पद्मावत : मलिक मुहम्मद जायसी

Padmavat : Malik Muhammad Jayasi

11. प्रेम-खंड

सुनतहि राजा गा मुरझाई । जानौं लहरि सुरुज कै आई ॥
प्रेम-घाव-दुख जान न कोई । जेहि लागै जानै पै सोई ॥
परा सो पेम-समुद्र अपारा । लहरहिं लहर होइ बिसँभारा ॥
बिरह-भौंर होइ भाँवरि देई । खिनखिन जीउ हिलोरा लेई ॥
खिनहिं उसास बूड़ि जिउ जाई । खिनहिं उठै निसरै बोराई ॥
खिनहिं पीत, खिनहोइ मुख सेता । खिनहिं चेत, खिन होइ अचेता ॥
कठिन मरन तें प्रेम-बेवस्था । ना जिउ जियै, न दसवँ अवस्था ॥

जनु लेनिहार न लेहिं जिउ, हरहिं तरासहिं ताहिं ।
एतनै बोल आव मुख, करैं तराहि तराहि" ॥1॥

(बिसँभरा=बेसँभाल,बेसुध, दसवँ अवस्था=दशम दशा,मरण,
लेनिहार=प्राण लेने वाले, हरहिं=धीरे धीरे, तरासहि=त्रास
दिखाते हैं)

जहँ लगि कुटुँब लोग औ नेगी । राजा राय आए सब बेगी ॥
जावत गुनी गारुड़ी आए । ओझा, बैद, सयान बोलाए ॥
चरचहिं चेर्टा परिखहिं नारी । नियर नाहिं ओषद तहँ बारी ॥
राजहिं आहि लखन कै करा । सकति-कान मोहा है परा ॥
नहिं सो राम, हनिवँत बड़ि दूरी । को लेइ आव सजीवन -मूरी?॥
बिनय करहिं जे गढ़पती । का जिउ कीन्ह, कौन मति मती?॥
कहहु सो पीर, काह पुनि खाँगा?। समुद सुमेरु आव तुम्ह माँगा ॥

धावन तहाँ पठावहु, देहिं लाख दस रोक ।
होइ सो बेलि जेहि बारी, आनहिं सबै बरोक ॥2॥

(गारुड़ी=साँप का बिष मंत्र से उतारनेवाला, चरचहि=
भाँपते हैं, करा=लीला,दशा, खाँगा=घटा, रोक=रोकड़,
रुपया, पाठांतर -"थोक", बरोक=बरच्छा,फलदान)

जब भा चेत उठा बैरागा । बाउर जनौं सोइ उठि जागा ॥
आवत जग बालक जस रोआ । उठा रोइ `हा ज्ञान सो खौआ ' ॥
हौं तो अहा अमरपुर जहाँ । इहाँ मरनपुर आएउँ कहाँ?॥
केइ उपकार मरन कर कीन्हा । सकति हँकारि जीउ हरि लीन्हा ॥
सोवत रहा जहाँ सुख-साखा । कस न तहाँ सोवत बिधि राखा?॥
अब जिउ उहाँ, इहाँ तन सूना । कब लगि रहै परान-बिहूना ॥
जौ जिउ घटहि काल के हाथा । घट न नीक पै जीउ -निसाथा ॥

अहुठ हाथ तन-सरवर, हिया कवँल तेहि माँह ।
नैनहिं जानहु नीयरे, कर पहुँचत औगाह ॥3॥

(विहूना=बिहीन,बिना, घट=शरीर, निसाथा=बिना साथ के,
अहुठ=साढ़े तीन)

सबन्ह कहामन समुझहु राजा । काल सेंति कै जूझ न छाजा ॥
तासौं जूझ जात जो जीता । जानत कृष्ण तजा गोपीता ॥
औ न नेह काहू सौं कीजै । नाँव मिटै, काहे जिउ दीजै ॥
पहिले सुख नेहहिं जब जोरा । पुनि होइ कठिन निबाहत ओरा ॥
अहुठ हाथ तन जैस सुमेरू । पहुँचि न जाइ परा तस फेरू ॥
ज्ञान-दिस्टि सौं जाइ पहुँचा । पेम अदिस्ट गगन तें ऊँचा ॥
धुव तें ऊँच पेम-धुव ऊआ । सिर देइ पाँव देइ सो छूआ ॥

तुम राजा औ सुखिया, करहु राज-सुख भोग ।
एहि रे पंथ सो पहुँचै सहै जो दुःख बियोग ॥4॥

(काल सेंति=काल से, धुव=ध्रुव, सिर देइ....छूआ=सिर
काटकर उसपर पैर रखकर खड़ा हो)

सुऐ कहा मन बूझहू राजा । करब पिरीत कठिन है काजा ॥
तुम रजा जेईं घर पोई । कवँल न भेंटेउ, भेंटेउ कोई ॥
जानहिं भौंर जौ तेहि पथ लूटे । जीउ दीन्ह औ दिएहु न छूटे ॥
कठिन आहिं सिंघल कर राजू । पाइय नाहिं झूझ कर साजू ॥
ओहि पथ जाइ जो होइ उदासी । जोगी, जती तपा, सन्यासी ॥
भौग किए जौं पावत भोगू । तजि सो भो कोइ करत न जोगू ॥
तुम राजा चाहहु सुख पावा । भोगहि जोग करत नहिं भावा ॥

साधन्ह सिद्धि न पाइय जौ लगि सधै न तप्प ।
सो पै जानै बापुरा करै जो सीस कलप्प ॥5॥

(पोई=पकाई हुई, तुम....पोई=अब तक पकी पकाई खाई
अर्थात आराम चैन से रहे, साधन्ह=केवल साध या इच्छा ने,
कलप्प करै=काट डाले)

का भा जोग-कथनि के कथे । निकसै घिउ न बिना दधि मथे ॥
जौ लहि आप हेराइ न कोई । तौ लहि हेरत पाव न सोई ॥
पेम -पहार कठिन बिधि गढ़ा । सो पै चढ़ै जो सिर सौं चढ़ा ॥
पंथ सूरि कै उठा अँकूरू । चोर चढ़ै, की चढ़ मंसूरू ॥
तू राजा का पहिरसि कंथा । तोरे घरहहि माँझ दस पंथा ॥
काम, क्रोध, तिस्ना, मद माया । पाँचौ चोर न छाँडहिं काया ॥
नवौ सेंध तिन्ह कै दिठियारा । घर मूसहिं निसि, की उजियारा ॥

अबहू जागु अजाना, होत आव निसि भोर ।
तब किछु हाथ न लागहिं मूसि जाहिं जब चोर ॥6॥

(सूरि=सूली, दिठियार=देखा हुआ, भूसि जाहिं=चुरा ले जायँ)

सुनि सो बात राजा मन जागा । पलक न मार, पेम चित लागा ॥
नैनन्ह ढरहिं मोति औ मूँगा । जस गुर खाइ रहा होइ गूँगा ॥
हिय कै जोति दीप वह सूझा । यह जो दीप अँधियारा बुझा ॥
उलटि दीठी माया सौं रूठो । पटि न फिरी जानि कै झूठी ॥
झझौ पै नाहीं अहथिर दसा । जग उजार का कीजिय बसा ॥
गुरू बिरह-चिनगी जो मेला । जो सुलगाइ लेइ सो चेला ॥
अब करि फनिग भृंग कै करा । भौंर होहुँ जेहि कारन जरा ॥

फूल फूल फिरि पूछौं जौ पहुँचौं ओहि केत ॥
तन नेवछावरि कै मिलौं ज्यों मधुकर जिउ देत ॥7॥

(अहथिर=स्थिर, उजार=उजाड़, बसा=बसे हुए, फनिग=
फनगा,फतिंगा,पतंग, भृंग=कीड़ा जिसके विषय में
प्रसिद्ध है कि और पतिंगों को अपने रूप का कर
लेता है, करा=कला,व्यापार, कैत=ओर,तरफ,अथवा केतकी)

बंधु मीत बहुतै समुझावा । मान न राजा कोउ भुलावा ॥
उपजि पेम-पीर जेहि आई । परबोधत होइ अधिक सो आई ॥
अमृत बात कहत बिष जाना । पेम क बचन मीठ कै माना ॥
जो ओहि विषै मारिकै खाई । पूँछहु तेहि सन पेम-मिठाई ॥
पूँछहु बात भरथरिहि जाई । अमृत-राज तजा विष खाई ॥
औ महेस बड़ सिद्ध कहावा । उनहूँ विषै कंठ पै लावा ॥
होत आव रवि-किरिन बिकासा। हनुवँत होइ को देइ सुआसा ॥

तुम सब सिद्धि मनावहु हिइ गनेस सिधि लेव ।
चेला को न चलावै तुलै गुरू जेहि भेव?॥8॥

(अमृत=संसार का अच्छा से अच्छा पदार्थ, विषै=विष तथा
अध्यात्म पक्ष में विषय; पहले यदि संजीवनी बूटी आ जायगी
तो वे बचेंगे तब राम को हनुमान जी ने ही आशा बँधाई थी,
तुलै गुरू जेहि मेव=जिस भेद तक गुरु पहुँचता है)

12. जोगी-खंड

तजा राज, राजा भा जोगी । औ किंगरी कर गहेउ बियोगी ॥
तन बिसँभर मन बाउर लटा । अरुझा पेम, परी सिर जटा ॥
चंद्र-बदन औ चंदन-देहा । भसम चढ़ाइ कीन्ह तन खेहा ॥
मेखल, सिंघी, चक्र धँधारी । जोगबाट, रुदराछ, अधारी ॥
कंथा पहिरि दंड कर गहा । सिद्ध होइ कहँ गोरख कहा ॥
मुद्रा स्रवन, खंठ जपमाला । कर उदपान, काँध बघछाला ॥
पाँवरि पाँव, दीन्ह सिर छाता । खप्पर लीन्ह भेस करि राता ॥

चला भुगुति माँगै कहँ, साधि कया तप जोग ।
सिद्ध होइ पदमावति, जेहि कर हिये बियोग ॥1॥

(किंगरी=छोटी सारंगी या चिकारा, लटा=शिथिल,क्षीण,
मेखल=मेखला, सिंघी=सींग का बाजा जो फूँकने से
बजता है, धँधारी=एक में गुछी हुई लोहे की पतली
कड़ियाँ जिनमें उलझे हुए डोरे या कौड़ी को गोरखपंथी
साधु अद्भुत रीति से निकाला करते हैं; गोरखधंधा,
अधारी=झोला जो दोहरा होता है, मुद्रा=स्फटिक का
कुंडल जिसे गोरखपंथी कान में बहुत बड़ा छेद करके
पहनते हैं, उदपान=कमंडलु, पाँवरि=खड़ाऊँ, राता=गेरुआ)

गनक कहहिं गनि गौन न आजू । दिन लेइ चलहु, होइ सिध काजू ॥
पेम-पंथ दिन घरी न देखा । तब देखै जब होइ सरेखा ॥
जेहि तन पेम कहाँ तेहि माँसू । कया न रकत, नैन नहिं आँसू ॥
पंडित भूल, न जानै चालू । जिउ लेत दिन पूछ न कालू ॥
सती कि बौरी पूछिहि पाँडे । औ घर पैठि कि सैंतै भाँडे ॥
मरै जो चलै गंग गति लेई । तेहि दिन कहाँ घरी को देई?॥
मैं घर बार कहाँ कर पावा । घरी के आपन, अंत परावा ॥

हौं रे पथिक पखेरू; जेहि बन मोर निबाहु ।
खेलि चला तेहि बन कहँ, तुम अपने घर जाहु ॥2॥

(तब देखै=तब तो देखे, सरेखा=चतुर,होशवाला, सैंते=सँभालती
या सहेजती है)

चहुँ दिसि आन साँटया फेरी । भै कटकाई राजा केरी ॥
जावत अहहिं सकल अरकाना । साँभर लेहु, दूरि है जाना ॥
सिंघलदीप जाइ अब चाहा । मोल न पाउब जहाँ बेसाहा ॥
सब निबहै तहँ आपनि साँठी । साँठि बिना सो रह मुख माटी ॥
राजा चला साजि कै जोगू । साजहु बेगि चलहु सब लोगू ॥
गरब जो चड़े तुरब कै पीठी । अब भुइँ चलहु सरग कै डीठी ॥
मंतर लेहु होहु सँग-लागू । गुदर जाइ ब होइहि आगू ॥

का निचिंत रे मानुस, आपन चीते आछु ।
लेहि सजग होइ अगमन, मन पछिताव न पाछु ॥3॥

(आन=आज्ञा,घोषणा, साँटिया=डौंडीवाला, कटकाई=दलबल
के साथ चलने की तैयारी, अरकाना=अरकान-दौलत;सरदार,
साँभर=संबल,कलेऊ, साँठि=पूँजी, तुरय=तुरग, गुदर होइहि=
पेश होइए, आपनि चीते आछु=अपने चेत या होश में रह,
आगमन=आगे,पहले से)

बिनवै रतनसेन कै माया । माथै छात, पाट निति पाया ॥
बिलसहु नौ लख लच्छि पियारी । राज छाँड़ि जिनि होहु भिखारी ॥
निति चंदन लागै जेहि देहा । सो तन देख भरत अब खेहा ॥
सब दिन रहेहु करत तुम भोगू । सो कैसे साधव तप जोगू?॥
कैसे धूप सहब बिनु छाहाँ । कैसे नींद परिहि भुइ माहाँ?॥
कैसे ओढ़व काथरि कंथा । कैसे पाँव चलब तुम पंथा?॥
कैसे सहब खीनहि खिन भूखा । कैसे खाब कुरकुटा रूखा?॥

राजपाट, दर; परिगह तुम्ह ही सौं उजियार ।
बैठि भोग रस मानहु, खै न चलहु अँधियार ॥4॥

(माया=माता, लच्छि=लक्ष्मी, कंथा=गुदड़ी, कुरहटा=
मोटा कुटा अन्न, दर=दल या राजद्वार, परिगह=
परिग्रह,परिजन,परिवार के लोग)

