श्रीकृष्ण बाल-माधुरी : भक्त सूरदास जी

Shri Krishna Bal-Madhuri : Bhakt Surdas Ji

126. जागिए गोपाल लाल, आनँद-निधि नंद-बाल

जागिए गोपाल लाल, आनँद-निधि नंद-बाल,जसुमति कहै बार-बार, भोर भयौ प्यारे ।
नैन कमल-दल बिसाल, प्रीति-बापिका-मराल,मदन ललित बदन उपर कोटि वारि डारे ॥
उगत अरुन बिगत सर्बरी, ससांक किरन-हीन,दीपक सु मलीन, छीन-दुति समूह तारे ।
मनौ ज्ञान घन प्रकास, बीते सब भव-बिलास, आस-त्रास-तिमिर तोष-तरनि-तेज जारे ॥
बोलत खग-निकर मुखर, मधुर होइ प्रतीति सुनौ,परम प्रान-जीवन-धन मेरे तुम बारे ।
मनौ बेद बंदीजन सूत-बृंद मागध-गन,बिरद बदत जै जै जै जैति कैटभारे ॥
बिकसत कमलावती, चले प्रपुंज-चंचरीक, गुंजत कल कोमल धुनि त्यागि कंज न्यारे ।
मानौ बैराग पाइ, सकल सोक-गृह बिहाइ,प्रेम-मत्त फिरत भृत्य, गुनत गुन तिहारे ॥
सुनत बचन प्रिय रसाल, जागे अतिसय दयाल ,भागे जंजाल-जाल, दुख-कदंब टारे ।
त्यागे-भ्रम-फंद-द्वंद्व निरखि कै मुखारबिंद,सूरदास अति अनंद, मेटे मद भारे ॥

राग ललित

127. प्रात भयौ, जागौ गोपाल

प्रात भयौ, जागौ गोपाल ।
नवल सुंदरी आईं, बोलत तुमहि सबै ब्रजबाल ॥
प्रगट्यौ भानु, मंद भयौ उड़पति, फूले तरुन तमाल ।
दरसन कौं ठाढ़ी ब्रजवनिता, गूँथि कुसुम बनमाल ॥
मुखहि धौइ सुंदर बलिहारी, करहु कलेऊ लाल ।
सूरदास प्रभु आनँद के निधि, अंबुज-नैन बिसाल ॥

128. जागौ, जागौ हो गोपाल

जागौ, जागौ हो गोपाल ।
नाहिन इतौ सोइयत सुनि सुत, प्रात परम सुचि काल ॥
फिरि-फिरि जात निरखि मुख छिन-छिन, सब गोपनि बाल ।
बिन बिकसे कल कमल-कोष तैं मनु मधुपनि की माल ॥
जो तुम मोहि न पत्याहु सूर-प्रभु, सुन्दर स्याम तमाल ।
तौ तुमहीं देखौ आपुन तजि निद्रा नैन बिसाल ॥

129. उठौ नँदलाल भयौ भिनसार

उठौ नँदलाल भयौ भिनसार, जगावति नंद की रानी ।
झारी कैं जल बदन पखारौ, सुख करि सारँगपानी ॥
माखन-रोटी अरु मधु-मेवा जो भावै लेउ आनी ।
सूर स्याम मुख निरखि जसोदा,मन-हीं-मन जु सिहानी ॥

राग भैरव

130. तुम जागौ मेरे लाड़िले

तुम जागौ मेरे लाड़िले, गोकुल -सुखदाई ।
कहति जननि आनन्द सौं, उठौ कुँवर कन्हाई ॥
तुम कौं माखन-दूध-दधि, मिस्री हौं ल्याई ।
उठि कै भोजन कीजिऐ, पकवान-मिठाई ॥
सखा द्वार परभात सौं, सब टेर लगाई ।
वन कौं चलिए साँवरे, दयौ तरनि दिखाई ॥
सुनत बचन अति मोद सौं जागे जदुराई ।
भोजन करि बन कौं चले, सूरज बलि जाई ॥

