पद्मावत : मलिक मुहम्मद जायसी

Padmavat : Malik Muhammad Jayasi

23. राजा-गढ़-छेंका-खंड

सिधि-गुटिका राजै जब पावा । पुनि भइ सिद्धि गनेस मनावा ॥
जब संकर सिधि दीन्ह गुटेका । परी हुल, जोगिन्ह गढ़ छेंका ॥
सबैं पदमिनी देखहिं चढ़ी । सिंघल छेंकि उठा होइ मढ़ी ॥
जस घर भरे चोर मत कीन्हा । तेहि बिधि सेंधि चाह गढ़ दीन्हा ॥
गुपुत चोर जो रहै सो साँचा । परगट होइ जीउ नहिं बाँचा ॥
पोरि पौरि गढ़ लाग केवारा । औ राजा सौं भई पुकारा ॥
जोगी आइ छेंकि गढ़ मेला । न जनों कौन देस तें खेला ॥

भयउ रजायसु देखौ, को भिखारि अस ढीठ ।
बेगि बरज तेहि आवहु जन दुइ पठैं बसीठ ॥1॥

(परी हूल=कोलाहल हुआ, जस घर भरे...कीन्हा=जैसे भरे
घट में चोरी करने का विचार चोर ने किया हो, लाग=
लगे,भिड़ गए, खेला=विचरता हुआ आया, रजायसु=राजाज्ञा)

उतरि बसीठन्ह आइ जोहारे ।"की तुम जोगी, की बनिजारे ॥
भएउ रजायसु आगे खेलहिं । गढ़ तर छाँड़ि अनत होइ मेलहिं ॥
अस लागेहु केहि के सिख दीन्हे । आएहु मरे हाथ जिउ लीन्हे ॥
इहाँ इंद्र अस राजा तपा । जबहिं रिसाई सूर डरि छपा ॥
हौ बनिजार तौ बनिज बेसाहौ । भरि बैपार लेहु जो चाहौ ॥
हौ जोगी तौ जुगुति सौं माँगौं । भुगुति लेहु, लै मारग लागौ ॥
इहाँ देवता अस गए हारी । तुम्ह पतिंग को अहौ भिखारी ॥

तुम्ह जोगी बैरागी, कहत न मानहु कोहु ।
लेहु माँगि किछु भिच्छा, खेलि अनत कहुँ होहु" ॥2॥

(खेलहिं=बिचरें,जायँ, अस लागेहु=ऐसे काम में लगे, कोहु=क्रोध)

" आनु जो भीखि हौं आएउँ लेई । कस न लेउँ जौं राजा देई ॥
पदमावति राजा कै बारी । हौं जोगी ओहि लागि भिखारी ॥
खप्पर लेइ बार भा माँगौं । भुगुति देइ देइ मारग लागौं ॥
सोई भुगुति-परापति भूजा । कहाँ जाउँ अस बार न दूजा ॥
अब धर इहाँ जीउ ओहि ठाउँ । भसम होउँ बरु तजौं न नाऊँ ॥
जस बिनु प्रान पिंड है छँछा । धरम लाइ कहिहौं जो पूछा ॥
तुम्ह बसीठ राजा के ओरा । साखी होहु एहि भीख निहोरा ॥

जोगी बार आव सो जेहि भिच्छा कै आस ।
जो निरास दिढ़ आसन कित गौने केहु पास "?॥3॥

(आएउँ लेई=लेने आया हूँ, भूजा=मेरे लिये भोग है, धरम
लाइ=धर्म लिए हुए,सत्य सत्य, भीख निहोरा=भीख के
संबंध में,अथवा इसी भीख को मैं माँगता हूँ, निरासा=
आशा या कामना से रहित)

सुनि बसीठ मन उपनी रीसा । जौ पीसत घुन जाइहि पीसा ॥
जोगी अस कहुँ कहै न कोई । सो कहु बात जोग जो होई ॥
वह बड़ राज इंद्र कर पाटा । धरती परा सरग को चाटा?॥
जौं यह बात जाइ तहँ चली । छूटहिं अबहिं हस्ति सिंघली ॥
औं जौं छुटहि बज्र कर गोटा । बिसरिहि भुगुति, होइ सब रोटा ॥
जहँ केहु दिस्टि न जाइ पसारी । तहाँ पसारसि हाथ भिखारी ॥
आगे देखि पाँव धरु, नाथा । तहाँ न हेरु टूट जहँ माथा ॥

वह रानी तेहि जौग है जाहि राज औ पाटु ।
सुंदर जाइहि राजघर, जोगहि बाँदर काटु ॥4॥

(धरती परा...चाटा=धरती पर पड़ा हुआ, कौन स्वर्ग या
आकाश चाटता है? कहावत है=" रहै भूईं औ चाटै
बादर", गोटा=गोला, रोटा=दबकर गूँधे आँटे की बेली
रोटी के समान, बाँदर काटु=बंदर काटे,जोगी का बुरा हो)

जौं जोगी सत बाँदर काटा । एकै जोग, न दूसरि बाटा ॥
और साधना आवै साधे । जोग-साधना आपुहि दाधे ॥
सरि पहुँचाव जोगि कर साथू । दिस्टि चाहि अगमन होइ हाथू ॥
तुम्हरे जोर सिंघल के हाथी । हमरे हस्ति गुरू हैं साथी ॥
अस्ति नास्ति ओहि करत न बारा । परबत करै पाँव कै छारा ॥
जोर गिरे गढ़ जावत भए । जे गढ़ गरब करहिं ते नए ॥
अंत क चलना कोइ न चीन्हा । जो आवा सो आपन कीन्हा ॥

जोगिहि कोह न चाहिय, तस न मोहिं रिस लागि ।
जोग तंत ज्यौं पानी, काह करै तेहि आगि?॥5॥

(सत=सौ, सरि पहुँचाव=बराबर या ठिकाने पहुँचा देता है,
दिस्टि चाहि....हाथू=दृष्टि पहुँचने के पहले ही योगी का
हाथ पहुँच जाता है, चाहि=अपेक्षा,बनिस्बत, नए=नम्र हुए)

बसिठन्ह जाइ कही अस बाता । राजा सुनत कोह भा राता ॥
ठावहिं ठाँव कुँवर सब माखे । केइ अब लीन्ह जोग, केइ राखे?॥
अबहिं बेगहि करौ सँजोऊ । तस मारहु हत्या नहिं होऊ ॥
मंत्रिन्ह कहा रहौ मन बूझे । पति न होइ जोगिन्ह सौं जूझे ॥
ओहि मारे तौ काह भिखारी । लाज होइ जौं माना हारी ॥
ना भल मुए, न मारे मोखू । दुवौ बात लागै सम दोखू ॥
रहे देहु जौं गढ़ तर मेले । जोगी कित आछैं बिनु खेले?॥

आछे देहु जो गढ़ तरे, जनि चालहु यह बात ।
तहँ जो पाहन भख करहिं अस केहिके मुख दाँत ॥6॥

(सँजोऊ=समान, पति=बड़ाई,प्रतिष्ठा, जोगी....खेले=
योगी कहाँ रहते हैं बिना (और जगह) गए?)

गए बसीठ पुनि बहुरि न आए । राजै कहा बहुत दिन लाए ॥
न जनों सरग बात दहुँ काहा । काहु न आइ कही फिरि चाहा ॥
पंख न काया, पौन न पाया । केहि बिधि मिलौ होइ कै छाया?॥
सँवरि रकत नैनहिं भरि चूआ । रोइ हँकारेसि माझी सूआ ॥
परी जो आसु रकत कै टूटी । रेंगि चलीं जस बीर-बहूटी ॥
ओहि रकत लिखि दीन्ही पाती । सुआ जो लीन्ह चोंच भइ राती ॥
बाँधी कंठ परा जरि काँठा । बिरह क जरा जाइ कित नाठा?॥

मसि नैना, लिखनी बरुनि, रोइ रोइ लिखा अकत्थ ।
आखर दहै, न कोइ छुवै, दीन्ह परेवा हत्थ ॥7॥

(चाहा=चाह,खबर, माझी=मध्यस्थ, नाठा जाइ=नष्ट किया
या मिटाया जाता है, मसि=स्याही, लिखनी=लेखनी,कलम,
अकल्य=अकत्थ बात)

औ मुख बचन जो कहा परेवा । पहिले मोरि बहुत कहि सेवा ॥
पुनि रे सँवार कहेसि अस दूजी । जो बलि दीन्ह देवतन्ह पूजी ॥
सो अबहिं तुम्ह सेव न लागा । बलि जिउ रहा, न तन सो जागा ॥
भलेहि ईस हू तुम्ह सेव न लागा । बलि जिउ रहा, न तनि सो जागा ॥
जौ तुम्ह मया कीन्ह पगु धारा । दिस्टि देखाइ बान-बिष मारा ॥
जो जाकर अस आसामुखी । दुख महँ ऐस न मारै दुखी ॥
नैन-भिखारि न मानहिं सीखा । आगमन दौरि देहिं पै भीखा ॥

नैनहिं नैन जो बेधि गए, नहिं निकसैं वे बान ।
हिये जो आखर तुम्ह लिखे ते सुठि लीन्ह परान ॥8॥

(सेवा कहि=विनय कहकर, सँवार=संवाद,हाल, बलि जिउ
रहा...जागा=जीव तो पहले ही बलि चढ़ गया था, (इसी
से तुम्हारे आने पर) वह शरीर न जगा, ईस=महादेव,
भाव=भाता है, आसामुखी=मुख का आसरा देखनेवाला)

ते बिष-बान लिखौं कहँ ताईं । रकत जो चुआ भीजि दुनियाईं ॥
जान जो गारै रकत-पसेऊ । सुखी न जान दुखी कर भेऊ ॥
जेहि न पीर तेहिं काकरि चिंता । पीतम निठुर होइँ अस निंता ॥
कासौं कहौं बिरह कै भाषा?। जासौ कहौं होइ जरि राखा ॥
बिरह=आगि तन बन बन जरे । नैन-नीर सब सायर भरे ॥
पाती लिखी सँवरि तुम्ह नावाँ । रकत लिखे आखर भए सावाँ ॥
आखर जरहिं न काहू छूआ । तब दुख देखि चला लेइ सूआ ॥

अब सुठि मरौं; छूछि गइ (पाती) पेम-पियारे हाथ ।
भेंट होत दुख रोइ सुनावत जीउ जात जौं साथ ॥9॥

(जान=जानता है, सावाँ=श्याम, छूँछि=खाली)

कंचन=तार बाँधि गिउ पाती । लेई गा सुआ जहाँ धनि राती ॥
जैसे कँवल सूर के आसा । नीर कंठ लहि मरत पियासा ।
बिसरा भौग सेज सुख-बासा । जहाँ भौंर सब तहाँ हुलासा ॥
तौ लगि धीर सुना नहिं पीऊ । सुना त घरी रहै नहिं जीऊ ।
तौ लगि सुख हिय पेम न जाना । जहाँ पेम कत सुख बिसरामा?॥
अगर चंदन सुठि दहै सरीरू । औ भा अगिनि कया कर चीरू ॥
कथा-कहानी सुनि जिउ जरा । जानहुँ घीउ बसंदर परा ॥

बिरह न आपु सँभारै, मैल चीर, सिर रूख ।
पिउ पिउ करत राति दिन जस पपिहा मुख सूख ॥10॥

(नीर कंठ लहि ....पियासा=कंठ तक पानी में रहता है
फिर भी प्यासों मरता है, बसंदर=बैश्वानर,अग्नि, बिरह=
विरह से, रूख=बिना तेल का)

ततखन गा हीरामन आई । मरत पियास छाँह जनु पाई ॥
भल तुम्ह सुआ! कीन्ह है फेरा । कहहु कुसल अब पीतम केरा ॥
बाट न जानौं,अगम पहारा । हिरदय मिला न होइ निनारा ॥
मरम पानि कर जान पियासा । जो जल महँ ता कहँ का आसा?॥
का रानी यह पूछहु बाता । जिन कोइ होइ पेम कर राता ॥
तुम्हरे दरसन लागि बियोगी । अहा सो महादेव मठ जोगी ॥
तुम्ह बसंत लेइ तहाँ सिधाई । देव पूजि पुनि ओहि पहँ आई ॥

दिस्टि बान तस मारेहु घायल भा तेहि ठाँव ।
दूसरि बात न बोलै, लेइ पदमावति नाँव ॥11॥

रोवँ रोवँ वै बान जो फूटे । सूतहि सूत रुहिर मुख छूटे ॥
नैनहिं चली रकत कै धारा । कंथा भीजि भएउ रतनारा ॥
सूरुज बूड़ि उठा होई ताता । औ मजीठ टेसू बन राता ॥
भा बसंत रातीं बनसपती । औ राते सब जोगी जती ॥
पुहुमि जो भीजि, भएउ सब गेरू । औ राते तहँ पंखि पखेरू ॥
राती सती अगिनि सब काया । गगन मेघ राते तेहि छाया ॥
ईंगुर भा पहार जौं भीजा । पै तुम्हार नहिं रोवँ पसीजा ॥
तहाँ चकोर कोकिला, तिन्ह हिय मया पईठि ।
नैन रकत भरि आए,तिन्ह फिरि कीन्ह न दीठ ॥12॥

(रतनारा=लाल, नैन रकत भरि आए=चकोर और पहाड़ी
कोकिला की आँखें लाल होती हैं)

ऐस बसंत तुमहिं पै खेलहु । रकत पराए सेंदुर मेलेहु ॥
तुम्ह तौ खेलि मँदिर महँ आईं । ओहि क मरम पै जान गोसाईं ॥
कहेसि जरै को बारहि बारा । एकहि बार होहुँ जरि छारा ॥
सर रचि चहा आगि जो लाई । महादेव गौरी सुधि पाई ॥
आइ बुझाइ दीन्ह पथ तहाँ । मरन-खेल कर आगम जहाँ ॥
उलटा पंथ पेम के बारा । चढ़ै सरग, जौ परै पतारा ॥
अब धँसि लीन्ह चहै तेहि आसा । पावै साँस, कि मरै निरासा ॥

पाती लिखि सो पठाई, इहै सबै दुख रोइ ।
दहुँ जिउ रहै कि निसरै, काह रजायसु होइ?॥13॥

(दीन्ह पथ तहाँ=वहाँ का रास्ता बताया, मरन खेल...जहाँ=
जहाँ प्राण निछावर करने का आगम है, उलटा पंथ=योगियों
का अंतर्मुख मार्ग;बिषयों की ओर स्वभावतः जाते हुए मन
को उलटा पीछे की ओर फेरकर ले जाने वाला मार्ग)

कहि कै सुआ जो छोड़ेसि पाती । जानहु दीप छुवत तस ताती ॥
गीउ जो बाँधा कंचन-तागा । राता साँव कंठ जरि लागा ॥
अगिनि साँस सँग निसरै ताती । तरुवर जरहिं ताहि कै पाती ॥
रोइ रोइ सुआ कहै सो बाता । रकत कै आँसु भएउ मुख राता ॥
देख कंठ जरि लाग सो गेरा । सो कस जरै बिरह अस घेरा ॥
जरि जरि हाड़ भयउ सब चूना । तहाँ मासु का रकत बिहूना ॥
वह तोहि लागि कथा सब जारी । तपत मीन, जल देहि पवारी ॥

तोहि कारन वह जोगी, भसम कीन्ह तन दाह ।
तू असि निठुर निछोही, बात न पूछै ताहि ॥14॥

(ताहि कै पाती=उसकी उस चिट्ठी से, देखु कंठ जरि ..गेरा=
देख, कंठ जलने लगा (तब) उसे गिरा दिया, देहि पवारी=फेंक दे)

कहेसि"सुआ! मोसौं सुनु बाता । चहौं तो आज मिलौं जस राता ॥
पै सो मरम न जाना भोरा । जानै प्रीति जो मरि कै जोरा ॥
हौं जानति हौं अबही काँचा । ना वह प्रीति रंग थिर राँचा ॥
ना वह भएउ मलयगिरि बासा । ना वह रवि होइ चढ़ा अकासा ॥
ना वह भयउ भौंर कर रंगू । ना वह दीपक भएउ पतंगू ॥
ना वह करा भृंग कै होई । ना वह आपु मरा जिउ खौई ॥
ना वह प्रेम औटि एक भएउ । ना ओहि हिये माँझ डर गयऊ ॥

तेहि का कहिय जिउ रहै जो पीतम लागि ।
जहँ वह सुनै लेइ धँसि, का पानी, का आगि ॥15॥

(काँचा=कच्चा, राँचा=रँग गया, औटि=पगकर)

पुनि धनि कनक=पानि मसि माँगी । उतर लिखत भीजी तन आँगी ॥
तस कंचन कहँ चहिय सोहागा । जौं निरमल नग होइ तौ लागा ॥
हौं जो गई सिव-मंडप भोरी । तहँवाँ कस न गाँठि तैं जोरी? ॥
भा बिसँभार देखि कै नैना । सखिन्ह लाज का बोलौं बैना?॥
खेलहिं मिस मैं चंदन घाला । मकु जागसि तौं देउँ जयमाला ॥
तबहुँ न जागा, गा तू सोई । जागे भेंट न सोए होई ॥
अब जौं सूर होइ चढ़ै अकासा । जौं जिउ देइ त आवै पासा ॥

तौ लगि भुगुति न लेइ सका रावन सिय जब साथ ।
कौन भरोसे अब कहौं? जीउ पराए हाथ ॥16॥

(धनि=स्त्री, कनक पानि=सोने का पानी, बिसँभार=
बेसुध, घाला=डाला,लगाया, मकु=कदाचित्, जागे
भेंट....होई=जागने से भेंट होती है,सोने से नहीं)

अब जौं सूर गगन चढ़ि आवै । राहु होइ तौ ससि कहँ पावै ॥
बहुतन्ह ऐस जीउ पर खेला । तू जोगी कित आहि अकेला ॥
बिक्रम धँसा प्रेम के बारा । सपनावति कहँ गएउ पतारा ॥
मधूपाछ मुगुधावति लागी । गगनपूर होइगा बैरागी ॥
राजकुँवर कंचनपुर गयऊ । मिरगावति कहँ जोगी भएऊ ॥
साध कुँवर खंडावत जोगू । मधु-मालति कर कीन्ह वियोगू ॥
प्रेमावति कहँ सुरपुर साधा । ऊषा लगि अनिरुध बर बाँधा ॥