मोंहि यह लोभ सुनाव न माया । काकर सुख, काकर यह काया ॥
जो निआन तन होइहि छारा । माटहि पोखि मरै को भारा?॥
का भूलौं एहि चंदन चोवा । बैरी जहाँ अंग कर रोवाँ ॥
हाथ, पाँव, सरन औं आँखी । ए सब उहाँ भरहि मिलि साखी ॥
सूत सूत तन बोलहिं दोखू । कहु कैसे होइहि गति मोखू ॥
जौं भल होत राज औ भोगू । गोपिचंद नहिं साधत जोगू ॥
उन्ह हिय-दीठि जो देख परेबा । तजा राज कजरी-बन सेवा ॥

देखि अंत अस होइहि गुरू दीन्ह उपदेस ।
सिंघलदीप जाब हम, माता! देहु अदेस ॥5॥

(निआन=निदान,अंत में, पोखि=पोषण करके, साखी
भरहिं=साक्ष्य या गवाही देते हैं, देख परेवा=पक्षी की
सी अपनी दशा देखी, कजरीबन=कदलीवन)

रोवहिं नागमती रनिवासू । केइ तुम्ह कंत दीन्ह बनबासू?॥
अब को हमहिं करिहि भोगिनी । हमहुँ साथ होब जोगिनी ॥
की हम्ह लावहु अपने साथा । की अब मारि चलहु एहि हाथा ॥
तुम्ह अस बिछुरै पीउ पिरीता । जहँवाँ राम तहाँ सँग सीता ॥
जौ लहि जिउ सँग छाँड़ न काया । करिहौं सेव, पखरिहों पाया ॥
भलेहि पदमिनी रूप अनूपा । हमतें कोइ न आगरि रूपा ॥
भवै भलेहि पुरुखन कै डीठी । जिनहिं जान तिन्ह दीन्ही पीठी ॥

देहिं असीस सबै मिलि, तुम्ह माथे नित छात ।
राज करहु चितउरगढ़, राखउ पिय! अहिबात ॥6॥

(भँवै=इधर-उधर घूमती है, जिनहिं..पीठी=जिनसे जान
पहचान हो जाती है उन्हें छोड़ नए के लिये दौड़ा करती है)

तुम्ह तिरिया मति हीन तुम्हारी । मूरुख सो जो मतै घर नारी ॥
राघव जो सीता सँग लाई । रावन हरी, कवन सिधि पाई?॥
यह संसार सपन कर लेखा । बिछुरि गए जानौं नहिं देखा ॥
राजा भरथरि सुना जो ज्ञानी । जेहि के घर सोरह सै रानी ॥
कुच लीन्हे तरवा सहराई । भा जोगी, कोउ संग न लाई ॥
जोगहि काह भौग सौं काजू । चहै न धन धरनी औ राजू ॥
जूड़ कुरकुटा भीखहि चाहा । जोगी तात भात कर काहा?॥

कहा न मानै राजा, तजी सबाईं भीर ।
चला छाँड़ि कै रोवत, फिरि कै देइ न धीर ॥7॥

(मतै=सलाह ले, तात भात=गरम ताजा भात)

रोवत माय, न बहुरत बारा । रतन चला, घर भा अँधियारा ॥
बार मोर जौ राजहि रता । सो लै चला, सुआ परबता ॥
रोवहिं रानी, तजहिं पराना । नोचहिं बार, करहिं खरिहाना ॥
चूरहिं गिउ-अभरन, उर-हारा । अब कापर हम करब सिंगारा?॥
जा कहँ कहहिं रहसि कै पीऊ । सोइ चला, काकर यह जीऊ ॥
मरै चहहिं, पै मरै न पावहिं । उठे आगि, सब लोग बुझावहिं ॥
घरी एक सुठि भएउ अँदोरा । पुनि पाछे बीता होइ रोरा ॥

टूटे मन नौ मोती, फूटे मन दस काँच ।
लान्ह समेटि सब अभरन, होइगा दुख के नाच ॥8॥

(बारा=बालक,बेटा, खरिहान करहिं=ढेर लगाती है,
अँदोरा=हलचल,कोलाहल)

निकसा राजा सिंगी पूरी । छाँड़ा नगर मैलि कै धूरी ॥
राय रान सब भए बियोगी । सोरह सहस कुँवर भए जोगी ॥
माया मोह हरा सेइ हाथा ।देखेन्हि बूझि निआन न साथा ॥
छाँड़ेन्हि लोग कुटुँब सब कोऊ । भए निनान सुख दुख तजि दोऊ ॥
सँवरैं राजा सोइ अकेला । जेहि के पंथ चले होइ चेला ॥
नगर नगर औ गाँवहिं गाँवाँ । छाँड़ि चले सब ठाँवहि ठावाँ ॥
काकर मढ़, काकर घर माया । ताकर सब जाकर जिउ काया ॥

चला कटक जोगिन्ह कर कै गेरुआ सब भेसु ।
कोस बीस चारिहु दिसि जानों फुला टेसु ॥9॥

(पूरी=बजाकर, गेलि कै=लगाकर, निनार=न्यारे,अलग, मढ़=मठ)

आगे सगुन सगुनिये ताका । दहिने माछ रूप के टाँका ॥
भरे कलस तरुनी जल आई । `दहिउ लेहु' ग्वालिनि गोहराई ॥
मालिनि आव मौर लिए गाँथे । खंजन बैठ नाग के माथे ॥
दहिने मिरिग आइ बन धाएँ । प्रतीहार बोला खर बाएँ ॥
बिरिख सँवरिया दहिने बोला । बाएँ दिसा चापु चरि डोला ॥
बाएँ अकासी धौरी आई । लोवा दरस आई दिखराई ॥
बाएँ कुररी, दहिने कूचा । पहुँचै भुगुति जैस मन रूचा ॥

जा कहँ सगुन होहिं अस औ गवनै जेहि आस ।
अस्ट महासिधि तेहि कहँ, जस कवि कहा बियास ॥10॥

(सगुनिया=शकुन जनानेवाला, माछ=मछली, रूप=रूपा,
चाँदी, टाँका=बरतन, मौर=फूलों का मुकुट जो विवाह में
दूल्हे को पहनाया जाता है, गाँथे=गूथे हुए, बिरिख=वृष,
बैल, सँवरिया=साँवला,काला, चाषु=चाष,नीलकंठ, अकासी
धौरी=क्षेमकरी चील जिसका सिर सफेद और सब अंग
लाल या खेरा होता है, लोवा=लोमड़ी, कुररी=टिटिहरी,
कूचा=क्रौंच,कराकुल,कूज)

भयउ पयान चला पुनि राजा । सिंगि-नाद जोगिन कर बाजा ॥
कहेन्हि आजु किछु थोर पयाना । काल्हि पयान दूरि है जाना ॥
ओहि मिलान जौ पहुँचै कोई । तब हम कहब पुरुष भल सोई ॥
है आगे परबत कै बाटा । बिषम पहार अगम सुठि घाटा ॥
बिच बिच नदी खोह औ नारा । ठावहिं ठाँव बैठ बटपारा ॥
हनुवँत केर सुनब पुनि हाँका । दहुँ को पार होइ, को थाका ॥
अस मन जानि सँभारहु आगू । अगुआ केर होहु पछलागू ॥

करहिं पयान भोर उठि, पंथ कोस दस जाहिं ।
पंथी पंथा जे चलहिं, ते का रहहिं ओठाहिं ॥11॥

(मिलान=टिकान,पड़ाव, ओठाहिं=उस जगह)

करहु दीठी थिर होइ बटाऊ । आगे देखि धरहु भुइँ पाऊ ॥
जो रे उबट होइ परे बुलाने । गए मारि, पथ चलै न जाने ॥
पाँयन पहिरि लेहु सब पौंरी काँट धसैं, न गड़ै अँकरौरी ॥
परे आइ बन परबत माहाँ । दंडाकरन बीझ-बन जाहाँ ॥
सघन ढाँख-बन चहुँदिसि फूला । बहु दुख पाव उहाँ कर भूला ॥
झाखर जहाँ सो छाँडहु पंथा । हिलगि मकोइ न फारहु कंथा ॥
दहिने बिदर, चँदेरी बाएँ । दहुँ कहँ होइ बाट दुइ ठाएँ ॥

एक बाट गइ सिंघल, दूसरि लंक समीप ।
हैं आगे पथ दूऔ, दहु गौनब केहि दीप ॥12॥

(बटाऊ=पथिक, उबट=ऊबड़-खाबड़ कठिन मार्ग, दंडाकरन=
दंडकारण्य, बीझबन=सघन वन, झाँखर=कँटीली झाड़ियाँ,
हिलगि=सटकर)

ततखन बोला सुआ सरेखा । अगुआ सोइ पंथ जेइ देखा ॥
सो का उड़ै न जेहि तन पाँखू । लेइ सो परासहि बूड़त साखू ॥
जस अंधा अंधै कर संगी । पंथ न पाव होइ सहलंगी ॥
सुनु मत, काज चहसि जौं साजा । बीजानगर विजयगिरि राजा ॥
पहुचौ जहागोंड औ कोला । तजि बाएँ अँधियार, खटोला ॥
दक्खिन दहिने रहहि तिलंगा । उत्तर बाएँ गढ़-काटंगा ॥
माँझ रतनपुर सिंघदुवारा ।झारखंड देइ बाँव पहारा ॥

आगे पाव उड़ैसा, बाएँ दिए सो बाट ।
दहिनावरत देइ कै, उतरु समुद के घाट ॥13॥

(सरेख=सयाना,श्रेष्ठ,चतुर, लेइ सो...साखू=शाखा
डूबते समय पत्ते को ही पकड़ता है, परास=पलास,
पत्ता, सहलंगी=सँगलगा,साथी, बीजानगर=विजयानगरम्,
गोंड औ कोल=जंगली जातियाँ, अँधियार=अँजारी जो
बीजापुर का एक महाल था, खटोला=गढ़मंडला का
पश्चिम भाग, गढ़ काटंग=गढ़ कटंग,जबलपुर के
आसपास का प्रदेश, रतनपुर=विलासपुर के जिले में
आजकल है, सिंघ दुवारा=छिंदवाड़ा, झारखंड=छत्तीसगढ़
और गोंडवाने का उत्तर भाग, सौंर=चादर, सेंती=से)

होत पयान जाइ दिन केरा । मिरिगारन महँ भएउ बसेरा ॥
कुस-साँथरि भइ सौंर सुपेती । करवट आइ बनी भुइँ सेंती ॥
चलि दस कोस ओस तन भीजा । काया मिलि तेहिं भसम मलीजा ॥
ठाँव ठाँव सब सोअहिं चेला । राजा जागै आपु अकेला ॥
जेहि के हिये पेम-रंग जामा । का तेहि भूख नीद बिसरामा ॥
बन अँधियार, रैनि अँधियारी । भादों बिरह भएउ अति भारी ॥
किंगरी हाथ गहे बैरागी । पाँच तंतु धुन ओही लागी ॥

नैन लाग तेहि मारग पदमावति जेहि दीप ।
जैस सेवातिहि सेवै बन चातक, जल सीप ॥14॥

13. राजा-गजपति-संवाद-खंड

मासेक लाग चलत तेहि बाटा । उतरे जाइ समुद के घाटा ॥
रतनसेन भा जोगी-जती । सुनि भेंटै आवा गजपती ॥
जोगी आपु, कटक सब चेला । कौन दीप कहँ चाहहिं खेला ॥
" आए भलेहि, मया अब कीजै । पहनाई कहँ आयसु दीजै"
"सुनहु गजपती उतर हमारा । हम्ह तुम्ह एकै, भाव निरारा ॥
नेवतहु तेहि जेहि नहिं यह भाऊ । जो निहचै तेहि लाउ नसाऊ ॥
इहै बहुत जौ बोहित पावौं । तुम्ह तैं सिंघलदीप सिधावौं ॥

जहाँ मोहिं निजु जाना कटक होउँ लेइ पार ।
जौं रे जिऔं तौ बहुरौं, मरौं ओहि के बार" ॥1॥

(गजपति=कलिंग के राजाओं की पुरानी उपाधि, खेला चाहहिं=
मन की मौज में जाना चाहते हैं, लाउ=लाव,लगाव,प्रेम)

गजपती कहा "सीस पर माँगा । बोहित नाव न होइहि खाँगा ॥
ए सब देउँ आनि नव-गढ़े । फूल सोइ जो महेसुर चढ़े ॥
पै गोसाइँ सन एक बिनाती । मारग कठिन, जाब केहि भाँती ॥
सात समुद्र असूझ अपारा । मारग मगर मच्छ घरियारा ॥
उठै लहरि नहिं जाइ सँभारी । भागहि कोइ निबहै बैपारी ॥
तुम सुखिया अपने घर राजा । जोखउँ एत सहहु केहि काजा?॥
सिंघलदीप जाइ सो कोई । हाथ लिए आपन जिउ होई ॥

खार, खीर, दधि, जल उदधि, सुर, किलकिला अकूत ।
को चढ़ि नाँघै समुद ए, है काकर अस बूत?"॥2॥

(सीस पर माँगा=आपकी माँग या आज्ञा सिर पर है,
खाँगा=कमी, किलकिला=एक समुद्र का नाम, अकूत=
अपार, बूत=बूता,बल)

"गजपती यह मन सकती-सीऊ । पै जेहि पेम कहाँ तेहि जीऊ
जो पहिले सिर दै पगु धरई । मूए केर मीचु का करई?॥
सुख त्यागा, दुख साँभर लीन्हा । तब पयान सिंघल-मुँह कीन्हा ॥
भौंरा जान कवँल कै प्रीती । जेहि पहँ बिथा पेम कै बीती ॥
औ जेइ समुद पेम कर देखा । तेइ एहि समुद बूँद करि लेखा ॥
सात समुद सत कीन्ह सँभारू । जौं धरती, का गरुअ पहारू?॥
जौ पै जीउ बाँध सत बेरा । बरु जिउ जाइ फिरै नहिं फेरा ॥

रंगनाथ हौं जा कर, हाथ ओहि के नाथ ।
गहे नाथ सो खैंचै, फेरे फिरै न माथ ॥3॥

(साँभर=संबल,राह का कलेवा, बेरा=नाव का बेड़ा, रंगनाथ
हौं=रंग या प्रेम में जोगी हूँ जिसका, नाथ=नकेल,रस्सी,
माथ=सिर या रुख तथा नाव का अग्रभाग)

