प्यार पनघटों को दे दूंगा : शंकर लाल द्विवेदी
Pyar Panghaton Ko De Doonga : Shankar Lal Dwivedi



1. प्यार पनघटों को दे दूँगा

एक ग़रीब गगरिया का जब दर्द आँसुओं में छलका तो, राखी बाँध हाथ में मेरे, सिसकी भर-भर कर यों रोई। ‘भैया भरी हुई गागर ही उठने को तैयार नहीं है- प्यासी हूँ, पर पनघट मेरा नातेदार नहीं है कोई’।। तुम तो कलाकार हो, बीरन! मेरी पीर तुम्हीं समझोगे- वर्ना कोई घड़ी हमारे लिए विनाशक हो सकती है। अब तक लाज निर्मला ही है, किन्तु सहारा नहीं मिला तो- हर गागर पापी सागर की कभी उपासक हो सकती है।। तब से हर अभाव की वाणी मेरे गीतों की साँसें हैं। कैसे गला घोंट दूँ इनका अपनी सुख-सुविधा की ख़ातिर। मैंने भाँवर फिरी भावना से जितने ये गीत जने हैं- मैं पूरब का पूत, ब्याहता को तलाक कैसे दूँ आख़िर?।। जब भी कजरारे मेघों की पलकें भीग-भीग जाती हैं- लगता है, फिर से मधुवन में आज कहीं 'राधा' रोई है। कलियों की कोमल पाँखुरियाँ, जब भी उलझी हैं काँटों में- ऐसा लगा कि भरी सभा में लाज 'द्रौपदी' ने खोई है।। फिर भी तुम यह दर्द-व्यक्तिगत मेरा ही समझो तो क्या है? मुझ पर सब आक्षेप व्यर्थ हैं, मुझ से इनका क्या नाता है? शायद देख नहीं पाते हो अपनी पीड़ा की ज्वाला में - जलता हूँ; लेकिन पड़ोस के घर तक धुआँ नहीं जाता है।। पर तुम तो जब बेकारों से बार-बार पूछा करते हो, ‘कैसे घूम रहे हो भाई, कहो आजकल क्या करते हो?' सूनी पथराई आँखों में, आँसू यों करवट लेते हैं- जैसे किसी बाँझ नारी से पूछ लिया कितने बेटे हैं।। ख़ुशियों के स्वागत में हँस-हँस जगमग दीप जलाने वालो!- तम की परछाईं-सी कुटियों की पीड़ा को क्या समझोगे? व्यंग्य-बाण से बढ़ कर कोई तीख़ा तीर नहीं होता है, विधवा से ऊपर सुहाग को और भला क्या ग़ाली दोगे।। धारा को बहना है, आख़िर गति ही तो उसका जीवन है, लेकिन बहे संयमित हो कर, कूलों का दायित्व यही है। अगर किनारों के मन पर ही, रंग असंयम का चढ़ जाए, तो फिर धारा का ऊपर से हो कर बहना बहुत सही है।। स्नेहशील-उपकार, किसी से नाता तुम ने नहीं रखा है, ध्यान रहे, निर्मम शासक का सत्यानाश हुआ करता है। अधिकारों के लिए याचना पर प्रतिबन्ध लगाने वालो!- अत्याचार सहन कर लेना भी अपराध हुआ करता है।। वर्ण भले हों भिन्न, सुमन सब एक बग़ीचे में खिलते हैं। पहरेदार गुलाब द्वार पर, गन्धा आँगन में सोती है। अपने वैभव पर इठला कर, चाहे जितना महके कोई, गुलदस्ते में सजे फूल की उमर बड़ी छोटी होती है।। भूल हुई हमसे जो हमने, काँटों वाले फूल चुन लिए। पोर-पोर में चुभे, सिसकियाँ भर-भर कर पी गए लहू हम। लेकिन अब खुल गए बुद्धि के, बंद कपाट हमारे सारे- जो कुछ किया, हमें अब उस पर, पश्चाताप नहीं है कुछ कम।। कुम्भकार पर ही पतिया कर, ज्यों पनिहारिन घड़ा ख़रीदे लेकिन भरते ही सारा जल, बूँद-बूँद कर के रिस जाए। बरसों चतुर कुम्हार भूल कर, पाँव धरे उस गाँव नहीं फिर, चार बात कहने-सुनने की चाहों का मन ही मर जाए।। अथवा ख़ीझ रहे हैं हम यों, जैसे-किसी राजकन्या ने- राज-अवज्ञा कर इच्छा से, बुला लिया मनिहार महल में। वही कलाई में चूड़ी दे तोड़, मिला नज़रें, हँस जाए, चाह उठे चाँटा जड़ने की, पर ला पाए नहीं अमल में।। मन से तो चलता है ऐसे उद्गारों का तप्त कारवाँ, एक स्वतंत्र साँस भर फेंके, स्वयं भानु का तन जल जाए। लेकिन सहम गई है वाणी, ओठों की चौखट पर ऐसे- दुलहिन पाँव धरे देहरी पर, अनायास मातम हो जाए।। गद्दी से भाँवर फिर कर तो अपने यों हो गए बिराने, ज्यों विवाह के बाद, पिता से पृथक पुत्र का घर बस जाए। कुटिल काल से घूम रहे हैं, राजनीति के विकट खिलाड़ी, पर स्वाधीन विचारों का मन, प्रकट सत्य से क्यों कतराए।। अनाचार जब सहन-शक्ति की सीमाओं को लाँघ रहा हो, भले बग़ावत