पद्मावत : मलिक मुहम्मद जायसी

Padmavat : Malik Muhammad Jayasi

1. स्तुति-खंड

सुमिरौं आदि एक करतारू । जेहि जिउ दीन्ह कीन्ह संसारू ॥
कीन्हेसि प्रथम जोति परकासू । कीन्हेसि तेहि पिरीत कैलासू ॥
कीन्हेसि अगिनि, पवन, जल खेहा । कीन्हेसि बहुतै रंग उरेहा ॥
कीन्हेसि धरती, सरग, पतारू । कीन्हेसि बरन बरन औतारू ॥
कीन्हेसि दिन, दिनअर, ससि, राती । कीन्हेसि नखत, तराइन-पाँती ॥
कीन्हेसि धूप, सीउ औ छाँहा । कीन्हेसि मेघ, बीजु तेहिं माँहा ॥
कीन्हेसि सप्त मही बरम्हंडा । कीन्हेसि भुवन चौदहो खंडा ॥

कीन्ह सबै अस जाकर दूसर छाज न काहि ।
पहिलै ताकर नावँ लै कथा करौं औगाहि ॥1॥

(उरेहा=चित्रकारी, सीउ=शीत, कीन्हेसि...कैलासू=उसी ज्योति
अर्थात् पैगंबर मुहम्मद की प्रीति के कारण स्वर्ग की सृष्टि की,
(कुरान की आयत) कैलास=बिहिश्त,स्वर्ग; इस शब्द का प्रयोग
जायसी ने बराबर इसी अर्थ में किया है)

कीन्हेसि सात समुन्द अपारा । कीन्हेसि मेरु, खिखिंद पहारा ॥
कीन्हेसि नदी नार, औ झरना । कीन्हेसि मगर मच्छ बहु बरना ॥
कीन्हेसि सीप, मोती जेहि भरे । कीन्हेसि बहुतै नग निरमरे ॥
कीन्हेसि बनखँड औ जरि मूरी । कीन्हेसि तरिवर तार खजूरी ॥
कीन्हेसि साउज आरन रहईं । कीन्हेसि पंखि उड़हिं जहँ चहईं ॥
कीन्हेसि बरन सेत ओ स्यामा । कीन्हेसि भूख नींद बिसरामा ॥
कीन्हेसि पान फूल बहु भौगू । कीन्हेसि बहु ओषद, बहु रोगू ॥

निमिख न लाग करत ओहि,सबै कीन्ह पल एक ।
गगन अंतरिख राखा बाज खंभ बिनु टेक ॥2॥

(खिखिंद=किष्किंधा, निरमरे=निर्मल, साउज=वे जानवर
जिनका शिकार किया जाता है, आरन=आरण्य, बाज=बिना,
जैसे दीन दुख दारिद दलै को कृपा बारिधि बाज)

कीन्हेसि अगर कसतुरी बेना । कीन्हेसि भीमसेन औ चीना ॥
कीन्हेसि नाग, जो मुख विष बसा । कीन्हेसि मंत्र, हरै जेहि डसा ॥
कीन्हेसि अमृत , जियै जो पाए । कीन्हेसि बिक्ख, मीचु जेहि खाए ॥
कीन्हेसि ऊख मीठ-रस-भरी । कीन्हेसि करू-बेल बहु फरी ॥
कीन्हेसि मधु लावै लै माखी । कीन्हेसि भौंर, पंखि औ पाँखी ॥
कीन्हेसि लोबा इंदुर चाँटी । कीन्हेसि बहुत रहहिं खनि माटी ॥
कीन्हेसि राकस भूत परेता । कीन्हेसि भोकस देव दएता ॥

कीन्हेसि सहस अठारह बरन बरन उपराजि ।
भुगुति दुहेसि पुनि सबन कहँ सकल साजना साजि ॥3॥

(बेना=खस, भीमसेन,चीना=कमूर के भेद, लीबा=लोमड़ी,
इंदुर=चूहा, चाँटी=चींटी, भौकस=दानव, सहस अठारह=
अठारह हजार प्रकार के जीव (इसलाम के अनुसार))

कीन्हेसि मानुष, दिहेसि बड़ाई । कीन्हेसि अन्न, भुगुति तेहिं पाई ॥
कीन्हेसि राजा भूँजहिं राजू । कीन्हेसि हस्ति घोर तेहि साजू ॥
कीन्हेसि दरब गरब जेहि होई । कीन्हेसि लोभ, अघाइ न कोई ॥
कीन्हेसि जियन , सदा सब चाहा । कीन्हेसि मीचु, न कोई रहा ॥
कीन्हेसि सुख औ कोटि अनंदू । कीन्हेसि दुख चिंता औ धंदू ॥
कीन्हेसि कोइ भिखारि, कोइ धनी । कीन्हेसि सँपति बिपति पुनि घनी ॥

कीन्हेसि कोई निभरोसी, कीन्हेसि कोइ बरियार ।
छारहिं तें सब कीन्हेसि, पुनि कीन्हेसि सब छार ॥4॥

(भूँजहिं=भोगते हैं, बरियार=बलवान)

धनपति उहै जेहिक संसारू । सबै देइ निति, घट न भँडारू ॥
जावत जगत हस्ति औ चाँटा । सब कहँ भुगुति राति दिन बाँटा ॥
ताकर दीठि जो सब उपराहीं । मित्र सत्रु कोइ बिसरै नाहीं ॥
पखि पतंग न बिसरे कोई । परगट गुपुत जहाँ लगि होई ॥
भोग भुगुति बहु भाँति उपाई । सबै खवाई, आप नहिं खाई ॥
ताकर उहै जो खाना पियना । सब कहँ देइ भुगुति ओ जियना ॥
सबै आस-हर ताकर आसा । वह न काहु के आस निरासा ॥

जुग जुग देत घटा नहिं, उभै हाथ अस कीन्ह ।
और जो दीन्ह जगत महँ सो सब ताकर दीन्ह ॥5॥

(उपाई=उत्पन्न की, आस हर=निराश)

आदि एक बरनौं सोइ राजा । आदि न अंत राज जेहि छाजा ॥
सदा सरबदा राज करेई । औ जेहि चहै राज तेहि देई ॥
छत्रहिं अछत, निछत्रहिं छावा । दूसर नाहिं जो सरवरि पावा ॥
परबत ढाह देख सब लोगू । चाँटहि करै हस्ति-सरि-जोगू ॥
बज्रांह तिनकहिं मारि उड़ाई । तिनहि बज्र करि देई बड़ाई ॥
ताकर कीन्ह न जानै कोई । करै सोइ जो चित्त न होई ॥
काहू भोग भुगुति सुख सारा । काहू बहुत भूख दुख मारा ॥

सबै नास्ति वह अहथिर, ऐस साज जेहि केर ।
एक साजे औ भाँजै , चहै सँवारै फेर ॥6॥

(भाँजै=भंजन करता है,नष्ट करता है)

अलख अरूप अबरन सो कर्ता । वह सब सों, सब ओहि सों बर्ता ॥
परगट गुपुत सो सरबबिआपी । धरमी चीन्ह, न चीन्है पापी ॥
ना ओहि पूत न पिता न माता । ना ओहि कुटुब न कोई सँग नाता ॥
जना न काहु, न कोइ ओहि जना । जहँ लगि सब ताकर सिरजना ॥
वै सब कीन्ह जहाँ लगि कोई । वह नहिं कीन्ह काहु कर होई ॥
हुत पहिले अरु अब है सोई । पुनि सो रहै रहै नहिं कोई ॥
और जो होइ सो बाउर अंधा । दिन दुइ चारि मरै करि धंधा ॥

जो चाहा सो कीन्हेसि, करै जो चाहै कीन्ह ।
बरजनहार न कोई, सबै चाहि जिउ दीन्ह ॥7॥

(सिरजना=रचना)

एहि विधि चीन्हहु करहु गियानू । जस पुरान महँ लिखा बखानू ॥
जीउ नाहिं, पै जियै गुसाईं । कर नाहीं, पै करै सबाईं ॥
जीभ नाहिं, पै सब किछु बोला । तन नाहीं, सब ठाहर डोला ॥
स्रवन नाहिं, पै सक किछु सुना । हिया नाहिं पै सब किछु गुना ॥
नयन नाहिं, पै सब किछु देखा । कौन भाँति अस जाइ बिसेखा ॥
है नाहीं कोइ ताकर रूपा । ना ओहि सन कोइ आहि अनूपा ॥
ना ओहि ठाउँ, न ओहि बिनु ठाऊँ । रूप रेख बिनु निरमल नाऊ ॥

ना वह मिला न बेहरा, ऐस रहा भरिपूरि ।
दीठिवंत कहँ नीयरे, अंध मूरुखहिं दूरि ॥8॥

(बेहरा=अलग, बिहरना=फटना)

और जो दीन्हेसि रतन अमोला । ताकर मरम न जानै भोला ॥
दीन्हेसि रसना और रस भोगू । दीन्हेसि दसन जो बिहँसै जोगू ॥
दीन्हेसि जग देखन कहँ नैना । दीन्हेसि स्रवन सुनै कहँ बैना ॥
दीन्हेसि कंठ बोल जेहि माहाँ । दीन्हेसि कर-पल्लौ, बर बाहाँ ॥
दीन्हेसि चरन अनूप चलाहीं । सो जानइ जेहि दीन्हेसि नाहीं ॥
जोबन मरम जान पै बूढ़ा । मिला न तरुनापा जग ढूँढ़ा ॥
दुख कर मरम न जानै राजा । दुखी जान जा पर दुख बाजा ॥

काया-मरम जान पै रोगी, भोगी रहै निचिंत ।
सब कर मरम गोसाईं (जान) जो घट घट रहै निंत ॥9॥

अति अपार करता कर करना । बरनि न कोई पावै बरना ॥
सात सरग जौ कागद करई । धरती समुद दुहुँ मसि भरई ॥
जावत जग साखा बनढाखा । जावत केस रोंव पँखि -पाखा ॥
जावत खेह रेह दुनियाई । मेघबूँद औ गगन तराई ॥
सब लिखनी कै लिखु संसारा । लिखि न जाइ गति-समुद अपारा ॥
ऐस कीन्ह सब गुन परगटा । अबहुँ समुद महँ बूँद न घटा ॥
ऐस जानि मन गरब न होई । गरब करे मन बाउर सोई ॥

बड़ गुनवंत गोसाईं, चहै सँवारै बेग ।
औ अस गुनी सँवारे, जो गुन करै अनेग ॥10॥

कीन्हेसि पुरुष एक निरमरा । नाम मुहम्मद पूनौ-करा ॥
प्रथम जोति बिधि ताकर साजी । औ तेहि प्रीति सिहिट उपराजी ॥
दीपक लेसि जगत कहँ दीन्हा । भा निरमल जग, मारग चीन्हा ॥
जौ न होत अस पुरुष उजारा । सूझि न परत पंथ अँधियारा ॥
दुसरे ढाँवँ दैव वै लिखे । भए धरमी जे पाढ़त सिखे ॥
जेहि नहिं लीन्ह जनम भरि नाऊँ । ता कहँ कीन्ह नरक महँ ठाउँ ॥
जगत बसीठ दई ओहिं कीन्हा । दुइ जग तरा नावँ जेहि लीन्हा ॥

गुन अवगुन बिधि पूछब, होइहिं लेख औ जोख ।
वह बिनउब आगे होइ, करब जगत कर मोख ॥11॥

(पूनौ करा=पूर्निमा की कला, प्रथम....उपराजी=कुरान
में लिखा है कि यह संसार मुहम्मद के लिये रचा गया,
मुहम्मद न होते तो यह दुनिया न होती, जगत-बसीठ=
संसार में ईश्वर का संदेसा लानेवाला,पैगंबर, लेख जोख=
कर्मों का हिसाब, दुसरे ठाँव....वै लिखे=ईश्वर ने मुहम्मद
को दूसरे स्थान पर लिखा अर्थात् अपने से दूसरा दरजा
दिया, पाढ़त=पढ़ंत,मंत्र,आयत)

चारि मीत जो मुहमद ठाऊँ । जिन्हहिं दीन्ह जग निरमल नाऊँ ॥
अबाबकर सिद्दीक सयाने । पहिले सिदिक दीन वइ आने ॥
पुनि सो उमर खिताब सुहाए । भा जग अदल दीन जो आए ॥
पुनि उसमान पंडित बड़ गुनी । लिखा पुरान जो आयत सुनी ॥
चौथे अली सिंह बरियारू । सौंहँ न कोऊ रहा जुझारू ॥
चारिउ एक मतै, एक बाना । एक पंथ औ एक सँधाना ॥
बचन एक जो सुना वइ साँचा । भा परवान दुहुँ जग बाँचा ॥

जो पुरान बिधि पठवा सोई पढ़त गरंथ ।
और जो भूले आवत सो सुनि लागे पंथ ॥12॥

(सिदिक=सच्चा, दीन=धर्म,मत, बाना=रीति,
संधान=खोज,उद्देश्य,लक्ष्य)

सेरसाहि देहली-सुलतान । चारिउ खंड तपै जस भानू ॥
ओही छाज छात औ पाटा । सब राजै भुइँ धरा लिलाटा ॥
जाति सूर औ खाँडे सूरा । और बुधिवंत सबै गुन पूरा ॥
सूर नवाए नवखँड वई । सातउ दीप दुनी सब नई ॥
तह लगि राज खड़ग करि लीन्हा । इसकंदर जुलकरन जो कीन्हा ॥
हाथ सुलेमाँ केरि अँगूठी । जग कहँ दान दीन्ह भरि मूठी ॥
औ अति गरू भूमिपति भारी । टेक भूमि सब सिहिट सँभारी ॥

दीन्ह असीस मुहम्मद, करहु जुगहि जुग राज ।
बादसाह तुम जगत के जग तुम्हार मुहताज ॥13॥

(छात=छत्र, पाट=सिंहासन, सूर=शेरशाह सूर जाति का
पठान था, जुलकरन=जुलकरनैन,सिकंदर की एक अरबी
उपाधि, काँदौ=कर्दम,कीचड़)

बरनौं सूर भूमिपति राजा । भूमि न भार सहै जेहि साजा ॥
हय गय सेन चलै जग पूरी । परबत टूटि उड़हिं होइ धूरी ॥
रेनु रैनि होइ रबिहिं गरासा । मानुख पंखि लेहिं फिरि बासा ॥
भुइँ उड़ि अंतरिक्ख मृतमंडा । खंड खंड धरती बरम्हंडा ॥
डोलै गगन, इंद्र डरि काँपा । बासुकि जाइ पतारहि चाँपा ॥
मेरु धसमसै, समुद सुखाई । बन खँड टूटि खेह मिल जाई ॥
अगिलिहिं कहँ पानी लेइ बाँटा । पछिलहिं कहँ नहिं काँदौं आटा ॥

जो गढ़ नएउ न काहुहि चलत होइ सो चूर ।
जब वह चढ़ै भूमिपति सेर साहि जग सूर ॥14॥

अदल कहौं पुहुमी जस होई । चाँटा चलत न दुखवै कोई ॥
नौसेरवाँ जो आदिल कहा । साहि अदल-सरि सोउ न अहा ॥
अदल जो कीन्ह उमर कै नाई । भइ अहा सगरी दुनियाई ॥
परी नाथ कोइ छुवै न पारा । मारग मानुष सोन उछारा ॥
गऊ सिंह रेंगहि एक बाटा । दूनौ पानि पियहिं एक घाटा ॥
नीर खीर छानै दरबारा । दूध पानि सब करै निनारा ॥
धरम नियाव चलै; सत भाखा । दूबर बली एक सम राखा ॥

