तिरुक्कुरल : तिरुवल्लुवर, अनुवादक : एम. जी. वेंकटकृष्णन

Thirukkural : Thiruvalluvar, Translator : M.G. Venkatakrishnan

तिरुक्कुरल, भाग–१– धर्म- कांड : तिरुवल्लुवर


अध्याय 1. ईश्वर-स्तुति

1 अक्षर सबके आदि में, है अकार का स्थान । अखिल लोक का आदि तो, रहा आदि भगवान ॥ 2 विद्योपार्जन भी भला, क्या आयेगा काम । श्रीपद पर सत्याज्ञ के, यदि नहिं किया प्रणाम ॥ 3 हृदय-पद्‍म-गत ईश के, पाद-पद्‍म जो पाय । श्रेयस्कर वरलोक में, चिरजीवी रह जाय ॥ 4 राग-द्वेष विहीन के, चरणाश्रित जो लोग । दुःख न दे उनको कभी, भव-बाधा का रोग ॥ 5 जो रहते हैं ईश के, सत्य भजन में लिप्त । अज्ञानाश्रित कर्म दो, उनको करें न लिप्त ॥ 6 पंचेन्द्रिय-निग्रह किये, प्रभु का किया विधान । धर्म-पंथ के पथिक जो, हों चिर आयुष्मान ॥ 7 ईश्वर उपमारहित का, नहीं पदाश्रय-युक्त । तो निश्चय संभव नहीं, होना चिन्ता-मुक्त ॥ 8 धर्म-सिन्धु करुणेश के, शरणागत है धन्य । उसे छोड दुख-सिन्धु को, पार‍ न पाये अन्य ॥ 9 निष्क्रिय इन्द्रिय सदृश ही, 'सिर' है केवल नाम । अष्टगुणी के चरण पर, यदि नहिं किया प्रणाम ॥ 10 भव-सागर विस्तार से, पाते हैं निस्तार । ईश-शरण बिन जीव तो, कर नहीं पाये पार ॥

अध्याय 2 . वर्ष- महत्व

11 उचित समय की वृष्टि से, जीवित है संसार । मानी जाती है तभी, वृष्टि अमृत की धार ॥ 12 आहारी को अति रुचिर‍, अन्नरूप आहार । वृष्ति सृष्टि कर फिर स्वयं, बनती है आहार ॥ 13 बादल-दल बरसे नहीं, यदि मौसम में चूक । जलधि-धिरे भूलोक में, क्षुत से हो आति हूक ॥ 14 कर्षक जन से खेत में, हल न चलाया जाय । धन-वर्षा-संपत्ति की, कम होती यदि आय ॥ 15 वर्षा है ही आति प्रबल, सब को कर बरबाद । फिर दुखियों का साथ दे, करे वही आबाद ॥ 16 बिना हुए आकाश से, रिमझिम रिमझिम वृष्टि । हरि भरी तृण नोक भी, आयेगी नहीं दृष्टि ॥ 17 घटा घटा कर जल‍धि को, यदि न करे फिर दान । विस्तृत बड़े समुद्र का, पानी उतरा जान ॥ 18 देवाराधन नित्य का, उत्सव सहित अमंद । वृष्टि न हो तो भूमि पर, हो जावेगा बंद ॥ 19 इस विस्तृत संसार में, दान पुण्य तप कर्म । यदि पानी बरसे नहीं, टिकें न दोनों कर्म ॥ 20 नीर बिना भूलोक का, ज्यों न चले व्यापार । कभी किसी में नहिं टिके, वर्षा बिन आचार ॥

अध्याय 3. सन्यासी- महिमा

21 सदाचार संपन्न जो, यदि यति हों वे श्रेष्ठ । धर्मशास्त्र सब मानते, उनकी महिमा श्रेष्ठ ॥ 22 यति-महिमा को आंकने, यदि हो कोई यत्न । जग में मृत-जन-गणन सम, होता है वह यत्न ॥ 23 जन्म-मोक्ष के ज्ञान से, ग्रहण किया सन्यास । उनकी महिमा का बहुत, जग में रहा प्रकाश ॥ 24 अंकुश से दृढ़ ज्ञान के, इन्द्रिय राखे आप । ज्ञानी वह वर लोक का, बीज बनेगा आप ॥ 25 जो है इन्द्रिय-निग्रही, उसकी शक्ति अथाह । स्वर्गाधीश्वर इन्द्र ही, इसका रहा गवाह ॥ 26 करते दुष्कर कर्म हैं, जो हैं साधु महान । दुष्कर जो नहिं कर सके, अधम लोक वे जान ॥ 27 स्पर्श रूप रस गन्ध औ', शब्द मिला कर पंच । समझे इन्के तत्व जो, समझे वही प्रपंच ॥ 28 भाषी वचन अमोध की, जो है महिमा सिद्ध । गूढ़ मंत्र उनके कहे, जग में करें प्रसिद्ध ॥ 29 सद्गुण रूपी अचल पर, जो हैं चढ़े सुजान । उनके क्षण का क्रोध भी, सहना दुष्कर जान ॥ 30 करते हैं सब जीव से, करुणामय व्यवहार । कहलाते हैं तो तभी, साधु दया-आगार ॥

अध्याय 4. धर्म पर आग्रह

31 मोक्षप्रद तो धर्म है, धन दे वही अमेय । उससे बढ़ कर जीव को, है क्या कोई श्रेय ॥ 32 बढ़ कर कहीं सुधर्म से, अन्य न कुछ भी श्रेय । भूला तो उससे बड़ा, और न कुछ अश्रेय ॥ 33 यथाशक्ति करना सदा, धर्मयुक्त ही कर्म । तन से मन से वचन से, सर्व रीती से धर्म । 34 मन का होना मल रहित, इतना ही है धर्म । बाकी सब केवल रहे, ठाट-बाट के कर्म ॥ 35 क्रोध लोभ फिर कटुवचन, और जलन ये चार । इनसे बच कर जो हुआ, वही धर्म का सार ॥ 36 'बाद करें मरते समय', सोच न यों, कर धर्म । जान जाय जब छोड़ तन, चिर संगी है धर्म ॥ 37 धर्म-कर्म के सुफल का, क्या चाहिये प्रमाण । शिविकारूढ़, कहार के, अंतर से तू जान ॥ 38 बिना गँवाए व्यर्थ दिन, खूब करो यदि धर्म । जन्म-मार्ग को रोकता, शिलारूप वह धर्म ॥ 39 धर्म-कर्म से जो हुआ, वही सही सुख-लाभ । अन्य कर्म से सुख नहीं, न तो कीर्ति का लाभ ॥ 40 करने योग्य मनुष्य के, धर्म-कर्म ही मान । निन्दनीय जो कर्म हैं, वर्जनीय ही जान ॥

