वतन तुम्हारे साथ है : शंकर लाल द्विवेदी
Watan Tumhare Sath Hai : Shankar Lal Dwivedi



1. वतन तुम्हारे साथ है

सीमा पर धरती की रक्षा में कटि-बद्ध सिपाहियों। हर मज़हब क़ुर्बान वतन पर, वतन तुम्हारे साथ है।। चढ़ कर आने वाले वैरी को देना चेतावनी, 'गीता' और 'क़ुरान' साथ हैं, ‘घर-द्वारे’ हैं छावनी। बूढ़ा नहीं हिमालय, उसका यौवन तो अक्षुण्ण है, संयम का यह देश, यहाँ का बच्चा-बच्चा 'कण्व' है।। मसि से नहीं, रक्त से जिसका रचा गया इतिहास हो, बहुत असंभव कण क्या, उसका अणु भी कभी उदास हो। जिस पर जनम धन्य होने को ललचाए अमरावती, उषा-निशा, रवि-शशि के स्वर्णिम मंगल-घट हों वारती।। 'रक्षा-बंधन’ जैसा मंगलमय त्यौहार मने जहाँ, कोई नहीं अकेला, सब के साथ करोड़ों हाथ हैं।। माथा दुखे अगर पूरब का, अँखियाँ भरें पछाँह की, बाट जोहता रहता सागर, हिमगिरि के प्रस्ताव की। प्राणाधिक प्रिय हमें रही है, माँटी अपने देश की, अनुमति लेनी होगी आँधी को भी यहाँ प्रवेश की।। बलि को पर्व समझने वाले अपने भारत-वर्ष का- देखें- कौन 'केतु' ग्रसता है, बालारुण उत्कर्ष का? ‘स्वर्गादपि गरीयसी जननी-जन्मभूमि’ जिनको रही- कोटि-कोटि आशीष स्वर्ग से देते हैं तुमको वही।। अपनी संगीनों से तुमने गाथा जो लिख दी वहाँ- कल-कल स्वर से गाते-रमते अविरल धवल प्रपात हैं।।

2. युद्ध, केवल युद्ध

विहँस आहुतियाँ जिन्होंने दीं वही- आज धूमाकुल नयन भरने लगे। अग्नि का सत्कार जो करते रहे- आँसुओं का आचमन करने लगे।। नग्न-तन पर कीटवत्, धिक् राजमद, देश के सम्मान पर थोपा गया। काट कर बलिदान का सूरजमुखी, संधि का, कटु कनक-तरु रोपा गया।। विकसने पर फूल, खादी के सदृश, शुभ्र होंगे, मानता हूँ मैं इसे। किन्तु आस्वादन, जनक विक्षिप्ति का- और फल के शूल, प्रिय होंगे किसे? संधि थी या दुरभि-संधि, पता नहीं? तुम शिखाएँ बाँध कर चलते बने। ठीक है, विस्तार तो कम हो गया, उग रहे हैं कुछ प्रबल अंकुर घने।। सूचिकाएँ देह में चुभती रहें, किन्तु पीड़ा-भास प्राणों को न हो। शत्रु सीमा-क्षेत्र हथियाता रहे- और ‘जन-गण-मन’ अधीराहत न हो।। वैधता अपनी स्वयं ही आँक लो, आत्म-हुत, यजमान के हस्ताक्षर! आँख में पानी भरो, लो देख लो- मोर्चे फिर जम गए आदर्श पर।। ‘युद्धाय कृत निश्चयः’-इस श्लोक का, लोग तो अनुवाद करने लग गए। अक्षरों को नोंचने वाले- 'अधम', एक हम हैं, स्वप्न देखा, जग गए।। धूप को बदनाम करते यात्रियो! ये तुम्हारे आचरण से खिन्न हैं। मिट नहीं पाए, इसी पथ पर अभी- देखते हो, सैकड़ों पद-चिह्न हैं।। ईर्ष्या जनती ललौंहे द्वेष को, देखते हैं द्वन्द्व कुछ, इस मोद में- कुछ कुतूहल को पिलाते हैं सुधा, कौन है, जो आग