श्रीकृष्ण बाल-माधुरी : भक्त सूरदास जी

Shri Krishna Bal-Madhuri : Bhakt Surdas Ji

176. गोपाल राइ चरननि हौं काटी

गोपाल राइ चरननि हौं काटी ।
हम अबला रिस बाँचि न जानी, बहुत लागि गइ साँटी ॥
वारौं कर जु कठिन अति कोमल, नयन जरहु जिनि डाँटी ।
मधु. मेवा पकवान छाँड़ि कै, काहैं खात हौ माटी ॥
सिगरोइ दूध पियौ मेरे मोहन, बलहि न दैहौं बाँटी ।
सूरदास नँद लेहु दोहनी, दुहहु लाल की नाटी ॥

राग धनाश्री

177. मैया री, मोहि माखन भावै

मैया री, मोहि माखन भावै ।
जो मेवा पकवान कहति तू, मोहि नहीं रुचि आवै ॥
ब्रज-जुवती इक पाछैं ठाढ़ी, सुनत स्याम की बात ।
मन-मन कहति कबहुँ अपनैं घर, देखौं माखन खात ॥
बैठैं जाइ मथनियाँ कै ढिग, मैं तब रहौं छपानी ।
सूरदास प्रभु अंतरजामी, ग्वालिनि-मन की जानी ॥

राग गौरी

178. गए स्याम तिहि ग्वालिनि कैं घर

गए स्याम तिहि ग्वालिनि कैं घर ।
देख्यौ द्वार नहीं कोउ, इत-उत चितै चले तब भीतर ॥
हरि आवत गोपी जब जान्यौ, आपुन रही छपाइ ।
सूनैं सदन मथनियाँ कैं ढिग, बैठि रहे अरगाइ ॥
माखन भरी कमोरी देखत, लै-लै लागे खान ।
चितै रहे मनि-खंभ-छाहँ तन, तासौं करत सयान ॥
प्रथम आजु मैं चोरी आयौ, भलौ बन्यौ है संग ।
आपु खात, प्रतिबिंब खवावत, गिरत कहत,का रंग ?
जौ चाहौ सब देउँ कमोरी, अति मीठौ कत डारत ।
तुमहि देत मैं अति सुख पायौ, तुम जिय कहा बिचारत ?
सुनि-सुनि बात स्यामके मुखकी,उमँगि हँसी ब्रजनारी ।
सूरदास प्रभु निरखि ग्वालि-मुख तब भजि चले मुरारी ॥

179. फूली फिरति ग्वालि मन मैं री

फूली फिरति ग्वालि मन मैं री ।
पूछति सखी परस्पर बातैं, पायौ पर्‌यौ कछू कहुँ तैं री ?
पुलकित रोम-रोम, गदगद, मुख बानी कहत न आवै ।
ऐसौ कहा आहि सो सखि री, हम कौं क्यौं न सुनावै ॥
तन न्यारौ, जिय एक हमारौ, हम तुम एकै रूप ।
सूरदास कहै ग्वालि सखिनि सौं, देख्यौ रूप अनूप ॥

180. आजु सखी मनि-खंभ-निकट हरि

 आजु सखी मनि-खंभ-निकट हरि, जहँ गोरस कौं गो री ।
निज प्रतिबिंब सिखावत ज्यों सिसु, प्रगट करै जनि चोरी ॥
अरध बिभाग आजु तैं हम-तुम, भली बनी है जोरी ।
माखन खाहु कतहिं डारत हौ, छाड़ि देहु मति भोरी ॥
बाँट न लेहु, सबै चाहत हौ, यहै बात है थोरी ।
मीठौ अधिक, परम रुचि लागै, तौ भरि देउँ कमोरी ॥
प्रेम उमगि धीरज न रह्यौ, तब प्रगट हँसी मुख मोरी ।
सूरदास प्रभु सकुचि निरखि मुख भजे कुंज की खोरी ॥

