श्रीकृष्ण बाल-माधुरी : भक्त सूरदास जी

Shri Krishna Bal-Madhuri : Bhakt Surdas Ji

301. गैयनि घेरि सखा सब ल्याए

 गैयनि घेरि सखा सब ल्याए ।
देख्यौ कान्ह जात बृंदावन, यातैं मन अति हरष बढ़ाए ॥
आपुस में सब करत कुलाहल, धौरी, धूमरि धेनु बुलाए ।
सुरभी हाँकि देत सब जहँ-तहँ, टेरि-टेरि हेरी सुर गाए ॥
पहुँचे आइ बिपिन घन बृंदा, देखत द्रुम दुख सबनि गँवाए ।
सूर स्याम गए अघा मारि जब, ता दिन तैं इहिं बन अब आए ॥

राग धनाश्री

302. चरावत बृंदाबन हरि धेनु

चरावत बृंदाबन हरि धेनु ।
ग्वाल सखा सब संग लगाए, खेलत हैं करि चैनु ॥
कोउ गावत, कोउ मुरलि बजावत, कोउ विषान, कोउ बेनु ।
कोउ निरतत कोउ उघटि तार दै, जुरि ब्रज-बालक-सेनु ॥
त्रिबिध पवन जहँ बहत निसादिन, सुभग कुंज घन ऐनु ।
सूर स्याम निज धाम बिसारत, आवत यह सुख लैनु ॥

राग नट-नारायन

303. बृंदाबन मोकों अति भावत

 बृंदाबन मोकों अति भावत ।
सुनहु सखा तुम सुबल, श्रीदामा,ब्रज तैं बन गौ चारन आवत ॥
कामधेनु सुरतरुसुख जितने, रमा सहित बैकुंठ भुलावत ।
इहिं बृंदाबन, इहिं जमुना-तट, ये सुरभी अति सुखद चरावत ॥
पुनि-पुनि कहत स्याम श्रीमुख सौं, तुम मेरैं मन अतिहिं सुहावत ।
सूरदास सुनि ग्वाल चकृत भए ,यह लीला हरि प्रगट दिखावत ॥

राग धनाश्री

304. ग्वाल सखा कर जोरि कहत हैं

ग्वाल सखा कर जोरि कहत हैं,
हमहि स्याम! तुम जनि बिसरावहु ।
जहाँ-जहाँ तुम देह धरत हौ,
तहाँ-तहाँ जनि चरन छुड़ावहु ॥
ब्रज तैं तुमहि कहूँ नहिं टारौं,
यहै पाइ मैहूँ ब्रज आवत ।
यह सुख नहिं कहुँ भुवन चतुर्दस,
इहिं ब्रज यह अवतार बतावत ॥
और गोप जे बहुरि चले घर,
तिन सौं कहि ब्रज छाक मँगावत ।
सूरदास-प्रभु गुप्त बात सब,
ग्वालनि सौं कहि-कहि सुख पावत ॥

राग बिलावल

305. काँधे कान्ह कमरिया कारी

काँधे कान्ह कमरिया कारी, लकुट लिए कर घेरै हो ।
बृंदाबन मैं गाइ चरावै, धौरी, धूमरि टेरै हो ॥
लै लिवाइ ग्वालनि बुलाइ कै, जहँ-जहँ बन-बन हेरै हो ।
सूरदास प्रभु सकल लोकपति, पीतांबर कर फेरै हो ॥

306. वै मुरली की टेर सुनावत

वै मुरली की टेर सुनावत ।
बृंदाबन सब बासर बसि निसि-आगम जानि चले ब्रज आवत ॥
सुबल, सुदामा, श्रीदामा सँग, सखा मध्य मोहन छबि पावत ।
सुरभी-गन सब लै आगैं करि, कोउ टेरत कोउ बेनु बजावत ॥
केकी-पच्छ-मुकुट सिर भ्राजत, गौरी राग मिलै सुर गावत ।
सूर स्याम के ललित बदन पर, गोरज-छबि कछु चंद छपावत ॥

