तिरुक्कुरल : तिरुवल्लुवर, अनुवादक : एम. जी. वेंकटकृष्णन

Thirukkural : Thiruvalluvar, Translator : M.G. Venkatakrishnan

तिरुक्कुरल, भाग–३: काम- कांड : तिरुवल्लुवर


अध्याय 109. सौन्दर्य की पीड़ा

1081 क्या यह है देवांगना, या सुविशेष मयूर । या नारी कुंड़ल-सजी, मन है भ्रम में चूर ॥ 1082 दृष्टि मिलाना सुतनु का, होते दृष्टि-निपान । हो कर खुद चँडी यथा, चढ़ आये दल साथ ॥ 1083 पहले देखा है नहीं, अब देखा यम कौन । लडते विशाल नेत्रयुत, वह है स्त्री-गुण-भौन ॥ 1084 मुग्धा इस स्त्री-रत्न के, दिखी दृगों की रीत । खाते दर्शक-प्राण हैं, यों है गुण विपरीत ॥ 1085 क्या यम है, या आँख है, या है मृगी सुरंग । इस मुग्धा की दृष्टि में, है तीनों का ढंग ॥ 1086 ऋजु हो टेढ़ी भृकुटियाँ, मना करें दे छाँह । तो इसकी आँखें मुझे, हिला, न लेंगी आह ॥ 1087 अनत कुचों पर नारि के, पड़ा रहा जो पाट । मद-गज के दृग ढ़ांकता, मुख-पट सम वह ठाट ॥ 1088 उज्जवल माथे से अहो, गयी शक्ति वह रीत । भिड़े बिना रण-भूमि में, जिससे रिपु हों भीत ॥ 1089 सरल दृष्टि हरिणी सदृश, औ’ रखती जो लाज । उसके हित गहने बना, पहनाना क्या काज ॥ 1090 हर्षक है केवल उसे, जो करता है पान । दर्शक को हर्षक नहीं, मधु तो काम समान ॥

अध्याय 110. संकेत समझना

1091 इसके कजरारे नयन, रखते हैं दो दृष्टि । रोग एक, उस रोग की, दवा दूसरी दृष्टि ॥ 1092 आंख बचा कर देखना, तनिक मुझे क्षण काल । अर्द्ध नहीं, संयोग का, उससे अधिक रसाल ॥ 1093 देखा, उसने देख कर, झुका लिया जो सीस । वह क्यारी में प्रेम की, देना था जल सींच ॥ 1094 मैं देखूँ तो डालती, दृष्टि भूमि की ओर । ना देखूँ तो देख खुद, मन में रही हिलोर ॥ 1095 सीधे वह नहीं देखती, यद्यपि मेरी ओर । सुकुचाती सी एक दृग, मन में रही हिलोर ॥ 1096 यदुअपि वह अनभिज्ञ सी, करती है कटु बात । बात नहीं है क्रुद्ध की, झट होती यह ज्ञात ॥ 1097 रुष्ट दृष्टि है शत्रु सम, कटुक वचन सप्रीति । दिखना मानों अन्य जन, प्रेमी जन की रीति ॥ 1098 मैं देखूँ तो, स्निग्ध हो, करे मंद वह हास । सुकुमारी में उस समय, एक रही छवी ख़ास ॥ 1099 उदासीन हो देखना, मानों हो अनजान । प्रेमी जन के पास ही, रहती ऐसी बान ॥ 1100 नयन नयन मिल देखते, यदि होता है योग । वचनों का मूँह से कहे, है नहिं कुछ उपयोग ॥

अध्याय 111. संयोग का आनन्द

1101 पंचेन्द्रिय सुख, रूप औ’, स्पर्श गंध रस शब्द । उज्ज्वल चूड़ी से सजी, इसमें सब उपलब्ध ॥ 1102 रोगों की तो है दवा, उनसे अलग पदार्थ । जो सुतनू का रोग है, दवा वही रोगार्थ ॥ 1103 निज दयिता मृदु स्कंध पर, सोते जो आराम । उससे क्या रमणीय है, कमल-नयन का धाम ॥ 1104 हटने पर देती जला, निकट गया तो शीत । आग कहाँ से पा गयी, बाला यह विपरीत ॥ 1105 इच्छित ज्यों इच्छित समय, आकर दें आनन्द । पुष्पालंकृत केशयुत, हैं बाला के स्कंध ॥ 1106 लगने से हर बार है, नवजीवन का स्पंद । बने हुए हैं अमृत के, इस मुग्धा के स्कंध ॥ 1107 स्वगृह में स्वपादर्थ का, यथा बाँट कर भोग । रहा गेहुँए रंग की, बाला से संयोग ॥ 1108 आलिंगन जो यों रहा, बीच हवा-गति बंद । दोनों को, प्रिय औ’ प्रिया, देता है आनन्द ॥ 1109 मान मनावन मिलनसुख, ये जो हैं फल-भोग । प्रेम-पाश में जो पड़े, उनको है यह भोग ॥ 1110 होते होते ज्ञान के, यथा ज्ञात अज्ञान । मिलते मिलते सुतनु से, होता प्रणय-ज्ञान ॥

