पद्मावत : मलिक मुहम्मद जायसी

Padmavat : Malik Muhammad Jayasi

37. रत्नसेन-संतति-खंड

जाएउ नागमति नागसेनहि । ऊँच भाग, ऊँचै दिन रैनहि ॥
कँवलसेन पदमावति जाएउ । जानहुँ चंद धरति मइँ आएउ ॥
पंडित बहु बुधिवंत बोलाए । रासि बरग औ गरह गनाए ॥
कहेन्हि बड़े दोउ राजा होहीं । ऐसे पूत होहिं सब तोहीं ॥
नवौं खंड के राजन्ह जाहीं । औ किछु दुंद होइ दल माहीं ॥
खोलि भँडारहिं दान देवावा । दुखी सुखी करि मान बढ़ावा ॥
जाचक लोग, गुनीजन आए । औ अनंद के बाज बधाए ॥

बहु किछु पावा जोतिसिन्ह औ देइ चले असीस ।
पुत्र, कलत्र, कुटुंब सब जीयहिं कोटि बरीस ॥1॥

(जाएउ=उत्पन्न किया,जना, ऊँचे दिन रैनहि=दिन-रात
में वैसा ही बढ़ता गया, दुंद=झगड़ा,लड़ाई)

38. राघव-चेतन-देस-निकाला-खंड

राघव चेतन चेतन महा । आऊ सरि राजा पहँ रहा ॥
चित चेता जाने बहु भेऊ । कबि बियास पंडित सहदेऊ ॥
बरनी आइ राज कै कथा । पिंगल महँ सब सिंघल मथा ॥
जो कबि सुनै सीस सो धुना । सरवन नाद बेद सो सुना ॥
दिस्टि सो धरम-पंथ जेहि सूझा । ज्ञान सो जो परमारथ बूझा ॥
जोगि, जो रहै समाधि समाना । भोगि सो, गुनी केर गुन जाना ॥
बीर जो रिस मारै, मन गहा । सोइ सिगार कंत जो चहा ॥

बेग-भेद जस बररुचि, चित चेता तस चेत ।
राजा भोज चतुरदस,भा चेतन सौं हेत ॥1॥

(आऊ सरि=आयु पर्यंत,जन्म भर, चेता=ज्ञान प्राप्त,
भेऊ=भेद,मर्म, पिंगल=छंद या कविता में, सिंघल
मथा=सिंघलदीप की सारी कथा मथकर वर्णन की,
मन गहा=मन को वश में किया, राजा भोज
चतुरदस=चौदहों विद्याओं में राजा भोज के समान)

होइ अचेत घरी जौ आई । चेतन कै सब चेत भुलाई ॥
भा दिन एक अमावस सोई । राजै कहा `दुइज कब होई?'॥
राघव के मुख निकसा `आजू' । पंडितन्ह कहा`काल्हि, महराजू' ॥
राजै दुवौ दिसा फिरि देखा । इन महँ को बाउर, को सरेखा ॥
भुजा टेकि पंडित तब बोला । `छाँडहिं देस बचन जौ डोला' ॥
राघव करै जाखिनी-पूजा । चहै सो भाव देखावै दूजा ॥
तेहि ऊपर राघव बर खाँचा । `दुइज आजु तौ पँडित साँचा' ॥

राघव पूजि जाखिनी, दुइज देखाएसि साँझ ।
बेद-पंथ जे नहिं चलहिं ते भूलहिं बन माँझ ॥2॥

(होइ अचेत,..जौ आई=जब संयोग आ जाता है तब
चेतन भी अचेत हो जाता है;बुद्धिमान भी बुद्धि खो
बैठता है, भुजा टेकि=हाथ मारकर,जोर देकर,
जाखिनी=यक्षिणी, बर खाँचा=रेखा खीचकर कहा,
जोर देकर कहा)

पँडितन्ह कहा परा नहिं धोखा । कौन अगस्त समुद जेइ सोखा ॥
सो दिन गएउ साँझ भइ दूजी । देखी दुइज घरी वह पूजी ॥
पँडितन्ह राजहि दीन्ह असीसा । अब कस यह कंचन और सीसा ॥
जौ यह दुइज काल्हि कै होती । आजु तेज देखत ससि-जोती ॥
राघव दिस्टिबंध कल्हि खेला । सभा माँझ चेटक अस मेला ॥
एहि कर गुरु चमारिन लोना । सिखा काँवरू पाढ़न टोना ॥
दुइज अमावस कहँ जो देखावै । एक दिन राहु चाँद कहँ लावै ॥

राज-बार अस गुनी न चाहिय जेहि टोना कै खोज ।
एहि चेटक औ विद्या छला जो राजा भोज ॥3॥

(कौन अगस्त...सोखा=अर्थात् इतनी अधिक प्रत्यक्ष
बात को कौन पी जा सकता है? अब कस सीसा=
अब यह कैसा कंचन कंचन और सीसा सीसा हो
गया, काल्हि कै=कल को, दिस्टिबंध=इंद्रजाल,
जादू, चेटक=माया, चमारिनि लोना=कामरूप की
प्रसिद्ध जादूगरनी लोना चमारी, एक दिन राहु
चाँद कहँ लावै=जब चाहे चंद्रग्रहण कर दे;
पद्मावती के कारण बादशाह की चढ़ाई का
संकेत भी मिलता है)

राघव -बैन जो कंचन रेखा । कसे बानि पीतर अस देखा ॥
अज्ञा भई, रिसअन नरेसू । मारहु नाहिं, निसारहु देसू ॥
झूठ बोलि थिर रहै न राँचा । पंडित सोइ बेद-मत-साँचा ॥
वेद-वचन मुख साँच जो कहा । सो जुग-जुग अहथिर होइ रहा ॥
खोट रतन सोई फटकारै । केहि घर रतन जो दारिद हरै?॥
चहै लच्छि बाउर कबि सोई । जहँ सुरसती, लच्छि कित होई?॥
कविता-सँग दारिद मतिभंगी । काँटे-कूँट पुहुप कै संगी ॥

कवि तौ चेला, विधि गुरू; सीप सेवाती-बूँद ।
तेहि मानुष कै आस का जौ मरजिया समुंद?॥4॥

(फटकरै=फटक दे, मतिभंगी=बुद्धि भ्रष्ट करनेवाला, तेहि
मानुष कै आस का=उसको मनुष्य की क्या आशा करनी
चाहिए?)

एहि रे बात पदमावति सुनी । देस निसारा राघव गुनी ॥
ज्ञान-दिस्टि धनि अगम बिचारा । भल न कीन्ह अस गुनी निसारा ॥
जेइ जाखिनी पूजि ससि काढ़ा । सूर के ठाँव करै पुनि ठाढ़ा ॥
कवि कै जीभ खड़ग हरद्वानी । एक दिसि आगि, दुसर दिसि पानी ॥
जिनि अजुगुति काढ़ै मुख भोरे । जस बहुते, अपजस होइ थोरे ॥
रानी राघव बेगि हँकारा । सूर-गहन भा लेहु उतारा ॥
बाम्हन जहाँ दच्छिना पावा । सरग जाइ जौ होई बोलावा ।

आवा राघव चेतन, धौराहर के पास ।
ऐस न जाना ते हियै, बिजुरी बसै अकास ॥5॥

(अगम=आगम,परिणाम, जाखिनी=यक्षिणी, सूर के
ठाँव ..ठाढ़ा=सूर्य की जगह दूसरा सूर्य खड़ा कर दे,
(राजा पर बादशाह को चढ़ा लाने का इशारा)हरद्वानी=
हरद्वान की तलवार प्रसिद्ध थी, अजुगुति=अनहोनी
बात,अयुक्त बात, भोरे=भूलकर, जस बहुते....थोरे=यश
बहुत करने से मिलता है, अपयश थोड़े ही में मिलता
है, उतारा=निछावर किया हुआ दान)

पदमावति जो झरोखे आई । निहकलंक ससि दीन्ह दिखाई ॥
ततखन राभव दीन्ह असीसा । भएउ चकोर चंदमुख दीसा ॥
पहिरे ससि नखतन्ह कै मारा । धरती सरग भएउ उजियारा ॥
औ पहिरै कर कंकन-जोरी । नग लागे जेहि महँ नौ कोरी ॥
कँकन एक कर काढ़ि पवारा । काढ़त हार टूट औ मारा ॥
जानहुँ चाँद टूट लेइ तारा । छुटी अकास काल कै धारा ॥
जानहु टूटि बीजु भुइँ परी । उठा चौधि राघव चित हरी ॥

परा आइ भुइँ कंकन, जगत भएउ उजियार ।
राघव बिजुरी मारा, बिसँभर किछ न सँभार ॥6॥

(कोरी=बीस की संख्या, पवारा=फेंका, चौंधि उठा=
आँखों में चकाचौंध हो गई)