राग गौरी

307. हरि आवत गाइनि के पाछे

हरि आवत गाइनि के पाछे ।
मोर-मुकुट मकराकृति कुंडल, नैन बिसाल कमल तैं आछे ॥
मुरली अधर धरन सीखत हैं, बनमाला पीतांबर काछे ।
ग्वाल-बाल सब बरन-बरन के, कोटि मदन की छबि किए पाछे ॥
पहुँचे आइ स्याम ब्रज पुर मैं, घरहि चले मोहन-बल आछे ।
सूरदास-प्रभु दोउ जननी मिलि लेति बलाइ बोलि मुख बाछे ॥

308. आजु हरि धेनु चराए आवत

आजु हरि धेनु चराए आवत ।
मोर-मुकुट बनमाल बिराजत, पीतांबर फहरावत ॥
जिहिं-जिहिं भाँति ग्वाल सब बोलत, सुनि स्रवननि मन राखत ।
आपुनि टेर लेत ताही सुर, हरषत पुनि पुनि भाषत ॥
देखत नंद-जसोदा-रोहिनि, अरु देखत ब्रज-लोग ।
सूर स्याम गाइनि सँग आए, मैया लीन्हे रोग ॥

309. आजु बने बन तैं ब्रज आवत

आजु बने बन तैं ब्रज आवत ।
नाना रंग सुमन की माला, नंदनँदन-उर पर छबि पावत ॥
संग गोप गोधन-गन लीन्ह, नाना कौतुक उपजावत ।
कोउ गावत, कोउ नृत्य करत, कोउ उघटत, कोउ करताल बजावत ॥
राँभति गाइ बच्छ हित सुधि करि, प्रेम उमँगि थन दूध चुवावत ।
जसुमति बोलि उठी हरषित ह्वै, कान्हा धेनु चराए आवत ॥
इतनी कहत आइ गए मोहन, जननी दौरि हिए लै लावत ।
सूर स्याम के कृत्य जसोमति, ग्वाल-बाल कहि प्रगट सुनावत ॥

राग कान्हरौ

310. बल मोहन बन में दोउ आए

 बल मोहन बन में दोउ आए ।
जननि जसोदा मातु रोहिनी, हरषित कंठ लगाए ॥
काहैं आजु अबार लगाई, कमल-बदन कुम्हिलाए ।
भूखे गए आजु दोउ भैया, करन कलेउ न पाए ॥
देखहु जाइ कहा जेवन कियौ, रोहिनि तुरत पठाई ।
मैं अन्हवाए देति दुहुनि कौं, तुम अति करौ चँड़ाई ॥
लकुट लियौ, मुरली कर लीन्ही, हलधर दियौ बिषान ।
नीलांबर-पीतांबर लीन्हे, सैंति धरति करि प्रान ॥
मुकुट उतारि धर्‌यौ लै मंदिर, पोंछति है अँग-धातु ।
अरु बनमाल उतारति गर तैं, सूर स्याम की मातु ॥

राग गौरी

311. मैया ! हौं न चरैहौं गाइ

मैया ! हौं न चरैहौं गाइ ।
सिगरे ग्वाल घिरावत मोसौं, मेरे पाइ पिराइ ॥
जौ न पत्याहि पूछि बलदाउहि, अपनी सौंह दिवाइ ।
यह सुनि माइ जसोदा ग्वालनि, गारी देति रिसाइ ॥
मैं पठवति अपने लरिका कौं, आवै मन बहराइ ।
सूर स्याम मेरो अति बालक, मारत ताहि रिंगाइ ॥

