श्रीकृष्ण बाल-माधुरी : भक्त सूरदास जी

Shri Krishna Bal-Madhuri : Bhakt Surdas Ji

201. चौरी करत कान्ह धरि पाए

 चौरी करत कान्ह धरि पाए ।
निसि-बासर मोहि बहुत सतायौ, अब हरि हाथहिं आए ॥
माखन-दधि मेरौ सब खायौ, बहुत अचगरी कीन्ही ।
अब तौ घात परे हौ लालन, तुम्हें भलैं मैं चीन्ही ॥
दोउ भुज पकरि कह्यौ, कहँ जैहौ,माखन लेउँ मँगाइ।
तेरी सौं मैं नैकुँ न खायौ, सखा गए सब खाइ ॥
मुख तन चितै, बिहँसि हरि दीन्हौ, रिस तब गई बुझाइ ।
लियौ स्याम उर लाइ ग्वालिनी, सूरदास बलि जाइ ॥

राग धनाश्री

202. कत हो कान्ह काहु कैं जात

 कत हो कान्ह काहु कैं जात ।
वे सब ढीठ गरब गोरस कैं, मुख सँभारि बोलति नहिं बात ॥
जोइ-जोइ रुचै सोइ तुम मोपै माँगे लेहु किन तात ।
ज्यौं-ज्यौं बचन सुनौ मुख अमृत, त्यौ-त्यौं सुख पावत सब गात ॥
केशी टेव परी इन गोपिन, उरहन कैं मिस आवति प्रात ।
सूर सू कत हठि दोष लगावति, घरही कौ माखन नहिं खात ॥

राग गौरी

203. घर गौरस जनि जाहु पराए

घर गौरस जनि जाहु पराए ।
दूध भात भोजन घृत अमृत, अरु आछौ करि दह्यौ जमाए ॥
नव लख धेनु खरिक घर तेरैं, तू कत माखन खात पराए ।
निलज ग्वालिनी देति उरहनौ, वै झूठें करि बचन बनाए ॥
लघु-दीरघता कछु न जानैं, कहूँ बछरा कहुँ धेनु चराए ।
सूरदास प्रभु मोहन नागर, हँसि-हँसि जननी कंठ लगाए ॥

204. ग्वालिनि! दोष लगावति जोर

(कान्ह कौं) ग्वालिनि! दोष लगावति जोर ।
इतनक दधि-माखन कैं कारन कबहिं गयौ तेरी ओर ॥
तू तौ धन-जोबन की माती, नित उठि आवति भोर ।
लाल कुँअर मेरौ कछू न जानै, तू है तरुनि किसोर ॥
कापर नैंन चढ़ाए डोलति, ब्रज मैं तिनुका तोर ।
सूरदास जसुदा अनखानी, यह जीवन-धन मोर ॥

राग बिलावल

205. गए स्याम ग्वालिनि -घर सूनैं

गए स्याम ग्वालिनि -घर सूनैं ।
माखन खाइ, डारि सब गोरस, बासन फोरि किए सब चूनै ॥
बड़ौ माट इक बहुत दिननि कौ, ताहि कर्‌यौ दस टूक ।
सोवत लरिकनि छिरकि मही सौं, हँसत चलै दै कूक ॥
आइ गई ग्वालिनि तिहिं औसर, निकसत हरि धरि पाए ।
देखे घर-बासन सब फूटे, दूध-दही ढरकाए ॥
दोउ भुज धरि गाढ़ैं करि लीन्हें, गई महरि कै आगैं ।
सूरदास अब बसै कौन ह्याँ, पति रहिहै ब्रज त्यागैं ॥

राग गौरी

206. ऐसो हाल मेरैं घर कीन्हौ

ऐसो हाल मेरैं घर कीन्हौ, हौं ल्याई तुम पास पकरि कै ।
फौरि भाँड़ दधि माखन खायौ, उबर्‌यौ सो डार्‌यौ रिस करि कै ॥
लरिका छिरकि मही सौं देखै, उपज्यौ पूत सपूत महरि कै ।
बड़ौ माट घर धर्‌यौ जुगनि कौ, टूक-टूक कियौ सखनि पकरि कै ॥
पारि सपाट चले तब पाए, हौं ल्याई तुमहीं पै धरि कै ।
सूरदास प्रभु कौं यौं राखौ, ज्यौं राखिये जग मत्त जकरि कै ॥