पदमावति हँसि दीन्ह झरोखा । जौ यह गुनी मरै, मोहिं दोखा ॥
सबै सहेली दैखै धाईं । `चेतन चेतु' जगावहिं आई ॥
चेतन परा, न आवै चैतू । सबै कहा `एहि लाग परेतु' ॥
कोई कहै, आहि सनिपातू । कोई कहै, कि मिरगी बातू ॥
कोइ कह, लाग पवन झर झोला । कैसेहु समुझि न चेतन बोला ॥
पुनि उठाइ बैठाएन्हि छाहाँ पूछहिं, कौन पीर हिय माहाँ?॥
दहुँ काहू के दरसन हरा । की ठग धूत भूत तोहि छरा ॥

की तोहि दीन्ह काहु किछु, की रे डसा तोहि साँप?।
कहु सचेत होइ चेतन, देह तोरि कस काँप ॥7॥

(सनिपातू=सन्निपात,त्रिदोष)

भएउ चेत चेतन चित चेता । नैन झरोखे, जीउ सँकेता ॥
पुनि जो बोला मति बुधि खोवा । नैन झरोखा लाए रोवा ॥
बाउर बहिर सीस पै धूना । आपनि कहै, पराइ न सुना ॥
जानहु लाई काहु ठगौरी । खन पुकार, खन बातैं बौरी ॥
हौं रे ठगा एहि चितउर माहाँ । कासौं कहौं, जाउँ केहि पाहाँ॥
यह राजा सठ बड़ हत्यारा । जेइ राखा अस ठग बटपारा ॥
ना कोइ बरज, न लाग गोहारी । अस एहि नगर होइ बटपारी ॥

दिस्टि दीन्ह ठगलाडू, अलक-फाँस परे गीउ ।
जहाँ भिखारि न बाँचै, तहाँ बाँच को जीऊ?॥8॥

(सँकेता=संकट में, ठगोरी लाई=ठग लिया; सुध-बुध नष्ट
करके ठक कर लिया, बौरी=बावलों की सी, बरज=मना
करता है, गोहारि लगना=पुकार सुनकर सहायता के
लिये आना)

कित धोराहर आइ झरोखे?। लेइ गइ जीउ दच्छिना-धोखे ॥
सरग ऊइ ससि करै अँजोरी । तेहि ते अधिक देहुँ केहि जोरी?॥
तहाँ ससिहि जौ होति वह जोती । दिन होइ राति, रैनि कस होती?॥
तेइ हंकारि मोहिं कँकन दीन्हा । दिस्टि जो परी जीउ हरि लीन्हा ॥
नैन-भिखारि ढीठ सतछँडा । लागै तहाँ बान होइ गडा ॥
नैनहिं नैन जो बेधि समाने । सीस धुनै निसरहिं नहिं ताने ॥
नवहिं न आए निलज भिखारी । तबहिं न लागि रही मुख कारी ॥

कित करमुहें नैन भए, जीउ हरा जेहि वाट ।
सरवर नीर-निछोह जिमि दरकि दरकि हिय फाट ॥9॥

(दच्छिना-धोखे=दक्षिणा का धोखा देकर, जोरी=पटतर,
उपमा, दिन होइ राति=तो रात में भी दिन होता और
रात न होती, हँकारि=बुलाकर, सतछँडा=सत्य
छोड़नेवाला, समाने=खींचने से, तबहिं न....कारी=
तभी न (उसी कारण से) आँखों के मुँह में कालिमा
काली-पुतली,लग रही है, सरवर नीर ....फाट=तालाब
के सूखने पर उसकी जमीन में चारों ओर दरारें सी
पड़ जाती है)

सखिन्ह कहा चेतसि बिसँमारा । हिये चेतु जेहि जासि न मारा ॥
जौ कोइ पावै आपन माँगा । ना कोइ मरै, न काहू खाँगा ॥
वह पदमावति आहि अनूपा । बरनि न जाइ काहु के रूपा ॥
जो देखा सो गुपुत चलि गएउ । परगट कहाँ, जीउ बिनु भएउ ॥
तुम्ह अस बहुत बिमोहित भए । धुनि धुनि सीस जीउ देइ गए ॥
बहुतन्ह दीन्ह नाइ कै गीवा । उतर देइ नहिं, मारै जीवा ॥
तुइँ पै मरहिं होइ जरि भूई । अबहुँ उघेलु कान कै रूई ॥

कोइ माँगे नहिं पावै, कोइ माँगे बिनु पाव ।
तू चेतन औरहि समुझावै, तोकहँ को समुझाव?॥10॥

(बरनि न जाइ....रूपा=किसी के साथ उसकी उपमा
नहीं दी जा सकती, भूई=सरकंडे का धूआ, उघेलु....रूई=
सुनकर चेत कर, कान की रूई खोल )

भएउ चेत, चित चेतन चेता । बहुरि न आइ सहौं दुख एता ॥
रोवत आइ परे हम जहाँ ।रोवत चले, कौन सुख तहाँ?॥
जहाँ रहे संसौ जिउ केरा । कौन रहनि? चलि चलै सबेरा ॥
अब यह भीख तहाँ होइ मागौं । देइ एत जेहि जनम न खाँगौं ॥
अस कंकन जौ पावौं दूजा । दारिद हरै, आस मन पूजा ॥
दिल्ली नगर आदि तुरकानू । जहाँ अलाउदीन सुलतानू ॥
सोन ढरै जेहि के टकसारा । बारह बानी चलै दिनारा ॥

कँवल बखानौं जाइ तहँ जहँ अलि अलाउदीन ।
सुनि कै चढ़ै भानु होइ, रतन जो होइ मलीन ॥11॥

(एता=इतना, संसौ=शंशय, कौन रहनि=वहाँ का रहना
क्या? देइ एत...खाँगौं=इतना दो कि फिर मुझे कमी न हो,
सोन ढरै=सोना ढलता है,सोने के सिक्के ढाले जाते हैं,
बारहबानी=चोखा, दिनारा=दीनार नाम का प्रचलित सोने
का सिक्का, अलि=भौंरा)

39. राघव-चेतन-दिल्ली-गमन-खंड

राघव चेतन कीन्ह पयाना । दिल्ली नगर जाइ नियराना ॥
आइ साह के बार पहूँचा । देखा राज जगत पर ऊँचा ॥
छत्तिस लाख तुरुक असवारा । तीस सहस हस्ती दरबारा ॥
जहँ लगि तपै जगत पर भानू । तहँ लगि राज करै सुलतानू ॥
चहूँ खँड के राजा आवहिं । ठाढ़ झुराहिं, जोहार न पावहिं ॥
मन तेवान कै राघव झूरा । नाहिं उवार, जीउ-डर पूरा ॥
जहँ झुराहिं दीन्हें सिर छाता । तहँ हमार को चालै बाता? ॥

वार पार नहिं सूझै, लाखन उमर अमीर ।
अब खुर-खेह जाहुँ मिलि, आइ परेउँ एहि भीर ॥1॥

(बार=द्वार, ठाढ़ झुराहिं=खड़े खड़े सूखते हैं, जोहार=
सलाम, तेवान=चिंता, सोच, झूरा=व्याकुल होता है,
सूखता है, नाहिं उबार=यहाँ गुजर नहीं, दीन्हें सिर
छाता=छत्रपति राजा लोग, उमर=उमरा,सरदार,
खुर-खेह=घोड़ों की टापों से उठी धूल में)

बादशाह सब जाना बूझा । सरग पतार हिये महँ सूझा ॥
जौ राजा अस सजग न होई । काकर राज, कहाँ, कर कोई ॥
जगत-भार उन्ह एक सँभारा । तौ थिर रहै सकल संसारा ॥
औ अस ओहिक सिंघासन ऊँचा । सब काहू पर दिस्टि पहूँचा ॥
सब दिन राजकाज सुख-भोगी । रैनि फिरै घर घर होइ जोगी ॥
राव रंक जावत सब जाती । सब कै चाह लेइ दिन राती ॥
पंथी परदेसी जत आवहिं । सब कै चाह दूत पहुँचावहिं ॥

एहू वात तहँ पहुँची, सदा छत्र सुख-छाहँ!
बाम्हन एक बार है, कँकन जराऊ बाहँ ॥2॥

(सजग=होशियार, रैनि फिरै....जोगी को जोगी के
भेस में प्रजा की दशा देखने को घूमता है, चाह=खबर)

