श्रीकृष्ण बाल-माधुरी : भक्त सूरदास जी

Shri Krishna Bal-Madhuri : Bhakt Surdas Ji

101. बातनिहीं सुत लाइ लियौ

बातनिहीं सुत लाइ लियौ ।
तब लौं मधि दधि जननि जसोदा, माखन करि हरि हाथ दियौ ॥
लै-लै अधर परस करि जेंवत, देखत फूल्यौ मात-हियौ ।
आपुहिं खात प्रसंसत आपुहिं, माखन-रोटी बहुत प्रियौ ॥
जो प्रभु सिव-सनकादिक दुर्लभ, सुत हित जसुमति-नंद कियौ ।
यह सुख निरखत सूरज प्रभु कौ, धन्य-धन्य पल सुफल जियौ ॥

102. दधि-सुत जामे नंद-दुवार

दधि-सुत जामे नंद-दुवार ।
निरखि नैन अरुझ्यौ मनमोहन, रटत देहु कर बारंबार ॥
दीरघ मोल कह्यौ ब्यौपारी, रहे ठगे सब कौतुक हार ।
कर ऊपर लै राखि रहे हरि, देत न मुक्ता परम सुढार ॥
गोकुलनाथ बए जसुमति के आँगन भीतर, भवन मँझार ।
साखा-पत्र भए जल मेलत , फुलत-फरत न लागी भार ॥
जानत नहीं मरम सुर-नर-मुनि, ब्रह्मादिक नहिं परत बिचार ।
सूरदास प्रभु की यह लीला, ब्रज-बनिता पहिरे गुहि हार ॥

राग धनाश्री

103. कजरी कौ पय पियहु लाल

कजरी कौ पय पियहु लाल,जासौं तेरी बेनि बढ़ै ।
जैसैं देखि और ब्रज-बालक, त्यौं बल-बैस चढ़ै ॥
यह सुनि कै हरि पीवन लागे, ज्यों-ज्यों लयौ लड़ै ।
अँचवत पय तातौ जब लाग्यौ, रोवत जीभि डढ़ै ॥
पुनि पीवतहीं कच टकटोरत, झूठहिं जननि रढ़ै ।
सूर निरखि मुख हँसति जसोदा, सो सुख उर न कड़ै ॥

104. मैया, कबहिं बढ़ैगी चोटी

मैया, कबहिं बढ़ैगी चोटी ?
किती बार मोहि दूध पियत भइ, यह अजहूँ है छोटी ॥
तू जो कहति बल की बेनी ज्यौं, ह्वै है लाँबी-मोटी ।
काढ़त-गुहत-न्हवावत जैहै नागिनि-सी भुइँ लोटी ॥
काँचौ दूध पियावति पचि-पचि, देति न माखन-रोटी ।
सूरज चिरजीवौ दोउ भैया, हरि-हलधर की जोटी ॥

राग रामकली

105. मैया, मोहि बड़ो कर लै री

मैया, मोहि बड़ो कर लै री ।
दूध-दही-घृत-माखन-मेवा, जो मांगौ सो दै री ॥
कछु हौंस राखै जनि मेरी, जोइ-जोइ मोहि रुचै री ।
होऊँ बेगि मैं सबल सबनि मैं, सदा रहौं निरभै री ॥
रंगभूमि मैं कंस पछारौं, घीसि बहाऊँ बैरी ।
सूरदास स्वामी की लीला, मथुरा राखौं जै री ॥

राग सारंग

106. हरि अपनैं आँगन कछु गावत

हरि अपनैं आँगन कछु गावत ।
तनक-तनक चरननि सौ नाचत, मनहीं मनहि रिझावत॥
बाँह उठाइ काजरी-धौरी गैयनि टेरि बुलावति ।
कबहुँक बाबा नंद पुकारत, कबहुँक घर मैं आवत ॥
माखन तनक आपनैं कर लै, तनक बदन मैं नावत ।
कबहुँ चितै प्रतिबिंब खंभ लौनी लिए खवावत ॥
दुरि देखति जसुमति यह लीला, हरष अनंद बढ़ावत ।
सूर स्याम के बाल-चरित, नित-नितहीं देखत भावत ॥