ही कहलाए, शीष उठाना ही पड़ता है। माना तुम हत्या कह कर ही, मृत्युदंड से क्या कम दोगे? किन्तु रोग वह शिशु है जिसको गरल पिलाना ही पड़ता है।। भय से परिचय नया नहीं है, मैं उस बस्ती में रहता हूँ, जहाँ अजन्मे शैशव के भी मन पर हथकड़ियों का भय है। फिर भी अपना पुरुष परिस्थितियों के रंग में नहीं रंगा है। वरन् परिस्थितियो को अपने लिए बदलने का निश्चय है।। जीवन! हाँ यह जीवन! सबको मिला हौसले से जीने को, धार बनेगा यही, वार की चिन्ता नहीं किसी का भी हो। हर ख़ूनी ख़ंजर को अपना फौलादी पिंजर तोड़ेगा, पंजे से पंजा अज़माए, आए जिसकी भी मर्ज़ी हो।। श्रम की धरा त्याग आलस की, ऊँचाई पर चढ़ने वालो! इतने ऊँचे चढ़ो, उतरते समय न कोई भी दहशत हो। श्रम के बिना सृजन धरती पर सम्भव अभी नहीं हो पाया। वे अभीष्ट तक जा पाते हैं, जिन्हें न चलने से फुरसत हो।। जिनके पाँव धूल से परिचय तक करने में हैं संकोची, वे ही तलवों के छालों को, रिसता देख-देख रोते हैं। खलिहानों में संघर्षों का अन्न मिले, तो अचरज क्या है- जब खेतों के स्वामी, ख़ुद ही बीज विषमता के बोते हैं।। असमर्थों पर कंजूसी के दोषारोपण से क्या होगा? जो सचमुच समर्थ हैं, उनको दान नहीं देना आता है। बहुत चाहतीं हैं पतवारें सागर के सीने पर चलना; लेकिन आज नाविकों को ही नाव नहीं खे़ना आता है।। शासक शूल-फूल दोनों का, सम्मिश्रण है- यह मत भूलो, अपना दोष पराए सिर पर सत्ता आख़िर क्यों मढ़ती है? कठिन न्याय के दण्ड, तुम्हारे हाथ थाम भी कैसे पाएँ? भक्षण कर नवनीत, तुम्हारे अधरों पर खरोंच पड़ती है।। बूढ़ी तकदीरों का सिक्का, बहुत चल चुका, अब न चलेगा। पानी उतर चुका है सिर से, अब जागा है यौवन सोया। यौवन! हाँ, यौवन जागा है, अब न रहेगा भूखा-नंगा, छोड़ो यह सिंहासन छोड़ो, मत सोचो क्या पाया-खोया।। बहुत प्यार पाया है अब तक, बूढ़े श्रृंगारों ने लेकिन- करुणा यों संदिग्ध हो गई, जैसे-सपनों की सच्चाई। तुम निष्काम कर्मयोगी हो, परिणामों से डरना कैसा? दो दिन के जीवन में चाही, तुम ने अपनों की अच्छाई।। तुम अनुमान कहोगे इस को, अंधकार का रूपक दे कर, क्योंकि सुरक्षा का सम्बल भी यहीं सरलता से मिलता है। एक लक्ष्य पर अगर चतुर्दिक तीरों के सध गए निशाने- कोई तीर अँधेरे में भी सही निशाने पर लगता है।। अपराधों की परछाईं तक से तुम परिचित नहीं हुए हो। शेष सभी को नित्य ग्रहण सा, लाखों बार कहा- ‘लगता है’। अब तक सुना-सुना था; लेकिन आज सहज विश्वास हो गया, सावन के अंधों को सारा आलम हरा-हरा लगता है।। मुझसे कहते हो जुलूस के साथ चलूँ, नारे लगवाऊँ- जय-जयकार करूँ गीतों मे, यशोगान 'चारण-युग' जैसा। कहने से पहले यदि अपना मुख दर्पण में देखा होता- सारा दर्प हिरन हो जाता, रूप पता चलता, है कैसा? जमघट में चलने वालों के बहुधा पाँव बहक जाते हैं- मेरी इस स्वाधीन क़लम को तन्हाई से प्यार हो गया। भावों में डूबा रहता था, अग-जग की पीड़ा का गायक- उस मन का संकल्प अचानक, जाने क्यों ख़ूँख़्वार हो गया।। यों तो अपनी गतिविधियों पर पहरेदारी बहुत कड़ी है। फिर भी कलाकार पर बंधन, कम ही कामयाब होते हैं। परम्पराओं की ज़ंजीरें जिसने तोड़ी हों इठला कर- उसकी वाणी में, परिवर्तन के स्वर लाजवाब होते हैं।। सच को आँच, असत को अंचल, वर्तमान की तुला यही है। ये कैसे क़ानून, सभी पर-जो समान लागू न हो सकें? अवनि प्रपीड़ित, पर अम्बर की आँखों में उन्मुक्त हँसी है। वे क्या नयन, पराया दुःख जो देख कभी गीले न हो सकें? अगर कभी ईश्वर से मेरी, दो क्षण को भी भेंट हो गई। उसकी न्याय-निष्ठता का सब, दंभ मरघटों को दे दूँगा। धरती पर अमृत बिखरेगा, अम्बर को प्यासा रक्खूँगा- हर गागर के लिए अछूता प्यार पनघटों को दे दूँगा।। -2 मार्च, 1964

2. तब कोई जय ‘शंकर’.......