हौं रानी पदमावती, सात सरग पर बास ।
हाथ चढ़ौं मैं तेहिके प्रथम करै अपनास ॥17॥

(अपनास=अपना नाश)

हौं पुनि इहाँ ऐस तोहि राती । आधी भेंट पिरीतम-पाती ॥
तहुँ जौ प्रीति निबाहै आँटा । भौंर न देख केत कर काँटा ॥
होइ पतंग अधरन्हु गहु दीया । लेसि समुद धँसि होइ सीप सेवाती ॥
चातक होइ पुकारु, पियासा । पीउ न पानि सेवाति कै आसा ॥
सारस कर जस बिछुरा जोरा । नैन होइ जस चंद चकोरा ॥
होहि चकोर दिस्टि ससि पाहाँ । औ रबि होहि कँवलदल माहाँ ॥

महुँ ऐसै होउँ तोहि कहँ, सकहि तौ ओर निबाहु ।
रोहु बेधि अरजुन होइ जीतु दुरपदी ब्याहु ॥18॥

(निबाहैं आँटा=निबाह सकता है, केत=केतकी, महुँ=मैं भी,
ओर निबाहु=प्रीति को अंत तक निबाह)

राजा इहाँ ऐस तप झूरा । भा जरि बिरछ छार कर कूरा ।
नैन लाइ सो गएउ बिमोही । भा बिनु जिउ दीन्हेसि ओही ॥
कहाँ पिंगला सुखमन नारी । सूनि समाधि लागि गइ तारी ॥
बूँद समुद्र जैस होइ मेरा । गा हेराई अस मिलै न हेरा ।
रंगहि पान मिला जस होई । आपहि खोइ रहा होइ सोई ॥
सुऐ जाइ जब देखा तासू । नैन रकत भरि आए आँसू ॥
सदा पिरीतम गाढ़ करेई । ओहि न भुलाइ,भूलि जिउ देई ॥

मूरि सजीवन आनि कै औ मुख मेला नीर ।
गरुड़ पंख जस झारै अमृत बरसा कीर ॥19॥

(कूरा=ढेर, पिंगला=दक्षिण नाड़ी, सुखमन=सुषुम्ना,मध्य
नाड़ी, सूनि समाधि=शून्यसमाधि, तारी=त्राटक,टकटकी,
गाढ़=कठिन अवस्था)

मुआ जिया बास जो पावा । लीन्हेसि साँस, पेट जिउ आवा ॥
देखेसि जागि सिर नावा । पाती देइ मुख बचन सुनावा ॥
गुरू क बचन स्रवन दुइ मेला । कीन्ह सुदिस्टि, बेगु चलु चेला ॥
तोहि अलि कीन्ह आप भइ केवा । हौं पठवा गुरु बीच परेवा ॥
पौन साँस तोसौं मन लाई । जोवै मारग दिस्टि बिछाई ॥
जस तुम्ह कया कीन्ह अगि-दाहू । सो सब गुरु कहँ भएउ अगाहू ॥
तव उदंत लिखि दीन्हा । वेगि आउ, चअहै सिध कीन्हा ॥

आवहु सामि सुलचछना, जीउ बसै तुम्ह नाँव ।
नैनहिं भीतर पंथ है, हिरदय भीतर ठावँ ॥20॥

(केवा=केतकी, अगाहू भएउ=विदित हुआ, उदंत=संवाद,
वृत्तान्त, छाला=पत्र, सामि=स्वामी)

सुनि पदमावति कै असि मया । भा बसंत, उपनी नइ कया ॥
सुआ क बोल पौन होइ लागा । उठा सोइ, हनुवँत अस जागा ॥
चाँद मिलै कै दीन्हेसि आसा । सहसौ कला सूर परगासा ॥
पाति लीन्ह, लेइ सीस चढ़ावा । दीठि चकोर चंद जस पावा ॥
आस-पियासा जो जेहि केरा । जों झिझकार, ओहि सहुँ हेरा ॥
अब यह कौन पानि मैं पीया । भा तन पाँख, पतँग मरि जीया ॥
उठा फुलि हिरदय न समाना । कंथा टूक टूक बेहराना ॥

जहाँ पिरीतम वै बसहिं यह जिउ बलि तेहि बाट ।
वह जौ बोलावै पावँ सौं, हौं तहँ चलौ लिलाट ॥21॥

(हनुवँत=हनुमान् के ऐसा बली, झिझकार=झिड़के, सहुँ=
सामने बेहराना=फटा)

जो पथ मिला महेसहि सेई । गएउ समुद ओहि धँसि लेई ॥
जहँ वह कुंड विषम औगाहा । जाइ परा तहँ पाव न थाहा ॥
बाउर अंद पेम कर लागू । सौहँ धँसा, किछु सूझ न आगू ॥
लीन्हे सिधि साँसा मन मारा । गुरू मछंदरनाथ सँभारा ॥
चेला परे न छाँड़हि पाछू । चेला मच्छ, गुरू जस काछू ॥
जस धँसि लीन्ह समुद मरजीया । उघरे नैन, बरै जस दीया ॥
खोजि लीन्ह सो सरग-दुआरा । बज्र जो मूँदे जाइ उघारा ॥

बाँक चढ़ाव सरग-गढ़, चढ़त गएउ होइ भोर ।
भइ पुकार गढ़ ऊपर, चढ़े सेंधि देइ चोर ॥22॥

(धँसि लेई=धँसकर लेने के लिए, लागू=लाग,लगन, परे=
दूर, बाँक=टेढ़ा,चक्करदार, सरगदुवार=दूसरे अर्थ में दशम द्वार)

24. गंधर्वसेन-मंत्री-खंड

राजै सुनि, जोगी गढ़ चढ़े । पूछै पास जो पंडित पढ़े ॥
जोगी गढ़ जो सेंधि दै आवहिं । बोलहु सबद सिद्धि जस पावहिं ॥
कहहिं वेद पढ़ि पंडित बेदी । जोगि भौर जस मालति-भेदी ॥
जैसे चोर सेंधि सिर मेलहिं । तस ए दुवौ जीउ पर खेलहिं ॥
पंथ न चलहिं बेद जस लिखा । सरग जाए सूरी चढ़ि सिखा ॥
चोर होइ सूरी पर मोखू । देइ जौ सूरि तिन्हहि नहिं दोखू
चोर पुकारि बेधि घर मूसा । खेलै राज-भँढार मँजूसा ॥

जस ए राजमँदिर महँ दीन्ह रेनि कहँ सेंधि ।
तस छेंकहु पुनि इन्ह कहँ, मारहु सूरी बेधि ॥1॥

(सबद=व्यवस्था, सरग जाए=स्वर्ग जाना (अवधी), सूरि=सूली)

राँध जो मंत्री बोले सोई । एस जो चोर सिद्धि पै कोई ॥
सिद्ध निसंक रैनि दिन भवँहीं । ताका जहाँ तहाँ अपसवहीं ॥
सिद्ध निडर अस अपने जीवा । खड़ग देखि कै नावहिं गीवा ॥
सिद्ध जाइ पै जिउ बध जहाँ । औरहि मरन-पंख अस कहाँ?॥
चढ़ा जो कोपि गगन उपराहीं । थोरे साज मरै सो नाहीं ॥
जंबूक जूझ चढ़ै जौ राजा । सिंध साज कै चढ़ै तौ छाजा ॥
सिद्ध अमर, काया जस पारा । छरहिं मरहि, बर जाई न मारा ॥

छरही काज कृस्न कर, राजा चढ़ै रिसाइ ।
सिद्धगिद्ध जिन्ह दिस्टि गगन पर, बिनु छर किछु न बसाइ ॥2॥

(राँध=पास,समीप, भवँहीं=फिरते हैं, अपसवहीं=जाते हैं,
मरन-पंख=मृत्यु के पंख जैसे चींटों को जमते हैं, पारा=
पारद, छरहि=छल से,युक्ति से, बर=बल से)

अबहीं करहु गुदर मिस साजू । चढ़हिं बजाइ जहाँ लगि राजू ॥
होहिं सँजोवल कुँवर जो भोगी । सब दर छेंकि धरहिं अब जोगी ॥
चौबिस लाख छ्त्रपति साजे । छपन कोटि दर बाजन बाजे ॥
बाइस सहस हस्ति सिंघली। सकल पहार सहित महि हली॥
जगत बराबर वै सब चाँपा। डरा इंद्र बासुकि हिय काँपा॥
पदुम कोट रथ साजे आवहिं। गिरि होइ खेह गगन कहँ धावहिं॥
जनु भुइँचाल चलत महि परा। टूटी कमठ-पीठि, हिय डरा॥

छत्रहि सरग छाइगा, सूरुज गयउ अलोपि।
दिनहिं राति अस देखिय, चढ़ा इंद्र अस कोपि॥3॥

(गुदर=राजा के दरबार में हाजिरी,मोजरा; अथवा पाठांतर
`कदरमस'=युद्ध, सँजोवल=सावधान, दर=दल, सेना, बराबर
चाँपा=पैर से रौंदकर समतल कर दिया, भुइँचाल=भूचाल,
अलोपि गए=लुप्त हो गए)

देखि कटक औ मैमँत हाथी। बोले रतनसेन कर साथी॥
होत आव दल बहुत असूझा। अस जानिय किछु होइहि जूझा॥
राजा तू जोगी होइ खेला। एही दिवस कहँ हम भए चेला॥
जहाँ गाढ़ ठाकुर कहँ होई। संग न छाँडै सेवक सोई॥
जो हम मरन-दिवस मन ताका। आजु आइ पूजी वह साका॥
बरु जिउ जाइ, जाइ नहिं बोला। राजा सत-सुमेरु नहिं बोला॥
गुरू केर जौं आयसु पावहिं। सौंह होहिं औ चक्र चलावहिं॥

आजु करहिं रन भारत सत बाचा देइ राखि।
सत्य देख सब कौतुक, सत्य भरै पुनि साखि॥4॥

(साका पूजी=समय पूरा हुआ, बोला=वचन,प्रतिज्ञा, ऊभ=ऊँचा,
एहि सेंति=इससे,इसलिये, पानिहि कहा...धारा=पानी में तलवार
मारने से पानी विदीर्ण नहीं होता, वह फिर ज्यों का त्यों
बराबर हो जाता है, लौटि ...मारा=जो मरता है वही उलटा
पानी (कोमल हो ) हो जाता है, धरक=धड़क, बिसमौ=बिषाद
(अवध), रिस अस नासी=क्रोध भी सब प्रकार नष्ट कर दिया है)

गुरू कहा चेला सिध होहू। पेम-बारहोइ करहु न कोहू॥
जाकहँ सीस नाइ कै दीजै। रंग न होइ ऊभ जौ कीजै॥
जेहि जिउ पेम पानि भा सोई। जेहि रँग मिलै ओहि रँग होई॥
जौ पै जाइ पेम सौं जूझा। कित तप मरहिं सिद्ध जो बूझा? ॥
एहि सेंति बहुरि जूझ नहिं करिए। खड़ग देखि पानी होइ ढरिए॥
पानिहि काह खड़ग कै धारा। लौटि पानि होइ सोइ जोप मारा॥
पानी सेंती आगि का करई? । जाइ बुझाइ जौ पानी परई॥

सीस दीन्ह मैं अगमन पेम-पानि सिर मेलि।
अब सो प्रीति निबाहौं, चलौं सिद्ध होइ खेलि॥5॥

राजै छेंकि धरे सब जोगी । दुख ऊपर दुख सहै बियोगी॥
ना जिउ धरक जरत होइ कोई। नाहीं मरन जियन डर होई॥
नाग-फाँस उन्ह मेला गीबा। हरख न बिसमौं एकौ जीवा॥
जेइ जिउ दीन्ह सो लेइ निकासा। बिसरै नहिं जौ लहि तन सासा॥
कर किंगरी तेहि तंतु बजावै। इहै गीत बैरागी गावै॥
भलेहि आनि गिउ मेली फाँसी। है न सोच हिय, रिस सब नासी॥
मैं गिउ फाँद ओहि दिन मेला। जेहि दिन पेम-पंथ होइ खेला॥

परगट गुपुत सकल महँ पूरि रहा सो नावँ।
जहँ देखौं तहँ ओही, दूसर नहिं जहँ जावँ॥6॥

जब लगि गुरु हौं अहा न चीन्हा। कोटि अँतरपट बीचहि दीन्हा॥
जब चीन्हा तब और न कोई। तन मन जिउ जीवन सब सोई॥
'हौं हौं' करत धोख इतराहीं। जय भा सिद्ध कहाँ परछाहीं? ॥
मारै गुरू, कि गुरू जियावै। और को मार? मरै सब आवै॥
सूरी मेलु, हस्ति करु चुरू। हौं नहिं जानौं; जानै गुरू॥
गुरू हस्ति पर चढ़ा सो पेखा। जगत जो नास्ति, नास्ति पै देखा॥
अंध मीन जस जल महँ धावा। जल जीवन चल दिस्टि न आवा॥

गुरु मोरे मोरे हिये, दिए तुरंगम ठाठ।
भीतर करहिं डोलावै, बाहर नाचै काठ॥7॥

(अहा=था, अँतरपट=परदा,व्यवधान, इतराहीं=इतराते हैं,
गर्व करते हैं, करू चूरू=चूर करे,पीस डाले, पै=ही, जल
जीवन...आवा=जल सा यह जीवन चंचल है,यह दिखाई
नहीं देता है, ठाठ=रचना,ढाँचा, काठ=जड़ वस्तु,शरीर)

सो पदमावति गुरु हौं चेला। जोग-तंत जेहि कारन खेला॥
तजि वह बार न जानौं दूजा। जेहि दिन मिलै, जातरा-पूजा॥
जीउ काढ़ि भुइँ धरौं लिलाटा। ओहि कहँ देउँ हिये महँ पाटा॥
को मोहिं ओहि छुआवै पाया। नव अवतार, देइ नइ काया॥
जीउ चाहि जो अधिक पियारी। माँगै जीउ देउँ बलिहारी॥
माँगै सीस, देउँ सह गीवा। अधिक तरौ जौं मारै जीवा॥
अपने जिउ कर लोभ न मोहीं। पेम-बार होइ माँगौं ओही॥

दरसन ओहि कर दिया जस, हौ सो भिखारि पतंग।
जो करवत सिर सारै, मरत न मोरौं अंग॥8॥

(जातरा पूजा=यात्रा सफल हुई, पाटा=सिंहासन, करवत
सिर सारै=सिर पर आरा चलावै)

पदमावति कँवला ससि-जोती। हँसे फूल, रोवै सब मोती॥
बरजा पितै हँसी औ रोजू। लागे दूत, होइ निति खोजू॥
जबहिं सुरुज कहँ लागा राहू। तबहिं कँवल मन भएउ अगाहू॥
बिरह अगस्त जो बिसमौ उएऊ। सरवर-हरष सूखि सब गएऊ॥
परगट ढारि सके नहिं आँसू। घटि घटि माँसु गुपुत होइ नासू॥
जस दिन माँझ रैनि होइ आई। बिगसत कँवल गएउ मुरझाई॥
राता बदन गएउ होइ सेता। भँवत भँवर रहि गए अचेता॥

चित्त जो चिंता कीन्ह धनि, रोवै रोवँ समेत।
सहस साल सहि, आहि भरि, मुरुछि परी, गा चेत॥9॥

(रोजू=रोदन,रोना, खोजू=चौकसी, अगस्त=एक नक्षत्र, जैसे,
उदित अगस्त पंथ जल सोखा, बिसमौ=बिना समय के,
भँवत भँवर ....अचेता=डोलते हुए भौंरे अर्थात् पुतलियाँ
निश्चल हो गई)

पदमावति सँग सखी सयानी। गनत नखत सब रैनि बिहानी॥
जानहिं मरम कँवल कर कोई। देखि बिथा बिरहिन के रोईं॥
बिरहा कठिन काल कै कला। बिरह न सहै, काल बरु भला॥
काल काढि जिउ लेइ सिधारा। बिरह-काल मारे पर मारा॥
बिरह आगि पर मेलै आगी। बिरह घाव पर घाव बजागी॥
बिरह बान पर बान पसारा। बिरह रोग पर रोग सँचारा॥
बिरह साल पर साल नवेला। बिरह काल पर काल दुहेला॥

तन रावन होइ सर चढ़ा, बिरह भयउ हनुवंत।
जारे ऊपर जारै, चित मन करि भसमंत॥10॥

(कोई=कुमुदिनी,यहाँ सखियाँ, काल कै कला=काल के
रूप, नवेला=नया)

कोइ कुमोद पसारहिं पाया। कोइ मलयगिरि छिरकहिं काया॥
कोइ मुख सीतलल नीर चुवावै। कोइ अंचल सौं पौन डोलावै॥
कोई मुख अमृत आनि निचोवा। जनु बिष दीन्ह, अधिक धनि सीबा॥
जोवहिं साँस खिनहि खिन सखी। कब जिउ फिरै पौन-पर पँखी॥
बिरह काल होइ हिये पईठा। जीउ काढि लै हाथ बईठा॥
खिनहिं मौन बाँधे, खिन खोला। गही जीभ मुख आव न बोला॥
खिनहिं बेझि कै बानन्ह मारा। कँपि कँपि नारि मरै बेकरारा॥

कैसेहु बिरह न छाँड़ै भा ससि गहन गरास।
नखत चहूँ दिसि रोवहिं, अंधार धारति अकास॥11॥

(पौन पर=पवन के परवाला अर्थात् वायुरूप, बेकरारा=
बेचैन, अंधर=अँधेरा)