अध्याय 5. गार्हस्थ्य

41 धर्मशील जो आश्रमी, गृही छोड़ कर तीन । स्थिर आश्रयदाता रहा, उनको गृही अदीन ॥ 42 उनका रक्षक है गृही, जो होते हैं दीन । जो अनाथ हैं, और जो, मृतजन आश्रयहीन ॥ 43 पितर देव फिर अतिथि जन, बन्धु स्वयं मिल पाँच । इनके प्रति कर्तव्य का, भरण धर्म है साँच ॥ 44 पापभीरु हो धन कमा, बाँट यथोचित अंश । जो भोगे उस पुरुष का, नष्ट न होगा वंश ॥ 45 प्रेम- युक्त गार्हस्थ्य हो, तथा धर्म से पूर्ण । तो समझो वह धन्य है, तथा सुफल से पूर्ण ॥ 46 धर्म मार्ग पर यदि गृही, चलायगा निज धर्म । ग्रहण करे वह किसलिये, फिर अपराश्रम धर्म ॥ 47 भरण गृहस्थी धर्म का, जो भी करे गृहस्थ । साधकगण के मध्य वह, होता है अग्रस्थ ॥ 48 अच्युत रह निज धर्म पर, सबको चला सुराह । क्षमाशील गार्हस्थ्य है, तापस्य से अचाह ॥ 49 जीवन ही गार्हस्थ्य का, कहलाता है धर्म । अच्छा हो यदि वह बना, जन-निन्दा बिन धर्म ॥ 50 इस जग में है जो गृही, धर्मनिष्ठ मतिमान । देवगणों में स्वर्ग के, पावेगा सम्मान ॥

अध्याय 6. सहधर्मिणी

51 गृहिणी-गुण-गण प्राप्त कर, पुरुष-आय अनुसार । जो गृह-व्यय करती वही, सहधर्मिणी सुचार ॥ 52 गुण-गण गृहणी में न हो, गृह्य-कर्म के अर्थ । सुसंपन्न तो क्यों न हो, गृह-जीवन है व्यर्थ ॥ 53 गृहिणी रही सुधर्मिणी, तो क्या रहा अभाव । गृहिणी नहीं सुधर्मिणी, किसका नहीं अभाव ॥ 54 स्त्री से बढ़ कर श्रेष्ठ ही, क्या है पाने योग्य । यदि हो पातिव्रत्य की, दृढ़ता उसमें योग्य ॥ 55 पूजे सती न देव को, पूज जगे निज कंत । उसके कहने पर ‘बरस’, बरसे मेघ तुरंत ॥ 56 रक्षा करे सतीत्व की, पोषण करती कांत । गृह का यश भी जो रखे, स्त्री है वह अश्रांत ॥ 57 परकोटा पहरा दिया, इनसे क्या हो रक्ष । स्त्री हित पातिव्रत्य ही, होगा उत्तम रक्ष ॥ 58 यदि पाती है नारियाँ, पति पूजा कर शान । तो उनका सुरधाम में, होता है बहुमान ॥ 59 जिसकी पत्नी को नहीं, घर के यश का मान । नहिं निन्दक के सामने, गति शार्दूल समान ॥ 60 गृह का जयमंगल कहें, गृहिणी की गुण-खान । उनका सद्भूषण कहें, पाना सत्सन्तान ॥

अध्याय 7. संतान-लाभ

61 बुद्धिमान सन्तान से, बढ़ कर विभव सुयोग्य । हम तो मानेंगे नहीं, हैं पाने के योग्य ॥ 62 सात जन्म तक भी उसे, छू नहिं सकता ताप । यदि पावे संतान जो, शीलवान निष्पाप ॥ 63 निज संतान-सुकर्म से, स्वयं धन्य हों जान । अपना अर्थ सुधी कहें, है अपनी संतान ॥ 64 नन्हे निज संतान के, हाथ विलोड़ा भात । देवों के भी अमृत का, स्वाद करेगा मात ॥ 65 निज शिशु अंग-स्पर्श से, तन को है सुख-लाभ । टूटी- फूटी बात से, श्रुति को है सुख-लाभ ॥ 66 मुरली-नाद मधुर कहें, सुमधुर वीणा-गान । तुतलाना संतान का, जो न सुना निज कान ॥ 67 पिता करे उपकार यह, जिससे निज संतान । पंडित-सभा-समाज में, पावे अग्रस्थान ॥ 68 विद्यार्जन संतान का, अपने को दे तोष । उससे बढ़ सब जगत को, देगा वह संतोष ॥ 69 पुत्र जनन पर जो हुआ, उससे बढ़ आनन्द । माँ को हो जब वह सुने, महापुरुष निज नन्द ॥ 70 पुत्र पिता का यह करे, बदले में उपकार । `धन्य धन्य इसके पिता’, यही कहे संसार ॥

अध्याय 8. प्रेम-भाव

71 अर्गल है क्या जो रखे, प्रेमी उर में प्यार । घोषण करती साफ़ ही, तुच्छ नयन-जल-धार ॥ 72 प्रेम-शून्य जन स्वार्थरत, साधें सब निज काम । प्रेमी अन्यों के लिये, त्यागें हड्डी-चाम ॥ 73 सिद्ध हुआ प्रिय जीव का, जो तन से संयोग । मिलन-यत्न-फल प्रेम से, कहते हैं बुध लोग ॥ 74 मिलनसार के भाव को, जनन करेगा प्रेम । वह मैत्री को जन्म दे, जो है उत्तम क्षेम ॥ 75 इहलौकिक सुख भोगते, निश्रेयस का योग । प्रेमपूर्ण गार्हस्थ्य का, फल मानें बुध लोग ॥ 76 साथी केवल धर्म का, मानें प्रेम, अजान । त्राण करे वह प्रेम ही, अधर्म से भी जान ॥ 77 कीड़े अस्थिविहीन को, झुलसेगा ज्यों धर्म । प्राणी प्रेम विहीन को, भस्म करेगा धर्म ॥ 78 नीरस तरु मरु भूमि पर, क्या हो किसलय-युक्त । गृही जीव वैसा समझ, प्रेम-रहित मन-युक्त ॥ 79 प्रेम देह में यदि नहीं, बन भातर का अंग । क्या फल हो यदि पास हों, सब बाहर के अंग ॥ 80 प्रेम-मार्ग पर जो चले, देह वही सप्राण । चर्म-लपेटी अस्थि है, प्रेम-हीन की मान ॥

अध्याय 9. अतिथि-सत्कार

81 योग-क्षेम निबाह कर, चला रहा घर-बार । आदर करके अतिथि का, करने को उपकार ॥ 82 बाहर ठहरा अतिथि को, अन्दर बैठे आप । देवामृत का क्यों न हो, भोजन करना पाप ॥ 83 दिन दिन आये अतिथि का, करता जो सत्कार । वह जीवन दारिद्रय का, बनता नहीं शिकार ॥ 84 मुख प्रसन्न हो जो करे, योग्य अतिथि-सत्कार । उसके घर में इन्दिरा, करती सदा बहार ॥ 85 खिला पिला कर अतिथि को, अन्नशेष जो खाय । ऐसों के भी खेत को, काहे बोया जाया ॥ 86 प्राप्त अतिथि को पूज कर, और अतिथि को देख । जो रहता, वह स्वर्ग का, अतिथि बनेगा नेक ॥ 87 अतिथि-यज्ञ के सुफल की, महिमा का नहिं मान । जितना अतिथि महान है, उतना ही वह मान ॥ 88 'कठिन यत्न से जो जुड़ा, सब धन हुआ समाप्त' । यों रोवें, जिनको नहीं, अतिथि-यज्ञ-फल प्राप्त ॥ 89 निर्धनता संपत्ति में, अतिथि-उपेक्षा जान । मूर्ख जनों में मूर्ख यह, पायी जाती बान ॥ 90 सूंघा ‘अनिच्च’ पुष्प को, तो वह मुरझा जाय । मुँह फुला कर ताकते, सूख अतिथि-मुख जाय ॥