312. मैया बहुत बुरौ बलदाऊ

मैया बहुत बुरौ बलदाऊ ।
कहन लग्यौ बन बड़ौ तमासौ, सब मौड़ा मिलि आऊ ॥
मोहूँ कौं चुचकारि गयौ लै, जहाँ सघन बन झाऊ ।
भागि चलौ कहि गयौ उहाँ तैं, काटि खाइ रे हाऊ ॥
हौं डरपौं अरु रोवौं, कोउ नहिं धीर धराऊ ।
थरसि गयौं नहीं भागि सकौं, वै भागै जात अगाऊ ॥
मोसौं कहत मोल कौ लीनौ, आपु कहावत साऊ ।
सूरदास बल बड़ौ चवाई, तैसेहिं मिले सखाऊ ॥

313. तुम कत गाइ चरावन जात

तुम कत गाइ चरावन जात ।
पिता तुम्हारौ नंद महर सौ, अरु जसुमति सी जाकी मात ॥
खेलत रहौ आपने घर मैं, माखन दधि भावै सो खात ।
अमृत बचन कहौ मुख अपने, रोम-रोम पुलकित सब गात ॥
अब काहू के जाहु कहूँ जनि, आवति हैं जुबती इतरात ।
सूर स्याम मेरे नैननि आगे तैं कत कहूँ जात हौ तात ॥

314. माँगि लेहु जो भावै प्यारे

माँगि लेहु जो भावै प्यारे ।
बहुत भाँति मेवा सब मेरैं, षटरस ब्यंजन न्यारे ॥
सबै जोरि राखति हित तुम्हरैं, मैं जानति तुम बानि ।
तुरत-मथ्यौ दधिमाखन आछौ, खाहु देउँ सो आनि ॥
माखन दधि लागत अति प्यारौ, और न भावै मोहि ।
सूर जननि माखन-दधि दीन्हौ, खात हँसत मुख जोहि ॥

315. सुनि मैया, मैं तौ पय पीवौं

सुनि मैया, मैं तौ पय पीवौं, मोहि अधिक रुचि आवै री ।
आजु सबारैं धेनु दुही मैं, वहै दूध मोहि प्यावै री ॥
और धेनु कौ दूध न पीवौं, जो करि कोटि बनावै री ।
जननी कहति दूध धौरी कौ, पुनि-पुनि सौंह करावै री ॥
तुम तैं मोहि और को प्यारौ, बारंबार मनावै री ।
सूर स्यामकौं पय धौरी कौ माता हित सौं ल्यावै री ॥

राग आसावरी

316. आछौ दूध पियौ मेरे तात

आछौ दूध पियौ मेरे तात ?
तातौ लगत बदन नहिं परसत, फूँक देति है मात ॥
औटि धर्‌यौ है अबहीं मोहन, तुम्हरैं हेत बनाइ ।
तुम पीवौ, मैं नैननि देखौं, मेरे कुँवर कन्हाइ ॥
दूध अकेली धौरी कौ यह, तनकौं अति हितकारि ।
सूर स्याम पय पीवन लागे, अति तातौ दियौ डारि ॥

राग गौरी

317. ये दोऊ मेरे गाइ-चरैया

ये दोऊ मेरे गाइ-चरैया ।
मोल बिसाहि लियौ मैं तुम कौं, जब दोउ रहे नन्हैया ॥
तुम सौं टहल करावति निसि-दिन, और न टहल करैया ।
यह सुनि स्याम हँसे कहि दाऊ, झूठ कहति है मैया ॥
जानि परत नहिं साँच झुठाई, चारत धेनु झुरैया ।
सूरदास जसुदा मैं चेरी कहि-कहि लेति बलैया ॥

राग कल्याण

318. सोवत नींद आइ गई स्यामहि

 सोवत नींद आइ गई स्यामहि ।
महरि उठी पौढ़इ दुहुनि कौं, आपु लगी गृह कामहिं ।
बरजति है घर के लोगनि कौं, हरुऐं लै-लै नामहि ।
गाढ़े बोलि न पावत कोऊ, डर मोहन-बलरामहि ॥
सिव-सनकादि अंत नहिं पावत, ध्यावत अह-निसि-जामहिं ।
सूरदास प्रभु ब्रह्म सनातन, सो सोवत नँद-धामहिं ॥