मया साह मन सुनत भिखारी । परदेसी को? पूछु हँकारी ॥
हम्ह पुनि जाना है परदेसा । कौन पंथ, गवनब केहि भेसा?॥
दिल्ली राज चिंत मन गाढ़ी । यह जग जैस दूध कै साढ़ी ॥
सैंति बिलोव कीन्ह बहु फेरा । मथि कै लीन्ह घीउ महि केरा ॥
एहि दहि लेइ का रहै ढिलाई । साढ़ी काढ़ु दही जब ताईं ॥
एहि दहि लेइ कित होइ होइ गए । कै कै गरब खेह मिलि गए ॥
रावन लंक जारि सब तापा । रहा न जोबन, आव बुढ़ापा ॥

भीख भिखारी दीजिए, का बाम्हन का भाँट ।
अज्ञा भइ हँकारहु, धरती धरै लिलाट ॥3॥

(मया साह मन=बादशाह के मन में दया हुई, सैति=
संचित करके, बिलोव कीन्ह=मथा, महि=पृथ्वी;मही,
मट्ठा, दहि लेइ=दिल्ली में;दही लेकर, खेह=धूल,मिट्टी)

राघव चेतन हुत जो निरासा । ततखन बेगि बोलावा पासा ॥
सीस नाइ कै दीन्ह असीसा । चमकत नग कंकन कर दीसा ॥
अज्ञा भइ पुनि राघव पाहाँ । तू मंगन, कंकन का बाहाँ?॥
राघव फेरि सीस भुइँ धरा । जुग जुग राज भानु कै करा ॥
पदमिनि सिंघलदीप क रानी । रतनसेन चितउरगढ़ आनी ॥
कँवल न सरि पूजै तेहि बासा । रूप न पूजै चंद अकासा ॥
जहाँ कँवल ससि सूर न पूजा । केहि सरि देउँ, और को दूजा? ॥

सोइ रानी संसार-मनि दछिना कंकन दीन्ह ।
अछरी-रूप देखाइ कै जीउ झरोखे लीन्ह ॥4॥

(हुत=था, संसार मनि=जगत में मणि के समान)

सुनि कै उतर साहि मन हँसा । जानहु बीजु चमकि परगसा ॥
काँच-जोग जेहि कंचन पावा । मंगन ताहि सुमेरु चढ़ावा ॥
नावँ भिखारि जीभ मुख बाँची । अबहुँ सँभारि बात कहु साँची ॥
कहँ अस नारि जगत उपराहीं । जेहि के सूरुज ससि नाहीं?॥
जो पदमिनि सो मंदिर मोरे । सातौ दीप जहाँ कर जोरे ॥
सात दीप महँ चुनि चुनि आनी । सो मोरे सोरह सै रानी ॥
जौ उन्ह कै देखसि एक दासी । देखि लोन होइ लोन बिलासी ॥

चहूँ खंड हौं चक्कवै, जस रबि तपै अकास ।
जौ पदमिनि तौ मोरे, अछरी तौ कबिलास ॥5॥

(जेहि कंचन पावा=जिससे सोना पाया, नावँ भिखारि...बाँची=
भिखारी के नाम पर अर्थात् भिखारी समझकर तेरे मुँह में
जीभ बची हुई है,खींच नहीं ली गई, लोन=लावण्य,सौंदर्य,
होइ लोन बिलासीं=तू नमक की तरह गल जाय, चक्कवै=
चक्रवर्ती)

तुम बड राज छत्रपति भारी । अनु बाम्हन मैं अहौं भिखारी ॥
चारउ खंड भीख कहँ बाजा । उदय अस्त तुम्ह ऐस न राजा ॥
धरमराज औ सत कलि माहाँ । झूठ जो कहै जीभ केहि पाहाँ?॥
किछु जो चारि सब किछु उपराहीं । ते एहि जंबू दीपहि नाहीं ॥
पदमिनि, अमृत, हंस, सदूरू । सिंघलदीप मिलहिं पै मूरू ॥
सातौं दीप देखि हौं आवा । तब राघव चेतन कहवावा ॥
अज्ञा होइ, न राखौं धोखा । कहौं सबै नारिन्ह गुन-दोषा ॥

इहाँ हस्तिनी, संखिनी औ चित्रिनि बहु बास ।
कहाँ पदमिनी पदुम सरि, भँवर फिरै जेहि पास?॥6॥

(अनु=और,फिर, भीख कहँ=भिक्षा के लिए, बाजा=पहुँचता है,
डटता है, उदय-अस्त=उदयाचल से अस्ताचल तक, किछि जो
चारि...उपराहीं=जो चार चीजें सबसे ऊपर हैं, मूरू=मूल,असल,
बहुबास=बहुत सी रहती हैं)

40. स्त्री-भेद-वर्णन-खंड

पहिले कहौं हस्तिनी नारी । हस्ती कै परकीरति सारी ॥
सिर औ पायँ सुभर गिउ छोटी । उर कै खीनि, लंक कै मोटी ॥
कुंभस्थल कुच,मद उर माहीं । गवन गयंद,ढाल जनु बाहीं ॥
दिस्टि न आवै आपन पीऊ । पुरुष पराएअ ऊपर जिऊ ॥
भोजन बहुत, बहुत रति चाऊ । अछवाई नहिं, थोर बनाऊ ॥
मद जस मंद बसाइ पसेऊ । औ बिसवासि छरै सब केऊ ॥
डर औ लाज न एकौ हिये । रहै जो राखे आँकुस दिये ॥

गज-गति चलै चहूँ दिसि, चितवै लाए चोख ।
कही हस्तिनी नारि यह, सब हस्तिन्ह के दोख ॥1॥

(अछवाई=सफाई, बनाऊ=बनाव सिंगार, बसाइ=दुर्गंध
करता है, चोख=चंचलता या नेत्र)

दूसरि कहौं संखिनी नारी । करै बहुत बल अलप-अहारी ॥
उर अति सुभर, खीन अति लंका । गरब भरी, मन करै न संका ॥
बहुत रोष, चाहै पिउ हना । आगे घाल न काहू गना ॥
अपनै अलंकार ओहि भावा । देखि न सकै सिंगार परावा ॥
सिंघ क चाल चलै डग ढीली । रोवाँ बहुत जाँघ औ फीली ॥
मोटि, माँसु रुचि भोजन तासू । औ मुख आव बिसायँध बासू ॥
दिस्टि, तिरहुडी, हेर न आगे । जनु मथवाह रहै सिर लागे ॥

सेज मिलत स्वामी कहँ लावै उर नखबान ।
जेहि गुन सबै सिंघ के सो संखिनि, सुलतान!॥2॥

(सुभर=भरा हुआ, चाहै पिउ हना=पति को कभी कभी मारने
दौड़ती है, घाल न गना=कुछ नहीं समझती,पसंगे बराबर नहीं
समझती, फीली=पिंडली, तरहुँडी=नीचा, हेर=देखती है, मथवाह=
झालरदार पट्टी जो भड़कनेवाले घोड़ों के मत्थे पर इसलिये
बाँध दी जाती है जिसमें वे इधर उधर की वस्तु देख न
सकें, जेहि गुन सबै सिंघ के=कवि ने शायद शंखिनी के
स्थान पर `सिंघिनी' समझा है)

तीसरि कहौं चित्रिनी नारी । महा चतुर रस-प्रेम पियारी ॥
रूप सुरूप, सिंगार सवाई । अछरी जैसि रहै अछवाई ॥
रोष न जानै, हँसता-मुखी । जेहि असि नारी कंत सो सुखी ॥
अपने पिउ कै जानै पूजा । एक पुरुष तजि आन न दूजा ॥
चंदबदनि, रँग कुमुदिनि गोरी । चाल सोहाइ हंस कै जोरी ॥
खीर खाँड रुचि, अलप अहारू । पान फूल तेहि अधिक पियारू ॥
पदमिनि चाहि घाटि दुइ करा । और सबै गुन ओहि निरमरा ॥

चित्रिनि जैस कुमुद-रँग सोइ बासना अंग ।
पदमिनि सब चंदन असि, भँवर फिरहिं तेहि संग ॥3॥

(सवाई=अधिक, अछवाई=साफ,निखरी, चाहि=अपेक्षा,
बनिस्बत, घाटि=घटकर, करा=कला, बासना=बास,महँक)

चौथी कहौं पदमिनी नारी । पदुम-गंध ससि देउ सँवारी ॥
पदमिनि जाति पदुम-रँग ओही । पदुम-बास, मधुकर सँग होहीं ॥
ना सुठि लाँबी, ना सुठि छोटी । ना सुठि पातरि, ना सुठि मोटी ॥
सोरह करा रंग ओहि बानी । सो, सुलतान!पदमिनी जानी ॥
दीरघ चारि, चारि लघु सोई । सुभर चारि, चहुँ खीनौ होई ॥
औ ससि-बदन देखि सब मोहा । बाल मराल चलत गति सोहा ॥
खीर अहार न कर सुकुवाँरी । पान फूल के रहै अधारी ॥