पेम-समुद्र जो अति अवगाहा । जहाँ न वार न पार न थाहा ॥
जो एहि खीर-समुद महँ परे । जीउ गँवाइ हंस होइ तरे ॥
हौं पदमावति कर भिखमंगा । दीठि न आव समुद औ गंगा ॥
जेहि कारन गिउ काथरि कंथा । जहाँ सो मिलै जावँ तेहि पंथा ॥
अब एहि समुद परेउँ होइ मरा । मुए केर पानी का करा?॥
मर होइ बहा कतहुँ लेइ जाऊ । ओहि के पंथ कोउ धरि खाऊ ॥
अस मैं जानि समुद महँ परऊँ । जौ कोइ खाइ बेगि निसतरऊँ ॥

सरग सीस, धर धती, हिया सो पेम-समुद ।
नैन कौडिया होइ रहे, लेइ लेइ उठहिं सो बुंद ॥4॥

(हंस=शुद्ध आत्म-स्वरूप,उज्ज्वल हंस, मर=मरा,मृतक,
कौडिया=कौडिल्ला नाम का पक्षी जो पानी में से मछली
पकड़कर फिर ऊपर उड़ने लगता है)

कठिन वियोग जाग दुख-दाहू । जरतहि मरतहि ओर निबाहू ॥
डर लज्जा तहँ दुवौ गवाँनी । देखै किछु न आगि नहिं पानी ॥
आगि देखि वह आगे धावा । पानि देखि तेहि सौंह धँसावा ॥
अस बाउर न बुझाए बूझा । जेहि पथ जाइ नीक सो सुझा ॥
मगर-मच्छ-डर हिये न लेखा । आपुहि चहै पार भा देखा ॥
औ न खाहि ओहि सिंघ सदूरा । काठहु चाहि अधिक सो झूरा ॥
काया माया संग न आथी । जेहिह जिउ सौंपा सोई साथी ॥

जो किछु दरब अहा सँग दान दीन्ह संसार ।
ना जानी केहि सत सेंती दैव उतारै पार ॥5॥

(सदूरा=शार्दूल,एक प्रकार का सिंह, आथा=अस्ति;है, सेंती=से)

धनि जीवन औ ताकर हीया । ऊँच जगत महँ जाकर दीया ॥
दिया सो जप तप सब उपराहीं । दिया बराबर जग किछु नाहीं ॥
एक दिया ते दशगुन लहा । दिया देखि सब जग मुख चहा ॥
दिया करै आगे उजियारा । जहाँ न दिया तहाँ अँधियारा ॥
दिया मँदिर निसि करै अँजोरा । दिया नाहिं घर मूसहिं चोरा ॥
हातिम करन दिया जो सिखा । दिया रहा धर्मन्ह महँ लिखा ॥
दिया सो काज दुवौ जग आवा । इहाँ जो दिया उहाँ सब पावा ॥

"निरमल पंथ कीन्ह तेइ जेइ रे दिया किछु हाथ ।
किछु न कोइ लेइ जाइहि दिया जाइ पै साथ" ॥6॥

(यह मन...सीऊ=यह मन शक्ति की सीमा है, दीया=दिया,
हुआ,दान,दीपक)

14. बोहित-खंड

सो न डोल देखा गजपती । राजा सत्त दत्त दुहुँ सती ॥
अपनेहि काया, आपनेहि कंथा । जीउ दीन्ह अगुमन तेहि पंथा ॥
निहचै चला भरम जिउ खोई । साहस जहाँ सिद्धि तहँ होई ॥
निहचै चला छाँड़ि कै राजू । बोहित दीन्ह, दीन्ह सब साजू ॥
चढ़ा बेगि, तब बोहित पेले । धनि सो पुरुष पेम जेइ खेले ॥
पेम-पंथ जौं पहुँचै पारा । बहुरि न मिलै आइ एहि छारा ॥
तेहि पावा उत्तिम कैलासू । जहाँ न मीचु, सदा सुख-बासू ॥

एहि जीवन कै आस का? जस सपना पल आधु ।
मुहमद जियतहि जे मुए तिन्ह पुरुषन्ह कह साधु ॥1॥

(सत्त दत्त दुहुँ सती=सत्य या दान दोनों में सच्चा या
पक्का है, पेले=झोंक से चले)

जस बन रेंगि चलै गज-ठाटी । बोहित चले, समुद गा पाटी ॥
धावहि बोहित मन उपराहीं । सहस कोस एक पल महँ जाहीं ॥
समुद अपार सरग जनु लागा । सरग न घाल गनै बैरागा ॥
ततखन चाल्हा एक देखावा । जनु धौलागिरि परबत आवा ॥
उठी हिलोर जो चाल्ह नराजी । लहरि अकास लागि भुइँ बाजी ॥
राजा सेंती किँवर सब कहहीं । अस अस मच्छ समुद महँ अहहीं ॥
तेहि रे पंथ हम चाहहिं गवना । होहु सँजूत बहुरि नहिं अवना ॥

गुरु हमार तुम राजा, हम चेला तुम नाथ ।
जहाँ पाँव गुरु राखै, चेला राखै माथ ॥2॥

(ठाटी=ठट्ठ,झुंड, उपराहीं=अधिक(बेग से), घाल न गने=
पसंगे, बराबर भी नहीं गिनता,कुछ नहीं समझता, घाल=
घलुआ,थोड़ी सी और वस्तु जो सौदे के ऊपर बेचनेवाला
देता है, चाल्हा=एक मछली,चेल्हवा, नराजी=नाराज हुई,
भुइँ बाजी=भूमि पर पड़ी, सँजूत=सावधान,तैयार)

केवट हँसे सो सुनत गवेजा । समुद न जानु कुवाँ कर मेजा ॥
यह तौ चाल्ह न लागै कोहू । का कहिहौ जब देखिहौ रोहू?॥
सो अबहीं तुम्ह देखा नाहीं । जेहि मुख ऐसे सहस समाहीं ॥
राजपंखि तेहि पर मेडराहीं । सहस कोस तिन्ह कै परछाहीं ॥
तेइ ओहि मच्छ ठोर भरि लेहीं । सावक-मुख चारा लेइ देहीं ॥
गरजै गगन पंखि जब बोला । डोल समुद्र डैन जब डोला ॥
तहाँ चाँद औ सूर असूझा । चढ़ै सोइ जो अगुमन बूझा ॥

दस महँ एक जाइ कोइ करम, धरम, तप, नेम ।
बोहित पार होइ जब तबहि कुसल औ खेम ॥3॥

(गवेजा=बातचीत, मेजा=मेंढक, कोहू=किसी को)

राजै कहा कीन्ह मैं पेमा । जहाँ पेम कहँ कूसल खेमा ॥
तुम्ह खेवहु जौ खैवै पारहु । जैसे आपु तरहु मोहिं तारहु ॥
मोहिं कुसल कर सोच न ओता । कुसल होत जौ जनम न होता ॥
धरती सरग जाँत-पट दोऊ । जो तेहि बिच जिउ राख न कोऊ ।
हौं अब कुसल एक पै माँगौं । पेम-पंथ त बाँधि न खाँगौं ॥
जौ सत हिय तौ नयनहिं दीया । समुद न डरै पैठि मरजीया ॥
तहँ लगि हेरौं समुद ढंढोरी । जहँ लगि रतन पदारथ जोरी ॥

सप्त पतार खोजि कै काढ़ौं वेद गरंथ ।
सात सरग चढ़ि धावौं पदमावति जेहि पंथ ॥4॥

(ओता=उतना, पट=पल्ला, खाँगौ=कसर न करूँ,
मर-जीया=जी पर खेलकर विकट स्थानों से
व्यापार की वस्तु (जैसे, मोती, शिलाजीत,
कस्तूरी) लाने वाले,जिवकिया, ढंढोरी=छानकर)

15. सात समुद्र-खंड

सायर तरे हिये सत पूरा । जौ जिउ सत, कायर पुनि सूरा ॥
तेइ सत बिहित कुरी चलाए । तेइ सत पवन पंख जनु लाए ॥
सत साथी, सत कर संसारू । सत्त खेइ लेइ लावै पारू ॥
सत्त ताक सब आगू पाछू । जहँ तहँ मगर मच्छ औ काछू ॥
उठै लहरि जनु ठाढ़ पहारा । चढ़ै सरग औ परै पतारा ॥
डोलहिं बोहित लहरैं खाही । खिन तर होहिं, खिनहिं उपराहीं ॥
राजै सो सत हिरदै बाँधा । जेहि सत टेकि करै गिरि काँधा ॥

खार समुद सो नाँघा, आए समुद जहँ खीर ।
मिले समुद वै सातौ, बेहर बेहर नीर ॥1॥

(सायर=सागर, कुरी=समूह, बेहर-बेहर=अलग-अलग)

खीर-समुद का बरनौं नीरू । सेत सरूप, पियत जस खीरू ॥
उलथहिं मानिक, मोती, हीरा । दरब देखि मन होइ न थीरा ॥
मनुआ चाह दरब औ भोगू । पंथ भुलाइ बिनासै जोगू ॥
जोगी होइ सो मनहिं सँभारै । दरब हाथ कर समुद पवारै ॥
दरब लेइ सोई जो राजा । जो जोगी तेहिके केहि काजा?॥
पंथहि पंथ दरब रिपु होई । ठग, बटमार, चोर सँग सोई ॥
पंथी सो जो दरब सौं रूसे । दरब समेटि बहुत अस मूसे ॥
खीर-समुद सो नाँघा, आए समुद-दधि माँह ॥
जो है नेह क बाउर तिन्ह कहँ धूप न छाँह ॥2॥

(मनुआ=मनुष्य या मन, पवारे=फेंकें, रूसे=विक्त हुए,
मूसे=मूसे गए,ठगे गए)

दधि-समुद्र देखत तस दाधा । पेम क लुबुध दगध पै साधा ॥
पेम जो दाधा धनि वह जीऊ । दधि जमाइ मथि काढ़े घीऊ ॥
दधि एक बूँद जाम सब खीरू । काँजी-बूँद बिनसि होइ नीरू ॥
साँस डाँडि, मन मथनी गाढ़ी । हिये चोट बिनु फूट न साढ़ी ॥
जेहि जिउ पेम चदन तेहि आगी । पेम बिहून फिरै डर भागी ॥
पेम कै आगि जरै जौं कोई । दुख तेहि कर न अँबिरथा होई ॥
जो जानै सत आपुहि जारै । निसत हिये सत करै न पारै ॥

दधि-समुद्र पुनि पार भे, पेमहि कहा सँभार?।
भावै पानी सिर परै, भावै परै अँगार ॥3॥

(दगध साधा=दाह सहने का अभ्यास कर लेता है,
दाधा=जला, डाँडि=डाँडी,डोरि, अँबिरथा=वृथा,निष्फल,
निसत=सत्य विहीन, भावै=चाहे)

आए उदधि समुद्र अपारा । धरती सरग जरै तेहि झारा ॥
आगि जो उपनी ओहि समुंदा । लंका जरी ओहि एक बुंदा ॥
बिरह जो उपना ओहि तें गाढ़ा । खिन न बुझाइ जगत महँ बाढ़ा ॥
जहाँ सो बिरह आगि कहँ डीठी । सौंह जरै, फिरि देइ न पीठी ॥
जग महँ कठिन खड़ग कै धारा । तेहि तें अधिक बिरह कै झारा ॥
अगम पंथ जो ऐस न होई । साथ किए पावै सब कोई ॥
तेहि समुद्र महँ राजा परा । जरा चहै पै रोवँ न जरा ॥

तलफै तेल कराह जिमि इमि तलफै सब नीर ।
यह जो मलयगिरि प्रेम कर बेधा समुद समीर ॥4॥

(झार=ज्वाला,लपट, उपनी=उत्पन्न हुई, आगि कह डीठी=
आग को क्या ध्यान में लाता है, सौंह=सामने, यह जो
मलयगिरि=राजा)

सुरा-समुद पुनि राजा आवा । महुआ मद-छाता दिखरावा ॥
जो तेहि पियै सो भाँवरि लेई । सीस फिरै, पथ पैगु न देई ॥
पेम-सुरा जेहि के हिय माहाँ । कित बैठे महुआ कै छाहाँ ॥
गुरू के पास दाख-रस रसा । बैरी बबुर मारि मन कसा ॥
बिरह के दगध कीन्ह तन भाठी । हाड़ जराइ दीन्ह सब काठी ॥
नैन-णीर सौं पोता किया । तस मद चुवा बरा जस दिया ॥
बिरह सरागन्हि भूँजै माँसू । गिरि परै रकत कै आँसू ॥

मुहमद मद जो पेम कर गए दीप तेहि साथ ।
सीस न देइ पतंग होइ तौ लगि लहै न खाध ॥5॥

(छाता=पानी पर फैला फूल पत्तों का गुच्छा,
सीस फिरै=सिर घूमता है, मन कसा=मन वश
में किया, काठी=ईंधन, पोता=मिट्टी के लेप पर
गीले कपड़े का पुचारा जो भबके से अर्क उतारने
में बरतन के ऊपर दिया जाता है, सराग=सलाख,
शलाका,सीख जिसमें गोदकर माँस भूनते हैं,
खाध=खाद्य,भोग)

पुनि किलकिला समुद महँ आए । गा धीरज, देखत डर खाए ॥
भा किलकिल अस उठै हिलोरा । जनु अकास टूटै चहुँ ओरा ॥
उठै लहरि परबत कै नाईं । फिरि आवै जोजन सौ ताईं ॥
धरती लेइ सरग लहि बाढ़ा । सकल समुद जानहुँ भा ठाढ़ा ॥
नीर होइ तर ऊपर सोई । माथे रंभ समुद जस होइ ॥
फिरत समुद जोजन सौ ताका । जैसे भँवै केहाँर क चाका ॥
भै परलै नियराना जबहीं । मरै जो जब परलै तेहि तबहीं ॥

गै औसान सबन्ह कर देखि समुद कै बाढ़ि ।
नियर होत जनु लीलै, रहा नैन अस काढ़ि ॥6॥

(धरती लेइ=धरती से लेकर, माथे=मथने से, रंभ=घोर
शब्द, औसान=होश-हवास)