घरि चारि इमि गहन गरासी। पुनि बिधि हिये जोति परगासी॥
निसँस ऊभि भरि लीन्हेसि साँसा। भा अधार, जीवन कै आसा॥
बिनवहिं सखी, छूट ससि राहू। तुम्हरी जोति जोति सब काहू॥
तू ससि-बदन जगत उजियारी। केइ हरि लीन्ह, कीन्ह अँधियारी?॥
तू गजगामिनि गरब-गरेली। अब कस आस छाँड़ तू, बेली॥
तू हरि लंक हराए केहरि। अब कित हारि करति है हिय हरि? ॥
तू कोकिल-बैनी जग मोहा। केइ व्याधा होइ गहा निछोहा?॥

कँवल-कली तू पदमिनि! गइ निसि भयउ बिहान।
अबहुँ न संपुट खोलसि जब रे उआ जग भानु॥12॥

(तू हरिलंक....केहरि=तूने सिंह से कटि छीनकर उसे हराया,
हारि करति है=निराश होती है,हिम्मत हारती है, निछोहा=
निष्ठुर)

भानु नावँ सुनि कँवल बिगासा। फिरि कै भौंर लीन्ह मधु बासा॥
सरद चंद मुख जबहिं उघेली। खंजन-नैन उठे करि केली॥
बिरह न बोल आव मुख ताई। मरि मरि बोल जीउ बरियाईं॥
दवैं बिरह दारुन, हिय काँपा। खोलि न जाइ बिरह-दुख झाँपा॥
उदधि-समुद जस तरग देखावा। चख घूमहिं, मुख बात न आवा॥
यह सुनि लहरि लहरि पर धावा। भँवर परा, जिउ थाह न पावा॥
सखि आनि बिष देहु तौ मरऊँ। जिउ न पियार, मरै का डरऊँ?॥

खिनहिं उठै, खिन बूड़ै, अस हिय कँवल सँकेत।
हीरामनहि बुलावहि, सखी! गहन जिउ लेत॥13॥

(फिरि कै भौंर....मधुबासा=भौंरों ने फिर मधुवास लिया
अर्थात् काली पुतलियाँ खुलीं, बरियाईं=जबरदस्ती, दवैं=
दबाता है,पीसता है, झाँपा=ढका हुआ, सँकेत=संकट,
गहन=सूर्य-रूप रत्नसेन का अदर्शन)

चेरी धाय सुनत खिन घाई। हीरामन लेइ आइँ बोलाई॥
जनहु बैद ओषद लेइ आवा। रोगिया रोग मरत जिउ पावा॥
सुनत असीस नैन धनि खोले। बिरह-बैन कोकिल जिमि बोले॥
कँवलहिं बिरह-बिथा जस बाढ़ी। केसर-बरन पीर हिय गाढ़ी॥
कित कँवलहिं भा पेम-अँकूरू। जो पै गहन लेहि दिन सूरू॥
पुरइनि-छाँह कँबल कै करी। सकल बिथा सुनि अस तुम हरी॥
पुरुष गभीर न बोलहिं काहू। जो बोलहिं तौ और निबाहू॥

एतनै बोल कहत मुख पुनि होइ गई अचेत।
पुनि को चेत सँभारै? उहै कहत मुख सेत॥14॥

(अँकूरू=अंकुर, काहू=कभी)

और दगध का कहौं अपारा। सती सो जरै कठिन अस झारा॥
होई हनुबंत पैठ है कोई। लंकादाहु लागु करै सोई॥
लंका बुझी आगि जौ लागी। यह न बुझाइ आँच बज्रागी॥
जनहु अगिनि के उठहिं पहारा। औ सब लागहिं अंग अंगारा॥
कटि कटि माँसु सराग पिरोवा। रकत कै आँसु माँसु सव रोबा॥
खिन एक बार माँसु अस भूँजा। खिनहिं चबाइ सिंघ अस गूँजा॥
एहि रे दगध हुँत उतिम मरीजै। दगध न सहिय,जीउ बरु दीजै॥

जहँ लगि चंदन मलयगिरि औ सायर सब नीर।
सब मिलि आइ बुझावहिं, बुझै न आगि सरीर॥15॥

(झारा=झार,ज्वाला, सराग=शलाका,सीख, गूँजा=गरजा,
दगध=दाह, उतिम=उत्तम)

हीरामन जौं देखेसि नारी। प्रीति-बेल उपनी हिय-बारी॥
कहेसि कस न तुम्ह होहु दुहेली। अरुझी पेम जो पीतम बेली॥
प्रीति-बेलि जिनि अरुझै कोई ।अरुझे,, मुए न छूटै सोई ॥
प्रीति-वेलि ऐसै तन डाढा। पलुहत सुख, बाढ़त दुख बाढ़ा॥
प्रीति-बेलि कै अमर को बोई? । दिन दिन बढ़ै, छीन नहिं होई॥
प्रीति-बेलि सँग बिरह अपारा। सरग पतार जरै तेहि झारा॥
प्रीति अकेलि बेलि चढ़ि छावा। दूसर बेलि न सँचरै पावा॥

प्रीति-बेलि अरुझै जब तब सुछाँह सुख-साख।
मिलै पीरीतम आइ कै,दाख-बेलि-रस चाख॥16॥

(दुहेली=दुःखी, पलुहत=पल्लवित होते,पनपते हुए)

पदमावति उठि टेकै पाया। तुम्ह हुँत देखौं पीतम-छाया॥
कहत लाज औ रहै न जीऊ। एक दिसि आगि दुसर दिसि पीऊ॥
सूर उदयगिरि चढ़त भुलाना। गहने गहा, कँवल कुँभिलाना॥
ओहट होइ मरौं तौ झूरी। यह सुठि मरौं जो नियर, न दूरी॥
घट महँ निकट, बिकट होइ मेरू। मिलहि न मिले, परा तस फेरू॥
तुम्ह सो मोर खेवक गुरु देवा। उतरौं पार तेही बिधि खेवा॥
दमनहिं नलहिं जो हंस मेरावा। तुम्ह हीरामन नावँ कहावा॥

मूरि सजीवन दूरि है, सालै सकती-बानु।
प्रान मुकुत अब होत है, बेगि देखावहु भानु॥17॥

(तुम्ह हुँत=तुम्हारे द्वारा, ओहट=ओट में,दूर, मेरू=
मेल,मिलाप, मिलहिं न मिले=मिलने पर भी नहीं
मिलता, दमन=दमयंती, मुकुत होत है=छूटता है)

हीरामन भुई धरा लिलाटू। तुम्ह रानी जुग जुग सुख-पाटू॥
जेहि के हाथ सजीवन मूरी। सो जानिय अब नाहीं दूरी॥
पिता तुम्हार राज कर भोगी। पूजै बिप्र मरावै जोगी॥
पौंरि पौंरि कोतवार जो बैठा। पेम कलुबुध सुरग होइ पैठा॥
चढ़त रैनि गढ़ होइगा भोरू। आबत बार धरा कै चोरू॥
अब लेइ गए देइ ओहि सूरी। तेहि सौं अगाह बिथा तुम्ह पूरी॥
अब तुम्ह जिउ काया वह जोगी। कया क रोग जानु पै रोगी॥

रूप तुम्हार जीउ कै (आपन) पिंड कमावा फेरि।
आपु हेराइ रहा, तेहि काल न पावै हेरि॥18॥

(रूप तुम्हार जीउ..फेरि=तुम्हारे रूप (शरीर) मैं अपने जीव
को करके (पर-काय-प्रवेश करके) उसने मानो दूसरा शरीर
प्राप्त किया)

हीरामन जो बात यह कही। सूर गहन चाँद तब गही॥
सूर के दुख सौं ससि भइ दुखी। सो कित दुख मानै करमुखी? ॥
अब जौं जोगि मरै मोहि नेहा। मोहि ओहि साथ धरति गगनेहा॥
रहै त करौं जनम भरि सेवा। चलै त, यह जिउ साथ परेवा॥
कहेसि कि कौन करा है सोई। पर-काया परवेस जो होई॥
पलटि सो पंथ कौन बिधि खेला। चेला गुरू, गुरू भा चेला॥
कौन खंड अस रहा लुकाई। आवै काल, हेरि फिरिजाई॥

चेला सिद्धि सो पावै, गुरु सौं करै अछेद।
गुरू करै जो किरिपा, पावै चेला भेद॥19॥

(करमुखी=काले मुँह वाली, गगनेहा=गगन में,स्वर्ग में,
करा=जला, चेला सिद्धि सो पावै ...मेद=यह शुक का
उत्तर है, अछेद,अभेद=भेद-भाव का त्याग)

अनु रानी तुम गुरु, वह चेला। मोहि बूझहु कै सिद्ध नवेला? ॥
तुम्ह चेला कहँ परसन भई। दरसन देइ मँडप चलि गई॥
रूप गुरू कर चेलै डीठा। चित समाइ होइ चित्र पईठा॥
जीउ काढि लै तुम्ह अपसई। वह भा कया, जीव तुम्ह भई॥
कया जो लाग धूप औ सीऊ। कया न जान, जान पै जीऊ॥
भोग तुम्हार मिला ओहि जाई। जो ओहि बिथा सो तुम्ह कहँ आई॥
तुम ओहिके घट, वह तुम माहाँ। काल कहाँ पावै वह छाहाँ? ॥

अस वह जोगी अमर भा पर-काया परवेस।
आवै काल, गुरुहि तहँ, देखि सो करै अदेस॥20॥

(अनु=फिर,आगे, मोहि बूझहु ...नवेला=नया सिद्ध बनाकर
उलटा मुझसे पूछती हो, अपसई=चल दी, सीऊ=शीत, अदेस
करै=नमस्कार करता है;`आदेश गुरु' यह प्रणाम में प्रचलित है)

सुनि जोगी कै अमर जो करनी। नेवरी बिथा बिरह कै मरनी॥
कवँल-करी होइ बिगसा जीऊ। जनु रवि देख छूटि गा सीऊ॥
जो अस सिद्ध को मारै पारा? । निपुरुष तेई जरै होइ छारा॥
कहौ जाइ अब मोर सँदेसू। तजौ जोग अब, होइ नरेसू॥
जिनि जानहु हौं तुम्ह सौं दूरी। नैनन माँझ गड़ी वह सूरी॥
तुम्ह परसेद घटे घट केरा। मोहिं घट जीव घटत नहिं बेरा॥
तुम्ह कहँ पाट हिये महँ साजा। अब तुम मोर दुहूँ जग राजा॥

जौं रे जियहिं मिलि गर रहहिं, मरहिं त एकै दोउ।
तुम्ह जिउ कहँ जिनि होइ किछु, मोहिं जिउ होउ सो होउ॥21॥

(नेवरी=निबटी,छूटी, निपुरुष=पुरुषार्थहीन, सूरी=शूली जो
रत्नसेन को दी जानेवाली है, परसेद=प्रस्बेद,पसीना, घट=
घटने पर, बेरा=देर,विलंब)

25. रत्नसेन-सूली-खंड

बाँधि तपा आने जहँ सूरी। जुरे आई सब सिंघलपूरी॥
पहिले गुरुहि देइ कह आना। देखि रूप सब कोइ पछिताना॥
लोग कहहिं यह होइ न जोगी। राजकुँवर कोइ अहै बियोगी॥
काहुहि लागि भएउ है तपा। हिये सो माल, करहु मुख जपा॥
जस मारै कहँ बाजा तूरू। सूरी देखि हँसा मंसूरू॥
चमके दसन भएउ उजियारा। जो जहँ तहाँ बीजू अस मारा॥
जोगी केर करहु पै खोजू। मकु यह होइ न राजा भोजू॥

सब पूछहिं, कहु जोगी! जाति जनम औ नाँव।
जहाँ ठाँव रोवै कर हँसा सो कहु केहि भाव॥1॥

(करहु मुख=हाथ से भी और मुख से भी, जस=जैसे ही)

का पूछहु अब जाति हमारी । हम जोगी औ तपा भिखारी॥
जोगिहि कौन जाति, हो राजा। गारि न कोह, मारि नहिं लाजा॥
निलज भिखारि लाज जेइ खोई। तेहि के खोज परै जिनि कोई॥
जाकर जीउ मरै पर बसा। सूरि देखि सो कस नहिं हँसा? ॥
आजु नेह सौ होइ निबेरा। आजु पुहुमि तजि गगन बसेरा॥
आजु कया-पीजर-बँदि टूटा । आजुहिं प्रान-परेवा छूटा॥
आजु नेह सौं होइ निनारा। आजु प्रेम-सँग चला पियारा॥

आजु अवधि सिर पहुँची, किए जाहु मुख रात।
बेगि होहु मोहिं मारहु जिनि चालहु यह बात॥2॥

(अवधि सिर पहुँची=अवधि किनारे पहुँची अर्थात् पूरी
हुई, बेगि होहु=जल्दी करो)

कहेन्हि सँवरु जेहि चाहसि सँवरा। हम तोहि करहिं केत कर भँवरा॥
कहेसि ओहि सँवरौं हरि फेरा। मुए जियत आहौं जेहि केरा॥
औ सँवरौं पदमावति रामा । यह जिउ नेवछावरि जेहि नामा॥
रकत क बूँद कया जस अहही। 'पदमावति पदमावति' कहही॥
रहै त बूँद बूँद महँ ठाऊँ। परै त सोई लेइ लेइ नाऊँ॥
रोंब रोंब तन तासौं ओधा। सूतहि सूत बेधि जिउ सोधा॥
हाड़हि हाड़ सबद सो होई। नस नस माँह उठै धुनि सोई॥

जागा बिरह तहाँ का गूद माँसु कै हान? ।
हौं पुनि साँचा होइ रहा ओहि के रूप समान॥3॥

(करहिं....भौंरा=हम तुम्हें अब सूली से ऐसा ही छेदेंगे
जैसा केतकी के काँटे भौंरे का शरीर छेदते हैं, हरि=
प्रत्येक, आहौं=हूँ, ओधा=लगा, गूद=गूदा, हान=हानि,
समान=समाया हुआ)

जोगिहि जबहिं गाढ़ अस परा । महादेव कर आसन टरा ॥
वै हँसि पारबती सौं कहा । जानहुँ सूर गहन अस गहा ॥
आजु चढ़े गढ़ ऊपर तपा राजै गहा सूर तब छपा ॥
जग देखै गा कौतुक आजू । कीन्ह तपा मारै कहँ साजू ॥
पारबती सुनि पाँयन्ह परी । चलि, महेस! देखैं एहि घरी ॥
भेस भाँट भाँटिनि कर कीन्हा । औ हनुवंत भीर सँग लीन्हा ॥
आए गुपुत होइ देखन लागी । वह मूरति कस सती सभागी ॥

कटक असूझ देखि कै राजा गरब करेइ ।
देउ क दशा न देखै, दहुँ का कहँ जय देइ ॥4॥

(गाढ़=संकट, देखन लागी=देखने के लिए)

आसन लेइ रहा होइ तपा । `पदमावति पदमावति' जपा ॥
मन समाधि तासौं धुनि लागी । जेहि दरसन कारन बैरागी ॥
रहा समाइ रूप औ नाऊँ । और न सूझ बार जहँ जाऊँ ॥
औ महेस कहँ करौं अदेस । जेइ यह पंथ दीन्ह उपदेसू ॥
पारबती पुनि सत्य सराहा । औ फिरि मुख महेस कर चाहा ॥
हिय महेस जौं, कहै महेसी । कित सिर नावहिं ए परदेसी?॥
मरतहु लीन्ह तुम्हारहि नाऊँ । तुम्ह चित किए रहे एहि ठाऊँ ॥

मारत ही परदेसी, राखि लेहु एहि बीर ।
कोइ काहू कर नाही जो होइ चलै न तीर ॥5॥

(करौं अदेसू=आदेश करता हूँ,प्रणाम करता हूँ, चाहा=ताका,
महेसी=पार्वती, हिय महेस...परदेसी=पार्वती कहती हैं कि
जब महेश इनके हृदय में हैं तब ये परदेसी क्यों किसी
के सामने सिर झुकाएँ, तीर होइ चलै=साथ दे,पास जाकर
सहायता करे)

लेइ सँदेस सुअटा गा तहाँ । सूरी देहिं रतन कहँ जहाँ ॥
लेइ सँदेस सुअटा गा तहाँ । सूरी देहिं रतन कहँ जहाँ ॥
देखि रतन हीरामन रोवा । राजा जिउ लोगन्ह हठि खोवा ॥
देखि रुदन हीरामन केरा । रोवहि सब, राजा मुख हेरा ॥
माँगहि सब बिधिना सौं रोई । कै उपकार छोड़ावै कोई ॥
कहि सदेस सब बिपति सुनाई । बिकल बहुत, किछु कहा न जाई ॥
काढि प्रान बैठी लेइ हाथा । मरै तौ मरौं, जिऔ एक साथा ॥
सुनि सँदेस राजा तब हँसा । प्रान प्रान घट घट कहँ बसा ॥

सुअटा भाँट दसौंधी, भए जिउ पर एक ठाँव ।
चलि सो जाइ अब देख तहँ जहँ बैठा रह राव ॥6॥

(हेरा=हेर,ताकते हैं, दसौंधी=भाँटों की एक जाति, जिउ
पर भए=प्राण देने पर उद्यत हुए)

राजा रहा दिस्टि के औंधी । रहि न सका तब भाँट दसौधी ॥
कहेसि मेलि कै हाथ कटारी । पुरुष न आछे बैठ पेटारी ॥
कान्ह कोपि जब मारा कंसू । तब जाना पूरुष कै बंसू ॥
गंध्रबसेन जहाँ रिस= बाढ़ा । जाइ भाँट आगे भा ठाढ़ा ॥
बोल गंध्रबसेन रिसाई । कस जोगी, कस भाँट असाई ॥
ठाढ़ देख सव राजा राऊ । बाएँ हाथ दीन्ह बरम्हाऊ ॥
जोगी पानि, आगि तू राजा । आगिहि पानि जूझ नहिं छाजा ॥

आगि बुझाइ पानि सौं, जूझु न, राजा! बूझु ।
लीन्हे खप्पर बार तोहि, भिक्षा देहि, न झूझु ॥7॥

(राजा=गंधर्वसेन, औंधी=नीची, असाई=अताई बेढंगा)

