हम-तुम एक डाल के पंछी : शंकर लाल द्विवेदी
Hum-Tum Ek Daal Ke Panchhi : Shankar Lal Dwivedi



1. हम-तुम एक डाल के पंछी

हम-तुम एक डाल के पंछी, आओ हिलमिल कर कुछ गाएँ। अपनी प्यास बुझाएँ, सारी धरती के आँसू पी जाएँ।। अपनी ऊँचाई पर नीले- अम्बर को अभिमान बहुत है। वैसे इन पंखों की क्षमता, उसको भली प्रकार विदित है।। तिनके चुन-चुन कर हम आओ, ऐसा कोई नीड़ बसाएँ- जिस में अपने तो अपने, कुछ औरों के भी घर बस जाएँ।। धूल पी गई उसी बूँद को- जो धारा से अलग हो गई। हवा बबूलों वाले वन में, बहते-बहते तेज़ हो गई।। इधर द्वारिका है, बेचारा, शायद कभी सुदामा जाए। आओ, हम उसकी राहों में काँटों से पहले बिछ जाएँ।। कौन करेगा स्वयं धूप सह, मरुथल से छाया की बातें। रूठेंगे दो-चार दिनों को, चंदा और चाँदनी रातें।। अपत हुए सूखे पेड़ों की हरियाली वापस ले आएँ। चातक से पाती लिखवा कर मेघों के घर तक हो आएँ।। -24 अगस्त, 1967

2. व्यामोह जीवन के लिए

सुख का शुभागमन ही नहीं, दुःख का समापन भी नहीं। फिर क्यों मिला इतना प्रबल व्यामोह जीवन के लिए।। आलोक की कोई किरण, देती नहीं मुझको शरण। तम जो विरासत में मिला, धरता रहा अभिनव चरण। निर्वेद-दीपक-ज्योति पर, संकल्प-शलभ मिटा दिए। निष्फल प्रतीक्षा ने, मरण- के साज़ सकल जुटा दिए। ऋत् का निदर्शन ही नहीं, मत का समर्थन भी नहीं। फिर क्यों मिली इतनी ललक, दो गीत सर्जन के लिए।। ‘अथ्’ ‘इति’ अहम् की तोल दी, निष्काम बन जिनके लिए। अधिकृत-समर्पित है अभी- तन-मन सभी उनके लिए। अवसाद! नीरस रेणु में, सरसिज-जलज खिलते नहीं। इतनी विशद भू पर कहीं- सहृदय स्वजन मिलते नहीं। भ्रम का समर्पण ही नहीं, निर्मल मनो-दर्पण नहीं। फिर क्यों विवक्षा है विकल अनुरूप-दर्शन के लिए।। गत विस्मरण होता नहीं, आगत उपेक्षित क्यों करूँ? निर्वह अनागत में कहो- किस कल्पना के रंग भरूँ? उद्गम-विलय के बीच में, जो कुछ मिले, है वेदना। कैसे भरूँ घट में गरल? कब तक करूँ अह्वेलना? समुचित विभाजन ही नहीं, नृण-नति-प्रतारण भी नहीं। फिर क्यों नयन रोते रहे, अनुराग-अर्जन के लिए।। अपवित्र मंगल-कलश हूँ, उपयोग कोई क्यों करे? कल्मष अवनि के पी गया, मधुरस गगन क्यों कर भरे? जब तू 'युधिष्ठिर-राम' से- नादान छल करती रही। चिर् नींद! मेरी श्वास ही क्यों अंक में भरती नहीं? यह तन सनातन ही नहीं, यह मन 'जनार्दन' भी नहीं। फिर क्यों सुमन विकसित हुए, सुख-जल-निमज्जन के लिए।। -27 जुलाई, 1964