अध्याय 10. मधुर-भाषण

91 जो मूँह से तत्वज्ञ के, हो कर निर्गत शब्द । प्रेम-सिक्त निष्कपट हैं, मधुर वचन वे शब्द ॥ 92 मन प्रसन्न हो कर सही, करने से भी दान । मुख प्रसन्न भाषी मधुर, होना उत्तम मान ॥ 93 ले कर मुख में सौम्यता, देखा भर प्रिय भाव । बिला हृद्‍गत मृदु वचन, यही धर्म का भाव ॥ 94 दुख-वर्धक दारिद्र्य भी, छोड़ जायगा साथ । सुख-वर्धक प्रिय वचन यदि, बोले सब के साथ ॥ 95 मृदुभाषी होना तथा, नम्र-भाव से युक्त । सच्चे भूषण मनुज के, अन्य नहीं है उक्त ॥ 96 होगा ह्रास अधर्म का, सुधर्म का उत्थान । चुन चुन कर यदि शुभ वचन, कहे मधुरता-सान ॥ 97 मधुर शब्द संस्कारयुत, पर को कर वरदान । वक्ता को नय-नीति दे, करता पुण्य प्रदान ॥ 98 ओछापन से रहित जो, मीठा वचन प्रयोग । लोक तथा परलोक में, देता है सुख-भोग ॥ 99 मधुर वचन का मधुर फल, जो भोगे खुद आप । कटुक वचन फिर क्यों कहे, जो देता संताप ॥ 100 रहते सुमधुर वचन के, कटु कहने की बान । यों ही पक्का छोड़ फल, कच्चा ग्रहण समान ॥

अध्याय 11. कृतज्ञता

101 उपकृत हुए बिना करे, यदि कोइ उपकार । दे कर भू सुर-लोक भी, मुक्त न हो आभार ॥ 102 अति संकट के समय पर, किया गया उपकार । भू से अधिक महान है, यद्यपि अल्पाकार ॥ 103 स्वार्थरहित कृत मदद का, यदि गुण आंका जाय । उदधि-बड़ाई से बड़ा, वह गुण माना जाय ॥ 104 उपकृति तिल भर ही हुई, तो भी उसे सुजान । मानें ऊँचे ताड़ सम, सुफल इसी में जान ॥ 105 सीमित नहिं, उपकार तक, प्रत्युपकार- प्रमाण । जितनी उपकृत-योग्यता, उतना उसका मान ॥ 106 निर्दोषों की मित्रता, कभी न जाना भूल । आपद-बंधु स्नेह को, कभी न तजना भूल ॥ 107 जिसने दुःख मिटा दिया, उसका स्नेह स्वभाव । सात जन्म तक भी स्मरण, करते महानुभाव ॥ 108 भला नहीं है भूलना, जो भी हो उपकार । भला यही झट भूलना, कोई भी अपकार ॥ 109 हत्या सम कोई करे, अगर बड़ी कुछ हानि । उसकी इक उपकार-स्मृति, करे हानि की हानि ॥ 110 जो भी पातक नर करें, संभव है उद्धार । पर है नहीं कृतघ्न का, संभव ही निस्तार ॥

अध्याय 12. मध्यस्थता

111 मध्यस्थता यथेष्ट है, यदि हो यह संस्कार । शत्रु मित्र औ’ अन्य से, न्यायोचित व्यवहार ॥ 112 न्यायनिष्ठ की संपदा, बिना हुए क्षयशील । वंश वंश का वह रहे, अवलंबन स्थितिशील ॥ 113 तजने से निष्पक्षता, जो धन मिले अनन्त । भला, भले ही, वह करे तजना उसे तुरन्त ॥ 114 कोई ईमान्दार है, अथवा बेईमान । उन उनके अवशेष से, होती यह पहचान ॥ 115 संपन्नता विपन्नता, इनका है न अभाव । सज्जन का भूषण रहा, न्यायनिष्ठता भाव ॥ 116 सर्वनाश मेरा हुआ, यों जाने निर्धार । चूक न्याय-पथ यदि हुआ, मन में बुरा विचार ॥ 117 न्यायवान धर्मिष्ठ की, निर्धनता अवलोक । मानेगा नहिं हीनता, बुद्धिमान का लोक ॥ 118 सम रेखा पर हो तुला, ज्यों तोले सामान । भूषण महानुभाव का, पक्ष न लेना मान ॥ 119 कहना सीधा वचन है, मध्यस्थता ज़रूर । दृढ़ता से यदि हो गयी, चित्त-वक्रता दूर ॥ 120 यदि रखते पर माल को, अपना माल समान । वणिक करे वाणीज्य तो, वही सही तू जान ॥

अध्याय 13. संयम्‍शीलता

121 संयम देता मनुज को, अमर लोक का वास । झोंक असंयम नरक में, करता सत्यानास ॥ 122 संयम की रक्षा करो, निधि अनमोल समान । श्रेय नहीं है जीव को, उससे अधिक महान ॥ 123 कोई संयमशील हो, अगर जानकर तत्व । संयम पा कर मान्यता, देगा उसे महत्व ॥ 124 बिना टले निज धर्म से, जो हो संयमशील । पर्वत से भी उच्चतर, होगा उसका डील ॥ 125 संयम उत्तम वस्तु है, जन के लिये अशेष । वह भी धनिकों में रहे, तो वह धन सुविशेष ॥ 126 पंचेन्द्रिय-निग्राह किया, कछुआ सम इस जन्म । तो उससे रक्षा सुदृढ़, होगी सातों जन्म ॥ 127 चाहे औरोंको नहीं, रख लें वश में जीभ । शब्द-दोष से हों दुखी, यदि न वशी हो जीभ ॥ 128 एक बार भी कटुवचन, पहुँचाये यदि कष्ट । सत्कर्मों के सुफल सब, हो जायेंगे नष्ट ॥ 129 घाव लगा जो आग से, संभव है भर जाय । चोट लगी यदि जीभ की, कभी न मोटी जाय ॥ 130 क्रोध दमन कर जो हुआ, पंडित यमी समर्थ । धर्म-देव भी जोहता, बाट भेंट के अर्थ ॥

अध्याय 14. आचारशीलता

131 सदाचार-संपन्नता, देती सब को श्रेय । तब तो प्राणों से अधिक, रक्षणीय वह ज्ञेय ॥ 132 सदाचार को यत्न से, रखना सहित विवेक । अनुशीलन से पायगा, वही सहायक एक ॥ 133 सदाचार-संपन्नता, है कुलीनता जान । चूके यदि आचार से, नीच जन्म है मान ॥ 134 संभव है फिर अध्ययन, भूल गया यदि वेद । आचारच्युत विप्र के, होगा कुल का छेद ॥ 135 धन की ज्यों ईर्ष्यालु के, होती नहीं समृद्धि । आचारहीन की नहीं, कुलीनता की वृद्धि ॥ 136 सदाचार दुष्कर समझ, धीर न खींचे हाथ । परिभव जो हो जान कर, उसकी च्युति के साथ ॥ 137 सदाचार से ही रही, महा कीर्ति की प्राप्ति । उसकी च्युति से तो रही, आति निन्दा की प्राप्ति ॥ 138 सदाचार के बीज से, होता सुख उत्पन्न । कदाचार से ही सदा, होता मनुज विपन्न ॥ 139 सदाचारयुत लोग तो, मुख से कर भी भूल । कहने को असमर्थ हैं, बुरे वचन प्रतिकूल ॥ 140 जिनको लोकाचार की, अनुगति का नहिं ज्ञान । ज्ञाता हों सब शास्त्र के, जानों उन्हें अजान ॥