जोगि न होइ, आहि सो भोजू । जानहु भेद करहु सो खोजू ॥
भारत ओइ जूझ जौ ओधा । होहिं सहाय आइ सब जोधा ॥
महादेव रनघंट बजावा । सुनि कै सबद बरम्हा चलि आवा ॥
फनपति फन पतार सौं काढ़ा । अस्टौ कुरी नाग भए ठाढ़ा ॥
छप्पन कोटि बसंदर बरा । सवा लाख परबत फरहरा ॥
चढ़ै अत्र लै कृस्न मुरारी । इंद्रलोक सब लाग गोहारी ॥
तैंतिस कोटि देवता साजा । औ छानबे मेघदल गाजा ॥

नवौ नाथ चलि आवहिं औ चौरासी सिद्ध ।
आजु महाभारत चले, गगन गरुड़ औ गिद्ध ॥8॥

(भारत=महाभारत का सा युद्ध, ओधा=ठाना, अस्टौ
कुरी=अष्टकुल नाग, बसंदर=वैश्वानर,अग्नि, फरहरा=
फड़क उठे, अत्र=अस्त्र, लाग गोहारी=सहायता के
लिये दौड़ा, नवोंनाथ=गोरखपंथियों के नौ नाथ,
चौरासी सिद्ध=बौद्ध वज्रयान योगियों के चौरासी सिद्ध)

भइ अज्ञा को भाँट अभाऊ । बाएँ हाथ देइ बरम्हाऊ ॥
को जोगी अस नगरी मोरी । जो देइ सेंधि चढ़ै गड चोरी ॥
इंद्र डरै निति नावै माथा । जानत कृस्न सेस जेइ नाथा ॥
बरम्हा डरै चतुर-मुख जासू । औ पातार डरै बलि बासू ॥
मही हलै औ चलै सुमेरू । चाँद सूर औ गगन कुबेरू ॥
मेघ डरै बिजूरी जेहि दीठी । कूरुम डरै धरति जेहि पठी ॥
चहौं आजु माँगौं धरि केसा । और को कीट पतंग नरेसा?॥

बोला भाँट, नरेस सुन! गरब न छाजा जीउ ।
कुंभकरन कै खोपरी बूड़त बाँचा भीउँ ॥9॥

(अभाऊ=आदर भाव न जाननेवाला,अशिष्ट, बरम्हाऊ=
आशीर्वाद, बासू=वासुकि, माँगौ धरि केसा=बाल पकड़
कर बुला मँगाऊँ)

रावन गरब बिरोधा रामू । आही गरब भएउ संग्रामू ॥
तस रावन अस को बरिबंडा । जेहि दस सीस, बीस भुजदंडा ॥
सूरुज जेहि कै तपै रसोई । नितहिं बसंदर धोती धोई ॥
सूक सुमंता, ससि मसिआरा । पौन करै निति बार बोहारा ॥
जमहिं लाइ कै पाटी बाँधा । रहा न दूसर सपने काधा ॥
जो अस बज्र टरै नहिं टारा । सोऊ मुवा दुइ तपसी मारा ॥
नाती पूत कोटि दस अहा । रोवनहार न कोई रहा ॥

ओछ जानि कै काहुहि जिनि कोई गरब करेइ ।
ओछे पर जो देउ है जीति-पत्र तेइ देइ ॥10॥

(बरिबंडा=बलवंत,बली, तपै=पकाता (था), सूक=शुक्र,
सुमंता=मंत्री, मसिआरा=मसिंयार,मशालची, बार=द्वार,
बोहारा करै=झाड़ू देता था, सपने काँधा=जिसे उसने
स्वप्न में भी कुछ समझा, काँधा=माना, ओछ=छोटा)

अब जो भाँट उहाँ हुत आगे । बिनै उठा राजहि रिस लागे ॥
भाँट अहै संकर कै कला । राजा सहुँ राखैं अरगला ॥
भाँट मीचु पै आपु न दीसा । ता कहँ कौन करै अस रीसा?॥
भएउ रजायसु गंध्रबसेनी । काहे मीचु के चढ़ै नसेनी? ॥
कहा आनि बानि अस पढ़ै?। करसि न बुद्धि भेंट जेहि कढ़ै ॥
जाति भाँत कित औगुन लावसि । बाएँ हाथ राज बरम्हावसि ॥
भाँट नाँव का मारौं जीवा?। अबहूँ बोल नाइ कै गीवा ॥

तूँ रे भाँट, ए जोगी, तोहि एहि काहे क संग? ।
काह छरे अस पावा, काह भएउ चित=भंग ॥11॥

(सहुँ=सामने, अरगला=रोक,टेक, नसेनी=सीढ़ी, भेंट
जेहि कढ़ै=जिससे इनाम निकले, बरम्हावसि=आशीर्वाद
देता है, काह छरे अस पावा=ऐसा छल करने से तू
क्या पाता है, चितभंग=विक्षेप)

जौं सत पूछसि गंध्रब राजा । सत पै कहौं परै नहिं गाजा ॥
भाँटहि काह मीचु सौं डरना । हाथ कटार, पेट हनि मरना ॥
जंबूदीप चित्तउर देसा । चित्रसेन बड़ तहाँ नरेसा ॥
रतनसेन यह ताकर बेटा । कुल चौहान जाइ नहिं मेटा ॥
खाँडै अचल सुमेरु पहारा । टरै न जौं लागै संसारा ॥
दान-सुमेरु देत नहिं खाँगा । जो ओहि माँग न औरहि माँगा ॥
दाहिन हाथ उठाएउँ ताही । और को अस बरम्हावौ जाही ॥

नाँव महापातर मोहिं, तेहिक भिखारी ढीठ ।
जौं खरि बात कहे रिस लागै, कहै बसीठ ॥12॥

(परै नहिं=गाजा चाहे बज्र ही न पड़े, महापातर=महापात्र,
पहले भाँटों की पदवी होती थी)

ततखन पुनि महेस मन लाजा । भाँट-करा होइ बिनवा राजा ॥
गंध्रबसेन! तुँ राजा महा । हौं महेस-मूरति, सुनु कहा ॥
जौ पै बात होइ भलि आगे । कहा चहिय, का भा रिस लागे ॥
राजकुँवर यह, होहि न जोगी । सुनि पदमावति भएउ बियोगी ॥
जंबूदीप राजघर बेटा । जो है लिखा सो जाइ न मेटा ॥
तुम्हरहि सुआ जाइ ओहि आना । औ जेहि कर,बर कै तेइ माना ॥
पुनि यह बात सुनी सिव-लोका । करसि बियाह धरम है तोका ॥

माँगै भीख खपर लेइ, मुए न छाँड़ै बार ।
बूझहु, कनक-कचोरी भीखि देहु, नहिं मार ॥13॥

(भाँट करा=भाँट के समान, भाँट की कला धारण करके)

ओहट होहु रे भाँट भिखारी । का तू मोहिं देहि असि गारी ॥
को मोहिं जोग जगत होइ पारा । जा सहुँ हेरौं जाइ पतारा ॥
जोगी जती आव जो कोई । सुनतहि त्रासमान भा सोई ॥
भीखि लेहिं फिरि मागहिं आगे । ए सब रैनि रहे गढ़ लागे ॥
जस हींछा, चाहौं तिन्ह दीन्हा । नाहिं बेधि सूरी जिउ लीन्हा ॥
जेहि अस साध होइ जिउ खोवा । सो पतंग दीपक अस रोवा ॥
सुर, नर,मुनि सब गंध्रब देवा । तेहि को गनै? करहि निति सेवा ॥

मोसौं को सरवरि करै? सुनु, रे झूठे भाँट!
छार होइ जौ चालौं निज हस्तिन कर ठाट ॥14॥

(ओहट=ओट,हट परे)

जोगी घिरि मेले सब पाछे । उरए माल आए रन काछे ॥
मंत्रिन्ह कहा, सुनहु हो राजा । देखहु अब जोगिन्ह कर काजा ॥
हम जो कहा तुम्ह करहु न जूझु । होत आव दर जगत असूझु ॥
खिन इक महँ झुरमुट होइ बीता । दर महँ चढ़ि जो रहै सो जीता ॥
कै धीरज राजा तब कोपा । अंगद आइ पाँव रन रोपा ॥
हस्ति पाँच जो अगमन धाए । तिन्ह अंगद धरि सूड फिराए ॥
दीन्ह उड़ाइ सरग कहँ गए । लौटि न फिरै, तहँहि के भए ॥

देखत रहे अचंभौ जोगी, हस्ती बहुरि न आय ।
जोगिन्ह कर अस जूझब, भूमि न लागत पाय ॥15॥

(मेले=जुटे, उरए=उत्साह या चाव से भरे (उराव=उत्साह,
हौसला ), माल=मल्ल,पहलवान, दर=दल, झुरमुट=अँधेरा,
होइ बीता=हुआ चाहता है, चढ़ि जो रहै=जो अग्रसर होकर
बढ़ता है, अगमन=आगे, अचंभौ=अद्भुत व्यापार)

कहहिं बात, जोगी अब आए । खिनक माहँ चाहत हैं भाए ॥
जौ लहि धावहिं अस कै खेलहु । हस्तिन केर जूह सब पेलहु ॥
जस गज पेलि होहिं रन आगे । तस बगमेल करहु सँग लागे ॥
हस्ति क जूह आय अगसारी । हनुवँत तबै लँगूर पसारी ॥
जैसे सेन बीच रन आई । सबै लपेटि लँगूर चलाई ॥
बहुतक टूटि भए नौ खंडा । बहुतक जाइ परे बरम्हंडा ॥
बहुतक भँवत सोइ अँतरीखा । रहे जो लाख भए ते लीखा ॥

बहुतक परे समुद महँ, परत न पावा खोज ।
जहाँ गरब तहँ पीरा, जहाँ हँसी तहँ रोज ॥16॥

(अस कै=इस प्रकार, जूह=जूथ, जस=जैसे ही, तस=तैसे ही,
बगमेल=सवारों की पंक्ति, अगसरी=अग्रसर,आगे, भँवत=
चक्कर खाते हुए, अँतरीख=अंतरिक्ष,आकाश, लीखा=लिख्या,
एक मान जो पोस्ते के दाने के बराबर माना जाता है,
खोज=पता,निशान, रोज=रोदन,रोना)

पुनि आगे का देखै राजा । ईसर केर घंट रन बाजा ॥
सुना संख जो बिस्नू पूरा । आगे हनुवँत केर लँगूरा ॥
लीन्हे फिरहिं लोक बरम्हंडा । सरग पतार लाइ मृदमंडा ॥
बलि, बासुकि औ इंद्र नरिंदू । राहु, नखत, सूरुज औ चंदू ॥
जावत दानव राच्छस पुरे । आठौं बज्र आइ रन जुरे ॥
जेहि कर गरब करत हुत राजा । सो सब फिरि बैरी होइ साजा ॥
जहवाँ महादेव रन खड़ा । सीस नाइ पायँन्ह परा ॥

केहि कारन रिस कीजिए? हौं सेवक औ चेर ।
जेहि चाहिए तेहि दीजिय, बारि गोसाईं केर ॥17॥

(ईसर=महादेव, मृदमंडा=धूल से छा गया, फिरि=विमुख होकर,
बारा=कन्या)

पुनिं महेस अब कीन्ह बसीठी । पहिले करुइ, सोइ अब मीठी ॥
तूँ गंध्रब राजा जग पूजा । गुन चौदह, सिख देइ को दूजा?॥
हीरामन जो तुम्हार परेवा । गा चितउर औ कीन्हेसि सेवा ॥
तेहि बोलाइ पूछहु वह देसू । दहुँ जोगी, की तहाँ नरेसू ॥
हमरे कहत न जौं तुम्ह मानहु । जो वह कहै सोइ परवाँनहु ॥
जहाँ बारि, बर आवा ओका । करहिं बियाह धरम बड़ तोका ॥
जो पहिले मन मानि न काँधे । परखै रतन गाँठि तब बाँधै ॥

रतन छपाए ना छपै, पारिख होइ सो परीख ।
घालि कसौटी दीजिए कनक-कचोरी भीख ॥18॥

(बसीठी=दूतकर्म, पहिले करुइ=जो पहले कड़वी थी, परवाँनहु=
प्रमाण मानो, काँधै=अँगीकार करता है, परीख=परखता है)

राजे जब हीरामन सुना । गएउ रोस, हिरदय महँ गुना ॥
अज्ञा भई बोलावहु सोई । पंडित हुँते धोख नहिं होई ॥
एकहिं कहत सहस्त्र धाए । हीरामनहिं बेगि लेइ आए ॥
खोला आगे आनि मँजूसा । मिला निकसि बहु दिनकर रूसा ॥
अस्तुति करत मिला बहु भाँती । राजै सुना हिये भइ साँती ॥
जानहुँ जरत आगि जल परा । होइ फुलवार रहस हिय भरा ॥
राजै पुनि पूछी हँसि बाता । कस तन पियर, भएउ मुख राता ॥

चतुर वेद तुम पंडित, पढ़े शास्त्र औ बेद ।
कहा चढ़ाएहु जोगिन्ह, आइ कीन्ह गढ़ भेद ॥19॥

(रूसा=रुष्ट, साँती=शांति, फुलवार=प्रफुल्ल, रहस=आनन्द)

हीरामन रसना रस खोला । दै असीस, कै अस्तुति बोला ॥
इंद्रराज राजेसर महा । सुनि होइ रिस, कछु जाइ न कहा ॥
पै जो बात होइ भलि आगे । सेवक निडर कहै रिस लागे ॥
सुवा सुफल अमृत पै खोजा । होहु न राजा बिक्रम भोजा ॥
हौं सेवक, तुम आदि गोसाईं । सेवा करौं जिऔं जब ताईं ॥
जेइ जिउ दीन्ह देखावा देसू । सो पै जिउ महँ बसै, नरेसू! ॥
जो ओहि सँवरै `एकै तुही' । सोई पंखि जगत रतमुहीं ॥

नैन बैन औ सरवन सब ही तोर प्रसाद ।
सेवा मोरि इहै निति बोलौं आसिरबाद ॥20॥

(होहु न...भोजा=तुम विक्रम के समान भूल न करो,
रतमुही=लाल मुँह वाली )

जो अस सेवक जेइ तप कसा । तेहि क जीभ पै अमृत बसा ॥
तेहि सेवक के करमहिं दोषू । सेवा करत करै पति रौषू ॥
औ जेहि दोष निदोषहि लागा । सेवक डरा, जीउ लेइ भागा ॥
जो पंछी कहवाँ थिर रहना । ताकै जहाँ जाइ भए डहना ॥
सप्त दीप फिरि देखेंउँ, राजा । जंबूदीप जाइ तब बाजा ॥
तहँ चितउरगढ़ देखेउँ ऊँचा । ऊँच राज सरि तोहि पहूँचा ॥
रतनसेन यह तहाँ नरेसू । एहि आनेउँ जोगी के भेसू ॥

सुआ सुफल लेइ आएउँ, तेहि गुन तें मुख रात ।
कया पीत सो तेहि डर, सँवरौं विक्रम बात ॥21॥

(तप कसा=तप में शरीर को कसा, पति=स्वामी, निदोषहि=
बिना दोष के, बाजा=पहुँचा, सरि=बराबरी, सँवरौं विक्रम
बात=विक्रम के समान जो राजा गंधर्व सेन है उसके
कोप का स्मरण करता हूँ, साखी=साक्षी, मुद्रा स्रवन..चाँपा=
विनयपूर्वक कान की मुद्रा को पकड़ा, चाँपा=दबाया,थामा,
झाँपा=ढंका हुआ, काटर=कट्टर, तुखारू=घोड़ा, तुरय=घोड़ा,
छतीसौ कुरी=छत्तीसों कुल के क्षत्रिय)

पहिले भएउ भाँट सत भाखी । पुनि बोला हीरामन साखी ॥
राजहि भा निसचय, मन माना । बाँधा रतन छोरि कै आना ॥
कुल पूछा चौहान कुलीना । रतन न बाँधे होइ मलीना ॥
हीरा दसन पान-रँग पाके । बिहँसत सबै बीजु बर ताके ।
मुद्रा स्रवन विनय सौं चापा । राजपना उघरा सब झाँपा ॥
आना काटर एक तुखारू । कहा सो फेरौ, भा असवारू ॥
फेरा तुरय, छतीसो कुरी । सबै सराहा सिंघलपुरी ॥

कुँवर बतीसौ लच्छना, सहस-किरिन जस भान ।
काह कसौटी कसिए? कंचन बारह-बान ॥22॥

देखि कुँवर बर कंचन जोगू । `अस्ति अस्ति' बोला सब लोगू ॥
मिला सो बंश अंस उजियारा । भा बरोक तब तिलक सँवारा ॥
अनिरुध कहँ जो लिखा जयमारा । को मेटै? बानासुर हारा ॥
आजु मिली अनिरुध कहँ ऊखा । देव अनंद, दैत सिर दूखा ॥
सरग सूर, भुइ सरवर केवा । बनखंड भँवर होइ रसलेवा ॥
पच्छिउँ कर बर पुरुब क बारी । जोरी लिखी न होइ निनारी ॥
मानुष साज लाख मन साजा । होइ सोइ जो बिधि उपराजा ॥

गए जो बाजन बाजत जिन्ह मारन रन माहिं ।
फिर बाजन तेइ बाजे मंगलचारि उनाहिं ॥23॥

(`अस्त-अस्त'=हाँ हाँ, वाह वाह! बरोक=बरच्छा,फल-दान,
जयमार=जयमाल, केवा=कमल, उनाहिं=उन्हीं के, काह
सो जुगुति...आना=दूसरे उत्तर के लिये क्या युक्ति है?)