3. प्राण हैं आज से टूटने के लिए

भोग है भाग्य का और कुछ भी नहीं, हम मिले भी तो यों छूटने के लिए। ये जुड़ेंगे किसी ज़िन्दगी से कहाँ? प्राण हैं आज से टूटने के लिए।। जब कहीं भी रहा ही नहीं जा सका, तो यहाँ आ गया, काटने दो घड़ी। पातियाँ बाँचते-बाँचते, कोर से- कान तक आ गई आँसुओं की कड़ी।। दर्द होने लगा, फिर वहीं बाँह में, था जहाँ एक दिन सर तुम्हारा रखा। साँझ है, झील है, पेड़ कचनार का, सिर्फ़ तुम ही नहीं रूठने के लिए।। झील में सूर्य के डूबते-डूबते, आज फिर हो गया है अँधेरा गहन। काँपते-काँपते से लगे लौटने, बादलों से घिरी चाँदनी के चरन।। नूपुरों की ‘क्वणन’, शून्य में खो गई, दृष्टि को ख़ींच कर पंथ में ले गई। यों रहा रात भर, मैं अकेला यहाँ, घाटियों में वृथा घूमने के लिए।। भीज कर भागते-भागते, थे इसी- कन्दरा में छिपे, केश निचुरे वहाँ। तापते-तापते, डाल गलबाहियाँ, शीष काँधे धरे, सो गए तुम यहाँ।। आँसुओं का नहीं, दोष है आँख का, आँख का भी नहीं दोष मन का कहो। धीर धरता नहीं पीर के बोझ से, है विकल जो इन्हें घूँटने के लिए।। -4 जनवरी, 1980

4. सहज गीत गाना होता तो

सहज गीत गाना होता तो, पीड़ा का यह ज्वार न होता। लय की भाँवर स्वर से पड़तीं, गीत कभी बेज़ार न रोता।। सुधियों की देहरी पर पहरा, निठुर उदासी की गद्दी का। जो भी कागद लिया हाथ में, निकला वह केवल रद्दी का। निठुर लेखनी के नयनों से- टपकीं अश्रु रूप में मसि क्या? बेदर्दिन तड़पाती देखी, इतनी कभी लौह की असि क्या? सागर आसानी से तिरता, तो फिर यह मँझधार न होता। दुःखी न मरते सिसक-सिसक कर, तो शायद यह क्षार न होता।। विवश भावना, दुलहिन बैठी, मन के सूने से आँगन में। कैसे मधुर कण्ठ से गाए, श्यामा अनचाहे सावन में। सुनीं न सुमधुर, बिना गीत के- पायल की धुन, रुनझुन-रुनझुन। लौट चले बेचारे दर्शक, पथ पर नीरस, अनमन-अनमन। आह अगर होती न कदाचित् यौवन का कुछ सार न होता। होता अगर समर्थ आज मैं, कल को कभी उधार न होता।। दुर्दिन में मन के कोने में, माना, पीर गीत की जननी। उठतीं अमित उमंग-मीन हैं, पर अपनी कुछ ऐसी करनी। एक पीर का अन्त न होता, और पीर उठ-उठ आतीं हैं। पहली लिखी पंक्तियाँ फिर-फिर, साथ-साथ मिटती जाती हैं। पीर लिए, सब कवि बन जाते, कवि का अर्थ प्रचार न होता। सभी गीत बन कर रह जाते, सपनों का संसार न होता।। मेरे इस शीतल अन्तस् में, इतने तप्त भाव सोते हैं। बाहर आते कण्ठ-जिह्वा पर, बस अगणित छाले होते हैं। पीड़ा के कारण भावों को- अन्तस् में लौटा देता हूँ। कभी अधिक पीड़ा के कारण, आँसू दो ढुलका देता हूँ। उर के भाव व्यक्त होते तो, इतना कभी उदार न होता। अपने व्यवहारों में सचमुच, इतना कभी सुधार न होता।। 18 मार्च, 1962 ‘नव-प्रभात’ में प्रकाशित