अध्याय 15. परदार- विरति

141 परपत्नी-रति-मूढ़ता, है नहिं उनमें जान । धर्म-अर्थ के शास्त्र का, जिनको तत्वज्ञान ॥ 142 धर्म-भ्रष्टों में नही, ऐसा कोई मूढ़ । जैसा अन्यद्वार पर, खड़ा रहा जो मूढ़ ॥ 143 दृढ़ विश्वासी मित्र की, स्त्री से पापाचार । जो करता वो मृतक से, भिन्न नहीं है, यार ॥ 144 क्या होगा उसको अहो, रखते विभव अनेक । यदि रति हो पर-दार में, तनिक न बुद्धि विवेक ॥ 145 पर-पत्नी-रत जो हुआ, सुलभ समझ निश्शंक । लगे रहे चिर काल तक, उसपर अमिट कलंक ॥ 146 पाप, शत्रुता, और भय, निन्दा मिल कर चार । ये उसको छोड़ें नहीं, जो करता व्यभिचार ॥ 147 जो गृहस्थ पर-दार पर, होवे नहिं आसक्त । माना जाता है वही, धर्म-कर्म अनुरक्त ॥ 148 पर-नारी नहिं ताकना, है धीरता महान । धर्म मात्र नहिं संत का, सदाचरण भी जान ॥ 149 सागर-बलयित भूमि पर, कौन भोग्य के योग्य । आलिंगन पर- नारि को, जो न करे वह योग्य ॥ 150 पाप- कर्म चाहे करें, धर्म मार्ग को छोड़ । पर-गृहिणी की विरति हो, तो वह गुण बेजोड़ ॥

अध्याय 16. क्षमाशीलता

151 क्षमा क्षमा कर ज्यों धरे, जो खोदेगा फोड़ । निन्दक को करना क्षमा, है सुधर्म बेजोड़ ॥ 152 अच्छा है सब काल में, सहना अत्याचार । फिर तो उसको भूलना, उससे श्रेष्ठ विचार ॥ 153 दारिद में दारिद्रय है, अतिथि-निवारण-बान । सहन मूर्ख की मूर्खता, बल में भी बल जान ॥ 154 अगर सर्व-गुण-पूर्णता, तुमको छोड़ न जाय । क्षमा-भाव का आचरण, किया लगन से जाय ॥ 155 प्रतिकारी को जगत तो, माने नहीं पदार्थ । क्षमशील को वह रखे, स्वर्ण समान पदार्थ ॥ 156 प्रतिकारी का हो मज़ा, एक दिवस में अन्त । क्षमाशीला को कीर्ति है, लोक-अंत पर्यन्त ॥ 157 यद्यपि कोई आपसे, करता अनुचित कर्म । अच्छा उस पर कर दया, करना नहीं अधर्म ॥ 158 अहंकार से ज़्यादती, यदि तेरे विपरीत । करता कोई तो उसे, क्षमा-भाव से जीत ॥ 159 संन्यासी से आधिक हैं, ऐसे गृही पवित्र । सहन करें जो नीच के, कटुक वचन अपवित्र ॥ 160 अनशन हो जो तप करें, यद्यपि साधु महान । पर-कटुवचन-सहिष्णु के, पीछे पावें स्थान ॥

अध्याय 17. अनसूयता

161 जलन- रहित निज मन रहे ऐसी उत्तम बान । अपनावें हर एक नर, धर्म आचरण मान ॥ 162 सबसे ऐसा भाव हो, जो है ईर्ष्या- मुक्त । तो उसके सम है नहीं, भाग्य श्रेष्ठता युक्त ॥ 163 धर्म- अर्थ के लाभ की, जिसकी हैं नहीं चाह । पर-समृद्धि से खुश न हो, करता है वह डाह ॥ 164 पाप- कर्म से हानियाँ, जो होती है जान । ईर्ष्यावश करते नहीं, पाप- कर्म धीमान ॥ 165 शत्रु न भी हो ईर्ष्यु का, करने को कुछ हानि । जलन मात्र पर्याप्त है, करने को अति हानि ॥ 166 दान देख कर जो जले, उसे सहित परिवार । रोटी कपडे को तरस, मिटते लगे न बार ॥ 167 जलनेवाले से स्वयं, जल कर रमा अदीन । अपनी ज्येष्ठा के उसे , करती वही अधीन ॥ 168 ईर्ष्या जो है पापिनी, करके श्री का नाश । नरक-अग्नि में झोंक कर, करती सत्यानास ॥ 169 जब होती ईर्ष्यालु की, धन की वृद्धि अपार । तथा हानि भी साधु की, तो करना सुविचार ॥ 170 सुख-समृद्धि उनकी नहीं, जो हों ईर्ष्यायुक्त । सुख-समृद्धि की इति नहीं, जो हों ईर्ष्यामुक्त ॥

अध्याय 18. निर्लोभता

171 न्याय-बुद्धि को छोड़ कर, यदि हो पर-धन-लोभ । हो कर नाश कुटुम्ब का, होगा दोषारोप ॥ 172 न्याय-पक्ष के त्याग से, जिनको होती लाज । लोभित पर-धन-लाभ से, करते नहीं अकाज ॥ 173 नश्वर सुख के लोभ में, वे न करें दुष्कृत्य । जिनको इच्छा हो रही, पाने को सुख नित्य ॥ 174 जो हैं इन्द्रियजित तथा, ज्ञानी भी अकलंक । दारिदवश भी लालची, होते नहीं अशंक ॥ 175 तीखे विस्तृत ज्ञान से, क्या होगा उपकार । लालचवश सबसे करें, अनुचित व्यवहार ॥ 176 ईश-कृपा की चाह से, जो न धर्म से भ्रष्ट । दुष्ट-कर्म धन-लोभ से, सोचे तो वह नष्ट ॥ 177 चाहो मत संपत्ति को, लालच से उत्पन्न । उसका फल होता नहीं कभी सुगुण-संपन्न ॥ 178 निज धन का क्षय हो नहीं, इसका क्या सदुपाय । अन्यों की संपत्ति का, लोभ किया नहिं जाय ॥ 179 निर्लोभता ग्रहण करें, धर्म मान धीमान । श्री पहुँचे उनके यहाँ, युक्त काल थल जान ॥ 180 अविचारी के लोभ से, होगा उसका अन्त । लोभ- हीनता- विभव से, होगी विजय अनन्त ॥

अध्याय 19. अपिशुनता

181 नाम न लेगा धर्म का, करे अधर्मिक काम । फिर भी अच्छा यदि वही, पाये अपिशुन नाम ॥ 182 नास्तिवाद कर धर्म प्रति, करता पाप अखण्ड । उससे बदतर पिशुनता, सम्मुख हँस पाखण्ड ॥ 183 चुगली खा कर क्या जिया, चापलूस हो साथ । भला, मृत्यु हो, तो लगे, शास्त्र- उक्त फल हाथ ॥ 184 कोई मूँह पर ही कहे, यद्यपि निर्दय बात । कहो पीठ पीछे नहीं, जो न सुचिंतित बात ॥ 185 प्रवचन-लीन सुधर्म के, हृदय धर्म से हीन । भण्डा इसका फोड़ दे, पैशुन्य ही मलीन ॥ 186 परदूषक यदि तू बना, तुझमें हैं जो दोष । उनमें चुन सबसे बुरे, वह करता है घोष ॥ 187 जो करते नहिं मित्रता, मधुर वचन हँस बोल । अलग करावें बन्धु को, परोक्ष में कटु बोल ॥ 188 मित्रों के भी दोष का, घोषण जिनका धर्म । जाने अन्यों के प्रति, क्या क्या करें कुकर्म ॥ 189 क्षमाशीलता धर्म है, यों करके सुविचार । क्या ढोती है भूमि भी, चुगलखोर का भार ॥ 190 परछिद्रानवेषण सदृश, यदि देखे निज दोष । ति अविनाशी जीव का, क्यों हो दुख से शोष ॥

