श्रीकृष्ण बाल-माधुरी : भक्त सूरदास जी

Shri Krishna Bal-Madhuri : Bhakt Surdas Ji

226. बाँधौं आजु, कौन तोहि छोरै

 बाँधौं आजु, कौन तोहि छोरै ।
बहुत लँगरई कीन्हीं मोसौं, भुज गहि ऊखल सौं जोरै ॥
जननी अति रिस जानि बँधायौ, निरखि बदन, लोचन जल ढोरै ।
यह सुनि ब्रज-जुवती सब धाई, कहतिं कान्ह अब क्यौं नहिं छोरै ॥
ऊखल सौं गहि बाँधि जसोदा, मारन कौं साँटी कर तोरै ।
साँटी देखि ग्वालि पछितानी, बिकल भई जहँ-तहँ मुख मोरे ॥
सुनहु महरि! ऐसी न बूझिए, सुत बाँधति माखन-दधि थोरैं ।
सूर स्याम कौं बहुत सतायौ, चूक परी हम तैं यह भोरैं ॥

राग सारंग

227. जाहु चली अपनैं-अपनैं घर

जाहु चली अपनैं-अपनैं घर ।
तुमहिं सबनि मिलि ढीठ करायौ, अब आईं छोरन बर ॥
मोहिं अपने बाबाकी सौहैं, कान्हि अब न पत्याउँ ।
भवन जाहु अपनैं-अपनैं सब, लागति हौं मैं पाउँ ॥
मोकौं जनि बरजौ जुवती कोउ, देखौ हरि के ख्याल ।
सूर स्याम सौं कहति जसोदा, बड़े नंद के लाल ॥

राग आसावरी

228. जसुदा! तेरौं मुख हरि जोवै

 जसुदा! तेरौं मुख हरि जोवै ।
कमलनैन हरि हिचिकिनि रोवै, बंधन छोरि जसोवै ॥
जौ तेरौ सुत खरौ अचगरौ, तउ कोखि कौ जायौ ।
कहा भयौ जौ घर कैं ढोटा, चोरी माखन खायौ ॥
कोरी मटुकी दह्यौ जमायौ, जाख न पूजन पायौ ।
तिहिं घर देव-पितर काहे कौं , जा घर कान्हर आयौ ॥
जाकौ नाम लेत भ्रम छूटे, कर्म-फंद सब काटै ।
सोई इहाँ जेंवरी बाँधे, जननि साँटि लै डाँटै ॥
दुखित जानि दोउ सुत कुबेर के ऊखल आपु बँधायौ ।
सूरदास-प्रभु भक्त हेत ही देह धारि कै आयौ ॥

राग सोरठ

229. देखौ माई कान्ह हिलकियनि रोवै

देखौ माई कान्ह हिलकियनि रोवै !
इतनक मुख माखन लपटान्यौ, डरनि आँसुवनि धोवै ॥
माखन लागि उलूखल बाँध्यौ, सकल लोग ब्रज जोवै ।
निरखि कुरुख उन बालनि की दिस, लाजनि अँखियनि गोवै ॥
ग्वाल कहैं धनि जननि हमारी, सुकर सुभि नित नोवै ।
बरबस हीं बैठारि गोद मैं, धारैं बदन निचोवै ॥
ग्वालि कहैं या गोरस कारन, कत सुतकी पति खोवै ?
आनि देहिं अपने घर तैं हम, चाहति जितौ जसोवै ॥
जब-जब बंधन छौर्‌यौ चाहतिं, सूर कहै यह को वै ।
मन माधौ तन, चित गोरस मैं, इहिं बिधि महरि बिलोवै ॥

राग बिहागरौ

230. नैकुहूँ न दरद करति, हिलकिनी हरि रोवै

(माई) नैकुहूँ न दरद करति, हिलकिनी हरि रोवै ।
बज्रहु तैं कठिनु हियौ, तेरौ है जसोवै ॥
पलना पौढ़ाइ जिन्हैं बिकट बाउ काटै ॥
उलटे भुज बाँधि तिन्हैं लकुट लिए डाँटै ॥
नैकुहूँ न थकत पानि, निरदई अहीरी ।
अहौ नंदरानि, सीख कौन पै लही री ॥
जाकौं सिव-सनकादिक सदा रहत लोभा ।
सूरदास-प्रभु कौ मुख निरखि देखि सोभा ॥

राग सारंग

231. कुँवर जल लोचन भरि-भरि लेत

कुँवर जल लोचन भरि-भरि लेत ।
बालक-बदन बिलोकि जसोदा, कत रिस करति अचेत ॥
छोरि उदर तैं दुसह दाँवरी, डारि कठिन कर बेंत ।
कहि धौं री तोहि क्यौं करि आवै, सिसु पर तामस एत ॥
मुख आँसू अरु माखन-कनुका, निरखि नैन छबि देत ।
मानौ स्रवत सुधानिधि मोती, उडुगन-अवलि समेत ॥
ना जानौं किहिं पुन्य प्रगट भए इहिं ब्रज नंद -निकेत ।
तन-मन-धन न्यौछावर कीजै सूर स्याम कैं हेत ॥