को ले गोद में? शीत से सब अंग हो जाएँ शिथिल, रक्त का संचार जब अवरुद्ध हो। श्वास लें, तो प्राण अकुलाने लगें- हंस जैसे हो गया शर-विद्ध हो।। आग केवल आग, थोड़ी या बहुत- चाहिए तन को तपाने के लिए। युद्ध, केवल युद्ध है संजीवनी, राष्ट्र का गौरव बचाने के लिए।। सूर्य तो है- योजनों आकाश पर, और ढलने में प्रभूत विलम्ब है। यह तुम्हारे ही घृणित दुष्कृत्य के- स्याह जल में, सूर्य का प्रतिबिंब है।। चूड़ियों को तोड़ कर उसने अभी- श्वेत वस्त्रों से ढँका था- देह को। ढीठ! दर्पण सामने क्यों रख दिया? मिल गया यह तो निमंत्रण-नेह को।। राखियों के पर्व पर सौदागरो! द्वार से सिमटी खड़ी, अपलक नयन, वेदना की थाह तो मापी नहीं; पूछ बैठे- ‘राखियाँ लोगी बहिन!’? काँपता आँचल हथेली में कसा, हिलकियों को थामता ही रह गया। हूकता अवसाद, बादल सा घुमड़- अश्रु बनकर, म्लान मुख पर बह गया।। लड़खड़ाते पाँव- लौटे, जड़ हुए, ओठ अभ्यासी पुकारे- ‘ओ बिरन’! बाँह बिखरीं शून्य आँगन में, जहाँ झुर्रियों वाली उमर ने दी शरण।। और तुम टूटी पड़ीं सब चूड़ियाँ- बीनते, पथ पर उधर चलने लगे- मोल ले कोई जहाँ, कुछ दे तुम्हें, ये गलें, तो और कुछ ढलने लगे।। नीतियों का मान रखने के लिए- कर दिया अपमान उस इतिहास का। रीतियों ने भोजपत्रों पर जिसे- रक्त से लिख-लिख, युगों संचित रखा।। जन्म-दिन पर नीति के, सब रीतियाँ, दे गईं आशीष- चिर्-जीवन जिए। अर्थ इसका यह न था- कि पिशाचिनी- रक्त उनका आँजुरी भर-भर पिए।। रक्त? हाँ, यह रीतियों का रक्त है, माँग में भरती जिसे हठवादिता। तनिक सा संकेत दे, तो आँख में- धूल को भी आँज लेती वीरता।। अंक में भर, हाथ में आँचल लिए, पौंछती थी नेह से मुख-भाल को। चूम लेती थी- पुलक जलते अधर, अनमना सा देख, माँ जिस लाल को।। 'राम-लक्ष्मण', 'भीम-अर्जुन' की कथा- माँ अगर सोते समय कहती नहीं। तो उतर पर्यंक से, कुछ कुनमुना, धूल में जो लेट जाता था वहीँ-।। लाल दे कर लाख के घर में जमे- अंध बौनो! चेतना से काम लो। रक्त की उष्मा जिलाए है जिन्हें- उन कपोतों का कहा तो मान लो।। वन्य जीवों को हृदय का स्नेह दो। यह तपोवन-वासियों का धर्म है। हिंस्र-पशु बाधा न डालें शांति में, इसलिए प्रतिबंध ही सत्कर्म है।। आग, दहकी आग ही उपयुक्त है- हिंस्र-पशुओं को डराने के लिए। युद्ध, केवल युद्ध क्षमतावान है- शांति का दीपक जलाने के लिए।। -३ नवम्बर, १९६६

3. तुम काश्मीर के लिए न शम्सीरें तानो