राग रामकली

107. आजु सखी, हौं प्रात समय दधि मथन उठी

आजु सखी, हौं प्रात समय दधि मथन उठी अकुलाइ ।
भरि भाजन मनि-खंभ निकट धरि, नेति लई कर जाइ ॥
सुनत सब्द तिहिं छिन समीप मम हरि हँसि आए धाइ ।
मोह्यौ बाल-बिनोद-मोद अति, नैननि नृत्य दिखाइ ॥
चितवनि चलनि हर्‌यौ चित चंचल, चितै रही चित लाइ ।
पुलकत मन प्रतिबिंब देखि कै, सबही अंग सुहाइ ॥
माखन-पिंड बिभागि दुहूँ कर, मेलत मुख मुसुकाइ ।
सूरदास-प्रभु-सिसुता को सुख, सकै न हृदय समाइ ॥

राग बिलावल

108. बलि-बलि जाउँ मधुर सुर गावहु

बलि-बलि जाउँ मधुर सुर गावहु ।
अब की बार मेरे कुँवर कन्हैया, नंदहि नाच दिखावहु ॥
तारी देहु आपने कर की, परम प्रीति उपजावहु ।
आन जंतु धुनि सुनि कत डरपत, मो भुज कंठ लगावहु ॥
जनि संका जिय करौ लाल मेरे, काहे कौं भरमावहु ।
बाँह उचाइ काल्हि की नाईं धौरी धेनु बुलावहु ॥
नाचहु नैकु, जाऊँ बलि तेरी, मेरी साध पुरावहु ।

109. पाहुनी, करि दै तनक मह्यौ

पाहुनी, करि दै तनक मह्यौ ।
हौं लागी गृह-काज-रसोई , जसुमति बिनय कह्यौ ॥
आरि करत मनमोहन मेरो, अंचल आनि गह्यौ ।
ब्याकुल मथति मथनियाँ रीती, दधि भुव ढरकि रह्यौ ॥
माखन जात जानि नँदरानी, सखी सम्हारि कह्यौ ।
सूर स्याम-मुख निरखि मगन भइ, दुहुनि सँकोच सह्यौ ॥

राग-धनाश्री

110. मोहन, आउ तुम्हैं अन्हवाऊँ

 मोहन, आउ तुम्हैं अन्हवाऊँ ।
जमुना तैं जल भरि लै आऊँ, ततिहर तुरत चढ़ाऊँ ॥
केसरि कौ उबटनौ बनाऊँ, रचि-रचि मैल छुड़ाऊँ ।
सूर कहै कर नैकु जसोदा, कैसैहुँ पकरि न पाऊँ ॥

राग बिलावल

111. जसुमति जबहिं कह्यौ अन्वावन

 जसुमति जबहिं कह्यौ अन्वावन, रोइ गए हरि लोटत री ।
तेल उबटनौं लै आगैं धरि, लालहिं चोटत-पोटत री ॥
मैं बलि जाउँ न्हाउ जनि मोहन, कत रोवत बिनु काजैं री ।
पाछैं धरि राख्यौ छपाइ कै उबटन-तेल-समाजैं री ॥
महरि बहुत बिनती करि राखति, मानत नहीं कन्हैया री ।
सूर स्याम अतिहीं बिरुझाने, सुर-मुनि अंत न पैया री ॥

राग आसावरी

112. ठाढ़ी अजिर जसोदा अपनैं

ठाढ़ी अजिर जसोदा अपनैं, हरिहि लिये चंदा दिखरावत ।
रोवत कत बलि जाउँ तुम्हारी, देखौ धौं भरि नैन जुड़ावत ॥
चितै रहे तब आपुन ससि-तन, अपने के लै-लै जु बतावत ।
मीठौ लगत किधौं यह खाटौ, देखत अति सुंदर मन भावत ॥
मन-हीं-मन हरि बुद्धि करत हैं, माता सौं कहि ताहि मँगावत ।
लागी भूख, चंद मैं खैहौं, देहि-देहि रिस करि बिरुझावत ॥
जसुमति कहती कहा मैं कीनौं, रोवत मोहन अति दुख पावत ।
सूर स्याम कौं जसुमति बोधति, गगन चिरैयाँ उड़त दिखावत ॥

राग कान्हरौ

113. किहिं बिधि करि कान्हहिं समुजैहौं

किहिं बिधि करि कान्हहिं समुझैहौं ?
मैं ही भूलि चंद दिखरायौ, ताहि कहत मैं खैहौं !
अनहोनी कहुँ भई कन्हैया, देखी-सुनी न बात ।
यह तौ आहि खिलौना सब कौ, खान कहत तिहि तात !
यहै देत लवनी नित मोकौं, छिन छिन साँझ-सवारे ।
बार-बार तुम माखन माँगत, देउँ कहाँ तैं प्यारे ?
देखत रहौ खिलौना चंदा, आरि न करौ कन्हाई ।
सूर स्याम लिए हँसति जसोदा, नंदहि कहति बुझाई ॥