सोरह करा सँपूरन औ सोरहौ सिंगार ।
अब ओहि भाँति कहत हौं जस बरनै संसार ॥4॥

(सुठि=खूब,बहुत, दीरघ चारि...होइ=ये सोलह श्रृंगार के विभाग हैं)

प्रथम केस दीरघ मन मोहै । औ दीरघ अँगुरी कर सोहै ॥
दीरघ नैन तीख तहँ देखा । दीरघ गीउ, कंठ तिनि रेखा ॥
पुनि लघु दसन होहिं जनु हीरा । औ लघु कुच उत्तंग जँभीरा ॥
लघु लिलाट छूइज परगासू । औ नाभी लघु, चंदन बासू ॥
नासिक खीन खरग कै धारा । खीन लंक जनु केहरि हारा ॥
खीन पेट जानहुँ नहिं आँता । खीन अधर बिद्रुम-रँग-राता ॥
सुभर कपोल, देख मुख सोभा । सुभर नितंब देखि मन लोभा ॥

सुभर कलाई अति बनी, सुभर जंघ, गज चाल ।
सोरह सिंगार बरनि कै, करहिं देवता लाल ॥5॥

(दीरघ=लंबे, तीख=तीखे, तिनि=तीन, केहरि हारा=सिंह ने हार
कर दी, आँता=अँतड़ी, सुभर=भरे हुए, लाल=लालसा)


41. पद्मावती-रूप-चर्चा-खंड

वह पदमिनि चितउर जो आनी । काया कुंदन द्वादसबानी ॥
कुंदन कनक ताहि नहिं बासा । वह सुगंध जस कँवल बिगासा ॥
कुंदन कनक कठोर सो अंगा । वह कोमल, रँग पुहुप सुरंगा ॥
ओहि छुइ पवन बिरिछ जेहि लागा । सोइ मलयागिरि भएउ सुभागा ॥
काह न मूठी-भरी ओहि देही?। असि मूरति केइ देउ उरेही?॥
सबै चितेर चित्र कै हारे । ओहिक रूप कोइ लिखै न पारे ॥
कया कपूर, हाड़ सव मोती । तिन्हतें अधिक दीन्ह बिधि जोती ॥

सुरुज-किरिन जसि निरमल, तेहितें अधिक सरीर ।
सौंह दिस्ट नहिं जाइ करि, नैनन्ह आवै नीर ॥1॥

(बासा=महक,सुगंध, ओहि छुइ ....सभागा=उसको छूकर वायु
जिन पेड़ों में लगी वे मलयागिरि चंदन हो गए, काह न
मूठि...देही=उस मुट्ठी भर देह में क्या नहीं है? चितेर=
चित्रकार)

ससि-मुख जबहिं कहै किछु बाता । उठत ओठ सूरुज जस राता ॥
दसन दसन सौं किरिन जो फूटहिं । सब जग जनहुँ फुलझरी छूटहिं ॥
जानहुँ ससि महँ बीजु देखावा । चौंधि परै किछु कहै न आवा ॥
कौंधत अह जस भादौं-रैनी । साम रैनि जनु चलै उडैनी ॥
जनु बसंत ऋतु कोकिल बोली । सुरस सुनाइ मारि सर डोली ॥
ओहि सिर सेस नाग जौ हरा । जाइ सरन बेनी होइ परा ॥
जनु अमृत होइ बचन बिगासा । कँवल जो बास बास धनि पासा ॥

सबै मनहि हरि जाइ मरि जो देखै तस चार ।
पहिले सो दुख बरनि कै, बरनौ ओहिक सिंगार ॥2॥

(सामरैनि=अँधेरी रात, उडैनी=जुगनू, सर=बाण, चार=ढंग,
ढब, दुख=उसके दर्शन से उत्पन्न विकलता)

कित हौं रहा काल कर काढ़ा । जाइ धौरहर तर भा ठाढ़ा ॥
कित वह आइ झरोखै झाँकी । नैन कुरँगिनि, चितवनि बाँकी ॥
बिहँसि ससि तरईं जनु परी । की सो रैनि छूटीं फुलझरी ॥
चमक बीजु जस भादौं रैनी । जगत दिस्टि भरि रही उडैनी ॥
काम-कटाछ दिस्टि विष बसा । नागिनि-अलक पलक महँ डसा ॥
भौंह धनुष, पल काजर बूडी । वह भइ धानुक, हौं भा ऊडी ॥
मारि चली, मारत हू हँसा । पाछे नाग रहा, हौं डंसा ॥

काल घालि पाछे रखा, गरुड़ न मंतर कोइ ।
मोरे पेट वह पैठा, कासौं पुकारौं रोइ? ॥3॥

(काल कर काढ़ा=काल का चुना हुआ, पल=पलक, बूडी=
डूबी हुई, धानुक=धनुष चलानेवाली, ऊडी=पनडुब्बी चिड़िया,
घालि....रखा=डाल रखा)

बेनी छोरि झार जौ केसा । रैनि होइ,जग दीपक लेसा ॥
सिर हुत बिसहर परे भुइँ बारा । सगरौं देस भएउ अँधियारा ॥
सकपकाहिं विष-भरे पसारे । लहरि-भरे लहकहिं अति कारे ॥
जानहुँ लोटहिं चढ़े भुअंगा । बेधे बास मलयगिरि-अंगा ॥
लुरहिं मुरहिं जनु मानहिं केली । नाग चढ़े मालति कै बेली ॥
लहरैं देइ जनहुँ कालिंदी । फिरि फिरि भँवर होइ चित-बंदी ॥
चँवर ढुरत आछै चहुँ पासा । भँवर न उडहिं जो लुबुधे बासा ॥

होइ अँधियार बीजु धन लाँपै जबहि चीर गहि झाँप ।
केस-नाग कित देख मैं, सँवरि सँवरि जिय काँप ॥4॥

(झार=झारती है, जग दीपक लेसा=रात समझकर लोग दीया
जलाने लगते हैं, सिर हुँत=सिर से, बिसहर=बिषधर,साँप,
सकपकाहिं=हिलते डोलते हैं, लहकहिं=लहराते हैं,झपटते हैं,
लुरहिं=लोटते हैं, फिरि फिरि भँवर=पानी के भँवर में चक्कर
खाकर, बन्दी=कैद,बँधुवा, ढुरत आछै=ढरता रहता है, झाँप=
ढाँकती है)

माँग जो मानिक सेंदुर-रेखा । जनु बसंत राता जग देखा ॥
कै पत्रावलि पाटी पारी । औ रुचि चित्र बिचित्र सँवारी ॥
भए उरेह पुहुप सब नामा । जनु बग बिखरि रहे घन सामा ॥
जमुना माँझ सुरसती मंगा । दुहुँ दिसि रही तरंगिनी गंगा ॥
सेंदुर-रेख सो ऊपर राती । बीरबहूटिन्ह कै जसि पाँती ॥
बलि देवता भए देखी सेंदूरू । पूजै माँग भोर उटि सूरू ॥
भोर साँझ रबि होइ जो राता । ओहि रेखा राता होइ गाता ॥

बेनी कारी पुहुप लेइ निकसी जमुना आइ ।
पूज इंद्र आनंद सौं सेंदुर सीस चढ़ाइ ॥5॥

(पत्रावलि=पत्रभंग-रचना, पाटी=माँग के दोनों ओर बैठाए हुए
बाल, उरेह=विचित्र सजावट, बग=बगल, पूजै=पूजन करता है)

दुइज लिलाट अधिक मनियारा । संकर देखि माथ तहँ धारा ॥
यह निति दुइज जगत सब दीसा । जगत जोहारै देइ असीसा ॥
ससि जो होइ नहिं सरवरि छाजै । होइ सो अमावस छपि मन लाजै ॥
तिलक सँवारि जो चुन्नी रची । दुइज माँझ जनहुँ कचपची ॥
ससि पर करवत सारा राहू । नखतन्ह भरा दीन्ह बड़ दाहू ॥
पारस-जोति लिलाटहि ओती । दिस्टि जो करै होइ तेहि जोती ॥
सिरी जो रतन माँग बैठारा । जानहु गगन टूट निसि तारा ॥

ससि औ सूर जो निरमल तेहि लिलाट के ओप ।
निसि दिन दौरि न पूजहिं, पुनि पुनि होहिं अलोप ॥6॥

(मनियारा=कांतिमान्=सोहावना, चुन्नी=चमकी या सितारे जो
माथे या कपोलों पर चिपकाए जाते हैं, पारस-जोति=ऐसी ज्योति
जिससे दूसरी वस्तु को ज्योति हो जाय, सिरी=श्री नाम का
आभूषण, ओप=चमक, पूजहिं=बराबरी को पहुँचते हैं)

