्जन उसे, मानें सहित उमंग ॥ 803 निज कृत सम जो मित्र का, साधिकार कृत काम । यदि स्वीकृत होता नहीं, चिर-मैत्री क्या काम ॥ 804 पूछे बिन हक मान कर, मित्र करे यदि कार्य । वांछनीय गुण के लिये, मानें वह स्वीकार्य ॥ 805 दुःखजनक यदि कार्य हैं, करते मित्र सुजान । अति हक़ या अज्ञान से, यों करते हैं जान ॥ 806 चिरपरिचित घन मित्र से, यद्यपि हुआ अनिष्ट । मर्यादी छोडें नहीं, वह मित्रता धनिष्ठ ॥ 807 स्नेही स्नेह-परंपरा, जो करते निर्वाह । मित्र करे यदि हानि भी, तज़ें न उसकी चाह ॥ 808 मित्र-दोष को ना सुनें, ऐसे मित्र धनिष्ठ । मानें उस दिन को सफल, दोष करें जब इष्ट ॥ 809 अविच्छिन्न चिर-मित्रता, जो रखते हैं यार । उनका स्नेह तजें न जो, उन्हें करे जग प्यार ॥ 810 मैत्री का गुण पालते, चिरपरिचित का स्नेह । जो न तजें उस सुजन से, करें शत्रु भी स्नेह ॥

अध्याय 82. बुरी मैत्री

811 यद्यपि अतिशय मित्र सम, दिखते हैं गुणहीन । बढ़ने से वह मित्रता, अच्छा यदि हो क्षीण ॥ 812 पा या खो कर क्या हुआ, अयोग्य का सौहार्द । जो मैत्री कर स्वार्थवश, तज दे जब नहिं स्वार्थ ॥ 813 मित्र बने जो गणन कर, स्वार्थ-लाभ का मान । धन-गाहक गणिका तथा, चोर एक सा जान ॥ 814 अनभ्यस्त हय युद्ध में, पटक चले ज्यों भाग । ऐसों के सौहार्द से, एकाकी बड़भाग ॥ 815 तुच्छ मित्रता विपद में, जो देती न सहाय । ना होने में है भला, होने से भी, हाय ॥ 816 अति धनिष्ठ बन मूर्ख का, हो जाने से इष्ट । समझदार की शत्रुता, लाखों गुणा वरिष्ठ ॥ 817 हास्य-रसिक की मित्रता, करने से भी प्राप्त । भले बनें दस कोटि गुण, रिपु से जो हों प्राप्त ॥ 818 यों असाध्य कह साध्य को, जो करता न सहाय । चुपके से उस ढोंग की, मैत्री छोड़ी जाय ॥ 819 कहना कुछ करना अलग, जिनकी है यह बान । उनकी मैत्री खायगी, सपने में भी जान ॥ 820 घर पर मैत्री पालते, सभा-मध्य धिक्कार । जो करते वे तनिक भी, निकट न आवें, यार ॥

अध्याय 83. कपट-मैत्री

821 अंतरंग मैत्री नहीं, पर केवल बहिरंग । अवसर पा वह पीटती, पकड़ निहाई ढ़ंग । 822 बन्धु सदृश पर बन्धु नहिं, उनकी मैत्री-बान । है परिवर्तनशील ही, नारी-चित्त समान ॥ 823 सद्‍ग्रंथों का अध्ययन, यद्यपि किया अनेक । शत्रु कभी होंगे नहीं, स्नेह-मना सविवेक ॥ 824 मुख पर मधुर हँसी सहित, हृदय वैर से पूर । ऐसे लोगों से डरो, ये हैं वंचक कूर ॥ 825 जिससे मन मिलता नहीं, उसका सुन वच मात्र । किसी विषय में मत समझ, उसे भरोसा पात्र ॥ 826 यद्यपि बोलें मित्र सम, हितकर वचन गढ़ंत । शत्रु-वचन की व्यर्थता, होती प्रकट तुरंत ॥ 827 सूचक है आपत्ति का, धनुष नमन की बान । सो रिपु-वचन-विनम्रता, निज हितकर मत जान ॥ 828 जुड़े हाथ में शत्रु के, छिप रहता हथियार । वैसी ही रिपु की रही, रुदन-अश्रु-जल-धार ॥ 829 जो अति मैत्री प्रकट कर, मन में करता हास । खुश कर मैत्री भाव से, करना उसका नाश ॥ 830 शत्रु, मित्र जैसा बने, जब आवे यह काल । मुख पर मैत्री प्रकट कर, मन से उसे निकाल ॥

अध्याय 84. मूढ़ता

831 किसको कहना मूढ़ता, जो है दारुण दाग । हानिप्रद को ग्रहण कर, लाभप्रद का त्याग ॥ 832 परम मूढ़ता मूढ़ में, जानो उसे प्रसिद्ध । उन सब में आसक्ति हो, जो हैं कर्म निषिद्ध ॥ 833 निर्दयता, निर्लज्जता, निर्विचार का भाव । पोषण भी नहिं पोष्य का, ये हैं मूढ़ स्वभाव ॥ 834 शास्त्रों का कर अध्यपन, अर्थ जानते गूढ़ । शिक्षक भी, पर नहिं वशी, उनसे बडा न मूढ़ ॥ 835 सात जन्म जो यातना, मिले नरक के गर्त्त । मूढ़ एक ही में बना, लेने में सुसमर्थ ॥ 836 प्रविधि-ज्ञान बिन मूढ़ यदि, शुरू करेगा काम । वह पहनेगा हथकड़ी, बिगड़ेगा ही काम ॥ 837 जम जाये तो प्रचुर धन, अगर मूढ़ के पास । भोग करेंगे अन्य जन, परिजन तो उपवास ॥ 838 लगना है संपत्ति का, एक मूढ़ के हस्त । पागल का होना यथा, ताड़ी पी कर मस्त ॥ 839 पीड़ा तो देती नहीं, जब होती है भंग । सो मूढ़ों की मित्रता, है अति मधुर प्रसंग ॥ 840 सुधी-सभा में मूढ़ का, घुसना है यों, ख़ैर । ज्यों रखना धोये बिना, स्वच्छ सेज पर पैर ॥