5. तुम मुझसे यों मिलीं

तुम मुझसे यों मिलीं कि जैसे-धरा, गगन-से। जबकि तुम्हें मिलना था जैसे-गंध, पवन-से।। स्नान किए, फिर पहन नीलपट, केश निचोड़े, ग्रीवा घुमा, मुड़ी, मुस्काईं लजवन्ती-सी।। बरस रात भर, अलस घटाएँ, थमें एक पल- उगे भोर बरसाती कोई, रसवंती-सी।। तुम मुझसे यों खुलीं कि जैसे-शिखा, शलभ-से; जबकि तुम्हें खुलना था जैसे-उषा, विहग-से।। जब-जब फटी कंचुकी, सुधि की विरस सुई में, विवश हुई, तो मैं धागे सा लिया, पिरोया।। धीरज सा अवसर, विशेष, पर विपदाओं में- भेंट हुए बूढ़े हारों से चुना-सँजोया।। तुम मुझसे यों घुलीं कि जैसे-प्रथा, प्रणय-से; जबकि तुम्हें घुलना था जैसे-व्यथा, हृदय-से।। पाती के ‘पुनश्च-विवरण' की, संबोधन से- क्या समता? भ्रम था अब तक, जो मैं ओढ़े था।। सौगंधों की छाया में बेसुध सोया था, संयम, सपनों पर अपना सब कुछ छोड़े था।। तुम मुझसे यों जुड़ीं कि जैसे-स्रष्टि, शयन-से; जबकि तुम्हें जुड़ना था जैसे-दृष्टि, नयन-से।। -9 अगस्त, 1965

6. मुझको आवारा कहता है

जब से इस दुःखिया बस्ती की पीड़ा मैंने गले लगाई- तब से यह बेरहम ज़माना, मुझको आवारा कहता है।। बन्दनवार बँधे द्वारों से, जब देखीं लौटी बारातें। हल्दी चढ़ी किसी दुलहिन के साथ भीगती रोती रातें।। जब मण्डप के मूक रुदन पर दीवारें तक तरस रही थीं- आँगन में तुलसी की अँखियाँ, बेमौसम ही बरस रही थीं।। जब-जब व्यर्थ बहा रो-रो कर, सूजी अँखियों से गंगाजल- अपने सपन नहीं नहलाए, अपनी प्यास नहीं दुलराई- तब से सावन का हर बादल, मुझको अंगारा कहता है।। धूल भरे ये गाँव, पुरातन गौरव के अवशेष हमारे। अन्तिम श्वास सहार रहे हैं, जैसे-टूटे हुए किनारे।। जिन अँधियार भरी गलियों में सूरज आने में शरमाया- उनमें दिये जला कर मैंने, इस उदार मन को बहलाया।। अपने लिए सभी जीते हैं, एक अगर मैं नहीं जिया तो- डगर-डगर में बिछे शूल चुन-चुन जब से आग लगाई- तब से उपवन का उपवन ही, मुझको बंजारा कहता है।। भले ‘नंदिनी’ के क्रन्दन पर, पिघल-पिघल जाएँ प्रतिमाएँ। पर ‘दिलीप’ के बेटे, अपनी आँखों में आँसू क्यों लाएँ? अब निराश लौटा देते हैं- निर्धन की पूजा की थाली। चाँदी के जूतों की केवल करते हैं मन्दिर रखवाली।। तन के गीत अधिक गाने से, मन को कालिख़ लग जाती है- ऋषियों की यह पावन वाणी, अपनी भाषा में दुहराई- तब से यह नवीन युग मुझको, बीता पखवारा कहता है।। -11 जून, 1964