सब पृथवी सीसहिं नई जोरि जोरि कै हाथ ।
गंग-जमुन जौ लगि जल तौ लगि अम्मर नाथ ॥15॥

(अहा=था, भई अहा=वाह वाह हुई, नाथ=नाक में पहनने
की नथ, पारा=सकता है, निनारा=अलग 2)

पुनि रूपवंत बखानौं काहा । जावत जगत सबै मुख चाहा ॥
ससि चौदसि जो दई सँवारा । ताहू चाहि रूप उँजियारा ॥
पाप जाइ जो दरसन दीसा । जग जुहार कै देत असीसा ॥
जैस भानु जग ऊपर तपा । सबै रूप ओहि आगे छपा ॥
अस भा सूर पुरुष निरमरा । सूर चाहि दस आगर करा ॥
सौंह दीठि कै हेरि न जाई । जेहि देखा सो रहा सिर नाई ॥
रूप सवाई दिन दिन चढ़ा ।बिधि सुरूप जग ऊपर गढ़ा ॥

रूपवंत मनि माथे, चंद्र घाटि वह बाढ़ि ।
मेदिनि दरस लोभानी असतुति बिनवै ठाढ़ि ॥16॥

(मुख चाहा=मुँह देखता है, आगर=अग्र,बढ़कर, चाहि=
अपेक्षाकृत (बढ़कर), करा=कला, ससि चौदसि=पूर्णिमा
(मुसलमान प्रथम चंद्रदर्शन अर्थात द्वितीया से तिथि
गिनते हैं, इससे पूर्णिमा को उन की चौदहवीं तिथि
पड़ती है)

पुनि दातार दई जग कीन्हा । अस जग दान न काहू दीन्हा ॥
बलि विक्रम दानी बड़ कहे । हातिम करन तियागी अहे ॥
सेरसाहि सरि पूज न कोऊ । समुद सुमेर भँडारी दोऊ ॥
दान डाँक बाजै दरबारा । कीरति गई समुंदर पारा ॥
कंचन परसि सूर जग भयऊ । दारिद भागि दिसंतर गयऊ ॥
जो कोइ जाइ एक बेर माँगा । जनम न भा पुनि भूखा नागा ॥
दस असमेध जगत जेइ कीन्हा । दान-पुन्य-सरि सौंह न दीन्हा ॥

ऐस दानि जग उपजा सेरसाहि सुलतान ।
ना अस भयउ न होइहि, ना कोइ देइ अस दान ॥17॥

(डाँक=डंका, सौंह न दीन्हा=सामना न किया)

सैयद असरफ पीर पियारा । जेहि मोंहि पंथ दीन्ह उँजियारा ॥
लेसा हियें प्रेम कर दीया । उठी जोति भा निरमल हीया ॥
मारग हुत अँधियार जो सूझा । भा अँजोर, सब जाना बूझा ॥
खार समुद्र पाप मोर मेला । बोहित -धरम लीन्ह कै चेला ॥
उन्ह मोर कर बूड़त कै गहा । पायों तीर घाट जो अहा ॥
जाकहँ ऐस होइ कंधारा । तुरत बेगि सो पावै पारा ॥
दस्तगीर गाढ़े कै साथी । बह अवगाह, दीन्ह तेहि हाथी ॥

जहाँगीर वै चिस्ती निहकलंक जस चाँद ।
वै मखदूम जगत के, हौं ओहि घर कै बाँद ॥18॥

(लेसा=जलाया, कंधार=कर्णधार,केवट, हाथी दीन्ह=हाथ
दिया,बाँह का सहारा दिया, अँजोर=उजाला, खिखिंद=
किष्किंध पर्वत)

ओहि घर रतन एक निरमरा । हाजी शेख सबै गुन भरा ॥
तेहि घर दुइ दीपक उजियारे । पंथ देइ कहँ दैव सँवारे ॥
सेख मुहम्मद पून्यो-करा । सेख कमाल जगत निरमरा ॥
दुऔ अचल धुव डोलहि नाहीं । मेरु खिखिद तिन्हहुँ उपराहीं ॥
दीन्ह रूप औ जोति गोसाईं । कीन्ह खंभ दुइ जग के ताईं ॥
दुहुँ खंभ टेके सब महीं । दुहुँ के भार सिहिट थिर रही ॥
जेहि दरसे औ परसे पाया । पाप हरा, निरमल भइ काया ॥

मुहमद तेइ निचिंत पथ जेहि सग मुरसिद पीर ।
जेहिके नाव औ खेवक बेगि लागि सो तीर ॥19॥

(खेवक=खेनेवाला,मल्लाह)

गुरु मोहदी खेवक मै सेवा । चलै उताइल जेहिं कर खेवा ॥
अगुवा भयउ सेख बुरहानू । पंथ लाइ मोहि दीन्ह गियानू ॥
अहलदाद भल तेहि कर गुरू । दीन दुनी रोसन सुरखुरू ॥
सैयद मुहमद कै वै चेला । सिद्द-पुरुष-संगम जेहि खेला ॥
दानियाल गुरु पंथ लखाए । हजरत ख्वाज खिजिर तेहि पाए ॥
भए प्रसन्न ओहि हजरत ख्वाजे । लिये मेरइ जहँ सैयद राजे ॥
ओहि सेवत मैं पाई करनी । उघरी जीभ, प्रेम कवि बरनी ॥

वै सुगुरू, हौं चेला , नित बिनवौं भा चेर ।
उन्ह हुत देखै पायउँ दरस गोसाईं केर ॥20॥

(खेवा=नाव का बोझ, सुरखुरू=सुर्खरू,मुख पर तेज धारण
करनेवाले, उताइल=जल्दी, मेरइ लिये=मिला लिया, सैयद राजे=
सैयद राजे हामिदशाह, उन्ह हुत=उनके द्वारा)

एक नयन कबि मुहमद गुनी । सोइ बिमोहा जेहि कबि सुनी ॥
चाँद जैस जग विधि औतारा । दीन्ह कलंक, कीन्ह उजियारा ॥
जग सूझा एकै नयनाहाँ । उआ सूक जस नखतन्ह माहाँ ॥
जौ लहि अंबहिं डाभ न होई । तौ लहि सुगँध बसाइ न सोई ॥
कीन्ह समुद्र पानि जो खारा । तौ अति भयउ असूझ अपारा ॥
जौ सुमेरु तिरसूल बिनासा । भा कंचन-गिरि, लाग अकासा ॥
जौ लहि घरी कलंक न परा । काँच होइ नहिं कंचन-करा ॥

एक नयन जस दरपन औ निरमल तेहि भाउ ।
सब रूपवंतइ पाउँ गहि मुख जोहहिं कै चाउ ॥21॥

(नयनाहाँ=नयन से,आँख से, डाभ=आम के फल के मुँह
पर का तीखा चेप,चोपी)

चारि मीन कबि मुहमद पाए । जोरि मिताई सिर पहुँचाए ॥
युसूफ मलिक पँडित बहु ज्ञानी । पहिले भेद-बात वै जानी ॥
पुनि सलार कादिम मतिमाहाँ । खाँडे-दान उभै निति बाहाँ ॥
मियाँ सलौने सिंघ बरियारू । बीर खेतरन खड़ग जुझारू ॥
सेख बड़े, बड़ सिद्ध बखाना । किए आदेस सिद्ध बड़ माना ।
चारिउ चतुरदसा गुन पढ़े । औ संजोग गोसाईं गढ़े ॥
बिरिछ होइ जौ चंदन पासा । चंदन होइ बेधि तेहि बासा ॥

मुहमद चारिउ मीत मिलि भए जो एकै चित्त ।
एहि जग साथ जो निबहा, ओहि जग बिछुरन कित्त?॥22॥

(मतिमाहाँ=मतिमान्, उभै=उठती है, जुझारू=योद्धा,
चतुरदसा गुन=चौदह विद्याएँ)

जायस नगर धरम अस्थानू । तहाँ आइ कबि कीन्ह बखानू ॥
औ बिनती पँडितन सन भजा । टूट सँवारहु, नेरवहु सजा ॥
हौं पंडितन केर पछलागा । किछु कहि चला तबल देइ डगा ॥
हिय भंडार नग अहै जो पूजी । खोली जीभ तारू कै कूँजी ॥
रतन-पदारथ बोल जो बोला । सुरस प्रेम मधु भरा अमोला ॥
जेहि के बोल बिरह कै घाया । कह तेहि भूख कहाँ तेहि माया?॥
फेरे भेख रहै भा तपा । धूरि-लपेटा मानिक छपा ॥

मुहमद कबि जौ बिरह भा ना तन रकत न माँसु ।
जेइ मुख देखा तेइ हसा, सुनि तेहि आयउ आँसु ॥23॥

(बिनती भजा=बिनती की, टूट=त्रुटि,भूल, डगा=डुग्गी बजाने
की लकड़ी, तारु=(क) तालू (ख) ताला कूँजी=कुँजी, फेरे भेष=वेष
बदलते हुए, तपा=तपस्वी)

सन नव सै सत्ताइस अहा । कथा अरंभ-बैन कबि कहा ॥
सिंघलदीप पदमिनी रानी । रतनसेन चितउर गढ़ आनी ॥
अलउद्दीन देहली सुलतानू । राघौ चेतन कीन्ह बखानू ॥
सुना साहि गढ़ छेंका आई । हिंदू तुरुकन्ह भई लराई ॥
आदि अंत जस गाथा अहै । लिखि भाखा चौपाई कहै ॥
कवि बियास कवला रस-पूरी । दूरि सो नियर, नियर सो दूरी ॥
नियरे दूर, फूल जस काँटा । दूरि जो नियरे, जस गुड़ चाँटा ॥

भँवर आइ बनखँड सन कँवल कै बास ।
दादुर बास न पावई भलहि जो आछै पास ॥24॥

(आछै=है,जैसे-कह कबीर कछु अछिलो न जहिया)

2. सिंहलद्वीप वर्णन-खंड

सिंघलदीप कथा अब गावौं । औ सो पदमिनी बरनि सुनावौं ॥
निरमल दरपन भाँति बिसेखा । जौ जेहि रूप सो तैसई देखा ॥
धनि सो दीप जहँ दीपक-बारी । औ पदमिनि जो दई सँवारी ॥
सात दीप बरनै सब लोगू । एकौ दीप न ओहि सरि जोगू ॥
दियादीप नहिं तस उँजियारा । सरनदीप सर होइ न पारा ॥
जंबूदीप कहौं तस नाहीं । लंकदीप सरि पूज न छाहीं ॥
दीप गभस्थल आरन परा । दीप महुस्थल मानुस-हरा ॥

सब संसार परथमैं आए सातौं दीप ।
एक दीप नहिं उत्तिम सिंघलदीप समीप ॥1॥

(बारी=बाला,स्त्री, सरनदीप-अरबवाले लंका को सरनदीप
कहते थे, हरा=शून्य)

ग्रंध्रबसेन सुगंध नरेसू । सो राजा, वह ताकर देसू ॥
लंका सुना जो रावन राजू । तेहु चाहि बड़ ताकर साजू ॥
छप्पन कोटि कटक दल साजा । सबै छत्रपति औ गढ़ -राजा ॥
सोरह सहस घोड़ घोड़सारा । स्यामकरन अरु बाँक तुखारा ॥
सात सहस हस्ती सिंघली । जनु कबिलास एरावत बली ॥
अस्वपतिक-सिरमोर कहावै । गजपतीक आँकुस-गज नावै ॥
नरपतीक कहँ और नरिंदू?। भूपतीक जग दूसर इंदू ॥

ऐस चक्कवै राजा चहूँ खंड भय होइ ।
सबै आइ सिर नावहिं सरबरि करै न कोइ ॥2॥

(तुखार=तुषार देश का घोड़ा, इंदू=इंद्र, चाहि=अपेक्षा
(बढ़कर) बनिस्बत, कविलास=स्वर्ग)

जबहि दीप नियरावा जाई । जनु कबिलास नियर भा आई ॥
घन अमराउ लाग चहुँ पासा । उठा भूमि हुत लागि अकासा ॥
तरिवर सबै मलयगिरि लाई । भइ जग छाँह रैनि होइ आई ॥
मलय-समीर सोहावन छाहाँ । जेठ जाड़ लागै तेहि माहाँ ॥
ओही छाँह रैनि होइ आवै । हरियर सबै अकास देखावै ॥
पथिक जो पहुँचै सहि कै घामू । दुख बिसरै, सुख होइ बिसरामू ॥
जेइ वह पाई छाँह अनूपा । फिरि नहिं आइ सहै यह धूपा ॥

अस अमराउ सघन घन, बरनि न पारौं अंत ।
फूलै फरै छवौ ऋतु , जानहु सदा बसंत ॥3॥

(भूमि हुत=पृथ्वी से (लेकर), लागि=तक)

फरै आँब अति सघन सोहाए । औ जस फरे अधिक सिर नाए ॥
कटहर डार पींड सन पाके । बड़हर, सो अनूप अति ताके ॥
खिरनी पाकि खाँड अस मीठी । जामुन पाकि भँवर अति डीठी ॥
नरियर फरे फरी फरहरी । फुरै जानु इंद्रासन पुरी ॥
पुनि महुआ चुअ अधिक मिठासू । मधु जस मीठ, पुहुप जस बासू ॥
और खजहजा अनबन नाऊँ । देखा सब राउन-अमराऊ ॥
लाग सबै जस अमृत साखा । रहै लोभाइ सोइ जो चाखा ॥

लवग सुपारी जायफल सब फर फरे अपूर ।
आसपास घन इमिली औ घन तार खजूर ॥4॥

(पींड=जड के पास की पेडी, फुरै=सचमुच, खजहजा=खाने
के फल, अनबन=भिन्न भिन्न)

बसहिं पंखि बोलहिं बहु भाखा । करहिं हुलास देखि कै साखा ॥
भोर होत बोलहिं चुहुचूही । बोलहिं पाँडुक "एकै तूही"" ॥
सारौं सुआ जो रहचह करही । कुरहिं परेवा औ करबरहीं ॥
"पीव पीव"कर लाग पपीहा । "तुही तुही" कर गडुरी जीहा ॥
`कुहू कुहू' करि कोइल राखा । औ भिंगराज बोल बहु भाखा ॥
`दही दही' करि महरि पुकारा । हारिल बिनवै आपन हारा ॥
कुहुकहिं मोर सोहावन लागा । होइ कुराहर बोलहि कागा ॥

जावत पंखी जगत के भरि बैठे अमराउँ ।
आपनि आपनि भाषा लेहिं दई कर नाउँ ॥5॥

(चुहचूही=एक छोटी चिड़िया जिसे फूल सुँघनी भी कहते हैं,
सारौं=सारिका,मैना, महरि=महोख से मिलती जुलती एक छोटी
चिड़िया जिसे ग्वालिन और अहीरिन भी कहते हैं, हारा=हाल,
अथवा लाचारी,दीनता)

पैग पैग पर कुआँ बावरी । साजी बैठक और पाँवरी ॥
और कुंड बहु ठावहिं ठाऊँ। औ सब तीरथ तिन्ह के नाऊँ ॥
मठ मंडप चहुँ पास सँवारे । तपा जपा सब आसन मारे ॥
कोइ सु ऋषीसुर, कोइ सन्यासी । कोई रामजती बिसवासी ॥
कोई ब्रह्मचार पथ लागे । कोइ सो दिगंबर बिचरहिं नाँगे ॥
कोई सु महेसुर जंगम जती । कोइ एक परखै देबी सती ॥
कोई सुरसती कोई जोगी । निरास पथ बैठ बियोगी ॥