राग गूजरी

181. प्रथम करी हरि माखन-चोरी

प्रथम करी हरि माखन-चोरी ।
ग्वालिनि मन इच्छा करि पूरन, आपु भजे-खोरी ॥
मन मैं यहै बिचार करत हरि, ब्रज घर-घर सब जाउँ ।
गोकुल जनम लियौ सुख कारन, सब कैं माखन खाउँ ॥
बालरूप जसुमति मोहि जानै, गोपिनि मिलि सुख-भोग ।
सूरदास प्रभु कहत प्रेम सौं, ये मेरे ब्रज-लोग ॥

राग बिलावल

182. सखा सहित गए माखन-चोरी

सखा सहित गए माखन-चोरी ।
देख्यौ स्याम गवाच्छ-पंथ ह्वै, मथति एक दधि भोरी ॥
हेरि मथानी धरी माट तैं, माखन हो उतरात ।
आपुन गई कमोरी माँगन, हरि पाई ह्याँ घात ॥
पैठे सखनि सहित घर सूनैं, दधि-माखन सब खाए ।
छूछी छाँड़ि मटुकिया दधि की, हँसि सब बाहिर आए ॥
आइ गई कर लिये कमोरी, घर तैं निकसे ग्वाल ।
माखन कर, दधि मुख लपटानौ, देखि रही नँदलाल ॥
कहँ आए ब्रज-बालक सँग लै, माखन मुख लपटान्यौ ।
खेलत तैं उठि भज्यौ सखा यह, इहिं घर आइ छपान्यौ ॥
भुज गहि कान्ह एक बालक, निकसे ब्रजकी खोरि ।
सूरदास ठगि रही ग्वालिनी, मन हरि लियौ अँजोरि ॥

राग गौरी

183. चकित भई ग्वालिनि तन हेरौ

चकित भई ग्वालिनि तन हेरौ ।
माखन छाँड़ि गई मथि वैसैहिं, तब तैं कियौ अबेरौ ॥
देखै जाइ मटुकिया रीती , मैं राख्यौ कहुँ हेरि ।
चकित भई ग्वालिनि मन अपनैं, ढूँढ़ति घर फिरि-फेरि ॥
देखति पुनि-पुनि घर जे बासन, मन हरि लियौ गोपाल ।
सूरदास रस-भरी ग्वालिनी, जानै हरि कौ ख्याल ॥

184. ब्रज घर-घर प्रगटी यह बात

 ब्रज घर-घर प्रगटी यह बात ।
दधि-माखन चोरी करि लै हरि, ग्वाल -सखा सँग खात ॥
ब्रज-बनिता यह सुनि मन हरषित, सदन हमारैं आवैं ।
माखन खात अचानक पावैं, भुज हरि उरहिं छुवावैं ॥
मन-हीं-मन अभिलाष करति सब हृदय धरति यह ध्यान ।
सूरदास प्रभु कौं घर तैं लैं दैहौं माखन खान ॥

राग बिलावल

185. चली ब्रज घर-घरनि यह बात

चली ब्रज घर-घरनि यह बात ।
नंद-सुत सँग सखा लीन्हें, चोरि माखन खात ॥
कोउ कहति, मेरे भवन भीतर अबहिं पैठे धाइ ।
कोउ कहति, मोहि देखि द्वारैं, उतहिं गए पराइ ॥
कोउ कहति किहिं भाँति हरि कौं, देखौं अपने धाम ।
हेरि माखन देउँ आछौं, खाइ कितनौ स्याम ॥
कोउ कहति, मैं देखि पाऊँ, भरि धरौं अँकवारि ।
कोउ कहति, मैं बाँधि राखौं, को सकै निरवारि ॥
सूरप्रभु के मिलन कारन, करति बुद्धि बिचार ।
जोरि कर बिधि कौं मनावति, पुरुष नंद-कुमार ॥