अध्याय 85. अहम्‍मन्य-मूढ़ता

841 सबसे बुरा अभाव है, सद्बुद्धि का अभाव । दुनिया अन्य अभाव को, नहिं मानती अभाव ॥ 842 बुद्धिहीन नर हृदय से, करता है यदि दान । प्रातिग्राही का सुकृत वह, और नहीं कुछ जान ॥ 843 जितनी पीड़ा मूढ़ नर, निज को देता आप । रिपु को भी संभव नहीं, देना उतना ताप ॥ 844 हीन-बुद्धि किसको कहें, यदि पूछोगे बात । स्वयं मान ‘हम हैं सुधी’, भ्रम में पड़ना ज्ञात ॥ 845 अपठित में ज्यों पठित का, व्यंजित करना भाव । सुपठित में भी दोष बिन, जनमे संशय-भाध ॥ 846 मिटा न कर निज दोष को, गोपन कर अज्ञान । ढकना पट से गुहय को, अल्प बुद्धि की बान ॥ 847 प्रकट करे मतिहीन जो, अति सहस्य की बात । अपने पर खुद ही बड़ा, कर लेगा आघात ॥ 848 समझाने पर ना करे, और न समझे आप । मरण समय तक जीव वह, रहा रोग-अभिशाप ॥ 849 समझाते नासमझ को, रहे नासमझ आप । समझदार सा नासमझ, स्वयं दिखेगा आप ॥ 850 जग जिसके अस्तित्व को, ‘है’ कह लेता मान । जो न मानता वह रहा, जग में प्रेत समान ॥

अध्याय 86. विभेद

851 सब जीवों में फूट ही, कहते हैं बुध लोग । अनमिल-भाव-अनर्थ का, पोषण करता रोग ॥ 852 कोई अनमिल भाव से, कर्म करे यदि पोच । अहित न करना है भला, भेद-भाव को सोच ॥ 853 रहता है दुःखद बड़ा, भेद-भाव का रोग । उसके वर्जन से मिले, अमर कीर्तिका भोग ॥ 854 दुःखों में सबसे बड़ा, है विभेद का दुःख । जब होता है नष्ट वह, होता सुख ही सुक्ख ॥ 855 उठते देख विभेद को, हट कर रहे समर्थ । उसपर कौन समर्थ जो, सोचे जय के अर्थ ॥ 856 भेद-वृद्धि से मानता, मिलता है आनन्द । जीवन उसका चूक कर, होगा नष्ट तुरन्त ॥ 857 करते जो दुर्बुद्धि हैं, भेद-भाव से प्रति । तत्व-दर्श उनको नहीं, जो देता है जीत ॥ 858 हट कर रहना भेद से, देता है संपत्ति । उससे अड़ कर जीतना, लाता पास विपत्ति ॥ 859 भेद-भाव नहिं देखता, तो होती संपत्ति । अधिक देखना है उसे, पाना है आपत्ति ॥ 860 होती हैं सब हानियाँ, भेद-भाव से प्राप्त । मैत्री से शुभ नीति का, उत्तम धन है प्राप्त ॥

अध्याय 87. शत्रुता-उत्कर्ष

861 बलवानों से मत भिड़ो, करके उनसे वैर । कमज़ोरों की शत्रुता, सदा चाहना ख़ैर ॥ 862 प्रेम रहित निज बल रहित, सबल सहाय न पास । कर सकता है किस तरह, शत्रु शक्ति का नाश ॥ 863 अनमिल है कंजूस है, कायर और अजान । उसपर जय पाना रहा, रिपु को अति आसान ॥ 864 क्रोधी हो फिर हृदय से, जो दे भेद निकाल । उसपर जय सबको सुलभ, सब थल में, सब काल ॥ 865 नीतिशास्त्र जो ना पढे, विधिवत् करे न काम । दुर्जन निंदा-भय-रहित, रिपु हित है सुख-धाम ॥ 866 जो रहता क्रोधान्ध है, कामी भी अत्यन्त । है उसका शत्रुत्व तो, वांछनीय सानन्द ॥ 867 करके कार्यारम्भ जो, करता फिर प्रतिकूल । निश्चय उसकी शत्रुता, करना दे भी मूल ॥ 868 गुणविहीन रहते हुए, यदि हैं भी बहुदोष । तो है वह साथी रहित, रिपु को है संतोष ॥ 869 यदि वैरी कायर तथा, नीतिशास्त्र अज्ञात । उनसे भिड़ते, उच्च सुख, छोड़ेंगे नहिं साथ ॥ 870 अनपढ़ की कर शत्रुता, लघुता से जय-लाभ । पाने में असमर्थ जो, उसे नहीं यश-लाभ ॥