अध्याय 20. वृथालाप-निषेध

191 बहु जन सुन करते घृणा, यों जो करे प्रलाप । सर्व जनों का वह बने, उपहासास्पद आप ॥ 192 बुद्धिमान जनवृन्द के, सम्मुख किया प्रलाप । अप्रिय करनी मित्र प्रति, करने से अति पाप ॥ 193 लम्बी-चौड़ी बात जो, होती अर्थ-विहीन । घोषित करती है वही, वक्ता नीति-विहीन ॥ 194 संस्कृत नहीं, निरर्थ हैं, सभा मध्य हैं उक्त । करते ऐसे शब्द हैं, सुगुण व नीति-वियुक्त ॥ 195 निष्फल शब्द अगर कहे, कोई चरित्रवान । हो जावे उससे अलग, कीर्ति तथा सम्मान ॥ 196 जिसको निष्फल शब्द में, रहती है आसक्ति । कह ना तू उसको मनुज, कहना थोथा व्यक्ति ॥ 197 कहें भले ही साधुजन, कहीं अनय के शब्द । मगर इसी में है भला, कहें न निष्फल शब्द ॥ 198 उत्तम फल की परख का, जिनमें होगा ज्ञान । महा प्रयोजन रहित वच, बोलेंगे नहिं जान ॥ 199 तत्वज्ञानी पुरुष जो, माया-भ्रम से मुक्त । विस्मृति से भी ना कहें, वच जो अर्थ-वियुक्त ॥ 200 कहना ऐसा शब्द ही, जिससे होवे लाभ । कहना मत ऐसा वचन, जिससे कुछ नहिं लाभ ॥

अध्याय 21. पाप-भीरुता

201 पाप-कर्म के मोह से, डरें न पापी लोग । उससे डरते हैं वही, पुण्य-पुरुष जो लोग ॥ 202 पाप- कर्म दुखजनक हैं, यह है उनकी रीत । पावक से भीषण समझ, सो होना भयभीत ॥ 203 श्रेष्ठ बुद्धिमत्ता कहें, करके सुधी विचार । अपने रिपु का भी कभी, नहिं करना अपकार ॥ 204 विस्मृति से भी नर नहीं, सोचे पर की हानि । यदि सोचे तो धर्म भी, सोचे उसकी हानि ॥ 205 ‘निर्धन हूँ मैं’, यों समझ, करे न कोई पाप । अगर किया तो फिर मिले, निर्धनता-अभिशाप ॥ 206 दुख से यदि दुष्कर्म के, बचने की है राय । अन्यों के प्रति दुष्टता, कभी नहीं की जाय ॥ 207 अति भयकारी शत्रु से, संभव है बच जाय । पाप-कर्म की शत्रुता, पीछा किये सताय ॥ 208 दुष्ट- कर्म जो भी करे, यों पायेगा नाश । छोड़े बिन पौरों तले, छाँह करे ज्यों वास ॥ 209 कोई अपने आपको, यदि करता है प्यार । करे नहीं अत्यल्प भी, अन्यों का अपचार ॥ 210 नाशरहित उसको समझ, जो तजकर सन्मार्ग । पाप-कर्म हो नहिं करे, पकड़े नहीं कुमार्ग ॥

अध्याय 22. लोकोपकारिता

211 उपकारी नहिं चाहते, पाना प्रत्युपकार । बादल को बदला भला, क्या देता संसार ॥ 212 बहु प्रयत्न से जो जुड़ा, योग्य व्यक्ति के पास । लोगों के उपकार हित, है वह सब धन-रास ॥ 213 किया भाव निष्काम से, जनोपकार समान । स्वर्ग तथा भू लोक में दुष्कर जान ॥ 214 ज्ञाता शिष्टाचार का, है मनुष्य सप्राण ॥ मृत लोगों में अन्य की, गिनती होती जान ॥ 215 पानी भरा तड़ाग ज्यों, आवे जग का काम । महा सुधी की संपदा, है जन-मन-सुख धाम ॥ 216 शिष्ट जनों के पास यदि, आश्रित हो संपत्ति । ग्राम-मध्य ज्यों वृक्षवर, पावे फल-संपत्ति ॥ 217 चूके बिन ज्यों वृक्ष का, दवा बने हर अंग । त्यों धन हो यदि वह रहे, उपकारी के संग ॥ 218 सामाजिक कर्तव्य का, जिन सज्जन को ज्ञान । उपकृति से नहिं चूकते, दारिदवश भी जान ॥ 219 उपकारी को है नहीं, दरिद्रता की सोच । ‘मैं कृतकृत्य नहीं हुआ’ उसे यही संकोच ॥ 220 लोकोपकारिता किये, यदि होगा ही नाश । अपने को भी बेच कर, क्रय-लायक वह नाश ॥

अध्याय 23. दान

221 देना दान गरीब को, है यथार्थ में दान । प्रत्याशा प्रतिदान की, है अन्य में निदान ॥ 222 मोक्ष-मार्ग ही क्यों न हो, दान- ग्रहण अश्रेय । यद्यपि मोक्ष नहीं मिले, दान-धर्म ही श्रेय ॥ 223 ‘दीन-हीन हूँ’ ना कहे, करता है यों दान । केवल प्राप्य कुलीन में, ऐसी उत्तम बान ॥ 224 याचित होने की दशा, तब तक रहे विषण्ण । जब तक याचक का वदन, होगा नहीं प्रसन्न ॥ 225 क्षुधा-नियन्त्रण जो रहा, तपोनिष्ठ की शक्ति । क्षुधा-निवारक शक्ति के, पीछे ही वह शक्ति ॥ 226 नाशक-भूक दरिद्र की, कर मिटा कर दूर । वह धनिकों को चयन हित, बनता कोष ज़रूर ॥ 227 भोजन को जो बाँट कर, किया करेगा भोग । उसे नहीं पीड़ित करे, क्षुधा भयंकर रोग ॥ 228 धन-संग्रह कर खो रहा, जो निर्दय धनवान । दे कर होते हर्ष का, क्या उसको नहिं ज्ञान ॥ 229 स्वयं अकेले जीमना, पूर्ति के हेतु । याचन करने से अधिक, निश्चय दुख का हेतु ॥ 230 मरने से बढ़ कर नहीं, दुख देने के अर्थ । सुखद वही जब दान में, देने को असमर्थ ॥

अध्याय 24. कीर्ति

231 देना दान गरिब को, जीना कर यश-लाभ । इससे बढ़ कर जीव को, और नहीं है लाभ ॥ 232 करता है संसार तो, उसका ही गुण-गान । याचक को जो दान में, कुछ भी करें प्रदान ॥ 233 टिकती है संसार में, अनुपम कीर्ति महान । अविनाशी केवल वही, और न कोई जान ॥ 234 यदि कोई भूलोक में, पाये कीर्ति महान । देवलोक तो ना करें, ज्ञानी का गुण-गान ॥ 235 ह्रास बने यशवृद्धिकर, मृत्यु बने अमरत्व । ज्ञानवान बिन और में, संभव न यह महत्व ॥ 236 जन्मा तो यों जन्म हो, जिसमें होवे नाम । जन्म न होना है भला, यदि न कमाया नाम ॥ 237 कीर्तिमान बन ना जिया, कुढ़ता स्वयं न आप । निन्दक पर कुढ़ते हुए, क्यों होता है ताप ॥ 238 यदि नहिं मिली परंपरा, जिसका है यश नाम । तो जग में सब के लिये, वही रहा अपनाम ॥ 239 कीर्तिहीन की देह का, भू जब ढोती भार । पावन प्रभूत उपज का, क्षय होता निर्धार ॥ 240 निन्दा बिन जो जी रहा, जीवित वही सुजान । कीर्ति बिना जो जी रहा, उसे मरा ही जान ॥