7. अधिकार तुम्हारा

पंछी हूँ, अधिकार तुम्हारा, मैं स्वीकार करूँ- तो कैसे? इसमें दाना तो मिलता है, पंखों पर बंधन लगता है।। साँझ घिरे, तरु पर लौटे हैं, हँस-हँस कर कहते-सुनते हैं। करुणा-साहस भरी कथाएँ- दिन भर कण कैसे चुनते हैं।। आँगन का गहरा सन्नाटा, पीने का अभ्यासी क्यों हूँ? मन को चिन्तन तो मिलता है; आहट से विस्मय होता है।। बस मुँडेर तक आ पाती हैं, इस घर में सूरज की किरणें। दीवारें इतनी मोहक हैं- छिपकलियाँ शलभों को निगलें।। दीपों के पीले प्रकाश का, दंभ सहूँ, ऐसा क्यों?- बोलो। स्वर में स्वर तो मिल जाता है, गति-लय में अंतर पड़ता है।। पिंजरे पर पुरने वाले, इन- मकड़ी के जालों से क्या है? पंछी की गति कहाँ रुकी है, कीड़ों की चालों से क्या है? जूठी थाली भर पानी में, अम्बर की छबि से लौ बाँधूँ? आँखों को सुख तो मिलता है, -ध्रुवतारा ओझल रहता है।। -9 मई, 1967

8. कल फिर आना इस टीले पर

जाने क्यों व्याकुल हुआ हृदय, भर आया आँखों में पानी? किसने अँगुली सी धर दी, जो थम गई अधर पर ही बानी? झुकते ही क्यों झर-झर बरसे, पलकों में संध्या-सी फूली। किसकी छवि ने हँस कर घिरते, अँधियारे की छाया छू ली? किसके रंग में अनुरंजित हो, अपनी धुन भूल गए, ध्यानी! तुझ पर करने के लिए कृपा, यह किस का रूप बना दानी? तू किसके सीने में सिमटा? किसकी बाँहों का आलिंगन? प्राणों को बेसुध सा करता, माथे का प्यार भरा चुम्बन? अलकें सुलझाने में उलझीं, अँगुलियाँ शिथिल किसकी? मानी! तुझ को चुप करते-करते ही, भीगा किसका आँचल धानी? तू किसकी गोदी में सोया? यह कौन रात भर जो जागा? किसने दे कर जीवन अपना, प्रभु से तेरा मंगल माँगा? किन पुण्यों के प्रतिफल ये क्षण, यह सपना सच जैसा? ज्ञानी! खुलते ही आँख, छलेगी जो, वह पीड़ा किसने पहचानी? तू कब तक बैठेगा यों ही? चल उठ, अब रात हुई गहरी। वह देख- उधर चौराहे पर, चहका पंचम स्वर में प्रहरी।। धरते ही पाँव, लगा कहने, ख़ामोश चन्द्र-बिंबित पानी, कल फिर आना इस टीले पर, अपना ही भोग भरे प्रानी!।। -31 दिसंबर, 1979

9. मैं अधीरता के आँचल सा..