अध्याय 88. सत्रु-शक्ति का ज्ञान

871 रिपुता नामक है वही, असभ्यता-अवगाह । हँसी-मज़े में भी मनुज, उसकी करे न चाह ॥ 872 धनु-हल-धारी कृषक से, करो भले ही वैर । वाणी-हल-धर कृषक से, करना छोड़ो वैर ॥ 873 एकाकी रह जो करे, बहुत जनों से वैर । पागल से बढ़ कर रहा, बुद्धिहीन वह, खैर ॥ 874 मित्र बना कर शत्रु को, जो करता व्यवहार । महिमा पर उस सभ्य की, टिकता है संसार ॥ 875 अपना तो साथी नहीं, रिपु हैं दो, खुद एक । तो उनमें से ले बना, उचित सहायक एक ॥ 876 पूर्व-ज्ञात हो परख कर, अथवा हा अज्ञात् । नाश-काल में छोड़ दो, शत्रु-मित्रता बात ॥ 877 दुःख न कह उस मित्र से, यदि खुद उसे न ज्ञात । प्रकट न करना शत्रु से, कमज़ोरी की बात ॥ 878 ढ़ंग समझ कर कर्म का, निज बल को कर चंड । अपनी रक्षा यदि करे, रिपु का मिटे घमंड ॥ 879 जब पौधा है काटना, जो तरु कांटेदार । बढ़ने पर घायल करे, छेदक का कर दार ॥ 880 जो रिपुओं के दर्प का, कर सकते नहिं नाश । निश्चय रिपु के फूँकते, होता उनका नाश ॥

अध्याय 89. अन्तवैंर

881 छाया, जल भी हैं बुरे, जब करते हैं हानि । स्वजन-भाव भी हैं बुरे, यदि देते हैं ग्लानि ॥ 882 डरना मत उस शत्रु से, जो है खड्ग समान । डर उस रिपु के मेल से, जो है मित्र समान ॥ 883 बचना अन्त: शत्रु से, उनके खा कर त्रास । मिट्टी-छेदक ज्यों करें, थका देख वे नाश ॥ 884 मन में बिना लगाव के, यदि हो अन्तवैंर । बन्धु-भेद-कारक कई, करता है वह गैर ॥ 885 यदि होता बन्धुत्व में, कोई अन्तवैंर । मृत्युजनक जो सो कई, करता है वह गैर ॥ 886 आश्रित लोगों से निजी, यदि होता है वैर । सदा असंभव तो रहा, बचना नाश-बगैर ॥ 887 डब्बा-ढक्कन योग सम, रहने पर भी मेल । गृह में अन्तवैंर हो, तो होगा नहिं मेल ॥ 888 रेती से घिस कर यथा, लोहा होता क्षीण । गृह भी अन्तवैंर से, होता है बलहीन ॥ 889 अति छोटा ही क्यों न हो, तिल में यथा दरार । फिर भी अन्तवैंर तो, है ही विनाशकार ॥ 890 जिनसे मन मिलता नहीं, जीवन उनके संग । एक झोंपड़ी में यथा, रहना सहित भुजंग ॥

अध्याय 90. बड़ों का उपचार न करना

891 सक्षम की करना नहीं, क्षमता का अपमान । रक्षा हित जो कार्य हैं, उनमें यही महान ॥ 892 आदर न कर महान का, करे अगर व्यवहार । होगा उसे महान से, दारुण दुःख अपार ॥ 893 करने की सामर्थ्य है, जब चाहें तब नाश । उनका अपचारी बनो, यदि चाहो निज नाश ॥ 894 करना जो असमर्थ का, समर्थ का नुक़सान । है वह यम को हाथ से, करना ज्यों आह्‍वान ॥ 895 जो पराक्रमी भूप के, बना कोप का पात्र । बच कर रह सकता कहाँ, कहीं न रक्षा मात्र ॥ 896 जल जाने पर आग से, बचना संभव जान । बचता नहीं महान का, जो करता अपमान ॥ 897 तप:श्रेष्ठ हैं जो महा, यदि करते हैं कोप । क्या हो धन संपत्ति की, और विभव की ओप ॥ 898 जो महान हैं अचल सम, करते अगर विचार । जग में शाश्वत सम धनी, मिटता सह परिवार ॥ 899 उत्तम व्रतधारी अगर, होते हैं नाराज । मिट जायेगा इन्द्र भी, गँवा बीच में राज ॥ 900 तप:श्रेष्ठ यदि क्रुद्ध हों, रखते बडा प्रभाव । रखते बड़े सहाय भी, होता नहीं बचाव ॥

अध्याय 91. स्त्री-वश होना

901 स्त्री पर जो आसक्त हैं, उनको मिले न धर्म । अर्थार्थी के हित रहा, घृणित वस्तु वह कर्म ॥ 902 स्त्री लोलुप की संपदा, वह है पौरुष-त्यक्त । लज्जास्पद बन कर बड़ी, लज्जित करती सख्त ॥ 903 डरने की जो बान है, स्त्री से दब कर नीच । सदा रही लज्जाजनक, भले जनों के बीच ॥ 904 गृहिणी से डर है जिसे, औ’ न मोक्ष की सिद्धि । उसकी कर्म-विदग्धता, पाती नहीं प्रसिद्धि ॥ 905 पत्नी-भीरु सदा डरे, करने से वह कार्य । सज्जन लोगों के लिये, जो होते सत्कार्य ॥ 906 जो डरते स्त्री-स्कंध से, जो है बाँस समान । यद्यपि रहते देव सम, उनका है नहिं मान ॥ 907 स्त्री की आज्ञा पालता, जो पौरुष निर्लज्ज ॥ उससे बढ कर श्रेष्ठ है, स्त्री का स्त्रीत्व सलज्ज ॥ 908 चारु मुखी वंछित वही, करते हैं जो कर्म । भरते कमी न मित्र की, करते नहीं सुधर्म ॥ 909 धर्म-कर्म औ’ प्रचुर धन, तथा अन्य जो काम । स्त्री के आज्ञापाल को, इनका नहिं अंजाम ॥ 910 जिनका मन हो कर्मरत, औ’ जो हों धनवान । स्त्री-वशिता से उन्हें, कभी न है अज्ञान ॥