सिर्फ़ योजना बनीं, महज़ महलों में ख़ुशियाँ लाईं। कहीं फूँस की कुटी अभी तक महल नहीं बन पाईं।। ये ज़िन्दा लाशों के मलबे, हैं उनकी तस्वीरें। जिनके बलिदानों से चमकीं महलों की तकदीरें।। रंग चाह का लाल; मगर मन का कागद मैला है। तभी आज हर चित्र अधूरा या बन कर फैला है।। जब मदिरा वरदान दे रही गंगा के पानी का। कैसे हो आभास किसी को अपनी नादानी का? सुना कि, इनके ‘ताज’-‘महल’ पर जब खरोंच पड़ती है। मज़दूरों की छैनी, पत्थर तुरत नया जड़ती है।। वहीं पास ‘विश्राम-घाट’ पर भी देखा है जा कर। नंगे बदन राख बनते हैं, धू-धू जली चिता पर।। दो लाशों के लिए, मील भर यह दूधिया सरोवर। कोटि-कोटि के लिए एक ग़ज़ भर हो गया समन्दर।। क्या यह पूजा नहीं वासना की बूढ़ी काँठी की? बेइज़्ज़ती परिश्रम की, जीवित पुनीत माँटी की।। युग के शाहजहाँ! मैं तुझसे पूछ रहा हूँ तेरी- ‘क्यों न यहीं मुमताज महल की बनी कब्र की ढेरी’?।। कहते हो- ‘कवि! व्यर्थ तुम्हारी आँखें नम होती हैं। बिना कफ़न वाली लाशें ही यहाँ दफ़न होती हैं।। राम-राज्य के स्तम्भ! ‘राम’ का तो यह न्याय नहीं था। ‘केशव’ की गीता में भी कोई अध्याय नहीं था।। तुम यथार्थ पूछो, तो कुत्सित कागद हो रद्दी के। बहुधा यही कहा करते हो अधिकारी गद्दी के- ”बदक़िस्मत कह कर कभी किसी के पास नहीं आती है। सुनते हैं जनमत छठे दिवस माथे में लिख जाती है’’।। दुःख-सुख जैसा लिखा भाग्य में वैसा भोग रहे हैं। जाने ग्रह-नक्षत्रों के कैसे-कैसे योग रहे हैं? दोष पुराने कर्मों को, संसर्गों को देते हो। वर्तमान ‘औरंगज़ेब’, वह क़िला गढ़े लेते हो-।। ‘शिवा’ सत्य का चूर-चूर कर देगा अवसर पाते। उस दिन ‘भूषण’ अमर बनेगा यह सब लिखते-गाते।। कितनी कलियाँ दबीं साध की- शासन के पाहन से। लाशें उठतीं रहीं; मगर तू हिला नहीं आसन से।। और कभी दे भी दीं, तो ख़ुशियों की घड़ियाँ ऐसे- विधवा के पावन हाथों को हरी चूड़ियाँ जैसे।। सूरज चाहे भी तो शबनम का क्या ताप हरेगा? मौत हँसेगी, केवल विधु रह-रह निःश्वास भरेगा।। तुम मद में, ये दुःख में, दोनों डूबे कौन तरेगा? डूबे की बाँहों पर डूबा क्या विश्वास करेगा? जब अम्बर पर अंधकार का पर्दा पड़ जाता है। सूरज के माथे कलंक का टीका मढ़ जाता है।। तब ये छोटे दीप धरा को जगमग कर देते हैं। रजनि-सुन्दरी की अलकों में हीरे जड़ देते हैं।। सचमुच वे जो आज घृणा के पात्र बने बेचारे। कल वे ही विशाल अम्बर के होंगे चाँद-सितारे।। किसने कहा कि ‘हमें रोशनी से कुछ प्यार नहीं है?’ है; पर मौत किसी भी दीपक की स्वीकार नहीं है।। बात न्याय की चली, कहा तुमने ‘सहयोग नहीं है’। दुःखी जनों पर यह कोई सच्चा अभियोग नहीं है।। गला न्याय का कभी तर्क के फन्दे से मत भींचो। बहिरागत जिह्वा का दुष्परिणाम कभी तो सोचो।। केंचुल वाले सर्प! यही वह गाज बनेगी ऐसी। एक बार हलचल फिर होगी मनु के शासन जैसी।। तब कोई जय ‘शंकर’ फिर से 'कामायनी' लिखेगा। किन्तु पात्र का चयन मात्र इतना सा भिन्न करेगा- ‘मनु’ होगा मज़दूर, ग़रीबी ‘श्रद्धा’ बन जाएगी। शासक पर शासित की घोर अश्रद्धा हो जाएगी।। -8 जनवरी, 1964

3. ग्रीष्म-कालीन शुक्ल पक्ष और कैलास

(कैलास : आगरा का एक प्राकृतिक स्थल जो सिकंदरा से एक मील पश्चिम में यमुना-किनारे स्थित है।) कोलाहल से दूर प्रकृति की सौम्य गोद में, मुक्त हृदय से हँसता जैसे- महका महुवा। वंशीधरे कृष्ण के अधरों जैसा- मनहर; प्राची में उगते दिनमणि जैसा कुछ किंवा।। विविधाकृतियों में विभक्त यमुना की धारा, मंद-मंद गति से बहती है ग्रीष्म-काल में। लगता है कैलास घिरा इस वनस्थली से; पाटल एक सपर्ण रखा हो रजत-थाल में।। प्रातः-सायं काल शिवालय में शंख-ध्वनि, ऋषिकुल-ब्रह्मचर्य आश्रम में वेद-ऋचाएँ। मन के अवसादों, दाहक सुधियों की ज्वाला; शान्ति-सुरस-धारा से सहज प्रशांत बनाएँ।। कण-कण से पुनीत वैदिक-युग के सन्देशे- मिलते हैं, इस भौतिक युग के प्रति निष्ठा की- कुत्सित-भ्रामक प्राचीरें विनष्ट होतीं हैं; पतनोन्मुख होतीं हैं धूसर छत- मिथ्या की।। सहज, स्निग्ध तारल्य स्नेह के मृद्वंचल का, प्रकृति विहँस कर, मुक्त करों से बाँट रही है। इने-गिने कुछ लोग प्राप्त कर पाते जिसको; कारण छद्म - वेषिनी माया डाँट रही है।। एक ओर सैकत-तट पर फैली हरियाली, ककड़ी के पीले फूलों पर धवल चाँदनी। हरित् वर्ण, पीले टाँकों वाली कंचुकि पर; धरा-वधू ने ओढ़ रखी हो श्वेत ओढ़नी।। 