राग बिहागरौ

319. देखत नंद कान्ह अति सोवत

देखत नंद कान्ह अति सोवत ।
भूखे गए आजु बन भीतर, यह कहि-कहि मुख जोवत ॥
कह्यौ नहीं मानत काहू कौ, आपु हठी दोऊ बीर ।
बार-बार तनु पोंछत कर सौं, अतिहिं प्रेम की पीर ॥
सेज मँगाइ लई तहँ अपनी, जहाँ स्याम-बलराम ।
सूरदास प्रभु कैं ढिग सोए, सँग पौढ़ी नँद-बाम ॥

320. जागियै गोपाल लाल

जागियै गोपाल लाल, प्रगट भई अंसु-माल, मिट्यौ अंधकाल उठौ जननी-सुखदाई ।
मुकुलित भए कमल-जाल, कुमुद-बृंदबन बिहाल,मेटहु जंजाल, त्रिबिध ताप तन नसाई ॥
ठाढ़े सब सखा द्वार, कहत नंद के कुमार , टेरत हैं बार-बार, आइयै कन्हाई ।
गैयनि भइ बड़ी बार, भरि-भरि पय थननि भार , बछरा-गन करैं पुकार, तुम बिनु जदुराई ॥
तातैं यह अटक परी, दुहन-काल सौंह करी,आवहु उठि क्यौं न हरी, बोलत बल भाई ।
मुख तैं पट झटकि डारि, चंद -बदन दियौ उघारि, जसुमति बलिहारि वारि, लोचन-सुखदाई ॥
धेनु दुहन चले धाइ, रोहिनी लई बुलाइ, दोहनि मोहि दै मँगाइ, तबहीं लै आई बछरा दियौ थन लगाइ ।
दुहत बैठि कै कन्हाइ, हँसत नंदराइ, तहाँ मातु दोउ आई ॥
दोहनि कहुँ दूध-धार, सिखवत नँद बार-बार,यह छबि नहिं वार-पार, नंद घर बधाई ।
हलधर तब कह्यौ सुनाइ, धेनु बन चलौ लिवाइ,मेवा लीन्हौ मँगाइ, बिबिध-रस मिठाई ॥
जेंवत बलराम-स्याम, संतन के सुखद धाम,धेनु काज नहिं बिराम, जसुदा जल ल्याई ।
स्याम-राम मुख पखारि, ग्वाल-बाल दिए हँकारि,जमुना -तट मन बिचारि, गाइनि हँकराई ॥
सृंग-बेनु-नाद करत, मुरली मधु अधर धरत,जननी-मन हरत, ग्वाल गावत सुघराई ।
बृंदाबन तुरत जाइ, धेनु चरति तृन अघाइ, स्याम हरष पाइ, निरखि सूरज बलि जाई ॥

राग-बिलावल

321. हेरी देत चले सब बालक

हेरी देत चले सब बालक ।
आनँद सहित जात हरि खेलत, संग मिले पशु-पालक ॥
कोउ गावत, कोऊ बेनु बजावत, कोऊ नाचत, कोउ धावत ।
किलकत कान्ह देखि यह कौतुक, हरषि सखा उर लावत ॥
भली करी तुम मोकौं ल्याए, मैया हरषि पठाए ।
गोधन-बृँद लिये ब्रज-बालक, जमुना-तट पहुँचाए ॥
चरति धेनु अपनैं-अपनैं रँग, अतिहिं सघन बन चारौ ।
सूर संग मिलि गाइ चरावत, जसुमति कौ सुत बारौ ॥