अध्याय 92. वार-वनिता

911 चाह नहीं है प्रेमवश, धनमूलक है चाह । ऐसी स्त्री का मधुर वच, ले लेता है आह ॥ 912 मधुर वचन है बोलती, तोल लाभ का भाग । वेश्या के व्यवहार को, सोच समागम त्याग ॥ 913 पण-स्त्री आलिंगन रहा, यों झूठा ही जान । ज्यों लिपटे तम-कोष्ठ में, मुरदे से अनजान ॥ 914 रहता है परमार्थ में, जिनका मनोनियोग । अर्थ-अर्थिनी तुच्छ सुख, करते नहिं वे भोग ॥ 915 सहज बुद्धि के साथ है, जिनका विशिष्ट ज्ञान । पण्य-स्त्री का तुच्छ सुख, भोगेंगे नहिं जान ॥ 916 रूप-दृप्त हो तुच्छ सुख, जो देती हैं बेच । निज यश-पालक श्रेष्ठ जन, गले लगें नहिं, हेच ॥ 917 करती है संभोग जो, लगा अन्य में चित्त । उससे गले लगे वही, जिसका चंचल चित्त ॥ 918 जो स्त्री है मायाविनी, उसका भोग विलास । अविवेकी जन के लिये, रहा मोहिनी-पाश ॥ 919 वेश्या का कंधा मृदुल, भूषित है जो खूब । मूढ-नीच उस नरक में, रहते हैं कर डूब ॥ 920 द्वैध-मना व्यभिचारिणी, मद्य, जुए का खेल । लक्ष्मी से जो त्यक्त हैं, उनका इनसे मेल ॥

अध्याय 93. मद्य-निषेध

921 जो मधु पर आसक्त हैं, खोते हैं सम्मान । शत्रु कभी डरते नहीं, उनसे कुछ भय मान ॥ 922 मद्य न पीना, यदि पिये, वही पिये सोत्साह । साधु जनों के मान की, जिसे नहीं परवाह ॥ 923 माँ के सम्मुख भी रही, मद-मत्तता खराब । तो फिर सम्मुख साधु के, कितनी बुरी शराब ॥ 924 जग-निंदित अति दोषयुत, जो हैं शराबखोर । उनसे लज्जा-सुन्दरी, मूँह लेती है मोड़ ॥ 925 विस्मृति अपनी देह की, क्रय करना दे दाम । यों जाने बिन कर्म-फल, कर देना है काम ॥ 926 सोते जन तो मृतक से, होते हैं नहिं भिन्न । विष पीते जन से सदा, मद्यप रहे अभिन्न ॥ 927 जो लुक-छिप मधु पान कर, खोते होश-हवास । भेद जान पुर-जन सदा, करते हैं परिहास ॥ 928 ‘मधु पीना जाना नहीं’, तज देना यह घोष । पीने पर झट हो प्रकट, मन में गोपित दोष ॥ 929 मद्यप का उपदेश से, होना होश-हवास । दीपक ले जल-मग्न की, करना यथा तलाश ॥ 930 बिना पिये रहते समय, मद-मस्त को निहार । सुस्ती का, पीते स्वयं, करता क्यों न विचार ॥

अध्याय 94. जुआ

931 चाह जुए की हो नहीं, यद्यपि जय स्वाधीन । जय भी तो कांटा सदृश, जिसे निगलता मीन ॥ 932 लाभ, जुआरी, एक कर, फिर सौ को खो जाय । वह भी क्या सुख प्राप्ति का, जीवन-पथ पा जाय ॥ 933 पासा फेंक सदा रहा, करते धन की आस । उसका धन औ’ आय सब, चलें शत्रु के पास ॥ 934 करता यश का नाश है, दे कर सब दुख-जाल । और न कोई द्यूत सम, बनायगा कंगाल ॥ 935 पासा, जुआ-घर तथा, हस्य-कुशलता मान । जुए को हठ से पकड़, निर्धन हुए निदान ॥ 936 जुआरूप ज्येष्ठा जिन्हें, मूँह में लेती ड़ाल । उन्हें न मिलता पेट भर, भोगें दुख कराल ॥ 937 द्यूत-भुमि में काल सब, जो करना है वास । करता पैतृक धन तथा, श्रेष्ठ गुणों का नाश ॥ 938 पेरित मिथ्या-कर्म में, करके धन को नष्ट । दया-धर्म का नाश कर, जुआ दिलाता कष्ट ॥ 939 रोटी कपड़ा संपदा, विद्या औ’ सम्मान । पाँचों नहिं उनके यहाँ, जिन्हें जुए की बान ॥ 940 खोते खोते धन सभी, यथा जुएँ में मोह । सहते सहते दुःख भी, है जीने में मोह ॥