मैं अधीरता के आँचल-सा, व्याकुल हूँ, बेचैन हूँ, नीरव मेरी आँख, मीत! पर बरसीं सावन मास-सी।। ओठों पर आलस सोया है दुःख की चादर तान कर, उमर-उमर के स्वप्न उठ चले, जाने किस एहसान पर। चाह-बहुत कुछ कहूँ, न जाने फिर भी क्यों मैं मौन हूँ। सूखा मेरा कण्ठ, अनोखी लगती एक पिपास सी।। बरसीं सावन मास-सी।। जीवन में तुमसे मिलने की ही तो केवल आस थी, इसीलिए कंकालित-तन में, शेष रहीं दो साँस थीं। तुम विहान की प्रथम किरन-सी, आईं थीं हँसती हुई, नव-पाटल के मृदुल-मुकुल पर, शबनम-सी लसती हुई। खिला हृदय का कमल-हास ढल गया, दीन की देन हूँ। उफन-उफन सो गईं उमंगें डूबी हुई उसाँस सी।। बरसीं सावन मास-सी।। विपुल-वेदनामय कारा-सी, घनी उदासी छा गई। आशा-बद्ध, भाव-सरिता को राह अचानक पा गई। उफन पड़ी फैली यौवन के आतुर मूक उभार-सी। छिट-पुट सुख के प्रहर, धान की खेती बनी उजार-सी। परिचित पंछी उड़े गगन में, प्रश्न-चिह्न मैं कौन हूँ? शरद्-यामिनी बीत चली अब, छायी एक कुहास-सी।। बरसीं सावन मास-सी।। तुमने तो निर्ममता की दीवारें हँस-हँस पार कीं- मुझसे छिनीं अजस्र राशियाँ ममतामयी दुलार की। मेरे लिए भोर, एकाकी सन्ध्या है वीरान की। इतना हूँ दरिद्र, सेवा फिर कैसे हो मेहमान की? निशि के अन्तर में आँधी क्या, तूफ़ानों की बात है। मेरी आशाएँ झूठी हैं, बिना दिए विश्वास-सी।। बरसीं सावन मास-सी।। शबनम-सा, आ कर दुपहर को शोक-ताप सा ढल गया, तो क्या जीवन? यही कि जग को एक संदेसा मिल गया। यह परोक्ष संदेश विश्व यदि ले पाया-तो धन्य हूँ। कभी न जो धुल सके, अन्यथा, ऐसा कलुष जघन्य हूँ। बाती नेह-विहीन ज्योति का जीवन जैसा क्षीण हूँ। जली बहुत, अब बुझी जा रही रंगमंच उपहास-सी।। बरसीं सावन मास-सी।। -23 दिसंबर, 1962 -‘साहित्यालोक’ में प्रकाशित

10. तुम हो मेरी अभिव्यक्ति सुहानी

मुझको तो ऐसा लगता है, तुममें-मुझमें भेद न कोई। जैसे-मैं हूँ भाव, और तुम हो मेरी अभिव्यक्ति सुहानी।। मेरी अमर प्रेरणा! तुमने साधी क्यों इतनी निठुराई। व्याकुल नयन-नीर की गरिमा, भुला रही अपने संयम को।। तुमने कर गठबंधन, मुझको भटका दिया विजन राहों पर- जहाँ मुझे साहस तो क्या, धीरज भी बँधा नहीं पल भर को।। लेकिन मुझे भुलावा मत दो, हो कर मेरी अमर-कहानी। जैसे-मैं हूँ भाव, और तुम हो मेरी अभिव्यक्ति सुहानी।। तुमने लिखा कि-‘मेरे अपने जीवन की थीं कुछ मजबूरी’। अधरों की मुस्कान! भला फिर मुझको अपनाया ही क्यों था? प्राणों की व्याकुलता! तुमने, मेरा चित्र बनाया ही क्यों? स्नेह-दीप से ज्योतित कर फिर, मुझको भला दिखाया क्यों था? तुमसे युग-युग का बन्धन है, कैसे कह दूँ तुम्हें बिरानी? जैसे-मैं हूँ भाव, और तुम हो मेरी अभिव्यक्ति सुहानी।। माना अनायास हो आईं तुमको कई शिकायत मुझसे। लेकिन अपनों से रूठापन, कितने दिनों चला करता है।। यह मन मधुर-मदिर-भोली उन प्रेम-तरंगों का आलय है- जिन में किसी तरुण का जीवन, दे कर प्राण पला करता है।। अमिट रहेगी मनःसिन्धु पर लहरें, क्योंकि यही है पानी। जैसे-मैं हूँ भाव, और तुम हो मेरी अभिव्यक्ति सुहानी।। -१ दिसंबर, १९६२