बोल गोसाईं कर मैं माना । काह सो जुगुति उतर कहँ आना?॥
माना बोल, हरष जिउ बाढ़ा । औ बरोक भा, टीका काढ़ा ॥
दूवौ मिले, मनावा भला । सुपुरुष आपु कहँ चला ॥
लीन्ह उतारि जाहि हित जोगू । जो तप करे सो पावै भोगू ॥
वह मन चित जो एकै अहा । मारै लीन्ह न दूसर कहा ॥
जो अस कोई जिउ पर छेवा । देवता आइ करहिं निति सेवा ॥
दिन दस जीवन जो दुख देखा । भा जुग जुग सुख, जाइ न लेखा ॥

रतनसेन सँग बरनौ पदमावति क बियाह ॥
मंदिर बेगि सँवारा, मादर तूर उछाह ॥24॥

(लीन्ह उतारि....जोगू=रत्नसेन जिसके लिए ऐसा योग
साध रहा था उसे स्वर्ग से उतार लाया, मारै लीन्ह=
मार ही डालना चाहते थे, न दूसर कहा=पर दूसरी बात
मुँह से न निकली, छेवा=(दुःख) झेला, डाला, खेला)

26. रत्नसेन-पद्मावती-विवाह-खंड

लगन धरा औ रचा बियाहू । सिंघल नेवत फिरा सब काहू ॥
बाजन बाजे कोटि पचासा । भा अनंद सगरौं कैलासा ॥
जेहि दिन कहँ निति देव मनावा । सोइ दिवस पदमावति पावा ॥
चाँद सुरुज मनि माथे भागू । औ गावहिं सब नखत सोहागू ॥
रचि रचि मानिक माँडव छावा । औ भुइँ रात बिछाव बिछावा ॥
चंदन खांभ रचे बहु भाँती । मानिक-दिया बरहिं दिन राती ॥
घर घर बंदन रचे दुवारा । जावत नगर गीत झनकारा ॥

हाट बाट सब सिंघल जहँ देखहु तहँ रात ।
धनि रानी पदमावति जेहिकै ऐसि बरात ॥1॥

(सोहागू=सौभाग्य या विवाह के गीत, रात=लाल, बिछाय=
बिछावन, बंदन=बंदनवार)

रतनसेन कहँ कापड़ आए । हीरा मोति पदारथ लाए ॥
कुँवर सहस दस आइ सभागे । बिनय करहिं राजा सँग लागे ॥
जाहिं लागि तन साधेहु जोगू । लेहु राज औ मानहु भोगू ॥
मंजन करहु, भभुत उतारहु । करि अस्नान चित्र सब सारहु ॥
काढहु मुद्रा फटिक अभाऊ । पहिरहु कुंडल कनक जराऊ ॥
छिरहु जटा, फुलायल लेहु । झारहु केस, मकुट सिर देहू ॥
काढहु कंथा चिरकुट-लावा । पहिरहु राता दगल सोहावा ॥

पाँवरि तजहु, देहु पग पौरि जो बाँक तुखार ।
बाँधि मौर, सिर छत्र देइ, बेगि होहु असवार ॥2॥

(लाए=लगाए हुए, चित्र सारहु=चंदन केसर की खौर बनाओ,
अभाउ=न माने वाले, न सोहनेवाले, फुलायल=फुलेल, दगद=
दगला,ढीला अंगरखा, पाँवरि=खड़ाऊँ)

साजा राजा, बाजन बाजे । मदन सहाय दुवौ दर गाजे ॥
औ राता सोने रथ साजा । भए बरात गोहने सब राजा ॥
बाजत गाजत भा असवारा । सब सिंघल नइ कीन्ह जोहारा ॥
चहुँ दिसि मसियर नखत तराई सूरुज चढ़ा चाँद के ताईं ॥
सब दिन तपे जैस हिय माहाँ । तैसि राति पाई सुख-छाहाँ ॥
ऊपर रात छत्र तस छावा । इंद्रलोक सब देखै आवा ॥
आजु इंद्र अछरी सौं मिला । सब कबिलास होहि सोहिला ॥

धरती सरग चहूँ दिसि पूरि रहे मसियार ।
बाजत आवै मंदिर जह होइ मंगलाचार ॥3॥

(दर=दल, गोहने=साथ में, नइ=झुककर, मसियर=मसाल,
सोहिहला=सोहला या सोहर नाम के गीत, मशियार=मशाल)

पदमावति धौराहर चढ़ी । दहुँ कस रवि जेहि कहँ ससि गढ़ी ॥
देखि बरात सखिन्ह सौं कहा । इन्ह मह सो जोगी को अहा? ॥
केइ सो जोग लै ओर निवाहा । भएउ सूर, चढ़ी चाँद बियाहा ॥
कौन सिद्ध सो ऐस अकेला । जेइ सिर लाइ पेम सों खेला? ॥
का सौं पिता बात अस हारी । उतर न दीन्ह, दीन्ह तेहि बारी ॥
का कहँ दैउ ऐस जिउ दीन्हा । जेइ जयमार जीति रन लीन्हा ॥
धन्नि पुरुष अस नवै न आए । औ सुपुरुष होइ देस पराए ॥

को बरिवंड बीर अस, मोहिं देखै कर चाव ।
पुनि जाइहि जनवासहि, सखि,! मोहिं बेगि देखाव ॥4॥

(जेहि कहँ ससि गढ़ी=जिसके लिए चंद्रमा (पद्मावती)
बनाई गई, जयमार=जयमाल)

सखी देखावहिं चमकै बाहू । तू जस चाँद, सुरुज तोर नाहू ॥
छपा न रहै सूर-परगासू । देखि कँवल मन होइ बिकासू ॥
ऊ उजियार जगत उपराहीं । जग उजियार, सो तेहि परछाहीं ॥
जस रवि, देखु, उठै परभाता । उठा छत्र तस बीच बराता ॥
ओंही माँझ मा दूलह सोई । और बरात संग सब कोई ।
सहसौं कला रूप विधि गढ़ा । सोने के रथ आवै चढ़ा ॥
मनि माथे, दरसन उजियारा । सौह निरखि नहिं जाइ निहारा ॥

रूपवंत जस दरपन, धनि तू जाकर कंत ।
चाहिय जैस मनोहर मिला सो मन-भावंत ॥5॥

(नाहु=नाथ,पति, निरखि=द्दष्टि गड़ाकर)

देखा चाँद सूर जस साजा । अस्टौ भाव मदन जनु गाजा ॥
हुलसे नैन दरस मद माते । हुलसे अधर रंग-रस-राते ॥
हुलसा बदन ओप रवि पाई । हुलसि हिया कंचुकि न समाई ॥
हुलसे कुच कसनी-बँद टूटै । हुलसी भुजा, वलय कर फूटे ॥
हुलसी लंक कि रावन राजू । राम लखन दर साजहिं आजू ॥
आजु चाँद-घर आवा सूरू । आजु सिंगार होइ सब चूरू ॥
आजु कटक जोरा है कामू । आजु बिरह सौं होइ संग्रामू ।

अंग-अंग सब हुलसे, कोइ कतहूँ न समाइ ।
ठावहिं ठाँव बिमोही, गइ मुरछा तनु आइ ॥6॥

(गाजा=गरजा, अस्टौ भाव=आठों भावों से, कसनी=
अँगिया, लंक=कटि और लंका, रावन=(1) रमण करने
वाला ।(2) रावण)

सखी सँभारि पियावहिं पानी । राजकुँवरि काहे कुँभिलानी ॥
हम तौ तोहि देखावा पीऊ । तू मुरझानि कैस भा जीऊ ॥
सुनहु सखी सब कहहिं बियाहू । मो कहँ भएउ चाँद कर राहू ॥
तुम जानहु आवै पिउ साजा । यह सब सिर पर धम धम बाजा ॥
जेते बराती औ असवारा । आए सबै चलावनहारा ॥
सो आगम हौं देखति झँखी । रहन न आपन देखौं, सखी! ॥
होइ बियाह पुनि होइहि गवना । गवनब तहाँ बहुरि नहिं अवना ॥

अब यह मिलन कहाँ होइ?परा बिछोहा टूटि ।
तैसि गाँठि पिउ जोरब जनम न होइहि छूटि ॥7॥

(झँखी=झीखकर,पछताकर)

आइ बजावति बैठि बराता । पान, फूल, सेंदुर सब राता ॥
जहँ सोने कर चित्तर-सारी । लेइ बरात सब तहाँ उतारी ॥
माँझ सिंघासन पाट सवारा । दूलह आनि तहाँ बैसारा ॥
कनक-खंभ लागे चहुँ पाँती । मानिक-दिया बरहिं दिन राती ॥
भएउ अचल ध्रुव जोगि पखेरू । फूलि बैठ थिर जैस सुमेरू ॥
आजु दैउ हौं कीन्ह सभागा । जत दुख कीन्ह नेग सब लागा ॥
आजु सूर ससि के घर आवा । ससि सूरहि जनु होइ मेरावा ॥

आजु इंद्र होइ आएउँ सजि बरात कबिलास ।
आजु मिली मोहिं अपछरा, पूजी मन कै आस ॥8॥

(चित्तर सारी=चित्रशाला, जोगि पखेरू=पक्षी के समान,
एक स्थान पर जमकर न रहनेवाला योगी, फूलि=आनन्द
से प्रफुल्ल होकर, नेग लागा=सार्थक हुआ,सफल हुआ)

होइ लाग जेवनार-पसारा । कनक-पत्र पसरे पनवारा ॥
सोन-थार मनि मानिक जरे । राव रंक के आगे धरे ॥
रतन-जड़ाऊ खोरा खोरी । जन जन आगे दस-दस जोरी ॥
गड़ुवन हीर पदारथ लागे । देखि बिमोहे पुरुष सभागे ॥
जानहुँ नखत करहिं उजियारा । छपि गए दीपक औ मसियारा ॥
गइ मिलि चाँद सुरुज कै करा । भा उदोत तैसे निरमरा ॥
जेहि मानुष कहँ जोति न होती । तेहि भइ जोति देखि वह जोती ॥

पाँति पाँति सब बैठे, भाँति भाँति जेवनार ।
कनक-पत्र दोनन्ह तर, कनक-पत्र पनवार ॥9॥

(पनवार=पत्तल, खोरा=कटोरा, मसियार=मशाल, करा=कला)

पहिले भात परोसे आना । जनहुँ सुबास कपूर बसाना ॥
झालर माँडे आए पोई । देखत उजर पाग जस धौई ॥
लुचुई और सोहारी धरी । एक तौ ताती औ सुठि कोंवरी ॥
खँडरा बचका औ डुभकौरी । बरी एकोतर सौ, कोहडौरी ॥
पुनि सँघाने आए बसाधे । दूध दही के मुरंडा बाँधे ॥
औ छप्पन परकार जो आए । नहिं अस देख, न कबहूँ खाए ॥
पुनि जाउरि पछियाउरि आई । घिरति खाँड कै बनी मिठाई ॥

जेंवत अधिक सुबासित, मुँह महँ परत बिलाइ ।
सहस स्वाद सो पावै, एक कौर जो खाइ ॥10॥

(झालर=एक प्रकार का पकवान,झलरा, माँडे=एक
प्रकार की चपाती, पाग=पगड़ी, लुचुई=मैदे की महीन
पूरी, सोहारी=पूरी, कोंवरी=मुलायम, खँडरा=फेंटे हुए
बेसन के, भाप पर पके हुए,चौखूँटे टुकड़े जो रसे या
दही में भिगोए जाते हैं;कतरा रसाज, बचका=बेसन
और मैदे को एक में फेंटकर जलेबी के समान टपका
घी में छानते हैं, फिर दूध में भिगो कर रख देते हैं,
एकोतर सौ=एकोत्तर शत,एक सौ एक, कोहँडौरी=
पेठे की बरी, सँधाने=अचार, बसाँधै=सुगंधित, मुरंडा=
भुने गेहूँ और गुड़ के लड्डू;यहाँ लड्डू, जाउरि=खीर
पछियाउरि=एक प्रकार का सिखरन या शरबत)

जेंवन आवा, बीन न बाजा । बिनु बाजन नहिं जेंवै राजा ॥
सव कुँवरन्ह पुनि खैंचा हाथू । ठाकुर जेंव तौ जेमवै साथू ॥
बिनय करहिं पंडित विद्वाना । काहे नहिं जेंवहि जजमाना?॥
यह कबिलास इंद्र कर बासू । जहाँ न अन्न न माछरि माँसू ॥
पान-फूल-आसी सब कोई । तुम्ह कारन यह कीन्ह रसोई ॥
भूख, तौ जनु अमृत है सूखा । धूप, तौ सीअर नींबी रूखा ॥
नींद, तौ भुइँ जनु सेज सपेती । छाटहुँ का चतुराई एती? ॥

कौन काज केहि कारन बिकल भएउ जजमान ।
होइ रजायसु सोई बेगि देहिं हम आन ।11॥

(भूखा.....सूखा=यदि भूख है तो रूखा-सूखा भी
मानो अमृत है, नाद=शब्दब्रह्म,अनहत नाद)

तुम पंडित जानहुँ सब भेदू । पहिले नाद भएउ तब वेदू ॥
आदि पिता जो विधि अवतारा । नाद संग जिउ ज्ञान सँचारा ॥
सो तुम वरजि नीक का कीन्हा । जेंवन संग भोग विधि दीन्हा ॥
नैन, रसन, नासिक, दुइ स्रवना । इन चअरहु संग जेंवै अवना ॥
जेंवन देखा नैन सिराने । जीभहिं स्वाद भुगुति रस जाने ॥
नासिक सबैं बासना पाई । स्रवनहिं काह करत पहुनाई?॥
तेहि कर होइ नाद सौं पोखा । तब चारिहु कर होइ सँतोषा ॥

औ सो सुनहिं सबद एक जाहि परा किछु सूझि ।
पंडित! नाद सूनै कहँ बरजेहु तुम का बूझि ॥12॥

(सिरान=ठंडे हुए, पोख=पोषण)

राजा! उतर सुनहु अब सोई । महि डोलै जौ वेद न होई ॥
नाद, वेद, मद, पेंड़ जो चारी । काया महँ ते, लेहु विचारी ॥
नाद, हिये मद उपनै काया । जहँ मद तहाँ पेड़ नहिं छाया ॥
होइ उनमद जूझा सो करै । जो न वेद-आँकुस सिर धरै ॥
जोगी होइ नाद सो सुना । जेहि सुनि काय जरै चौगुना ॥
कया जो परम तंत मन लावा । घूम माति, सुनि और न भावा ॥
गए जो धरमपंथ होइ राजा । तिनकर पुनि जो सुनै तौ छाजा ॥

जस मद पिए घूम कोइ नाद सुने पै घूम ।
तेहितें बरजे नीक है, चढ़ै रहसि कै दूम ॥13॥

(मद=प्रेम मद, पैंड़=ईश्वर की ओर ले जाने वाला मार्ग
मोक्ष का मार्ग, उनमद=उन्मत, तिनकर पुनि...छाजा=
राजधर्म में रत जो राजा हो गए हैं उनका पुण्य तू सुने
तो सोभा देता है, चढ़े...दूम=मद चड़ने पर उमंग में
आकर झूमने लगता है)

भइ जेंवनार, फिरा खँडवानी । फिरा अरगजा कुँहकुँह-पानी ॥
फिरा पान, बहुरा सब कोई । लाग बियाह-चार सब होई ॥
माँडौं सोन क गगन सँवारा । बंदनवार लाग सब वारा ॥
साजा पाटा छत्र कै छाँहा । रतन-चौक पूरा तेहि माहाँ ॥
कंचन-कलस नीर भरि धरा । इंद्र पास आनी अपछरा ॥
गाँठि दुलह दुलहिन कै जोरी । दुऔ जगत जो जाइ न छोरी ॥
वेद पढ़ैं पंडित तेहि ठाऊँ । कन्या तुला राशि लेइ नाऊँ ॥

चाँद सुरुज दुऔ निरमल, दुऔ सँजोग अनूप ।
सुरुज चाँद सौं भूला, चाँदद सुरुज के रूप ॥14॥

(खँडवानी=शरबत)

दुओ नाँव लै गावहिं बारा । करहिं सो पदमिनि मंगल चारा ॥
चाँद के हाथ दीन्ह जयमाला । चाँद आनि सूरुज गिउ घाला ॥
सूरुज लीन्ह चाँद पहिराई । हार नखत तरइन्ह स्यों पाई ॥
पुनि धनि भरि अंजुलि जल लीन्हा । जोबन जनम कंत कह दीन्हा ॥
कंत लीन्ह, दीन्हा धनि हाथा । जोरी गाँठि दुऔ एक साथा ॥
चाँद सुरुज सत भाँवरि लेहीं । नखत मोति नेवछावरि देहीं ॥
फिरहिं दुऔ सत फेर, घुटै कै । सातहु फेर गाँठि से एकै ॥

भइ भाँवरि, नेवछावरि, राज चार सब कीन्ह ।
दायज कहौं कहाँ लगि? लिखि न जाइ जत दीन्ह ॥15॥

(हार नखत....सो पाई=हार क्या पाया मानो चंद्रमा के
साथ तारों को भी पाया, त्यों=साथ, घुटै कै=गाँठ को दृढ़
करके)

रतनसेन जब दायज पावा । गंध्रबसेन आइ सिर नावा ॥
मानुस चित्त आनु किछु कोई । करै गोसाईं सोइ पै होई ॥
अब तुम्ह सिंघलदीप-गोसाईं । हम सेवक अहहीं सेवकाई ॥
जस तुम्हार चितउरगढ़ देसू । तस तुम्ह इहाँ हमार नरेसू ॥
जंबूदीप दूरि का काजू?। सिंघलदीप करहु अब राजू ॥
रतनसेन बिनवा कर जोरी । अस्तुति-जोग जीभ कहँ मोरी ॥
तुम्ह गोसाइँ जेइ छार छुड़ाई । कै मानुस अब दीन्हि बड़ाई ॥

जौ तुम्ह दीन्ह तौ पावा जिवन जनम सुखभोग ।
नातरु खेह पायकै, हौं जोगी केहि जोग ॥16॥

(आनु=लाए, नतरु=नहीं तो)

धौराहर पर दीन्हा बासू । सात खंड जहवाँ कबिलासू ॥
सखी सहसदस सेवा पाई । जनहुँ चाँद सँग नखत तराई ॥
होइ मंडल ससि के चहुँ पासा । ससि सूरहि लेइ चढ़ी अकासा ॥
चलु सूरुज दिन अथवै जहाँ । ससि निरमल तू पावसि तहाँ ॥
गंध्रबसेन धौरहर कीन्हा । दीन्ह न राजहि, जोगहि दीन्हा ॥
मिलीं जाइ ससि के चहुँ पाहाँ । सूर न चाँपै पावै छाँहा ॥
अब जोगी गुरु पावा सोई । उतरा जोग, भसम गा धौई ॥