(1) हम मानवीय तत्वों के सच्चे साधक हैं, है प्रबल बहुत सन्मान हमारा, सच मानो। अपने नापाक इरादों पर संयम रख लो, तुम काश्मीर के लिए न शम्सीरें तानो।। (2) हर बात अगर कहने वाली ही हुआ करे, संकेतों के जीवन पर बिजली गिर जाए। घुट जाए रहस्यों की गलियों में निरा धुआँ, गम्भीर विचारों के सपने ही मर जाएँ।। (3) कल जने पूत, घुटनों के बल चल पाए हो, पैरों पर होना खड़ा, सीख तो लो पहले। जो हाथ सहारा तुम्हें आज दे-देते हैं, कल क्या मालूम, उन्हें कोई विषधर डँस ले।। (4) फिर समय किसी का सगा नहीं मेरे भाई, ख़ूनी पंजा है- परिवर्तन के हाथों में। इतना निश्चित है, विजय सत्य की होती है, कुछ तथ्य नहीं बेतुकी-बहकती बातों में।। (5) हम बार-बार समझाते तुमको आए हैं, क्यों व्यर्थ मृत्यु को स्वयं निमंत्रण देते हो? शायद कब्रों के लिए जगह की कमी पड़े- औरों के घर पर नज़र गढ़ाए रहते हो? (6) हर पंथ किया, वेदों ने सदा प्रशस्त हमें, सब कुछ ईश्वर का दिया हुआ है धरती पर। हम भागधेय औरों का लेते नहीं कभी- दावा न किसी का होने देंगे- मिट्टी पर।। (7) वैसे कुपात्र को दान दिया तो नहीं कभी, बन कर फ़कीर तुम अगर द्वार पर आए तो- तुमको समोद, थाली तक अर्पित कर देंगे, लेकिन, जासूसी-फंदा कोई लाए, तो-।। (8) जो अंडे कर विद्रोह, परिधि से निकल गए, विख्यात, सर्पिणी उन्हें स्वयं ही खा लेगी। जिसको पाला था दूध पिला कर सीने का- माँ उसे उढ़ा कर कफ़न, बहुत है रो लेगी।। (9) निर्द्वन्द्व शांति के गीत हमें गा लेने दो- मत करो कभी मजबूर कि भैरव में गाएँ। क्या होगा, हर कवि रूप धरे यदि ‘भूषण' का? फिर ‘रासो’ रचने ‘चन्द’ धरा पर आ जाएँ।। (10) 'अकबर' के लिए गीत श्रद्धा से, लिख देंगे- गा देंगे, यह विश्वास कभी मत कर लेना। तुम चले अगर 'औरंगज़ेब' के चिह्नों पर- हर साँस 'शिवाजी' होगी, सोच-समझ लेना।। (11) सम्भव है, वह दिन तुझे देखना पड़ जाए- कंधे देने वाला भी कोई मिले नहीं। 'खिलजी' के घावों से बहता है रक्त अभी, 'बाबर' के बख़्तर भी तो अब तक सिले नहीं।। (12) व्यभिचार जिन्हें चौखट तक आना भुला गया, ऐसी चुड़ैल दो-चार, सहज हैं मिल जाएँ। जो पेट भरेंगीं सात-भाँवरों वाले से, मिल गई ढील, तो गीत पड़ोसी के गाएँ।। (13) हर समझदार कुछ क़दम उठाने से पहले- विधिवत् कर लेता है- परिणामों पर विचार। इसलिए उचित है, अपने ही हित में भाई- तुम भी कर लो, कुछ मानचित्र में त्रुटि सुधार।। (14) ऐसा न हो कि अंगार हिमालय से बरसें, राजस्थानी तलवारें फिर से चमक उठें। फिर 'चौहानों' के बाण, धनुष पर चढ़ जायें- 'गुर्जर' बल खाकर, क्रुद्ध सिंह से गरज उठें।। (15) हो उठे प्रकंपित, क्षुब्ध गगन का अन्तराल, सागर उत्ताल तरंगों से आप्लावित हो। रह जाए प्रेम का नाम पुस्तकों में केवल- हर हाथ, मात्र हिंसा हित ही संचालित हो।। (16) चढ़ गया चतुर्दिक अगर तोप का धुआँ कहीं- हर ओर अँधेरे का शासन हो जाएगा। हर लहर