'टीं-टीं-टीं टुल्-टुल्' टिटहरियों का कोलाहल, स्तब्ध निशा में तुमुल नाद के परिचायक-सा। 'टुटु-टुटु-टर्र-टर्र' दादुर का कर्ण-कटु स्वर; विस्मित-भीत हृदय में चुभता है शायक-सा।। पल-पल पर कट कर कगार गिरते पानी में, नन्हीं-नन्हीं चपल ऊर्मियों की ललनाएँ। छिटक-ठिठक हँसकर बहतीं हैं तीव्र वेग से; किन्तु प्रथम उनको जल-तल में सहज लिटाएँ।। नृत्य-गान के समय, कलुषमन-कपटाचारी- उच्छृंखल युवकों को जैसे ब्रज-बालाएँ। खीझ भरे-सशंक मन में आक्रोश जगा कर; नस-नस कर विदीर्ण, भू-रज में सहज सुलाएँ।। मसृण-रेशमी छितरे मेघों को अस्तंगत- रवि ने दान दिया अपूर्व स्वर्णिम आभा का। नील-व्योम लगता है जैसे- कुँवर-कन्हैया; भुज-पाशों में बाँध रहे हों तन राधा का।। यमुना के निर्मल जल में प्रतिबिम्ब उसी का, यत्र-तत्र हरिताभ लहलहाते दूर्वादल। संजीवनी बूटियों के प्रकाश से जग-मग; कुहरे में डूबा हो प्रत्यूषी द्रोणाचल।। रवि-तनया ने एक विशिष्ट घुमाव लिया है, जिस के बीच सुनहरे गेहूँ के खेतों में- वृक्षावलियाँ ताड़, ख़जूर और शीशम की; जाने क्या कहती रहती हैं संकेतों में।। कंचन-वर्णा, नवयौवना किसी मुग्धा ने, दीप्ति मान, कमनीय कंठ में रजत-निर्मिता- हँसली पहन रखी हो, अम्बर के दर्पण में- छवि निहारती हो प्रमुदित-मन रूप-गर्विता।। निराभरण, सद्यः स्नाता गौरांग रमणियाँ- भाव-विभोर, नमित-नयना बन अर्घ्य चढ़ातीं। कोमल कर-सम्पुट में जल से भरा पात्र ले- ‘विश्वानिदेव सवितर्दुरितानि परासुव’ गातीं।। निश्चय आधुनिकाएँ इस क्षण सोती होंगीं, या अँगड़ाई लेतीं होंगीं वक्ष उघारे। तन्द्रालस नयनों से मदिरा सी उँड़ेलतीं; मसल रहीं होंगीं उसीस गलबाँहीं डारे।। त्रिविध समीर-ताप को भूयोभूयः वर्जित- करती है ‘इस ओर न आओ, अनत बसो तुम। सुनो, अन्यथा अभिशापों के भागी होगे; हठवादी न बनो, प्राणों का मोह करो तुम’।। पंक्तिबद्ध खग-वृंद कोटरों से निर्गत हो, कल-निनाद से छेड़ दिव्य-संगीत, मोद में- भर कर, एक साथ अपनी पाँखें फैलाए- जाने कहाँ चले जाते अन्न की खोज में।। ‘सादा-जीवन, उच्च-विचारा’ वाले रावी, मौलिक जीवन-चिन्तन में रत्, यहीं मुदित हैं। अनति दूर जब नगर-निवासी व्यर्थ, परस्पर- उलझ रहे हैं, रोग-ग्रस्त हैं, भोग-तृषित हैं।। नई सभ्यता ने इसके पुनीत चरणों में, यद्यपि अपना कलुषित माथा टेक दिया है। क्रूर-काल ज्वाला ने अरुणिम, कोमल-कोमल- गालों को अपनी लपटों से सेक दिया है।। फिर भी यह अस्तित्व सँम्हाल रखे है अपना, और आचरण को भी किसी रुग्ण ऋषि जैसा। ताज प्रेमियों! नैसर्गिक सुषमा का यह घर; आज विवश-व्याकुल है किसी अनाथ तनय-सा।। 22 मार्च, 1965

4. निर्मला की पाती

(1) मैं भी एक कली थी; लेकिन, खिलने से पहले मुरझाई। ऐसी हीर कनी थी जिसका जौहरियों ने मोल न जाना।। कुछ दिन दे दुलार की छाया, मनमौजी ख़ुशियाँ शरमाईं। ऐसे दिन आए जिनका था, करतब रोना और रुलाना।। (2) श्यामल-वर्ण, झुर्रियाँ सौ-सौ तन पर, आँखों में नीरवता। बाँहों में पौरुष, ललाट पर तेज, साधना में तन्मयता।। व्यवहारों में निश्छल; लेकिन दरिद्रता से तापित-शापित। मेरा माली पिता सींच कर, मुझे नित्य पाला करता था।। (3) एक दिवस नभ पर बादल थे, धरती पर था घना अँधेरा। हल्क़ी चीख़ मिल गई रिमझिम बूँदों के