हीरामन राजा सौं बोला । एही समुद आए सत डोला ॥
सिंहलदीप जो नाहिं निबाहू । एही ठाँव साँकर सब काहू ॥
एहि किलकिला समुद्र गँभीरू । जेहि गुन होइ सो पावै तीरू ॥
इहै समुद्र-पंथ मझधारा । खाँडे कै असि धार निनारा ॥
तीस सहस्र कोस कै पाटा । अस साँकर चलि सकै न चाँटा ॥
खाँडै चाहि पैनि बहुताई । बार चाहि ताकर पतराई ॥
एही ठाँव कहँ गुरु सँग लीजिय । गुरु सँग होइ पार तौ कीजिय ॥

मरन जियन एहि पंथहि, एही आस निरास ।
परा सो गएअउ पतारहि, तरा सो गा कबिलास ॥7॥

(साँकर=कठिन स्थिति, साँकर=सकरा, तंग)

राजै दीन्ह कटक कहँ बीरा । सुपुरुष होहु, करहु मन धीरा ॥
ठाकुर जेहिक सूर भा कोई । कटक सूर पुनि आपुहि होई ॥
जौ लहि सती न जिउ सत बाँधा । तौ लहि देइ कहाँर न काँधा ॥
पेम-समुद महँ बाँधा बेरा । यह सब समुद बूँद जेहि केरा ॥
ना हौं सरग क चाहौं राजू । ना मोहिं नरक सेंति किछु काजू ॥
चाहौं ओहि कर दरसन पावा । जेइ मोहिं आनि पेम-पथ लावा ॥
काठहि काह गाढ़ का ढीला? । बूड़ न समुद, मगर नहिं लीला ॥

कान समुद धँसि लीन्हेसि, भा पाछे सब कोइ ।
कोइ काहू न सँभारे, आपनि आपनि होइ ॥8॥

(सेंति=सेती, से, गाढ़=कठिन, ढीला=सुगम,
कान=कर्ण,पतवार)

कोइ बोहित जस पौन उड़ाहीं । कोई चमकि बीजु अस जाहीं ॥
कोई जस भल धाव तुखारू । कोई जैस बैल गरियारू ॥
कोई जानहुँ हरुआ रथ हाँका । कोई गरुअ भार बहु थाका ॥
कोई रेंगहिं जानहुँ चाँटी । कोई टूटि होहिं तर माटी ॥
कोई खाहिं पौन कर झोला । कोइ करहिं पात अस डोला ॥
कोई परहिं भौंर जल माहाँ । फिरत रहहिं, कोइ देइ न बाहाँ ॥
राजा कर भा अगमन खेवा । खेवक आगे सुआ परेवा ॥

कोइ दिन मिला सबेरे, कोइ आवा पछ-राति ।
जाकर जस जस साजु हुत सो उतरा तेहि भाँति ॥9॥

(गरियारू=मट्टर,सुस्त, हरुआ=हलका, थाका=थक गया, झौला=
झोंका,झकोरा, अगमन=आगे, पछ-राति=पिछली रात, हुत=था)

सतएँ समुद मानसर आए । मन जो कीण्ह साहस, सिधि पाए ॥
देखि मानसर रूप सोहावा । हिय हिलास पुरइनि होइ छावा ॥
गा अँधियार, रैन-मसि छूटी । भा भिनसार किरिन-रवि फूटी ॥
`अस्ति अस्ति सब साथी बोले । अंध जो अहे नैन बिधि खोले ॥
कवँल बिगस तस बिहँसी देहीं । भौंर दसन होइ कै रस लेहीं ॥
हँसहिं हंस औ करहिं किरीरा । चुनहिं रतन मुकुताहल हीरा ॥
जो अस आव साधि तप जोगू । पूजै आस, मान रस भोगू ॥

भौंर जो मनसा मानसर, लीन्ह कँवलरस आइ ।
घुन जो हियाव न कै सका, झर काठ तस खाइ ॥10॥

(पुरइनि=कमल का पत्ता, रैनमसि=रात की स्याही,
`अस्ति अस्ति'=जिस सिंहल द्वीप के लिए इतना तप
साधा वह वास्तव में है, अध्यात्मपक्ष में `ईश्वर या
परलोक है', किरीरा=क्रीड़ा, मुकताहल=मुक्ताफल,
मनसा=मन में संकल्प किया, हियाव=जीवट,साहस)

16. सिंहलद्वीप-खंड

पूछा राजै कहु गुरु सूआ । न जनौं आजु कहाँ दहुँ ऊआ ॥
पौन बास सीतल लेइ आवा । कया दहत चंदनु जनु लावा ॥
कबहुँ न एस जुड़ान सरीरू । परा अगिनि महँ मलय-समीरू ॥
निकसत आव किरिन-रविरेखा । तिमिर गए निरमल जग देखा ॥
उठै मेघ अस जानहुँ आगे । चमकै बीजु गगन पर लागै ॥
तेहि ऊपर जनु ससि परगासा । औ सो चंद कचपची गरासा ॥
और नखत चहुँ दिसि उजियारे । ठावहिं ठाँव दीप अस बारे ॥

और दखिन दिसि नीयरे कंचन-मेरु देखाव ।
जनु बसंत ऋतु आवै तैसि तैसि बास जग आव ॥1॥

(कचपची=कृत्तिका नक्षत्र)

तूँ राजा जस बिकरम आदी । तू हरिचंद बैन सतबादी ॥
गोपिचंद तुइँ जीता जोगू । औ भरथरी न पूज बियोगू ॥
गोरख सिद्धि दीन्ह तोहि हाथू । तारी गुरू मछंदरनाथू ॥
जीत पेम तुइँ भूमि अकासू । दीठि परा सिंघल-कबिलासू ॥
वह जो मेघ गढ़ लाग अकासा । बिजुरी कनय-कोट चहु पासा ॥
तेहि पर ससि जो कचपचि भरा । राजमंदिर सोने नग जरा ॥
और जो नखत देख चहुँ पासा । सब रानिन्ह कै आहिं अवासा ॥

गगन सरोवर, ससि-कँवल कुमुद-तराइन्ह पास ।
तू रवि उआ, भौंर होइ पौन मिला लेइ बास ॥2॥

(आदि=आदी,बिलकुल, बैन=वचन अथवा वैन्य,
(वेन का पुत्र पृथु), तारी=ताली,कुंजी, मछंदरनाथ=
मत्स्येंद्रनाथ,गोरखनाथ के गुरु, कनय=कनक,सोना)

सो गढ़ देखु गगन तें ऊँचा । नैनन्ह देखा, कर न पहुँचा ॥
बिजुरी चक्र फिरै चहुँ फेरी । औ जमकात फिरै जम केरी ॥
धाइ जो बाजा कै मन साधा । मारा चक्र भएउ दुइ आधा ॥
चाँद सुरुज औ नखत तराईं । तेहि डर अँतरिख फिरहिं सबाई ॥
पौन जाइ तहँ पहुँचै चहा । मारा तैस लोटि भुइँ रहा ॥
अगिनि उठी, जरि बुझी निआना । धुआँ उठा, उठि बीच बिलाना ॥
पानि उठा उठि जाइ न छूआ । बहुरा रोइ, आइ भुइँ चूआ ॥

रावन चहा सौंह होइ उतरि गए दस माथ ।
संकर धरा लिलाट भुइँ और को जोगीनाथ?॥3॥

(जमकात=एक प्रकार का खाँडा (यमकर्त्तरि), बाजा=
पहुँचा,डटा, तैस=ऐसा, निआन=अंत में, जोगीनाथ=
योगीश्वर)

तहाँ देखु पदमावति रामा । भौंर न जाइ, न पंखी नामा ॥
अब तोहि देउँ सिद्धि एक जोगू । पहिले दरस होइ, तब भोगू ॥
कंचन-मेरु देखाव सो जहाँ । महादेव कर मंडप तहाँ ॥
ओहि-क खंड जस परबत मेरू । मेरुहि लागि होइ अति फेरू ॥
माघ मास, पाछिल पछ लागे । सिरी-पंचिमी होइहि आगे ॥
उघरहि महादेव कर बारू । पूजिहि जाइ सकल संसारू ॥
पदमावति पुनि पूजै आवा । होइहि एहि मिस दीठि-मेरावा ॥

तुम्ह गौनहु ओहि मंडप, हौं पदमावति पास ।
पूजै आइ बसंत जब तब पूजै मन-आस ॥4॥

(पछ=पक्ष, उघरहि=खुलेगा, बारू=बार,द्वार, दीठि-मेरवा=
परस्पर दर्शन)

राजै कहा दरस जौं पावौं । परबत काह, गगन कहँ धावौं ॥
जेहि परबत पर दरसन लहना । सिर सौं चढ़ौं, पाँव का कहना ॥
मोहूँ भावै ऊँचै ठाऊँ । ऊँचै लेउँ पिरीतम नाऊँ ॥
पुरुषहि चाहिय ऊँच हियाऊ । दिन दिन ऊँचे राखै पाऊ ॥
सदा ऊँच पै सेइय बारा । ऊँचै सौ कीजिय बेवहारा ॥
ऊँचै चढ़ै, ऊँच खँड सूझा । ऊँचे पास ऊँच मति बूझा ॥
ऊँचे सँग संगति निति कीजै । ऊँचे काज जीउ पुनि दीजै ॥

दिन दिन ऊँच होइ सो जेहि ऊँचे पर चाउ ।
ऊँचे चढ़त जो खसि परै ऊँच न छाँड़िय काउ ॥5॥

(बूझा=बूझ,समझता है, खसि परै=गिर पड़े)

हीरामन देइ बचा कहानी । चला जहाँ पदमावति रानी ॥
राजा चला सँवरि सो लता । परबत कहँ जो चला परबता ॥
का परबत चढ़ि देखै राजा । ऊँच मँडप सोने सब साजा ॥
अमृत सदाफर फरे अपूरी । औ तहँ लागि सजीवन-मूरी ॥
चौमुख मंडप चहूँ केवारा । बैठे देवता चहूँ दुवारा ॥
भीतर मँडप चारि खँभ लागे । जिन्ह वै छुए पाप तिन्ह भागे ॥
संख घंट घन बाजहिं सोई । औ बहु होम जाप तहँ होई ॥

महादेव कर मंडप जग मानुस तहँ आव ।
जस हींछा मन जेहि के सो तैसे फल पाव ॥6॥

(बचा कहानी=वचन और व्यवस्था, लता=पद्मलता,
पद्मावती, परबता=सुआ (सुए का प्यार का नाम)

का देखै=क्या देखता है कि, हींछा=इच्छा)

17. मंडपगमन-खंड

राजा बाउर बिरह-बियोगी । चेला सहस तीस सँग जोगी
पदमावति के दरसन-आसा । दंडवत कीन्ह मँडप चहुँ पासा ॥
पुरुब बार कै सिर नावा । नावत सीस देव पहँ आवा ॥
नमो नमो नारायन देवा । का मैं जोग, करौं तोरि सेवा ॥
तूँ दयाल सब के उपराहीं । सेवा केरि आस तोहि नाहीं ॥
ना मोहि गुन, न जीभ-बाता । तूँ दयाल, गुन निरगुन दाता ॥
पुरवहु मोरि दरस कै आसा । हौं मारग जोवौं धरि साँसा ॥

तेहि बिधि बिनै न जानौं जेहि बिधि अस्तुति तोरि ।
करहु सुदिस्टि मोहिं पर, हींछा पूजै मोहि ॥1॥

(निरगुन=बिना गुणवाले का)

कै अस्तुति जब बहुत मनावा । सबद अकूत मँडप महँ आवा ॥
मानुष पेम भएउ बैकुंठी । नाहिं त काह, छार भरि मूठी ॥
पेमहि माँह बिरह-रस रसा । मैन के घर मधु अमृत बसा ॥
निसत धाइ जौं मरै त काहा । सत जौं करै बैठि तेहि लाहा ॥
एक बार जौं मन देइ सेवा । सेवहि फल प्रसन्न होइ देवा ॥
सुनि कै सबद मँडप झनकारा । बैठा आइ पुरुब के बारा ॥
पिंड चड़ाइ छार जेति आँटी । माटी भएउ अंत जो माटी ॥

माटी मोल न किछु लहै, औ माटी सब मोल ।
दिस्टि जौं माटी सौं करै, माटी होइ अमोल ॥2॥

(अकूत=आप से आप,अकस्मात्, मैन=मोम, लाह=लाभ,
पिंड=शरीर, जोति=जितनी, आँटी=अँटी;हाथ में समाई,
माटी सो दिस्टि करै=सब कुछ मिट्टी समझे या शरीर
मिट्टी में मिलाए, माटी=शरीर, तपा=तपस्वी)

बैठ सिंघछाला होइ तपा । `पदमावति पदमावति' जपा ॥
दीठि समाधि ओही सौं लागी । जेहि दरसन कारन बैरागी ॥
किंगरी गहे बजावै झूरै । भोर साँझ सिंगी निति पूरै ॥
कंथा जरै, आगि जनु लाई । विरह-धँधार जरत न बुझाई ॥
नैन रात निसि मारग जागे । चढ़ै चकोर जानि ससि लागे ॥
कुंडल गहे सीस भुँइ लावा । पाँवरि होउँ जहाँ ओहि पावा ॥
जटा छोरि कै बार बहारौं । जेहि पथ आव सीस तहँ वारौं ॥

चारिहु चक्र फिरौ मैं, डँडं न रहौं थिर मार ।
होइ कै भसम पौन सँग (धावौ) जहाँ परान-अधार ॥3॥

(झूरै=व्यर्थ, धँधार=लपट, रात=लाल, पाँवरि=जूती, पावा=पैर,
बहारौं=झाड़ू लगाऊँ, थिर मार=स्थिर होकर)