राग बिलावल

131. भोर भयौ जागौ नँद-नंद

भोर भयौ जागौ नँद-नंद ।
तात निसि बिगत भई, चकई आनंदमई,तरनि की किरन तैं चंद भयौ नंद ॥
तमचूर खग रोर, अलि करैं बहु सोर,बेगि मोचन करहु, सुरभि-गल-फंद ।
उठहु भोजन करहु, खोरी उतारि धरहु,जननि प्रति देहु सिसु रूप निज कंद ॥
तीय दधि-मथन करैं, मधुर धुनि श्रवन परैं,कृष्न जस बिमल गुनि करति आनंद ।
सूरप्रभु हरि-नाम उधारत जग-जननि, गुननि कौं देखि कै छकित भयौ छंद ॥

132. कौन परी मेरे लालहि बानि

कौन परी मेरे लालहि बानि ।
प्रात समय जगन की बिरियाँ सोवत है पीतांबर तानि।।
संग सखा ब्रज-बाल खरे सब, मधुबन धेनु चरावन जान ।
मातु जसोदा कब को ठाढ़ी, दधि-ओदन भोजन लिये पान।।
तुम मोहन ! जीवन-धन मेरे, मुरली नैकु सुनावहु कान ।
यह सुनि स्रवन उठे नन्दनन्दन, बंसी निज मांग्यौ मृदु बानि।।
जननी कहति लेहु मनमोहन, दधि ओदन घृत आन्यौ सानि ।
सूर सु बलि-बलि जाऊं बेनु को, जिहि लगि लाल जगे हित मानि।।

133. जागिये गुपाल लाल! ग्वाल द्वार ठाढ़े

जागिये गुपाल लाल! ग्वाल द्वार ठाढ़े ।
रैनि-अंधकार गयौ, चंद्रमा मलीन भयौ,
तारागन देखियत नहिं तरनि-किरनि बाढ़े ॥
मुकुलित भये कमल-जाल, गुंज करत भृंग-माल,
प्रफुलित बन पुहुप डाल, कुमुदिनि कुँभिलानी ।
गंध्रबगन गान करत, स्नान दान नेम धरत,
हरत सकल पाप, बदत बिप्र बेद-बानी ॥
बोलत,नँद बार-बार देखैं मुख तुव कुमार,
गाइनि भइ बड़ी बार बृंदाबन जैबैं ।
जननि कहति उठौ स्याम, जानत जिय रजनि ताम,
सूरदास प्रभु कृपाल , तुम कौं कछु खैबैं ॥

134. सो सुख नंद भाग्य तैं पायौ

सो सुख नंद भाग्य तैं पायौ ।
जो सुख ब्रह्मादिक कौं नाहीं, सोई जसुमति गोद खिलायौ ॥
सोइ सुख सुरभि-बच्छ बृंदाबन, सोइ सुख ग्वालनि टेरि बुलायौ ।
सोइ सुख जमुना-कूल-कदंब चढ़ि, कोप कियौ काली गहि ल्यायौ ॥
सुख-ही सुख डोलत कुंजनि मैं, सब सुख निधि बन तैं ब्रज आयौ ।
सूरदास-प्रभु सुख-सागर अति, सोइ सुख सेस सहस मुख गायौ ॥

राग सोरठ

135. खेलत स्याम ग्वालनि संग

खेलत स्याम ग्वालनि संग ।
सुबल हलधर अरु श्रीदामा, करत नाना रंग ॥
हाथ तारी देत भाजत, सबै करि करि होड़ ।
बरजै हलधर ! तुम जनि, चोट लागै गोड़ ॥
तब कह्यौ मैं दौरि जानत, बहुत बल मो गात ।
मेरी जोरी है श्रीदामा, हाथ मारे जात ॥
उठे बोलि तबै श्रीदामा, जाहु तारी मारि ।
आगैं हरि पाछैं श्रीदामा, धर्‌यौ स्याम हँकारि ॥
जानि कै मैं रह्यो ठाढ़ौ छुवत कहा जु मोहि ।
सूर हरि खीझत सखा सौं, मनहिं कीन्हौ कोह ॥