सेवरा, खेवरा, बानपर, सिध, साधक, अवधूत ।
आसन मारे बैट सब जारि आतमा भूत ॥6॥

(पैग पैग पर=कदम कदम पर, पाँवरी=सीढ़ी, ब्रह्मचार=
ब्रह्मचर्य, सुरसती=सरस्वती (दसनामियों में ), खेवरा=
सेवड़ों का एक भेद)

मानसरोदक बरनौं काहा । भरा समुद अस अति अवगाहा ॥
पानि मोती अस निरमल तासू । अमृत आनि कपूर सुबासू ॥
लंकदीप कै सिला अनाई । बाँधा सरवर घाट बनाई ॥
खँड खँड सीढ़ी भईं गरेरी । उतरहिं चढ़हिं लोग चहुँ फेरी ॥
फूला कँवल रहा होइ राता । सहस सहस पखुरिन कर छाता ॥
उलथहिं सीफ , मोति उतराहीं । चुगहिं हंस औ केलि कराहीं ॥
खनि पतार पानी तहँ काढ़ा । छीरसमुद निकसा हुत बाढ़ा ॥

ऊपर पाल चहूँ दिसि अमृत-फल सब रूख ।
देखि रूप सरवर कै गै पियास औ भूख ॥7॥

(भईं=घूमी हैं, गरेरी=चक्करदार, पाल=ऊँचा बाँध या
किनारा,भीटा)

पानि भरै आवहिं पनिहारी । रूप सुरूप पदमिनी नारी ॥
पदुमगंध तिन्ह अंग बसाहीं । भँवर लागि तिन्ह सँग फिराहीं ॥
लंक-सिंघिनी, सारँगनैनी । हंसगामिनी कोकिलबैनी ॥
आवहिं झुंड सो पाँतिहिं पाँती । गवन सोहाइ सु भाँतिहिं भाँती ॥
कनक कलस मुखचंद दिपाहीं । रहस केलि सन आवहिं जाहीं ॥
जा सहुँ वै हेरैं चख नारी ।बाँक नैन जनु हनहिं कटारी ॥
केस मेघावर सिर ता पाईं । चमकहिं दसन बीजु कै नाईं ॥

माथे कनक गागरी आवहिं रूप अनूप ।
जेहि के अस पनहारी सो रानी केहि रूप ॥8॥

(मेघावर=बादल की घटा, ता पाईं=पैर तक, बीजु=बिजली)

ताल तलाव बरनि नहिं जाहीं । सूझै वार पार किछु नाहीं ॥
फूले कुमुद सेत उजियारे । मानहुँ उए गगन महँ तारे ॥
उतरहिं मेघ चढ़हि लेइ पानी चमकहिं मच्छ बीजु कै बानी ॥
पौंरहि पंख सुसंगहिं संगा । सेत पीत राते बहु रंगा ॥
चकई चकवा केलि कराहीं । निसि के बिछोह, दिनहिं मिलि जाहीं ॥
कुररहिं सारस करहिं हुलासा । जीवन मरन सो एकहिं पासा ॥
बोलहिं सोन ढेक बगलेदी । रही अबोल मीन जल-भेदी ॥

नग अमोल तेहि तालहिं दिनहिं बरहिं जस दीप ।
जो मरजिया होइ तहँ सो पावै वह सीप ॥9॥

(बानी=वर्ण,रंग,चमक, सोन,ढेक,बग,लेदी=ताल की चिड़िया,
मरजिया=जान जोखिम में डालकर विकट स्थानों से व्यापार
की वस्तुएँ लानेवाले,जीवकिया,जैसे, गोता खोर)

आस-पास बहु अमृत बारी । फरीं अपूर होइ रखवारी ॥
नारग नीबू सुरँग जंभीरा । औ बदाम बहु भेद अँजीरा ॥
गलगल तुरज सदाफर फरे । नारँग अति राते रस भरे ॥
किसमिस सेव फरे नौ पाता । दारिउँ दाख देखि मन राता ॥
लागि सुहाई हरफारयोरी । उनै रही केरा कै घौरी ॥
फरे तूत कमरख औ न्योजी । रायकरौंदा बेर चिरौंजी ॥
संगतरा व छुहारा दीठे । और खजहजा खाटे मीठे ॥

पानि देहिं खँडवानी कुवहिं खाँड बहु मेलि ।
लागी घरी ग्हट कै सीचहिं अमृतबेल ॥10॥

(हरफारयोरी=लवली, न्योजी=लीची, खँडवानी=काँड का रस)

पुनि फुलवारि लागि चहुँ पासा । बिरिछ बेधि चंदन भइ बासा ॥
बहुत फूल फूलीं घनबेली । केवड़ा चंपा कुंद चमेली ॥
सुरँग गुलाल कदम और कूजा । सुगँध बकौरी गंध्रब पूजा ॥
जाही जूही बगुचन लावा । पुहुप सुदरसन लाग सुहावा ॥
नागेसर सदबरग नेवारी । औ सिंगारहार फुलवारी ॥
सोनजरद फूलीं सेवती । रूपमंजरी और मालती ॥
मौलसिरी बेइलि औ करना । सबै फूल फूले बहुबरना ॥

तेहिं सिर फूल चढ़हिं वै जेहि माथे मनि-भाग ।
आछहिं सदा सुगंध बहु जनु बसंत औ फाग ॥11॥

(कूजा=कुब्जक,पहाड़ी या जंगली गुलाब जिसके फूल सफेद
होते हैं, घनबेली=बेला की एक जाति, नागेसर=नागकेसर,
बकौरी=बकावली, बगुचा=(गट्ठा) ढेर,राशि, सिंगार-हार=
हरिसिंगार,शेफालिका)

सिंगलनगर देखु पुनि बसा । धनि राजा अस जे कै दसा ॥
ऊँची पौरी ऊँच अवासा । जनु कैलास इंद्र कर वासा ॥
राव रंक सब घर घर सुखी । जो दीखै सौ हँसता-मुखी ॥
रचि रचि साजे चंदन चौरा । पोतें अगर मेद औ गौरा ॥
सब चौपारहि चंदन खभा । ओंठँघि सभासद बैठे सभा ॥
मनहुँ सभा देवतन्ह कर जुरी । परी दीठि इंद्रासन पुरी ॥
सबै गुनी औ पंडित ज्ञाता । संसकिरित सबके मुख बाता ॥

अस कै मंदिर सँवारे जनु सिवलोक अनूप ।
घर घर नारि पदमिनी मोहहिं दरसन-रूप ॥12॥

(मेद=मेदा एक सुगंधित जड़, गौरा=गोरोचन, ओठँवि=
पीठ टिकाकर)

पुनि देखी सिंघल फै हाटा । नवो निद्धि लछिमी सब बाटा ॥
कनक हाट सब कुहकुहँ लीपी । बैठ महाजन सिंघलदीपी ॥
रचहिं हथौड़ा रूपन ढारी । चित्र कटाव अनेक सवारी ॥
सोन रूप भल भयऊ पसारा । धवल सिरीं पोतहिं घर बारा ॥
रतन पदारथ मानिक मोती । हीरा लाल सो अनबन जोती ॥
औ कपूर बेना कस्तूरी । चंदन अगर रहा भरपूरी ॥
जिन्ह एहि हाट न लीन्ह बेसाहा । ता कहँ आन हाट कित लाहा?॥

कोई करै बेसाहिनी, काहू केर बिकाइ ।
कोई चलै लाभ सन, कोई मूर गवाइ ॥13॥

(कुहकुहँ=कुंकुम,केसर, धवल=सफेदी, सिरी=श्री,रोली,लाल बुकनी,
बेना=खस वा गंधबेन, बेसाहनी=खरीद)

पुनि सिंगारहाट भल देसा । किए सिंगार बैठीं तहँ बेसा ॥
मुख तमोल तन चीर कुसुंभी । कानन कनक जड़ाऊ खुंभी ॥
हाथ बीन सुनि मिरिग भुलाहीं । नर मोहहिं सुनि, पैग न जाहीं ॥
भौंह धनुष, तिन्ह नैन अहेरी । मारहिं बान सान सौं फेरी ॥
अलक कपोल डोल हँसि देहीं । लाइ कटाछ मारि जिउ लेहीं ॥
कुच कंचुक जानौ जुग सारी । अंचल देहिं सुभावहिं ढारी ॥
केत खिलार हारि तेहि पासा । हाथ झारि उठि चलहिं निरासा ॥

चेटक लाइ हरहिं मन जब लहि होइ गथ फेंट ।
साँठ नाठि उटि भए बटाऊ, ना पहिचान न भेंट ॥14॥

(बेसा=वेश्या, खुंभी=कान में पहनने का एक गहना,
लौंग या कील, सारी=सारि,पासा, गथ=पूँजी)

लेइ के फूल बैठि फुलहारी । पान अपूरब धरे सँवारी ॥
सोंधा सबै बैठ ले गाँधी । फूल कपूर खिरौरी बाँधी ॥
कतहूँ पंडित पढ़हिं पुरानू । धरमपंथ कर करहिं बखानू ॥
कतहूँ कथा कहै किछु कोई । कतहूँ नाच-कूद भल होई ॥
कतहुँ चिरहँटा पंखी लावा । कतहूँ पखंडी काठ नचावा ॥
कतहूँ नाद सबद होइ भला । कतहूँ नाटक चेटक-कला ॥
कतहुँ काहु ठगविद्या लाई । कतहुँ लेहिं मानुष बौराई ॥

चरपट चोर गँठिछोरा मिले रहहिं ओहि नाच ।
जो ओहि हाट सजग भा गथ ताकर पै बाँच ॥15॥

(साँठ=पूँजी, नाठि=नष्ट हुई, सोंधा=सुगंध द्रव्य, गाँधी=गंधी,
खिरौरी=केवड़ा देकर बाँधी हुई या कत्थे की टिकिया, चिरहँटा=
बहेलिया, पखंडी=कठपुतलीवाला)

पुनि आए सिंघल गढ़ पासा । का बरनौं जनु लाग अकासा ॥
तरहिं करिन्ह बासुकि कै पीठी । ऊपर इंद्र लोक पर दीठी ॥
परा खोह चहुँ दिसि अस बाँका । काँपै जाँघ, जाइ नहिं झाँका ॥
अगम असूझ देखि डर खाई । परै सो सपत-पतारहिं जाई ॥
नव पौरी बाँकी, नवखंडा । नवौ जो चढ़े जाइ बरम्हंडा ॥
कंचन कोट जरे नग सीसा । नखतहिं भरी बीजु जनु दीसा ॥
लंका चाहि ऊँच गढ़ ताका । निरखि न जाइ, दीठि तन थाका ॥

हिय न समाइ दीठि नहिं जानहुँ ठाढ़ सुमेर ।
कहँ लगि कहौं ऊँचाई, कहँ लगि बरनौं फेर ॥16॥

(करिन्ह=दिग्गजों)

निति गढ़ बाँचि चलै ससि सूरू । नाहिं त होइ बाजि रथ चूरू ॥
पौरी नवौ बज्र कै साजी । सहस सहस तहँ बैठे पाजी ॥
फिरहिं पाँच कोतवार सुभौंरी । काँपै पावैं चपत वह पौरी ॥
पौरहि पौरि सिंह गढ़ि काढ़े । डरपहिं लोग देखि तहँ ठाढ़े ॥
बहुबिधान वै नाहर गढ़े । जनु गाजहिं, चाहहिं सिर चढ़े ॥
टारहिं पूँछ, पसारहिं जीहा । कुंजर डरहिं कि गुंजरि लीहा ॥
कनक सिला गढ़ि सीढ़ी लाई । जगमगाहि गढ़ ऊपर ताइ ॥

नवौं खंड नव पौरी , औ तहँ बज्र-केवार ।
चारि बसेरे सौं चढ़ै, सत सौं उतरे पार ॥17॥

(पाजी=पैदल सिपाही, कोतवार=कोटपाल,कोतवाल, गुंजरि लीहा=
गरज कर लिया)

नव पौरी पर दसवँ दुवारा । तेहि पर बाज राज-घरियारा ॥
घरी सो बैठि गनै घरियारी । पहर सो आपनि बारी ॥
जबहीं घरी पूजि तेइँ मारा । घरी घरी घरियार पुकारा ॥
परा जो डाँड जगत सब डाँडा । का निचिंत माटी कर भाँडा?॥
तुम्ह तेहि चाक चढ़े हौ काँचे । आएहु रहै न थिर होइ बाँचे ॥
घरी जो भरी घटी तुम्ह आऊ । का निचिंत होइ सोउ बटाऊ?॥
पहरहिं पहर गजर निति होई । हिया बजर, मन जाग न सोई ॥

मुहमद जीवन-जल भरन, रहँट-घरी कै रीति ।
घरी जो आई ज्यों भरी , ढरी,जनम गा बीति ॥18॥

(बसेरा=टिकान)

गढ़ पर नीर खीर दुइ नदी । पनिहारी जैसे दुरपदी ॥
और कुंड एक मोतीचूरू । पानी अमृत, कीच कपूरु ॥
ओहि क पानि राजा पै पीया । बिरिध होइ नहिं जौ लहि जीया ॥
कंचन-बिरछि एक तेहि पासा । जस कलपतरु इंद्र-कविलासा ॥
मूल पतार, सरग ओहि साखा । अमरबेलि को पाव, को चाखा?॥
चाँद पात औ फूल तराईं । होइ उजियार नगर जहँ ताई ॥
वह फल पावै तप करि कोई । बिरधि खाइ तौ जोबन होई ॥

राजा भए भिखारी सुनि वह अमृत भोग ।
जेइ पावा सो अमर भा, ना किछु व्याधि न रोग ॥19॥

(रहँट-घरी=रहट में लगा छोटा घड़ा, घरियार=घंटा, घरी भरी=
घड़ी पूरी हुई (पुराने समय में समय जानने के लिये पानी भरी
नाँद में एक घड़िया या कटोरा महीन महीन छेद करके तैरा
दिया जाता था । जब पानी भर जाने पर घड़िया डूब जाती
थी तब एक घड़ी का बीतना माना जाता था)

गढ़ पर बसहिं झारि गढ़पती । असुपति, गजपति, भू-नर-पती ॥
सब धौराहर सोने साजा । अपने अपने घर सब राजा ॥
रूपवंत धनवंत सभागे । परस पखान पौरि तिन्ह लागे ॥
भोग-विलास सदा सब माना । दुख चिंता कोइ जनम न जाना ॥
मँदिर मँदिर सब के चौपारी । बैठि कुँवर सब खेलहिं सारी ॥
पासा ढरहिं खेल भल होई । खड़गदान सरि पूज न कोई ॥
भाँट बरनि कहि कीरति भली । पावहिं हस्ति घोड़ सिंघली ॥

मँदिर मँदिर फुलवारी, चोवा चंदन बास ।
निसि दिन रहै बसंत तहँ छवौ ऋतु बारह मास ॥20॥

(परस पखान=स्पर्शमणि,पारस पत्थर, सारी=पासा,
झारि=बिल्कुल या समूह, सरि पूज=बराबरी को
पहुँचता है, खड़गदान=तलवार चलाना)

पुनि चलि देखा राज-दुआरा । मानुष फिरहिं पाइ नहिं बारा ॥
हस्ति सिंघली बाँधे बारा । जनु सजीव सब ठाढ़ पहारा ॥
कौनौ सेत, पीत रतनारे । कौनौं हरे, धूम औ कारे ॥
बरनहिं बरन गगन जस मेघा । औ तिन्ह गगन पीठी जनु ठेघा ॥
सिंघल के बरनौं सिंघली । एक एक चाहि एक एक बली ॥
गिरि पहार वै पैगहि पेलहिं । बिरिछ उचारि डारि मुख मेलहिं ॥
माते तेइ सब गरजहिं बाँधे । निसि दिन रहहिं महाउत काँधे ॥