राग-बिलावल

207. करत कान्ह ब्रज-घरनि अचगरी

करत कान्ह ब्रज-घरनि अचगरी ।
खीजति महरि कान्ह सौं, पुनि-पुनि उरहन लै आवति हैं सगरी ॥
बड़े बाप के पूत कहावत, हम वै बास बसत इक बगरी ।
नंदहु तैं ये बड़े कहैहैं, फेरि बसैहैं यह ब्रज-नगरी ॥
जननी कैं खीझत हरि रोए, झूठहि मोहि लगावति धगरी ।
सूर स्याम-मुख पोंछि जसोदा, कहति सबै जुवती हैं लँगरी ॥

राग-कान्हरौ

208. मेरौ माई ! कौन कौ दधि चोरैं

मेरौ माई ! कौन कौ दधि चोरैं ।
मेरैं बहुत दई कौ दीन्हौ, लोग पियत हैं औरै ॥
कहा भयौ तेरे भवन गए जो, पियौ तनक लै भोरै ।
ता ऊपर काहैं गरजति है, मनु आई चढ़ि घोरै ॥
माखन खाइ, मह्यौ सब डारै, बहुरौ भाजन फोरै ।
सूरदास यह रसिक ग्वालिनी, नेह नवल सँग जोरै ॥

राग नट

209. अपनौ गाउँ लेउ नँदरानी

अपनौ गाउँ लेउ नँदरानी ।
बड़े बाप की बेटी, पूतहि भली पढ़ावति बानी ॥
सखा-भीर लै पैठत घर मैं, आपु खाइ तौ सहिऐ ।
मैं जब चली सामुहैं पकरन, तब के गुन कहा कहिऐ ॥
भाजि गए दुरि देखत कतहूँ, मैं घर पौढ़ी आइ ।
हरैं-हरैं बेनी गहि पाछै, बाँधी पाटी लाइ ॥
सुनु मैया, याकै गुन मोसौं, इन मोहि लयो बुलाई ।
दधि मैं पड़ी सेंत की मोपै चींटी सबै कढ़ाई ॥
टहल करत मैं याके घर की, यह पति सँग मिलि सोई ।
सूर-बचन सुनि हँसी जसोदा, ग्वालि रही मुख गोई ॥

राग रामकली

210. लोगनि कहत झुकति तू बौरी

लोगनि कहत झुकति तू बौरी ।
दधि माखन गाँठी दै राखति, करत फिरत सुत चोरी ॥
जाके घर की हानि होति नित, सो नहिं आनि कहै री ।
जाति-पाँति के लोग न देखति और बसैहै नैरी ॥
घर-घर कान्ह खान कौ डोलत, बड़ी कृपन तू है री ।
सूर स्याम कौं जब जोइ भावै, सोइ तबहीं तू दै री ॥

राग नटनारायन

211. महरि तैं बड़ी कृपन है माई

महरि तैं बड़ी कृपन है माई ।
दूध-दही बहु बिधि कौ दीनौ, सुत सौं धरति छपाई ॥
बालक बहुत नहीं री तेरैं, एकै कुँवर कन्हाई ।
सोऊ तौ घरहीं घर डोलतु, माखन खात चोराई ॥
बृद्ध बयस पूरे पुन्यनि तैं, तैं बहुतै निधि पाई ।
ताहू के खैबे-पीबे कौं, कहा करति चतुराई ॥
सुनहु न बचन चतुर नागरि के, जसुमति नंद सुनाई ।
सूर स्याम कौं चोरी कैं, मिस, देखन है यह आई ॥

राग मलार

212. अनत सुत! गोरस कौं कत जात

अनत सुत! गोरस कौं कत जात ?
घर सुरभी कारी-धौरी कौ माखन माँगि न खात ॥
दिन प्रति सबै उरहनेकैं मिस, आवति हैं उठि प्रात ।
अनलहते अपराध लगावति, बिकट बनावति बात ॥
निपट निसंक बिबादित सनमुख, सुनि-सुनि नंद रिसात ।
मोसौं कहति कृपन तेरैं घर ढौटाहू न अघात ॥
करि मनुहारि उठाइ गोद लै, बरजति सुत कौं मात ।
सूर स्याम! नित सुनत उरहनौ, दुखख पावत तेरौ तात ॥

राग नट

213. हरि सब भाजन फोरि पराने

हरि सब भाजन फोरि पराने ।
हाँक देत पैठे दै पेला, नैकु न मनहिं डराने ॥
सींके छोरि, मारि लरिकन कौं, माखन-दधि सब खाइ ।
भवन मच्यौ दधि-काँदौ, लरिकनि रोवत पाए जाइ ॥
सुनहु-सुनहु सबहिनि के लरिका, तेरौ-सौ कहुँ नाहि ।
हाटनि-बाटनि, गलिनि कहूँ कोउ चलत नहीं, डरपाहिं ॥
रितु आए कौ खेल, कन्हैया सब दिन खेलत फाग ।
रोकि रहत गहि गली साँकरी, टेढ़ी बाँधत पाग ॥
बारे तैं सुत ये ढँग लाए, मनहीं-मनहिं सिहाति ।
सुनै सूर ग्वालिनि की बातैं, सकुचि महरि पछिताति ॥