राग रामकली

136. सखा कहत हैं स्याम खिसाने

सखा कहत हैं स्याम खिसाने ।
आपुहि-आपु बलकि भए ठाढ़े, अब तुम कहा रिसाने ?
बीचहिं बोलि उठे हलधर तब याके माइ न बाप ।
हारि-जीत कछु नैकु न समुझत, लरिकनि लावत पाप ॥
आपुन हारि सखनि सौं झगरत, यह कहि दियौ पठाइ ।
सूर स्याम उठि चले रोइ कै, जननी पूछति धाइ ॥

राग गौरी

137. मैया मोहि दाऊ बहुत खिझायौ

मैया मोहि दाऊ बहुत खिझायौ ।
मोसौ कहत मोल कौ लीन्हौ, तू जसुमति कब जायौ ?
कहा करौं इहि रिस के मारैं खेलन हौं नहिं जात ।
पुनि-पुनि कहत कौन है माता को है तेरौ तात ॥
गोरे नंद जसोदा गोरी, तू कत स्यामल गात ।
चुटुकी दै-दै ग्वाल नवावत, हँसत, सबै मुसुकात ॥
तू मोही कौं मारन सीखी, दाउहि कबहुँ न खीझै ।
मोहन-मुख रिस की ये बातैं, जसुमति सुनि-सुनि रीझै ॥
सुनहु कान्ह, बलभद्र चबाई, जनमत ही कौ धूत ।
सूर स्याम मोहि गोधन की सौं, हौं माता तू पूत ॥

138. मोहन, मानि मनायौ मेरौ

मोहन, मानि मनायौ मेरौ ।
हौं बलिहारी नंद-नँदन की, नैकु इतै हँसि हेरौ ॥
कारौ कहि-कहि तोहि खिझावत, बरज त खरौ अनेरौ ।
इंद्रनील मनि तैं तन सुंदर, कहा कहै बल चेरौ ॥
न्यारौ जूथ हाँकि लै अपनौ, न्यारी गाइ निबेरौ ।
मेरौ सुत सरदार सबनि कौ, बहुते कान्ह बड़ेरौ ॥
बन में जाइ करो कौतूहल, यह अपनौ है खेरौ ।
सूरदास द्वारैं गावत है, बिमल-बिमल जस तेरौ ॥

राग नट

139. खेलन अब मेरी जाइ बलैया

खेलन अब मेरी जाइ बलैया ।
जबहिं मोहि देखत लरिकन सँग, तबहिं खिजत बल भैया ॥
मोसौं कहत तात बसुदेव कौ देवकि तेरी मैया ।
मोल लियौ कछु दै करि तिन कौं, करि-करि जतन बढ़ैया ॥
अब बाबा कहि कहत नंद सौं, जकसुमति सौं कहै मैया ।
ऐसैं कहि सब मोहि खिझावत, तब उठि चल्यौ खिसैया ॥
पाछैं नंद सुनत हे ठाढ़े, हँसत हँसत उर लैया ।
सूर नंद बलरामहि धिरयौ, तब मन हरष कन्हैया ॥

140. खेलन चलौ बाल गोबिन्द

खेलन चलौ बाल गोबिन्द !
सखा प्रिय द्वारैं बुलावत, घोष-बालक-बूंद ॥
तृषित हैं सब दरस कारन, चतुर चातक दास ।
बरषि छबि नव बारिधर तन, हरहु लोचन-प्यास ॥
बिनय-बचननि सुनि कृपानिधि, चले मनहर चाल ।
ललित लघु-लघु चरन-कर, उर-बाहु-नैन बिसाल ॥
अजिर पद-प्रतिबिंब राजत, चलत, उपमा-पुंज ।
प्रति चरन मनु हेम बसुधा, देति आसन कंज ॥
सूर-प्रभु की निरखि सोभा रहे सुर अवलोकि ।
सरद-चंद चकोर मानौ, रहे थकित बिलोकि ॥