धरती भार न अगवै, पाँव धरत उठ हालि ।
कुरुम टुटै, भुइँ फाटै तिन हस्तिन के चालि ॥21॥

(बारा=द्वार, ठेघा=सहारा दिया, अँगवै=शरीर पर सहती है)

पुनि बाँधे रजबार तुरंगा । का बरनौं जस उन्हकै रंगा ॥
लील, समंद चाल जग जाने । हाँसुल, भौंर, गियाह बखाने ॥
हरे, कुरंग, महुअ बहु भाँती । गरर, कोकाह, बुलाह सु पाँती ॥
तीख तुखार चाँड औ बाँके । सँचरहिं पौरि ताज बिनु हाँके ॥
मन तें अगमन डोलहिं बागा । लेत उसास गगन सिर लागा ॥
पौन-समान समुद पर धावहिं । बूड़ न पाँव, पार होइ आवहिं ॥
थिर न रहहिं, रिस लोह चबाहीं । भाँजहिं पूँछ, सीस उपराहीं ॥

अस तुखार सब देखे जनु मन के रथवाह ।
नैन-पलक पहुँचावहिं जहँ पहुँचा कोइ चाह ॥22॥

(रजबार=राजद्वार, समंद=बादामी रंग का घोड़ा, हँसुल=
कुम्मैत हिनाई,मेहँदी के रंग का और पैर कुछ काले,
भौंर=मुश्की, कियाह=ताड़ के पके फल के रंग का, हरे=
सब्जा, कुरंग=लाख के रंग का या नीला कुम्मेत, महुअ=
महुए के रंग का, गरर=लाल और सफेद मिले रोएँ का,
गर्रा, कोकाह=सफेद रंग का, बुलाह=बुल्लाह,गर्दन और
पूँछ के बाल पीले, ताजा=ताजियाना,चाबुक, अगमन=
आगे, तुखार=तुषार देश के घोड़े, यहाँ घोड़े)

राजसभा पुनि देख बईठी । इंद्रसभा जनु परि गै डीठी ॥
धनि राजा असि सभा सँवारी । जानहु फूलि रही फुलवारी ॥
मुकुट बाँधि सब बैठे राजा । दर निसान नित जिन्हके बाजा ॥
रूपवंत, मनि दिपै लिलाटा । माथे छात, बैठ सब पाटा ॥
मानहुँ कँवल सरोवर फूले । सभा क रूप देखि मन भूले ॥
पान कपूर मेद कस्तूरी । सुगँध बास भरि रही अपूरी ॥
माँझ ऊँच इंद्रासन साजा । गंध्रबसेन बैठ तहँ राजा ॥

छत्र गगन लगि ताकर, सूर तवै जस आप ।
सभा कँवल अस बिगसै, माथे बड़ परताप ॥23॥

(दर=दरवाजा, मेद=मेदा,एक प्रकार की सुगंधित जड़,
तवै=तपता है)

साजा राजमंदिर कैलासू । सोने कर सब धरति अकासू ॥
सात खंड धौराहर साजा । उहै सँवारि सकै अस राजा ॥
हीरा ईंट, कपूर गिलावा । औ नग लाइ सरग लै लावा ॥
जावत सबै उरेह उरेहे । भाँति भाँति नग लाग उबेहे ॥
भाव कटाव सब अनबत भाँती । चित्र कोरि कै पाँतिहिं पाँती ॥
लाग खंभ-मनि-मानिक जरे । निसि दिन रहहिं दीप जनु बरे ॥
देखि धौरहर कर उँजियारा । छपि गए चाँद सुरुज औ तारा ॥

सुना सात बैकुंठ जस तस साजे खँड सात ।
बेहर बेहर भाव तस खंड खंड उपरात ॥24॥

(उरेह=चित्र, उबेहे=चुनेहुए,बीछे हुए, कोरिकै=खोद कर,
बेहर बेहर=अलग अलग)

वरनों राजमंदिर रनिवासू । जनु अछरीन्ह भरा कविलासू ॥
सोरह सहस पदमिनी रानी । एक एक तें रूप बखानी ॥
अतिसुरूप औ अति सुकुवाँरी । पान फूल के रहहिं अधारी ॥
तिन्ह ऊपर चंपावति रानी । महा सुरूप पाट-परधानी ॥
पाट बैठि रह किए सिंगारू । सब रानी ओहि करहिं जोहारू ॥
निति नौरंग सुरंगम सोई । प्रथम बैस नहिं सरवरि कोई ॥
सकल दीप महँ जेती रानी । तिन्ह महँ दीपक बारह-बानी ॥

कुँवर बतीसो-लच्छनी अस सब माँ अनूप ।
जावत सिंघलदीप के सबै बखानैं रूप ॥25॥

(बारह-बानी=द्वादशवर्णी,सूर्य्य की तरह चमकनेवाली)

3. जन्म-खंड

चंपावति जो रूप सँवारी । पदमावति चाहै औतारी ॥
भै चाहै असि कथा सलोनी । मेटि न जाइ लिखी जस होनी ॥
सिंघलदीप भए तब नाऊँ । जो अस दिया बरा तेहि ठाऊँ ॥
प्रथम सो जोति गगन निरमई । पुनि सो पिता माथे मनि भई ॥
पुनि वह जोति मातु-घट आई । तेहि ओदर आदर बहु पाई ॥
जस अवधान पूर होइ मासू । दिन दिन हिये होइ परगासू ॥
जस अंचल महँ छिपै न दीया । तस उँजियार दिखावै हीया ॥

सोने मँदिर सँवारहिं औ चंदन सब लीप ।
दिया जो मनि सिवलोक महँ उपना सिंघलदीप ॥1॥

(उपना=उत्पन्न हुआ)

भए दस मास पूरि भइ घरी । पदमावति कन्या औतरी ॥
जानौ सूर किरिन-हुति काढ़ी । सुरुज-कला घाटि, वह बाढ़ी ॥
भा निसि महँ दिन कर परकासू । सब उजियार भएउ कविलासू ॥
इते रूप मूरति परगटी । पूनौ ससी छीन होइ घटी ॥
घटतहि घटत अमावस भई । दिन दुइ लाज गाड़ि भुइँ गई ॥
पुनि जो उठी दुइज होइ नई । निहकलंक ससि विधि निरमई ॥
पदुमगंध बेधा जग बासा । भौंर पतंग भए चहुँ पासा ॥

इते रूप भै कन्या जेहिं सरि पूज न कोइ ।
धनि सो देस रुपवंता जहाँ जन्म अस होइ ॥2॥

(बिहान=सबेरा, फिरीरा-भएऊ=फिरेरे के समान चक्कर
लगाता हुआ, रतन=राजा रतनसेन की ओर लक्ष्य है,
निरमरा=निर्मल, जमबारू=यमद्वार)

भै छठि राति छठीं सुख मानी । रइस कूद सौं रैनि बिहानी ॥
भा विहान पंडित सब आए । काढ़ि पुरान जनम अरथाए ॥
उत्तिम घरी जनम भा तासू । चाँद उआ भूइँ, दिपा अकासू ॥
कन्यारासि उदय जग कीया । पदमावती नाम अस दीया ॥
सूर प्रसंसै भएउ फिरीरा । किरिन जामि, उपना नग हीरा ॥
तेहि तें अधिक पदारथ करा । रतन जोग उपना निरमरा ॥
सिंहलदीप भए औतारू । जंबूदीप जाइ जमबारू ॥

राम अजुध्या ऊपने लछन बतीसो संग ।
रावन रूप सौं भूलिहि दीपक जैस पतंग ॥3॥

कहेन्हि जनमपत्री जो लिखी । देइ असीस बहुरे जोतिषी ॥
पाँच बरस महँ भय सो बारी । कीन्ह पुरान पढ़ै बैसारी ॥
भै पदमावति पंडित गुनी । चहूँ खंड के राजन्ह सुनी ॥
सिंघलदीप राजघर बारी । महा सुरुप दई औतारी ॥
एक पदमिनी औ पंडित पढ़ी । दहुँ केहि जोग गोसाईं गढ़ी ॥
जा कहँ लिखी लच्छि घर होनी । सो असि पाव पढ़ी औ लोनी ॥
सात दीप के बर जो ओनाहीं । उत्तर पावहिं, फिरि फिरि जाहीं ॥

राजा कहै गरब कै अहौं इंद्र सिवलोक ।
सो सरवरि है मोरे, कासौं करौं बरोक ॥4॥

(बेसारि दीन्ह=बैठा दिया, बरोक=(बर+रोक) बरच्छा,
कोंई=कुमुदिनी)

बारह बरस माहँ भै रानी । राजै सुना सँजोग सयानी ॥
सात खंड धौराहर तासू । सो पदमिनि कहँ दीन्ह निवासू ॥
औ दीन्ही सँग सखी सहेली । जो सँग करैं रहसि रस-केली ॥
सबै नवल पिउ संग न सोईं । कँवल पास जनु बिगीस कोईं ॥
सुआ एक पदमावति ठाऊँ । महा पँडित हीरामन नाऊँ ॥
दई दीन्ह पंखिहि अस जोती । नैन रतन, मुख मानिक मोती ॥
कंचन बरन सुआ अति लोना । मानहुँ मिला सोहागहिं सोना ॥

रहहिं एक सँग दोउ, पढ़हिं सासतर वेद ।
बरम्हा सीस डोलावहीं, सुनत लाग तस भेद ॥5॥

भै उनंत पदमावति बारी । रचि रचि विधि सब कला सँवारी ॥
जग बेधा तेहि अंग-सुबासा । भँवर आइ लुबुधे चहुँ पासा ॥
बेनी नाग मलयागिरि पैठी । ससि माथे होइ दूइज बैठी ॥
भौंह धनुक साधे सर फेरै । नयन कुरंग भूलि जनु हेरै ॥
नासिक कीर, कँवल मुख सोहा । पदमिनि रूप देखि जग मोहा ॥
मानिक अधर, दसन जनु हीरा । हिय हुलसे कुच कनक-गँभीरा ॥
केहरि लंक, गवन गज हारे । सुरनर देखि माथ भुइँ धारे ॥

जग कोइ दीठि न आवै आछहि नैन अकास ।
जोगि जती संन्यासी तप साधहि तेहि आस ॥6॥

एक दिवस पदमावति रानी । हीरामन तइँ कहा सयानी ॥
सुनु हीरामन कहौं बुझाई । दिन दिन मदन सतावै आई ॥
पिता हमार न चालै बाता । त्रसहि बोलि सकै नहिं माता ॥
देस देस के बर मोहि आवहिं । पिता हमार न आँख लगावहिं ॥
जोबन मोर भयउ जस गंगा । देइ देइ हम्ह लाग अनंगा ॥
हीरामन तब कहा बुझाई । विधि कर लिखा मेटि नहिं जाई ॥
अज्ञा देउ देखौं फिरि देसा । तोहि जोग बर मिलै नरेसा ॥

जौ लगि मैं फिरि आवौं मन चित धरहु निवारि ।
सुनत रहा कोइ दुरजन, राजहि कहा विचारि ॥7॥

राजन सुना दीठी भै आना । बुधि जो देहि सँग सुआ सयाना ॥
भएउ रजायसु मारहु सूआ । सूर सुनाव चाँद जहँ ऊआ ॥
सत्रु सुआ के नाऊ बारी । सुनि धाए जस धाव मँजारी ॥
तब लगि रानी सुआ छपावा । जब लगि ब्याध न आवै पावा ॥
पिता क आयसु माथे मोरे । कहहु जाय विनवौ कर जोरे ॥
पंखि न कोई होइ सुजानू । जानै भृगुति कि जान उड़ानू ॥
सुआ जो पढ़ै पढ़ाए बैना । तेहि कत बुधि जेहि हिये न नैना ॥

मानिक मोती देखि वह हिये न ज्ञान करेइ ।
दारिउँ दाख जानि कै अवहिं ठोर भरि लेइ ॥8॥

(मजारी=मार्जारी,बिल्ली)

वै तौ फिरे उतर अस पावा । बिनवा सुआ हिये डर खावा ॥
रानी तुम जुग जुग सुख पाऊ । होइ अज्ञा बनवास तौ जाऊँ ॥
मोतिहिं मलिन जो होइ गइ कला । पुनि सो पानि कहाँ निरमला? ॥
ठाकुर अंत चहै जेहि मारा । तेहि सेवक कर कहाँ उबारा?॥
जेहि घर काल-मजारी नाचा । पंखहि पाउँ जीउ नहिं बाँचा ॥
मैं तुम्ह राज बहुत सुख देखा । जौ पूछहि देइ जाइ न लेखा ॥
जो इच्छा मन कीन्ह सो जेंवा । यह पछिताव चल्यों बिनु सेवा ॥

मारै सोइ निसोगा, डरै न अपने दोस ।
केरा केलि करै का जौं भा बैरि परोस ॥9॥

(पानि=आब,आभा;चमक, जेंवा=खाया, बैरि=बेर का पेड़,
उनंत=ओनंत,भार से झुकी (यौवन के), `बारी' शब्द के
कुमारी और बगीचा दो अर्थ लेने से इसकी संगति बैठती है)

रानी उतर दीन्ह कै माया । जौ जिउ जाउ रहै किमि काया? ॥
हीरामन! तू प्रान परेवा । धोख न लाग करत तोहिं सेवा ॥
तोहिं सेवा बिछुरन नहिं आखौं । पींजर हिये घालि कै राखौं ॥
हौं मानुस, तू पंखि पियारा । धरन क प्रीति तहाँ केइ मारा? ॥
का सौ प्रीति तन माँह बिलाई?। सोइ प्रीति जिउ साथ जो जाई ॥
प्रीति मार लै हियै न सोचू । ओहि पंथ भल होइ कि पोचू ॥
प्रीति-पहार-भार जो काँधा । सो कस छुटै, लाइ जिउ बाँधा ॥

सुअटा रहै खुरुक जिउ, अबहिं काल सो आव ।
सत्रु अहै जो करिया कबहुँ सो बोरे नाव ॥10॥

(आँखौं=(सं:आकांक्षा) चाहती हूँ,कहती हूँ, करिया=कर्णधार,मल्लाह)

4. मानसरोदक-खंड

एक दिवस पून्यो तिथि आई । मानसरोदक चली नहाई ॥
पदमावति सब सखी बुलाई । जनु फुलवारि सबै चलि आई ॥
कोइ चंपा कोइ कुंद सहेली । कोइ सु केत, करना, रस बेली ॥
कोइ सु गुलाल सुदरसन राती । कोइ सो बकावरि-बकुचन भाँती ॥
कोइ सो मौलसिरि, पुहपावती । कोइ जाही जूही सेवती ॥
कोई सोनजरद कोइ केसर । कोइ सिंगार-हार नागेसर ॥
कोइ कूजा सदबर्ग चमेली । कोई कदम सुरस रस-बेली ॥

चलीं सबै मालति सँग फूलीं कवँल कुमोद ।
बेधि रहे गन गँधरब बास-परमदामोद ॥1॥

(केत=केतकी, करना=एक फूल, कूजा=सफेद जंगली गुलाब)

खेलत मानसरोवर गईं । जाइ पाल पर ठाढ़ी भईं ॥
देखि सरोवर हँसै कुलेली । पदमावति सौं कहहिं सहेली
ए रानी! मन देखु बिचारी । एहि नैहर रहना दिन चारी ॥
जौ लगि अहै पिता कर राजू । खेलि लेहु जो खेलहु आजु ॥
पुनि सासुर हम गवनब काली । कित हम, कित यह सरवर-पाली ॥
कित आवन पुनि अपने हाथा । कित मिलि कै खेलब एक साथा ॥
सासु ननद बोलिन्ह जिउ लेहीं । दारुन ससुर न निसरै देहीं ॥