भौहैं साम धनुक जनु चढ़ा । बेझ करै मानुष कहँ गढ़ा ॥
चंद क मूठि धनुक वह ताना । काजर मनच, बरुनि बिष-बाना ॥
जा सहुँ हेर जाइ सो मारा । गिरिवर टरहिं भौंह जो टारा ॥
सेतुबंध जेइ धनुष बिगाड़ा । उहौ धनुष भौंहन्ह सौं हारा ॥
हारा धनुष जो बेधा राहू । और धनुष कोइ गनै न काहू ॥
कित सो धनुष मैं भौंहन्ह देखा । लाग बान तिन्ह आउ न लेखा ॥
तिन्ह बानन्ह झाँझर भा हीया । जो अस मारा कैसे जीया?॥

सूत सूत तन बेधा, रोवँ रोवँ सब देह ।
नस नस महँ ते सालहिं, हाड़ हाड़ भए बेह ॥7॥

(बेझ करै=बेध करने के लिये, पनच=पतंचिका,धनुष की डोरी,
बिहाड़ा=नष्ट किया, धनुष जो बेधा राहू=मत्स्यबेध करने वाला
अर्जुन का धनुष, आउ न लेखा=आयु को समाप्त समझा, बेह=
बेध,छेद)

नैन चित्र एहि रूप चितेरा । कँवल-पत्र पर मधुकर फेरा ॥
समुद-तरंग उठहि जनु राते । डोलहि औ घूमहिं रस-माते ॥
सरद-चंद महँ खंजन-जोरी । फिरि फिरि लरै बहोरि बहोरी ॥
चपल बिलोल डोल उन्ह लागे । थिर न रहै चंचल बैरागे ॥
निरखि अघाहिं न हत्या हुँते । फिरि फिरि स्रवनन्ह लागहिं मते ॥
अंग सेत, मुख साम सो ओही । तिरछे चलहिं सूध नहिं होहीं ॥
सुर, नर, गंध्रब लाल कराहीं । उथले चलहिं सरग कहँ जाहीं ॥

अस वै नयन चक्र दुइ भँवर समुद उलथाहिं ।
जनु जिउ घालि हिंडोलहिं लेइ आवहिं, लेइ जाहिं ॥8॥

(नैन चित्र...चितेरा=नेत्रों का चित्र इस रूप से चित्रित हुआ है,
चितेरा=चित्रित किया गया, बहोरि बहोरी=फिर फिर, फिरि
फिरि=घूम घूम कर, मते सलाह=करने में, अँग सेत...ओही=
आँखों के सफेद डेले और काली पुतलियाँ, लाल=लालसा)

नासिक-खड़ग हरा धनि कीरू । जोग सिंगार जिता औ बीरू ॥
ससि-मुँह सौंहँ खड़ग देइ रामा । रावन सौं चाहै संग्रामा ॥
दुहुँ समुद्र महँ जनु बिच नीरू । सेतु बंध बाँधा रघुबीरू ॥
तिल के पुहुप अस नासिक तासू । औ सुगंध दीन्ही बिधि बासू ॥
हीर-फूल पहिरे उजियारा । जनहुँ सरद ससि सोहिल तारा ॥
सोहिल चाहि फूल वह ऊँचा । धावहिं नखत, न जाइ पहूँचा ॥
न जनौं कैस फूल वह गढ़ा । बिगसि फूल सब चाहहिं चढ़ा ॥

अस वह फूल सुबासित भएउ नासिका-बंध ।
जेत फूल ओहि हिरकहिं तिन्ह कहँ होइ सुगंध ॥9॥

(कीरू=तोता, सोहिल तारा=सुहेल तारा जो चंद्रमा के पास
रहता है, बिगसि फूल..चढ़ा=फूल जो खिलते हैं मानों उसी
पर निछावर होने के लिये)

अधर सुरंग, पान अस खीने । राते-रंग, अमिय-रस-भीने ॥
आछहिं भिजे तँबोल सौं राते । जनु गुलाल दीसहिं बिहँसाते ॥
मानिक अधर, दसन जनु हीरा । बैन रसाल, काँड मुख बीरा ॥
काढे अधर डाभ जिमि चीरा । रुहिर चुवै जौ खाँडै बीरा ॥
ढारै रसहि रसहि रस-गीली । रकत-भरी औ सुरँग रँगीली ॥
जनु परभात राति रवि-रेखा । बिगसे बदन कँवल जनु देखा ॥
अलक भुअंगिनि अधरहि राखा । गहै जो नागिनि सो रस चाखा ॥

अधर अधर रस प्रेम कर, अलक भुअंगिनि बीच ।
तब अमृत-रस पावै जब नागिनि गहि खींच ॥10॥

(काढ़े अधर...चीर=जैसे कुश का चीरा लगा हो ऐसे पतले
ओठ हैं, जो खाँडै बीरा=जब बीड़ा चबाती है, जनु परभात...
देखा=मानों विकसित कमलमुख पर सूर्य की लाल किरनें
पड़ी हों)

दसन साम पानन्ह-रँग-पाके । बिगसे कँवल माँह अलि ताके ॥
ऐसि चमक मुख भीतर होई । जनु दारिउँ औ साम मकोई ॥
चमकहिं चौक बिहँस जौ नारी । बीजु चमक जस निसि अँधियारी ॥
सेत साम अस चमकत दीठी । नीलम हीरक पाँति बईठी ॥
केइ सो गढ़े अस दसन अमोला । मारै बीजु बिहँसि जौ बोला ॥
रतन भीजि रस-रंग भए सामा । ओही छाज पदारथ नामा ॥
कित वै दसन देख रस-भीने । लेइ गइ जोति, नैन भए हीने ॥

दसन-जोति होइ नैन-मग हिरदय माँझ पईठ ।
परगट जग अँधियार जनु, गुपुत ओहि मैं दीठ ॥11॥

(ताके=दिखाई पड़े, मकोई=जंगली मकोय जो काली
होती है, कित वै दसन...भीने=कहाँ से मैंने उन रंग-भीने
दाँतों को देखा)

रसना सुनहु जो कह रस-बाता । कोकिल बैन सुनत मन राता ॥
अमृत-कोंप जीभ जनु लाई । पान फूल असि बात सोहाई ॥
चातक-बैन सुनत होइ साँती । सुनै सो परै प्रेम-मधु माती ॥
बिरवा सूख पाव जस नीरू । सुनत बैन तस पलुह सरीरू ॥
बोल सेवाति-बूँद जनु परहीं । स्रवन-सीप-मुख मोती भरहीं ॥
धनि वै बैन जो प्रान-अधारू । भूखे स्रवनहिं देहिं अहारू ॥
उन्ह बैनन्ह कै काहि न आसा । मोहहि मिरिग बीन-विस्वासा ॥

कंठ सारदा मोहै, जीभ सुरसती काह?
इंद्र, चंद्र, रवि देवता सबै जगत मुख चाह ॥12॥

(कोंप=कोंपल,नया कल्ला, साँती=शांति, माती=मात कर,
बिरवा=पेड़, सूख=सूखा हुआ, पलुह=पनपता है,हरा होता है,
बीन बिस्वासा=बीन समझकर)

स्रवन सुनहु जो कुंदन-सीपी । पहिरे कुंडल सिंघलदीपी ॥
चाँद सुरुज दुहुँ दिसि चमकाहीं । नखतन्ह भरे निरखि नहिं जाहीं ॥
खिन खिन करहिं बीजु अस काँपा । अँबर-मेघ महँ रहहिं न झाँपा ॥
सूक सनीचर दुहुँ दिसि मते । होहिं निनार न स्रवनन्ह-हुँते ॥
काँपत रहहिं बोल जो बैना । स्रवनन्ह जौ लागहि फिर नैना ॥
जस जस बात सखिन्ह सौं सुना । दुहुँ दिसि करहिं सीस वै धुना ॥
खूँट दुवौ अस दमकहिं खूँटी । जनहु परै कचपचिया टूटी ॥

वेद पुरान ग्रंथ जत स्रवन सुनत सिखि लीन्ह ।
नाद विनोद राग रस-बंधक स्रवन ओहि बिधि दीन्ह ॥13॥

(कुंदन सीपी=कुंदन की सीप (ताल के सीपों का आधा
संपुट), अंबर=वस्त्र, खूँट=कोना, ओर, खूँटी=खूँट नाम का
गहना, कचपचिया=कृत्तिका नक्षत्र)

कँवल कपोल ओहि अस छाजै । और न काहु देउ अस साजै ॥
पुहुक-पंक रस-अमिय सँवारे । सुरँग गेंद नारँग रतनारे ॥
पुनि कपोल वाएँ तिल परा । सो तिल बिरह-चिनगि कै करा ॥
जो तिल देख जाइ जरि सोई । बएँ दिस्टि काहु जिनि होई ॥
जानहुँ भँवर पदुम पर टूटा । जीउ दीन्ह औ दिए न छूटा ॥
देखत तिल नैनन्ह गा गाडी । और न सूझै सो तिल छाँडी ॥
तेहि पर अलक मनि-जरि ड़ोला । छुबै सो नागिनि सुरंग कपोला ॥