संगीत-स्वरों में।। उलझ गए थे प्राण पवन से, मेरे बूढ़े विकल पिता के। दीप वासना के जलते थे, यौवन के बदनाम घरों में।। (4) पता नहीं कब बेहोशी में, कौन बना मेरा व्यापारी? बग़िया से उठ कर कब, कैसे, शीशमहल की हुई बन्दिनी? जहाँ लाज लुटती अबला की, बेबस आँसू की छाती पर। अपने ही पड़ोस के भैया राजू की बन गई संगिनी।। (5) फिर तो मेरे लुटने की भी राम-कहानी सी चल बैठी। मुझ पर थूक दिया लोगों ने; लेकिन अपना पाप न देखा।। जीवन-दीप आँसुओं से ही जलना था, सो जला रही हूँ। तुमसे क्या कहना, अपने ही माथे की टेढ़ी हैं रेखा।। (6) पहले एक अश्रु-कण मेरा, पाहन तक पिघला देता था। आज उसी का सागर मेरी खोई आँखों में बंदी है।। मैं पावन अतीत की तुमको, कैसे कहो सफ़ाई दूँगी? न्यायाधीष वही हैं, जिनकी आँखें ज्योति-हीन, अंधी हैं।। (7) मेरे गुण देख कर दिया था, माँ ने मुझ को नाम ‘निर्मला’; लेकिन तेरे दृष्टि-पत्र पर केवल ‘रूपवती बाई’ हूँ।। आज देख! जाती बिरियाँ तक बहुत सह चुकी हूँ बदनामी। स्वीकारो, तुमको देने को सच की डलिया भर लाई हूँ।। (8) पहले कभी पुण्य का मन्दिर, मेरा भी था एक घराना। अब समाज की अमिट कालिमा, लाख धुलूँ पर धुल न सकूँगी। मचल रहीं हैं बह जाने को नीर-क्षीर की दो सरिताएँ। लाख ओंठ सीं लो; लेकिन मैं सच कहने से नहीं रुकूँगी।। (9) मुझ पर अनायास ही ढेरों माँटी सहज फेंकने वालो- अपने ही यथार्थ को देखो, सोचो तो पहले, तुम क्या हो? वही न, जिसका एक-एक कण पुता हुआ उजली कीचड़ से? कोई पाप झूठ में छिप कर, पावनता के घर आया हो।। (10) कहता हुआ-‘देख तो तेरा अंचल कितना मलिन हो गया?’ जैसे-किसी इन्दु पर तम की छाया ने उपहास कर दिया।। कोई पतित आचरण कह दे-‘मैं सतवंती का चरित्र हूँ’। अथवा किसी रोग ने अपनी काया का विश्वास कर लिया।। (11) मैं हूँ निठुर झूठ की ज़ंजीरों में जकड़ी विवश सचाई। तुम हो असत् सत्य से आवृत अन आवृत झूठ की गहनता।। मेरे विमल जागरण के घर सोती है मेरी मजबूरी। मेरे मुक्ति-यत्न से लिपटी, पौरुष-तिरस्कृता निष्फलता।। (12) ओ समाज के सत्य! पता है तू है वह अक्षम्य अपराधी- जिस पर है अभियोग किसी भी माँ की ममता की हत्या का। किसी दुलहिनी की कलियों-सी, कोमल साधों के हत्यारे- तुमने कलाकार का जीवन, बना दिया बन्दी मिथ्या का।। (13) तुम हो ऐसे पंछी जिसके पंख कटे, पर पंथ न भूला। दिन भर रहे स्वतंत्र, रात भर दीप-शिखा का बने पतंगा।। दिन-रातों के साथ बदलते पाप-पुण्य की भी परिभाषा। दिन का धर्म नाच करता है, मेरे घर आ कर अधनंगा।। (14) मैं दर-दर पर गई, मुक्ति पा, बिना भीख वापस घर आई। कोई पौरुष दिखा न तत्पर, मुझ को गले लगा लेने को।। पहले जो पौरुष, अबला की लाज बचा कर ही पौरुष था- वही आज आतुर नारी की अस्मत स्वयं मिटा देने को।। (15) तुम हो ऐसे भाँड़े जिस पर चिकनाई की कमी नहीं है। लाख बहे गंगा का पानी, कण भी ठहर नहीं पाएगा।। समझ रही हूँ सब कुछ फिर भी, चेतावनी तुम्हें देती हूँ। अब पद-दलित किसी नारी का, रूप नाग सा डँस जाएगा।। (16) मेरे सिरजनहार तुम्हीं हो, अनावरित तन के अधिकारी। तुमने ही लाखों कुटियों के दीप बुझाए हैं हँस-हँस कर।। अपने घर कुबेर, पर मेरे द्वारे पर जनम के भिखारी। तुमको है धिक्कार! आज अभिशाप दे रही हूँ रो-धो कर।। (17) तुम युग के इतिहास बदल जाने पर भी संतप्त रहोगे। अंतर्द्वंद्व प्रपीड़ित तन पर संघर्षों के घाव रहेंगे।। प्रकृति महाकाली के कर की; नारी ही करवाल बनेगी। कुछ विध्वंस-प्रयोजक तुम में से ही उस पर धार धरेंगे।। -13 मार्च, 1963

5. गाँधी-आश्रम