18. पदमावती-वियोग-खंड

पदमावति तेहि जोग सँजोगा । परी पेम-बसे बियोगा ॥
नींद न परै रैनि जौं आबा । सेज केंवाच जानु कोइ लावा ॥
दहै चंद औ चंदन चीरू दगध करै तन बिरह गँभीरू ॥
कलप समान रेनि तेहि बाढ़ी । तिलतिल भर जुग जुग जिमि गाढ़ी ॥
गहै बीन मकु रैनि बिहाई । ससि-बाहन तहँ रहै ओनाई ॥
पुनि धनि सिंघ उरेहै लागै । ऐसहि बिथा रैनि सब जागै ॥
कहँ वह भौंर कवँल रस-लेवा । आइ परै होइ घिरिन परेवा ॥

से धनि बिरह-पतंग भइ, जरा चहै तेहि दीप ।
कंत न आव भिरिंग होइ, का चंदन तन लीप?॥1॥

(तेहि जोग सँजोगा=राजा के उस योग के संयोग या
प्रभाव से, केंवाच=कपिकच्छु जिसके छू जाने से बदन
में खुजली होती है,केमच, गहै बीन.....ओनाई=बीन
लेकर बैठती है कि कदाचित इसी से रात बीते, पर
उस बीन के सुर पर मोहित होकर चंद्रमा का वाहन
मृग ठहर जाता है जिससे रात और बड़ी हो जाती
है, सिंघ उरेहै लागै=सिंह का चित्र बनाने लगती है,
जिससे चंद्रमा का मृग डरकर भागे, घिरिन परेवा=
गिरहबाज कबूतर, धनि=धन्या स्त्री, कंत न आव
भिरिंग होइ=पति रूप भृंग आकर जब मुझे अपने
रंग में मिला लेगा तभी जलने से बच सकती हूँ,
लीप=लेप करती हो)

परी बिरह बन जानहुँ घेरी । अगम असूझ जहाँ लगि हेरी ॥
चतुर दिसा चितवै जनु भूली । सो बन कहँ जहँ मालति फूली?॥
कवँल भौंर ओही बन पावै । को मिलाइ तन-तपनि बुझावै?॥
अंग अंग अस कँवल सरीरा । हिय भा पियर कहै पर पीरा ॥
चहै दरस रबि कीन्ह बिगासू । भौंर-दीठि मनो लागि अकासू ॥
पूँछै धाय, बारि! कहु बाता । तुइँ जस कँवल फूल रँग राता ॥
केसर बरन हिया भा तोरा । मानहुँ मनहिं भएउ किछु भोरा ॥

पौन न पावै संचरै, भौंर न तहाँ बईठ ।
भूलि कुरंगिनि कस भई, जानु सिंघ तुइँ डीठ ॥2॥

(हिय भा पियर=कमल के भीतर का छत्ता पीले रंग का
होता है, परपीरा=दूसरे का दुःख या वियोग, भौंर-दीठि
मनो लागि अकासू=कमल पर जैसे भौंरे होते हैं वैसे ही
कमल सी पद्मावती की काली पुतलियाँ उस सूर्य का
विकास देखने को आकाश कौ ओर लगी हैं, भोरा=भ्रम)

धाय सिंघ बरू खातेउ मारी । की तसि रहति अही जसि बारी ॥
जोबन सुनेउँ की नवल बसंतू । तेहि बन परेउ हस्ति मैमंतू ॥
अब जोबन-बारी को राखा । कुंजर-बिरह बिधंसै साखा ॥
मैं जानेउँ जोबन रस भोगू ।जोबन कठिन सँताप बियोगू ॥
जोबन गरुअ अपेल पहारू । सहि न जाइ जोबन कर भारू ॥
जोबन अस मैमंत न कोई । नवैं हस्ति जौं आँकुस होई ॥
जोबन भर भादौं जस गंगा । लहरैं देइ, समाइ न अंगा ॥

परिउँ अथाह, धाय! हौं जोबन-उदधि गँभीर ।
तेहि चितवौ चारिहु दिसि जो गहि लावै तीर ॥3॥

(मैमंत=मदमत्त, अपेल=न ठेलने योग्य)

पदमावति! तुइ समुद सयानी । तोहि सर समुद न पूजै, रानी ॥
नदी समाहिं समुद महँ आई । समुद डोलि कहु कहाँ समाई ॥?
अबहिं कवँल-करी हित तोरा । आइहि भौंर जो तो कहँ जोरा ॥
जोबन-तुरी हाथ गहि लीजिय । जहाँ जाइ तहँ जाइ न दीजिय ॥
जोबन जोर मात गज अहै । गहहुँ ज्ञान-आँकुस जिमि रहै ॥
अबहिं बारि पेम न खेला । का जानसि कस होइ दुहेला ॥
गगन दीठि करु नाइ तराहीं । सुरुज देखु कर आवै नाहीं ॥

जब लगि पीउ मिलै नहिं, साधु पेम कै पीर ।
जैसे सीप सेवाति कहँ तपै समुद मँझ नीर ॥4॥

(समुद्र=समुद्र सी गंभीर, तुरी=घोड़ी, मात=माता हुआ,
मतवाला, दुहेला=कठिन खेल, गगन दीठि ...तराहीं=
पहले कह आए हैं कि "भौर-दीठि मनो लागि अकासू")

दहै, धाय! जोबन एहि जीऊ । जानहुँ परा अगिनि महँ घीऊ ॥
करबत सहौं होत दुइ आधा । सहि न जाइ जोबन कै दाधा ॥
बिरह समुद्र भरा असँभारा । भौंर मेलि जिउ लहरिन्ह मारा ॥
बिहग-नाग होइ सिर चढ़ि डसा । होइ अगिनि चंदन महँ बसा ॥
जोबन पंखी, बिरह बियाधू । केहरि भयउ कुरंगिनि-खाधू ॥
कनक-पानि कित जोबन कीन्हा । औटन कठिन बिरह ओहि दीन्हा ॥
जोबन-जलहि बिरह-मसि छूआ । फूलहिं भौंर, फरहिं भा सूआ ॥

जोबन चाँद उआ जस, बिरह भएउ सँग राहु ।
घटतहि घटत छीन भइ, कहै न पारौं काहु ॥5॥

(दाधा=दाह,जलन, होइ अगिनि चंदन महँ बसा=वियोगियों
को चंदन से भी ताप होना प्रसिद्ध है, केहरि भएउ....खाधू=
जैसे हिरनी के लिये सिंह, वैसे ही यौवन के लिये विरह
हुआ, औटन=पानी का गरम करके खौलाया जाना, मसि=
कालिमा, फूलहि भौंर ...सूआ=जैसे फूल को बिगाड़नेवाला
भौंरा और फल को नष्ट करनेवाला तोता हुआ वैसे ही
यौवन को नष्ट करने वाला विरह हुआ)

नैन ज्यौं चक्र फिरै चहुँ ओरा । बरजै धाय, समाहिं न कोरा ॥
कहेसि पेम जौं उपना, बारी । बाँधु सत्त, मन डोल न भारी ॥
जेहि जिउ महँ होइ सत्त-पहारू । परै पहार न बाँकै बारू ॥
सती जो जरे पेम सत लागी । जौं सत हिये तौ सीतल आगी ॥
जोबन चाँद जो चौदस -करा । बिरह के चिनगी सो पुनि जरा ॥
पौन बाँध सो जोगी जती । काम बाँध सो कामिनि सती ॥
आव बसंत फूल फुलवारी । देव-बार सब जैहैं बारी ॥

तुम्ह पुनि जाहु बसंत लेइ, पूजि मनावहु देव ।
जीउ पाइ जग जनम है, पीउ पाइ के सैव ॥6॥

(कोरा=कोर,कोना, पहारू=पाहरू,रक्षक)

जब लगि अवधि आइ नियराई । दिन जुग-जुग बिरहनि कहँ जाई ॥
भूख नींद निसि-दिन गै दौऊ । हियै मारि जस कलपै कोऊ ॥
रोवँ रोवँ जनु लागहि चाँटे । सूत सूत बेधहिं जनु काँटे ॥
दगधि कराह जरै जस घीऊ । बेगि न आव मलयगिरि पीऊ ॥
कौन देव कहँ जाइ के परसौं । जेहि सुमेरु हिय लाइय कर सौं ॥
गुपुति जो फूलि साँस परगटै । अब होइ सुभर दहहि हम्ह घटै ॥
भा सँजोग जो रे भा जरना । भोगहि भए भोगि का करना ॥

जोबन चंचल ढीठ है, करै निकाजै काज ।
धनि कुलवंति जो कुल धरै कै जोबन मन लाज ॥7॥

(परसों=स्पर्श करूँ, पूजन करूँ, जेहि...करसों=जिससे उस
सुमेरु को हाथ से हृदय में लगाऊँ, होइ सुभर=अधिक
भरकर,उमड़कर, घटैं=हमारे शरीर को, निकाजै=निकम्मा
ही, जोबन=यौवनावस्था में)

19. पदमावती-सुआ-भेंट-खंड

तेहि बियोग हीरामन आवा । पदमावति जानहुँ जिउ पावा ॥
कंठ लाइ सूआ सौं रोई । अधिक मोह जौं मिलै बिछोई
आगि उठे दुख हिये गँभीरू । नैनहिं आइ चुवा होइ नीरू ॥
रही रोइ जब पदमिनि रानी । हँसि पूछहिं सब सखी सयानी ॥
मिले रहस भा चाहिय दूना । कित रोइय जौं मिलै बिछूना?
तेहि क उतर पदमावति कहा । बिछुरन-दुख जो हिये भरि रहा ॥
मिलत हिये आएउ सुख भरा । वह दुख नैन-नीर होइ ढरा ॥

बिछुरंता जब भेंटै सो जानै जेहि नेह ।
सुक्ख-सुहेला उग्गवै दुःख झरै जिमि मेह ॥1॥

(बिछोई=बिछुड़ा हुआ, रहस=आनन्द, बिछूना=बिछुड़ा हुआ,
सुहेला=सुहैल या अगस्त तारा, झरै=छँट जाता है, दूर हो
जाता है, मेह=मेघ,बादल)

पुनि रानी हँसि कूसल पूछा । कित गवनेहु पींजर कै छूँछा ॥
रानी! तुम्ह जुग जुग सुख पाटू । छाज न पंखिहि पीजर -ठाटू ॥
जब भा पंख कहाँ थिर रहना । चाहै उड़ा पंखि जौं डहना ॥
पींजर महँ जो परेवा घेरा । आइ मजारि कीन्ह तहँ फेरा ॥
दिन एक आइ हाथ पै मेला । तेहि डर बनोबास कहँ खेला ॥
तहाँ बियाध आइ नर साधा । छूटि न पाव मीचु कर बाँधा ॥
वै धरि बेचा बाम्हन हाथा । जंबूदीप गएउँ तेहहि साथा ॥

तहाँ चित्र चितउरगढ़ चित्रसेन कर राज ।
टीका दीन्ह पुत्र कहँ, आपु लीन्ह सर साज ॥2॥

(छाज न=दहौं अच्छा लगता, पींजर-ठाटू=पिंजरे का ढाँचा,
दिन एक ..मेला=किसी दिन अवश्य हाथ डालेगी, नर=
नरसल,जिसमें लासा लगाकर बहेलिए चिड़िया फँसाते
हैं, चित्र=विचित्र, सर साज लीन्ह=चिता पर चढ़ा;मर गया)

बैठ जो राज पिता के ठाऊँ । राजा रतनसेन ओहि नाऊँ ॥
बरनौं काह देस मनियारा । जहँ अस नग उपना उजियारा ॥
धनि माता औ पिता बखाना । जेहिके बंस अंस अस आना ॥
लछन बतीसौ कुल निरमला । बरनि न जाइ रूप औ कला ॥
वै हौं लीन्ह, अहा अस भागू । चाहै सोने मिला सोहागू ॥
सो नग देखि हींछा भइ मोरी । है यह रतन पदारथ जोरी ॥
है ससि जोग इहै पै भानु । तहाँ तुम्हार मैं कीन्ह बखानू ॥

कहाँ रतन रतनागर, कंचन कहाँ सुमेर ।
दैव जो जोरी दुहुँ लिखी मिलै सो कौनेहु फेर ॥3॥

(मनियार=रौनक,सोहावना, अंस=अवतार, रतनागर=
रत्नाकर,समुद्र)

सुनत बिरह-चिनगी ओहि परी । रतन पाव जौं कंचन-करी ॥
कठिन पेम विरहा दुख भारी । राज छाँड़ि भा जोगि भिखारी ॥
मालति लागि भौंर जस होइ । होइ बाउर निसरा बुधि खोई ॥
कहेसि पतंग होइ धनि लेऊँ । सिंघलदीप जाइ जिउ देऊँ ॥
पुनि ओहि कोउ न छाँड़ अकेला । सोरह सहस कुँवर भए चेला ॥
और गनै को संग सहाई?। महादेव मढ़ मेला जाई ॥
सूरुज पुरुष दरस के ताईं । चितवै चंद चकोर कै नाईं ॥

तुम्ह बारी रस जोग जेहि, कँवलहि जस अरघानि ।
तस सूरुज परगास कै, भौंर मिलाएउँ आनि ॥4॥

(चिनगी=चिनगारी, कंचन-करी=स्वर्ण कलिका, लागि=लिये,
निमित्त, मेला=पहुँचा, दरस के ताईं=दर्शन के लिये)

हीरामन जो कही यह बाता । सुनिकै रतन पदारथ राता ॥
जस सूरुज देखे होइ ओपा । तस भा बिरह कामदल कोपा ॥
सुनि कै जोगी केर बखानू । पदमावति मन भा अभिमानू ॥
कंचन करी न काँचहि लोभा । जौं नग होइ पाव तब सोभा ॥
कंचन जौं कसिए कै ताता । तब जानिय दहुँ पीत की राता ॥
नग कर मरम सो जड़िया जाना । जड़ै जो अस नग देखि बखाना ॥
को अब हाथ सिंघ मुख घालै । को यह बात पिता सौं चालै ॥

सरग इंद्र डरि काँपै, बासुकि डरै पतार ।
कहाँ सो अस बर प्रिथिमी मोहि जोग संसार ॥5॥

(राता=अनुरक्त हुआ, ओप=दमक, ताता=गरम, पीत
कि राता=पीला कि लाल,पीला सोना,मध्यम और लाल
चोखा माना जाता है)