अध्याय 95. औषध

941 वातादिक जिनको गिना, शास्त्रज्ञों ने तीन । बढ़ते घटते दुःख दें, करके रोगाधीन ॥ 942 खादित का पचना समझ, फिर दे भोजन-दान । तो तन को नहिं चाहिये, कोई औषध-पान ॥ 943 जीर्ण हुआ तो खाइये, जान उचित परिमाण । देहवान हित है वही, चिरायु का सामान ॥ 944 जीर्ण कुआ यह जान फिर, खूब लगे यदि भूख । खाओ जो जो पथ्य हैं, रखते ध्यान अचूक ॥ 945 करता पथ्याहार का, संयम से यदि भोग । तो होता नहिं जीव को, कोई दुःखद रोग ॥ 946 भला समझ मित भोज का, जीमे तो सुख-वास । वैसे टिकता रोग है, अति पेटू के पास ॥ 947 जाठराग्नि की शक्ति का, बिना किये सुविचार । यदि खाते हैं अत्याधिक, बढ़ते रोग अपार ॥ 948 ठीक समझ कर रोग क्या, उसका समझ निदान । समझ युक्ति फिर शमन का, करना यथा विधान ॥ 949 रोगी का वय, रोग का, काल तथा विस्तार । सोच समझकर वैद्य को, करना है उपचार ॥ 950 रोगी वैद्य देवा तथा, तीमारदार संग । चार तरह के तो रहे, वैद्य शास्त्र के अंग ॥

अध्याय 96. कुलीनता

951 लज्जा, त्रिकरण-एकता, इन दोनों का जोड़ । सहज मिले नहिं और में, बस कुलीन को छोड़ ॥ 952 सदाचार लज्जा तथा, सच्चाई ये तीन । इन सब से विचलित कभी, होते नहीं कुलीन ॥ 953 सुप्रसन्न मुख प्रिय वचन, निंदा-वर्जन दान । सच्चे श्रेष्ठ कुलीन हैं, चारों का संस्थान ॥ 954 कोटि कोटि धन ही सही, पायें पुरुष कुलीन । तो भी वे करते नहीं, रहे कर्म जो हीन ॥ 955 हाथ खींचना ही पड़े, यद्यपि हो कर दीन । छोडें वे न उदारता, जिनका कुल प्राचीन ॥ 956 पालन करते जी रहें, जो निर्मल कुल धर्म । यों जो हैं वे ना करें, छल से अनुचित कर्म ॥ 957 जो जन बडे कुलीन हैं, उन पर लगा कलंक । नभ में चन्द्र-कलंक सम, प्रकटित हो अत्तंग ॥ 958 रखते सुगुण कुलीन के, जो निकले निःस्नेह । उसके कुल के विषय में, होगा ही संदेह ॥ 959 अंकुर करता है प्रकट, भू के गुण की बात । कुल का गुण, कुल-जात की, वाणी करती ज्ञात ॥ 960 जो चाहे अपना भला, पकडे लज्जा-रीत । जो चाहे कुल-कानि को, सब से रहे विनीत ॥

अध्याय 97. मान

961 जीवित रहने के लिये, यद्यपि है अनिवार्य । फिर भी जो कुल-हानिकर, तज देना वे कार्य ॥ 962 जो हैं पाना चाहते, कीर्ति सहित सम्मान । यश-हित भी करते नहीं, जो कुल-हित अपमान ॥ 963 सविनय रहना चाहिये, रहते अति संपन्न । तन कर रहना चाहिये, रहते बड़ा विपन्न ॥ 964 गिरते हैं जब छोड़कर, निज सम्मानित स्थान । नर बनते हैं यों गिरे, सिर से बाल समान ॥ 965 अल्प घुंघची मात्र भी, करते जो दुष्काम । गिरि सम ऊँचे क्यों न हों, होते हैं बदनाम ॥ 966 न तो कीर्ति की प्राप्ति हो, न हो स्वर्ग भी प्राप्त । निंदक का अनुचर बना, तो औ’ क्या हो प्राप्त ॥ 967 निंदक का अनुचर बने, जीवन से भी हेय । ‘ज्यों का त्यों रह मर गया’, कहलाना है श्रेय ॥ 968 नाश काल में मान के, जो कुलीनता-सत्व । तन-रक्षित-जीवन भला, क्या देगा अमरत्व ॥ 969 बाल कटा तो त्याग दे, चमरी-मृग निज प्राण । उसके सम नर प्राण दें, रक्षा-हित निज मान ॥ 970 जो मानी जीते नहीं, होने पर अपमान । उनके यश को पूज कर, लोक करे गुण-गान ॥

अध्याय 98. महानता

971 मानव को विख्याति दे, रहना सहित उमंग । ‘जीयेंगे उसके बिना’, है यों कथन कलक ॥ 972 सभी मनुज हैं जन्म से, होते एक समान । गुण-विशेष फिर सम नहीं, कर्म-भेद से जान ॥ 973 छोटे नहिं होते बड़े, यद्यपि स्थिति है उच्च । निचली स्थिति में भी बड़े, होते हैं नहिं तुच्छ ॥ 974 एक निष्ठ रहती हुई, नारी सती समान । आत्म-संयमी जो रहा, उसका हो बहुमान ॥ 975 जो जन महानुभव हैं, उनको है यह साध्य । कर चुकना है रीति से, जो हैं कार्य असाध्य ॥ 976 छोटों के मन में नहीं, होता यों सुविचार । पावें गुण नर श्रेष्ठ का, कर उनका सत्कार ॥ 977 लगती है संपन्नता, जब ओछों के हाथ । तब भी अत्याचार ही, करे गर्व के साथ ॥ 978 है तो महानुभावता, विनयशील सब पर्व । अहम्मन्य हो तुच्छता, करती है अति गर्व ॥ 979 अहम्मन्यता-हीनता, है महानता बान । अहम्मन्यता-सींव ही, ओछापन है जान ॥ 980 दोषों को देना छिपा, है महानता-भाव । दोषों की ही घोषणा, है तुच्छत- स्वभाव ॥