(एक सत्य घटना पर आधारित जिसका अब कोई पात्र जीवित नहीं) अल्हड़ यौवन की अलमस्ती, उन्मुक्त उरोजों से बाहर। आ कर आरक्त कपोलों पर; फैलाती लज्जा की चादर।। जर्जर, काली साड़ी में से- यों दमक रहा था गोरा तन। पूनम की खिली चाँदनी हो; छितरे-छितरे हों श्यामल घन।। पलकें पाटल की पँखुरी-सी, लेकिन चिन्ता से बोझिल थीं। बाँहें दो गोल-गोल जैसे- कचनार बिरिछ की डंठल थीं।। नंगे पाँवों मंथर-मंथर- चलती, तो कटि बल खाती थी। लगता था कोमल, कमल-नाल; बस अब टूटी या तब टूटी।। बिखरे कच भादों के पयोद, भारी नितम्ब ज्यों भूधर थे- हिलते मनोज के मनोभाव- जगते पाहन के भीतर थे।। रो दें तो मोती की लड़ियाँ, यों डरें कि टूट बिखर जाएँ। हँस दे तो उजड़े उपवन की- डाली फूलों से भर जाएँ।। ऐसी थी रूपा एक नज़र- भर देखे, संयम हिल जाए। लालायित था मन्मथ का मन, रति रूठे, रूपा मिल जाए।। आगे-पीछे कुछ इर्द-गिर्द, शीटियाँ बज रहीं बेढंगी। पौरुष के दम्भ, कुरूपे भी- आवाज़ कस रहे थे गन्दी।। रूपा को कुछ भी ध्यान नहीं, अपने भविष्य में भूली सी। वक्षस्थल से शिशु चिपटाए, चल रही धरा पर झूली सी।। गाँधी-आश्रम का तिमंज़िला, छत पर थे दीन-बन्धु नागर। रूपा को देखा, तैर गया, नयनों में सुधियों का सागर।। बेबस रूपा के बापू भी- स्वातंत्र्य-लहर के झगड़े में। 'खादी पहनो, भाई धारो- विश्वास स्वदेशी कपड़े में’।। कहते-कहते ही पकड़े थे- गोरी चमड़ी की सत्ता ने। मेरे ही साथ, मगर उनको- फ़रमाया याद विधाता ने।। मरते-मरते बेचारे की, आँखें पानी भर लाईं थीं। रूपा के लालन-पालन की, मुझको सौगन्ध दिलाई थी।। पर मैंने विकसित यौवन में, ली खेल वासना की होली। असुरा-मदिरा के रंग रंगी- अबला मुँह से न कभी बोली।। तब इसका भारी पाँव भाँप, मैंने बदनामी के डर से। रूपा को अपने साथ लिया; कर दिया गमन, निशि में घर से।। भीगी सन्ध्या वीराने में, अलमस्त क्षुब्ध सोई बस्ती। थी जहाँ ज़िन्दगी की क़ीमत, मोरी की कीचड़-सी सस्ती।। दो-चार फूँस की कुटियों में, बेबस ग़रीब का वक्ष चीर। टप्-टप् गिरता था फूँसों से, निर्लज्ज-नीर, बहता-समीर।। बूढ़े को जगा लिया मैंने, बस रात-रात को शरण माँग। गहरी निद्रा में देख चूर, मैं अधम चला चुपचाप भाग।। सपना टूटा, मालिक नागर, सुखिया से बोला- ‘देख! ज़रा वह जो भिखारिणी जाती है- मुझ तक दे कर आवाज़ बुला’।। वैसा ही हुआ, चली आई, अबला भिक्षा की आशा से। रो उठी नज़र मिलते ही पर; झोली भर गई निराशा से।। विद्रोह-घृणा के भाव स्वतः- उग आए, आकुल अन्तर में। ‘तू नीच! अधम! कामी! पापी! है और अभी किस चक्कर में’? गीली पलकें ‘क्षमयस्व’ भाव- लेकिन श्वासों में भरे कपट। कुछ और कहे इससे पहले- छू लिये पतित ने चरण झपट।। नारीत्व पगा है करुणा में, हिलकी भर कर रोया केवल। ‘राजू’ पर उमगा स्नेह देख, गोवध-घर समझ लिया देवल।। ‘बैठो पहले मैं स्वयं तुम्हें- हाथों से दूध पिलाऊँगा। पीछे अपनी मजबूरी का, तुमको विश्वास दिलाऊँगा’।। सुन कर ‘सुखिया’ सब भाँप गई, दूध में हलाहल पिला दिया। हँस कर नागर ने रूपा को, कन्धों से पकड़ा, हिला दिया।। बोला, ‘दिन है, कुछ बात बने, सन्ध्या हो, आ जाना रानी! घर की शोभा! गृह-लक्ष्मी! तब, मैं स्वयं करूँगा अगुवानी'।। रूपा शरमाई मन ही मन, तस्वीर बना कर दुलहिन की। ‘सन्ध्या तक अब परवाह नहीं, हे नाथ! किसी भी उलझन की’।। कोरे सपनों के फूल भरे- आँचल में, बाहर आ बैठी। फूटी गागर को भरी समझ, नादान किसी पनिहारिन-सी।। सन्ध्या होते-होते लेकिन, काया ढेली सी बिखर गई। दो-दो निरीह जब साथ चले, मृत्यु भी एक पल सिहर गई।। गंगा की लहरे काँप उठीं, सागर का अन्तर डोल उठा। दामिनी दमक कर यों बोली- ‘भर गई नीच! तेरी झोली’।। पर धरती को धीरज न बँधा। सहमा-सहमा कुछ रुँधा-रुँधा। आकाश जम गया खोया सा, कुछ सिसका सा, कुछ रोया सा।। उपवन उदास था, कलियाँ भी, चीत्कार कर उठीं गलियाँ भी। थम गया ठिठुरता हुआ पवन, मरघट करता था मौन-मनन।। दीपक की बाती गुज़र गई, शबनम घासों पर बिखर गई। श्वानों ने- गा ‘मर्सिया’ राग, अपने करतब की रखी लाज।। दुःख देख-देख, तरु का कपोत- गिर गया, मिली ज्योति में जोत। सब ओर मातमी का मौसम, हँसता तिमंज़िले पर खद्योत।। आ पहुँचा, भीड़ चीर बोला- ‘गोवर्धन’ राजू को टटोल। ‘भैया राजू! तू आँख खोल, तुतले-मीठे दो बोल, बोल!।। नाराज़ न हो मेरे राजा! मत कर पीड़ा का मन ताज़ा। गलियों-गलियों की ख़ाक छान, पा सका अधेला आज दान।। बीरन! लाया हूँ- चने चबा, हँस दे न कन्हैया! धीर बँधा। तू क्या, मैं भी तो भूखा हूँ, फिर भी किस-किस पर रूठा हूँ।। अच्छा, मत बोल पराया हूँ, यह भाव अभी तक भारी है।’ विष बुझे खड्ग सा प्रश्न लगा- ‘क्यों व्यर्थ तुझे लाचारी है?’ ‘बाबू! मेरा इन से नाता- तुम पूछ रहे हो? मत पूछो। दोनों दो दिन से भूखे हैं, यह माधो है, तो मैं ऊधो।। व्यवहार-जगत के नाते तो, सोने के ‘कंस’ निभाएँगे। ‘वसुदेव’ स्वप्न के शयन हेतु, आँसू की सेज बिछाएँगे।। नाते-रिश्ते तो उनके हैं, यह प्रश्न उन्हीं को भाता है। बिल्कुल विचित्र मेरा इनसे- केवल ग़रीब का नाता है।। जाओ दाता! क्यों काम हर्ज- करते हो, व्यर्थ समय अपना। अपना तो यही नियम-संयम, कटुतम यथार्थ, मीठा सपना।। सच तो यह है मैंने जब से, जीने का होश सम्हाला है। छोटे-छोटे गिन कर द्वादश- दीपों का बुझा उजाला है।। मैंने आँखों से देखा है, कोई बीमार न हुआ कभी। जैसे दीदी! राजू भैया- वैसे ही भूखों मरे सभी।। यों ही मेरे नन्हे-तुतले- बचपन का हिया परवान हुआ। सब हरा-भरा मेरा उपवन, असमय में मूक मसान हुआ’।। कह कर गोवर्धन फफक उठा, गाँधी-आश्रम की चौखट पर। जा कर माथा टेका अपना, बिक जाने तक की नौबत पर।। ‘दो ग़ज़ खादी दे दो मालिक- दीदी को कफ़न उढ़ाऊँगा। अपने कंधों पर दो लाशें- फिर मरघट में ले जाऊँगा’।। ‘खादी पैसे से मिलती है, बाँचो यह ‘खादी-आश्रम’ है। सबसे पहले! हाँ, ठीक पढ़ा- सचमुच यह ‘गाँधी-आश्रम’ है।। -21 दिसंबर, 1963

6. ताजमहल

(१) ताज तुझे जब-जब देखा अन्तर्नयनों से, कलाकार का मन सहसा भर-भर आया है। दुर्गति पर उन सभी कलाकारों की जिनके- हाथ कटे, पलकों में सावन घिर आया है।। (२) श्वेत-दूधिया दीप्ति तुम्हारी प्राचीरों की, लगता है वे लाश कफ़न ओढ़े सोईं हैं। विधवा पत्नी, माँ-बहिनों की; अश्रु-सलिल से- तेरे उपवन में असहाय व्यथा बोई हैं।। (३) उस युग में भी नृत्य विषमता करती होगी- भूखे पेट, ठिठुरती रातें, तारे गिन कर। उसी समय जन-साधारण ने काटीं होंगी- शाहजहाँ धुत् होगा जब कुछ ज़्यादा पी कर।। (४) शाहजहाँ के तप्त अधर, मुमताज महल के- सुर्ख़, नरम, चिकने अधरों पर फिसले होंगे। दीवानापन भी सवार दोनों पर होगा- आलिंगन में बँधे, सेज पर मचले होंगे।। (५) दीवारें उन्मत्त क़हक़हों को सुनती थीं, मंद-पवन मादकता का उद्दीपक बन कर- नग्न-प्राय अंगों को छू कर हँस देता था- दबे पाँव, दरवाज़ों के पर्दों से छन कर।। (६) ठीक उसी क्षण, पर्ण-कुटी में नतशिर बैठे- दम्पति अपनी दरिद्रता पर व्याकुल-विस्मित, बुझी राख चूल्हे की, लकड़ी से कुरेद कर- ठण्डी आहें भरते होंगे या फिर चिन्तित- (७) एक दूसरे की आँखों में झाँक-झाँक कर, खोज रहे होंगे अनेक प्रश्नों के उत्तर। कोरों से उत्तप्त अश्रु-कण, रह-रह, बह-बह- मिट जाते ज्वर-दग्ध कपोलों पर बुझ-बुझ कर।। (८) तेरी कला और वैभव ने तब से अब तक, केवल पूँजीवादी स्वर आबाद किया है। ताजमहल! सच मान, झूठ कुछ नहीं कि तूने- पाक मुहब्बत का दामन नापाक किया है।। (९) तू केवल कामुक प्रवृत्ति का परिचायक है, पावनता की गंध किसी को कैसे आए? वैसे भी तू अंध कूप पर आधारित है- कौन तुझे श्रद्धा से देखे, शीष झुकाए? (१०) तेरा यह निर्माण इसलिए भी कलुषित है- जन-धन का उपयोग व्यक्ति के लिए हुआ है। धिक्-धरती के विपुल-वक्ष पर पड़े फफोले!