अध्याय 112. सौन्दर्य वर्णन

1111 रे अनिच्च तू धन्य है, तू है कोमल प्राण । मेरी जो है प्रियतमा, तुझसे मृदुतर जान ॥ 1112 बहु-जन-दृष्ट सुमन सदृश, इसके दृग को मान । रे मन यदि देखो सुमन, तुम हो भ्रमित अजान ॥ 1113 पल्लव तन, मोती रदन, प्राकृत गंध सुगंध । भाला कजरारा नयन, जिसके बाँस-स्कंध ॥ 1114 कुवलय दल यदि देखता, सोच झुका कर सीस । इसके दृग सम हम नहीं, होती उसको खीस ॥ 1115 धारण किया अनिच्च को, बिना निकाले वृन्त । इसकी कटि हिन ना बजे, मंगल बाजा-वृन्द ॥ 1116 महिला मुख औ’ चन्द्र में, उड्डगण भेद न जान । निज कक्षा से छूट कर, होते चलायमान ॥ 1117 क्षय पाकर फिर पूर्ण हो, शोभित रहा मयंक । इस नारी के वदन पर, रहता कहाँ कलंक ॥ 1118 इस नारी के वदन सम, चमक सके तो चाँद । प्रेम-पात्र मेरा बने, चिरजीवी रह चाँद ॥ 1119 सुमन-नयन युत वदन सम, यदि होने की चाह । सबके सम्मुख चन्द्र तू चमक न बेपरवाह ॥ 1120 मृदु अनिच्च का फूल औ’, हंसी का मृदु तूल । बाला के मृदु पाद हित, रहे गोखरू शूल ॥

अध्याय 113. प्रेम-प्रशंसा

1121 मधुर भाषिणी सुतुनु का, सित रद निःसृत नीर । यों लगता है मधुर वह, ज्यों मधु-मिश्रित क्षीर ॥ 1122 जैसा देही देह का, होता है सम्बन्ध । वैसा मेरे, नारि के, बीच रहा सम्बन्ध ॥ 1123 पुतली में पुतली अरी, हट जाओ यह जान । मेरी ललित ललाटयुत, प्यारी को नहिं स्थान ॥ 1124 जीना सम है प्राण हित, बाला, जब संयोग । मरना सम उसके लिये, होता अगर वियोग ॥ 1125 लड़ते दृग युत बाल के, गुण यदि जाऊँ भूल । तब तो कर सकता स्मरण, पर जाता नहिं भूल ॥ 1126 दृग में से निकलें नहीं, मेरे सुभग सुजान । झपकी लूँ तो हो न दुख, वे हैं सूक्ष्म प्राण ॥ 1127 यों विचार कर नयन में, करते वास सुजान । नहीं आंजतीं हम नयन, छिप जायेंगे जान ॥ 1128 यों विचार कर हृदय में, करते वास सुजान । खाने से डर है गरम, जल जायेंगे जान ॥ 1129 झपकी लूँ तो ज्ञात है, होंगे नाथ विलीन । पर इससे पुरजन उन्हें, कहते प्रेम विहीन ॥ 1130 यद्यपि दिल में प्रिय सदा, रहे मज़े में लीन । पुरजन कहते तज चले, कहते प्रेम विहीन ॥

अध्याय 114. लज्जा-त्याग-कथन

1131 जो चखने पर प्रेम रस, सहें वेदना हाय । ‘मडल’-सुरक्षा के बिना, उन्हें न सबल सहाय ॥ 1132 आत्मा और शरीर भी, सह न सके जो आग । चढ़े ‘मडल’ पर धैर्य से, करके लज्जा त्याग ॥ 1133 पहले मेरे पास थीं, सुधीरता और लाज । कामी जन जिसपर चढ़ें, वही ‘मडल’ है आज ॥ 1134 मेरी थी लज्जा तथा, सुधीरता की नाव । उसे बहा कर ले गया, भीषण काम-बहाव ॥ 1135 माला सम चूड़ी सजे, जिस बाला के हाथ । उसने संध्या-विरह-दुख, दिया ‘मडल’ के साथ ॥ 1136 कटती मुग्धा की वजह, आँखों में ही रात । अर्द्ध-रात्रि में भी ‘मडल’, आता ही है याद ॥ 1137 काम-वेदना जलधि में, रहती मग्न यथेष्ट । फिर भी ‘मडल’ न जो चढे, उस स्त्री से नहिं श्रेष्ठ ॥ 1138 संयम से रहती तथा, दया-पात्र अति वाम । यह न सोच कर छिप न रह, प्रकट हुआ है काम ॥ 1139 मेरा काम यही समझ, सबको वह नहिं ज्ञात । नगर-वीथि में घूमता, है मस्ती के साथ ॥ 1140 रहे भुक्त-भोगी नहीं, यथा चुकी हूँ भोग । हँसते मेरे देखते, बुद्धि हीन जो लोग ॥