रच्छा करै मयूर वह, नाँघि न हिय पर लोट ।
गहिरे जग को छुइ सकै, दुई पहार के ओट ॥14॥

(पुहुप पंक=फूल का कीचड़ या पराग, कै करा=के रूप,
के समान, बाएँ दिस्टि...होई= किसी की बाईं ओर न
जाय क्योंकि
वहाँ तिल है, गा गाडी=गड़ गया, दुइ पहार=कुच)

गीउ मयूर केरि जस ठाढ़ी । कुंदै फेरि कुंदेरै काढ़ी ॥
धनि वह गीउ का बरनौं करा । बाँक तुरंग जनहुँ गहि परा ॥
घिरिन परेवा गीउ उठावा । चहै बोल तमचूर सुनावा ॥
गीउ सुराही कै अस भई । अमिय पियाला कारन नई ॥
पुनि तेहि ठाँव परी तिनि रेखा । तेइ सोइ ठाँव होइ जो देखा ॥
सुरुज-किरिनि हुँत गिउ निरमली । देखे बेगि जाति हिय चली ॥
कंचन तार सोह गिउ भरा । साजि कँवल तेहि ऊपर धरा ॥

नागिनि चढ़ी कँवल पर, चढ़ि कै बैठ कमंठ ।
कर पसार जो काल कहँ, सो लागै ओहि कंठ ॥15॥

(कुंदै=खराद पर, कुँदेरै=कुँदेरे ने, करा=कला,शोभा, घिरिन
परेवा=गिरह बाज कबूतर, तमचूर=मुर्गा, तेइ सोइ ठाँव...देखा=
जो उसे देखता है वह उसी जगह ठक रह जाता है, जाति
हिय चली=हृदय में बस जाती है, नागिनि=केश, कमंठ=
कछुए के समान पीठ या खोपड़ी)

कनक दंड भुज बनी कलाई । डाँडी-कँवल फेरि जनु लाई ॥
चंदन खाँभहि भुजा सँवारी । जानहुँ मेलि कँवल-पौनारी ॥
तेहि डाँडी सँग कवँल-हथोरी । एक कँवल कै दूनौ जोरी ॥
सहजहि जानहु मेँहदी रची । मुकुताहल लीन्हें जनु घुँघची ॥
कर-पल्लव जो हथोरिन्ह साथा । वै सब रकत भरे तेहि हाथा ॥
देखत हिया काढ़ि जनु लेई । हिया काढ़ि कै जाई न देई ॥
कनक-अँगूठी औ नग जरी । वह हत्यारिन नखतन्ह भरी ॥

जैसी भुजा कलाई, तेहि बिधि जाइ न भाखि ।
कंकन हाथ होइ जहँ, तहँ दरपन का साखि? ॥16॥

(डाँडी कँवल ....लाई=कमलनाल उलटकर रखा हो,
कर-पल्लव=उँगली, साखि=साक्षी, कंगन हाथ...साखि=
हाथ कंगन को आरसी क्या?)

हिया थार, कुच कनक-कचोरा । जानहुँ दुवौ सिरीफल-जोरा ॥
एक पाट वै दूनौ राजा । साम छत्र दूनहुँ सिर छाजा ॥
जानहुँ दोउ लटु एक साथा । जग भा लटू,चढ़ै नहिं हाथा ॥
पातर पेट आहि जनु पूरी । पान अधार, फूल अस फूरी ॥
रोमावली ऊपर लटु घूमा । जानहु दोउ साम औ रूमा ॥
अलक भुअंगिनि तेहि पर लोटा । हिय -घर एक खेल दुइ गोटा ॥
बान पगार उठे कुच दोऊ । नाँघि सरन्ह उन्ह पाव न कोऊ ॥

कैसहु नवहिं न नाए, जोबन गरब उठान ।
जो पहिले कर लावै, सो पाछे रति मान ॥17॥

(कचोरा=कटोरा, पाट=सिंहासन, साम छत्र=कुच का
श्याम अग्रभाग, लट्टू=लट्टू, फूरी=फूली, साम=शाम
(सीरिया) का मुल्क जो अरब के उत्तर है, घर=
खाना,कोठा, गोटा=गोटी, पगार=प्राकार या परकोटे पर)

भृंग-लंक जनु माँझ न लागा । दुइ खंड-नलिन माँझ जनु तागा ॥
जब फिरि चली देख मैं पाछे । अछरी इंद्रलोक जनु काछे ॥
जबहिं चली मन भा पछिताऊ । अबहूँ दिस्टि लागि ओहि ठाऊ ।
अछरी लाजि छपीं गति ओही । भईं अलोप, न परगट होहीं ॥
हंस लजाइ मानसर खेले । हस्ती लाजि धूरि सिर मेले ॥
जगत बहुत तिय देखी महूँ । उदय अस्त अस नारि न कहूँ ॥
महिमंडल तौ ऐसि न कोई । ब्रह्मंडल जौ होइ तो होई ॥

बरनेउँ नारि, जहाँ लगि, दिस्टि झरोखे आइ ।
और जो अही अदिस्ट धनि, सो किछु बरनि न जाइ ।18॥

(देख=देखा, खेले=चले गए, ब्रह्मँडल=स्वर्ग)

का धनि कहौं जैसि सुकुमारा । फूल के छुए होइ बेकरारा ॥
पखुरी काढहि फूलन सेंती । सोई डासहिं सौंर सपेती ॥
फूल समूचै रहै जौ पावा । व्याकुल होइ नींद नहिं आवा ॥
सहै न खीर, खाँड औ घीऊ । पान-अधार रहै तन जीऊ ॥
नस पानन्ह कै काढहि हेरी । अधर न गड़ै फाँस ओहि केरी ॥
मकरि क तार तेहि कर चीरू । सो पहिरे छिरि जाइ सरीरू ॥
पालग पावँ, क आछै पाटा । नेत बिछाव चलै जौ बाटा ॥

घालि नैन ओहि राखिय, पल नहिं कीजिय ओट ।
पेम का लुबुधा पाव ओहि, काह सो बड का छोट ॥19॥

(बेकरारा=बेचैन, डासहिं=बिछाती हैं, सौंर=चादर, फाँस=कड़ा तंतु,
मकरि क तार=मकड़ी के जाले सा महीन, छिरि जाइ=छिल जाता
है, पालँग पाँव...पाटा=पैर या तो पलंग पर रहते हैं या सिंहासन
पर, नेत=रेशमी कपड़े की चादर,नेत्र)

जौ राघव धनि बरनि सुनाई । सुना साह, गइ मुरछा आई ॥
जनु मूरति वह परगट भई । दरस देखाइ माहिं छपि गई ॥
जो जो मंदिर पदमिनि लेखी । सुना जौ कँवल कुमुद अस देखी ॥
होइ मालति धनि चित्त पईठी । और पुहुप कोउ आव न दीठी ॥
मन होइ भँवर भएउ बैरागा । कँवल छाँडि चित और न लागा ॥
चाँद के रंग सुरुज जस राता । और नखत सो पूछ न बाता ॥
तब कह अलाउदीं जग-सूरू । लेउँ नारि चितउर कै चूरू ॥

जौ वह पदमिनि मानसर, अलि न मलिन होइ जात ।
चितउर महँ जो पदमिनी फेरि उहै कहु बात ॥20॥

(माहिं=भीतर हृदय के, जो जो मंदिर...देखी=अपने घर की जिन
जिन स्त्रियों को पद्मिनी समझ रखा था वे पद्मिनी (कँवल) का
वृत्तांत सुनने पर कुमुदिनी के समान लगने लगीं, चूरू कै=
तोड़कर, मलिन=हतोत्साह)

ए जगसूर! कहौं तुम्ह पाहाँ । और पाँच नग चितउर माहाँ ॥
एक हंस है पंखि अमोला । मोती चुनै, पदारथ बोला ॥
दूसर नग जौ अमृत-बसा । सो विष हरै नाग कर डसा ॥
तीसर पाहन परस पखाना ।लोह छुए होइ कंचन-बाना ॥
चौथ अहै सादूर अहेरी । जो बन हस्ति धरै सब घेरी ॥
पाँचव नग सो तहाँ लागना । राजपंखि पेखा गरजना ॥
हरिन रोझ कोइ भागि न बाँचा । देखत उड़ै सचान होइ नाचा ॥