सात खंड धौराहर, सात रंग नग लाग ।
देखत गा कबिलासहि, दिस्टि-पाप सब भाग ॥17॥

(चहुँ पाहाँ=चारों ओर, चाँपै पावै=दबाने पाता है)

सात खंड सातौं कबिलासा । का बरनों जग ऊपर बासा ॥
हीरा ईंट कपूर गिलावा । मलयगिरि चंदन सब लावा ॥
चूना कीन्ह औटि गजमोती । मोतिहु चाहि अधिक तेहि जोती ॥
विसुकरमें सौ हाथ सँवारा । सात खंड सातहिं चौपारा ॥
अति निरमल नहिं जाइ बिसेखा । जस दरपन महँ दरसनन देखा ॥
भुइँ गच जानहुँ समुद हिलोरा । कनकखंभ जनु रचा हिंडोरा ॥
रतन पदारथ होइ उजियारा । भूले दीपक औ मसियारा ॥

तहँ अछरी पदमावति रतनसेन के पास ।
सातौ सरग हाथ जनु औ सातौ कबिलास ॥18॥

(गिलावा=गारा, गच=फर्श, भूले=खो से गए,
अछरी=अप्सरा)

पुनि तहँ रतनसेन पगु धारा । जहाँ नौ रतन सेज सँवारा ॥
पुतरी गढ़ि गढ़ि खंभन काढ़ी । जनु सजीव सेवा सब ठाढ़ी ॥
काहू हाथ चंदन कै खोरी । कोइ सेंदुर, कोइ गहे सिंधोरी ॥
कोइ कुहँकुहँ केसर लिहै रहै । लावै अंग रहसि जनु चहै ॥
कोई लिहे कुमकुमा चोवा । धनि कब चहै, ठाढ़ि मुख जोवा ॥
कोई बीरा, कोइ लीन्हे-बीरी । कोइ परिमल अति सुगँध-समीरी ॥
काहू हाथ कस्तूरी मेदू । कोइ किछु लिहे, लागु तस भेदू ॥

पाँतिहि पाँति चहूँ दिसि सब सोंधे कै हाट ।
माँझ रचा इंद्रासन, पदमावति कहँ पाट ॥19॥

(खोरी=कटोरी, सिंधोरी=काठ की सुंदर डिबिया जिसमें
स्त्रियाँ ईंगुर या सिंदूर रखती हैं, बीरी=दाँत रँगने का
मंजन, परिमल=पुषपगंध,इत्र, सुगंध-समीरी=सुगंध
वायुवाला, सौंधे=गंधद्रव्य)

27. पद्मावती-रत्नसेन-भेंट-खंड

सात खंड ऊपर कबिलासू । तहवाँ नारि-सेज सुख-बासू ॥
चारि खंभ चारिहु दिसि खरे । हीरा-रतन-पदारथ-जरे ॥
मानिक दिया जरावा मोती । होइ उजियार रहा तेहि जोती ॥
ऊपर राता चँदवा छावा । औ भुइँ सुरग बिछाव बिछावा ॥
तेहि महँ पालक सेज सो डासी । कीन्ह बिछावन फूलन्ह बासी ॥
चहुँ दिसि गेंडुवा औ गलसूई । काँची पाट भरी धुनि रूई ॥
बिधि सो सेज रची केहि जोगू । को तहँ पौढ़ि मान रस भोगू? ॥

अति सुकुवाँरि सेज सो डासी, छुवै न पारै कोइ ।
देखत नवै खिनहि खिन, पाव धरत कसि होइ ॥1॥

(पालक=पलंग, डासी=बिछाई, गेंडुआ=तकिया, गलसूई=
गाल के नीचे रखने का छोटा तकिया, काँची=गोटा पट्टा,
पौड़ि=लेटकर, सुकुवाँरि=कोमल)

राजै तपत सेज जो पाई । गाँठि छोरि धनि सखिन्ह छपाई ॥
कहैं, कुँवर! हमरे अस चारू । आज कुँवर कर करब सिंगारू ॥
हरदि उतारि चढ़ाउब रगू । तब निसि चाँद सुरुज सौं संगू ॥
जस चातक-मुख बूंद सेवाती । राजा-चख जोहत तेहि भाँती ॥
जोगि छरा जनु अछरी साथा । जोग हाथ कर भएउ बेहाथा ॥
वै चातुरि कर लै अपसईं । मंत्र अमोल छीनि लेइ गईं ॥
बैठेउ खोइ जरी औ बूटी । लाभ न पाव, मूरि भइ टूटी ॥

खाइ रहा ठग-लाडु, तंत मंत बुधि खोइ ।
भा धौराहर बनखंड, ना हँसि आव, न रोइ ॥2॥

(तपत=तप करते हुए, चारू=चार,रीति,चाल, हरदि उतारि=
ब्याह के लग्न में शरीर में जो हलदी लगती है उसे छुड़ाकर,
रंगू=अंगराग, छरा=ठगा गया, खोया, कर हाथ से, टूटि
भइ=घाटा हुआ, हानि हुई, ठग-लाडु=विष या नशा मिला
हुआ लड्डु जिसे पथिकों को खिलाकर ठग लोग बेहोश
करते थे)

अस तप करत गएउ दिन भारी । चारि पहर बीते जुग चारी ॥
परी साँझ, पुनि सखी सो आई । चाँद रहा, उपनी जो तराई ॥
पूँछहिं "गुरू कहाँ, रे चेला! । बिनु ससि रे कस सूर अकेला?॥
धअतु कमाय सिखे तैं जोगी । अब कस भा निरधातु बियोगी? ॥
कहाँ सो खोएहु बिरवा लोना । जेहि तें होइ रूप औ सोना ॥
कअ हरतार पार नहिं पावा । गंधक काहे कुरकुटा खावा ॥
कहाँ छपाए चाँद हमारा? । जेहि बिनु रैनि जगत अँधियारा " ॥

नैन कौडिया, हिय समुद, गुरु सो तेहि महँ जोति ।
मन मरजिया न होइ परे हाथ न आवै मोति ॥3॥

(चाँद रहा...तराई=पद्मिनी तो रह गई,केवल उसकी सखियाँ
दिखाई पड़ी, निरधातु=निस्सार, बिरवा लोना=(क) अमलोनी
नाम की घास जिसे रसायनी धातु सिद्ध करने के काम में
लाते हैं, (ख) सुंदर वल्ली, द्मावती, रूप=(क) रूपा (ख) चाँदी,
कौडिया=पक्षी जो मछली पकड़ने के लिए पानी के ऊपर
मँडराता है)

का पूछहु तुम धातु, निछोही! जो गुरु कीन्ह अँतर फट ओही ॥
सिधि-गुटिका अब मो संग कहा । भएउँ राँग, सत हिये न रहा ॥
सो न रूप जासौं मुख खोलौं । गएउ भरोस तहाँ का बोलौं? ॥
जहँ लोना बिरवा कै जाती । कहि कै सँदेस आन को पाती? ॥
कै जो पार हरतार करीजै । गंधक देखि अबहिं जिउ दीजै ॥
तुम्ह जोरा कै सूर मयंकू । पुनि बिछोहि सो लीन्ह कलंकू ॥
जो एहि घरी मिलावै मोहीं । सीस देउँ बलिहारी ओही ॥

होइ अबरक इंगुर भया, फेरि अगिनि महँ दीन्ह ।
काया पीतर होइ कनक, जौ तुम चाहहु कीन्ह ॥4॥

(निछोही=निष्ठुर, जो ...ओही=जो उस गुरु (पद्मावती) को
तुमने छिपा दिया है, राँग=राँगा, जोरा के= (क) एक बार
जोड़ी मिलाकर, (ख) तोले भर राँगे और तोले भर चाँदी का
दो तोले चाँदी बनाना रसायिनों की बोली में जोड़ा करना
कहलाता है)

का बसाइ जौ गुरु अस बूझा । चकाबूह अभिमनु ज्यौं जूझा ।
विष जो दीन्ह अमृत देखराई । तेहि रे निछौही को पतियाई?॥
मरै सोइ जो होइ निगूना । पीर न जानै बिरह बिहूना ॥
पार न पाव जो गंधक पीया । सो हत्यार कहौ किमि जीया ॥
सिद्धि-गुटीका जा पहँ नाहीं । कौन धातु पूछहु तेहि पाहीं ॥
अब तेहि बाज राँग भा डोलौं । होइ सार तौ बर कै बोलौं ॥
अबरक कै पुनि ईंगुर कीन्हा । सो तन फेरि अगिनि महँ दीन्हा ॥

मिलि जो पीतम बिछुरहि काया अगिनि जराइ ।
की तेहि मिले तन तप बुझै, की अब मुए बुझाइ ॥5॥

(का बसाइ=क्या वश चल सकता है? बाज=बिना, बर=बल)

सुनि कै बात सखी सब हँसी । जानहुँ रैनि तरई परगसीं ॥
अब सो चाँद गगन महँ छपा । लालच कै कित पावसि तपा?॥
हमहुँ न जानहि दहुँ सो कहाँ । करब खोज औ बिनउब तहाँ ॥
औ अस कहब आहि परदेसी । करहि मया; हत्या जनि लेसी ॥
पीर तुम्हारि सुनत भा छोह । देउ मनाउ, होइ अस ओहू ॥
तू जोगी फिरि तपि करु जोगू । तो कहँ कौन राज सुख-भोगू ॥
वह रानी जहवाँ सुख राजू । बारह अभरन करै सो साजू ॥

जोगी दिढ़ आसन करै अहथिर धरि मन ठावँ ।
जो न सुना तौ अब सुनहि बारह अभरन नावँ ॥6॥

(तपा=तपस्वी, जनि लेसी=न ले, दैउ मनाउ...ओहु=ईश्वर
को मना कि उसे (पद्मावती की ) भी वैसी ही दया हो जैसी
हम लोगों को तुझ पर आरही है)

प्रथमै मज्जन होइ सरीरू । पुनि पहिरै तन चंदन चीरू ॥
साजि माँगि सिर सेंदुर सारे । पुनि लिलाट रचि तिलक सँवारै ॥
पुनि अंजन दुहुँ नैनन्ह करै । औ कुंडल कानन्ह महँ पहिरै ॥
पुनि नासिक भल फूल अमोला । पुनि राता मुख खाइ तमोला ॥
गिउ अभरन पहिरै जहँ ताईं । औ पहिरे कर कँगन कलाई ॥
कटि छुद्रावलि अभरन पूरा । पायन्ह पहिरै पायल चूरा ॥
बारह अभरन अहैं बखाने । ते पहिरै बरहौं अस्थाने ॥

पुनि सोरहौ सिंगार जस चारिहु चौक कुलीन ।
दीरघ चारि, चारि लघु सुभर चौ खीन ॥7॥

(फूल=नाक में पहनने की लोंग, छुद्रावलि=क्षुद्रघंटिका,करधनी,
चूरा=कड़ा, चौक=चार चार का समूह, कुलीन=उत्तम, सुभर=
शुभ्र)

पदमावति जो सँवारै लीन्हा । पूनउँ राति देउ ससि कीन्हा ॥
करि मज्जन तन कीन्ह नहानू । पहिरे चीर, गएउ छपि भानू ॥
रचि पत्रावलि, माँग सदूरु । भरे मोति औ मानिक चूरू ॥
चंदन चीर पहिर बहु भाँती । मेघघटा जानहुँ बग-पाँती ॥
गूँथि जो रतन माँग बैसारा । जानहुँ गगन टूटि निसि तारा ॥
तिलक लिलाट धरा तस दीठा । जनहुँ दुइज पर सुहल बईठा ॥
कानन्ह कुंडल खूँट औ खूँटी । जानहुँ परी कचपची टूटी ॥

पहिरि जराऊ ठाढ़ि भइ, कहि न जाइ तस भाव ।
मानहुँ दरपन गगन भा तेहि ससि तार देखाव ॥8॥

(सँवारै=श्रृंगार को, पत्रावलि=पत्रभंग रचना, दुइज=दूज
का चंद्रमा, सुहल=सुहेल (अगस्त्य) तारा जो दूज के चंद्रमा
के साथ दिखाई पड़ता है और अरबी फारसी काव्य में प्रसिद्ध
है, खूँट=कान का एक चक्राकार गहना, मानहुँ दरपन ...देखाव=
मानो आकाश-रूपी दर्पण में जो चंद्रमा और तारे दिखाई पड़ते
हैं वे इसी पद्मावती के प्रतिबिंब हैं)

बाँक नैन औ अंजन-रेखा । खंजन मनहुँ सरद ऋतु देखा ॥
जस जस हेर, फेर चख मोरी । लरै सरद महँ खंजन-जोरी ॥
भौहैं धनुक धनुक पै हारा । नैनन्ह साधि बान-बिष मारा ॥
करनफूल कानन्ह अति सोभा । ससि-मुख आइ सूर जनु लोभा ॥
सुरँग अधर औ मिला तमोरा । सोहे पान फूल कर जोरा ॥
कुसुमगंध अति सुरँग कपोला । तेहि पर अलक-भुअंगिनि डोला ॥
तिल कपोल अलि कवँल बईठा । बेधा सोइ जेइ तिल दीठा ॥

देखि सिंगार अनूप विधि बिरह चला तब भागि ।
काल-कस्ट इमि ओनवा, सब मोरे जिउ लागि ॥9॥

(खंजन....देखा=पद्मावती का मुख चंद्र शरद के पूर्ण चंद्र
के समान होकर शरद ऋतु का आभास देता है, हेर=ताकती
है, धनुक=इंद्रधनुष, ओनवा=झुका,पड़ा, काल-कस्ट...लागि=
बिरह कहता है कि यह कालकष्ट आ पड़ा सब मेरे ही
जी के लिये)

का बरनौं अभरन औ हारा । ससि पहिरे नखतन्ह कै मारा ॥
चीर चारू औ चंदन चोला । हीर हार नग लाग अमोला ॥
तेहि झाँपी रोमावलि कारी । नागिनि रूप डसै हत्यारी ॥
कुच कंचुकी सिराफल टाँड सलोनी । डोलत बाँह भाव गति लोनी ॥
बाँहन्ह बहुटा टाँड सलोनी । डोलत बाँह भाव गति लोनी ॥
तरवन्ह कवल-करी जनु बाँधी। बसा-लंक जानहुँ दुइ आधी ॥
छुद्रघंट कटि कंचन-तागा । चलतै उठहिं छतीसौ रागा ॥

चूरा पायल अनवट पायँन्ह परहिं बियोग ।
हिये लाइ टुक हम कहँ समदहु मानहुँ भोग ॥10॥

(मारा=माला, झाँपी=ढाँक दिया, उभे=उठे हुए, बहुँटा
और टाँड=बाँह पर पहनने के गहने, पायल=पैर का एक
गहना, अनवट=अँगूठे का एक गहना, समुदहु=मिलो,
आलिंगन करो)

अस बारह सोरह धनि साजै । छाज न और; आहि पै छाजै ॥
बिनवहिं सखी गहरु का कीजै?। जेहि जिउ दीन्ह ताहि जिउ दीजे ॥
सवरि सेज धनि-मन भइ संका । ढाढ तेवानि टेकि कर लंका ॥
अनचिन्ह पिउ, कापौं मन माँहा । का मैं कहब गहब जौ बाँहा ॥
बारि बैस गइ प्रीति न जानी । तरुनि भई मैमंत भुलानी ॥
जोबन-गरब न मैं किछु चेता । नेह न जानौं सावँ कि सेता ॥
अब सो कंत जो पूछिहि बाता । कस मुख होइहि पीत कि राता ॥

हौं बारी औ दुलहिनि, पीउ तरुन सह तेज ।
ना जानौं कस होइहि चढ़ँत कंत के सेज ॥11॥

(गहरू=देर, विलंब, सँवरि=स्मरण करके, तेवनि=सोच
या चिंता में पड़ गई, अनचिन्ह=अपरिचित, साँव=श्याम,
पूछिहि=पूछेगा)

सुनु धनि! डर हिरदय तब ताई । जौ लगि रहसि मिलै नहिं साईं ॥
कौन कली जो भौंर न राई? । डार न टूट पुहुप गरुआई ॥
मातु पिता जौ बियाहै सोई । जनम निबाह कंत सँग होई ॥
भरि जीवन राखै जहँ चहा । जाइ न मेंटा ताकर कहा ॥
ताकहँ बिलँब न कीजै बारी । जो पिउ-आयसु सोइ पियारी ॥
चलहु बेगि आयसु भा जैसे । कंत बोलावै रहिए कैसे? ॥
मान न करसि, पोढ़ करु लाडू । मान मरत रिस मानै चाँडू ॥

साजन लेइ पठावा, आयसु जाइ न मेट ।
तन,मन, जोबन, साजि के देइ चली लेइ भेंट ॥12॥

(राई=अनुरुक्त हुई, डार न टूट...गरुआई=कौन फूल
अपने बोझ से ही डाल से टूट कर न गिरा? पोढ़=पुष्ट,
लाडू=लाड़,प्यार,प्रेम, चाँडू=गहरी चाहवाला, साजन=पति)

पदमिनि-गवन हंस गए दूरी । कुंजर लाज मेल सिर धूरी ॥
बदन देखि घटि चंद छपाना । दसन देखि कै बीजु लजाना ॥
खंजन छपे देखि कै नैना । किकिल चपी सुनत मधु बैना ॥
गीव देखि कै छपा मयूरू । लंक देखि कै छपा सुदूरू ॥
बौंहन्ह धनुक छपा आकारा । बेनी बासुकि छपा पतारा ॥
खड़ग छपा नासिका बिसेखी । अमृत छपा अधर-रस देखी ॥
पहुँचहि छपी कवल पौनारी । जंघ छपा कदली होइ बारी ।