वायु की गरल उगलने लगी कहीं- मानवता का अन्तस् पाहन हो जाएगा।। (17) घुट कर मर जाएँगे कितने अबोध सपने? क्रन्दन से कान दिशाओं के फट जाएँगे। कितने हाथों की हरी चूड़ियाँ टूटेंगी? कितने राखी के तार, धरे रह जाएँगे? (18) कितनी गोदों में सूनापन घहरायेगा, कब, कौन ब्याह से पहले ही विधवा होगी? कितने तुतले बचपन अनाथ से भटकेंगे? कितने यौवन हो जाएँगे, खंडित योगी? (19) जब समय डाकिये के आने का होता है- हर रोज़ 'हमीदन' दरवाज़े तक आएगी। लेकिन 'रशीद' का पत्र नहीं मिल पाया तो- अपने आशा-विश्वास दफ़्न कर जाएगी।। (20) फिर ईद-मुबारक के दिन भी मातम होगा, इसलिए हमें चिन्ता है, युद्ध न छिड़ पाए। 'गोरा-बादल' का नाम सुना तो होगा ही- कुछ डरो, न उनके कान भनक पड़ने पाए।। (21) जितनी सुहाग की शाख रहेंगी अनफूली, निर्लज्ज तुझे अभिशाप सभी मिल कर देंगी। उतने जन्मों में, तू होगा अबला नारी, सन्तति के लिए गोद, तेरी भी तरसेगी।। (22) यह वही देश है, जहाँ भूमि के लिए कभी- रच गया महाभारत बच्चों के खेलों-सा। यदि काश्मीर की ओर बढ़ाया पाँव कभी, मसला जाएगा सर, मिट्टी के ढेलों-सा।। (23) जिन पर तूने विश्वास किया है, उनकी ही- संगीनें, जब तेरे सीने पर तन जाएँ। अपना कहकर आवाज़ लगा लेना मुझको- आऊँगा, भाईचारा कहीं न मिट जाए।। -३ मई, १९६४

4. इस तिरंगे को कभी झुकने न दोगे

मृत्यु पर आँसू बहाना-व्यर्थ होगा, रीत जाएँगे नयन, पर क्या मिलेगा? एक-दो क्षण दीप्त हूँ, कुछ माँगता हूँ- देश मेरी साध की झोली भरेगा।। स्नेह आजीवन तुम्हें देती रही यह- भूमि जिस पर तुम-गुलाबों से खिलोगे। दे सको, तो दो उसे इतना वचन, तुम- इस तिरंगे को कभी झुकने न दोगे।। रक्त दे कर जो हुई उपलब्ध हमको, बेलि यह स्वाधीनता की माँगती है। स्वेद-कण, गतिमय चरण, सौहार्द्र मन का, और बलि, इस देवि की शुभ आरती है।। शैल-श्रृंगों पर धुआँ क्यों उठ रहा है? भेद सहसा, सैकड़ों कैसे खुले हैं? चित्र जो मुख- पृष्ठ पर छपने लगे हैं। देश को पथ-भ्रष्ट करने पर तुले हैं।। कर सको तो प्रण करो, मुख- पृष्ठ पर, फिर- सभी उनको कभी छपने न दोगे।। दौड़ना सम्भव नहीं, इस का प्रयोजन- यह नहीं है, बन्द चलना भी करें हम। हो न पाए ज्ञान-अर्जन, अर्थ इसका- यह नहीं है गाँठ में बाँधे फिरें भ्रम।। परमुखापेक्षी बनो मत, कर्मरत् हो, प्रार्थना से साधना श्रेयस्करी है। लक्ष्य तक जाते हुए मिट भी गए, तो- अवनि के उस छोर पर अलकापुरी है।। भर सको तो भावना ऐसी भरो तुम, चरण की गति को कभी रुकने न दोगे।। आत्मा क्लीवत्व की चिर्-संगिनी हो, मान्यता अपनी कभी ऐसी नहीं थी। बाँसुरी पर थिरकने वाली, सुदर्शन- चक्र पा कर, आँगुरी बहकी नहीं थी।। न्याय