राग धनाश्री

322. चले बन धेनु चारन कान्ह

 चले बन धेनु चारन कान्ह ।
गोप-बालक कछु सयाने, नंद के सुत नान्ह ॥
हरष सौं जसुमति पठाए, स्याम-मन आनंद ।
गाइ गो-सुत गोप बालक, मध्य श्रीनँद-नंद ॥
सखा हरि कौं यह सिखावत, छाँड़ि जिनि कहुँ जाहु ।
सघन बृंदाबन अगम अति, जाइ कहुँ न भुलाहु ॥
सूर के प्रभु हँसत मन मैं, सुनत हीं यह बात ।
मैं कहूँ नहिं संग छाँड़ौं, बनहि बहुत डरात ॥

राग नट

323. द्रुम चढ़ि काहे न टेरौ कान्हा

द्रुम चढ़ि काहे न टेरौ कान्हा, गैयाँ दूरि गई ।
धाई जाति सबनि के आगैं, जे बृषभानु दईं ॥
घेरैं घिरतिं न तुम बिनु माधौ, मिलति न बेगि दईं ।
बिडरतिं फिरतिं सकल बन महियाँ, एकै एक भई ॥
छाँड़ि खेई सब दौरि जात हैं, बोलौं ज्यौ सिखईं ।
सूरदास-प्रभु-प्रेम समुझि, मुरली सुनि आइ गईं ॥

राग देवगंधार

324. जब सब गाइ भईं इक ठाईं

जब सब गाइ भईं इक ठाईं ।
ग्वालनि घर कौं घेरि चलाई ॥
मारग मैं तब उपजी आगि ।
दसहूँ दिसा जरन सब लागि ॥
ग्वाल डरपि हरि पैं कह्यौ आइ ।
सूर राखि अब त्रिभुवन-राइ ॥

राग कल्यान

325. अब कैं राखि लेहु गोपाल

अब कैं राखि लेहु गोपाल ।
दसहूँ दिसा दुसह दावागिनि, उपजी है इहिं काल ॥
पटकत बाँस काँस-कुस चटकत, टकत ताल-तमाल ।
उचटत अति अंगार, फुटत फर, झपटत लपट कराल ॥
धूम-धूँधि बाढ़ी धर-अंबर, चमकत बिच-बिच ज्वाल ।
हरिन बराह, मोर चातक, पक, जरत जीव बेहाल ॥
जनि जिय डरहु, नैन मूँदहु सब, हँसि बोले नँदलाल ।
सूर अगिनि सब बदन समानी, अभय किए ब्रज-बाल ॥

राग कान्हरौ

326. देखौ री नँद-नंदन आवत

देखौ री नँद-नंदन आवत ।
बृंदाबन तैं धेनु-बृंद मैं बेनु अधर धरें गावत ।
तन घनस्याम कमल-दल-लोचन अंग-अंग छबि पावत ।
कारी-गोरी, धौरी-धूमरि लै- लै नाम बुलावत ॥
बाल गोपाल संग सब सोभित मिलि कर-पत्र बजावत ।
सूरदास मुख निरखतहीं सुख गोपी-प्रेम बढ़ावत ॥

राग गौरी

327. रजनी-मुख बन तैं बने आवत

रजनी-मुख बन तैं बने आवत, भावति मंद गयंद की लटकनि ।
बालक-बृंद बिनोद हँसावत करतल लकुटधेनु की हटकनि ॥
बिगसित गोपी मनौ कुमुद सर, रूप-सुधा लोचन-पुट घटकनि ।
पूरन कला उदित मनु उड़पति, तिहिं छन बिरह-तिमिर की झटकनि ॥
लज्जित मनमथ निरखी बिमल छबि, रसिक रंग भौंहनि की मटकनि ।
मोहनलाल, छबीलौ गिरिधर, सूरदास बलि नागर-नटकनि ॥