अछरी रूप छपानीं जबहिं चली धनि साजि ।
जावत गरब-गहेली सबै छपीं मन लाजि ॥13॥

(मेल=डालता है, सदूरू=शार्दूल, सिंह, पहुँचा=कलाई,
पौनारी=पद्मनाल, खड़ग छपा=तलवार छिपी (म्यानमें),
बारी होइ=बगीचे में जाकर, गरब-गहेली=गर्व धारण
करनेवाली)

मिलीं गोहने सखी तराईं ।लेइ चाँद सूरज पहँ आई ॥
पारस रूप चाँद देखराई । देखत सूरुज गा मुरझाई ॥
सोरह कला दिस्टि ससि कीन्ही । सहसौ कला सुरुज कै लीन्ही ॥
भा रवि अस्त, तराई हसी । सूर न रहा, चाँद परगसी ॥
जोगी आहि, न भोगी होई । खाइ कुरकुटा गा पै सोई ॥
पदमावति जसि निरमल गंगा । तू जो कंत जोगी भिखमंगा ॥
आइ जगावहिं `चेला जागै । आवा गुरू, पायँ उठि लागै'॥

बोलहिं सबद सहेली कान लागि, गहि माथ ।
गोरख आइ ठाढ़ भा, उठु, रे चेला नाथ!॥14॥

(गोहने=साथ में, कुरकुटा=अन्न का टुकड़ा;मोटा रुखा
अन्न ।पै=निश्चयवाचक,ही, नाथ=जोगी,गोरखपंथी
साधु नाथ कहलाते हैं)

सुनि यह सबद अमिय अस लागा । निद्रा टूटि, सोइ अस जागा ॥
गही बाँह धनि सेजवाँ आनी । अंचल ओट रही छपि रानी ॥
सकुचै डरै मनहि मन बारी । गहु न बाँह, रे जोगि भिखारी? ॥
ओहट होसि, जोगि! तोरि चेरी । आवै बास कुरकुटा केरी ॥
देखि भभूति छूति मोहि लागै । काँपै चाँद, सूर सौं भागै ॥
जोगि तोरि तपसी कै काया । लागि चहै मोरे अँग छाया ॥
बार भिखारि न माँगसि भीखा । माँगे आइ सरग पर सीखा ॥

जोगि भिखारि कोई मँदिर न पैठै पार ।
माँगि लेहु किछु भिक्षा जाइ ठाढ़ होइ बार ॥15॥

(बार=द्वार, पैठ पार=घुसने पाता है)

मैं तुम्ह कारन, पेम-पियारी । राज छाँडि कै भएउँ भिखारी ॥
नेह तुम्हार जो हिये समाना । चितउर सौं निसरेउँ होइ आना ॥
जस मालति कहँ भौंर बियोगी । चढ़ा बियोग, चलेउँ होइ जोगी ॥
भौंर खोजि जस पावै केवा । तुम्ह कारन मैं जिउ पर छेवा ॥
भएउँ भिखारि नारि तुम्ह लागी । दीप=पतँग होइ अँगएउँ आगी ॥
एक बार मरि मिले जो आई । दूसरि बार मरै कित जाई ॥
कित तेहि मीचु जो मरि कै जीया?। भा सो अमर, अमृत-मधु पीया ॥

भौंर जो पावै कँवल कहँ बहु आरति बहु आस ।
भौंर होइ नेवछावरि, कँवल देइ हँसि बास ॥16॥

(होइ आना=अन्य अर्थात् योगी होकर, केवा=कमल,
छेवा=फेंका, डाला खेला, अँगएउँ=अँगेजा,शरीर पर सहा)

अपने मुँह न बड़ाई छाजा । जोगी कतहुँ होहिं नहिं राजा ॥
हौं रानी, तू जोगि भिखारी । जोगहि भोगहि कौन चिन्हारी?॥
जोगी सबै छंद अस खेला । तू भिखारि तेहि माहिं अकेला ॥
पौन बाँधि अपसवहिं अकासा । मनसहिं जाहिं ताहि के पासा ॥
एही भाँति सिस्टि सब छरी । एही भेख रावन सिय हरी ॥
भौंरहिं मीचु नियर जब आवा । चंपा-बास लेइ कहँ धावा ॥
दीपक-जोति देखि उजियारी । आइ पाँखि होइ परा भिखारी ॥

रैनि जो देखै चंदमुख ससि तन होइ अलोप ।
तुहुँ जोगी तस भूला करि राजा कर ओप ॥17॥

(चिन्हारी=जान पहचान, छंद=कपट,धूर्तता, तेहि माहिं
अकेला=उनमें एक ही धूर्त्त है, अपसवहि=जाते हैं,
मनसहिं=मन में ध्यान या कामना करते हैं)

अनु, धानि तू निसिअर निसि माहाँ । हौं दिनिअर जेहि कै तूछाहाँ॥
चादहि कहाँ जोति औ करा । सुरुज के जोति चाँद निरमरा ॥
भौंर बास-चंपा नहिं लेई । मालति जहाँ तहाँ जिउ देई ॥
तुम्ह हुँत भएउँ पतँग कै करा । सिंघलदीप आइ उड़ि परा ॥
सेएउँ महादेव कर बारू । तजा अन्न, भा पवन अहारू ॥
अस मैं प्रीति गाठि हिय जोरी । कटै न काटे, छुटै न छोरी ॥
सीतै भीखि रावनहिं दीन्हीं । तूँ असि निठुर अतरपट कीन्हीं ॥

रंग तुम्हारेहि रातेउँ, चढ़ेउँ गगन होइ सूर ।
जहँ ससि सीतल तहँ तपौं,मन हींछा,धनि!पूर॥18॥

(निसिअर=निशाकर,चंद्रमा, अनु=फिर, आगे, करा=कला,
तुम्ह हुँत=तुम्हारे लिये, पतँग कै करा=पतंग के रूप का,
बारू=द्वार)

जोगि भिखारी! करसि बहु बाता । कहसि रंग, देखौं नहिं राता ॥
कापर रँगे रंग नहिं होई । उपजे औटि रंग भल सोई ॥
चाँद के रंग सुरुज जब राता । देखै जगत साँझ परभाता ।
दगधि बिरह निति होइ अँगारा । ओही आँच धिकै संसारा ॥
जो मजीठ औटे बहु आचा । सो रंग जनम न डोलै राँचा ॥
जरै बिरह जस दीपक=बाती भीतर जरै, उपर होइ राती ॥
जरि परास होइ कोइल-भेसू । तब फूलै राता होइ टेसू ॥

पान,सुपारी, खैर जिमि मेरइ करै चकचून ।
तौ लगि रंग न राचै जौ लगि होइ न चून ॥19॥

(देखै...जगत परभाता=संध्या सवेरे जो ललाई
दिखाई पड़ती है, धिकै=तपता है, मजीठ=साहित्य में
पक्के राग या प्रेम को मंजिष्ठा राग कहते हैं, जनम
न डोलै=जन्म भर नहीं दूर होता, चक चून करै=चूर्ण
करे, चून=चूना पत्थर या कंकड़ जलाकर बनाया जाता है)

का, धनि! पान-रंग, का चूना । जेहि तन नेह दाध तेहि दूना ॥
हौं तुम्ह नेह पियर भा पानू । पेडी हुँत सोनरास बखानू ॥
सुनि तुम्हार संसार बड़ौना । जोग लीन्ह, तन कीन्ह गड़ौना ॥
करहिं जो किंगरी लेइ बैरागी । नौती होइ बिरह कै आगी ॥
फेरि फेरि तन कीन्ह भुँजौना । औटि रकत रँग हिरदय औना ॥
सूखि सोपारी भा मन मारा । सिरहिं सरौता करवत सारा ॥
हाड़ चून भा, बिरहँहि दहा । जानै सोइ जो दाध इमि सहा ॥

सोई जान वह पीरा जेहि दुख ऐस सरीर ।
रकत-पियासा होइ जो का जानै पर पीर?॥20॥

(पेडी हुँत=पेडी ही से; जो पान डाल या पेडी ही में
पुराना होता है उसे भी पेडी ही कहते हैं, सोनरास=पका
हुआ सफेद या पीला पान, बड़ौना=(क) बड़ाई, (ख)एक
जाति का पान, गडौना=एक प्रकार का पान जो जमीन
में गाड़कर पकाया जाता है, नौती=नूतन,ताजी, भुँजौना
कीन्ह=भुना, औना=आना है, आ सकता है)

जोगिन्ह बहुत छंद न ओराहीं । बूँद सेवाती जैस पराहीं ॥
परहिं भूमि पर होइ कचूरु । परहिं कदलि पर होइ कपूरू ॥
परहिं समुद्र खार जल ओही । परहिं सीप तौ मोती होहीं ॥
परहिं मेरु पर अमृत होई । परहिं नागमुख विष होइ सोई ॥
जोगी भौंर निठुर ए दोऊ । केहि आपन भए? कहै जौ कोऊ ॥
एक ठाँव ए थिर न रहाहीं । रस लेइ खेलि अनत कहुँ जाहीं ॥
होइ गृही पुनि होइ उदासी । अंत काल दूवौ बिसवासी ॥

तेहि सौं नेह को दिढ़ करै? रहहिं न एकौ देस ।
जोगी, भौंर, भिखारी इन्ह सौं दूर अदेश ॥21॥

(ओराहीं=चुकते हैं, छंद=छल,चाल, कचूर=हलदी की
तरह का एक पौधा, दूरि अदेश=दूर ही से प्रणाम)

थल थल नग न होहिं जेहि जोती । जल जल सीप न उपनहिं मोती ॥
बन बन बिरिछ न चंदन होई । तन तन बिरह न उपनै सोई ॥
जेहि उपना सो औटि मरि गयऊ । जनम निनार न कबहूँ भएऊ ॥
जल अंबुज,रवि रहै अकासा । जौं इन्ह प्रीति जानु एक पासा ॥
जोगी भौंर जो थिर न रहाहीं । जेहि खोजहि तेहि पावहिं नाहीं ॥
मैं तोहि पायउँ आपन जीऊ । छाड़ि सेवाति न आनहि पीऊ ॥
भौंर मालती मिलै जौ आई । सो तजि आन फूल कित जाई?॥

चंपा प्रीति न भौंरहि, दिन दिन आगरि बास ।
भौंर जो पावै मालती मुएहु न छाँड़ै पास ॥22॥

(न आनहिं पीऊ=दूसरा जल नहीं पीता, आगरि=अधिक)

ऐसे राजकुवर नहीं मानौं । खेलु सारि पाँसा तब जानौं ॥
काँचे बारह परा जो पाँसा । पाके पैंत परी तनु रासा ॥
रहै न आठ अठारह भाखा । सोरह सतरस रहैं त राखा ॥
सत जो धरै सो खेलनहारा । ढारि इगारह जाइ न मारा ॥
तूँ लीन्हे आछसि मन दूवा । ओ जुग सारि जहसि पुनि छूवा ॥
हौं नव नेह रचों तोहि पाहा । दसव दाव तोरे हिय माहा ॥
तौ चौपर खेलौं करि हिया । जौ तरहेल होइ सौतिया ॥

जेहि मिलि बिछुरन औ तपनि अंत होइ जौ नित ।
तेहि मिलि गंजन को सहै? बरु बिनु मिलै निचिंत ॥23॥

(सारी=गोटी पैंत=दाँव, रास=ठीक, सत=सत्य,सात का
दाँव, इगारह=दस इंद्रियाँ और मन, ग्यारह का दाँव, दूवा=
दुबधा, जुग सारि=दो गोटियाँ,कुच, दसवँ दावँ=दसवाँ
दाँव,अंत तक पहुँचानेवाली चाल, तरहेल=अधीन,नीचे
पड़ा हुआ, सौतिया=तिया,एक दाँव,सपत्नी, गंजन=नाश,
दुःख)

बोलौं रानि! बचन सुनु साचा । पुरुष क बोल सपथ औ बाचा
यह मन लाएउ तोहिं अस, नारी । दिन तुइ पासा औ निसि सारी ॥
पौ परि बारहि बार मनाएउ । सिर सौ खेलि पैंत जिउ लाएउ ॥
हौं अब चौंक पंज तें बाची । तुम्ह बिच गोट न आवहि काची ॥
पाकि उठाएउ आस करीता । हौं जिउ तोहि हारा, तुम जीता ॥
मिलि कै जुग नहिं होहु निनारी । कहा बीच दूती देनिहारी? ॥
अब जिउ जनम जनम पासा । चढ़ेउँ जोग, आएउँ कबिलासा ॥

जाकर जीऊ बसै जेहि तेहि पुनि ताकर टेक ।
कनक सोहाग न बिछुरे, ओटि मिलै होइ एक ॥24॥

(बाचा=प्रतिज्ञा, पैंत लाएउ=दाँव पर लगाया, चौक पंज=
चौका पंजा दाँव, छल=कपट,छक्का पंजा, तुम्हबिच.....काँची=
कच्ची,गोटी तुम्हारे बीच नहीं पड़ सकती पाकि=पक्की
गोटी, जुग निनारा होना=चौसर में युग फूटना,जोड़ा
अलग होना, कहाँ बीच...देनिहारी=मध्यस्त होनेवाली
दूती की कहाँ आवश्यकता रह जाती है)

बिहँसी धनि सुनि कै सत बाता । निहचय तू मोरे रंग राता ॥
निहचय भौर कवल-रस सा । जो जेहि मन सो तेहि मन बसा ॥
जब हीरामन भएउ सँदेसी । तुम्ह हुँत मँडप गइउँ, परदेसी ॥
तोर रूपतस देखेउँ लोना । जनु, जोगी! तू मेलेसि टोना ॥
सिधि-गुटिका जो दिस्टि कमाई । पारहि मेलि रूप बैसाई ॥
भुगुति देइ कहँ मैं तोहि दीठा । कँवल-नैन होइ भौंर बईठा ॥
नैन पुहुप, तू अलि भा सोभी । रहा बेधि अस, उढ़ा न लोभी ॥

जाकर आस होइ जेहि, तेहि पुनि ताकरि आस ।
भौंर जो दाधा कँवल कहँ, कस न पाव सो बास? ॥25॥

(सँदेसी=संदेसा ले जाने वाला, तुम्ह हुँत=तुम्हारे लिये,
रूप=रूपा,चाँदी, बैसाय=बैठाया,जमाया, कँवल-नैन ...बईठा
मेरे नेत्र कमल में तू भौंरा (पुतली के समान ) होकर बैठ
गया, कँवल कहँ=कमल के लिए)

कौन मोहनी दहुँ हुति तोही । जो तोहि बिधा सो उपनी मोही ॥
बिनु जल मीन तलफ जस जीऊ । चातकि भइउँ कहत "पीउ पीउ"॥
जरिउँ बिरह जस दीपक-बाती । पंथ जोहत भइ सीप सेवाती ॥
डाढि डाढि जिमि कोइल भई । भइउँ चकोरि, नींद निसि गई ॥
तोरे पेम पेम मोहिं भएऊ । राता हेम अगिनि जिमि तएऊ॥
हीरा दिपै जौ सूर उदोती । नाहिं त किंत पाहन कहँ जोती! ॥
रवि परगासे कँवल बिगासा । नाहिं त कित मधुकर, कित बासा ॥

तासौं कौन अँतरपट जो अस पीतम पीउ ।
नेवछावरि अब सारौं तन, मन, जोबन, जीउ ॥26॥

हँसि पदमावति मानी बाता । निहचय तू मोरे रँग राता ॥
तू राजा दुहुँ कुल उजियारा । अस कै चरिचिउँ मरम तुम्हारा ॥
पै तूँ जंबूदीप बसेरा । किमि जानेसि कस सिंघल मोरा?॥
किमि जानेसि सो मानसर केवा । सुनि सो भौंर भा, जिउ पर छेवा ॥
ना तुँइ सुनी, न कबहूँ दीठी । कैस चित्र होइ चितहि पईठी? ॥
जौ लहि अगिनि करै नहिं भेदू । तौ लहि औटि चुवै नहिं मेदू ॥
कहँ संकर तोहि ऐस लखावा?। मिला अलख अस पेम चखावा ॥

जेहि कर सत्य सँघाती तेहि कर डर सोइ मेट ।
सो सत कहु कैसे भा,दुवौ भाँति जो भेंट ॥27॥

(चरचिउँ=मैंने भाँपा, बसेरा=निवासी, केवा=कमल,
छेवा=डाला या खेला)

सत्य कहौं सुनु पदमावती । जहँ सत पुरुष तहाँ सुरसती ॥
पाएउँ सुवा, कही वह बाता । भा निहचय देखत मुख राता ।
रूप तुम्हार सुनेउँ अस नीका । ना जेहि चढ़ा काहु कहँ टीका ॥
चित्र किएउँ पुनि लेइ लेइ नाऊँ । नैनहि लागि हिये भा ठाऊँ ॥
हौं भा साँच सुनत ओहि घड़ी । तुम होइ रूप आइ चित चढ़ी ॥
हौं भा काठ मूर्ति मन मारे । चहै जो कर सब हाथ तुम्हारे ॥
तुम्ह जौ डोलाइहु तबहिं डोला । मौन साँस जौ दीन्ह तौ बोला ॥

को सोवै, को जागै? अस हौं गएउँ बिमोहि ।
परगट गुपुत न दूसर, जहँ देखौं तहँ तोहि ॥28॥

(नैनहि लागि=आँखों से लेकर, साँच=सत्य स्वरूप,
साँचा, रूप, चाँदी)

बिहँसी धनि सुनि कै सत भाऊ । हौं रामा तू रावन राऊ ॥
रहा जो भौंर कँवल के आसा । कस न भोग मानै रस बासा?॥
जस तस कहा कुँवर! तू मोही । तस मन मोर लाग पुनि तोही ॥
जब-हुँत कहि गा पंखि सँदेसी । सुनिउँ कि आवा है परदेसी ॥
तब-हुत तुम बिनु रहै न जीऊ । चातकि भइउँ कहत "पिउ पिऊ ॥
भइउ चकोरि सो पंथि निहारी । समुद सीप जस नैन पसारी ॥
भइउ बिरह दहि कोइल कारी । डार डार जिमि कूकि पुकारी ॥