अध्याय 25. दयालुता

241 सर्व धनों में श्रेष्ठ है, दयारूप संपत्ति । नीच जनों के पास भी, है भौतिक संपत्ति ॥ 242 सत्-पथ पर चल परख कर, दयाव्रती बन जाय । धर्म-विवेचन सकल कर, पाया वही सहाय ॥ 243 अन्धकारमय नरक है, जहाँ न सुख लवलेश । दयापूर्ण का तो वहाँ, होता नहीं प्रवेश ॥ 244 सब जीवों को पालते, दयाव्रती जो लोग । प्राण-भयंकर पाप का, उन्हें न होगा योग ॥ 245 दुःख- दर्द उनको नहीं, जो है दयानिधान । पवन संचरित उर्वरा, महान भूमि प्रमाण ॥ 246 जो निर्दय हैं पापरत, यों कहते धीमान । तज कर वे पुरुषार्थ को, भूले दुःख महान ॥ 247 प्राप्य नहीं धनरहित को, ज्यों इहलौकिक भोग । प्राप्य नहीं परलोक का, दयारहित को योग ॥ 248 निर्धन भी फूले-फले, स्यात् धनी बन जाय । निर्दय है निर्धन सदा, काया पलट न जाय ॥ 249 निर्दय-जन-कृत सुकृत पर, अगर विचारा जाय । तत्व-दर्श ज्यों अज्ञ का, वह तो जाना जाय ॥ 250 रोब जमाते निबल पर, निर्दय करे विचार । अपने से भी प्रभल के, सम्मुख खुद लाचार ॥

अध्याय 26. माँस- वर्जन

251 माँस-वृद्धि अपनी समझ, जो खाता पर माँस । कैसे दयार्द्रता-सुगुण, रहता उसके पास ॥ 252 धन का भोग उन्हें नहीं, जो न करेंगे क्षेम । माँसाहारी को नहीं, दयालुता का नेम ॥ 253 ज्यों सशस्त्र का मन कभी, होता नहीं दयाल । रुच रुच खावे माँस जो, उसके मन का हाल ॥ 254 निर्दयता है जीववध. दया अहिंसा धर्म । करना माँसाहार है, धर्म हीन दुष्कर्म ॥ 255 रक्षण है सब जीव का, वर्जन करना माँस । बचे नरक से वह नहीं, जो खाता है माँस ॥ 256 वध न करेंगे लोग यदि, करने को आहार । आमिष लावेगा नहीं, कोई विक्रयकार ॥ 257 आमिष तो इक जन्तु का, व्रण है यों सुविचार । यदि होगा तो चाहिए, तजना माँसाहार ॥ 258 जीव-हनन से छिन्न जो, मृत शरीर है माँस । दोषरहित तत्वज्ञ तो, खायेंगे नहिं माँस ॥ 259 यज्ञ हज़रों क्या किया, दे दे हवन यथेष्ट । किसी जीव को हनन कर, माँस न खाना श्रेष्ठ ॥ 260 जो न करेगा जीव-वध, और न माँसाहार । हाथ जोड़ सारा जगत, करता उसे जुहार ॥

अध्याय 27. तप

261 तप नियमों को पालते, सहना कष्ट महान । जीव-हानि-वर्जन तथा, तप का यही निशान ॥ 262 तप भी बस उनका रहा, जिनको है वह प्राप्त । यत्न वृथा उसके लिये, यदि हो वह अप्राप्त ॥ 263 भोजनादि उपचार से, तपसी सेवा-धर्म । करने हित क्या अन्य सब, भूल गये तप-कर्म ॥ 264 दुखदायी रिपु का दमन, प्रिय जन क उत्थान । स्मरण मात्र से हो सके, तप के बल अम्लान ॥ 265 तप से सब कुछ प्राप्य हैं, जो चाहे जिस काल । इससे तप-साधन यहाँ, करना है तत्काल ॥ 266 वही पुरुष कृतकृत्य है, जो करता तप-कर्म । करें कामवश अन्य सब, स्वहानिकारक कर्म ॥ 267 तप तप कर ज्यों स्वर्ण की, होती निर्मल कान्ति । तपन ताप से ही तपी, चमक उठें उस भाँति ॥ 268 आत्म-बोध जिनको हुआ, करके वश निज जीव । उनको करते वंदना, शेष जगत के जीव ॥ 269 जिस तपसी को प्राप्त है, तप की शक्ति महान । यम पर भी उसकी विजय, संभव है तू जान ॥ 270 निर्धन जन-गणना अधिक, इसका कौन निदान । तप नहिं करते बहुत जन, कम हैं तपोनिधान ॥

अध्याय 28. मिथ्याचार

271 वंचक के आचार को, मिथ्यापूर्ण विलोक । पाँचों भूत शरीरगत, हँस दे मन में रोक ॥ 272 उच्च गगन सम वेष तो, क्या आवेगा काम । समझ- बूंझ यदि मन करे, जो है दूषित काम ॥ 273 महा साधु का वेष धर, दमन-शक्ति नहिं, हाय । व्याघ्र-चर्म आढे हुए, खेत चरे ज्यों गाय ॥ 274 रहते तापस भेस में, करना पापाचार । झाड़-आड़ चिड़िहार ज्यों, पंछी पकड़े मार ॥ 275 ‘हूँ विरक्त’ कह जो मनुज, करता मिथ्याचार । कष्ट अनेकों हों उसे, स्वयं करे धिक्कार ॥ 276 मोह-मुक्त मन तो नहीं, है निर्मम की बान । मिथ्याचारी के सदृश, निष्ठुर नहीं महान ॥ 277 बाहर से है लालिमा, हैं घुंघची समान । उसका काला अग्र सम, अन्दर है अज्ञान ॥ 278 नहा तीर्थ में ठाट से, रखते तापस भेस । मित्थ्याचारी हैं बहुत, हृदय शुद्ध नहिं लेश ॥ 279 टेढ़ी वीणा है मधुर, सीधा तीर कठोर । वैसे ही कृति से परख, किसी साधु की कोर ॥ 280 साधक ने यदि तज दिया, जग-निन्दित सब काम । उसको मुंडा या जटिल, बनना है बेकाम ॥

अध्याय 29. अस्तेय

281 निन्दित जीवन से अगर, इच्छा है बच जाय । चोरी से पर-वस्तु की, हृदय बचाया जाय ॥ 282 चोरी से पर-संपदा, पाने का कुविचार । लाना भी मन में बुरा, है यह पापाचार ॥ 283 चोरी-कृत धन में रहे, बढ़्ने का आभास । पर उसका सीमारहित, होता ही है नाश ॥ 284 चोरी के प्रति लालसा, जो होती अत्यन्त । फल पोने के समय पर, देती दुःख अनन्त ॥ 285 है गफलत की ताक में, पर-धन की है चाह । दयाशीलता प्रेम की, लोभ न पकड़े राह ॥ 286 चौर्य-कर्म प्रति हैं जिन्हें, रहती अति आसक्ति । मर्यादा पर टिक उन्हें, चलने को नहिं शक्ति ॥ 287 मर्यादा को पालते, जो रहते सज्ञान । उनमें होता है नहीं, चोरी का अज्ञान ॥ 288 ज्यों मर्यादा-पाल के, मन में स्थिर है धर्म । त्यों प्रवंचना-पाल के, मन में वंचक कर्म ॥ 289 जिन्हें चौर्य को छोड़ कर, औ’ न किसी का ज्ञान । मर्यादा बिन कर्म कर, मिटते तभी अजान ॥ 290 चिरों को निज देह भी, ढकेल कर दे छोड़ । पालक को अस्तेय व्रत, स्वर्ग न देगा छोड़ ॥