राग कान्हरौ

186. गोपालहि माखन खान दै

गोपालहि माखन खान दै ।
सुनि री सखी, मौन ह्वै रहिऐ, बदन दही लपटान दै ॥
गहि बहियाँ हौं लैकै जैहौं, नैननि तपति बुझान दै ।
याकौ जाइ चौगुनौ लैहौं, मोहि जसुमति लौं जान दै ॥
तू जानति हरि कछू न जानत सुनत मनोहर कान दै ।
सूर स्याम ग्वालिनि बस कीन्हौ राखनि तन-मन-प्रान दै ॥

राग सारंग

187. जसुदा कहँ लौं कीजै कानि

जसुदा कहँ लौं कीजै कानि ।
दिन-प्रति कैसैं सही परति है, दूध-दही की हानि ॥
अपने या बालक की करनी,जौ तुम देखौ आनि ।
गोरस खाइ खवावै लरिकन, भाजत भाजन भानि ॥
मैं अपने मंदिर के कोनैं, राख्यौ माखन छानि ।
सोई जाइ तिहारैं ढोटा, लीन्हौ है पहिचानि ॥
बूझि ग्वालि निज गृह मैं आयौ नैकु न संका मानि ।
सूर स्याम यह उतर बनायौ, चींटी काढ़त पानि ॥

188. माई ! हौं तकि लागि रही

माई ! हौं तकि लागि रही ।
जब घर तैं माखन लै निकस्यौ, तब मैं बाहँ गही ॥
तब हँसि कै मेरौ मुख चितयौ, मीठी बात कही ।
रही ठगी, चेटक-सौ लाग्यौ, परि गइ प्रीति सही ॥
बैठो कान्ह, जाउँ बलिहारी, ल्याऊँ और दही ।
सूर स्याम पै ग्वालि सयानी सरबस दै निबही ॥

189. आपु गए हरुएँ सूनैं घर

 आपु गए हरुएँ सूनैं घर ।
सखा सबै बाहिर ही छाँड़े, देख्यौ दधि-माखन हरि भीतर ॥
तुरत मथ्यौ दधि-माखन पायौ, लै-लै खात, धरत अधरनि पर ।
सैन देइ सब सखा बुलाए, तिनहि देत भरि-भरि अपनैं कर ॥
छिटकि रही दधि-बूँद हृदय पर, इत उत चितवत करि मन मैं डर ।
उठत ओट लै लखत सबनि कौं, पुनि लै कात लेत ग्वालनि बर ॥
अंतर भई ग्वालि यह देखति मगन भई, अति उर आनँद भरि ।
सूर स्याम-मुख निरखि थकित भइ,कहत न बनै, रही मन दै हरि ॥

राग गौरी

190. गोपाल दुरे हैं माखन खात

गोपाल दुरे हैं माखन खात ।
देखि सखी ! सोभा जु बनी है स्याम मनोहर गात ॥
उठि,अवलोकि ओट ठाढ़े ह्वै, जिहिं बिधि हैं लखि लेत ।
चकित नैन चहूँ दिसि चितवत, और सखनि कौं देत ॥
सुंदर कर आनन समीप, अति राजत इहिं आकार ।
जलरुह मनौ बैर बिधु सौं तजि, मिलत लएँ उपहार ॥
गिरि-गिरि परत बदन तैं उर पर हैं दधि, सूत के बिंदु ।
मानहुँ सुभग सुधा-कन बरषत प्रियजन आगम इंदु ॥
बाल-बिनोद बिलोकि सूर-प्रभु सिथिल भईं ब्रजनारि ।
फुरै न बचन बरजिवैं कारन, रहीं बिचारि-बिचारि ॥