राग रामकली

141. खेलन कौं हरि दूरि गयौ री

खेलन कौं हरि दूरि गयौ री ।
संग-संग धावत डोलत हैं, कह धौं बहुत अबेर भयौ री ॥
पलक ओट भावत नहिं मोकौं, कहा कहौं तोहि बात ।
नंदहि तात-तात कहि बोलत, मोहि कहत है मात ॥
इतनी कहत स्याम-घन आए , ग्वाल सखा सब चीन्हे ।
दौरि जाइ उर लाइ सूर-प्रभु हरषि जसोदा लीन्हें ॥

राग धनाश्री

142. खेलन दूरि जात कत कान्हा

खेलन दूरि जात कत कान्हा ?
आजु सुन्यौं मैं हाऊ आयौ, तुम नहिं जानत नान्हा ॥
इक लरिका अबहीं भजि आयौ, रोवत देख्यौ ताहि ।
कान तोरि वह लेत सबनि के, लरिका जानत जाहि ॥
चलौ न, बेगि सवारैं जैयै, भाजि आपनैं धाम ।
सूर स्याम यह बात सुनतहीं बोलि लिए बलराम ॥

राग बिहागरौ

143. दूरि खेलन जनि जाहु लाला मेरे

दूरि खेलन जनि जाहु लाला मेरे, बन मैं आए हाऊ !
तब हँसि बोले कान्हर, मैया, कौन पठाए हाऊ ?
अब डरपत सुनि-सुनि ये बातैं, कहत हँसत बलदाऊ ।
सप्त रसातल सेषासन रहे, तब की सुरति भुलाऊ ॥
चारि बेद ले गयौ संखासुर, जल मैं रह्यौ लुकाऊ ।
मीन-रूप धरि कै जब मार्‌यौ, तबहि रहे कहँ हाऊ ?
मथि समुद्र सुर-असुरनि कैं हित, मंदर जलधि धसाऊ ।
कमठ -रूप धरि धर्यौ पीठि पर, तहाँ न देखे हाऊ !
जब हिरनाच्छ जुद्ध अभिलाष्यौ, मन मैं अति गरबाऊ ।
धरि बाराह-रूप सो मार्‌यौ, लै छिति दंत अगाऊ ॥
बिकट-रूप अवतार धर्‌यौं जब, सो प्रहलाद बचाऊ ।
हिरनकसिप बपु नखनि बिदार्‌यौ, तहाँ न देखे हाऊ !
बामन-रूप धर्‌यौ बलि छलि कै, तीनि परग बसुधाऊ ।
स्रम जल ब्रह्म-कमंडल राख्यौ, दरसि चरन परसअऊ ॥
मार्‌यौ मुनि बिनहीं अपराधहि, कामधेनु लै हाऊ ।
इकइस बार निछत्र करी छिति, तहाँ न देखे हाऊ !
राम -रूप रावन जब मार्‌यौ, दस-सिर बीस-भुजाऊ ।
लंक जराइ छार जब कीनी, तहाँ न देखे हाऊ !
भक्त हेत अवतार धरे, सब असुरनि मारि बहाऊ ।
सूरदास प्रभु की यह लीला, निगम नेति नित गाऊ ॥

राग जैतश्री

144. जसुमति कान्हहि यहै सिखावति

जसुमति कान्हहि यहै सिखावति ।
सुनहु स्याम, अब बड़े भए तुम, कहि स्तन-पान छुड़ावति ॥
ब्रज-लरिका तोहि पीवत देखत, लाज नहिं आवति ।
जैहैं बिगरि दाँत ये आछे, तातैं कहि समुझावति ॥
अजहुँ छाँड़ि कह्यौ करि मेरौ, ऐसी बात न भावति ।
सूर स्याम यह सुनि मुसुक्याने, अंचल मुखहि लुकावत ॥