अध्याय 30. सत्य

291 परिभाषा है सत्य की, वचन विनिर्गत हानि । सत्य-कथन से अल्प भी न हो किसी को ग्लानि ॥ 292 मिथ्या-भाषण यदि करे, दोषरहित कल्याण । तो यह मिथ्या-कथन भी, मानो सत्य समान ॥ 293 निज मन समझे जब स्वयं, झूठ न बोलें आप । बोलें तो फिर आप को, निज मन दे संताप ॥ 294 मन से सत्याचरण का, जो करता अभ्यास । जग के सब के हृदय में, करता है वह वास ॥ 295 दान-पुण्य तप-कर्म भी, करते हैं जो लोग । उनसे बढ़ हैं, हृदय से, सच बोलें जो लोग ॥ 296 मिथ्या-भाषण त्याग सम, रहा न कीर्ति-विकास । उससे सारा धर्म-फल, पाये बिना प्रयास ॥ 297 सत्य-धर्म का आचरण, सत्य-धर्म ही मान । अन्य धर्म सब त्यागना, अच्छा ही है जान ॥ 298 बाह्‍य-शुद्धता देह को, देता ही है तोय । अन्तः करण-विशुद्धता, प्रकट सत्य से जोंय ॥ 299 दीपक सब दीपक नहीं, जिनसे हो तम-नाश । सत्य-दीप ही दीप है, पावें साधु प्रकाश ॥ 300 हमने अनुसन्धान से, जितने पाये तत्व । उनमें कोई सत्य सम, पाता नहीं महत्व ॥

अध्याय 31. अक्रोध

301 जहाँ चले वश क्रोध का, कर उसका अवरोध । अवश क्रोध का क्या किया, क्या न किया उपरोध ॥ 302 वश न चले जब क्रोध का, तब है क्रोध खराब । अगर चले बश फिर वही, सबसे रहा खराब ॥ 303 किसी व्यक्ति पर भी कभी, क्रोध न कर, जा भूल । क्योंकि अनर्थों का वही, क्रोध बनेगा मूल ॥ 304 हास और उल्लास को, हनन करेगा क्रोध । उससे बढ़ कर कौन है, रिपु जो करे विरोध ॥ 305 रक्षा हित अपनी स्वयं, बचो क्रोध से साफ़ । यदि न बचो तो क्रोध ही, तुम्हें करेगा साफ़ ॥ 306 आश्रित जन का नाश जो, करे क्रोध की आग । इष्ट-बन्धु-जन-नाव को, जलायगी वह आग ॥ 307 मान्य वस्तु सम क्रोध को, जो माने वह जाय । हाथ मार ज्यों भूमि पर, चोट से न बच जाय ॥ 308 अग्निज्वाला जलन ज्यों, किया अनिष्ट यथेष्ट । फिर भी यदि संभव हुआ, क्रोध-दमन है श्रेष्ठ ॥ 309 जो मन में नहिं लायगा, कभी क्रोध का ख्याल । मनचाही सब वस्तुएँ, उसे प्राप्य तत्काल ॥ 310 जो होते अति क्रोधवश, हैं वे मृतक समान । त्यागी हैं जो क्रोध के, त्यक्त-मृत्यु सम मान ॥

अध्याय 32. अहिंसा

311 तप-प्राप्र धन भी मिले, फिर भी साधु-सुजान । हानि न करना अन्य की, मानें लक्ष्य महान ॥ 312 बुरा किया यदि क्रोध से, फिर भी सधु-सुजान । ना करना प्रतिकार ही, मानें लक्ष्य महान ॥ 313 ‘बुरा किया कारण बिना’, करके यही विचार । किया अगर प्रतिकार तो, होगा दुःख अपार ॥ 314 बुरा किया तो कर भला, बुरा भला फिर भूल । पानी पानी हो रहा, बस उसको यह शूल ॥ 315 माने नहिं पर दुःख को, यदि निज दुःख समान । तो होता क्या लाभ है, रखते तत्वज्ञान ॥ 316 कोई समझे जब स्वयं, बुरा फलाना कर्म । अन्यों पर उस कर्म को, नहीं करे, यह धर्म ॥ 317 किसी व्यक्ति को उल्प भी, जो भी समय अनिष्ट । मनपूर्वक करना नहीं, सबसे यही वरिष्ठ ॥ 318 जिससे अपना अहित हो, उसका है दृढ़ ज्ञान । फिर अन्यों का अहित क्यों, करता है नादान ॥ 319 दिया सबेरे अन्य को, यदि तुमने संताप । वही ताप फिर साँझ को, तुमपर आवे आप ॥ 320 जो दुःख देगा अन्य को, स्वयं करे दुःख-भोग । दुःख-वर्जन की चाह से, दुःख न दें बुध लोग ॥

अध्याय 33. वध-निशेध

321 धर्म-कृत्य का अर्थ है, प्राणी-वध का त्याग । प्राणी-हनन दिलायगा, सर्व-पाप-फल-भाग ॥ 322 खाना बाँट क्षुधार्त्त को, पालन कर सब जीव । शास्त्रकार मत में यही, उत्तम नीति अतीव ॥ 323 प्राणी-हनन निषेध का, अद्वितीय है स्थान । तदनन्तर ही श्रेष्ठ है, मिथ्या-वर्जन मान ॥ 324 लक्षण क्या उस पंथ का, जिसको कहें सुपंथ । जीव-हनन वर्जन करे, जो पथ वही सुपंथ ॥ 325 जीवन से भयभीत हो, जो होते हैं संत । वध-भय से वध त्याग दे, उनमें वही महंत ॥ 326 हाथ उठावेगा नहीं जीवन-भक्षक काल । उस जीवन पर, जो रहें, वध-निषेध-व्रत-पाल ॥ 327 प्राण-हानि अपनी हुई, तो भी हो निज धर्म । अन्यों के प्रिय प्राण का, करें न नाशक कर्म ॥ 328 वध-मूलक धन प्राप्ति से, यद्यपि हो अति प्रेय । संत महात्मा को वही, धन निकृष्ट है ज्ञेय ॥ 329 प्राणी-हत्या की जिन्हें, निकृष्टता का भान । उनके मत में वधिक जन, हैं चण्डाल मलान ॥ 330 जीवन नीच दरिद्र हो, जिसका रुग्ण शरीर । कहते बुथ, उसने किया, प्राण-वियुक्त शरीर ॥