तू रानी ससि कंचन-करा । वह नग रतन सूर निरमरा ॥
बिरह-बजागि बीच का कोई । आगि जो छुवै जाइ जरि सोई ॥
आगि बुझाइ परे जल गाढ़ै । वह न बुझाइ आपु ही बाढ़ै॥
बिरह के आगि सूर जरि काँपा । रातिहि दिवस जरै ओहि तापा ॥
खिनहिं सरग खिन जाइ पतारा । थिर न रहै एहि आगि अपारा ॥
धनि सो जीउ दगध इमि सहै । अकसर जरै, न दूसर कहै ॥
सुलगि भीतर होइ सावाँ । परगट होइ न कहै दुख नावाँ ॥

काह कहौं हौं ओहि सौं जेइ दुख कीन्ह निमेट ।
तेहि दिन आगि करै वह (बाहर) जेहि दिन होइ सो भेंट ॥6॥

(करा=कला, किरन, बजागि=वज्राग्नि, अकसर=अकेला,
सावाँ=श्याम, साँवला, काह कहौं हौं...निमेट=सूआ रानी
से पूछता है कि मैं उस राजा के पास जाकर क्या संदेसा
कहूँ जिसने न मिटने वाला दुःख उठाया है)

सुनि कै धनि, ` जारी अस कया' मन भा मयन, हिये भै मया ॥
देखौं जाइ जरै कस भानू । कंचन जरे अधिक होइ बानू ॥
अब जौं मरै वह पेम-बियोगी । हत्या मोहिं, जेहि कारन जोगी ॥
सुनि कै रतन पदारथ राता । हीरामन सौं कह यह बाता ॥
जौं वह जोग सँभारै छाला । पाइहिं भुगुति, देहुँ जयमाला ॥
आव बसंत कुसल जौं पावौं । पूजा मिस मंडप कहँ आवौं ॥
गुरु के बैन फूल हौं गाँथे । देखौं नैन, चढ़ावैं माथे ॥

कवँल-भवर तुम्ह बरना, मैं माना पुनि सोइ ।
चाँद सूर कहँ चाहिए, जौं रे सूर वह होइ ॥7॥

(बानू=वर्ण,रंगत, छाला=मृगचर्म पर, फूल हौं गाँथे=तुम्हारे
(गुरु के) कहने से उसके प्रेम की माला मैंने गूँथ ली)

हीरामन जो सुना रस-बाता । पावा पान भएउ मुख राता ॥
चला सुआ, रानी तब कहा । भा जो परावा कैसे रहा?॥
जो निति चलै सँवारे पाँखा । आजु जो रहा, काल्हि को राखा?॥
न जनौं आजु कहाँ दहुँ ऊआ । आएहु मिलै, चलेहु मिलि, सूआ ॥
मिलि कै बिछुरि मरन कै आना । कित आएहु जौं चलेहु निदाना? ॥
तनु रानी हौं रहतेउँ राँधा । कैसे रहौं बचन कर बाँधा ॥
ताकरि दिस्टि ऐसि तुम्ह सेवा । जैसे कुंज मन रहै परेवा ॥

बसै मीन जल धरती, अंबा बसै अकास ।
जौं पिरीत पै दुवौ महँ अंत होहिं एक पास ॥8॥

(पावा पान=बिदा होने का बीड़ा पाया, चलै=चलाने के लिए,
राँधा=पास,समीप, ताकरि=रतनसेन की, तुम्ह सेवा=तुम्हारी
सेवा में, अंबा=आम का फल, बसै मीन...पास=जब मछली
पकाई जाती है तब उसमें आम की खटाई पड़ जाती है;
इस प्रकार इस प्रकार आम और मछली का संयोग हो
जाता है । जिस प्रकार आम और मछली दोनों का प्रेम
एक जल के साथ होने से दोनों में प्रेम-संबंध होता है,
उसी प्रकार मेरा और रतनसेन का प्रेम तुम पर है इससे
जब दोनों विवाह के द्वारा एक साथ हो जायँगे तब मैं
भी वहीं रहूँगा, मारग=मार्ग में (लगे हुए), आदि=प्रेम
का मूल मंत्र)

आवा सुआ बैठ जहँ जोगी । मारग नैन, बियोग बियोगी ॥
आइ पेम-रस कहा सँदेसा । गोरख मिला, मिला उपदेसा ॥
तुम्ह कहँ गुरू मया बहु कीन्हा । कीन्ह अदेस, आदि कहि दीन्हा ॥
सबद, एक उन्ह कहा अकेला । गुरु जस भिंग, फनिग जस चेला ॥
भिंगी ओहि पाँखि पै लेई । एकहि बार छीनि जिउ देई ॥
ताकहु गुरु करै असि माया । नव औतार देइ, नव काया ॥
होई अमर जो मरि कै जीया । भौंर कवँल मिलि कै मधु पीया ॥

आवै ऋतु-बसंत जब तब मधुकर तब बासु ।
जोगी जोग जो इमि करै सिद्धि समापत तासु ॥9॥

(फनिग=फनगा,फतिंगा, समापत=पूर्ण)

20. बसंत-खंड

दैऊ देउ कै सो ऋतु गँवाई । सिरी-पंचमी पहुँची आई ॥
भएउ हुलास नवल ऋतु माहाँ । खिन न सोहाइ धूप औ छाहाँ ॥
पदमावति सब सखी हँकारी । जावत सिंघलदीप कै बारी ॥
आजु बसंत नवल ऋतुराजा । पंचमि होइ, जगत सब साजा ॥
नवल सिंगार बनस्पति कीन्हा । सीस परासहि सेंदुर दीन्हा ॥
बिगसि फूल फूले बहु बासा । भौंर आइ लुबुधे चहुँ पासा ॥
पियर-पात -दुख झरे निपाते । सुख पल्लव उपने होइ राते ॥

अवधि आइ सो पूजी जो हींछा मन कीन्ह ।
चलहु देवगढ़ गोहने, चहहुँ सो पूजा दीन्ह ॥1॥

(देउ देउ कै=किसी प्रकार से,आसरा देखते देखते, हँकारा=
बुलाया, बारी=कुमारियाँ, गोहने=साथ में,सेवा में)

फिरी आन ऋतु-बाजन बाजे । ओ सिंगार बारिन्ह सब साजे ॥
कवँल-कली पदमावति रानी । होइ मालति जानौं बिगसानी ॥
तारा-मँडल पहिरि भल चोला । भरे सीस सब नखत अमोला ॥
सखी कुमोद सहस दस संगा । सबै सुगंध चढ़ाए अंगा ॥
सब राजा रायन्ह कै बारी । बरन बरन पहिरे सब सारी ॥
सबै सुरूप, पदमिनी जाती । पान, फूल सेंदुर सब राती ॥
करहिं किलोल सुरंग-रँगीली । औ चोवा चंदन सब गीली ॥

चहुँ दिसि रही सो बासना फुलवारी अस फूलि ।
वै बसंत सौं भूलीं, गा बसंत उन्ह भूलि ॥2॥

(आन=राजा की आज्ञा,डौंडी, होइ मालति=श्वेत हास द्वारा
मालती के समान होकर, तारा-मंडल=एक वस्त्र का नाम,
चाँद तारा, कुमोद=कुमुदिनी)

भै आहा पदमावति चली छत्तिस कुरि भइँ गोहन भली ॥
भइँ गोरी सँग पहिरि पटोरा । बाम्हनि ठाँव सहस अँग मोरा ॥
अगरवारि गज गौन करेई । बैसिनि पावँ हंसगति देई ॥
चंदेलिनि ठमकहिं पगु धारा । चली चौहानि, होइ झनकारा ॥
चली सोनारि सोहाग सोहाती । औ कलवारि पेम-मधु-माती ॥
बानिनि चली सेंदुर दिए माँगा । कयथिनि चली समाइँ न आँगा ॥
पटइनि पहिरि सुरँग-तन चोला । औ बरइनि मुख खात तमोला ॥

चलीं पउनि सब गोहने फूल डार लेइ हाथ ।
बिस्वनाथ कै पूजा, पदमावति के साथ ॥3॥

(आहा=वाह वाह,धन्य धन्य, छत्तिस कुरि=क्षत्रियों के छत्तीसों
कुलों की, बौसिनि=बैस क्षत्रियों की स्त्रियाँ, बानिनि=बनियाइन,
पउनि=पानेवाली,आश्रित,पौनी,परजा, डार=डाला)

कवँल सहाय चलीं फुलवारी । फर फूलन सब करहिं धमारी ॥
आपु आपु महँ करहिं जोहारू । यह बसंत सब कर तिवहारू ॥
चहै मनोरा झूमक होई । फर औ फूल लिएउ सब कोई ॥
फागु खेलि पुनि दाहब होरी । सैंतब खेह, उड़ाउब झोरी ॥
आजु साज पुनि दिवस न दूजा । खेलि बसंत लेहु कै पूजा ॥
भा आयसु पदमावति केरा । बहुरि न आइ करब हम फेरा ॥
तस हम कहँ होइहि रखवारी । पुनि हम कहाँ, कहाँ यह बारी ॥

पुनि रे चलब घर आपने पूजि बिसेसर-देव ।
जेहि काहुहि होइ खेलना आजु खेलि हँसि लेव ॥4॥

(धमारि=होली की क्रीड़ा, जोहार=प्रणाम आदि, मनोरा
झूमक=एक प्रकार के गीत जिसे स्त्रियाँ झुँड बाँधकर
गाती हैं;इसके प्रत्येक पद में "मनोरा झूमक हो" यह
वाक्य आता है, सैंतब=समेट कर इकट्ठा करेंगी)

काहू गही आँब कै डारा । काहू जाँबु बिरह अति झारा ॥
कोइ नारँग कोइ झाड़ चिरौंजी । कोइ कटहर, बड़हर, कोइ न्यौजी ॥
कोइ दारिउँ कोइ दाख औ खीरी । कोइ सदाफर, तुरँज जँभीरी ॥
कोइ जायफर, लौंग, सुपारी । कोइ नरियर, कोइ गुवा, छोहारी ॥
कोइ बिजौंर, करौंदा-जूरी । कोइ अमिली, कोइ महुअ, खजूरी ॥
काहू हरफारेवरि कसौंदा । कोइ अँवरा, कोइ राय-करौंदा ॥
काहू गही केरा कै घौरी । काहू हाथ परी निंबकौरी ॥

काहू पाई णीयरे, कोउ गए किछु दूरि ।
काहू खेल भएउ बिष, काहू अमृत-मूरि ॥5॥

(जाँबु...झारा=जामुन जो विरह की ज्वाला से झुलसी सी
दिखाई देती है, न्योजी=चिलगोजा, खीरी=खिरनी, गुवा=
गुवाक,दक्खिनि सुपारी)

पुनि बीनहिं सब फूल सहेली । खोजहिं आस-पास सब बेली ॥
कोइ केवड़ा, कोइ चंप नेवारी । कोइ केतकि मालति फुलवारी ॥
कोइ सदबरग, कुंद, कोइ करना । कोइ चमेलि, नागेसर बरना ॥
कोइ मौलसिरि, पुहुप बकौरी । कोई रूपमंजरी गौरी ॥
कोइ सिंगारहार तेहि पाहाँ । कोइ सेवती, कदम के छाहाँ ॥
कोइ चंदन फूलहिं जनु फूली । कोइ अजान-बीरो तर भूली ॥

(कोइ) फूल पाव, कोइ पाती, जेहि के हाथ जो आँट ॥
(कोइ) हारचीर अरुझाना, जहाँ छुवै तहँ काँट ॥6॥

(कूजा=कुब्जक,सफेदजंगली गुलाब, गौरी=श्वेत मल्लिका,
अजानबीरो=एक बड़ा पेड़ जिसके संबंध में कहा जाता है
कि उसके नीचे जाने से आदमी को सुध-बुध भूल जाती है)

फर फूलन्ह सब डार ओढ़ाई । झुंड बाँधि कै पंचम गाई ॥
बाजहिं ढोल दुंदुभी भेरी । मादर, तूर, झाँझ चहु फेरी ॥
सिंगि संख, डफ बाजन बाजे । बंसी, महुअर सुरसँग साजे ॥
और कहिय जो बाजन भले । भाँति भाँति सब बाजत चले ॥
रथहिं चढ़ी सब रूप-सोहाई । लेइ बसंत मठ-मँडप सिधाई ॥
नवल बसंत; नवल सब बारी । सेंदुर बुक्का होइ धमारी ॥
खिनहिं चलहिं; खिन चाँचरि होई । नाच कूद भूला सब कोई ॥

सेंदुर-खेह उड़ा अस, गगन भएउ सब रात ।
राती सगरिउ धरती, राते बिरिछन्ह पात ॥7॥

(पंचम=पंचम स्वर में, मादर=मर्दल,एक प्रकार का मृदंग)

एहिं बिधि खेलति सिंघलरानी । महादेव-मढ़ जाइ तुलानी ॥
सकल देवता देखै लागे । दिस्टि पाप सब ततछन भागै ॥
एइ कबिलास इंद्र कै अछरी । की कहुँ तें आईं परमेसरी ॥
कोई कहै पदमिनी आईं । कोइ कहै ससि नखत तराईं ॥
कोई कहै फूली फुलवारी । फूल ऐसि देखहु सब बारी ॥
एक सुरूप औ सुंदर सारी । जानहु दिया सकल महि बारी ॥
मुरुछि परै जोई मुख जोहै । जानहु मिरिग दियारहि मोहै ॥

कोई परा भौंर होइ, बास लीन्ह जनु चाँप ।
कोइ पतंग भा दीपक, कोइ अधजर तन काँप ॥8॥

(जाइ तुलानी=जा पहुँची, दियारा=लुक जो गीले कछारों
में दिखाई पड़ता है;मृगतृष्णा, चाँप=चंपा,चंपे की महक
भौंरा नहीं सह सकता)

पदमावति गै देव-दुवारा । भीतर मँडप कीन्ह पैसारा ॥
देवहि संसै भा जिउ केरा । भागौं केहि दिसि मंडप घेरा ॥
एक जोहार कीन्ह औ दूजा । तिसरे आइ चढ़ाएसि पूजा ॥
फर फूलन्ह सब मँडप भरावा । चंदन अगर देव नहवावा ॥
लेइ सेंदुर आगे भै खरी । परसि देव पुनि पायन्ह परी ॥
`और सहेली सबै बियाहीं । मो कहँ देव! कतहुँ बर नाहीं ॥
हौं निरगुन जेइ कीन्ह न सेवा । गुनि निरगुनि दाता तुम देवा ॥