अध्याय 115. प्रवाद-जताना

1141 प्रचलन हुआ प्रवाद का, सो टिकता प्रिय प्राण । इसका मेरे भाग्य से, लोगों को नहिं ज्ञान ॥ 1142 सुमन-नयन-युत बाल की, दुर्लभता नहिं जान । इस पुर ने अफवाह तो, की है मुझे प्रदान ॥ 1143 क्या मेरे लायक नहीं, पुरजन-ज्ञात प्रवाह । प्राप्त किये बिन मिलन तो, हुई प्राप्त सी बात ॥ 1144 पुरजन के अपवाद से, बढ़ जाता है काम । घट जायेगा अन्यथा, खो कर निज गुण-नाम ॥ 1145 होते होते मस्त ज्यों, प्रिय लगता मधु-पान । हो हो प्रकट प्रवाद से, मधुर काम की बान ॥ 1146 प्रिय से केवल एक दिन, हुई मिलन की बात । लेकिन चन्द्रग्रहण सम, व्यापक हुआ प्रवाद ॥ 1147 पुरजन-निंदा खाद है, माँ का कटु वच नीर । इनसे पोषित रोग यह, बढ़ता रहा अधीर ॥ 1148 काम-शमन की सोचना, कर अपवाद प्रचार । अग्नि-शमन घी डाल कर, करना सदृश विचार ॥ 1149 अपवादें से क्यों डरूँ, जब कर अभय प्रदान । सब को लज्जित कर गये, छोड़ मुझे प्रिय प्राण ॥ 1150 निज वांछित अपवाद का, पुर कर रहा प्रचार । चाहूँ तो प्रिय नाथ भी, कर देंगे उपकार ॥

अध्याय 116. विरह-वेदना

1151 अगर बिछुड़ जाते नहीं, मुझे जताओ नाथ । जो जियें उनसे कहो, झट फिरने की बात ॥ 1152 पहले उनकी दृष्टि तो, देती थी सुख-भोग । विरह-भीति से दुखद है, अब उनका संयोग ॥ 1153 विज्ञ नाथ का भी कभी, संभव रहा प्रवास । सो करना संभव नहीं, इनपर भी विश्वास ॥ 1154 छोड़ चलेंगे यदि सदय, कर निर्भय का घोष । जो दृढ़-वच विश्वासिनी, उसका है क्या दोष ॥ 1155 बचा सके तो यों बचा, जिससे चलें न नाथ । फिर मिलना संभव नहीं, छोड़ गये यदि साथ ॥ 1156 विरह बताने तक हुए, इतने निठुर समर्थ । प्रेम करेंगे लौट कर, यह आशा है व्यर्थ ॥ 1157 नायक ने जो छोड़ कर, गमन किया, वह बात । वलय कलाई से पतित, क्या न करें विख्यात ॥ 1158 उस पुर में रहना दुखद, जहाँ न साथिन लोग । उससे भी बढ़ कर दुखद, प्रिय से रहा वियोग ॥ 1159 छूने पर ही तो जला, सकती है, बस आग । काम-ज्वर सम वह जला, सकती क्या, कर त्याग ॥ 1160 दुखद विरह को मानती, चिन्ता; व्याधि न नेक । विरह-वेदना सहन कर, जीवित रहीं अनेक ॥

अध्याय 117. विरह-क्षमा की व्यथा

1161 यथा उलीचे सोत का, बढ़ता रहे बहाव । बढ़ता है यह रोग भी, यदि मैं करूँ छिपाव ॥ 1162 गोपन भी इस रोग का, है नहिं वश की बात । कहना भी लज्जाजनक, रोगकार से बात ॥ 1163 मेरी दुबली देह में, प्राणरूप जो डांड । लटके उसके छोर में, काम व लज्जा कांड ॥ 1164 काम-रोग का तो रहा, पारावार अपार । पर रक्षक बेड़ा नहीं, उसको करने पार ॥ 1165 जो देते हैं वेदना, रह कर प्रिय जन, खैर । क्या कर बैठेंगे अहो, यदि रखते हैं वैर ॥ 1166 जो है, बस, यह काम तो, सुख का पारावार । पीडा दे तो दुःख है, उससे बड़ा अपार ॥ 1167 पार न पाती पैर कर, काम-समुद्र महान । अर्द्ध रात्रि में भी निविड़, रही अकेली जान ॥ 1168 सुला जीव सब को रही, दया-पात्र यह रात । इसको मुझको छोड़ कर, और न कोई साथ ॥ 1169 ये रातें जो आजकल, लम्बी हुई अथोर । निष्ठुर के नैष्ठुर्य से, हैं खुद अधिक कठोर ॥ 1170 चल सकते हैं प्रिय के यहाँ, यदि झट हृदय समान । नहीं तैरते बाढ़ में, यों मेरे दृग, जान ॥