राग धनाश्री

191. ग्वालिनि जौ घर देखै आइ

 ग्वालिनि जौ घर देखै आइ ।
माखन खाइ चोराइ स्याम सब, आपुन रहे छपाइ ॥
ठाढ़ी भई मथनियाँ कैं ढिग, रीती परि कमोरी ।
अबहिं गई, आई इनि पाइनि, लै गयौ को करि चोरी ?
भीतर गई, तहाँ हरि पाए, स्याम रहे गहि पाइ ।
सूरदास प्रभु ग्वालिनि आगैं, अपनौं नाम सुनाइ ॥

राग-सारंग

192. जौ तुम सुनहु जसोदा गोरी

 जौ तुम सुनहु जसोदा गोरी ।
नंदँ-नंदन मेरे मंदिर मैं आजु करन गए चोरी ॥
हौं भइ जाइ अचानक ठाढ़ी, कह्यौ भवन मैं को री ।
रहे छपाइ, सकुचि, रंचक ह्वै, भइ सहज मति भोरी ॥
मोहिं भयौ माखन-पछितावौ, रीती देखि कमोरी ।
जब गहिं बाँह कुलाहल कीनी, तब गहि चरन निहोरी ॥
लागे लैन नैन जल भरि-भरि, तब मैं कानि न तोरी ॥
सूरदास-प्रभु देत दिनहिं-दिन ऐसियै लरिक-सलोरी ॥

राग गौरी

193. देखी ग्वालि जमुना जात

देखी ग्वालि जमुना जात ।
आपु ता घर गए पूछत, कौन है, कहि बात ॥
जाइ देखे भवन भीतर , ग्वाल-बालक दोइ ।
भीर देखत अति डराने, दुहुनि दीन्हौं रोइ ॥
ग्वाल के काँधैं चड़े तब, लिए छींके उतारि ।
दह्यौ-माखन खात सब मिलि,दूध दीन्हौं डारि ॥
बच्छ ल सब छोरि दीन्हें, गए बन समुहाइ ।
छिरकि लरिकनि महीं सौं भरि, ग्वाल दए चलाइ ॥
देखि आवत सखी घर कौं, सखनि कह्यौ जु दौरि ।
आनि देखे स्याम घर मैं, भई ठाढ़ी पौरि ॥
प्रेम अंतर, रिस भरे मुख, जुवति बूझति बात ।
चितै मुख तन-सुधि बिसारी, कियौ उर नख-घात ॥
अतिहिं रस-बस भई ग्वालिनि, गेह-देह बिसारि ।
सूर-प्रभु-भुज गहे ल्याई, महरि पैं अनुसारि ॥

राग नट

194. महरि ! तुम मानौ मेरी बात

महरि ! तुम मानौ मेरी बात ।
ढूँढ़ि-ढ़ँढ़ि गोरस सब घर कौ, हर्‌यौ तुम्हारैं तात ॥
कैसें कहति लियौ छींके तैं, ग्वाल-कंध दै लात ।
घर नहिं पियत दूध धौरी कौ, कैसैं तेरैं खात ?
असंभाव बोलन आई है, ढीठ ग्वालिनी प्रात ।
ऐसौ नाहिं अचगरौ मेरौ, कहा बनावति बात ॥
का मैं कहौं, कहत सकुचति हौं, कहा दिखाऊँ गात !
हैं गुन बड़े सूर के प्रभु के, ह्याँ लरिका ह्वै जात ॥

राग गौरी

195. साँवरेहि बरजति क्यौं जु नहीं

साँवरेहि बरजति क्यौं जु नहीं ।
कहा करौं दिन प्रति की बातैं, नाहिन परतिं सही ॥
माखन खात, दूध लै डारत, लेपत देह दही ।
ता पाछैं घरहू के लरिकन, भाजत छिरकि मही ॥
जो कछु धरहिं दुराइ, दूरि लै, जानत ताहि तहीं ।
सुनहु महरि, तेरे या सुत सौं, हम पचि हारि रहीं ॥
चोरी अधिक चतुरई सीखी, जाइ न कथा कही ।
ता पर सूर बछुरुवनि ढीलत, बन-बन फिरतिं बही ॥