राग बिहागरौ

232. हरि के बदन तन धौं चाहि

हरि के बदन तन धौं चाहि ।
तनक दधि कारन जसोदा इतौ कहा रिसाहि ॥
लकुट कैं डर डरत ऐसैं सजल सोभित डोल ।
नील-नीरज-दल मनौ अलि-अंसकनि कृत लोल ॥
बात बस समृनाल जैसैं प्रात पंकज-कोस ।
नमित मुख इमि अधर सूचत, सकुच मैं कछु रोस ॥
कतिक गोरस-हानि, जाकौं करति है अपमान ।
सूर ऐसे बदन ऊपर वारिऐ तन-प्रान ॥

233. मुख छबि देखि हो नँद-घरनि

मुख छबि देखि हो नँद-घरनि !
सरद-निसि कौ अंसु अगनित इंदु-आभा-हरनि ॥
ललित श्रीगोपाल-लोचन लोल आँसू-ढरनि ।
मनहुँ बारिज बिथकि बिभ्रम, परे परबस परनि ॥
कनक मनिमय जटित कुंडल-जोति जगमग करनि ।
मित्र मोचन मनहुँ आए ,तरल गति द्वै तरनि ॥
कुटिल कुंतल, मधुप मिलि मनु कियो चाहत लरनि ।
बदन-कांति बिलोकि सोभा सकै सूर न बरनि ॥

234. मुख-छबि कहा कहौं बनाइ

मुख-छबि कहा कहौं बनाइ ।
निरखि निसि-पति बदन-सोभा, गयौ गगन दुराइ ॥
अमृत अलि मनु पिवन आए, आइ रहे लुभाइ ।
निकसि सर तैं मीन मानौ,, लरत कीर छुराइ ॥
कनक-कुंडल स्रवन बिभ्रम कुमुद निसि सकुचाइ।
सूर हरि की निरखि सोभा कोटि काम लजाइ ॥

235. हरि-मुख देखि हो नँद-नारि

हरि-मुख देखि हो नँद-नारि ।
महरि! ऐसे सुभग सुत सौं, इतौ कोह निवारि ॥
सरद मंजुल जलज लोचन लोल चितवनि दीन ।
मनहुँ खेलत हैं परस्पर मकरध्वज द्वै मीन ॥
ललित कन-संजुत कपोलनि लसत कज्जल-अंक ।
मनहुँ राजत रजनि, पूरन कलापति सकलंक ॥
बेगि बंधन छोरि, तन-मन वारि, लै हिय लाइ ।
नवल स्याम किसोर ऊपर, सूर जन बलि जाइ ॥

236. कहौ तौ माखन ल्यावैं घर तैं

कहौ तौ माखन ल्यावैं घर तैं ।
जा कारन तू छोरति नाहीं, लकुट न डारति कर तैं ॥
सुनहु महरि ! ऐसी न बूझियै, सकुचि गयौ मुख डर तैं ।
ज्यौं जलरुह ससि-रस्मि पाइ कै, फूलत नाहिं न सर तैं ॥
ऊखल लाइ भुजा धरि बाँधी, मोहनि मूरति बर तैं ।
सूर स्याम-लोचन जल बरषत जनु मुकुताहिमकर तैं ॥

राग बिहागरौ

237. कहन लागीं अब बढ़ि-बढ़ि बात

 कहन लागीं अब बढ़ि-बढ़ि बात ।
ढोटा मेरौ तुमहिं बँधायौ तनकहि माखन खात ॥
अब मोहि माखन देतिं मँगाए, मेरैं घर कछु नाहिं !
उरहन कहि-कहि साँझ-सबारैं, तुमहिं बँधायौ याहि ॥
रिसही मैं मोकौं गहि दीन्हौ, अब लागीं पछितान ।
सूरदास अब कहति जसोदा बूझ्यौ सब कौ ज्ञान ॥

राग कल्याण

238. कहा भयौ जौ घर कैं लरिका चोरी माखन खायौ

 कहा भयौ जौ घर कैं लरिका चोरी माखन खायौ ।
अहो जसोदा! कत त्रासति हौ, यहै कोखि कौ जायौ ॥
बालक अजौं अजान न जानै केतिक दह्यौ लुटायौ ।
तेरौ कहा गयौ? गोरस को गोकुल अंत न पायौ ॥
हा हा लकुट त्रास दिखरावति, आँगन पास बँधायौ ।
रुदन करत दोउ नैन रचे हैं, मनहुँ कमल-कन-छायौ ॥
पौढ़ि रहे धरनी पर तिरछैं, बिलखि बदन मुरझायौ ।
सूरदास-प्रभु रसिक-सिरोमनि, हँसि करि कंठ लगायौ ॥