अध्याय 118. नेत्रों का आतुरता से क्षय

1171 अब राते हैं क्यों नयन, स्वयं दिखा आराध्य । मुझे हुआ यह रोग है, जो बन गया असाध्य ॥ 1172 सोचे समझे बिन नयन, प्रिय को उस दिन देख । अब क्यों होते हैं व्यक्ति, रखते कुछ न विवेक ॥ 1173 नयनों ने देखा स्वयं, आतुरता के साथ । अब जो रोते हैं स्वयं, है हास्यास्पद बात ॥ 1174 मुझमें रुज उत्पन्न कर, असाध्य औ’ अनिवार्य । सूख गये, ना कर सके, दृग रोने का कार्य ॥ 1175 काम-रोग उत्पन्न कर, सागर से विस्तार । नींद न पा मेरे नयन, सहते दुःख अपार ॥ 1176 ओहो यह अति सुखद है, मुझको दुख में डाल । अब ये दृग सहते स्वयं, यह दुख, हो बेहाल ॥ 1177 दिल पसीज, थे देखते, सदा उन्हें दृग सक्त । सूख जाय दृग-स्रोत अब, सह सह पीड़ा सख्त ॥ 1178 वचन मात्र से प्रेम कर, दिल से किया न प्रेम । उस जन को देखे बिना, नेत्रों को नहिं क्षेम ॥ 1179 ना आवें तो नींद नहिं, आवें, नींद न आय । दोनों हालों में नयन, सहते हैं अति हाय ॥ 1180 मेरे सम जिनके नयन, पिटते ढोल समान । उससे पुरजन को नहीं, कठिन भेद का ज्ञान ॥

अध्याय 119. पीलापन-जनित पीड़ा

1181 प्रिय को जाने के लिये, सम्मति दी उस काल । अब जा कर किससे कहूँ, निज पीलापन-हाल ॥ 1182 पीलापन यह गर्व कर, ‘मैं हूँ उनसे प्राप्त’ । चढ़ कर मेरी देह में, हो जाता है व्याप्त ॥ 1183 पीलापन औ’ रोग का, करके वे प्रतिदान । मेरी छवि औ’ लाज का, ले कर चले सुदान ॥ 1184 उनके गुण का स्मरण कर, करती हूँ गुण-गान । फिर भी पीलापन चढ़ा, तो क्या यह धोखा न ॥ 1185 वह देखो, जाते बिछुड़, मेरे प्रियतम आप्त । यह देखो, इस देह पर, पीलापन है व्याप्त ॥ 1186 दीपक बुझने की यथा, तम की जो है ताक । प्रिय-आलिंगन ढील पर, पैलापन की ताक ॥ 1187 आलिंगन करके रही, करवट बदली थोर । उस क्षण जम कर छा गया, पीलापन यह घोर ॥ 1188 ‘यह है पीली पड़ गयी’, यों करते हैं बात । इसे त्याग कर वे गये, यों करते नहिं बात ॥ 1189 मुझे मना कर तो गये, यदि सकुशल हों नाथ । तो मेरा तन भी रहे, पीलापन के साथ ॥ 1190 अच्छा है पाना स्वयं, पीलापन का नाम । प्रिय का तजना बन्धुजन, यदि न करें बदनाम ॥

अध्याय 120. विरह-वेदनातिरेक

1191 जिससे अपना प्यार है, यदि पाती वह प्यार । बीज रहित फल प्रेम का, पाती है निर्धार ॥ 1192 जीवों का करता जलद, ज्यों जल दे कर क्षेम । प्राण-पियारे का रहा, प्राण-प्रिया से प्रेम ॥ 1193 जिस नारी को प्राप्त है, प्राण-नाथ का प्यार । ‘जीऊँगी’ यों गर्व का, उसको है अधिकार ॥ 1194 उसकी प्रिया बनी नहीं, जो उसका है प्रेय । तो बहुमान्या नारि भी, पुण्यवति नहिं ज्ञेय ॥ 1195 प्यार किया मैंने जिन्हें, यदि खुद किया न प्यार । तो उनसे क्या हो सके, मेरा कुछ उपकार ॥ 1196 प्रेम एक-तरफ़ा रहे, तो है दुखद अपार । दोय तरफ़ हो तो सुखद, ज्यों डंडी पर भार ॥ 1197 जम कर सक्रिय एक में, रहा मदन बेदर्द । क्या वह समझेगा नहीं, मेरा दुःख व दर्द ॥ 1198 प्रियतम से पाये बिना, उसका मधुमय बैन । जग में जीती स्त्री सदृश, कोई निष्ठुर है न ॥ 1199 प्रेम रहित प्रियतम रहे, यद्यपि है यह ज्ञात । कर्ण मधुर ही जो मिले, उनकी कोई बात ॥ 1200 प्रेम हीन से कठिन रुज, कहने को तैयार । रे दिल ! तू चिरजीव रह ! सुखा समुद्र अपार ॥