196. अब ये झूठहु बोलत लोग

अब ये झूठहु बोलत लोग ।
पाँच बरष अरु कछुक दिननिकौ, कब भयौ चोरी जोग ॥
इहिं मिस देखन आवतिं ग्वालिनि, मुँह फाटे जु गँवारि ।
अनदोषे कौं दोष लगावतिं, दई देइगौ टारि ॥
कैसैं करि याकी भुज पहुँची, कौन बेग ह्याँ आयौ ?
ऊखल ऊपर आनि पीठ दै, तापर सखा चढ़ायौ ॥
जौ न पत्याहु चलौ सँग जसुमति, देखौ नैन निहारि ।
सूरदास-प्रभु नैकु न बरज्यौ, मन मैं महरि बिचारि ॥

राग कान्हरौ

197. मेरौ गोपाल तनक, सौ, कहा करि जानै

मेरौ गोपाल तनक, सौ, कहा करि जानै दधि की चोरी ।
हाथ नचावत आवति ग्वारिनि, जीभ करै किन थोरी ॥
कब सीकैं चढ़ि माखन खायौ, कब दधि-मटुकी फोरी ।
अँगुरी करि कबहूँ नहिं चाखत, घरहीं भरी कमोरी ॥
इतनी सुनत घोष की नारी, रहसि चली मुख मोरी ।
सूरदास जसुदा कौ नंदन, जो कछु करै सो थोरी ॥

राग देवगंधार

198. कहै जनि ग्वारिन! झूठी बात

कहै जनि ग्वारिन! झूठी बात ।
कबहूँ नहिं मनमोहन मेरौ, धेनु चरावन जात ॥
बोलत है बतियाँ तुतरौहीं, चलि चरननि न सकात ।
केसैं करै माखन की चोरी, कत चोरी दधि खात ॥
देहीं लाइ तिलक केसरि कौ, जोबन-मद इतराति ।
सूरज दोष देति गोबिंद कौं, गुरु-लोगनि न लजाति ॥

राग सारंग

199. मेरे लाड़िले हो! तुम जाउ न कहूँ

मेरे लाड़िले हो! तुम जाउ न कहूँ ।
तेरेही काजैं गोपाल, सुनहु लाड़िले लाल ,राखे हैं भाजन भरि सुरस छहूँ ॥
काहे कौं पराएँ जाइ करत इते उपाइ, दूध-दही-घृत अरु माखन तहूँ ।
करति कछु न कानि, बकति हैं कटु बानि, निपट निलज बैन बिलखि सहूँ ॥
ब्रज की ढीठी गुवारि, हाट की बेचनहारि,सकुचैं न देत गारि झगरत हूँ ।
कहाँ लगि सहौं रिस, बकत भई हौं कृस,इहिं मिस सूर स्याम-बदन चहूँ ॥

राग नटनारायन

200. इन अँखियन आगैं तैं मोहन

इन अँखियन आगैं तैं मोहन, एकौ पल जनि होहु नियारे ।
हौं बलि गई, दरस देखैं बिनु, तलफत हैं नैननि के तारे ॥
औरौ सखा बुलाइ आपने, इहिं आगन खेलौ मेरे बारे ।
निरखति रहौं फनिग की मनि ज्यौं, सुंदर बाल-बिनोद तिहारे ॥
मधु, मेवा, पकवान, मिठाई, व्यंजन खाटे, मीठे, खारे ।
सूर स्याम जोइ-जोइ तुम चाहौ, सोइ-सोइ माँगि लेहु मेरे बारे ॥

राग कान्हरौ

  • श्रीकृष्ण बाल-माधुरी भाग (9) भक्त सूरदास जी
  • श्रीकृष्ण बाल-माधुरी भाग (7) भक्त सूरदास जी
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