328. दै री मैया दोहनी, दुहिहौं मैं गैया

दै री मैया दोहनी, दुहिहौं मैं गैया ।
माखन खाएँ बल भयौ, करौं नंद-दुहैया ॥
कजरी धौरी सेंदुरी, धूमरि मेरी गैया ।
दुहि ल्याऊँ मैं तुरतहीं, तू करि दै घैया ॥
ग्वालिनि की सरि दुहत हौं, बूझहिं बल भैया ।
सूर निरखि जननी हँसी, तव लेति बलैया ॥

राग धनाश्री

329. बाबा मोकौं दुहन सिखायौ

 बाबा मोकौं दुहन सिखायौ ।
तेरैं मन परतीति न आवै, दुहत अँगुरियनि भाव बतायौ ॥
अँगुरी भाव देखि जननी तब हँसि कै स्यामहि कंठ लगायौ ।
आठ बरष के कुँवर कन्हैया, इतनी बुद्धि कहाँ तैं पायौ ॥
माता लै दोहनि कर दीन्हीं, तब हरि हँसत दुहन कौं धायौ ।
सूर स्याम कौं दुहत देखि तब, जननी मन अति हर्ष बढ़ायौ ॥

राग सारंग

330. जननि मथति दधि, दुहत कन्हाई

जननि मथति दधि, दुहत कन्हाई ।
सखा परस्पर कहत स्याम सौं, हमहू सौं तुम करत चँड़ाई ॥
दुहन देह कछु दिन अरु मोकौं, तब करिहौ मो सम सरि आई ।
जब लौं एक दुहौगे तब लौं, चारि दुहौंगो नंद-दुहाई ॥
झूठहिं करत दुहाई प्रातहिं, देखहिंगे तुम्हरी अधिकाई ।
सूर स्याम कह्यौ काल्हि दुहैंगे, हमहूँ तुम मिलि होड़ लगाई ॥

राग धनाश्री

331. राखि लियौ ब्रज नंद-किसोर

 राखि लियौ ब्रज नंद-किसोर ।
आयौं इंद्र गर्ब करि कै चढ़ि, सात दिवस बरषत भयौ भोर ॥
बाम भुजा गोबर्धन धार्‌यौ, अति कोमल नखहीं की कोर ।
गोपी-ग्वाल-गाइ-ब्रज राखे, नैंकु न आई बूँद-झकोर ॥
अमरापति तब चरन पर्‌यौ लै जब बीते जुग गुन के जोर ।
सूर स्याम करुना करि ताकौं, पठै दियौ घर मानि निहोर ॥

राग नट

332. देखौ माई ! बदरनि की बरियाई

देखौ माई ! बदरनि की बरियाई ।
कमल-नैन कर भार लिये हैं , इन्द्र ढीठ झरि लाई ॥
जाकै राज सदा सुख कीन्हौं, तासौं कौन बड़ाई ।
सेवक करै स्वामि सौं सरवरि, इन बातनि पति जाई ॥
इंद्र ढीठ बलि खात हमारी, देखौ अकिल गँवाई ।
सूरदास तिहिं बन काकौं डर , जिहिं बन सिंह सहाई ॥

राग मलार

333. (तेरैं) भुजनि बहुत बल होइ कन्हैया

(तेरैं) भुजनि बहुत बल होइ कन्हैया ।
बार-बार भुज देखि तनक-से, कहति जसोदा मैया ॥
स्याम कहत नहिं भुजा पिरानी, ग्वालनि कियौ सहैया ।
लकुटिनि टेकि सबनि मिलि राख्यौ, अरु बाबा नँदरैया ॥
मोसौं क्यौं रहतौ गोबरधन, अतिहिं बड़ौ वह भारी ।
सूर स्याम यह कहि परबोध्यौ चकित देखि महतारी ॥