राग धनाश्री

239. चित दै चितै तनय-मुख ओर

चित दै चितै तनय-मुख ओर ।
सकुचत सीत-भीत जलरुह ज्यौं, तुव कर लकुट निरखि सखि घोर ॥
आनन ललित स्रवत जल सोभित, अरुन चपल लोचन की कोर ।
कमल-नाल तैं मृदुल ललित भुज ऊखल बाँधे दाम कठोर ॥
लघु अपराध देखि बहु सोचति, निरदय हृदय बज्रसम तोर ।
सूर कहा सुत पर इतनी रिस, कहि इतनै कछु माखन-चौर ॥

240. जसुदा ! देखि सुत की ओर

जसुदा ! देखि सुत की ओर ।
बाल बैस रसाल पर रिस, इती कहा कठोर ॥
बार-बार निहारि तुव तन, नमित-मुख दधि -चोर ।
तरनि-किरनहिं परसि मानो, कुमुद सकुचत भोर ॥
त्रास तैं अति चपल गोलक, सजल सोभित छोर ।
मीन मानौ बेधि बंसी, करत जल झकझोर ॥
देत छबि अति गिरत उर पर, अंबु-कन कै जोर ।
ललित हिय जनु मुक्त-माला, गिरति टूटैं डोर ॥
नंद-नंदन जगत-बंदन करत आँसू कोर ।
दास सूरज मोहि सुख-हित निरखि नंदकिसोर ॥

राग बिलावल

241. चितै धौं कमल-नैन की ओर

चितै धौं कमल-नैन की ओर ।
कोटि चंद वारौं मुखछबि पर, ए हैं साहु कै चोर ॥
उज्ज्वल अरुन असित दीसति हैं, दुहु नैननि की कोर ।
मानौ सुधा-पान कें कारन , बैठे निकट चकोर ॥
कतहिं रिसाति जसोदा इन सौं, कौन ज्ञान है तोर ।
सूर स्याम बालक मनमोहन, नाहिन तरुन किसोर ॥

राग धनाश्री

242.

देखि री देखि हरि बिलखात ।
अजिर लोटत राखि जसुमति, धूरि-धूसर गात ॥
मूँदि मुख छिन सुसुकि रोवत, छिनक मौन रहात ।
कमल मधि अलि उड़त सकुचत, पच्छ दल-आघात ॥
चपल दृग, पल भरे अँसुआ, कछुक ढरि-ढरि जात ।
अलप जल पर सीप द्वै लखि, मीन मनु अकुलात ॥
लकुट कैं डर ताकि तोहि तब पीत पट लपटात ।
सूर-प्रभु पर वारियै ज्यौं, भलेहिं माखन खात ॥

राग नटनारायनी

243.

कब के बाँधे ऊखल दाम ।
कमल-नैन बाहिर करि राखे, तू बैठी सुख धाम ॥
है निरदई, दया कछु नाहीं, लागि रही गृह-काम ।
देखि छुधा तैं मुख कुम्हिलानौ, अति कोमल तन स्याम ॥
छिरहु बेगि भई बड़ी बिरियाँ, बीति गए जुग जाम ।
तेरैं त्रास निकट नहिं आवत बोलि सकत नहिं राम ॥
जन कारन भुज आपु बँधाए,बचन कियौ रिषि-ताम ।
ताह दिन तैं प्रगट सूर-प्रभु यह दामोदर नाम ॥

राग सारंग

244. वारौं हौं वे कर जिन हरि कौ बदन छुयौ

 वारौं हौं वे कर जिन हरि कौ बदन छुयौ
वारौं रसना सो जिहिं बोल्यौ है तुकारि ।
वारौं ऐसी रिस जो करति सिसु बारे पर
ऐसौ सुत कौन पायौ मोहन मुरारि ॥
ऐसी निरमोही माई महरि जसोदा भई
बाँध्यौ है गोपाल लाल बाहँनि पसारि ।
कुलिसहु तैं कठिन छतिया चितै री तेरी
अजहूँ द्रवति जो न देखति दुखारि ॥
कौन जानै कौन पुन्य प्रगटे हैं तेरैं आनि
जाकौं दरसन काज जपै मुख-चारि ।
केतिक गोरस-हानि जाकौ सूर तोरै कानि
डारौं तन स्याम रोम-रोम पर वारि ॥