अध्याय 121. स्मरण में एकान्तता-दुःख

1201 स्मरण मात्र से दे सके, अक्षय परमानन्द । सो तो मधु से काम है, बढ़ कर मधुर अमन्द ॥ 1202 दुख-नाशक उसका स्मरण, जिससे है निज प्रेम । जो सुखदायक ही रहा, किसी हाल में प्रेम ॥ 1203 छींका ही मैं चाहती, छींक गयी दब साथ । स्मरण किया ही चाहते, भूल गये क्या नाथ ॥ 1204 उनके दिल में क्या रहा, मेरा भी आवास । मेरे दिल में, ओह, है, उनका सदा निवास ॥ 1205 निज दिल से मुझको हटा, कर पहरे का साज़ । मेरे दिल आते सदा, आती क्या नहिं लाज ॥ 1206 मिलन-दिवस की, प्रिय सहित, स्मृति से हूँ सप्राण । उस स्मृति के बिन किस तरह, रह सकती सप्राण ॥ 1207 मुझे ज्ञात नहिं भूलना, हृदय जलाती याद । भूलूँगी मैं भी अगर, जाने क्या हो बाद ॥ 1208 कितनी ही स्मृति मैं करूँ, होते नहिं नाराज़ । करते हैं प्रिय नाथ तो, इतना बड़ा लिहाज़ ॥ 1209 ‘भिन्न न हम’, जिसने कहा, उसकी निर्दय बान । सोच सोच चलते बने, मेरे ये प्रिय प्राण ॥ 1210 बिछुड़ गये संबद्ध रह, जो मेरे प्रिय कांत । जब तक देख न लें नयन, डूब न, जय जय चांद ॥

अध्याय 122. स्वप्नावस्था का वर्णन

1211 प्रियतम का जो दूत बन, आया स्वप्नाकार । उसका मैं कैसे करूँ, युग्य अतिथि-सत्कार ॥ 1212 यदि सुन मेरी प्रार्थना, दृग हों निद्रावान । दुख सह बचने की कथा, प्रिय से कहूँ बखान ॥ 1213 जाग्रत रहने पर कृपा, करते नहीं सुजान । दर्शन देते स्वप्न में, तब तो रखती प्राण ॥ 1214 जाग्रति में करते नहीं, नाथ कृपा कर योग । खोज स्वप्न ने ला दिया, सो उसमें सुख-भोग ॥ 1215 आँखों में जब तक रहे, जाग्रति में सुख-भोग । सपने में भी सुख रहा, जब तक दर्शन-योग ॥ 1216 यदि न रहे यह जागरण, तो मेरे प्रिय नाथ । जो आते हैं स्वप्न में, छोड़ न जावें साथ ॥ 1217 कृपा न कर जागरण में, निष्ठुर रहे सुजन । पीड़ित करते किसलिये, मुझे स्वप्न में प्राण ॥ 1218 गले लगाते नींद में, पर जब पडती जाग । तब दिल के अन्दर सुजन, झट जाते हैं भाग ॥ 1219 जाग्रति में अप्राप्त को, कोसेंगी वे वाम । जिनके प्रिय ने स्वप्न में, मिल न दिया आराम ॥ 1220 यों कहते प्रिय का मुझे, जाग्रति में नहिं योग । सपने में ना देखते, क्या इस पुर के लोग ॥

अध्याय 123.संध्या दर्शन से

1221 तेरी, सांझ, चिरायु हो, तू नहिं संध्याकाल । ब्याह हुओं की जान तू, लेता अन्तिम काल । 1222 तेरी, सांझ, चिरायु हो, तू निष्प्रभ विभ्रान्त । मेरे प्रिय के सम निठुर, है क्या तेरा कान्त ॥ 1223 कंपित संध्या निष्प्रभा, मुझको बना विरक्त । आती है देती मुझे, पीड़ा अति ही सख्त ॥ 1224 वध करने के स्थान में, ज्यों आते जल्लाद । त्यों आती है सांझ भी, जब रहते नहिं नाथ ॥ 1225 मैंने क्या कुछ कर दिया, प्रात: का उपकार । वैसे तो क्या कर दिया, संध्या का उपकार ॥ 1226 पीड़ित करना सांझ का, तब था मुझे न ज्ञात । गये नहीं थे बिछुड़कर, जब मेरे प्रिय नाथ ॥ 1227 काम-रोग तो सुबह को, पा कर कली-लिवास । दिन भर मुकुलित, शाम को, पाता पुष्य-विकास ॥ 1228 दूत बनी है सांझ का, जो है अनल समान । गोप-बाँसुरी है, वही, घातक भी सामान ॥ 1229 जब आवेगी सांझ बढ़, करके मति को घूर्ण । सारा पुर मति-घूर्ण हो, दुख से होवे चूर्ण ॥ 1230 भ्रांतिमती इस सांझ में, अब तक बचती जान । धन-ग्राहक का स्मरण कर, चली जायगी जान ॥

अध्याय 124. अंगच्छवि-नाश

1231 प्रिय की स्मृति में जो तुझे, दुख दे गये सुदूर । रोते नयन सुमन निरख, लज्जित हैं बेनूर ॥ 1232 पीले पड़ कर जो नयन, बरस रहे हैं नीर । मानों कहते निठुरता, प्रिय की जो बेपीर ॥ 1233 जो कंधे फूल रहे, जब था प्रिय-संयोग । मानों करते घोषणा, अब है दुसह वियोग ॥ 1234 स्वर्ण वलय जाते खिसक, कृश हैं कंधे पीन । प्रिय-वियोग से पूर्व की, छवि से हैं वे हीन ॥ 1235 वलय सहित सौन्दर्य भी, जिन कंधों को नष्ट । निष्ठुर के नैष्ठुर्य को, वे कहते हैं स्पष्ट ॥ 1236 स्कंध शिथिल चूड़ी सहित, देख मुझे जो आप । कहती हैं उनको निठुर, उससे पाती ताप ॥ 1237 यह आक्रान्दन स्कंध का, जो होता है क्षाम । सुना निठुर को रे हृदय, पाओ क्यों न सुनाम ॥ 1238 आलिंगन के पाश से, शिथिल किये जब हाथ । तत्क्षण पीला पड गया, सुकुमारी का माथ ॥ 1239 ज़रा हवा जब घुस गयी, आलिंगन के मध्य । मुग्धा के पीले पड़े, शीत बड़े दृग सद्य ॥ 1240 उज्ज्वल माथे से जनित, पीलापन को देख । पीलापन को नेत्र के, हुआ दुःख-अतिरेक ॥