11. इतनी क्यों बदनाम हो गई

तुमसे स्नेह लगाकर प्रियतम, इतनी क्यों बदनाम हो गई? जैसे भोर-किरन भादों की, बादल से मिल शाम हो गई।। उस दिन घरवालों से लड़कर, मिलने को चल पड़ी अकेली; उलझ गईं मेरे अंचल से, अनजानी, अनगिनत पहेली। सुलझाते-सुलझाते थक कर, निर्वसना हो गई सँवरिया; ओढ़ रही हूँ किन्तु आज तक, झीनी सी लाज की चुनरिया। इतनी धूल उड़ी धरती से, लिपट गई चूनर से आ कर, मेरे अकलुष कोमल-तन की गोराई तक श्याम हो गई।। सब कुछ बिसराकर मैं तेरे, आकर्षण की हुई बन्दिनी, जैसे मानसरोवर तट पर, मोती के हित राजहंसिनी। तुझसे मेरा स्नेह, साँवरे! जीवन का अभिशाप बन गया, पावन-शाश्वत कृत्य नियति का, वसुन्धरा पर पाप बन गया। प्यासे नयनों की भाषा की कुछ ऐसी अभिव्यक्ति सो गई- अपनी यह शुभकाम ज़िन्दगी, जीते जी नाकाम हो गई।। कौन व्यथा घुल गई मोम-सी, सूनी आँखों के स्नेह में? आकुलता बढ़ रही निरन्तर, तेरे अनचाहे बिछोह में। यह कैसी मदहोश पिपासा, जला रही तन-मन क्यों मेरा? भोर कहाँ रम गया, मिल गया किन नीड़ों में उसे बसेरा? पग में चुभे कण्टकों ने यों विवश कर दिया मेरे मन को- तेरी द्वार-देहरी मेरे पथ का पूर्ण-विराम हो गई।। -5 नवंबर, 1962

12. छोड़ दिया त्योहार मनाना

जब से फुटपाथों पर भूखे, लव-कुश को मरते देखा है। मैंने उस दिन से अपने घर, छोड़ दिया त्योहार मनाना।। व्योम-वितान, भूमि की शैया, ये गृहस्थ थे या संन्यासी? कोई मुझे बताए, इनको मानूँ किस समाज की थाती? मैली-फटी पुरानी धोती, उढ़ा गई धरती की बेटी- बहा रही होगी, नयनों से आँसू किसी द्वार पर बैठी।। जब से वसनहीन वैदेही, को घर-घर फिरते देखा है- मैंने उस दिन से गृहणी को छोड़ दिया श्रृंगार कराना।। बिना जले बुझ जाने वाले, इन दीपों की करुण कहानी- जगा सकी कितने हृदयों में, दया और नयनों में पानी? बन कर बहे, कटे आखर से, ये जनमे या रहे अजनमे। पानी चाट गया स्याही को, ये हैं किस पुराण के पन्ने? जब से जग-त्राता ईश्वर को अपना घर भरते देखा है- मैंने उस दिन से मन्दिर में छोड़ दिया उपहार चढ़ाना।। धरम-करम दोनों को धन का शेषनाग डँस गया अचानक। भ्रम के अन्धकार ने अपना ऐसा रचा वितान भयानक।। दया-प्रेम का घुटा-घुटा दम, रुँधा-रुँधा सा स्वर रहता है। चारों ओर घृणा का गँदला जल निर्बाध बहा करता है।। जब से मानवता को पशुता के पथ पर चलते देखा है- मैंने उस दिन से सच मानो, छोड़ दिया ब्यौहार बढ़ाना।। -2 जनवरी, 1965