राग गौरी

245. (जसोदा) तेरौ भलौ हियौ है माई

(जसोदा) तेरौ भलौ हियौ है माई !
कमल-नैन माखन कैं कारन, बाँधे ऊखल ल्याई ॥
जो संपदा देव-मुनि-दुर्लभ, सपनेहुँ देइ न दिखाई ।
याही तैं तू गर्ब भुलानी, घर बैठे निधि पाई ॥
जो मूरति जल-थल मैं ब्यापक, निगम न खौजत पाई ।
सो मूरति तैं अपनैं आँगन, चुटकी दै जु नचाई ॥
तब काहू सुत रोवत देखति, दौरि लेति हिय लाई ।
अब अपने घर के लरिका सौं इती करति निठुराई ॥
बारंबार सजल लोचन करि चितवत कुँवर कन्हाई ।
कहा करौं, बलि जाउँ, छोरि तू, तेरी सौंह दिवाई ॥
सुर-पालक, असुरनि उर सालक, त्रिभुवन जाहि डराई ।
सूरदास-प्रभु की यह लीला, निगम नेति नित गाई ॥

राग सोरठ

246. देखि री नंद-नंदन ओर

देखि री नंद-नंदन ओर ।
त्रास तैं तन त्रसित भए हरि, तकत आनन तोर ॥
बार-बार डरात तोकौं, बरन बदनहिं थोर ।
मुकुर-मुख, दोउ नैन ढ़ारत, छनहिं-छन छबि-छोर ॥
सजल चपल कनीनिका पल अरुन ऐसे डोंर (ल) ।
रस भरे अंबुजन भीतर भ्रमत मानौ भौंर ॥
लकुट कैं डर देखि जैसे भए स्रोनित और ।
लाइ उरहिं, बहाइ रिस जिय, तजहु प्रकृति कठोर ॥
कछुक करुना करि जसोदा, करति निपट निहोर ।
सूर स्याम त्रिलोक की निधि, भलैहिं माखन-चोर ॥

राग केदारा

247. तब तैं बाँधे ऊखल आनि

 तब तैं बाँधे ऊखल आनि ।
बालमुकुंददहि कत तरसावति, अति कोमल अँग जानि ॥
प्रातकाल तैं बाँधे मोहन, तरनि चढ़यौ मधि आनि ।
कुम्हिलानौ मुख-चंद दिखावति, देखौं धौं नँदरानि ॥
तेरे त्रास तैं कोउ न छोरत, अब छोरौं तुम आनि ।
कमल-नैन बाँधेही छाँड़े, तू बैठी मनमानि ॥
जसुमति के मन के सुख कारन आपु बँधावत पानि ।
जमलार्जुन कौं मुक्त करन हित, सूर स्याम जिय ठानि ॥

राग धनाश्री

248. कान्ह सौं आवत क्यौऽब रिसात

कान्ह सौं आवत क्यौऽब रिसात ।
लै-लै लकुट कठिन कर अपनै परसत कोमल गात ॥
दैखत आँसू गिरत नैन तैं यौं सोभित ढरि जात ।
मुक्ता मनौ चुगत खग खंजन, चोंच-पुटी न समात ॥
डरनि लोल डोलत हैं इहि बिधि, निरखि भ्रुवनि सुनि बात ॥
मानौ सूर सकात सरासन, उड़िबे कौ अकुलात ॥

राग नट

249. जसुदा! यह न बूझि कौ काम

जसुदा! यह न बूझि कौ काम ।
कमल-नैन की भुजा देखि धौं, तैं बाँधे हैं दाम ॥
पुत्रहु तैं प्यारी कोउ है री, कुल-दीपक मनिधाम ।
हरि पर बारि डार सब तन, मन, धन, गोरस अरु ग्राम ॥
देखियत कमल-बदन कुमिलानौ, तू निरमोही बाम ।
बैठी है मंदिर सुख छहियाँ, सुत दुख पावत घाम ॥
येई हैं सब ब्रजके जीवन सुख प्रात लिएँ नाम ।
सूरदास-प्रभु भक्तनि कैं बस यह ठानी घनस्याम ॥

राग रामकली

250. ऐसी रिस तोकौं नँदरानी

ऐसी रिस तोकौं नँदरानी ।
बुद्धि तेरैं जिय उपजी बड़ी, बैस अब भई सयानी ॥
ढोटा एक भयौ कैसैहूँ करि, कौन-कौन करबर बिधि भानी ॥
क्रम-क्रम करि अब लौं उबर्‌यौ है, ताकौं मारि पितर दै पानी ॥
को निरदई रहै तेरैं घर, को तेरैं सँग बैठे आनी ।
सुनहु सूर कहि-कहि पचि हारीं , जुबती चलीं घरनि बिरुझानी ॥

राग धनाश्री

  • श्रीकृष्ण बाल-माधुरी भाग (11) भक्त सूरदास जी
  • श्रीकृष्ण बाल-माधुरी भाग (9) भक्त सूरदास जी
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