पिउ पियार सिर ऊपर, पुनि सो करै दहुँ काह ।
दहुँ सुख राखै की दुख, दहुँ कस जनम निबाह ॥2॥

(पाल=बाँध,भीटा,किनारा)

मिलहिं रहसि सब चढ़हिं हिंडोरी । झूलि लेहिं सुख बारी भोरी ॥
झूलि लेहु नैहर जब ताईं । फिरि नहिं झूलन देइहिं साईं ॥
पुनि सासुर लेइ राखहिं तहाँ । नैहर चाह न पाउब जहाँ ॥
कित यह धूप, कहाँ यह छाँहा । रहब सखी बिनु मंदिर माहाँ ॥
गुन पूछहि औ लाइहि दोखू । कौन उतर पाउब तहँ मोखू ॥
सासु ननद के भौंह सिकोरे । रहब सँकोचि दुवौ कर जोरे ॥
कित यह रहसि जो आउब करना । ससुरेइ अंत जनम भरना ॥

कित नैहर पुनि आउब, कित ससुरे यह खेल ।
आपु आपु कहँ होइहिं परब पंखि जस डेल ॥3॥

(चाह=खबर, डेल=बहेलिए का डला)

सरवर तीर पदमिनी आई । खोंपा छोरि केस मुकलाई ॥
ससि-मुख, अंग मलयगिरि बासा । नागिन झाँपि लीन्ह चहुँ पासा ॥
ओनई घटा परी जग छाँहा । ससि के सरन लीन्ह जनु राहाँ ॥
छपि गै दिनहिं भानु कै दसा । लेइ निसि नखत चाँद परगसा ॥
भूलि चकोर दीठि मुख लावा । मेघघटा महँ चंद देखावा ॥
दसन दामिनी, कोकिल भाखी । भौंहैं धनुख गगन लेइ राखी ॥
नैन -खँजन दुइ केलि करेहीं । कुच-नारँग मधुकर रस लेहीं ॥

सरवर रूप बिमोहा, हिये होलोरहि लेइ ।
पाँव छुवै मकु पावौं एहि मिस लहरहि देइ ॥4॥

(खोंपा=चोटी का गुच्छा,जूरा, मुकलाई=खोलकर,
मकु=कदाचित्)

धरी तीर सब कंचुकि सारी । सरवर महँ पैठीं सब बारी ॥
पाइ नीर जानौं सब बेली । हुलसहिं करहिं काम कै केली ॥
करिल केस बिसहर बिस-हरे । लहरैं लेहिं कवँल मुख धरे ॥
नवल बसंत सँवारी करी । होइ प्रगट जानहु रस-भरी ॥
उठी कोंप जस दारिवँ दाखा । भई उनंत पेम कै साखा ॥
सरवर नहिं समाइ संसारा । चाँद नहाइ पैट लेइ तारा ॥
धनि सो नीर ससि तरई ऊईं । अब कित दीठ कमल औ कूईं ॥

चकई बिछुरि पुकारै , कहाँ मिलौं, हो नाहँ ।
एक चाँद निसि सरग महँ, दिन दूसर जल माँह ॥5॥

(करिल=काले, बिसहर=बिषधर,साँप, करी=कली, कोंप=कोंपल,
उनंत=झुकती हुई)

लागीं केलि करै मझ नीरा । हंस लजाइ बैठ ओहि तीरा ॥
पदमावति कौतुक कहँ राखी । तुम ससि होहु तराइन्ह साखी ॥
बाद मेलि कै खेल पसारा । हार देइ जो खेलत हारा ॥
सँवरिहि साँवरि, गोरिहि । आपनि लीन्ह सो जोरी ॥
बूझि खेल खेलहु एक साथा । हार न होइ पराए हाथा ॥
आजुहि खेल, बहुरि कित होई । खेल गए कित खेलै कोई?॥
धनि सो खेल खेल सह पेमा । रउताई औ कूसल खेमा? ॥

मुहमद बाजी पेम कै ज्यों भावै त्यों खेल ।
तिल फूलहि के सँग ज्यों होइ फुलायल तेल ॥6॥

(साखी=निर्णय-कर्ता,पंच, वाद मेलि कै=बाजी लगाकर,
रउताई=रावत या स्वामी होने का भाव,ठकुराई, फुलायल=
फुलेल)

सखी एक तेइ खेल ना जाना । भै अचेत मनि-हार गवाँना ॥
कवँल डार गहि भै बेकरारा । कासौं पुकारौं आपन हारा ॥
कित खेलै अइउँ एहि साथा । हार गँवाइ चलिउँ लेइ हाथा ॥
घर पैठत पूँछब यह हारू । कौन उतर पाउब पैसारू ॥
नैन सीप आँसू तस भरे । जानौ मोति गिरहिं सब ढरे ॥
सखिन कहा बौरी कोकिला । कौन पानि जेहि पौन न मिला? ॥
हार गँवाइ सो ऐसै रोवा । हेरि हेराइ लेइ जौं खौवा ॥

लागीं सब मिलि हेरै बूड़ि बूड़ि एक साथ ।
कोइ उठी मोती लेइ, काहू घोंघा हाथ ॥7॥

कहा मानसर चाह सो पाई । पारस-रूप इहाँ लगि आई ॥
भा निरमल तिन्ह पायँन्ह परसे । पावा रूप रूप के दरसे ॥
मलय-समीर बास तन आई । भा सीतल, गै तपनि बुझाई ॥
न जनौं कौन पौन लेइ आवा । पुन्य-दसा भै पाप गँवावा ॥
ततखन हार बेगि उतिराना । पावा सखिन्ह चंद बिहँसाना ॥
बिगसा कुमुद देखि ससि-रेखा । भै तहँ ओप जहाँ जोइ देखा ॥
पावा रूप रूप जस चहा । ससि-मुख जनु दरपन होइ रहा ॥

नयन जो देखा कवँल भा, निरमल नीर सरीर ।
हँसत जो देखा हंस भा, दसन-जोति नग हीर ॥8॥

(चाह=खबर,आहट)

5. सुआ-खंड

पदमावति तहँ खेल दुलारी । सुआ मँदिर महँ देखि मजारी ॥
कहेसि चलौं जौ लहि तन पाँखा । जिउ लै उड़ा ताकि बन ढाँखा ॥
जाइ परा बन खँड जिउ लीन्हें । मिले पँखि, बहु आदर कीन्हें ॥
आनि धरेन्हि आगे फरि साखा । भुगुति भेंट जौ लहि बिधि राखा ॥
पाइ भुगुति सुख तेहि मन भएऊ । दुख जो अहा बिसरि सब गएऊ ॥
ए गुसाइँ तूँ ऐस विधाता । जावत जीव सबन्ह भुकदाता ॥
पाहन महँ नहिं पतँग बिसारा । जहँ तोहि सुनिर दीन्ह तुइँ चारा ॥

तौ लहि सोग बिछोह कर भोजन परा न पेट ।
पुनि बिसरन भा सुमिरना जब संपति भै भेंट ॥1॥

(बनढाँख=ढाक का जंगल,जंगल, अहा=था)

पदमावति पहँ आइ भँडारी । कहेसि मँदिर महँ परी मजारी ॥
सुआ जो उत्तर देत रह पूछा । उडिगा, पिंजर न बोलै छूँछा ॥
रानी सुना सबहिं सुख गएऊ । जनु निसि परी, अस्त दिन भएऊ ॥
गहने गही चाँद कै करा । आँसु गगन जस नखतन्ह भरा ॥
टूट पाल सरवर बहि लागे । कवँल बूड़, मधुकर उड़ि भागे ॥
एहि विधि आँसु नखत होइ चूए । गगन छाँ सरवर महँ ऊए ॥
चिहुर चुईं मोतिन कै माला । अब सँकेतबाँधा चहुँ पाला ॥

उड़ि यह सुअटा कहँ बसा खोजु सखी सो बासु ।
दहुँ है धरती की सरग, पौन न पावै तासु ॥2॥

(पाल=बाँध,किनारा, चिहुर=चिकुर,केश, सँकेता=सँकरा,तंग)

जौ लहि पींजर अहा परेवा । रहा बंदि महँ, कीन्हेसि सेवा ॥
तेहि बंदि हुति छुटै जो पावा । पुनि फिरि बंदि होइ कित आवा?॥
वै उड़ान-फर तहियै खाए । जब भा पँखी, पाँख तन आए ॥
पींजर जेहिक सौंपि तेहि गएउ । जो जाकर सो ताकर भएउ ॥
दस दुवार जेहि पींजर माँहा । कैसे बाँच मँजारी पाहाँ?॥
चहूँ पास समुझावहिं सखी । कहाँ सो अब पाउब, गा पँखी ॥
यह धरती अस केतन लीला । पेट गाढ़ अस, बहुरि न ढीला ॥

जहाँ न राति न दिवस है , जहाँ न पौन न पानि ।
तेहि बन सुअटा चलि बसा कौन मिलावै आनि ॥3॥

(हुति=से)

सुए तहाँ दिन दस कल काटी । आय बियाध ढुका लेइ टाटी ॥
पैग पैग भुईं चापत आवा । पंखिन्ह देखि हिए डर खावा ॥
देखिय किछु अचरज अनभला । तरिवर एक आवत है चला ॥
एहि बन रहत गई हम्ह आऊ । तरिवर चलत न देखा काऊ ॥
आज तो तरिवर चल, भल नाहीं । आवहु यह बन छाँड़ि पराहीं ॥
वै तौ उड़े और बन ताका । पंडित सुआ भूलि मन थाका ॥
साखा देखि राजु जनु पावा । बैठ निचिंत चला वह आवा ॥

पाँच बान कर खोंचा, लासा भरे सो पाँच ।
पाँख भरे तन अरुझा, कित मारे बिनु बाँच ॥4॥

(ढुका=छिपकर बैठा, आऊ=आयु, काऊ=कभी, खोंचा=
चिड़िया फँसाने का बाँस)

बँधिगा सुआ करत सुख केली । चूरि पाँख मेलेसि धरि डेली ॥
तहवाँ बहुत पंखि खरभरहीं । आपु आपु महँ रोदन करही ॥
बिखदाना कित होत अँगूरा । जेहि भा मरन डह्न धरि चूरा ॥
जौं न होत चारा कै आसा । कित चिरिहार ढुकत लेइ लासा?॥
यह बिष चअरै सब बुधि ठगी । औ भा काल हाथ लेइ लगी ॥
एहि झूठी माया मन भूला । ज्यों पंखी तैसे तन फूला ॥
यह मन कठिन मरै नहिं मारा । काल न देख, देख पै चारा ॥

हम तौ बुद्धि गँवावा विष-चारा अस खाइ ।
तै सुअटा पंडित होइ कैसे बाझा आइ?॥5॥

(डेली=डली,झाबा, डहन=डैना,पर, चिरिहार=बहेलिया,
ढुकत=छिपाता, लगी=लग्गी,बाँस की छड़, फूला=हर्ष
और गर्व से इतराया, अँगूरा=अंकुर)

सुए कहा हमहूँ अस भूले । टूट हिंडोल-गरब जेहि भूले ॥
केरा के बन लीन्ह बसेरा परा साथ तहँ बैरी केरा ॥
सुख कुरबारि फरहरी खाना । ओहु विष भा जब व्याध तुलाना ॥
काहेक भोग बिरिछ अस फरा । आड़ लाइ पंखिन्ह कहँ धरा?॥
सुखी निचिंत जोरि धन करना । यह न चिंत आगे है मरना ॥
भूले हमहुँ गरब तेहि माहाँ । सो बिसरा पावा जेहि पाहाँ ॥
होइ निचिंत बैठे तेहि आड़ा । तब जाना खोंचा हिए गाड़ा ॥

चरत न खुरुक कीन्ह जिउ, तब रे चरा सुख सोइ ।
अब जो पाँद परा गिउ, तब रोए का होइ? ॥6॥

(कुरवारि=खोद,खोदकर,चोंच मार-मारकर, तुलाना=
आ पहुँचा, जेहि पाहाँ=जिस (ईश्वर) से, गिउ=ग्रीवा,गला)

सुनि कै उतन आँसु पुनि पोंछे । कौन पंखि बाँधा बुधि -ओछे ॥
पंखिन्ह जौ बुधि होइ उजारी । पढ़ा सुआ कित धरै मजारी?॥
कित तीतिर बन जीभ उघेला । सो कित हँकरि फाँद गिउ मेला ॥
तादिन व्याध भए जिउलेवा । उठे पाँख भा नावँ परेवा ॥
भै बियाधि तिसना सँग खाधू । सूझै भुगुति, न सूझ बियाधू ॥
हमहिं लोभवै मेला चारा । हमहिं गर्बवै चाहै मारा ॥
हम निचिंत वह आव छिपाना । कौन बियाधहि दोष अपाना ॥

सो औगुन कित कीजिए जिउ दीजै जेहि काज ।
अब कहना है किछु नहीं, मस्ट भली, पखिराज ॥7॥

(खाधु=खाद्य, लोभवै=लोभ ही ने, मस्ट=मौन)

6. रत्नसेन-जन्म-खंड

चित्रसेन चितउर गढ़ राजा । कै गढ़ कोट चित्र सम साजा ॥
तेहि कुल रतनसेन उजियारा । धनि जननी जनमा अस बारा ॥
पंडित गुनि सामुद्रिक देखा । देखि रूप औ लखन बिसेखा ॥
रतनसेन यह कुल-निरमरा । रतन-जोति मन माथे परा ॥
पदुम पदारथ लिखी सो जोरी । चाँद सुरुज जस होइ अँजोरी ॥
जस मालति कहँ भौंर वियोघी । तस ओहि लागि होइ यह जोगी ।
सिंघलदीप जाइ यह पावै । सिद्ध होइ चितउर लेइ आवै ॥

मोग भोज जस माना, विक्रम साका कीन्ह ।
परखि सो रतन पारखी सबै लखन लिखि दीन्ह ॥1॥

(पदुम=पद्मावती की ओर लक्ष्य है, भोज=राजा भोज,
लखन=लक्षण)

7. बनिजारा-खंड

चितउरगढ़ कर एक बनिजारा । सिंघलदीप चला बैपारा ॥
बाम्हन हुत निपट भिखारी । सो पुनि चलत बैपारी ॥
ऋन काहू सन लीन्हेसि काढ़ी । मकु तहँ गए होइ किछु बाढ़ी ॥
मारग कठिन बहुत दुख भएऊ । नाँघि समुद्र दीप ओहि गएऊ ॥
देखि हाट किछु सूझ न ओरा । सबै बहुत, किछु दीख न थोरा ॥
पै सुठि ऊँच बनिज तहँ केरा । धनी पाव, निधनी मुख हेरा ॥
लाख करोरिन्ह बस्तु बिकाई । सहसन केरि न कोउ ओनाई ॥

सबहीं लीन्ह बेसाहना औ घर कीन्ह बहोर ।
बाम्हन तहवाँ लेइ का? गाँठि साँठि सिठि थोर ॥1॥

(बनिजारा=वाणिज्य करनवाला,बनिया, मकु=शायद,
चाहे,जैसे, बहोर=लौटना, साँठि=पूँजी,धन, सुठि=खूब)

झूरै ठाढ़ हौं, काहे क आवा? बनिज न मिला, रहा पछितावा ॥
लाभ जानि आएउँ एहि हाटा । मूर गँवाइ चलेउँ तेहि बाटा ॥
का मैं मरन-सिखावन सिखी । आएउँ मरै, मीचु हति लिखी ॥
अपने चलत सो कीन्ह कुबानी । लाभ न देख, मूर भै हानी ॥
का मैं बोआ जनम ओहि भूँजी? । खोइ चलेउँ घरहू कै पूँजी ॥
जेहि व्योहरिया कर व्यौहारू । का लेइ देव जौ छेंकिहि बारू ॥
घर कैसे पैठब मैं छूछे । कौन उततर देबौं तेहि पूछे ॥

