शंकर लाल द्विवेदी
Shankar Lal Dwivedi

स्व. शंकरलाल द्विवेदी (१९४१-१९८१), हिंदी एवं ब्रजभाषा साहित्य के मूर्धन्य कवि थे। २१ जुलाई, १९४१ को पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ जनपद की गभाना तहसील के ग्राम-बारौली में उनका देहावतरण हुआ। ओज और श्रृंगार दोनों पक्षों पर श्री द्विवेदी का समानाधिकार रहा है। अपनी ओजमयी वाणी एवं गीत-माधुर्य की विशिष्टता के कारण अखिल भारतीय स्तर पर हिंदी कवि-सम्मेलनों में उन्हें ख़ासा सम्मान प्राप्त था। उनके कृतित्व में जीवन का स्पंदन तथा द्वंद्व, सम-भाव से उपस्थित है। यह अक्षर-सम्पदा सचमुच अक्षर-सम्पदा ही है। श्री द्विवेदी में गहन-सौन्दर्य- बोध विद्यमान था, यह उनके कृतित्व में भी परिलक्षित होता है। नारी-सौन्दर्य के प्रति उनके चिन्तन में दिव्य- चेतना दिखाई देती है। वे अनुरागी हैं, तो वैरागी भी हैं। उनके काव्य में ग्रामीण परिवेश की मानसिक संरचना बिलकुल संतों की वाणी के समान सुनाई पड़ती है। राजनैतिक मतवादों के प्रति बंधन-मुक्त रहते हुए भी सामयिक राजनीति के प्रति काव्यात्मक स्तर पर वे संवेदनशील जान पड़ते हैं। 'ताजमहल', 'गाँधी-आश्रम', 'निर्मला की पाती', 'देश की माँटी नमन स्वीकार कर', 'विश्व-गुरु के अकिंचन शिष्यत्व पर' आदि अनेक कवितायेँ उनकी कालजयी लेखनी का परिचायक हैं।

प्यार पनघटों को दे दूंगा : शंकर लाल द्विवेदी

(सामाजिक, राजनैतिक व सांस्कृतिक चेतना के स्वर)