114. लाल हो, ऐसी आरि न कीजै

(आछे मेरे) लाल हो, ऐसी आरि न कीजै ।
मधु-मेवा-पकवान-मिठाई जोइ भावै सोइ लीजै ॥
सद माखन घृत दह्यौ सजायौ, अरु मीठौ पय पीजै ।
पा लागौं हठ अधिक करौ जनि, अति रिस तैं तन छीजै ॥
आन बतावति, आन दिखावति, बालक तौ न पतीजै ।
खसि-खसि परत कान्ह कनियाँ तैं, सुसुकि-सुसुकि मन खीजै ॥
जल -पुटि आनि धर्‌यौ आँगन मैं, मोहन नैकु तौ लीजै ।
सूर स्याम हठी चंदहि माँगै, सु तौ कहाँ तैं दीजै ॥

राग-धनाश्री

115. बार-बार जसुमति सुत बोधति

 बार-बार जसुमति सुत बोधति, आउ चंद तोहि लाल बुलावै ।
मधु-मेवा-पकवान-मिठाई, आपुन खैहै, तोहि खवावै ॥
हाथहि पर तोहि लीन्हे खेलै नैकु नहीं धरनी बैठावै ।
जल-बासन कर लै जु उठावति, याही मैं तू तन धरि आवै ॥
जल-पुटि आनि धरनि पर राख्यौ, गहि आन्यौ वह चंद दिखावै ।
सूरदास प्रभु हँसि मुसुक्याने, बार-बार दोऊ कर नावै ॥

राग-कान्हरौ

116. ऐसौ हठी बाल गोविन्दा

(मेरी माई) ऐसौ हठी बाल गोविन्दा ।
अपने कर गहि गगन बतावत, खेलन कौं माँगै चंदा ॥
बासन मैं जल धर्‌यौ जसोदा, हरि कौं आनि दिखावै ।
रुदन करत, ढूँढ़त नहिं पावत, चंद धरनि क्यों आवै !
मधु-मेवा-पकवान-मिठाई, माँगि लेहु मेरे छौना ।
चकई-डोरि पाट के लटकन, लेहु मेरे लाल खिलौना ॥
संत-उबारन, असुर-सँहारन, दूरि करन दुख-दंदा ।
सूरदास बलि गई जसोदा, उपज्यौ कंस-निकंदा ॥

राग रामकली

117. मैया, मैं तौ चंद-खिलौना लैहौं

 मैया, मैं तौ चंद-खिलौना लैहौं ।
जैहौं लोटि धरनि पर अबहीं, तेरी गोद न ऐहौं ॥
सुरभी कौ पय पान न करिहौं, बेनी सिर न गुहैहौं ।
ह्वै हौं पूत नंद बाबा को , तेरौ सुत न कहैहौं ॥
आगैं आउ, बात सुनि मेरी, बलदेवहि न जनैहौं ।
हँसि समुझावति, कहति जसोमति, नई दुलहिया दैहौं ॥
तेरी सौ, मेरी सुनि मैया, अबहिं बियाहन जैहौं ॥
सूरदास ह्वै कुटिल बराती, गीत सुमंगल गैहौं ॥

राग केदारौ

118. मैया री मैं चंद लहौंगौ

मैया री मैं चंद लहौंगौ ।
कहा करौं जलपुट भीतर कौ, बाहर ब्यौंकि गहौंगौ ॥
यह तौ झलमलात झकझोरत, कैसैं कै जु लहौंगौ ?
वह तौ निपट निकटहीं देखत ,बरज्यौ हौं न रहौंगौ ॥
तुम्हरौ प्रेम प्रगट मैं जान्यौ, बौराऐँ न बहौंगौ ।
सूरस्याम कहै कर गहि ल्याऊँ ससि-तन-दाप दहौंगौ ॥

राग रामकली

119. लै लै मोहन ,चंदा लै

लै लै मोहन ,चंदा लै ।
कमल-नैन! बलि जाउँ सुचित ह्वै, नीचैं नैकु चितै ॥
जा कारन तैं सुनि सुत सुंदर, कीन्ही इती अरै ।
सोइ सुधाकर देखि कन्हैया, भाजन माहिं परै ॥
नभ तैं निकट आनि राख्यौ है, जल-पुट जतन जुगै ।
लै अपने कर काढ़ि चंद कौं, जो भावै सो कै ॥
गगन-मँडल तैं गहि आन्यौ है, पंछी एक पठै ।
सूरदास प्रभु इती बात कौं कत मेरौ लाल हठै ॥