बर सौं जोग मोहि मेरवहु, कलस जाति हौं मानि ।
जेहि दिन हींछा पूजै बेगि चढ़ावहुँ आनि ॥9॥

(एक...दूजा=दो बार प्रणाम किया)

हींछि हींछि बिनवा जस जानी । पुनि कर जोरि ठाड़ि भइ रानी ॥
उतरु को देइ, देव मरि गएउ । सबत अकूत मँडप महँ भएउ ॥
काटि पवारा जैस परेवा । सोएव ईस, और को देवा ॥
भा बिनु जिउ नहिं आवत ओझा । बिष भइ पूरि, काल भा गोझा ॥
जो देखै जनु बिसहर-डसा । देखि चरित पदमावति हँसा ॥
भल हम आइ मनावा देवा । गा जनु सोइ, को मानै सेवा? ॥
कौ हींछा पूरै, दुख खोवा । जेहि मानै आए सोइ सोवा ॥

जेहि धरि सखी उठावहिं, सीस विकल नहिं डोल ।
धर कोइ जीव न जानौं, मुख रे बकत कुबोल ॥10॥

(हींछि=इच्छा करके, अकूत=परोक्ष,आकास-वाणी, ओझा=
उपाध्याय,पुजारी, पूरि=पूरी, गोझा=एक पकवान, पिराक,
खोवा=खोव, धर=शरीर)

ततखन एक सखी बिहँसानी । कौतुक आइ न देखहु रानी ॥
पुरुब द्वार मढ़ जोगी छाए । न जनौं कौन देस तें आए ॥
जनु उन्ह जोग तंत तन खेला । सिद्ध होइ निसरे सब चेला ॥
उन्ह महँ एक गुरू जो कहावा । जनु गुड़ देइ काहू बौरावा ॥
कुँवर बतीसौ लच्छन राता । दसएँ लछन कहै एक बाता ॥
जानौं आहि गोपिचंद जोगी । की सो आहि भरथरी वियोगी ॥
वै पिंगला गए कजरी-आरन । ए सिंघल आए केहि कारन?॥

यह मूरति, यह मुद्रा, हम न देख अवधूत ।
जानौं होहिं न जोगी कोइ राजा कर पूत ॥11॥

(तंत=तत्त्व, दसएँ लछन=योगियों के बत्तीस लक्षणों में
दसवाँ लक्षण `सत्य' है, पिंगला=पिंगला नाड़ी साधने के
लिये अथवा पिंगला नाम की अपनी रानी के कारण,
कजरी आरन=कदलीबन)

सुनि सो बात रानी रथ चढ़ी । कहँ अस जोगी देखौं मढ़ी ॥
लेइ सँग सखी कीन्ह तहँ फेरा । जोगिन्ह आइ अपछरन्ह घेरा ॥
नयन कचोर पेम-पद भरे । भइ सुदिस्टि जोगी सहुँ टरे ॥
जोगी दिस्टि दिस्टि सौं लीन्हा । नैन रोपि नैनहिं जिउ दीन्हा ॥
जेहि मद चढ़ा परा तेहि पाले । सुधि न रही ओहि एक पियाले ॥
परा माति गोरख कर चेला । जिउ तन छाँड़ि सरग कहँ खेला ॥
किंगरी गहे जो हुत बैरागी । मरतिहु बार उहै धुनि लागी ॥
जेहि धंधा जाकर मन लागै सपनेहु सूझ सो धंध ।
तेहि कारन तपसी तप साधहिं, करहिं पेम मन बंध ॥12॥

(कचोर=कटोरा, जोगी सहुँ=जोगी के सामने,जोगी की ओर,
नैन रोपि...दीन्हा=आँखों में ही पद्मावती के नेत्रों के मद को
लेकर बेसुध हो गया)

पदमावति जस सुना बखानू । सहस-करा देखेसि तस भानू ॥
मेलेसि चंदन मकु खिन जागा । अधिकौ सूत, सीर तन लागा ॥
तब चंदन आखर हिय लिखे । भीख लेइ तुइ जोग न सिखे ॥
घरी आइ तब गा तूँ सोई । कैसे भुगुति परापति होई?॥
अब जौं सूर अहौ ससि राता । आएउ चढ़ि सो गगन पुनि साता ॥
लिखि कै बात सखिन सौं कही । इहै ठाँव हौं बारति रही ॥
परगट होहुँ न होइ अस भंगू । जगत या कर होइ पतंगू ॥

जा सहुँ हौं चख हेरौं सोइ ठाँव जिउ देइ ।
एहि दुख कतहुँ न निसरौं, को हत्या असि लेइ?॥13॥

(मकु=कदाचित्, सूत=सोया, सीर=शीतल,ठंडा, आखर=
अक्षर, ठाँव=अवसर,मौका, बारति रही=बचाती रही, भगू=
रंग में भंग,उपद्रव)

कीन्ह पयान सबन्ह रथ हाँका । परबत छाँड़ि सिंगलगढ़ ताका ॥
बलि भए सबै देवता बली । हात्यारि हत्या लेइ चली ॥
को अस हितू मुए गह बाहीं । जौं पै जिउ अपने घट नाहीं ॥
जौ लहि जिउ आपन सब कोई । बिनु जिउ कोइ न आपन होई ॥
भाइ बंधु औ मीत पियारा । बिनु जिउ घरी न राखै पारा ॥
बिनु जिउ पिंड छार कर कूरा । छार मिलावै सौ हित पूरा ॥
तेहि जिउ बिनु अब मरि भा राजा । को उठि बैठि गरब सौं गाजा ॥

परी कथा भुइँ लोटे, कहाँ रे जिउ बलि भीउँ ।
को उठाइ बैठारै बाज पियारे जीव ॥14॥

(ताका=उस ओर बढ़ा, मरि भा=मर गया,मर चुका, बलि
भीउँ=बलि और भीम कहलाने वाला, बाज=बिना,बगैर,छोड़कर)

पदमावति सो मँदिर पईठी । हँसत सिंघासन जाइ बईठी ॥
निसि सूती सुनि कथा बिहारी । भा बिहान कह सखी हँकारी ॥
देव पूजि जस आइउँ काली । सपन एक निसि देखिउँ, आली ॥
जनु ससि उदय पुरुब दिसि लीन्हा । ओ रवि उदय पछिउँ दिसि कीन्हा ॥
पुनि चलि सूर चाँद पहँ आवा । चाँद सुरुज दुहुँ भएउ मेरावा ॥
दिन औ राति भए जनु एका । राम आइ रावन-गढ़ छेकाँ ॥
तस किछु कहा न जाइ निखेधा । अरजुन-बान राहु गा बेधा ॥

जानहु लंक सब लूटी, हनुवँ बिधंसी बारि ।
जागि उठिउँ अस देखत, सखि! कहु सपन बिचारि ॥15॥

(बिहार=बिहार या सैर की, मेरावा=मिलन, निखेधा=वह
ऐसी निषिद्ध या बुरी बात है, राहु=रोहू मछली, राहु गा
बेधा=मत्स्यबेध हुआ)

सखी सो बोली सपन-बिचारू । काल्हि जो गइहुँ देव के बारू ॥
पूजि मनाइहुँ बहुतै भाँती । परसन आइ भए तुम्ह राती ॥
सूरुज पुरुष चाँद तुम रानी । अस वर दैउ मेरावै आनी ॥
पच्छिउँ खंड कर राजा कोई । सो आवा बर तुम्ह कहँ होई ॥
किछु पुनि जूझ लागि तुम्ह रामा । रावन सौं होइहि सँगरामा ॥
चाँद सुरुज सौं होइ बियाहू । बारि बिधंसब बेधब राहू ॥
जस ऊषा कहँ अनिरुध मिला । मेटि न जाइ लिखा पुरबिला ॥

सुख सोहाग जो तुम्ह कहँ पान फूल रस भोग ।
आजु काल्हि भा चाहै, अस सपने क सँजोग ॥16॥

(जूझ ...रामा=हे बाला! तुम्हारे लिये राम कुछ लड़ेंगे
राम=रत्नसेन, रावण=गंधर्वसेन), बारि बिधंसब=संभोग
के समय श्रंगार के अस्तव्यस्त होने का संकेत,बगीचा,
पुरबिला=पूर्व जन्म का, संजोग=फल या व्यवस्था)

21. राजा-रत्नसेन-सती-खंड

कै बसंत पदमावति गई । राजहि तब बसंत सुधि भई ॥
जो जागा न बसंत न बारी । ना वह खेल, न खेलनहारी ॥
ना वह ओहि कर रूप सुहाई । गै हेराइ, पुनि दिस्टि न आई ॥
फूल झरे, सूखी फुलवारी । दीठि परी उकठी सब बारी ॥
केइ यह बसत बसंत उजारा?। गा सो चाँद, अथवा लेइ तारा॥
अब तेहि बिनु जग भा अँधकूपा । वह सुख छाँह, जरौं दुख-धूपा ॥
बिरह-दवा को जरत सिरावा?। को पीतम सौं करै मेरावा?॥

हिये देख तब चंदन खेवरा, मिलि कै लिखा बिछोव ।
हाथ मींजि सिर धुनि कै रोवै जो निचींत अस सोव ॥1॥

(उकठी=सूख कर ऐंठी हुई, अथवा=अस्त हुआ, खेवरा=
खौरा हुआ,चित्रित किया या लगाया हुआ)

जस बिछोह जल मीन दुहेला । जल हुँत काढ़ि अगिनि महँ मेला ॥
चंदन-आँक दाग हिय परे । बुझहिं न ते आखर परजरे ॥
जनु सर-आगि होइ हिय लागे । सब तन दागि सिंघ बन दागे ॥
जरहिं मिरिग बन-खँड तेहि ज्वाला । औ ते जरहिं बैठ तेहि छाला ॥
कित ते आँक लिखे जौं सोवा । मकु आँकन्ह तेइ करत बिछौवा ॥
जैस दुसंतहि साकुंतला । मधवानलहि काम-कंदला ॥
भा बिछोह जस नलहि दमावति । मैना मूँदि छपी पदमावति ॥

आइ बसंत जो छिप रहा होइ फूलन्ह के भेस ।
केहि बिधि पावौं भौंर होइ, कौन गुरू-उपदेस ॥2॥

(हुँत=से, परजरे=जलते रहे, सर-आगि=अग्निबाण,
सब...दागे=मानों उन्हीं अग्निबाणों से झुलसकर
सिंह के शरीर में दाग बन गए हैं और बन में
आग लगा करती है, कितते आँक...सोवा=जब
सोया था तब वे अंक क्यों लिखे गए;दूसरे पक्ष
में जब जीव अज्ञान-दशा में गर्भ में रहता है
तब भाग्य का लेख क्यों लिखा जाता है,
दमावति=दमयंती)

रोवै रतन-माल जनु चूरा । जहँ होइ ठाढ़, होइ तहँ कूरा ॥
कहाँ बसंत औ कोकिल-बैना । कहाँ कुसुम अति बेधा नैना ॥
कहाँ सो मूरति परी जो डीठी । काढ़ि लिहेसि जिउ हिये पईठी ॥
कहाँ सो देस दरस जेहि लाहा?। जौं सुबसंत करीलहि काहा?॥
पात-बिछोह रूख जो फूला । सो महुआ रोवै अस भुला ॥
टपकैं महुअ आँसु तस परहीं । होइ महुआ बसमत ज्यों झरहीं ॥
मोर बसंत सो पदमिनि बरी । जेहि बिनु भएउ बसंत उजारी ॥

पावा नवल बसंत पुनि बहु बहु आरति बहु चोप ।
ऐस न जाना अंत ही पात झरहिं, होइ कोप ॥3॥

(कहाँ सों देस....लाहा?=बसंत के दर्शन से लाभ
उठानेवाला अच्छा देश चाहिए, सो कहाँ है? करील
के वन में वसंत के जाने ही से क्या? आरति=
दुःख, चोप=चाह)

अरे मलिछ बिसवासी देवा । कित मैं आइ कीन्ह तोरि सेवा ॥
आपनि नाव चढ़ै जो देई । सो तौ पार उतारे खेई ॥
सुफल लागि पग टेकेउँ तोरा । सुआ क सेंबर तू भा मोरा ॥
पाहन चढ़ि जो चहै भा पारा । सो ऐसे बूड़ै मझ धारा ॥
पाहन सेवा कहाँ पसीजा?। जनम न ओद होइ जो भीजा ॥
बाउर सोइ जो पाहन पूजा । सकत को भार लेइ सिर दूजा?॥
काहे न जिय सोइ निरासा । मुए जियत मन जाकरि आसा ॥

सिंघ तरेंदा जेइ गहा पार भए तेहि साथ ।
ते पै बूड़े बाउरे भेंड़-पूंछि जिन्ह हाथ ॥4॥

(ओद=गीला,आर्द्र, तरेंदा=तैरनेवाला काठ बेड़ा)

देव कहा सुनु, बउरे राजा । देवहि अगुमन मारा गाजा ॥
जौं पहिलेहि अपने सिर परई । सो का काहुक धरहरि करई ॥
पदमावति राजा कै बारी । आइ सखिन्ह सह बदन उघारी ॥
जैस चाँद गोहने सब तारा । परेउँ भुलाइ देखि उजियारा ॥
चमकहिं दसन बीजु कै नाई । नैन-चक्र जमकात भवाँई ॥
हौं तेहि दीप पतंग होइ परा । जिउ जम काढ़ि सरग लेइ धरा ॥
बहुरि न जानौं दहुँ का भई । दहुँ कविलास कि कहुँ अपसई ॥

अब हौं मरौं निसाँसी, हिये न आवै साँस ।
रोगिया की को चालै, वेदहि जहाँ उपास?॥5॥

(गाजा=गाज,बज्र, धरहरि=धर-पकड़,बचाव, गोहने=साथ
या सेवा में, अपसई=गायब हो गई, निसाँसी=बेदम,
को चालै=कौन चलावै?)