साथि चले, सँग बीछुरा, भए बिच समुद पहार ।
आस-निरासा हौं फिरौं, तू बिधि देहि अधार ॥2॥

(झूरै=निष्फल,व्यर्थ, कुबानी=कुबाणिज्य,बुरा व्यवसाय,
भूँजि=बोआ भुनकर, भूनकर बोने से बीज नहीं जमता)

तबहिं व्याध सुआ लेइ आवा । कंचन-बरन अनूप सुहावा ॥
बेंचै लाग हाट लै ओही । मोल रतन मानिक जहँ होहीं ॥
सुअहिं को पूछ? पतंग-मँडारे । चल न, दीख आछै मन मारे ॥
बाम्हन आइ सुआ सौं पूछा । दहुँ, गुनवंत, कि निरगुन छूछा?॥
कहु परबत्ते! गुन तोहि पाहाँ । गुन न छपाइय हिरदय माहाँ ॥
हम तुम जाति बराम्हन दोऊ । जातिहि जाति पूछ सब कोऊ ॥
पंडित हौ तौ सुनावहु वेदू । बिनु पूछे पाइय नहिं भेदू ॥

हौं बाम्हन औ पंडित, कहु आपन गुन सोइ ।
पढ़े के आगे जो पढ़ै दून लाभ तेहि होइ ॥3॥

(पतंग-मँडारे=चिड़ियों के मडरे में वा झाबे में, चल=चंचल)

तब गुन मोहि अहा, हो देवा!। जब पिंजर हुत छूट परेवा ॥
अब गुन कौन जो बँद, जजमाना । घालि मँजूसा बेचै आना ॥
पंडित होइ सो हाट न चढ़ा । चहौं बिकाय, भूलि गा पढ़ा ॥
दुइ मारग देखौं यहि हाटा । दई चलावै दहुँ केहि बाटा ॥
रोवत रकत भएउ मुख राता । तन भा पियर कहौं का बाता?॥
राते स्याम कंठ दुइ गीवाँ । तेहिं दइ फंद डरौं सुठि जीवा ॥
अब हौं कंठ फंद दुइ चीन्हा । दहुँ ए चाह का कीन्हा?॥

पढ़ी गुन देखा बहुत मैं, है आगे डर सोइ ।
धुंध जगत सब जानि कै भूलि रहा बुधि खोइ ॥4॥

(मँजूसा=डला, कंठ=कंठा,काली लाल लकीर जो तोतों
के गले पर होती है, धुंध=अंधकार, परमँस=दूसरे का
माँस, खाधू=खानेवाला)

सुनि बाम्हन बिनवा चिरिहारू । करि पंखिन्ह कहँ मया न मारू ॥
निठुर होइ जिउ बधसि परावा । हत्या केर न तोहि डर आवा ॥
कहसि पंखि का दोस जनावा । निठुर तेइ जे परमँस खावा ॥
आवहिं रोइ, जात पुनि रोना । तबहुँ न तजहिं भोग सुख सोना ॥
औ जानहिं तन होइहि नासू । पोखैं माँसु पराये माँसू ॥
जौ न होंहिं अस परमँस-खाधू ।कित पंखिन्ह कहँ धरै बियाधू?॥
जो व्याधा नित पंखिन्ह धरई । सो बेचत मन लोभ न करई ॥

बाम्हन सुआ वेसाहा सुनि मति बेद गरंथ ।
मिला आइ कै साथिन्ह, भा चितउर के पंथ ॥5॥

तब लगि चित्रसेन सर साजा । रतनसेन चितउर भा राजा ॥
आइ बात तेहि आगे चली । राजा बनिज आए सिंघली ॥
हैं गजमोति भरी सब सीपी । और वस्तु बहु सिंघल दीपी ॥
बाम्हन एक सुआ लेइ आवा । कंचन-बरन अनूप सोहावा ॥
राते स्याम कंठ दुइ काँठा । राते डहन लिखा सब पाठा ॥
औ दुइ नयन सुहावन राता । राते ठोर अमी-रस बाता ॥
मस्तक टीका, काँध जनेऊ । कवि बियास, पंडित सहदेऊ ॥

बोल अरथ सौं बोलै, सुनत सीस सब डोल ।
राज-मंदिर महँ चाहिय अस वह सुआ अमोल ॥6॥

(सर साजा=चिता पर चढ़ा;मर गया)

भै रजाइ जन दस दौराए । बाम्हन सुआ बेगि लेइ आए ॥
बिप्र असीस बिनति औधारा । सुआ जीउ नहिं करौं निनारा ॥
मैं यह पेट महा बिसवासी । जेइ सब नाव तपा सन्यासी ॥
डासन सेज जहाँ किछु नाहीं । भुइँ परि रहै लाइ गिउ बाही ॥
आँधर रहे , जो देख न नैना । गूँग रहै, मुख आव न बैना ॥
बहिर रहै, जो स्रवन न सुना । पै यह पेट न रह निरगुना ॥
कै कै फेरा निति यह दोखी । बारहिं बार फिरै, न सँतोखी ॥

सो मोहिं लेइ मँगावै लावै भूख पियास ।
जौ न होत अस बैरी केहु कै आस ॥7॥

(बिसवासी=विश्वासघाती, नाव=नवाता है,नम्र करता है,
न रह निरगुना=अपने गुण या क्रिया के बिना नहीं रहता,
बारहिं बार=द्वार-द्वार)

सुआ असीस दीन्ह बड़ साजू । बड़ परताप अखंडित राजू ।
भागवंत बिधि बड़ औतारा । जहाँ भाग तहँ रूप जोहारा ॥
कोइ केहु पास आस कै गौना । जो निरास डिढ़ आसन मौना ॥
कोइ बिनु पूछे बोल जो बोला । होइ बोल माटी के मोला ॥
पढ़ि गुनि जानि वेद-मति भेऊ । पूछे बात कहैं सहदेऊ ॥
गुनी न कोई आपु सराहा । जो बिकाइ, गुन कहा सो चाहा ॥
जौ लगि गुन परगट नहिं होई । तौ लहि मरम न जानै कोई ॥

चतुरवेद हौं पंडित, हीरामन मोहिं नावँ ।
पदमावति सौं मेरवौं, सेव करौं तेहि ठावँ ॥8॥

(डिढ़=दृढ़, मेरवाँ=मिलाऊँ)

रतनसेन हीरामन चीन्हा । एक लाख बाम्हन कहँ दीन्हा ॥
बिप्र असीसि जो कीन्ह पयाना । सुआ सो राजमंदिर महँ आना ॥
बरनौं काह सुआ कै भाखा । धनि सो नावँ हीरामन राखा ॥
जो बोलै राजा मुख जोवा । जानौ मोतिन हार परोवा ॥
जौ बोलै तौ मानिक मूँगा । नाहिं त मौन बाँध रह गूँगा ॥
मनहुँ मारि मुख अमृत मेला । गुरु होइ आप, कीन्ह जग चेला ॥
सुरुज चअँद कै कथा जो कहेऊ । पेम क कहनि लाइ गहेऊ ॥

जौ जौ सुनै धुनै सिर, राजहिं प्रीति अगाहु ।
अस, गुनवंता नाहिं भल, बाउर करिहै काहु ॥9॥

(बाउर=बावला,पगला)

8. नागमती-सुवा-संवाद-खंड

दिन दस पाँच तहाँ जो भए । राजा कतहुँ अहेरै गए ॥
नागमती रूपवंती रानी । सब रनिवास पाट-परधानी ॥
कै सिंगार कर दरपन लीन्हा । दरसन देखि गरब जिउ कीन्हा ॥
बोलहु सुआ पियारे-नाहाँ । मोरे रूप कोइ जग माहाँ?॥
हँसत सुआ पहँ आइ सो नारी । दीन्ह कसौटी ओपनिवारी ॥
सुआ बानि कसि कहु कस सोना । सिंघलदीप तोर कस लोना?॥
कौन रुप तोरी रुपमनी । दहुँ हौं लोनि, कि वै पदमिनी?॥

जो न कहसि सत सुअटा तेहि राजा कै आन ।
है कोई एहि जगत महँ मोरे रूप समान ॥1॥

(ओपनिवारी=चमकानेवाली, बानि=वर्ण, कसि=कसौटी
पर कसकर, लोनी=लावण्यमयी,सुंदरी, आन=शपथ,कसम)

सुमिरि रूप पदमावति केरा । हँसा सुआ, रानी मुख हेरा ॥
जेहि सरवर महँ हंस न आवा । बगुला तेहि सरस हंस कहावा ॥
दई कीन्ह अस जगत अनूपा । एक एक तें आगरि रूपा ॥
कै मन गरब न छाजा काहू । चाँद घटा औ लागेउ राहू ॥
लोनि बिलोनि तहाँ को कहै । लोनी सोई कंत जेहि चहै ॥
का पूछहु सिंघल कै नारी । दिनहिं न पूजै निसि अँधियारी ॥
पुहुप सुवास सो तिन्ह कै काया । जहाँ माथ का बरनौं पाया?॥

गढ़ी सो सोने सोंधे, भरी सो रूपै भाग ।
सुनत रूखि भइ रानी, हिये लोन अस लाग ॥2॥

(सौंधे=सुगंध से)

जौ यह सुआ मँदिर महँ अहई । कबहुँ बात राजा सौं कहई ॥
सुनि राजा पुनि होइ वियोगी । छाँड़ै राज, चलै होइ जोगी ॥
बिख राखिय नहिं, होइ अँकूरू । सबद न देइ भोर तमचूरू ॥
धाय दामिनी बेगि हँकारी । ओहि सौंपा हीये रिस भारी ॥
देखु सुआ यह है मँदचाला । भएउ न ताकर जाकर पाला ॥
मुख कह आन, पेट बस आना । तेहि औगुन दस हाट बिकाना ॥
पंखि न राखिय होइ कुभाखी । लेइ तहँ मारू जहाँ नहिं साखी ॥

जेहि दिन कहँ मैं डरति हौं, रैनि छपावौं सूर ।
लै चह-दीन्ह कवँल कहँ, मोकहँ होइ मयूर ॥3॥

(तमचूर=ताम्रचूड,मुर्गा, धाय=दाई,धात्री, दामिनी=दासी
का नाम, मयूर=मोर,मोर नाग का शत्रु है, नागमती के
वाक्य से शुक के शत्रु होने की ध्वनि निकलती है,
`कमल' में पद्मावती की ध्वनि है)

धाय सुआ लेइ मारै गई । समुझि गियान हिये मति भई ॥
सुआ सो राजा कर बिसरामी । मारि न जाइ चहै जेहि स्वामी ॥
यह पंडित खंडित बैरागू । दोष ताहि जेहि सूझ न आगू ॥
जो तिरिया के काज न जाना । परै धोख, पाछे पछिताना ॥
नागमति नागिनि-बुधि ताऊ । सुआ मयूर होइ नहिं काऊ ॥
जौ न कंत के आयसु माहीं । कौन भरोस नारि कै वाही?॥
मकु यह खोज निसि आए । तुरय-रोग हरि-माथे जाए ॥

दुइ सो छपाए ना छपै एक हत्या एक पाप ।
अंतहि करहिं बिनास लेइ, सेइ साखी देइँ आप ॥4॥

(बिसरामी=मनोरंजन की वस्तु, खंडित बैरागू=बैराग्य
में चूक गया,इससे तोते का जन्म पाया, काऊ=कभी,
मकु=शायद,कदाचित, तुरय=तुरग,घोड़ा, ताऊ=उसकी,
हरि=बंदर, तुरय...जाए=कहते हैं कि घुड़साल में बंदर
रखने से घोड़े नीरोग रहते हैं, उनका रोग बंदर पर
जाता है, सेइ=वे ही,हत्या और पाप ही)

राखा सुआ, धाय मति साजा । भएउ कौज निसि आएउ राजा ॥
रानी उतर मान सौं दीन्हा । पंडित सुआ मजारी लीन्हा ॥
मैं पूछा सिंघल पदमिनी । उतर दीन्ह तुम्ह, को नागिनी?॥
वह जस दिन, तुम निसि अँधियारी । कहाँ बसंत; करील क बारी ॥
का तोर पुरुष रैनि कर राऊ । उलू न जान दिवस कर भाऊ ॥
का वह पंखि कूट मुँह कूटे । अस बड़ बोल जीभ मुख छोटे ॥
जहर चुवै जो जो कह बाता । अस हतियार लिए मुख राता ॥

माथे नहिं बैसारिय जौ सुठि सुआ सलोन ।
कान टुटैं जेहि पहिरे का लेइ करब सो सोन?॥5॥

(कूट=कालकूट,विष, कूटे=कूट कूटकर भरे हुए,
बैसारिये=बैठाइए)

राजै सुनि वियोग तस माना । जैसे हिय विक्रम पछिताना ॥
बह हीरामन पंडित सूआ । जो बोलै मुख अमृत चूआ ॥
पंडित तुम्ह खंडित निरदोखा । पंडित हुतें परै नहिं धोखा ॥
पंडित केरि जीभ मुख सूधी । पंडित बात न कहै बिरूधी ॥
पंडित सुमति देइ पथ लावा । जो कुपंथि तेहि पँडित न भावा ॥
पंडित राता बदन सरेखा । जो हत्यार रुहिर सो देखा ॥
की परान घट आनहु मती। की चलि होहु सुआ सँग सती ॥

जिनि जानहु कै औगुन मँदिर सोइ सुखराज ।
आयसु मेटें कंत कर काकर भा न अकाज?॥6॥

(तुम्ह खंडित=तुमने खंडित या नष्ट किया, सरेख=सज्ञान,
चतुर, मती=विचार करके)

चाँद जैस धनि उजियारि अही । भा पिउ-रोस, गहन अस गही ॥
परम सोहाग निबाहि न पारी । भा दोहाग सेवा जब हारी ॥
एतनिक दोस बिरचि पिउ रूठा । जो पिउ आपन कहै सो झूठा ॥
ऐसे गरब न भूलै कोई । जेहि डर बहुत पियारी सोई ॥
रानी आइ धाय के पासा । सुआ मुआ सेवँर कै आसा ॥
परा प्रीति-कंचन महँ सीसा । बिहरि न मिलै, स्याम पै दीसा ॥
कहाँ सोनार पास जेहि जाऊँ । देइ सोहाग करै एक ठाऊँ ॥

मैं पिउ -प्रीति भरोसे गरब कीन्ह जिउ माँह ।
तेहि रिस हौं परहेली, रूसेउ नागर नाहँ ॥7॥

(दोहाग=दुर्भाग्य, विरचि=अनुरक्त होकर, देइ सोहाग=
(क) सौभाग्य, (ख) सोहागा दे, परहेली=अवहेलना की,
बेपरवाही की)

उतर धाय तब दीन्ह रिसाई । रिस आपुहि, बुधि औरहि खाई ॥
मैं जो कहा रिस जिनि करु बाला । को न गयउ एहि रिस कर घाला?॥
तू रिसभरी न देखेसि आगू । रिस महँ काकर भयउ सोहागू?॥
जेहि रिस तेहि रस जोगे न जाई । बिनु रस हरदि होइ पियराई ॥
बिरसि बिरोध रिसहि पै होई । रिस मारै, तेहि मार न कोई ॥
जेहि रिस कै मरिए, रस जीजै । सो रस तजि रिस कबहुँ न कीजै ॥
कंत-सोहाग कि पाइय साधा । पावै सोइ जो ओहि चित बाँधा ॥