अध्याय 125. हृदय से कथन

1241 रोग-शमन हित रे हृदय, जो यह हुआ असाध्य । क्या न कहोगे सोच कर, कोई औषध साध्य ॥ 1242 हृदय ! जिओ तुम, नाथ तो, करते हैं नहिं प्यार । पर तुम होते हो व्यथित, यह मूढ़ता अपार ॥ 1243 रे दिल ! बैठे स्मरण कर, क्यों हो दुख में चूर । दुःख-रोग के जनक से, स्नेह-स्मरण है दूर ॥ 1244 नेत्रों को भी ले चलो, अरे हृदय, यह जान । उनके दर्शन के लिये, खाते मेरी जान ॥ 1245 यद्यपि हम अनुरक्त हैं, वे हैं नहिं अनुरक्त । रे दिल, यों निर्मम समझ, हो सकते क्या त्यक्त ॥ 1246 जब प्रिय देते मिलन सुख, गया नहीं तू रूठ । दिल, तू जो अब क्रुद्ध है, वह है केवल झूठ ॥ 1247 अरे सुदिल, तज काम को, या लज्जा को त्याग । मैं तो सह सकती नहीं, इन दोनों की आग ॥ 1248 रे मेरे दिल, यों समझ, नहीं दयार्द्र सुजान । बिछुड़े के पीछे लगा, चिन्ताग्रस्त अजान ॥ 1249 तेरे अन्दर जब रहा, प्रियतम का आवास । रे दिल, उनका स्मरण कर, जावे किसके पास ॥ 1250 फिर न मिले यों तज दिया, उनको दिल में ठौर । देने से मैं खो रही, अभ्यन्तर छवि और ॥

अध्याय 126. धैर्य-भंग

1251 लाज-चटखनी युक्त है, मनोधैर्य का द्वार । खंडन करना है उसे, यह जो काम-कुठार ॥ 1252 काम एक निर्दय रहा, जो दिल पर कर राज । अर्द्ध रात्रि के समय भी, करवाता है काज ॥ 1253 काम छिपाने यत्न तो, मैं करती हूँ जान । प्रकट हुआ निर्देश बिन, वह तो छींक समान ॥ 1254 कहती थी ‘हूँ धृतिमती’, पर मम काम अपार । प्रकट सभी पर अब हुआ, गोपनीयता पार ॥ 1255 उनके पीछे जा लगें, जो तज गये सुजान । काम-रोगिणी को नहीं, इस बहुमति का ज्ञान ॥ 1256 उनके पीछे लग रहूँ, चले गये जो त्याग । काम-रोग को यों दिया, यह मेरा बड़भाग ॥ 1257 करते ये प्रिय नाथ जब, कामेच्छित सब काज । तब यह ज्ञात न था हमें, एक वस्तु है लाज ॥ 1258 बहुमायामय चोर के, जो हैं नयमय बैन । मेरी धृति को तोड़ने, क्या होते नहिं सैन ॥ 1259 चली गई मैं रूठने, किन्तु हृदय को देख । वह प्रवृत्त है मिलन हित, गले लगी, हो एक ॥ 1260 अग्नि-दत्त मज्जा यथा, जिनका दिल द्रवमान । उनको प्रिय के पास रह, क्या संभव है मान ॥

अध्याय 127. उनकी उत्कंठा

1261 छू कर गिनते विरह दिन, घिस अंगुलियाँ क्षीण । तथा नेत्र भी हो गये, राह देख छवि-हीन ॥ 1262 उज्ज्वल भूषण सज्जिते ! यदि मैं भूलूँ आज । गिरें बाँह से चुड़ियाँ, औ’ खोऊँ छवि-साज ॥ 1263 विजय-कामना से चले, साथ लिये उत्साह । सो अब भी जीती रही, ‘लौटेंगे’ यों चाह ॥ 1264 प्रेम सहित हैं लौटते, बिछुड़ गये जो नाथ । उमड़ रहा यों सोच कर, हृदय खुशी के साथ ॥ 1265 प्रियतम को मैं देख लूँ, आँखों से भरपूर । फिर पीलापन स्कंध का, हो जायेगा दूर ॥ 1266 प्रिय आवें तो एक दिन,यों कर लूँ रसपान । जिससे पूरा ही मिटे, दुःखद रोग निदान ॥ 1267 नेत्र सदृश प्रिय आ मिलें, तो कर बैठूँ मान ? या आलिंगन ही करूँ, या दोनों, हे प्राण ॥ 1268 क्रियाशील हो युद्ध कर, राजा पावें जीत । सपत्नीक हम भोज दें, संध्या हित सप्रीत ॥ 1269 जिसे प्रवासी पुरुष के, प्रत्यागम का सोच । एक रोज़ है सात सम, लंबा होता रोज़ ॥ 1270 प्राप्य हुई या प्राप्त ही, या हो भी संयोग । हृदय भग्न हो चल बसी, तो क्या हो उपयोग ॥