राग रामकली

145. नंद बुलावत हैं गोपाल

नंद बुलावत हैं गोपाल ।
आवहु बेगि बलैया लेउँ हौं, सुंदर नैन बिसाल ॥
परस्यौ थार धर्‌यौ मग जोवत, बोलति बचन रसाल ।
भात सिरात तात दुख पावत, बेगि चलौ मेरे लाल ॥
हौं वारी नान्हें पाइनि की, दौरि दिखावहु चाल ।
छाँड़ि देहु तुम लाल अटपटि, यह गति मंद मराल ॥
सो राजा जो अगमन पहुँचै, सूर सु भवन उताल ।
जो जैहैं बल देव पहिले हीं, तौ हँसहैं सब ग्वाल ॥

राग सारंग

146. जेंवत कान्ह नंद इकठौरे

जेंवत कान्ह नंद इकठौरे ।
कछुक खात लपटात दोउ कर, बालकेलि अति भोरे ॥
बरा-कौर मेलत मुख भीतर, मिरिच दसन टकटौरे ।
तीछन लगी नैन भरि आए, रोवत बाहर दौरे ॥
फूँकति बदन रोहिनी ठाढ़ी, लिए लगाइ अँकोरे।
सूर स्याम कौं मधुर कौर दै कीन्हें तात निहोरे ॥

147. साँझ भई घर आवहु प्यारे

साँझ भई घर आवहु प्यारे ।
दौरत कहा चोट लगगगुहै कहुँ, पुनि खेलिहौ सकारे ॥
आपुहिं जाइ बाँह गहि ल्याई, खेह रही लपटाइ ।
धूरि झारि तातौ जल ल्याई, तेल परसि अन्हवाइ ॥
सरस बसन तन पोंछि स्याम कौ, भीतर गई लिवाइ ।
सूर स्याम कछु करौ बियारी, पुनि राखौं पौढ़ाइ ॥

राग कान्हरौ

148. बल-मोहन दोउ करत बियारी

बल-मोहन दोउ करत बियारी ।
प्रेम सहित दोउ सुतनि जिंवावति, रोहिनि अरु जसुमति महतारी ॥
दोउ भैया मिलि खात एक सँग, रतन-जटित कंचन की थारी ।
आलस सौं कर कौर उठावत, नैननि नींद झमकि रही भारी ॥
दोउ माता निरखत आलस मुख-छबि पर तन-मन डारतिं बारी ।
बार बार जमुहात सूर-प्रभु, इहि उपमा कबि कहै कहा री ॥

राग बिहागरौ

149. कीजै पान लला रे यह लै आई दूध

कीजै पान लला रे यह लै आई दूध जसोदा मैया ।
कनक-कटोरा भरि लीजै, यह पय पीजै, अति सुखद कन्हैया ॥
आछैं औट्यौ मेलि मिठाई, रुचि करि अँचवत क्यौं न नन्हैया ।
बहु जतननि ब्रजराज लड़ैते, तुम कारन राख्यौ बल भैया ॥
फूँकि-फूँकि जननी पय प्यावति , सुख पावति जो उर न समेया ।
सूरज स्याम-राम पय पीवत, दोऊ जननी लेतिं बलैया ॥

राग केदारौ

150. बल मोहन दोऊ अलसाने

बल-मोहन दोऊ अलसाने ।
कछु कछु खाइ दूध अँचयौ, तब जम्हात जननी जाने ॥
उठहु लाल! कहि मुख पखरायौ, तुम कौं लै पौढ़ाऊँ ।
तुम सोवो मैं तुम्हें सुवाऊँ, कछु मधुरैं सुर गाऊँ ॥
तुरत जाइ पौढ़े दोउ भैया, सोवत आई निंद ।
सूरदास जसुमति सुख पावति पौढ़े बालगोबिन्द ॥

  • श्रीकृष्ण बाल-माधुरी भाग (7) भक्त सूरदास जी
  • श्रीकृष्ण बाल-माधुरी भाग (5) भक्त सूरदास जी
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