अध्याय 99. सर्वगुण-पूर्णता

981 जो सब गुण हैं पालते, समझ योग्य कर्तव्य । उनकों अच्छे कार्य सब, सहज बने कर्तव्य ॥ 982 गुण-श्रेष्ठता-लाभ ही, महापुरुष को श्रेय । अन्य लाभ की प्राप्ति से, श्रेय न कुछ भी ज्ञेय ॥ 983 लोकोपकारिता, दया, प्रेम हया औ’ साँच । सुगुणालय के थामते, खंभे हैं ये पाँच ॥ 984 वध-निषेध-व्रत-लाभ ही, तप को रहा प्रधान । पर-निंदा वर्जन रही, गुणपूर्णता महान ॥ 985 विनयशीलता जो रही, बलवानों का सार । है रिपु-रिपुता नाश-हित, सज्जन का हथियार ॥ 986 कौन कसौटी जो परख, जाने गुण-आगार । है वह गुण जो मान ले, नीचों से भी हार ॥ 987 अपकारी को भी अगर, किया नहीं उपकार । होता क्या उपयोग है, हो कर गुण-आगार ॥ 988 निर्धनता नर के लिये, होता नहिं अपमान । यदि बल है जिसको कहें, सर्व गुणों की खान ॥ 989 गुण-सागर के कूल सम, जो मर्यादा-पाल । मर्यादा छोड़े नहीं, यद्यपि युगान्त-काल ॥ 990 घटता है गुण-पूर्ण का, यदि गुण का आगार । तो विस्तृत संसार भी, ढो सकता नहिं भार ॥

अध्याय 100. शिष्टाचार

991 मिलनसार रहते अगर, सब लोगों को मान । पाना शिष्टाचार है, कहते हैं आसान ॥ 992 उत्तम कुल में जन्म औ’, प्रेम पूर्ण व्यवहार । दोनों शिष्टाचार के, हैं ही श्रेष्ठ प्रकार ॥ 993 न हो देह के मेल से, श्रेष्ठ जनों का मेल । आत्माओं के योग्य तो, हैं संस्कृति का मेल ॥ 994 नीति धर्म को चाहते, जो करते उपकार । उनके शिष्ट स्वभाव को, सराहता संसार ॥ 995 हँसी खेल में भी नहीं, निंदा करना इष्ट । पर-स्वभाव ज्ञाता रहें, रिपुता में भी शिष्ट ॥ 996 शिष्टों के आधार पर, टिकता है संसार । उनके बिन तो वह मिले, मिट्टी में निर्धार ॥ 997 यद्यपि हैं रेती सदृश, तीक्षण बुद्धि-निधान । मानव-संस्कृति के बिना, नर हैं वृक्ष समान ॥ 998 मित्र न रह जो शत्रु हैं, उनसे भी व्यवहार । सभ्य पुरुष का नहिं किया, तो वह अधम विचार ॥ 999 जो जन कर सकते नहीं, प्रसन्न मन व्यवहार । दिन में भी तम में पड़ा, है उनका संसार ॥ 1000 जो है प्राप्त असभ्य को, धन-सम्पत्ति अमेय । कलश-दोष से फट गया, शुद्ध दूध सम ज्ञेय ॥

अध्याय 101. निष्फल धन

1001 भर कर घर भर प्रचुर धन, जो करता नहिं भोग । धन के नाते मृतक है, जब है नहिं उपयोग ॥ 1002 ‘सब होता है अर्थ से’, रख कर ऐसा ज्ञान । कंजूसी के मोह से, प्रेत-जन्म हो मलान ॥ 1003 लोलुप संग्रह मात्र का, यश का नहीं विचार । ऐसे लोभी का जनम, है पृथ्वी को भार ॥ 1004 किसी एक से भी नहीं, किया गया जो प्यार । निज अवशेष स्वरूप वह, किसको करे विचार ॥ 1005 जो करते नहिं दान ही, करते भी नहिं भोग । कोटि कोटि धन क्यों न हो, निर्धन हैं वे लोग ॥ 1006 योग्य व्यक्ति को कुछ न दे, स्वयं न करता भोग । विपुल संपदा के लिये, इस गुण का नर रोग ॥ 1007 कुछ देता नहिं अधन को, ऐसों का धन जाय । क्वाँरी रह अति गुणवती, ज्यों बूढ़ी हो जाय ॥ 1008 अप्रिय जन के पास यदि, आश्रित हो संपत्ति । ग्राम-मध्य विष-वृक्ष ज्यों, पावे फल-संपत्ति ॥ 1009 प्रेम-भाव तज कर तथा, भाव धर्म से जन्य । आत्म-द्रोह कर जो जमा, धन हथियाते अन्य ॥ 1010 उनकी क्षणिक दरिद्रता, जो नामी धनवान । जल से खाली जलद का, है स्वभाव समान ॥