अध्याय 128. इंगित से बोध

1271 रखने पर भी कर छिपा, मर्यादा को पार । हैं तेरे ही नेत्र कुछ, कहने का तैयार ॥ 1272 छवि भरती है आँख भर, बाँस सदृश हैं स्कंध । मुग्धा में है मूढ़ता, नारी-सुलभ अमंद ॥ 1273 अन्दर से ज्यों दीखता, माला-मणि में सूत । बाला छवि में दीखता, कुछ संकेत प्रसूत ॥ 1274 बद कली में गंध ज्यों, रहती है हो बंद । त्यों इंगित इक बंद है, मुग्धा-स्मिति में मंद ॥ 1275 बाला ने, चूड़ी-सजी, मुझसे किया दुराव । दुःख निवारक इक दवा, रखता है वह हाव ॥ 1276 दे कर अतिशय मिलन सुख, देना दुःख निवार । स्मारक भावी विरह का, औ’ निष्प्रिय व्यवहार ॥ 1277 नायक शीतल घाट का, बिछुड़ जाय यह बात । मेरे पहले हो गयी, इन वलयों को ज्ञात ॥ 1278 कल ही गये वियुक्त कर, मेरे प्यारे नाथ । पीलापन तन को लिये, बीत गये दिन सात ॥ 1279 वलय देख फिर स्कंध भी, तथा देख निज पाँव । यों उसने इंगित किया, साथ गमन का भाव ॥ 1280 काम-रोग को प्रगट कर, नयनों से कर सैन । याचन करना तो रहा, स्त्रीत्व-लब्ध गुण स्त्रैण ॥

अध्याय 129. मिलन-उत्कंठा

1281 मुद होना स्मृति मात्र से, दर्शन से उल्लास । ये गुण नहीं शराब में, रहे काम के पास ॥ 1282 यदि आवेगा काम तो, बढ़ कर ताड़ समान । तिल भर भी नहिं चाहिये, करना प्रिय से मान ॥ 1283 यद्यपि मनमानी करें, बिन आदर की सैन । प्रियतम को देखे बिना, नयनों को नहिं चैन ॥ 1284 गयी रूठने री सखी, करके मान-विचार । मेरा दिल वह भूल कर, मिलने को तैयार ॥ 1285 कूँची को नहिं देखते, यथा आंजते अक्ष । उनकी भूल न देखती, जब हैं नाथ समक्ष ॥ 1286 जब प्रिय को मैं देखती, नहीं देखती दोष । ना देखूँ तो देखती, कुछ न छोड़ कर दोष ॥ 1287 कूदे यथा प्रवाह में, बाढ़ बहाती जान । निष्फलता को जान कर, क्या हो करते मान ॥ 1288 निन्दाप्रद दुख क्यों न दे, मद्यप को ज्यों पान । त्यों है, वंचक रे, हमें, तेरी छाती जान ॥ 1289 मृदुतर हो कर सुमन से, जो रहता है काम । बिरले जन को प्राप्त है, उसका शुभ परिणाम ॥ 1290 उत्कंठित मुझसे अधिक, रही मिलन हित बाल । मान दिखा कर नयन से, गले लगी तत्काल ॥

अध्याय 130. हृदय से रूठना

1291 उनका दिल उनका रहा, देते उनका साथ । उसे देख भी, हृदय तू, क्यों नहिं मेरे साथ ॥ 1292 प्रिय को निर्मम देख भी, ‘वे नहिं हो नाराज़’ । यों विचार कर तू चला, रे दिल, उनके पास ॥ 1293 रे दिल, जो हैं कष्ट में, उनके हैं नहिं इष्ट । सो क्या उनका पिछलगा, बना यथा निज इष्ट ॥ 1294 रे दिल तू तो रूठ कर, बाद न ले सुख-स्वाद । तुझसे कौन करे अभी, तत्सम्बन्धी बात ॥ 1295 न मिल तो भय, या मिले, तो भेतव्य वियोग । मेरा दिल है चिर दुखी, वियोग या संयोग ॥ 1296 विरह दशा में अलग रह, जब करती थी याद । मानों मेरा दिल मुझे, खाता था रह साथ ॥ 1297 मूढ हृदय बहुमति रहित, नहीं भूलता नाथ । मैं भूली निज लाज भी, पड़ कर इसके साथ ॥ 1298 नाथ-उपेक्षा निंद्य है, यों करके सुविचार । करता उनका गुण-स्मरण, यह दिल जीवन-प्यार ॥ 1299 संकट होने पर मदद, कौन करेगा हाय । जब कि निजी दिल आपना, करता नहीं सहाय ॥ 1300 बन्धु बनें नहिं अन्य जन, है यह सहज, विचार । जब अपना दिल ही नहीं, बनता नातेदार ॥