राग सोरठ

334. जयति नँदलाल जय जयति गोपाल

 जयति नँदलाल जय जयति गोपाल, जय जयति ब्रजबाल-आनंदकारी ।
कृष्न कमनीय मुखकमल राजितसुरभि, मुरलिका-मधुर-धुनि बन-बिहारी ॥
स्याम घन दिव्य तन पीत पट दामिनी, इंद्र-धनु मोर कौ मुकुट सोहै ।
सुभग उर माल मनि कंठ चंदन अंग , हास्य ईषद जु त्रैलोक्य मोहै ॥
सुरभि-मंडल मध्य भुज सखा-अंस दियैं, त्रिभँगि सुंदर लाल अति बिराजै ।
बिस्वपूरनकाम कमल-लोचन खरे, देखि सोभा काम कोटि कोटि लाजै ॥
स्रवन कुंडल लोल, मधुर मोहन बोल, बेनु-धुनि सुनि सखनि चित्त मोदे ।
कलप-तरुबर-मूल सुभग जमुना-कूल, करत क्रीड़ा-रंग सुख बिनोदै ॥
देव, किंनर, सिद्ध, सेस, सुक, सनक,सिब, देखि बिधि , ब्यास मुनि सुजस गायौ ।
सूर गोपाललाल सोई सुख-निधि नाथ, आपुनौ जानि कै सरन आयौ ॥

राग श्री

335. जै गोबिंद माधव मुकुंद हरि

 जै गोबिंद माधव मुकुंद हरि ।
कृपा-सिंधु कल्यान कंस-अरि ।
प्रनतपाल केसव कमलापति ।
कृष्न कमल-लोचन अगतिनि गति ॥
रामचन्द्र राजीव-नैन बर ।
सरन साधु श्रीपति सारँगधर ।
बनमाली बामन बीठल बल ।
बासुदेव बासी ब्रज-भूतल ॥
खर-दूषन-त्रिसिरासुर-खंडन ।
चरन-चिन्ह दंडक-भुव-मंडन ।
बकी-दवन बक-बदन-बिदारन ।
बरुन-बिषाद नंद-निस्तारन ॥
रिषि-मष-त्रान ताड़का-तारक ।
बन बसि तात-बचन-प्रतिपालक ।
काली-दवन केसि-कर-पातन ।
अघ-अरिष्ट-धेनुक-अनुघातक ॥
रघुपति प्रबल पिनाक बिभंजन ।
जग-हित जनक-सुता-मन रंजन ।
गोकुल-पति गिरिधर गुन-सागर ।
गोपी-रवन रास-रति-नागर ॥
करुनामय कपि-कुल-हितकारी ।
बालि-बिरोधि कपट-मृग-हारी ।
गुप्त गोप-कन्या-ब्रत-पूरन ।
द्विज-नारी दरसन दुख चूरन ॥
रावन-कुंभकरन-सिर-छेदन ।
तरुबर सात एक सर भेदन ।
संखचूड़-चानूर-सँहारन ।
सक्र कहै मम रच्छा-कारन ॥
उत्तर-क्रिया गीध की करी ।
दरसन दै सबरी उद्धरी।
जे पद सदा संभु-हितकारी ।
जे पद परसि सुरसरी गारी ॥
जे पद रमा हृदय नहिं टारैं ।
जे पद तिहूँ भुवन प्रतिपारैं ।
जे पद अहि फन-फन प्रति धारी ।
जे पद बृंदा-बिपिन-बिहारी ॥
जे पद सकटासुर-संहारी ।
जे पद पांडव-गृह पग धारी ।
जे पद रज गौतम-तिय-तारी ।
जे पद भक्तनि के सुखकारी ॥
सूरदास सुर जाँचत ते पद ।
करहु कृपा अपने जन पर सद ॥

राग भैरव

  • श्रीकृष्ण बाल-माधुरी भाग (12) भक्त सूरदास जी
  • श्रीकृष्ण बाल-माधुरी भाग (13) भक्त सूरदास जी
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