13. ‘शंकर’ कंगाल नहीं

कल सारा जग था सगा, किन्तु अब कोई साथ नहीं। इसलिए कि मेरे हाथ रहे अब कंचन-थाल नहीं।। क्या कहूँ तिमिर में परछाईं भी साथ नहीं चलती। काजल इतना बह गया, अँधेरी रात नहीं ढलती।। रवि उगा, यही देखा कि वनों में टेसू फूले हैं। कुछ पिचकारी, कुछ शोर, प्रजाजन सुख-दुःख भूले हैं।। आ कर भी द्वार सुदामा, अब के होली मिला नहीं। इसलिए कि कान्हा पर माँटी थी, रंग-गुलाल नहीं।। यह समय-समय की बात आज सब परिजन रूठे हैं। झूठे होने के साथ सभी अभियोग अनूठे हैं।। अन्तःनयनों पर आज स्वार्थ का पड़ा आवरण है। हठवादी हथकड़ियों में जकड़ा हुआ आचरण है।। अब 'तिष्यरक्षिता' खटपाटी पर है, पय पिया नहीं। इसलिए कि अंधा होने को तैयार 'कुणाल' नहीं।। रुचि की बलिहारी, सभी साँच को आँच दिखाते हैं। हनते कपोत, हँस कर उलूक को पास बिठाते हैं।। हित-अनहित का सुविचार नहीं- यह कैसा जमघट है? बचपन था ही नादान, और अब यौवन नटखट है।। जनता ने बुला लिया कवि को, पर कुछ भी सुना नहीं- इसलिए कि उसने गाए थे कुछ गीत, ख़याल नहीं।। मुझ पर अपना कुछ नहीं, नियति ने जो कुछ मुझे दिया- मैंने प्रमुदित तन-मन से सबको, दे सर्वस्व दिया।। अँजुरी में खारी अश्रु-सलिल भर, अब तो शेष रहा। द्वार खड़ा याचक यदि लौटे, तो अवसाद बढ़ा।। माँगो, कोई याचक निराश हो वापस गया नहीं- इसलिए कि काया भर कृश है, ‘शंकर’ कंगाल नहीं।। -11 फरवरी, 1965

14. तेरे द्वार नहीं आऊँगा

जब तक ये श्वासें अपनी हैं, धीरज से परिचय है मेरा। झोली फैलाए कम से कम, तेरे द्वार नहीं आऊँगा।। घातक गरल-सिन्धु से मेरा, एक बूँद गंगाजल काफ़ी। उस बस्ती में रुकना भी क्या, जिस में बसते हों अपराधी? थक कर चूर-चूर हूँ, लेकिन चलने का अभ्यास बहुत है। मैं अभीष्ट तक नहीं रुकूँगा, एक यही व्रत, यही शपथ है।। मुड़ कर तुम तक आ जाऊँ तो, प्राण-दण्ड दिलवाना मुझको- युग के संदीपन! मैं तुमसे, जीवन-दान नहीं चाहूँगा।। मेरे ज्ञान-दीप पर तेरे, सौ सूरज हो गए निछावर। फिर भी कितना मगन हुआ तू, उनको आसन पर बैठाकर।। तू गुरु कहाँ! एक तिनका है, मैं जिस दिन बन गया प्रभंजन- अपनी करनी पर हिलकेगा, हो जाएँगे नयन-निरंजन।। जब तक अमर रही अर्धाली ‘क्षुद्र नदी जल भरि उतराहीं’- अपनी तृषा बुझाने मैं भी, तेरे घाट नहीं आऊँगा।। तुम मेरे पाहुन आए तो, मैं इतना सत्कार करूँगा। तुम्हीं कहो ‘बस-बस किस घट में- इतने सारे रतन भरूँगा?’ तन से तो फ़कीर हूँ; लेकिन मन से बहुत बड़ा दानी हूँ। काया पाहन से क्या कम, पर मन से प्रवहमान पानी हूँ।। जब तक गति है इन पाँवों में, सूजन भले रहे घावों में- आँसू कभी नहीं छलकेंगे, हारा गान नहीं गाऊँगा।। मेरे मन, मेरी बाँहों में, इतना साहस, इतना बल है। व्यथा कृपण हो गई, कुचालों का हर अगला चरण विफल है।। अपना हाथ उठाना भी मत, मेरा भाल कलंकित होगा। बाँचो, मूढ़! हथेली पहले, कहीं ‘अधम नर’ अंकित होगा।। जब तक धरा वरेगी श्रम को, प्राची जनती रही सवेरा। तुम आश्वस्त रहो रजनी के तम से मात नहीं खाऊँगा।। -23 नवंबर, 1964