214. कन्हैया ! तू नहिं मोहि डरात

कन्हैया ! तू नहिं मोहि डरात ।
षटरस धरे छाँड़ि कत पर-घर चोरी करि-करि खात ॥
बकत-बकत तोसौं पचि हारी, नैकुहुँ लाज न आई ।
ब्रज-परगन-सिकदार, महर तू ताकी करत ननहई ॥
पूत सपूत भयौ कुल मेरैं, अब मैं जानी बात ।
सूर स्याम अब लौं तुहि बकस्यौ, तेरी जानी घात ॥

राग सारंग

215. सुनु री ग्वारि ! कहौं इक बात

सुनु री ग्वारि ! कहौं इक बात ।
मेरी सौं तुम याहि मारियौ, जबहीं पावौ घात ॥
अब मैं याहि जकरि बाँधौंगी, बहुतै मोहि खिझायौ ।
साटिनि मारि करौ पहुनाई, चितवत कान्ह डरायौ ॥
अजहूँ मानि, कह्यौ करि मेरौ, घर-घर तू जनि जाहि ।
सूर स्याम कह्यौ, कहूँ न जैहौं, माता मुख तन चाहि ॥

राग गौरी

216. तेरैं लाल मेरौ माखन खायौ

तेरैं लाल मेरौ माखन खायौ ।
दुपहर दिवस जानि घर सूनौं, ढूँढ़ि-ढँढ़ोरि आपही आयौ ॥
खोलि किवार, पैठि मंदिर मैं, दूध-दही सब सखनि खवायौ ।
ऊखल चढ़ि सींके कौ लीन्हौ, अनभावत भुइँ मैं ढरकायौ ॥
दिन प्रति हानि होति गोरस की, यह ढोटा कौनैं ढँग लायौ ।
सूरस्याम कौं हटकि न राखै, तै ही पूत अनोखौ जायौ ॥

राग बिलावल

217. माखन खात पराए घर कौ

 माखन खात पराए घर कौ ।
नित प्रति सहस मथानी मथिऐ, मेघ-सब्द दधि-माट-घमरकौ ॥
कितने अहिर जियत मेरैं घर, दधी मथि लै बेंचत महि मरकौ ।
नव लख धेनु दुहत हैं नित प्रति, बड़ौ नाम है नंद महर कौ ॥
ताके पूत कहावत हौ तुम, चोरी करत उघारत फरकौ ।
सूर स्याम कितनौ तुम खैहौ, दधि-माखन मेरैं जहँ-तहँ ढरकौ ॥

राग रामकली

218. मैया मैं नहीं माखन खायौ

मैया मैं नहीं माखन खायौ ॥
ख्याल परै ये सखा सबै मिलि, मेरैं मुख लपटायौ ॥
देखि तुही सींके पर भाजन, ऊँचैं धरि लटकायौ ॥
हौं जु कहत नान्हे कर अपनैं मैं कैसैं करि पायौ ॥
मुख दधि पोंछि, बुद्धि इक कीन्हीं, दोना पीठि दुरायौ ॥
डारि साँटि, मुसुकाइ जसोदा, स्यामहि कंठ लगायौ ॥
बाल-बिनोद-मोद मन मोह्यौ, भक्ति -प्रताप दिखायौ ॥
सूरदास जसुमति कौ यह सुख, सिव बिरंचि नहिं पायौ ॥

राग रामकली

219. तेरी सौं सुनु-सुनु मेरी मैया

तेरी सौं सुनु-सुनु मेरी मैया !
आवत उबटि पर्‌यौ ता ऊपर, मारन कौं दौरी इक गैया ॥
ब्यानी गाइ बछरुवा चाटति, हौं पय पियत पतूखिनि लैया ।
यहै देखि मोकौं बिजुकानी, भाजि चल्यौ कहि दैया दैया ॥
दोउ सींग बिच ह्वै हौं आयौ, जहाँ न कोऊ हौ रखवैया ।
तेरौ पुन्य सहाय भयो है, उबर्‌यौ बाबा नंद दुहैया ॥
याके चरित कहा कोउ जानै, बूझौ धौं संकर्षन भैया ।
सूरदास स्वामीकी जननी, उर लगाइ हँसि लेति बलैया ॥