आनहि दोस देहुँ का काहू । संगी कया, मया नहिं ताहू ॥
हता पियारा मीत बिछोई । साथ न लाग आपु गै सोई ॥
का मैं कीन्ह जो काया पोषी । दूषन मोहिं, आप निरदोषी ॥
फागु बसंत खेलि गई गोरी । मोहि तन लाइ बिरह कै होरी ॥
अब कस कहाँ छार सिर मेलौं?। छार जो होहुँ फाग तब खेलौं ॥
कित तप कीन्ह छाँड़ि कै राजू । गएउ अहार न भा सिध काजू ॥
पाएउ नहिं होइ जोगी जती । अब सर चढ़ौं जरौं जस सती ॥

आइ जो पीतम फिरि गा, मिला न आइ बसंत ।
अब तन होरी घालि कै, जारि करौं भसमंत ॥6॥

(हता=था,आया था, सर=चिता)

ककनू पंखि जैस सर साजा । तस सर साजि जरा चह राजा ॥
सकल देवता आइ तुलाने । दहुँ का होइ देव असथाने ॥
बिरह -अगिनि बज्रागि असूझा । जरै सूर न बुझाए बूझा ॥
तेहि के जरत जो उठै बजागी । तिनउँ लोक जरैं तेहि लागी ॥
अबहि कि घरी सो चिनगी छूटै । जरहिं पहार पहन सब फूटै ॥
देवता सबै भसम होइ जाहीं । छार समेटे पाउब नाहीं ॥
धरती सरग होइ सब ताता । है कोई एहि राख बिधाता ॥

मुहमद चिंनगी पेम कै, सुनि महि गगन डेराइ ।
धनि बिरही औ धनि हिया, तहँ अस अगिनि समाइ ॥7॥

(ककनू=एक पक्षी जिसके संबंध में प्रसिद्ध है कि आयु
पूरी होने पर वह घोंसले में बैठकर गाने लगता है जिससे
आग लग जाती है और वह जल जाता है)

हनुवँत बीर लंक जेइ जारी । परवत उहै अहा रखवारी ॥
बैठि तहाँ होइ लंका ताका । छठएँ मास देइ उठि हाँका ॥
तेहि कै आगि उहौ पुनि जरा ।लंका छाड़ि पलंका परा ॥
जाइ तहा वै कहा संदेसू । पारबती औ जहाँ महेसू ॥
जोगी आहि बियोगी कोई । तुम्हरे मँडप आगि तेइ बोई ॥
जरा लँगूर सु राता उहाँ । निकसि जो भागि भएउँ करमुहाँ ॥
तेहि बज्रागि जरै हौं लागा । बजरअंग जरतहि उठि भागा ॥

रावन लंका हौं दही, वह हौं दाहै आव ।
गए पहार सब औटि कै, को राखै गहि पाव?॥8॥

(पहन=पाषाण,पत्थर, पलंका=पलँग,चारपाई अथवा लंका
के भी आगे`पलंका' नामक कल्पित द्वीप)

22. पार्वती-महेश-खंड

ततखन पहुँचे आइ महेसू । बाहन बैल, कुस्टि कर भेसू ॥
काथरि कया हड़ावरि बाँधे । मुंड-माल औ हत्या काँधे ॥
सेसनाग जाके कँठमाला । तनु भभुति, हस्ती कर छाला ॥
पहुँची रुद्र-कवँल कै गटा । ससि माथे औ सुरसरि जटा ॥
चँवर घंट औ डँवरू हाथा । गौरा पारबती धनि साथा ॥
औ हनुवंत बीर सँग आवा । धरे भेस बादर जस छावा ॥
अवतहि कहेन्हि न लावहु आगी । तेहि कै सपथ जरहु जेहि लागी ॥

की तप करै न पारेहु, की रे नसाएहु जोग?।
जियत जीउ कस काढहु? कहहु सो मोहिं बियोग ॥1॥

(कुस्टि=कुष्टी,कोढ़ी, हडावरि=अस्ति की माला, हत्या=मृत्यु,
काल?, रुद्र-कँवल=रुद्राक्ष, गटा=गट्टा,गोल दाना)

कहेसि मोहिं बातन्ह बिलमावा । हत्या केरि न डर तोहि आवा ॥
जरै देहु, दुख जरौं अपारा । निस्तर पाइ जाउँ एक बारा ॥
जस भरथरी लागि पिंगला । मो कहँ पदमावति सिंघला ॥
मै पुनि तजा राज औ भोगू । सुनि सो नावँ लीन्ह तप जोगू ॥
एहि मढ़ सेएउँ आइ निरासा । गइ सो पूजि, मन पूजि न आसा ॥
मैं यह जिउ डाढे पर दाधा । आधा निकसि रहा, घट आधा ॥
जो अधजर सो विलँब न आवा । करत बिलंब बहुत दुख पावा!!

एतना बोल कहत मुख, उठी बिरह कै आगि ।
जौं महेस न बुझावत, जाति सकल जग लागि ॥2॥

(निस्तर=निस्तार,छुटकारा)

पारबती मन उपना चाऊ । देखों कुँवर केर सत भाऊ ॥
ओहि एहि बीच, की पेमहि पूजा । तन मन एक, कि मारग दूजा ॥
भइ सुरूप जानहुँ अपछरा । बिहँसि कुँवर कर आँचर धरा ॥
सुनहु कुँवर मोसौं एक बाता । जस मोहिं रंग न औरहि राता ॥
औ बिधि रूप दीन्ह है तोकों । उठा सो सबद जाइ सिव-लोका ॥
तब हौं तोपहँ इंद्र पठाई । गइ पदमिनि तैं अछरी पाई ॥
अब तजु जरन, मरन, तप जोगू । मोसौं मानु जनम भरि भोगू ॥

हौं अछरी कबिलास कै जेहि सरि पूज न कोइ ।
मोहि तजि सँवरि जो ओहि मरसि, कौन लाभ तेहि होइ?॥3॥

(ओहि एहि बीच....पूजा=उसमें (पद्मावती में ) और इसमें
कुछ अंतर रह गया है कि वह अंतर प्रेम से भर गया है
और दोनों अभिन्न हो गए हैं, राता=ललित,सुंदर, तोकाँ=
तुझको)

भलेहिं रंग अछरी तोर राता । मोहिं दूसरे सौं भाव न बाता ॥
मोहिं ओहि सँवरि मुए तस लाहा । नैन जो देखसि पूछसि काहा?॥
अबहिं ताहि जिउ देइ न पावा । तोहि असि अछरी ठाढ़ि मनावा ॥
जौं जिउ देइहौं ओहि कै आसा । न जानौं काह होइ कबिलासा ॥
हौं कबिलास काह लै करऊँ?। सोइ कबिलास लागि जेहि मरऊँ ॥
ओहि के बार जीउ नहिं बारौं । सिर उतारि नेवछावरि सारौं ॥
ताकरि चाह कहै जो आई । दोउ जगत तेहि देहुँ बड़ाई ॥

ओहि न मोरि किछु आसा, हौं ओहि आस करेउँ ।
तेहि निरास पीतम कहँ, जिउ न देउँ का देउँ? ॥4॥

(तस=ऐसा, कबिलास=स्वर्ग, बारौं=बचाऊँ, सारौं=करूँ,
चाह=खबर, निरास=जिसे किसी की आशा न हो;जो
किसी के आसरे का न हो)

गौरइ हँसि महेस सौं कहा । निहचै एहि बिरहानल दहा ॥
निहचै यह ओहि कारन तपा । परिमल पेम न आछे छपा ॥
निहचै पेम-पीर यह जागा । कसे कसौटी कंचन लागा ॥
बदन पियर जल डभकहिं नैना । परगट दुवौ पेम के बैना ॥
यह एहि जनम लागि ओहि सीझा । चहै न औरहि, ओही रीझा ॥
महादेव देवन्ह के पिता । तुम्हरी सरन राम रन जिता ॥
एहूँ कहँ तसमया केरहू । पुरवहु आस, कि हत्या लेहू ॥

हत्या दुइ के चढ़ाए काँधे बहु अपराध ।
तीसर यह लेउ माथे, जौ लेवै कै साध ॥5॥

(आछे=रहता है, कसे=कसने पर, लागा=प्रतीत हुआ,
डभकहिं=डबडबाते है,आर्द्र होते हैं, परगट...बैना=दोनों
(पीले मुख ओर गीले नेत्र) प्रेम के बचन या बात
प्रकट करते हैं, हत्या दुइ=दोनों कंधों पर एक एक)

सुनि कै महादेव कै भाखा । सिद्धि पुरुष राजै मन लाखा ॥
सिद्धहि अंग न बैठे माखी । सिद्ध पलक नहिं लावै आँखी ॥
सिद्धहि संग होइ नहिं छाया । सिद्धहि होइ भूख नहिं माया ॥
जेहि गज सिद्ध गोसाईं कीन्हा । परगट गुपुत रहै को चीन्हा?॥
बैल चढ़ा कुस्टी कर भेसू । गिरजापति सत आहि महेसू ॥
चीन्हे सोइ रहै जो खोजा । जस बिक्रम औ राजा भोजा ॥
जो ओहि तंत सत्त सौं हेरा । गएउ हेराइ जो ओहि भा मेरा ॥

बिनु गुरु पंथ न पाइय, भूलै सो जो मेट ।
जोगी सिद्ध होइ तब जब गोरख सौं भेंट ॥6॥

(लाखा=लखा,पहचाना, मेरा=मेल,भेंट, जो मेट=जो इस
सिद्धान्त को नहीं मानता)

ततखन रतनसेन गहबरा । रोउब छाँड़ि पाँव लेइ परा ॥
मातै पितै जनम कित पाला । जो अस फाँद पेम गिउ घाला?॥
धरती सरग मिले हुत दोऊ । केइ निनार कै दीन्ह बिछोऊ?॥
पदिक पदारथ कर-हुँत खोवा । टूटहि रतन, रतन तस रोवा ॥
गगन मेघ जस बरसै भला । पुहुमी पूरि सलिल बहि चला ॥
सायर टूट, सिखर गा पाटा । सूझ न बार पार कहुँ घाटा ॥
पौन पानि होइ होइ सब गिरई । पेम के फंद कोइ जनि परई ॥

तस रोवै जस जिउ जरै, गिरे रकत औ माँसु ।
रोवँ रोवँ सब रोवहिं सूत सूत भरि आँसु ॥7॥

(गहबरा=घबराया, घाला=डाला, पदिक=ताबीज,जंतर,
गा पाटा=(पानी से) पट गया)

रोवत बूड़ि उठा संसारू । महादेव तब भएउ मयारू ॥
कहेन्हि "नरोव, बहुत तैं रोवा । अब ईसर भा, दारिद खोवा ॥
जो दुख सहै होइ दुख ओकाँ । दुख बिनु सुख न जाइ सिवलोका ॥
अब तैं सिद्ध भएसि सिधि पाई । दरपन-कया छूटि गई काई ॥
कहौं बात अब हौं उपदेसी । लागु पंथ, भूले परदेसी ॥
जौं लगि चोर सेंधि नहि देई ।राजा केरि न मूसै पेई ॥
चढ़ें न जाइ बार ओहि खूँदी । परै त सेंधि सीस-बल मूँदी ॥

कहौं सो तोहि सिंहलगढ़, है खँड सात चढ़ाव ।
फिरा न कोई जियत जिउ सरग-पंथ देइ पाव ॥8॥

(मयारू=मया करनेवाला,दयार्द्र, ईसर=ऐश्वर्य, ओकाँ=उसको,
मूसै पेई=मूसने पाता है, चढ़ें न...खूँदी=कूदकर चढ़ने से उस
द्वार तक नहीं जा सकता)

गढ़ तस बाँक जैसि तोरि काया । पुरुष देखु ओही कै छाया ॥
पाइय नाहिं जूझ हठि कीन्हे । जेइ पावा तेइ आपुहि चीन्हे ॥
नौ पौरी तेहि गढ़ मझियारा । औ तहँ फिरहिं पाँच कोटवारा ॥
दसवँ दुआर गुपुत एक ताका । अगम चड़ाव, बाट सुठि बाँका ॥
भेदै जाइ सोइ वह घाटी । जो लहि भेद, चढ़ै होइ चाँटी ॥
गढ़ँ तर कुंड, सुरँग तेहि माहाँ । तहँ वह पंथ कहौं तोहि पाहाँ ॥
चोर बैठ जस सेंधि सँवारी । जुआ पैंत जस लाव जुआरी ॥

जस मरजिया समुद धँस, हाथ आव तब सीप ।
ढूँढि लेइ जो सरग-दुआरी चड़ै सो सिंघलदीप ॥9॥

(ताका=उसका, जो लहि ...चाँटी=जो गुरु से भेद पाकर
चींटी के समान धीरे धीरे योगियों के पिपीलिका मार्ग
से चढ़ता है, पैंत=दाँव)

दसवँ दुआर ताल कै लेखा । उलटि दिस्टि जो लाव सो देखा ॥
जाइ सो तहाँ साँस मन बंधी । जस धँसि लीन्ह कान्ह कालिंदी ॥
तू मन नाथु मारि कै साँसा । जो पै मरहि अबहिं करु नासा ॥
परगट लोकचार कहु बाता । गुपुत लाउ कन जासौं राता ॥
"हौं हौं" कहत सबै मति खोई । जौं तू नाहि आहि सब कोई ॥
जियतहि जूरे मरै एक बारा । पुनि का मीचु, को मारै पारा?॥
आपुहि गुरू सो आपुहि चेला । आपुहि सब औ आपु अकेला ॥

आपुहि मीच जियन पुनि, आपुहि तन मन सोइ ।
आपुहि आपु करै जो चाहै, कहाँ सो दूसर कोइ? ॥10॥

(ताल कै लेखा=ताड़ के समान (ऊँचा), लोकचार=
लोकाचार की, जुरै=जुट जाय)

  • पद्मावत भाग (3) मलिक मुहम्मद जायसी
  • पद्मावत भाग (1) मलिक मुहम्मद जायसी
  • मुख्य पृष्ठ : काव्य रचनाएँ : मलिक मुहम्मद जायसी
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