नग अमोल अस पाँचौ भेंट समुद ओहि दीन्ह ।
इसकंदर जो न पावा सो सायर धँसि लीन्ह ॥21॥

(पदारथ=बहुत उत्तम बोल, परस पखाना=पारस पत्थर,
सादूर=शार्दूल,सिंह, लागना=लगनेवाला,शिकार करनेवाला,
गरजन=गरजनेवाला, रोझ=नीलगाय, सचान=बाज, सायर=
समुद्र)

पान दीन्ह राघव पहिरावा । दस गज हस्ति घोड़ सो पावा ॥
औ दूसर कंकन कै जोरी । रतन लाग ओहि बत्तिस कोरी ॥
लाख दिनार देवाई जेंवा । दारिद हरा समुद कै सेवा ॥
हौ जेहि दिवस पदमिनी पावौं । तोहि राघव चितउर बैठावौं ॥
पहिले करि पाँचौं नग मूठी । सो नग लेउँ जो कनक-अँगूठी ॥
सरजा बीर पुरुष बरियारू । ताजन नाग, सिंघ असवारू ॥
दीन्ह पत्र लिखि, बेगि चलावा । चितउर-गढ़ राजा पहँ आवा ॥

राजै पत्र बँचावा, लिखी जो करा अनेग ।
सिंगल कै जो पदमिनी, पठै देहु तेहि बेग ॥22॥

(जेंवा=दक्षिणा में, ताजन नाग=नाग का कोड़ा,
करा=कला से,चतुराई से)

42. बादशाह-चढ़ाई-खंड

सुनि अस लिखा उठा जरि राजा । जानौ दैउ तड़पि घन गाजा॥
का मोहिं सिंघ देखावसि आई । कहौं तौ सारदूल धरि खाई ॥
भलेहिं साह पुहुमीपति भारी । माँग न कोउ पुरुष कै नारी ॥
जो सो चक्कवै ताकहँ राजू । मँदिर एक कहँ आपन साजू ॥
अछरी जहाँ इंद्र पै आवै । और न सुनै न देखै पावै ॥
कंस राज जीता जौ कोपी । कान्ह न दीन्ह काहु कहँ गोपी ॥
को मोहिं तें अस सूर अपारा । चढ़ै सरग, खसि परै पतारा ॥

का तोहिं जीउ मराबौं सकत आन के दोस?
जो नहिं बुझै समुद्र-जल सो बुझाइ कित ओस?॥1॥

(दैउ=(दैव) आकाश में, मँदिर एक कहँ...साजू=घर बचाने भर
को मेरे पास भी सामान है, पै=ही कोपी=कोप करके, सकत=
भरसक, दोस=दोष)

राजा! अस न होहु रिस-राता । सुनु होइ जूड़, न जरि कहु बाता ॥
मैं हौं इहाँ मरै कहँ आवा । बादशाह अस जानि पठावा ॥
जो तोहि भार, न औरहि लेना । पूछहि कालि उतर है देना ॥
बादशाह कहँ ऐस न बोलू । चढ़ै तौ परै जगत महँ डोलू ॥
सूरहि चढ़त न लागहि बारा । तपै आगि जेहि सरग पतारा ॥
परबत उडहिं सूर के फूँके । यह गढ़ छार होइ एक झूँके ॥
धँसै सुमेरु, समुद गा पाटा । पुहुमी डोल, सेस-फन फाटा ॥

तासौं कौन लड़ाई? बैठहु चितउर खास ।
ऊपर लेहु चँदेरी, का पदमिनि एक दास?॥2॥

(राता =लाल, जो तोहि भार ...लेना=तेरी जवाबदेही तेरे
ऊपर है, डोलू=हलचल, बारा=देर, जेहि=जिसकी)

जौ पै घरनि जाइ घर केरी । का चितउर, का राज चँदेरी ॥
जिउ न लेइ घर कारन कोई । सो घर देइ जो जोगी होई ॥
हौं रनथँभउर-नाह हमीरू । कलपि माथ जेइ दीन्ह सरीरू ॥
हौं सो रतननसेन सक-बंधी । राहु बेधि जीता सैरंधी ॥
हनुवँत सरिस भार जेइ काँधा । राघव सरिस समुद जो बाँधा ॥
बिक्रम सरिस कीन्ह जेइ साका । सिंघलदीप लीन्ह जौ ताका ॥
जौ अस लिखा भएउँ नहिं ओछा । जियत सिंघ कै गह को मोछा?॥

दरब लेई तौ मानौं, सेव करौं गहि पाउ ।
चाहै जौ सो पदमिनी सिंघलदीपहि जाउ ॥3॥

( घरनि=गृहिणी,स्त्री, जिउ न लेइ=चाहे जी ही न ले ले,
हमीरू=रणथंभौर का राजा हमीर, सक-बंधी=साका
चलानेवाला, सैरंधी=सैरंध्री,द्रौपदी, राहु=रोहू मछली,
जाउ=जावै)

बोलु न, राजा! आपु जनाई । लीन्ह देवगिरि और छिताई ॥
सातौ दीप राज सिर नावहिं । औ सँग चली पदमिनी आवहिं ॥
जेहि कै सेव करै संसारा । सिंघलदीप लेत कित बारा?॥
जिनि जानसि यह गढ़ तोहि पाहीं । ताकर सबै, तोर किछु नाहीं ॥
जेहि दिन आइ गढ़ी कहँ छेकिहि । सरबस लेइ, हाथ को टेकिहि?॥
सीस न छाँडै खेह के लागे । सो सिर छार होइ पुनि आगे ॥
सेवा करु जौ जियन तोहि, भाई । नाहिं त फेरि माँख होइ जाई ॥

जाकर जीवन दीन्ह तेहि अगमन सीस जोहारि ।
ते करनी सब जानै, काह पुरुष का नारि ॥4॥

(आपु जनाई=अपने को बहुत बड़ा प्रकट करके, छिताई=
कोई स्त्री, सीस न छाँडै...लागे=धुल पड़ जाने से सिर न
कटा,छोटी सी बात के लिये प्राण न दे, माख=क्रोध,नाराजगी)

तुरुक! जाइ कहु मरै न धाई । होइहि इसकंदर कै नाई ॥
सुनि अमृत कदलीबन धावा । हाथ न चढ़ा, रहा पछितावा ।
औ तेहि दीप पतँग होइ परा । अगिनि-पहार पाँव देइ जरा ॥
धरती लोह, सरग भा ताँबा । जीउ दीन्ह पहुँचत कर लाँबा ॥
यह चितउरगढ़ सोइ पहारू । सूर उठै तब होइ अँगारू ॥
जौ पै इसकंदर सरि लीन्हीं । समुद लेहु धँसि जस वै लीन्ही ॥
जो छरि आनै जाइ छिताई । तेहि छर औ डर होइ मिताई ॥
महूँ समुझि अस अगमन सजि राखा गढ़ साजु ।
काल्हि होइ जेहि आवन सो चलि आवै आजु ॥5॥

(कै नाई=की सी दशा, धरती लोह...ताँबा=उस आग के
पहाड़ की धरती लोहे के समान दृढ़ है और उसकी आँच
से आकाश ताम्रवर्ण हो जाता है, जौ पै इसकंदर....कीन्ही=
जो तुमने सिकंदर की बराबरी की है तो, छर और डर=
छल और भय दिखाने से)

सरजा पलटि साह पहँ आवा । देव न मानै बहुत मनावा ॥
आगि जो जरै आगि पै सूझा । जरत रहै, न बुझाए बूझा ॥
ऐसे माथ न टावै देवा । चढ़ै सुलेमाँ मानै सेवा ॥
सुनि कै अस राता सुलतानू । जैसे तपै जेठ कर कर भानू ॥
सहसौ करा रोष अस भरा । जेहि दिसि देखै तेइ दिसि जरा ॥
हिंदू देव काह बर खाँचा? सरगहु अब न सूर सौं बाँचा ॥
एहि जग आगि जो भरि मुख लीन्हा । सो सँग आगि दुहुँ जग कीन्हा ॥

रनथंभउर जस जरि बुझा चितउर परै सो आगि ।
फेरि बुझाए ना बुझै, एक दिवस जौ लागि ॥6॥

(देव=राजा;राक्षस, सुलेमाँ=यहूदियों का बादशाह सुलेमान
जिसने देवों और परियों को जीतकर वश में कर लिया था,
बर खाँचा=क्या हठ दिखाता है, रनथँभउर=रण-थंभौर का
प्रसिद्ध वीर हमीर अलाउद्दीन से लड़कर मारा गया था)