- यमुना की संगत के बल पर खड़ा हुआ है।। (११) यमुना की धारा से कल यह प्रश्न कर लिया- 'दर्शन' और 'देखने' में अन्तर है कितना? कल-कल स्वर में हँस कर, कर इंगित कर बोली- ‘वृन्दावन’ में और ‘आगरे’ में है जितना।। (१२) तू मज़ार पर नहीं, स्वतंत्र रूप से बन कर- तत्कालीन कला का परिचायक भर होता। निःसन्देह अवनि क्या अम्बर के भी मन में- अपने प्रति श्रद्धा के नव-नव अंकुर बोता।। (१३) तुझे नहीं परिज्ञात हुआ अब तक यह शायद, कैसे, किस कारण सहसा धरती पर आया? तेरी जीवन-ज्योति जला कर कितने दीपक- बुझे- और कितने गेहों में तम घहराया।। (१४) चौदह बच्चों की माँ, कभी रोग-शैया की- बाँह गहे, जीवन की नश्वरता से चिन्तित- पड़ी हुई थी, जीवन-साथी झुक पलंग पर- पूछ उठा, ‘क्या वस्तु तुम्हें है इस क्षण इच्छित?’ (१५) माथे पर कलंक-रेखा सी झुकी लटों को- बेगम ने बेताब अँगुलियों में उलझा कर। मदिर-रुग्ण नयनों के सम्मोहन में डूबे- शहंशाह से सौगंधों का जाल बिछा कर- (१६) प्रण करवाया ‘मेरे मर जाने पर ऐसी- यादगार बनवाना जो अपूर्व कहलाए। दुनिया भर में जिसकी शोहरत का स्वर गूँजे; प्यार भरे हृदयों को जो तीरथ बन जाए।। (१७) जिसको दर्पण समझ, इन्दु अपनी छवि देखे, यमुना अपने निर्मल जल से चरण पखारे। चिड़ियाँ साँझ-सवेरे अपने चह-चह स्वर से- उपवन के बिरवों पर बैठीं गगन गुँजारें।। (१८) और...और...’ बस इतना भर कह सकी, देह-सर, साँसों के हंस, हुए मुक्त पाँखें फैलाए- उड़े पवन के साथ, दृष्टि से ओझल हो कर, श्वेत पुतलियाँ देख शाह के दृग भर आए।। (१९) वंचित सा अवाक्, शव पर पागलों सरीख़ा- हाथ फेर कर, बार-बार निज केश नोंच कर- चीख़ा- ‘कोई है’, तुरन्त किंकरी उपस्थित- हुई, देख बोला- ‘वज़ीर को भेज खोज कर’।। (२०) इतने पर भी मूढ़ नहीं समझा इतना भी, संसृति का सब कुछ नश्वर ही तो है, केवल- प्रेम अमर है, मूर्त साधनों के संबल की- उसे अपेक्षा नहीं, तान कर फिर भी तेवर।। (२१) उग्र स्वरों में पास खड़े वज़ीर से बोला- ‘श्रेष्ठ कलाकारों-मज़दूरों से यह कहना- यमुना-तट पर एक अपूर्व भवन बनना है, चलो अभी आनाकानी कोई मत करना’।। (२२) उसके आज्ञापित सैनिक तब नगर-नगर की- गली-गली में घूमे होंगे, गेह-गेह में। घुसकर बरबस ले आए होंगे श्रमिकों को, चार-चार, छः-छः कोड़े खा नग्न देह में-।। (२३) अश्वारोही दीवानों के साथ दौड़ कर- थके हुए हरिया-रफ़ीक़ ने हाथ जोड़ कर- दो पल सुस्ताने को किया विनम्र निवेदन; मुँह पर ठोकर दी सैनिक ने अश्व मोड़ कर।। (२४) कहा कि-‘नालायक! विलम्ब का काम नहीं है, मज़दूरों के लिए आग बरसे या पानी। सुस्ताने के हेतु छूट देने का मतलब- अनुशासन-शासन दोनों की नींव हिलानी’।। (२५) तात्पर्य, तू जो कुछ भी है उसके नीचे, बच्चों-बूढ़ों के विलाप का दबा शोर है। रक्त-वर्ण दीवारें दो प्रवेश द्वारों की?- एक-एक पाषाण रक्त में सराबोर है।। (२६) तेरे निर्माता ने अपने अधिकारों का- दुरुपयोग जो किया विवशता का श्रमिकों की। वह अपराध किया है अनुचित लाभ उठा कर, क्रमागता पीढ़ियाँ क्षमा कर नहीं सकेंगी।। (२७) कर कटवाते समय उसे यह ध्यान नहीं था- कालान्तर में कला परिष्कृत प्रौढ़ बनेगी। क्योंकि विकास धर्म है मानव के जीवन का, फलतः सारी स्रष्टि उसे निर्बुद्धि कहेगी।। (२८) रजत ज्योत्सना में तो सब सुन्दर लगते हैं, कोई तेरा रूप, अमावस्या को देखे। मृत्यु-पिशाची अट्टहास कर उठे, अचानक- दशन-समूह दृष्टिगोचर होता हो जैसे।। (२९) परिवर्तन का दैत्य, समय के तीक्ष्ण-भयंकर- नाख़ूनों से अंग-अंग तेरा नोंचेगा। जब कोई निष्पक्ष नया इतिहास लिखेगा, तू उस रोज़ विवश हो कर अवश्य सोचेगा।। (३०) जिस दिन मेरी आँखों से देखेगा कोई- उस दिन तेरा सहज सत्य प्रतिभासित होगा। जिस दिन भूमिसात् होंगी तेरी प्राचीरें, उस दिन तेरा सही स्वरूप प्रकाशित होगा।। (३१) मैं क्या था, राजसी दम्भ या पागलपन का- शोषण और रक्त से पनपा अनाचार था। तृण से भी था नगण्य, जिस कारण पुजा हुआ था, कलाकार की सहन शक्ति- 'श्रम' का प्रचार था।। -24 मार्च, 1965