के हित में नियम-बंधन कभी, यदि- तोड़ने पड़ जाएँ, निःसंकोच तोड़ो। आँधियों से मत डरो, ओ अमृत-पुत्रो! भारतीयो! तुम कभी रथ को न मोड़ो।। मिट सको, तो देश के हित में मिटो, तुम- अब किसी कण को, कभी बँटने न दोगे।। भ्रष्ट योगी की तरह विक्षिप्त मत हो, आचरण पर आवरण चढ़ने लगेगा। काव्य का माधुर्य छोड़, विकल्प-वश हो- छात्र कोई व्याकरण पढ़ने लगेगा।। मणि मिलेगी, इसलिए मणिधर न पालो, आग से खेलो, मगर अंचल बचा कर। क्रीत करनी हैं दुहनियाँ, तो उचित है- देख लो विधिवत् उन्हें पहले बजा कर। वर सको, तो धैर्य का संबल वरो, तुम- आँसुओं को धूल में मिलने न दोगे।। नासिका पर कीट बैठा ऊँघता है, मार कर दुर्गंध, मन को क्लांति होगी। जग रहे हो यह जताना, है ज़रूरी, सुप्त हो तुम, स्यात् उसको भ्रान्ति होगी।। किन्तु काटे, तो उसे भी मारने में, कुछ बुराई खोजना हितकर नहीं है। अर्चना के समय,जो दीपक बुझा दे- श्वास अपनी भी मुझे रुचिकर नहीं है। बन सको तो कृष्ण बन इतना करो, तुम- द्रौपदी का चीर अब खिंचने न दोगे।। व्यक्ति का जीवन- धरोहर देश की है, गहनता के साथ फैले, तो उचित है। अन्यथा अति-वृष्टि जल की भाँति, उसका- सूखना, सत्वर सिमट जाना विहित है।। इस तरह अस्तित्व की रक्षा करो मत, पास का व्यक्तित्व- कुंठित, नष्ट हो ले। नाव में जब सब खड़े हों, एक सोए- यह असम्भव है कि कोई कुछ न बोले। कर सको तो यत्न कुछ ऐसा करो, तुम- कलह के अंकुर कभी उगने न दोगे।। -२६ मार्च, १९६५

5. विश्व-गुरु के अकिंचन शिष्यत्व पर

(1) माँगता है व्यर्थ, सबसे ज्ञान की क्यों भीख? ओ अभागे देश! गुरु का मान करना सीख। विश्व-गुरु! तू हो न सहसा यों अकिंचन शिष्य- नील-अम्बर में कहीं, बन कर ब्रहस्पति दीख।। (2) गेह में मनु के, उड़ी है मरघटों-सी धूल, काटती है पालने की डोर, प्यासी भूख़। हिचकियाँ भरने लगे हैं, कुलमुलाते प्राण, वक्ष श्रद्धा का, मरुस्थल सा गया है सूख।। (3) आह! नंगे पाँव, पथ पर जा रहा है कौन? धूप कितनी तेज़ है! कितना दहकता रेत!! आँख में आँसू, पसीने से पुरा है भाल- ‘हाँ, यहीं हैं पाण्डवों के लहलहाते खेत’।। (4) पास अर्जुन के गए, गुरु-द्रोण बोले-‘वत्स!- सूखता है कंठ, मुझको लग रही है प्यास; घूँट भर पानी पिऊँगा, फिर गहूँगा पंथ'- पार्थ भूले हैं नमन का आचरण-अभ्यास।। (5) पीठ फेरे पूछते हैं- ‘और कुछ आदेश?- व्यस्त हूँ, मेरा समय क्यों पी रहे हो व्यर्थ? राह देखो, दूर जाना है, घिरेगी साँझ- भीम आए, तो कहीं कुछ और हो न अनर्थ’।। (6) गुरु समर्थ पढ़ा रहे हैं, डूब कर यह पाठ- ‘वत्स! जाओ वार दो- निज मातृ-भू पर शीष’। देखते शिवराज- जूड़ों में गुँथे कुछ फूल, सालते हैं बोल, उठतीं हैं हृदय में टीस।। (7) राम जाने, जा रहे हो किस दिशा की ओर?