अध्याय 34. अनित्यता

331 जो है अनित्य वस्तुएँ, नित्य वस्तु सम भाव । अल्पबुद्धिवश जो रहा, है यह नीच स्वभाव ॥ 332 रंग-भूमि में ज्यो जमे, दर्शक गण की भीड़ । जुड़े प्रचुर संपत्ति त्यों, छँटे यथा वह भीड़ ॥ 333 धन की प्रकृति अनित्य है, यदि पावे ऐश्वर्य । तो करना तत्काल ही, नित्य धर्म सब वर्य ॥ 334 काल-मान सम भासता, दिन है आरी-दांत । सोचो तो वह आयु को, चीर रहा दुर्दान्त ॥ 335 जीभ बंद हो, हिचकियाँ लगने से ही पूर्व । चटपट करना चाहिये, जो है कर्म अपूर्व ॥ 336 कल जो था, बस, आज तो, प्राप्त किया पंचत्व । पाया है संसार ने, ऐसा बड़ा महत्व ॥ 337 अगले क्षण क्या जी रहें, इसका है नहिं बोध । चिंतन कोटिन, अनगिनत, करते रहें अबोध ॥ 338 अंडा फूट हुआ अलग, तो पंछी उड़ जाय । वैसा देही-देह का, नाता जाना जाय ॥ 339 निद्रा सम ही जानिये, होता है देहान्त । जगना सम है जनन फिर, निद्रा के उपरान्त ॥ 340 आत्मा का क्या है नहीं, कोई स्थायी धाम । सो तो रहती देह में, भाड़े का सा धाम ॥

अध्याय 35. संन्यास

341 ज्यों ज्यों मिटती जायगी, जिस जिसमें आसक्ति । त्यों त्यों तद्‍गत दुःख से, मुक्त हो रहा व्यक्ति ॥ 342 संन्यासी यदि बन गया, यहीं कई आनन्द । संन्यासी बन समय पर, यदि होना आनन्द ॥ 343 दृढ़ता से करना दमन, पंचेन्द्रियगत राग । उनके प्रेरक वस्तु सब, करो एकदम त्याग ॥ 344 सर्वसंग का त्याग ही, तप का है गुण-मूल । बन्धन फिर तप भंग कर, बने अविद्या-मूल ॥ 345 भव- बन्धन को काटते, बोझा ही है देह । फिर औरों से तो कहो, क्यों संबन्ध- सनेह ॥ 346 अहंकार ममकार को, जिसने किया समाप्त । देवों को अप्राप्य भी, लोक करेगा प्राप्त ॥ 347 अनासक्त जो न हुए, पर हैं अति आसक्त । उनको लिपटें दुःख सब, और करें नहिं त्यक्त ॥ 348 पूर्ण त्याग से पा चुके, मोक्ष- धाम वे धन्य । भव- बाधा के जाल में, फँसें मोह- वश अन्य ॥ 349 मिटते ही आसक्ति के, होगी भव से मुक्ति । बनी रहेगी अन्यथा, अनित्यता की भुक्ति ॥ 350 वीतराग के राग में, हो तेरा अनुराग । सुदृढ़ उसी में रागना, जिससे पाय विराग ॥

अध्याय 36. तत्वज्ञान

351 मिथ्या में जब सत्य का, होता भ्रम से भान । देता है भव-दुःख को, भ्रममूलक वह ज्ञान । 352 मोह-मुक्त हो पा गये, निर्मल तत्वज्ञान । भव-तम को वह दूर कर, दे आनन्द महान ॥ 353 जिसने संशय-मुक्त हो, पाया ज्ञान-प्रदीप । उसको पृथ्वी से अधिक, रहता मोक्ष समीप ॥ 354 वशीभूत मन हो गया, हुई धारणा सिद्ध । फिर भी तत्वज्ञान बिन, फल होगा नहिं सिद्ध ॥ 355 किसी तरह भी क्यों नहीं, भासे अमुक पदार्थ । तथ्य-बोध उस वस्तु का, जानो ज्ञान पथार्थ ॥ 356 जिसने पाया श्रवण से, यहीं तत्व का ज्ञान । मोक्ष-मार्ग में अग्रसर, होता वह धीमान ॥ 357 उपदेशों को मनन कर, सत्य-बोध हो जाय । पुनर्जन्म की तो उन्हें, चिन्ता नहिं रह जाय ॥ 358 जन्म-मूल अज्ञान है, उसके निवारणार्थ । मोक्ष-मूल परमार्थ का, दर्शन ज्ञान पथार्थ ॥ 359 जगदाश्रय को समझ यदि, बनो स्वयं निर्लिप्त । नाशक भावी दुःख सब, करें कभी नहिं लिप्त ॥ 360 काम क्रोध औ’ मोह का न हो नाम का योग । तीनों के मिटते, मिटे, कर्म-फलों का रोग ॥

अध्याय 37. तृष्णा का उन्मूलन

361 सर्व जीव को सर्वदा, तृष्णा-बीज अचूक । पैदा करता है वही, जन्म-मरण की हूक ॥ 362 जन्म-नाश की चाह हो, यदि होनी है चाह । चाह-नाश की चाह से, पूरी हो वह चाह ॥ 363 तृष्णा-त्याग सदृश नहीं, यहाँ श्रेष्ठ धन-धाम । स्वर्ग-धाम में भी नहीं, उसके सम धन-धाम ॥ 364 चाह गई तो है वही, पवित्रता या मुक्ति । करो सत्य की चाह तो, होगी चाह-विमुक्ति ॥ 365 कहलाते वे मुक्त हैं, जो हैं तृष्णा-मुक्त । सब प्रकार से, अन्य सब, उतने नहीं विमुक्त ॥ 366 तृष्णा से डरते बचे, है यह धर्म महान । न तो फँसाये जाल में, पा कर असावधान ॥ 367 तृष्णा को यदि कर दिया, पूरा नष्ट समूल । धर्म-कर्म सब आ मिले, इच्छा के अनुकूल ॥ 368 तृष्णा-त्यागी को कभी, होगा ही नहिं दुःख । तृष्णा के वश यदि पड़े, होगा दुःख पर दुःख ॥ 369 तृष्णा का यदि नाश हो, जो है दुःख कराल । इस जीवन में भी मनुज, पावे सुख चिरकाल ॥ 370 तृष्णा को त्यागो अगर, जिसकी कभी न तुष्टि । वही दशा दे मुक्ति जो, रही सदा सन्तुष्टि ॥

अध्याय 38. प्रारब्ध

371 अर्थ-वृद्धि के भाग्य से, हो आलस्य-अभाव । अर्थ-नाश के भाग्य से, हो आलस्य स्वभाव ॥ 372 अर्थ-क्षयकर भाग्य तो, करे बुद्धि को मन्द । अर्थ-वृद्धिकर भाग्य तो, करे विशाल अमन्द ॥ 373 गूढ़ शास्त्र सीखें बहुत, फिर भी अपना भाग्य । मन्द बुद्धि का हो अगर, हावी मांद्य अभाग्य ॥ 374 जगत-प्रकृति है नियतिवश, दो प्रकार से भिन्न । श्रीयुत होना एक है, ज्ञान-प्राप्ति है भिन्न ॥ 375 धन अर्जन करत समय, विधिवश यह हो जाय । बुरा बनेगा सब भला, बुरा भला बन जाय ॥ 376 कठिन यत्न भी ना रखे, जो न रहा निज भाग । निकाले नहीं निकलता, जो है अपने भाग ॥ 377 भाग्य-विद्यायक के किये, बिना भाग्य का योग । कोटि चयन के बाद भी, दुर्लभ है सुख-भोग ॥ 378 दुःख बदे जो हैं उन्हें, यदि न दिलावें दैव । सुख से वंचित दीन सब, बनें विरक्त तदैव ॥ 379 रमता है सुख-भोग में, फल दे जब सत्कर्म । गड़बड़ करना किसलिये, फल दे जब दुष्कर्म ॥ 380 बढ़ कर भी प्रारब्ध से, क्या है शक्ति महान । जयी वही उसपर अगर, चाल चलावे आन ॥

  • तिरुक्कुरल, भाग–२: अर्थ- कांड : तिरुवल्लुवर
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