कौन सो दिन जब पिउ मिलै यह मन राता तासु ।
वह दुख देखै मोर सब, हौं दुख देखौं तासु ॥29॥

(रावन=रमण करनेवाला,रावण, जब-हुँत=जब से,
सुनिउँ=(मैंने ) सुना, तबहुँत=तब से)

कहि सत भाव भई कँठलागू । जनु कंचन औ मिला सोहागू ॥
चौरासी आसन पर जोगी । खट रस, बंधक चतुर सो भोगी ॥
कुसुम-माल असि मालति पाई । जनु चम्पा गहि डार ओनाई ॥
कली बेधि जनु भँवर भुलाना । हना राहु अरजुन के बाना ॥
कंचन करी जरी नग जोती । बरमा सौं बेधा जनु मोती ॥
नारँग जानि कीर नख दिए । अधर आमरस जानहुँ लिए ॥
कौतुक केलि करहिं दुख नंसा । खूँदहिं कुरलहिं जनु सर हंसा ॥

रही बसाइ बासना चोवा चंदन मेद ।
जुहि अस पदमिनि रानी सो जानै यह भेद ॥30॥

(चौरासी आसन=योग के, कामशास्त्र के बंधक=
कामशास्त्र के बंध, औनाई=झुकाई, राहु=रोहू मछली,
बरमा=छेद करने का औजार, नंसा करहि=नष्ट करते
हैं, खूँदहिं=कुदते हैं, कुरलहिं=हंस आदि के बोलने को
कुरलाना कहते हैं)

रतनसेन सो कंत सुजानू । खटरस-पंडित सोरह बानू ॥
तस होइ मिले पुरुष औ गोरी ।जैसी बिछुरी सारस-जोरी ॥
रची सारि दूनौ एक पासा । होइ जुग जुग आवहिं कबिलासा ॥
पिय धनि गही, दीन्हि गलबाहीं । धनि बिछुरी लागी उर माहीं ॥
ते छकि रस नव केलि करेहीं । चोका लाइ अधर-रस लेहीं ॥
धनि नौ सात, सात औ पाँचा । पुरुष दस ते रह किमि बाँचा?॥
लीन्ह बिधाँसिं बिरह धनि साजा । औ सब रचन जीत हुत राजा ॥

जनहुँ औटि कै मिलि गए तस दूनौ भए एक ।
कंचन कसत कसौटी हाथ न कोऊ टेक ॥31॥

(बानू=वर्ण,दीप्ति,कला, गौरी=स्त्री, सारि=चौपड़,
चोका=चूसने की क्रिया या भाव, चोका लाइ=चूसकर,
नौ सात=सोलह श्रृंगार, सात औ पाँचा=बारह आभरण,
पुरुष....बाँचा=वे श्रृंगार और आभरण पुरुष की दस
उँगलियों से कैसे बचे रह सकते हैं)

चतुर नारि चित अधिक चिहूँटी । जहाँ पेम बाढ़े किमी छूटी ॥
कुरला काम केरि मनुहारी । कुरला जेहिं सो न सुनारी ॥
कुरलहिं होइ कंत कर तोखू । कुरलहि किए पाव धनि मोखू ॥
जेहि कुरला सो सोहाग सुभागी । चंदन झेस साम कँठ लागी ॥
गेंद गोद कै जानहु लई । गेंद चाहि धनि कोमल भई ॥
दारिउँ, दाख, बेलरस चाखा । पिय के खेल धनि जीवन राखा ॥
भएउ बसंत कली मुख खोली । बैन सोहावन कोकिल बोली ॥

पिउ पिउ करत जो सूखि रहि धनि चातक की भाँति ।
परी सो बूँद सीप जनु, मोती होइ सुख-सांति ॥32॥

(चिहूँटी=चिमटी, कुरला=क्रीड़ा, मनुहारी=शांति,तृप्ति,
मोखू=मोक्ष,छुटकारा, चाहि=अपेक्षा,बनिस्बत)

भएउ जूझ जस रावन रामा । सेज बिधाँसि बिरह-संग्रामा ॥
लीन्हि लंक, कंचन-गढ़ टूटा । कीन्ह सिंगार अहा सब लूटा ॥
औ जोबन मैमंत विधाँसा । विचला बिरह जीउ जो नासा ॥
टूटे अंग अंग सब भेसा । छूटी माँग, भंग भए केसा ॥
कंचुकि चूर, चूर भइ तानी । टूटे हार, मोति छहरानी ॥
बारी, टाँण सलोनी टूटी । बाहूँ कँगन कलाई फूटी ॥
चंदन अंग छूट अस भेंटी । बेसरि टूटि, तिलक गा मेटी ॥

पुहुप सिंगार सँवार सब जोबन नवल बसंत ।
अरगज जिमि हिय लाइ कै मरगज कीन्हेउ कंत ॥33॥

(बिधाँसि=विध्वंस की गई,बिगड़ गई, जीउ जो नासा=
जिसने जीव की दशा बिगाड़ रखी थी, तानी=तनी,बंद,
बारी=बालियाँ, अरगज=अरगजा नामक सुगंध-द्रव्य
जिसका लेप किया जाता है, मरगज=मला-दला हुआ)

बिनय करै पदमावति बाला । सुधि न, सुराही पिएउ पियाला ॥
पिय-आयसु माथे पर लेऊँ । जो माँगै नइ नइ सिर देऊँ ॥
पै, पिय! बचन एक सुनु मोरा । चाखु, पिया! मधु थोरै थोरा ॥
पेम-सुरा सोई पै पिया । लखै न कोई कि काहू दिया ॥
चुवा दाख-मधु जो एक बारा । दूसरि बार लेत बेसँभारा ॥
एक बार जो पी कै रहा । सुख-जीवन, सुख-भोजन लहा ॥
पान फूल रस रंग करीजै । अधर अधर सौं चाखा कीजै ॥

जो तुम चाहौ सौ करौ, ना जानौ भल मंद ।
जो भालै सो होइ मोहिं तुम्ह, पिउ! चहौं अनंद ॥34॥

(नइ=नवाकर)

सुनु, धनि! प्रेम-सुरा के पिए । मरन जियन डर रहै न हिए ॥
जेहि मद तेहि कहाँ संसारा । को सो घूमि रह, की मतवारा ॥
सो पै जान पियै जो कोई । पी न अघाइ, जाइ परि सोई ॥
जा कहँ होइ बार एक लाहा । रहै न ओहि बिनु, ओही चाहा ॥
अरथ दरब सो देइ बहाई । की सब जाहु, न जाइ पियाई ॥
रातिहु दुवस रहै रस-भीजा । लाभन देख, न देखै छीजा ॥
भोर होत तब पलुह सरीरू । पाव कूमारी सीतल नीरू ॥

एक बार भरि पियाला, बार-बार को माँग?।
मुहमद किमि न पुकारै ऐस दाँव जो खाँग? ॥35॥

(जाइ परि सोई=पड़कर सो जाता है, छीजा=क्षति,
हानि, पलुह=पनपता है, खाँग=कमी हुई)

भा बिहान ऊठा रवि साईं । चहुँ दिसि आईं नखत तराईं ॥
सब निसि सेज मिला ससि सूरू । हार चीर बलया भए चूरू ॥
सो धनि पान, चून भइ चोली । रग-रँघीलि निरग भइ भोली ॥
जागत रैनि भएउ भिनसारा । भई अलस सावत बेकरारा ॥
अलक सुरंगिनि हिरदय परी । नारंग छुव नागिनि बिष-भरी ॥
लरी मुरी हिय-हार लपेटी । सुरसरि जनु कालिंदी भेंटी ॥
जनु पयाग अरइल बिच मिली । सोमित बेनी रोमावली ॥

नाभी लाभु पुन्नि कै कासीकुंड कहाव ।
देवता करहिं कलप सिर आपुहि दोष न लाव ॥36॥

(रवि=सूर्य और रत्नसेन, साईं=स्वामी, नखत तराईं=
सखियाँ, बलया=चूड़ी, पान=पके पान सी सफेद या
पीली, चून=चूर्ण, निरँग=विवर्ण,बदरंग, आलस=
आलस्य-युक्त, छुव=छूती है, लरी मुरी=बाल की
काली लटें मोतियों के हार से लिपटकर उलझीं,
नाभी लाभु....लाव=नाभि पुण्य लाभ करके
काशीकुंड कहलाती है इसी से देवता लोग उस
पर सिर काटकर मरते हैं पर उसे दोष नहीं
लगता)

बिहँसि जगावहिं सखी सयानी । सूर उठा, उठु पदमिनि रानी! ॥
सुनत सूर जनु कँवल बिगासा । मधुकर आइ लीन्ह मधु बासा ॥
जनहुँ माति निसयानी बसी । अति बेसँभार फूलि जनु अरसी ॥
नैन कवँल जानहुँ दुइ फूले । चितवन मोहि मिरिग जनु भूले ॥
तन न सँभार केस औ चोली । चित अचेत जनु बाउरि भोली ॥
भइ ससि हीन गहन अस गही । बिथुरे नखत, सेज भरि रही ॥
कँवल माँह जनु केसरि दीठी । जोबन हुत सो गँवाइ बईठी ॥

बेलि जो राखी इंद्र कहँ पवन बास नहिं दीन्ह ।
लागेउ आइ भौंर तेहि, कली बेधि रस लीन्ह ॥37॥

(सुनत सूर...मधुबासा=कमल खिला अर्थात् नेत्र
खुले और भौंरे मधु और सुगंध लेने बैठे अर्थात्
काली पुतलियाँ दिखाई पड़ीं, निसयानीं=सुध-बुध
खोए हुए, बिथुरे नखत=आभूषण इधर-उधर
बिखरे हैं)

हँसि हँसि पूछहिं सखी सरेखी । मानहुँ कुमुद चंद्र-मुख देखी ॥
रानी! तुम ऐसी सुकुमारा । फूल बास तन जीव तुम्हारा ॥
सहि नहिं सकहु हिये पर हारू । कैसे सहिउ कंत कर भारू?॥
मुख-अंबुज बिगसे दिन राती । सो कुँभिलान कहहु केहि भाँती?॥
अधर-कँवल जो सहा न पानू । कैसे सहा लाग मुख भानू?॥
लंक जो पैग देत मुरि जाई । कैसे रही जौ रावन राई?॥
चंदन चोव पवन अस पीऊ । भइउ चित्र सम, कस भा जीऊ?॥

सब अरगज मरगज भयउ, लोचन बिंब सरोज ।
`सत्य कहहु पद्मावति' सखी परीं सब खोज ॥38॥

(सरेखी=सयानी,चतुर, फूल बास...तुम्हारा=फूल
शरीर और बास जीव, रावन=रमण करनेवाला,
रावण, खोज परीं=पीछे पड़ी)

कहौं, सखी! आपस सतभाऊ । हौं जो कहति कस रावन राऊ ॥
काँपी भौंर पुहुप पर देखे । जनु ससि गहन तैस मोहिं लेखे
आजु मरम मैं जाना सोई । जस पियार पिउ और न कोई ॥
डर तौ लगि हिय मिला न पीऊ । भानु के दिस्टि छूटि गा सीऊ ॥
जत खन भानु कीन्ह परगासू । कँवल-कली मन कीन्ह बिगासू ॥
हिये छोह उपना औ सीऊ । पिउ न रिसाउ लेउ बरु जीऊ ॥
हुत जो अपार बिरह-दुख दूखा । जनहुँ अगस्त-उदय जल सूखा ॥

हौं रँग बहुतै आनति, लहरै जैस समुंद ।
पै पिउ कै चतुराई खसेऊ न एकौ बुंद ॥39॥

(मोहिं लेखे=मेरे हिसाब से,मेरी समझ में, दूखा=नष्ट
हुआ, खसेउ=गिरा)

करि सिंगार तापहँ का जाऊँ । ओही देखहुँ ठावहिं ठाँऊँ ॥
जौ जिउ महँ तौ उहै पियारा । तन मन सौं नहिं होइ निनारा ॥
नैन माँह है उहै समाना । देखौ तहाँ नाहिं कोउ आना ॥
आपन रस आपुहि पै लेई । अधर सोइ लागे रस देई ॥
हिया थार कुच कंचन लाडू । अगमन भेंट दीन्ह कै चाँडू ॥
हुलसी लंक लंक सौं लसी । रावन रहसि कसौटी कसी ॥
जोबन सबै मिला ओहि जाई । हौं रे बीच हुँत गइउँ हेराई ॥

जस किछु देइ धरै कहँ, आपन लेइ सँभारि ।
रसहि गारि तस लीन्हेसि, कीन्हेसि मोहि ठँठारि ॥40॥

(चाँडू=चाह, जस किछु देइ धरै कहँ=जैसे वस्तु धरोहर
रखे और फिर उसे सहेज कर ले ले, ठँठारि=खुक्ख)

अनु रे छबीली! तोहि छबि लागी । नैन गुलाल कंत सँग जागी ॥
चंप सुदरसन अस भा सोई । सोनजरद जस केसर होई ॥
बैठ भौंर कुच नारँग बारी । लागे नख, उछरीं रँग-धारी ॥
अधर अधर सों भीज तमोरा । अलकाउर मुरि मुरि गा तोरा ॥
रायमुनी तुम औ रत मुहीं । अलिमुख लागि भई फुलचुहीं ॥
जैस सिंगार हार सौं मिली । मालति ऐसि सदा रहु खिली ॥
पुनि सिंगार करू कला नेवारी । कदम सेवती बैठु पियारी ॥

कुंद कली सम बिगसी ऋतु बसंत औ फाग ।
फूलहु फरहु सदा सुख औ सुखसुफल सोहाग ॥41॥

(चंप सुदरसन...होई=तेरा वह सुंदर चंपा का सा रंग
जर्द चमेली सा पीला हो गया है, उछरीं=पड़ी हुई दिखाई
पड़ीं, धारी=रखा, तमोरा=तांबूल, अलकाउर=अलकावलि,
तोरा=तेरा, रायमुनी=एक छोटी सुंदर चिड़िया, रतमुहीं=
लाल मुँह वाली, फुलचुहीं=फुलसुँघनी नाम की छोटी
चिड़िया, सिंगार हार=सिंगार को अस्त-व्यस्त
करनेवाला नायक, परजाता फूल, कला=नकलबाजी,
बहाना (अवधी), नेवारी=दूर कर,एक फूल, कदम
सेवती=चरणों की सेवा करती हुई,कदंब व सेवती फूल)

कहि यह बात सखी सब धाईं । चंपावति पहँ जाइ सुनाई ॥
आजु निरँग पद्मावती बारी । जीवन जानहुँ पवन-अधारी ॥
तरकि तरकि गइ चंदन चोली । धरकि धरकि हिय उठै न बोली ॥
अही जौ कली-कँवल रसपूरी । चूर चूर होइ गईं सो चूरी ॥
देखहु जाइ जैसि कुभिलानी । सुनि सोहाग रानी विहँसानी ॥
सेइ सँग सबही पदमिनी नारी । आई जहँ पदमावति बारी ॥
आइ रूप सो सबही देखा । सोन-बरन होइ रही सो रेखा ॥

कुसुम फूल जस मरदै, निरँग देख सब अंग ।
चंपावति भइ बारी, चूम केस औ मंग ॥42॥

(निरंग=विवर्ण,बदरंग, पवन अधारी=इतनी सुकुमार है
कि पवनही के आधार पर मानो जीवन है, अही=थी,
वारी भइ=निछावरि हुई, मंग=माँग)

सब रनिवास बैठ चहुँ पासा । ससि-मंडल जनु बैठ अकासा ॥
बोलीं सबै "बारि कुँभिलानी । करहु सँभार, देहु खँडवानी ॥
कँवल कली कोमल रँग-भीनी । अति सुकुमारि. लंक कै छीनी ॥
चाँद जैस धनि हुत परगासा । सहस करा होइ सूर बिगासा ॥
तेहिके झार गहन अस गही । भइ निरंग, मुख-जोति न रही ॥
दरब वारि किछु पुन्नि करेहू । औ तेहि लेइ सन्यासिहि देहू ॥
भरि कै थार नखत गजमोती । बारा कीन्ह चंद कै जोती ॥

कीन्ह अरगजा मरदन औ सखि कीन्ह नहानु ।
पुनि भइ चौदसि चाँद सो रूप गएउ ठपि भानु ॥43॥

(झार=ज्वाला,तेज, वारि=निछावर करके, वारा कीन्ह=
चारों ओर घुमाकर उत्सर्ग किया)

पुनि बहु चीर आन सब छोरी । सारी कंचुकि लहर=पटोरी ॥
फुँदिया और कसनिया राती । छायल बँद लाए गुजराती ॥
चिकवा चीर मघौना लोने । मोति लाग औ छापे सोने ॥
सुरंग चीर भल सिंघलदीपी । कीन्ह जो छापा धनि वह छीपी ॥
पेमचा डरिया औ चौधारी । साम, सेत पीयर, हरियारी ॥
सात रंग औ चित्र चितेरे । भारि कै दीठि जाहिं नहीं हेरे ॥
चँदनौता औ खरदुक भारी । बाँसपूर झिलमिल कै सारी ॥

पुनि अभरन बहु काढ़ा, अनबन भोति जराव ।
हेरि फेरि निति पहिरै, जब जैसे मन भाव ॥44॥

(लहर-पटोरी=पुरानी चाल का रेशमी लहरिया कपड़ा,
फुँदिया=नीवी या इजारबंद के फुलरे, कसनिया=कसनी,
एक प्रकार की अँगिया, छायल=एक प्रकार की कुरती,
चिकवा=चिकट नाम का रेशमी कपड़ा, मघोना=
मेघवर्ण अर्थात् नील का रँगा कपड़ा, पेमचा=एक
प्रकार का कपड़ा, चौधारी=चारखाना, हरियारी=हरी,
चितेरे=चित्रित, चँद नौता=एक प्रकार का लहँगा,
खरदुक=कोई पहनावा, बाँसपूर=ढाके की बहुत
महीन तंजेब जिसका थान बाँस की पतली नली
में आ जाता था, झिलमिल=एक बारीक कपड़ा,
अनबन=अनेक)

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