- देश मेरे! अनुसरण करने लगे हो आज। 'मौर्यवर'!- 'चाणक्य' से करते नहीं हो बात- वाह! झुकते भी नहीं, आने लगी है लाज!।। (8) बादलों के धूम पर ही छूटते हैं बाण, दूब पर छाने लगा है- 'गोखरू' का वंश। बेल-पत्रों से भरे थे- कल हमारे हाथ, छटपटाता है उन्हीं में, आज आहत हंस।। (9) ये अनावश्यक टहनियाँ छाँटते हैं; किन्तु- अँगुलियों का रक्त पी जाते तृषातुर शूल। आँसुओं तक, है उभरता कसमसाता रोष- डबडबाती आँख, डगमग डूबते मस्तूल।। (10) यह अँधेरा कक्ष, सीलन, मत्सरों का गर्व, सींखचों के पार, बिखरा ज्योत्सना का ढेर। बच सकें दुर्गन्ध से यों नासिका के रंध्र, बन्द हाथों से करें, अब और कितनी देर? (11) धिक्, हमारी सभ्यता के-वर्तमान विकास, धिक्, हमारी परिधि का सिमटा हुआ यह बिंदु। मान्यता अस्थिर लहर को दे रहे हैं हम- काँपते हैं तब-कि जब हम तैरते हैं सिन्धु।। (12) पूर्ण कर, पश्चिम दिशा से पूर्व तक का चक्र- सूर्य थोड़ा सो गया, तो हो गए एकत्र- तिमिर-कण सम, सारथी को एक ओर धकेल- नाग फैले, बामियों से निकल कर सर्वत्र।। (13) आश्रमों से गेह तक- हैं दुर्ग की प्राचीर, फन उठाए, लहरते, भरते हुए फूत्कार। घूमते हैं, यों चतुर्दिक तक्षकों के दूत- कर नहीं पाते, किसी के अधर मंत्रोच्चार।। (14) खोंपियों भर में, कसा है बस शिला का छोर, एकदम नीचे- गहन होता अँधेरा- गर्त। एकटक जम जाय, यदि इस ओर कातर दृष्टि- क्षण गया कि ‘छपाक’- पी जाएँ सहज आवर्त।। (15) जागरण का अर्थ क्या, अस्तित्व ही मिट जाय- स्रष्टि पर छाने लगे, बस शयन का विस्तार। कौन कल्पित रात्रि में मूँदे रहेगा नेत्र- पर्वतों का ही रहे, यदि भोर पर अधिकार।। (16) वक्ष पर समकोणवत, आ तो गईं हैं बाँह- एक पग उठकर जमे, है शेष इतनी देर। चल पड़ा, तो यात्रा करके रहेगा पूर्ण- सारथी पश्चिम दिशा तक, रौंदता अँधेर।। (17) आयु पर हो पवन! तेरी कृपा क्यों न विशेष, अधिकतम है, रवि-उदय तक मोतियों का हास। कब तलक देगी सहारा बादलों की छाँह, पवन को जब तक नहीं, इस कृत्य का आभास।। (18) ओस भीगी घास पर, क्षण भर जमे पद-चिहन! पूछना है- व्यर्थ होना व्यग्र और अधीर। देख लेना, कल स्वयं ही घूमते रथ चक्र- लीक-लीक अनन्त तक जातीं असंख्य लकीर।। (19) नाग-यज्ञ रुके न, जनमेजय! तुम्हें सौगंध, भूल मत जाना, परीक्षत-देह का विष-दंश। इन्द्र का अनुनय, न हो स्वीकार अब की बार- अंश-अंश मिटे, धरा से दुष्ट वासुकि-वंश।। (20) फिर कहीं एकांत में, हो सघन तरु की छाँह, छन रही हो टहनियों से दो-प्रहर की धूप। गुरु उठाए हाथ, देते हों विहँस आशीष- भाल चरणों में धरे हों- चक्रवर्ती भूप।। -६ नवंबर, १९६७