राग धनाश्री

120. तुव मुख देखि डरत ससि भारी

तुव मुख देखि डरत ससि भारी ।
कर करि कै हरि हेर्‌यौ चाहत, भाजि पताल गयौ अपहारी ॥
वह ससि तौ कैसेहुँ नहिं आवत, यह ऐसी कछु बुद्धि बिचारी ।
बदन देखि बिधु-बुधि सकात मन, नैन कंज कुंडल इजियारी ॥
सुनौ स्याम, तुम कौं ससि डरपत, यहै कहत मैं सरन तुम्हारी ।
सूर स्याम बिरुझाने सोए, लिए लगाइ छतिया महतारी ॥

राग बिहागरौ

121. जसुमति लै पलिका पौढ़ावति

जसुमति लै पलिका पौढ़ावति ।
मेरौ आजु अतिहिं बिरुझानौ, यह कहि-कहि मधुरै सुर गावति ॥
पौढ़ि गई हरुऐं करि आपुन, अंग मोर तब हरि जँभुआने ।
कर सौं ठोंकि सुतहि दुलरावति, चटपटाइ बैठे अतुराने ॥
पौढ़ौ लाल, कथा इक कहिहौं, अति मीठी, स्रवननि कौं प्यारी ।
यह सुनि सूर स्याम मन हरषे, पौढ़ि गए हँसि देत हुँकारी ॥

राग कैदारौ

122. सुनि सुत, एक कथा कहौं प्यारी

सुनि सुत, एक कथा कहौं प्यारी ।
कमल-नैन मन आनँद उपज्यौ, चतुर-सिरोमनि देत हुँकारी ॥
दसरथ नृपति हती रघुबंसी, ताकैं प्रगट भए सुत चारी ।
तिन मैं मुख्य राम जो कहियत, जनक-सुता ताकी बर नारी ॥
तात-बचन लगि राज तज्यौ तिन, अनुज-घरनि सँग गए बनचारी ।
धावत कनक-मृगा के पाछैं, राजिव-लोचन परम उदारी ॥
रावन हरन सिया कौ कीन्हौ, सुनि नँद-नंदन नींद निवारी ।
चाप-चाप करि उठे सूर-प्रभु. लछिमन देहु, जननि भ्रम भारी ॥

123. नाहिनै जगाइ सकत, सुनि सुबात सजनी

 नाहिनै जगाइ सकत, सुनि सुबात सजनी ।
अपनैं जान अजहुँ कान्ह मानत हैं रजनी ॥
जब जब हौं निकट जाति, रहति लागि लोभा ।
तन की गति बिसरि जाति, निरखत मुख-सोभा ॥
बचननि कौं बहुत करति, सोचति जिय ठाढ़ी ।
नैननि न बिचारि परत देखत रुचि बाढ़ी ॥
इहिं बिधि बदनारबिंद, जसुमति जिय भावै ।
सूरदास सुख की रासि, कापै कहि आवै ॥

राग ललित

124. जागिए, व्रजराज-कुँवर, कमल-कुसुम फूले

जागिए, व्रजराज-कुँवर, कमल-कुसुम फूले ।
कुमुद-बृँद सकुचित भए, भृंग लता भूले ॥
तमचुर खग रोर सुनहु, बोलत बनराई ।
राँभति गो खरिकनि मैं, बछरा हित धाई ॥
बिधु मलीन रबि-प्रकास गावत नर-नारी ।
सूर स्याम प्रात उठौ, अंबुज-कर-धारी ॥

राग बिलावल

125. प्रात समय उठि, सोवत सुत कौ

प्रात समय उठि, सोवत सुत कौ बदन उघार्‌यौ नंद ।
रहि न सके अतिसय अकुलाने, बिरह निसा कैं द्वंद ॥
स्वच्छ सेज मैं तैं मुख निकसत, गयौ तिमिर मिटि मंद ।
मनु पय-निधि सुर मथत फेन फटि, दयौ दिखाई चंद ॥
धाए चतुर चकोर सूर सुनि, सब सखि -सखा सुछंद ।
रही न सुधि सरीर अरु मन की, पीवत किरनि अमंद ॥

राग रामकली

  • श्रीकृष्ण बाल-माधुरी भाग (6) भक्त सूरदास जी
  • श्रीकृष्ण बाल-माधुरी भाग (4) भक्त सूरदास जी
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण काव्य रचनाएँ : भक्त सूरदास जी
  • मुख्य पृष्ठ : हिन्दी कविता वेबसाइट (hindi-kavita.com)