राग बिलावल

220. ह्वाँ लगि नैकु चलौ नँदरानी

ह्वाँ लगि नैकु चलौ नँदरानी!
मेरे सिर की नई बहनियाँ, लै गोरस मैं सानी ॥
हमै-तुम्है रिस-बैर कहाँ कौ, आनि दिखावत ज्यानी ।
देखौ आइ पूत कौ करतब, दूध मिलावत पानी ॥
या ब्रज कौ बसिबौ हम छाड़्यौ, सो अपने जिय जानी ।
सूरदास ऊसर की बरषा थोरे जल उतरानी ॥

राग गौरी

221. सुनि-सुनि री तैं महरि जसोदा

सुनि-सुनि री तैं महरि जसोदा, तैं सुत बड़ौ लगायौ ।
इहिं ठोटा लै ग्वाल भवन मैं, कछु बिथर्‌यौ कछु खायौ ॥
काकैं नहीं अनौखौ ढोटा, किहिं न कठिन करि जायौ ।
मैं हूँ अपनैं औरस पूतै बहुत दिननि मैं पायौ ॥
तैं जु गँवारि ! भुज याकी, बदन दह्यौ लपटायौ ।
सूरदास ग्वालिनि अति झूठी, बरबस कान्ह बँधायौ ॥

राग बिलावल

222. नंद-घरनि ! सुत भलौ पढ़ायौ

नंद-घरनि ! सुत भलौ पढ़ायौ ।
ब्रज-बीथिनि, पुर-गलिनि, घरै-घर, घाट-बाट सब सोर मचायौ ॥
लरिकनि मारि भजत काहू के, काहू कौ दधि-दूध लुटायौ ।
काहू कैं घर करत भँड़ाई, मैं ज्यौं-ज्यौं करि पकरन पायौ ॥
अब तौ इन्है जकरि धरि बाँधौं, इहिं सब तुम्हरौ गाउँ भजायौ ।
सूर स्याम-भुज गहि नँदरानी, बहुरि कान्ह अपनैं ढँग लायौ ॥

राग नट

223. ऐसी रिस मैं जौ धरि पाऊँ

ऐसी रिस मैं जौ धरि पाऊँ ।
कैसे हाल करौं धरि हरि के, तुम कौं प्रगट दिखाऊँ ॥
सँटिया लिए हाथ नँदरानी, थरथरात रिस गात ।
मारे बिना आजु जौ छाँड़ौ, लागैं, लागैं मेरैं तात ॥
इहिं अंतर ग्वारिनि इक औरै, धरे बाँह हरि ल्यावति ।
भली महरि सूधौ सुत जायौ, चोली-हार बतावति ॥
रिस मैं रिस अतिहीं उपजाई, जानि जननि-अभिलाष ।
सूरस्याम-भुज गहे जसोदा, अब बाँधौं कहि माष ॥

राग गौरी

224. जसुमति रिस करि-करि रजु करषै

जसुमति रिस करि-करि रजु करषै ।
सुत हित क्रोध देखि माता कैं, मन-हीं-मन हरि हरषै ॥
उफनत छीर जननि करि ब्याकुल, इहिं बिधि भुजा छुड़ायौ ।
भाजन फोरि दही सब डार्‌यौ, माखन-कीच मचायौ ॥
लै आई जेंवरि अब बाँधौं, गरब जानि न बँधायौ ।
अंगुर द्वै घटि होति सबनि सौं, पुनि-पुनि और मँगायौ ॥
नारद-साप भए जमलार्जुन, तिन कौं अब जु उधारौं ।
सूरदास-प्रभु कहत भक्त हित जनम-जनम तनु धारौं ॥

राग सोरठ

225. जसोदा! एतौ कहा रिसानी

जसोदा! एतौ कहा रिसानी ।
कहा भयौ जौ अपने सुत पै, महि ढरि परी मथानी ?
रोषहिं रोष भरे दृग तेरे, फिरत पलक पर पानी ।
मनहुँ सरद के कमल-कोष पर मधुकर मीन सकानी ॥
स्रम-जल किंचित निरखि बदन पर, यह छबि अति मन मानी ।
मनौ चंद नव उमँगि सुधा भुव ऊपर बरषा ठानी ॥
गृह-गृह गोकुल दई दाँवरी, बाँधति भुज नँदरानी ।
आपु बँधावत भक्तनि छोरत, बेद बिदित भई बानी ॥

राग रामकली

  • श्रीकृष्ण बाल-माधुरी भाग (10) भक्त सूरदास जी
  • श्रीकृष्ण बाल-माधुरी भाग (8) भक्त सूरदास जी
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