15. जाने कब हो गया सबेरा

लाखों दीप जले रजनी भर, मन पर छाया रहा अँधेरा। जाने कब हो गया सबेरा।। बैठा द्वार उलूक, नीम पर, काँप गईं अनमनी मुँडेरें। बिछा गई पुरवा आँगन में, गुलमेंहदी और श्वेत कनेरें।। एक साथ सुधियाँ, कुछ चिन्ता और कल्पना के घन छाए। चमक-चमक वेदना-चंचला, मन का मृदु आकाश कँपाए।। यों तो पहरेदार सजग थे, फिर भी लुटता रहा बसेरा। जाने कब हो गया सबेरा।। कुछ ऐसे कसमसा रही है-यह मेरी बीमार चेतना। पाहन-तर की कुसुम किशोरी चाह रही हो किरण देखना।। जब से इन मजबूर करों ने, ज़ंजीरों को किया समर्पण। तब से मुखर नहीं हो पाया, यह धुँधला विवेक का दर्पण।। किरणें पथ पर बिछीं समय से, पर मैं ही कुछ जगा अबेरा। जाने कब हो गया सबेरा।। अविरल अश्रुपात से निर्मल जल भी तो हिल-हिल जाता है। परछाईं के साथ सोम भी लहरों में घुल-घुल जाता है।। निर्विष व्यालों के जमघट-सा, कोलाहल आकुल भावों का। लालचवश कर लिया स्वयं ही, असंतुलन जर्जर नावों का।। पानी का क्या दोष, पी लिया मैंने ही जब बिना नितेरा। जाने कब हो गया सवेरा।। धागे सब के सब कच्चे हैं, चादर बुन भी लूँ तो क्या है? होनी के हाथ में दुधारा, बहुत तेज़ है, बहुत नया है।। मैं हूँ एक पराजित सैनिक, या कोई हत-पक्ष विहग हूँ। सहगामी हो गए गगन-गत, दुर्विपाक्-वश पड़ा अलग हूँ।। अविचल थकी उमर बैठी है, कागद रँगता रहा चितेरा। जाने कब हो गया सवेरा।। -9 जनवरी, 1965

16. ओ मेरे खंडहर से जीवन!

अब न किसी कोने में जलता कोई मंगल-दीप, ओ मेरे खंडहर से जीवन! जल्दी-जल्दी बीत।। अब आँगन में कहाँ नीम के नीचे नंगी शैया- माथे पर धर हाथ, ताप हर लेने वाली मैया। मुख आँचल से पौंछ, प्यार से घावों को सहलाने- कोई नहीं जागता, बैठा अब तेरे सिरहाने। अब तू कितना भी रो-रो कर, भिगो रुई तकिये की- रोके कौन, लगा छाती से, उठती हूक हिये की। अब न किसी की प्यास बुझा पाता है खारा नीर- ओ मेरे खंडित मन के घट! जल्दी-जल्दी रीत।। अब तू रात-रात भर, छत पर बैठा चाँद निहारे- या खोया सा कहीं, अकेला घूमे नदी किनारे। इन सपनों में क्या है, कोई चुपके-चुपके आए, मूँदे पलक, धरे शिर काँधे, बाँहों में शरमाए। अधरों से पी आँसू तेरे, भर अपनी पलकों में- ले सीने से लगा, अँगुलियाँ उलझाए अलकों में। अब न विदा की बेला, पड़तीं पाँवों में ज़ंजीर, ओ मेरे वैरागी चेतन! जल्दी-जल्दी जीत।।