अध्याय 131. मान

1301 आलिंगन करना नहीं, ठहरो करके मान । देखें हम उनको ज़रा, सहते ताप अमान ॥ 1302 ज्यों भोजन में नमक हो, प्रणय-कलह त्यों जान । ज़रा बढ़ाओ तो उसे, ज्यादा नमक समान ॥ 1303 अगर मना कर ना मिलो, जो करती है मान । तो वह, दुखिया को यथा, देना दुख महान ॥ 1304 उसे मनाया यदि नहीं, जो कर बैठी मान । सूखी वल्ली का यथा, मूल काटना जान ॥ 1305 कुसुम-नेत्रयुत प्रियतमा, रूठे अगर यथेष्ट । शोभा देती सुजन को, जिनके गुण हैं श्रेष्ठ ॥ 1306 प्रणय-कलह यदि नहिं हुआ, और न थोड़ा मान । कच्चा या अति पक्व सम, काम-भोग-फल जान ॥ 1307 ‘क्या न बढ़ेगा मिलन-सुख’, यों है शंका-भाव । प्रणय-कलह में इसलिये, रहता दुखद स्वभाव ॥ 1308 ‘पीड़ित है’ यों समझती, प्रिया नहीं रह जाय । तो सहने से वेदना, क्या ही फल हो जाय ॥ 1309 छाया के नीचे रहा, तो है सुमधुर नीर । प्रिय से हो तो मधुर है, प्रणय कलह-तासीर ॥ 1310 सूख गयी जो मान से, और रही बिन छोह । मिलनेच्छा उससे रहा, मेरे दिल का मोह ॥

अध्याय 132. मान की सूक्ष्मता

1311 सभी स्त्रियाँ सम भाव से, करतीं दृग से भोग । रे विट् तेरे वक्ष से, मैं न करूँ संयोग ॥ 1312 हम बैठी थीं मान कर, छींक गये तब नाथ । यों विचार ‘चिर जीव’ कह, हम कर लेंगी बात ॥ 1313 धरूँ डाल का फूल तो, यों होती नाराज़ । दर्शनार्थ औ’ नारि से, करते हैं यह साज ॥ 1314 ‘सब से बढ़’, मैंने कहा, ‘हम करते हैं प्यार’ । ‘किस किस से’ कहती हुई, लगी रुठने यार ॥ 1315 यों कहने पर- हम नहीं, ‘बिछुड़ेंगे इस जन्म’ । भर लायी दृग, सोच यह, क्या हो अगले जन्म ॥ 1316 ‘स्मरण किया’ मैंने कहा, तो क्यों बैठे भूल । यों कह मिले बिना रही, पकड़ मान का तूल ॥ 1317 छींका तो, कह शुभ वचन, तभी बदल दी बात । ‘कौन स्मरण कर छींक दी’, कह रोयी सविषाद ॥ 1318 छींक दबाता मैं रहा, रोयी कह यह बैन । अपनी जो करती स्मरण, उसे छिपाते हैं न ॥ 1319 अगर मनाऊँ तो सही, यों कह होती रुष्ट । करते होंगे अन्य को, इसी तरह से तुष्ट ॥ 1320 देखूँ यदि मैं मुग्ध हो, यों कह करती रार । देख रहे हैं आप सब, दिल में किसे विचार ॥

अध्याय 133. मान का आनन्द

1321 यद्यपि उनकी भूल नहिं, उनका प्रणय-विधान । प्रेरित करता है मुझे, करने के हित मान ॥ 1322 मान जनित लघु दुःख से, यद्यपि प्रिय का प्रेम । मुरझा जाता है ज़रा, फिर भी पाता क्षेम ॥ 1323 मिट्‍टी-पानी मिलन सम, जिस प्रिय का संपर्क । उनसे होते कलह से, बढ़ कर है क्या स्वर्ग ॥ 1324 मिलन साध्य कर, बिछुड़ने, देता नहिं जो मान । उससे आविर्भूत हो, हृत्स्फोटक सामान ॥ 1325 यद्यपि प्रिय निर्दोष है, मृदुल प्रिया का स्कंध । छूट रहे जब मिलन से, तब है इक आनन्द ॥ 1326 खाने से, खाया हुआ, पचना सुखकर जान । काम-भोग हित मिलन से, अधिक सुखद है मान ॥ 1327 प्रणय-कलह में जो विजित, उसे रहा जय योग । वह तो जाना जायगा, जब होगा संयोग ॥ 1328 स्वेद-जनक सुललाट पर, मिलन जन्य आनन्द । प्रणय-कलह कर क्या मिले, फिर वह हमें अमन्द ॥ 1329 रत्नाभरण सजी प्रिया, करे और भी मान । करें मनौती हम यथा, बढ़े रात्रि का मान ॥ 1330 रहा काम का मधुर रस, प्रणय-कलह अवगाह । फिर उसका है मधुर रस, मधुर मिलन सोत्साह ॥

  • तिरुक्कुरल, भाग–२: अर्थ- कांड : तिरुवल्लुवर
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