अध्याय 102. लज्जाशीलता

1011 लज्जित होना कर्म से, लज्जा रही बतौर । सुमुखी कुलांगना-सुलभ, लज्जा है कुछ और ॥ 1012 अन्न वस्त्र इत्यादि हैं, सब के लिये समान । सज्जन की है श्रेष्ठता, होना लज्जावान ॥ 1013 सभी प्राणियों के लिये, आश्रय तो है देह । रखती है गुण-पूर्णता, लज्जा का शुभ गेह ॥ 1014 भूषण महानुभाव का, क्या नहिं लज्जा-भाव । उसके बिन गंभीर गति, क्या नहिं रोग-तनाव ॥ 1015 लज्जित है, जो देख निज, तथा पराया दोष । उनको कहता है जगत, ‘यह लज्जा का कोष’ ॥ 1016 लज्जा को घेरा किये, बिना सुरक्षण-योग । चाहेंगे नहिं श्रेष्ठ जन, विस्तृत जग का भोग ॥ 1017 लज्जा-पालक त्याग दें, लज्जा के हित प्राण । लज्जा को छोड़ें नहीं, रक्षित रखने जान ॥ 1018 अन्यों को लज्जित करे, करते ऐसे कर्म । उससे खुद लज्जित नहीं, तो लज्जित हो धर्म ॥ 1019 यदि चूके सिद्धान्त से, तो होगा कुल नष्ट । स्थाई हो निर्लज्जता, तो हों सब गुण नष्ट ॥ 1020 कठपुथली में सूत्र से, है जीवन-आभास । त्यों है लज्जाहीन में, चैतन्य का निवास ॥

अध्याय 103. वंशोत्कर्ष

1021 ‘हाथ न खींचूँ कर्म से, जो कुल हित कर्तव्य । इसके सम नहिं श्रेष्ठता, यों है जो मन्तव्य ॥ 1022 सत् प्रयत्न गंभीर मति, ये दोनों ही अंश । क्रियाशील जब हैं सतत, उन्नत होता वंश ॥ 1023 ‘कुल को अन्नत में करूँ’, कहता है दृढ बात । तो आगे बढ़ कमर कस, दैव बँटावे हाथ ॥ 1024 कुल हित जो अविलम्ब ही, हैं प्रयत्न में चूर । अनजाने ही यत्न वह, बने सफलता पूर ॥ 1025 कुल अन्नति हित दोष बिन, जिसका है आचार । बन्धु बनाने को उसे, घेर रहा संसार ॥ 1026 स्वयं जनित निज वंश का, परिपालन का मान । अपनाना है मनुज को, उत्तम पौरुष जान ॥ 1027 महावीर रणक्षेत्र में, ज्यों हैं जिम्मेदार । त्यों है सुयोग्य व्यक्ति पर, निज कुटुंब का भार ॥ 1028 कुल-पालक का है नहीं, कोई अवसर खास । आलसवश मानी बने, तो होता है नाश ॥ 1029 जो होने देता नहीं, निज कुटुंब में दोष । उसका बने शरीर क्या, दुख-दर्दों का कोष ॥ 1030 योग्य व्यक्ति कुल में नहीं, जो थामेगा टेक । जड़ में विपदा काटते, गिर जाये कुल नेक ॥

अध्याय 104. कृषि

1031 कृषि-अधीन ही जग रहा, रह अन्यों में घुर्ण । सो कृषि सबसे श्रेष्ठ है, यद्यपि है श्रमपूर्ण ॥ 1032 जो कृषि की क्षमता बिना, करते धंधे अन्य । कृषक सभी को वहन कर, जगत-धुरी सम गण्य ॥ 1033 जो जीवित हैं हल चला, उनका जीवन धन्य । झुक कर खा पी कर चलें, उनके पीचे अन्य ॥ 1034 निज नृप छत्रच्छाँह में, कई छत्रपति शान । छाया में पल धान की, लाते सौम्य किसान ॥ 1035 निज कर से हल जोत कर, खाना जिन्हें स्वभाव । माँगें नहिं, जो माँगता, देंगे बिना दुराव ॥ 1036 हाथ खिँचा यदि कृषक का, उनकी भी नहिं टेक । जो ऐसे कहते रहे ‘हम हैं निस्पृह एक’ ॥ 1037 एक सेर की सूख यदि, पाव सेर हो धूल । मुट्‍ठी भर भी खाद बिन, होगी फ़सल अतूल ॥ 1038 खेत जोतने से अधिक, खाद डालना श्रेष्ठ । बाद निराकर सींचना, फिर भी रक्षण श्रेष्ठ ॥ 1039 चल कर यदि देखे नहीं, मालिक दे कर ध्यान । गृहिणी जैसी रूठ कर, भूमि करेगी मान ॥ 1040 ‘हम दरिद्र हैं’ यों करे, सुस्ती में आलाप । भूमि रूप देवी उसे, देख हँसेगी आप ॥

अध्याय 105. दरिद्रता

1041 यदि पूछो दारिद्र्य सम, दुःखद कौन महान । तो दुःखद दारिद्र्य सम, दारिद्रता ही जान ॥ 1042 निर्धनता की पापिनी, यदि रहती है साथ । लोक तथा परलोक से, धोना होगा हाथ ॥ 1043 निर्धनता के नाम से, जो है आशा-पाश । कुलीनता, यश का करे, एक साथ ही नाश ॥ 1044 निर्धनता पैदा करे, कुलीन में भी ढील । जिसके वश वह कह उठे, हीन वचन अश्लील ॥ 1045 निर्धनता के रूप में, जो है दुख का हाल । उसमें होती है उपज, कई तरह की साल ॥ 1046 यद्यपि अनुसंधान कर, कहे तत्व का अर्थ । फिर भी प्रवचन दिन का, हो जाता है व्यर्थ ॥ 1047 जिस दरिद्र का धर्म से, कुछ भी न अभिप्राय । जननी से भी अन्य सम, वह तो देखा जाय ॥ 1048 कंगाली जो कर चुकी, कल मेरा संहार । अयोगी क्या आज भी, करने उसी प्रकार ॥ 1049 अन्तराल में आग के, सोना भी है साध्य । आँख झपकना भी ज़रा, दारिद में नहिं साध्य ॥ 1050 भोग्य-हीन रह, दिन का, लेना नहिं सन्यास । माँड-नमक का यम बने, करने हित है नाश ॥