रहै जो पिय के आयसु औ बरतै होइ हीन ।
सोइ चाँद अस निरमल, जनम न होइ मलीन ॥8॥

(आगू=आगम,परिणाम, जोग न जाई=रक्षा नहीं किया
जाता, बिरस=अनबन, साधा=साध या लालसा मात्र से,
हीन=दीन,नम्र)

जुआ-हारि समुझी मन रानी । सुआ दीन्ह राजा कहुँ आनी ॥
मानु पीय! हौं गरब न कीन्हा । कंत तुम्हार मरम मैं लीन्हा ॥
सेवा करै जो बरहौ मासा । एतनिक औगुन करहु बिनासा ॥
जौं तुम्ह देइ नाइ कै गीवा । छाँड़हुँ नहिं बिनु मारे जीवा ॥
मिलतहु महँ जनु अहौ निनारे । तुम्ह सौं अहै अदेस, पियारे!॥
मैं जानेउँ तुम्ह मोही माहाँ । देखौं ताकि तौ हौ सब पाहाँ ॥
का रानी, का चेरी कोई । जा कहँ मया करहु भल सोई ॥

तुम्ह सौं कोइ न जीता, हारे बररुचि भोज ।
पहिलै आपु जो खोवै करै तुम्हार सो खोज ॥9॥

9. राजा-सुआ-संवाद-खंड

राजै कहा सत्य कहु सूआ । बिनु सत जन सेंवर कर भूआ ॥
होइ मुख रात सत्य के बाता । जहाँ सत्य तहँ धरम सँघाता ॥
बाँधी सिहिटि अहै सत केरी । लछिमी अहै सत्य कै चेरी ॥
सत्य जहाँ साहस सिधि पावा । औ सतबादी पुरुष कहावा ॥
सत कहँ सती सँवारे सरा । आगि लाइ चहुँ दिसि सत जरा ॥
दुइ जग तरा सत्य जेइ राखा । और पियार दइहि सत भाखा ॥
सो सत छाँड़ि जो धरम बिनासा । भा मतिहीन धरम करि नासा ॥

तुम्ह सयान औ पंडित, असत न भाखौं काउ ।
सत्य कहहु तुम मोसौं, दुहुँ काकर अनियाउ ॥1॥

(भूआ=सेमल की रूई, मुख रात होई=सुर्खरू होता है, सरा=चिता)

सत्य कहत राजा जिउ जाऊ । पै मुख असत न भाखौं काऊ ॥
हौं सत लेइ निसरेउँ एहि बूते । सिंघलदीप राजघर हूँते ॥
पदमावति राजा कै बारी । पदुम-गंध ससि बिधि औतारी ॥
ससि मुख, अंग मलयगिरि रानी । कनक सुगंध दुआदस बानी ॥
अहैं जो पदमिनि सिंघल माहाँ । सुगँध रूप सब तिन्हकै छाहाँ ॥
हीरामन हौं तेहिक परेवा । कंठा फूट करत तेहि सेवा ॥
औ पाएउँ मानुष कै भाषा । नाहिं त पंखि मूठि भर पाँखा ॥

जौ लहि जिऔं रात दिन सँवरौं ओहि कर नावँ ।
मुख राता, तत हरियर दुहूँ जगत लेइ जावँ ॥2॥

(घर हूँते=घर से, दुवादस बानी=बारह बानी,चोखा, कंठा फूट=
गले में कंठे की लकीर प्रकट हुई,सयाना हुआ)

हीरामन जो कवँल बखाना । सुनि राजा होइ भँवर भुलाना ॥
आगे आव, पंखि उजियारा । कहँ सो दीप पतँग कै मारा ॥
अहा जो कनक सुबासित ठाऊँ । कस न होइ हीरामन नाऊँ ॥
को राजा, कस दीप उतंगू । जेहि रे सुनत मन भएउ पतंगू ॥
सुनि समिद्र भा चख किलकिला । कवँलहि चहौं भँवर होइ मिला ॥
कहु सुगंध धनि कस निरमली । भा अलि-संग, कि अबहीं कली?॥
औ कहु तहँ जहँ पदमिनी लोनी । घर-घर सब के होइ जो होनी ॥

सबै बखान तहाँ कर कहत सो मोसौं आव ।
चहौं दीप वह देखा,सुनत उठा अस चाव ॥3॥

(पतंग कै मारा=जिसने पतंग बनाकर मारा, उतंगू=ऊँचा,
किलकिला=जल के ऊपर मछली के लिये मँडराने वाला
एक जलपक्षी, होनी=बात,ब्यवहार)

का राजा हौं बरनौं तासू । सिंघलदीप आहि कैलासू ॥
जो गा तहाँ भुलाना सोई । गा जुग बीति न बहुरा कोई ॥
घर घर पदमिनि छतिसौ जाती ।सदा बसंत दिवस औ राती ॥
जेहि जेहि बरन फूल फुलवारी । तेहि तेहि बरन सुगंध सो नारी ॥
गंध्रबसेन तहाँ बड़ राजा । अछरिन्ह महँ इंद्रासन साजा ॥
सो पदमावति तेहि कर बारी । जो सब दीप माँह उजियारी ॥
चहूँ खंड के बर जो ओनाही । गरबहि राजा बोलै नाहीं ॥
उअत खंड के बर जो ओनाही । गरबहि राजा बोलै नाहीं ॥

उअत सूर जस देखिय चाँद छपै तेहि धूप ।
ऐसे सबे जाहिं छपि पदमावति के रूप ॥4॥

(अछरी=अप्सरा, ओनाहीं=झुकते हैं)

सुनि रवि-नावँ रतन भा राता । पंडित फेरि उहै कहु बाता ॥
तें सुरंग मूरत वह कही । चित महँ लागि चित्र होइ रही ॥
जनु होइ सुरुज आइ मन बसी । सब घट पूरि हिये परगसी ॥
अब हौं सुरुज, चाँद वह छाया । जल बिनुमीन, रकत बिनु काया ॥
किरिन-करा भा प्रेम -अँकूरू । जौ ससि सरग, मिलौं होइ सूरू ॥
सहसौ करा रूप मन भूला । जहँ जहँ दीठ कवँल जनु फूला ॥
तहाँ भवँर जिउ कँवला गंधी । भइ ससि राहु केरि रिनि बंधी ॥

तीनि लोक चौदह खंड सबै परै मोहिं सूझि ।
पेम छाँड़ि नहिं लोन किछु, जो देखा मन बूझि ॥5॥

(करा=कला, लोन=सुंदर)

पेम सुनत मन भूल न राजा । कठिन पेम, सिर देइ तौ छाजा ॥
पेम-फाँद जो परा न छूटा । जीउ दीन्ह पै फाँद न टूटा ॥
गिरगिट छंद धरै दुख तेता । खन खन पीत, रात खन सेता ॥
जान पुछार जो भा बनबासी । रोंव रोंव परे फँद नगवासी ॥
पाँखन्ह फिरि फिरि परा सो फाँदू । उड़ि न सकै, अरुझा भा बाँदू ॥
`मुयों मुयों' अहनिसि चिल्लाई । ओही रोस नागन्ह धै खाई ॥
पंडुक, सुआ, कंक वह चीन्हा । जेहिं गिउ परा चाहि जिउ दीन्हा ॥

तितिर-गिउ जो फाँद है, नित्ति पुकारै दोख ।
सो कित हँकार फाँद गिउ (मेलै) कित मारे होइ मोख ॥6॥

(छंद=रूप रचना, पुछार=मयूर,मोर, नगवासी=नागों
का फंदा,नागपाश, धै=धरकर, चीन्हा=चिह्न,लकीर)

राजै लीन्ह ऊबि कै साँसा । ऐस बोल जिनि बोलु निरासा ॥
भलेहि पेम है कठिन दुहेला । दुइ जग तरा पेम जेइ खेला ॥
दुख भीतर जो पेम-मधु राखा । जग नहिं मरन सहै जो चाखा ॥
जो नहिं सीस पेम-पथ लावा । सो प्रिथिमी महँ काहे क आवा? ॥
अब मैं पंथ पेम सिर मेला । पाँव न ठेलु, राखु कै चेला ॥
पेम -बार सो कहै जो देखा । जो न देख का जान विसेखा?॥
तौ लगि दुख पीतम नहिं भेंटा । मिलै, तौ जाइ जनम-दुख मेटा ॥

जस अनूप, तू बरनेसि, नखसिख बरनु सिंगार ।
है मोहिं आस मिलै कै, जौ मेरवै करतार ॥7॥

(ऊबि कै साँस लीन्ह=लंबी साँस ली, दुहेला=कठिन खेल,
पाँव न ठेलु=पैर से न ठुकरा,तिरस्कार न कर, बिसेखा=मर्म)

10. नखशिख खंड

का सिंगार ओहि बरनौं, राजा । ओहिक सिंगार ओहि पै छाजा ॥
प्रथम सीस कस्तूरी केसा । बलि बासुकि, का और नरेसा ॥
भौंर केस, वह मालति रानी । बिसहर लुरे लेहिं अरघानी ॥
बेनी छोरि झार जौं बारा । सरग पतार होइ अँधियारा ॥
कोंपर कुटिल केस नग कारे । लहरन्हि भरे भुअंग बैसारे ॥
बेधे जनों मलयगिरि बासा । सीस चढ़े लोटहिं चहँ पासा ॥
घुँघरवार अलकै विषभरी । सँकरैं पेम चहैं गिउ परी ॥

अस फदवार केस वै परा सीस गिउ फाँद ।
अस्टौ कुरी नाग सब अरुझ केस के बाँद ॥1॥

(सँकरैं=श्रृंखला,जंजीर, फँदवार=फंद में फँसानेवाले, बलि=
निछावर हैं, लूरे=लुढँते या लहरते हुए, अरघानि=महँक,
आघ्राण, अस्टकुरी=अष्टकुलनाग (ये हैं:- वासुकि, तक्षक,
कुलक, कर्कोटक, पद्म, शंखचूड़, महापद्म, धनंजय)

बरनौं माँग सीस उपराहीं । सेंदुर अबहिं चढ़ा जेहि नाहीं ॥
बिनु सेंदुर अस जानहु दीआ । उजियर पंथ रैनि महँ कीआ ॥
कंचन रेख कसौटी कसी । जनु घन महँ दामिनि परगसी ॥
सरु-किरिन जनु गगन बिसेखी । जमुना माँह सुरसती देखी ॥
खाँडै धार रुहिर नु भरा । करवत लेइ बेनी पर धरा ॥
तेहि पर पूरि धरे जो मोती । जमुना माँझ गंग कै सोती ॥
करवत तपा लेहिं होइ चूरू । मकु सो रुहिर लेइ देइ सेंदूरू ॥

कनक दुवासन बानि होइ चह सोहाग वह माँग ।
सेवा करहिं नखत सब उवै गगन जस गाँग ॥2॥

(उपराहीं=ऊपर, रुहिर=रुधिर, करवत=कर-पत्र,कुछ लोग
त्रिवेणी संगम पर अपना शरीर आरे से चिरवाते थे, इसी
को करवट लेन कहते थे । काशी में भी एक स्थान था
जिसे काशी करवट कहते हैं, तपा=तपस्वी, सोहाग=
सौभाग्य,सोहागा)

कहौं लिलार दुइज कै जोती । दुइजन जोति कहाँ जग ओती ॥
सहस किरिन जो सुरुज दिपाई । देखि लिलार सोउ छपि जाई ॥
का सरवर तेहि देउँ मयंकू । चाँद कलंकी, वह निकलंकू ॥
औ चाँदहि पुनि राहु गरासा । वह बिनु राहु सदा परगासा ॥
तेहि लिलार पर तलक बईठा । दुइज-पाट जानहु ध्रुव दीठा ॥
कनक-पाट जनु बैठा राजा । सबै सिंगार अत्र लेइ साजा ॥
ओहि आगे थिर रहा न कोऊ । दहुँ का कहँ अस जुरै सँजोगू ॥

खरग, धनुक, चक बान दुइ, जग-मारन तिन्ह नावँ ।
सुनि कै परा मुरुछि कै (राजा) मोकहँ हए कुठावँ ॥3॥

(ओती=उतनी, अत्र=अस्त्र, हए=हतें,मारा)

भौहैं स्याम धनुक जनु ताना । जा सहुँ हेर मार विष-बाना ॥
हनै धुनै उन्ह भौंहनि चढ़े । केइ हतियार काल अस गढ़े?॥
उहै धनुक किरसुन पर अहा । उहै धनुक राघौ कर गहा ॥
ओहि धनुक रावन संघारा । ओहि धनुक कंसासुर मारा ॥
ओहि धनुक बैधा हुत राहू । मारा ओहि सहस्राबाहू ॥
उहै धनुक मैं थापहँ चीन्हा । धानुक आप बेझ जग कीन्हा ॥
उन्ह भौंहनि सरि केउ न जीता । अछरी छपीं, छपीं गोपीता ॥

भौंह धनुक, धनि धानुक, दूसर सरि न कराइ ।
गगन धनुक जो ऊगै लाजहि सो छपि जाइ ॥4॥

(सहुँ=सामने, हुत=था, बेझ=बेध्य,बेझा,निसाना)

नैन बाँक,सरि पूज न कोऊ । मानसरोदक उथलहिं दोऊ ॥
राते कँवल करहिं अलि भवाँ । घूमहिं माति चहहिं अपसवाँ ॥
उठहि तुरंग लेहिं नहिं बागा । चहहिं उलथि गगन कइँ लागा ॥
पवन झकोरहिं देइ हिलोरा । सरग लाइ भुइँ लाइ बहोरा ॥
जग डोलै डोलत नैनाहाँ । उलटि अडार जाहिं पल माहाँ ॥
जबहिं फिराहिं गगन गहि बोरा । अस वै भौंर चक्र के जोरा ॥
समुद-हिलोर फिरहिं जनु झूले । खंजन लरहिं, मिरिग जनु भूले ॥

सुभर सरोवर नयन वै, मानिक भरे तरंग ।
आवत तीर फिरावहीं काल भौंर तेहिं संग ॥5॥

(उलथहिं=उछलते हैं, भवाँ=फेरा,चक्कर, अपसवाँ चहहिं=
जाना चाहते हैं,उड़कर भागना चाहते हैं)

बरुनी का बरनौ इमि बनी । साधे बान जानु दुइ अनी ॥
जुरी राम रावन कै सेना ।बीच समुद्र भए दुइ नैना ॥
बारहिं पार बनावरि साधा । जा सहुँ हेर लाग विष-बाधा ॥
उन्ह बानन्ह अस को जो न मारा?। बेधि रहा सगरौ संसारा ॥
गगन नखत जो जाहिं न गने । वै सब बान ओही के हने ॥
धरती बान बेधि सब राखी । साखी ठाढ़ देहिं सब साखी ॥
रोवँ रोवँ मानुष तन ठाढ़े । सूतहि सूत बेध अस गाढ़े ॥

बरुनि-बान अस ओपहँ, बेधे रन बन-ढ़ाँख ।
सौजहिं तन सब रोवाँ, पंखहि तन सब पाँख ॥6॥

(उलटि....पल माहा=बड़े बड़े अड़नेवाले या स्थिर रहनेवाले
पल भर में उलट जाते हैं, फिरावहीं=चक्कर देते हैं, अनी=सेना,
बनावरिं=बाणावलि,तीरों की पंक्ति, साखी=साक्ष्य,गवाही, रन=
अरण्य)

नासिक खरग देउँ कह जोगू । खरग खीन, वह बदन-सँजोगू ॥
नासिक देखि लजानेउ सूआ । सूक अइ बेसरि होइ ऊआ ॥
सुआ जो पिअर हिरामन लाजा । और भाव का बरनौं राजा ॥
सुआ, सो नाक कठोर पँवारी । वह कोंवर तिल-पुहुप सँवारी ॥
पुहुप सुगंध करहिं एहि आसा । मकु हिरकाइ लेइ हम्ह पासा ॥
अधर दसन पर नासिक सोभा । दारिउँ बिंब देखि सुक लोभा ॥
खंजन दुहुँ दिसि केलि कराही । दहुँ वह रस कोउ पाव कि नाहीं ॥

देखि अमिय-रस अधरन्ह भएउ नासिका कीर ।
पौन बास पहुँचावै, अस रम छाँड़ न तीर ॥7॥

(जोगु देउँ=जोड़ मिलाउँ,समता में रखूँ, पँवारी=लोहारों का
एक औजार जिससे लोहे में छेद करते हैं, हिरकाइ लेइ=
पास सटा ले)

अधर सुरंग अमी-रस-भरे । बिंब सुरंग लाजि बन फरे ॥
फूल दुपहरी जानौं राता । फूल झरहिं ज्यों ज्यों कह बाता ॥
हीरा लेइ सो विद्रुम-धारा । बिहँसत जगत होइ उजियारा ॥
भए मँझीठ पानन्ह रँग लागे । कुसुम -रंग थिर रहै न आगे ॥
अस कै अधर अमी भरि राखे । अबहिं अछूत, न काहू चाखे ॥
मुख तँबोल-रँग-धारहि रसा । केहि मुख जोग जो अमृत बसा?॥
राता जगत देखि रँगराती । रुहिर भरे आछहि बिहँसाती ॥

अमी अधर अस राजा सब जग आस करेइ ।
केहि कहँ कवँल बिगासा, को मधुकर रस लेइ?॥8॥

(हीरा लेइ...उजियारा=दाँतों की स्वेत और अधरों की अरुण
ज्योति के प्रसार से जगत में उजाला होना, कहकर कवि ने
उषा या अरुणोदय का बड़ा सुन्दर गूढ़ संकेत रखा है, मजीठ=
बहुत गहरा मजीठ के रंगका लाल, धार=खड़ी रेखा)

दसन चौक बैठे जनु हीरा । औ बिच बिच रंग स्याम गँभीरा ॥
जस भादौं-निसि दामिनि दीसी । चमकि उठै तस बनी बतीसी ॥
वह सुजोति हीरा उपराहीं । हीरा-जाति सो तेहि परछाहीं ॥
जेहि दिन दसनजोति निरमई । बहुतै जोति जोति ओहि भई ॥
रवि ससि नखत दिपहिं ओहि जोती । रतन पदारथ मानिक मोती ॥
जहँ जहँ बिहँसि सुभावहि हँसी । तहँ तहँ छिटकि जोति परगसी ॥
दामिनि दमकि न सरवरि पूजी । पुनि ओहि जोति और को दूजी?॥

हँसत दसन अस चमके पाहन उठे झरक्कि ।
दारिउँ सरि जो न कै सका , फाटेउ हिया दरक्कि ॥9॥

(चौक=आगे के चार दाँत, पाहन=पत्थर, हीरा, झरक्कि उठे=
झलक गए,अनेक प्रकार के रत्नों के रूप में हो गए)

रसना कहौं जो कह रस बाता । अमृत-बैन सुनत मन राता ॥
हरै सो सुर चातक कोकिला । बिनुबसंत यह बैन न मिला ॥
चातक कोकिल रहहिं जो नाहीं । सुहि वह बैन लाज छपि जाहीं ॥
भरे प्रेम-रस बोलै बोला । सुनै सो माति घूमि कै डोला ॥
चतुरवेद-मत सब ओहि पाहाँ । रिग,जजु, सअम अथरबन माहाँ ॥
एक एक बोल अरथ चौगुना । इंद्र मोह, बरम्हा सिर धुना ॥
अमर, भागवत, पिंगल गीता । अरथ बूझि पंडित नही जीता ॥

भासवती औ ब्याकरन, पिंगल पढ़ै पुरान ।
बेद-भेद सौं बात कह, सुजनन्ह लागै बान ॥10॥

(अमर=अमरकोश, भासवती=भास्वती नामक ज्योतिष का
ग्रंथ, सुजनन्ह=सुजानों या चतुरों को)

पुनि बरनौं का सुरंग कपोला । एक नारँग दुइ किए अमोला ॥
पुहुप-पंक रस अमृत साँधे । केइ यह सुरँग खरौरा बाँधे?॥
तेहि कपोल बाएँ तिल परा । जेइ तिल देखि सो तिल तिल जरा ॥
जनु घुँघची ओहि तिल करमुहीं । बिरह-बान साधे सामुहीं ॥
अगिनि-बान जानौ तिल सूझा । एक कटाछ लाख दस झूझा ॥
सो तिल गाल नहिं गएऊ । अब वह गाल काल जग भएऊ ॥
देखत नैन परी परिछाहीं । तेहि तें रात साम उपराहीं ॥

सो तिल देखि कपोल पर गगन रहा धुव गाड़ि ।
खिनहिं उठै खिन बूड़ै, डोलै नहिं तिल छाँड़ि ॥11॥

(साँधे=साने,गूँधे, खरौरा=खाँड के लड्डू,खँडौरा, घुँघची=गुँजा,
करमुँहा=काले मुँहवाला)

स्रवन सीप दुइ दीप सँवारे । कुँडल कनक रचे उजियारे ॥
मनि-मंडल झलकैं अति लोने । जनु कौंधा लौकहि दुइ कोने ॥
दुहुँ दिसि चाँद सुरुज चमकाहीं । नखतन्ह भरे निरखि नहिं जाहीं ॥
तेहि पर खूँट दीप दुइ बारे । दुइ धुव दुऔ खूँट बैसारे ॥
पहिरे खुंभी सिंगलदीपी । जनौं भरी कचपचिआ सीपी ॥
खिन खिन जबहि चीर सिर गहै । काँपति बीजु दुऔ दिसि रहै ॥
डरपहिं देवलोक सिंघला । परै न बीजु टूटि एक कला ॥

करहिं नखत सब सेवा स्रवन दीन्ह अस दोउ ।
चाँद सुरुज अस गोहने और जगत का कोउ?॥12॥

(लौकहिं=चमकती है,दिखाई पड़ती है, खूँट=कान का एक
गहना, खूँट=कोने, खुंभी=कान का एक गहना, कचपचिया=
कृतिका नक्षत्र जिसमें बहुत से तारे एक गुच्छे में दिखाई
पड़ते हैं, गोहने=साथ में,सेवा में)

बरनौं गीउ कंबु कै रीसी । कंचन-तार-लागि जनु सीसी ॥
कुंदै फेरि जानु गिउ काढ़ी । हरी पुछार ठगी जनु ठाढ़ी ॥
जनु हिय काढ़ि परवा ठाढ़ा । तेहि तै अधिक भाव गिउ बाढ़ा ॥
चाक चढ़ाइ साँच जनु कीन्हा । बाग तुरंग जानु गहि लीन्हा ॥
गए मयूर तमचूर जो हारे । उहै पुकारहिं साँझ सकारे ॥
पुनि तेहि ठाँव परी तिनि रेखा । घूँट जो पीक लीक सब देखा ॥
धनि ओहि गीउ दीन्ह बिधि भाऊ । दहुँ कासौं लेइ करै मेराऊ ॥

कंटसिरी मुकुतावली सोहै अभरन गीउ ।
लागै कंठहार होइ को तप साधा जीउ?॥13॥

(कंबु=शंख, रीसी=ईर्ष्या (उत्पन्न करनेवाली ), कुंदै=खराद,
पुछार=मोर, साँच=साँचा, भाई=खराद पर घुमाई हुई)

कनक-दंड दुइ भुजा कलाई । जानौं फेरि कुँदेरै भाई ॥
कदलि-गाभ कै जानौ जोरी । औ राती ओहि कँवल-हथोरी ॥
जानो रकत हथोरी बूड़ी । रवि-परभात तात, वै जूड़ी ॥
हिया काढ़ि जनु लीन्हेसि हाथा । रुहिर भरी अँगुरी तेहि साथा ॥
औ पहिरे नग-जरी अँगूठी । जग बिनु जीउ,जीउ ओहि मूठी ॥
बाहूँ कंगन, टाड़ सलोनी । डोलत बाँह भाव गति लोनी ॥
जानौ गति बेड़िन देखराई । बाँह डोलाइ जीउ लेइ जाई ॥

भुज -उपमा पौंनार नहिं, खीन भयउ तेहि चिंत ।
ठाँवहि ठाँव बेध भा, ऊबि साँस लेइ निंत ॥14॥

(गाभ=नरम कल्ला, हथोरी=हथेली, तात=गरम, टाड़=
बाँह पर पहनने का एक गहना, बेड़िन=नाचने गानेवाली
एक जाति, पौंनार=पद्मनाल=कमल का डंठल, ठाँवहिं
ठाँव..निंत=कमलनाल में काँटे से होते हैं और वह सदा
पानी के ऊपर उठा रहता है)

हिया थार, कुच कंचन लारू । कनक कचौर उठे जनु चारू ॥
कुंदन बेल साजि जनु कूँदे । अमृत रतन मोन दुइ मूँदे ॥
बेधे भौंर कंट केतकी । चाहहिं बेध कीण्ह कंचुकी ॥
जोबन बान लेहिं नहिं बागा । चाहहिं हुलसि हिये हठ लागा ॥
अगिनि-बान दुइ जानौं साधे । जग बेधहिं जौं होहिं न बाँधे ॥
उतँग जँभीर होइ रखवारी । छुइ को सकै राजा कै बारी ॥
दारउँ दाख फरे अनचाखे । अस नारँग दहुँ का कहँ राखे ॥

राजा बहुत मुए तपि लाइ लाइ भुइँ माथ ।
काहू छुवै न पाए , गए मरोरत हाथ ॥15॥

(कचोर=कटोरे, कूँदे=खरादे हुए, मोन=मोना,पिटारा,डिब्बा,
बारी=(क) कन्या (ख) बगीचा)

पेट परत जनु चंदन लावा । कुहँकुहँ-केसर-बरन सुहावा ॥
खीर अहार न कर सुकुवाँरा । पान फूल के रहै अधारा ॥
साम भुअंगिनि रोमावली । नाभी निकसि कवँल कहँ चली ॥
आइ दुऔ नारँग बिच भई । देखि मयूर ठमकि रहि गई ॥
मनहुँ चढ़ी भौंरन्ह पाँती । चंदन-खाँभ बास कै माती ॥
की कालिंदी बिरह-सताई । चलि पयाग अरइल बिच आई ॥
नाभि-कुंड बिच बारानसी । सौंह को होइ, मीचु तहँ बसी ॥

सिर करवत, तन करसी बहुत सीझ तन आस ।
बहुत धूम घुटि घुटि मिए, उतर न देइ निरास ॥16॥

(अरइल=प्रयाग में वह स्थान जहाँ जमुना गंगा से मिलती है,
करवत=आरा, करसी=उपले या कंडे की आग जिसमें शरीर
सिझाना बड़ा तप समझा जाता था)

बैरिनि पीठि लीन्ह वह पाछे । जनु फिरि चली अपछरा काछे ॥
मलयागिरि कै पीठि सँवारी । बेनी नागिनि चढ़ी जो कारी ॥
लहरैं देति पीठि जनु चढ़ी । चीर ओहार केंचुली मढ़ी ॥
दहुँ का कहँ अस बेनी कीन्हीं । चंदन बास भुअंगै लीन्हीं ॥
किरसुन करा चढ़ा ओहि माथे । तब तौ छूट,अब छुटै न नाथे ॥
कारे कवँल गहे मुक देखा । ससि पाछे जनु राहु बिसेखा ॥
को देखै पावै वह नागू । सो देखै जेहि के सिर भागू ॥

पन्नग पंकज मुख गहे खंजन तहाँ बईठ ।
छत्र, सिंघासन, राज, धन ताकहँ होइ जो डीठ ॥17॥

(करा=कला से,अपने तेज से, कारे=साँप, पन्नग
पंकज....बईठ=सर्प के सिर या कमल पर बैठै खंजन
को देखने से राज्य मिलता है, ऐसा ज्योतिष में
लिखा है)

लंक पुहुमि अस आहि न काहू । केहरि कहौं न ओहि सरि ताहू ॥
बसा लंक बरनै जग झीनो । तेहि तें अधिक लंक वह खीनी ॥
परिहँस पियर भए तेहिं बसा । लिए डंक लोगन्ह कह डसा ॥
मानहुँ नाल खंड दुइ भए । दुहूँ बिच लंक-तार रहि गए ॥
हिय के मुरे चलै वह तागा । पैग देत कित सहि सक लागा?॥
छुद्रघंटिका मोहहिं राजा । इंद्र-अखाड़ आइ जनु बाजा ॥
मानहुँ बीन गहे कामिनी । गावहि सबै राग रागिनी ॥

सिंघ न जीता लंक सरि, हारि लीन्ह बनबासु ।
तेहि रिस मानुस-रकत पिय, खाइ मारि कै माँसु ॥18॥

(पुहुमि=पृथिवी, बसा=बरट, परिहँस=ईर्ष्या,डाह, मानहुँ
नाल.. ...गए=कमल के नाल को तोड़ने पर दोनों खंडों
के बीच महीन महीन सूत लगे रह जाते हैं तागा=सूत,
छुद्र-घंटिका=घुँघरूदार करधनी)

नाभिकुंड सो मयल-समीरू । समुद-भँवर जस भँवै गँभीरू ॥
बहुतै भँवर बवंडर भए । पहुँचि न सके सरग कहँ गए ॥
चंदन माँझ कुरंगिनी खोजू । दहुँ को पाउ , को राजा भोजू ॥
को ओहि लागि हिवंचल सीझा । का कहँ लिखी, ऐस को रीझा?॥
तीवइ कवँल सुगंध सरीरू । समुद-लहरि सोहै तन चीरू ॥
भूलहिं रतन पाट के झोंपा । साजि मैन अस का पर कोपा?॥
अबहिं सो अहैं कवँल कै करी । न जनौ कौन भौंर कहँ धरी ॥

बेधि रहा जग बासना परिमल मेद सुगंध ।
तेहि अरघानि भौंर सब लुबुधे तजहिं न बंध ॥19॥

(भँव=घूमता है, खोजू=खोज,खुर का पड़ा हुआ चिन्ह,
हिवंचल=हिमाचल, तीवह=स्त्री, समुद्र लहरि=लहरिया
कपड़ा, झोंपा=गुच्छा, अरघनि=आघ्राण,महक)

बरनौं नितंब लंक कै सोभा । औ गज-गवन देखि मन लोभा ॥
जुरे जंघ सोभा अति पाए । केरा-खंभ फेरि जनु लाए ॥
कवल-चरन अति रात बिसेखी । रहैं पाट पर, पुहुमि न देखी ॥
देवता हाथ हाथ पगु लेहिं । जहँ पगु धरै सीस तहँ देहीं ॥
माथे भाग कोउ अस पावा । चरन-कँवल लेइ सीस चढ़ावा ॥
चूरा चाँद सुरुज उजियारा । पायल बीच करहिं झनकारा ॥
अनवट बिछिया नखत तराई । पहुँचि सकै को पायँन ताईं ॥

बरनि सिंगार न जानेउँ नखसिख जैस अभोग ।
तस जग किछुइ न पाएउँ उपमा देउँ ओहि जोग ॥20॥

(फेरि=उलटकर, लाए=लगाए)

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