अध्याय 106. याचना

1051 याचन करने योग्य हों, तो माँगना ज़रूर । उनका गोपन-दोष हो, तेरा कुछ न कसूर ॥ 1052 यचित चीज़ें यदि मिलें, बिना दिये दुख-द्वन्द । याचन करना मनुज को, देता है आनन्द ॥ 1053 खुला हृदय रखते हुए, जो मानेंगे मान । उनके सम्मुख जा खड़े, याचन में भी शान ॥ 1054 जिन्हें स्वप्न में भी ‘नहीं’, कहने की नहिं बान । उनसे याचन भी रहा, देना ही सम जान ॥ 1055 सम्मुख होने मात्र से, बिना किये इनकार । दाता हैं जग में, तभी, याचन है स्वीकार ॥ 1056 उन्हें देख जिनको नहीं, ‘ना’, कह सहना कष्ट । दुःख सभी दारिद्र्य के, एक साथ हों नष्ट ॥ 1057 बिना किये अवहेलना, देते जन को देख । मन ही मन आनन्द से, रहा हर्ष-अतिरेक ॥ 1058 शीतल थलयुत विपुल जग, यदि हो याचक-हीन । कठपुथली सम वह रहे, चलती सूत्राधीन ॥ 1059 जब कि प्रतिग्रह चाहते, मिलें न याचक लोग । दाताओं को क्या मिले, यश पाने का योग ॥ 1060 याचक को तो चाहिये, ग्रहण करे अक्रोध । निज दरिद्रता-दुःख ही, करे उसे यह बोध ॥

अध्याय 107. याचना-भय

1061 जो न छिपा कर, प्रेम से, करते दान यथेष्ट । उनसे भी नहिं माँगना, कोटि गुना है श्रेष्ठ ॥ 1062 यदि विधि की करतार ने, भीख माँग नर खाय । मारा मारा फिर वही, नष्ट-भ्रष्ट हो जाय ॥ 1063 ‘निर्धनता के दुःख को, करें माँग कर दूर’ । इस विचार से क्रूरतर, और न है कुछ क्रूर ॥ 1064 दारिदवश भी याचना, जिसे नहीं स्वीकार । भरने उसके पूर्ण-गुण, काफी नहिं संसार ॥ 1065 पका माँड ही क्यों न हो, निर्मल नीर समान । खाने से श्रम से कमा, बढ़ कर मधुर न जान ॥ 1066 यद्यपि माँगे गाय हित, पानी का ही दान । याचन से बदतर नहीं, जिह्वा को अपमान ॥ 1067 याचक सबसे याचना, यही कि जो भर स्वाँग । याचन करने पर न दें, उनसे कभी न माँग ॥ 1068 याचन रूपी नाव यदि, जो रक्षा बिन नग्न । गोपन की चट्टान से, टकराये तो भग्न ॥ 1069 दिल गलता है, ख्याल कर, याचन का बदहाल । गले बिना ही नष्ट हो, गोपन का कर ख्याल ॥ 1070 ‘नहीं’ शब्द सुन जायगी, याचक जन की जान । गोपन करते मनुज के, कहाँ छिपेंगे प्राण ॥

अध्याय 108. नीचता

1071 हैं मनुष्य के सदृश ही, नीच लोग भी दृश्य । हमने तो देखा नहीं, ऐसा जो सादृश्य ॥ 1072 चिन्ता धर्माधर्म की, नहीं हृदय के बीच । सो बढ़ कर धर्मज्ञ से, भाग्यवान हैं नीच ॥ 1073 नीच लोग हैं देव सम, क्योंकि निरंकुश जीव । वे भी करते आचरण, मनमानी बिन सींव ॥ 1074 मनमौजी ऐसा मिले, जो अपने से खर्व । तो उससे बढ़ खुद समझ, नीच करेगा गर्व ॥ 1075 नीचों के आचार का, भय ही है आधार । भय बिन भी कुछ तो रहे, यदि हो लाभ-विचार ॥ 1076 नीच मनुज ऐसा रहा, जैसा पिटता ढोल । स्वयं सुने जो भेद हैं, ढो अन्यों को खोल ॥ 1077 गाल-तोड़ घूँसा बिना, जो फैलाये हाथ । झाडेंगे नहिं अधम जन, निज झूठा भी हाथ ॥ 1078 सज्जन प्रार्थन मात्र से, देते हैं फल-दान । नीच निचोड़ों ईख सम, तो देते रस-पान ॥ 1079 खाते पीते पहनते, देख पराया तोष । छिद्रान्वेषण-चतुर जो, नीच निकाले दोष ॥ 1080 नीच लोग किस योग्य हों, आयेंगे क्या काम । संकट हो तो झट स्वयं, बिक कर बनें गुलाम ॥

  • तिरुक्कुरल, भाग–३: काम- कांड : तिरुवल्लुवर
  • तिरुक्कुरल, भाग–१– धर्म- कांड : तिरुवल्लुवर
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