लिखा पत्र चारिहु दिसि धाए । जावत उमरा बेगि बोलाए ॥
दुंद-घाव भा, इंद्र सकाना । डोला मेरु, सेस अकुलाना ॥
धरती डोलि, कमठ खरभरा । मथन-अरंभ समुद महँ परा ॥
साह बजाइ कढ़ा, जग जाना । तीस कोस भा पहिल पयाना ॥
चितउर सौंह बारिगह तानी । जहँ लगि सुना कूच सुलतानी ॥
उठि सरवान गगन लगि छाए । जानहु राते मेघ देखाए ॥
जो जहँ तहँ सूता जागा । आइ जोहार कटक सब लागा ॥
हस्ति घोड़ औ दर पुरुष जावत बेसरा ऊँट ।

जहँ तहँ लीन्ह पलानै, कटक सरह अस छूट ॥
चले पंथ बेसर सुलतानी । तीख तुरंग बाँक कनकानी ॥7॥

(दुंद घाव=डंके पर चोट, सकाना=डरा, अरंभ=शोर,
बारिगाह=बारगाह,दरबार, बारिगह तानी=दरबार बढ़ा,
सरवान=झंडा या तंबू, सूता=सोया हुआ, दर=दल,
सेना, बेसरा=खच्चर, वलाने लीन्ह=घोड़े कसे,
सरह=शलभ,टिड्डी)

कारे, कुमइत, लील, सुपेते । खिंग कुरंग, बोज दुर केते ॥
अबलक, अरबी-लखी सिराजी । चौघर चाल, समँद भल, ताजी ॥
किरमिज, नुकरा, जरदे, भले । रूपकरान, बोलसर, चले ॥
पँचकल्यान, सँजाब, बखाने । महि सायर सब चुनि चुनि आने ॥
मुशकी औ हिरमिजी, एराकी । तुरकी कहे भोथार बुलाकी ॥
बिखरी चले जो पाँतिहि पाँती । बरन बरन औ भाँतिहि भाँती ॥

सिर औ पूँछ उठाए चहुँ दिसि साँस ओनाहि ।
रोष भरे जस बाउर पवन-तुरास उढाहिं ॥8॥

(कनकानी=एक प्रकार के घोड़े जो गदहे से कुछ ही
बड़े और बड़े कदमबाज होते हैं, कुमइत=कुमैत,
खिंग=सफेद घोड़ा,जिसके मुँह पर का पट्टा और
चारों सुम गुलाबीपन लिए हों, कुरंग=कुलंग,
लखी=लाखी, सिराजी=शीराज के, चौघर=सरपट
या पोइयाँ चाल, किरमिज=किरमिजी रंग के,
तुरास=बेग)

लोहसार हस्ती पहिराए । मेघ साम जनु गरजत आए ॥
मेघहि चाहि अधिक वै कारे । भएउ असूझ देखि अँधियारे ॥
जसि भादौं निसि आवै दीठी । सरग जाइ हिरकी तिन्ह पीठी ॥
सवा लाख हस्ती जब चाला । परवत सहित सबै जग हाला ॥
चले गयंद माति मद आवहिं । भागहिं हस्ती गंध जौ पावहिं ॥
ऊपर जाइ गगन सिर धँसा । औ धरती तर कहँ धसमसा ॥
भा भुइँचाल चलत जग जानी । जहँ पग धरहि उठै तहँ पानी ॥

चलत हस्त जग काँपा, चाँपा सेस पतार ।
कमठ जो धरती लेइ रहा, बैठि गएउ गजभार ॥9॥

(लोहसार=फौलाद, अँधियारा=काले, हिरकी=लगी,सटी, तिन्ह=उनकी,
हस्ती=दिग्गज, तर कहँ=नीचे को, उठै तहँ पानी=गड्ढा हो जाता है
और नीचे से पानी निकल पड़ता है)

चले जो उमरा मीर बखाने । का बरनौं जस उन्ह कर बाने ॥
खुरासान औ चला हरेऊ । गौर बँगाला रहा न केऊ ॥
रहा न रूम-शाम-सुलतानू । कासमीर, ठट्ठा मुलतानू ॥
जावत बड बड तुरुक कै जाती । माँडौबाले औ गुजराती ॥
पटना, उड़ीसा के सब चले । लेइ गज हस्ति जहाँ लगि भले ॥
कवँरु, कामता औ पिंडवाए । देवगिरि लेइ उदयगिरि आए ॥
चला परबती लेइ कुमाऊँ । खसिया मगर जहाँ लगि नाऊँ ॥

उदय अस्त लहि देस जो को जानै तिन्ह नाँव?॥
सातौ दीप नवौ खंड जुरे आई एक ठाँव ॥10॥

(बाने=वेश,सजावट, हरेऊ=हरेव, `हरउअती' सरस्वती, प्राचीन पारसी
हरह्वेती या अरगंदाब नदी के आसपास का प्रदेश, जो हिंदूकुश के
दक्षिण-पश्चिम पड़ता है, गौर=गौड; वंग देश की राजधानी, शाम=
अरब के उत्तर शाम का मुल्क, कामता,पिंडवा=कोई प्रदेश, मगर
अराकान=जहाँ मग नाम की जाति रहती है)

धनि सुलतान जेहिक संसारा । उहै कटक अस जोरै पारा ॥
सबै तुरुक-सिरताज बखाने । तबल बाज औ बाँधे बाने ॥
लाखन मार बहादुर जंगी । जँबुर, कमानै तीर खदंगी ॥
जीभा खोलि रअग सौं मढ़े । लेजिम घालि एराकिन्ह चड़ै ॥
चमकहिं पाखर सार-सँवारी । दरपन चाहि अधिक उजियारी ॥
बरन बरन औ पाँतिहि पाँती । चली सो सेना भाँतिहि भाँती ॥
बेहर बेहर सब कै बोली । बिधि यह खानि कहाँ दहुँ खोली?॥

सात सात जोजन कर एक दिन होइ पयान ।
अगिलहि जहाँ पयान होइ पछिलहि तहाँ मिलान ॥11॥

(जँबुर=जंबूर,एक प्रकार की तोप जो ऊँटों पर चलती थी, कमान=
तोप, खदंगी=खदंग,बाण, जीभा=जीभ, लजिम=एक प्रकार की कमान
जिसमें डोरी के स्थान पर लोहे का सीकड़ लगा रहता है और जिससे
एक प्रकार की कसरत करते हैं, एराकिन्ह=एराक देश के घोड़ों पर,
पाखर=लड़ाई की झूल, सार=लोहा, बहर-बहर=अलग-अलग)

डोले गढ़, गढ़पति सब काँपै । जीउ न पेट;हाथ हिय चाँपै ॥
काँपा रनथँभउर गढ़ डोला । नरवर गएउ झुराइ, न बोला ॥
जूनागढ़ औ चंपानेरी । काँपा माडौं लेइ चँदेरी ॥
गढ़ गुवालियर परी मथानी । औ अँधियार मथा भा पानी ॥
कालिंजर महँ परा भगाना । भागेउ जयगढ़, रहा न थाना ॥
काँपा बाँधव, नरवर राना । डर रोहतास बिजयगिरि माना ॥
काँप उदयगिरि, देवगिरि डरा । तब सो छपाइ आपु कहँ धरा ॥

जावत गढ़ औ गढ़पति सब काँपै जस पात ।
का कहँ बोलि सौहँ भा बादसाह कर छात?॥12॥

(माँडौं लेई=माँडौंगढ़ से लेकर, मथानी परी=हलचल मचा,
अँधियार=अँधियार और खटोला=दक्षिण के दो स्थान,
पात=पत्ता, बोलि=चढ़ाई बोलकर, छात=छत्र)

चितउरगढ़ औ कुंभलनेरै । साजै दूनौ जैस सुमेरै ॥
दूतन्ह आइ कहा जहँ राजा । चढ़ा तुरुक आवै दर साजा ॥
सुनि राजा दौराई पाती । हिंदू-नावँ जहाँ लगि जाती ॥
चितउर हिंदुन कर अस्थाना । सत्रु तुरुक हठी कीन्ह पयाना ॥
आव समुद्र रहै नहिं बाँधा । मैं होई मेड भार सिर काँधा ॥
पुरवहु साथ, तुम्हारि बड़ाई । नाहिँ त सत को पार छँड़ाई ॥
जौ लहि मेड, रहै सुखसाखा । टूटे बारि जौइ नहिं राखा ॥

सती जौ जिउ महँ सत धरै, जरै न छाँडै साथ ।
जहँ बीरा तहँ चून है पान, सोपारी, काथ ॥13॥

(जैस सुमेरै=जैसे सुमेरु ही हैं, दर=दल, पाती=पत्री,चिट्ठी,
मेडै=बाँध, बाँधा=ऊपर लिया, नाहिं त सत...छँडाई=नहीं
तो हमारा सत्य (प्रतिज्ञा) कौन छुड़ा सकता है, अर्थात्
मैं अकेले ही अड़ा रहूँगा, टूटे=बाँध टूटने पर, बारि=बारी,
बगीचा)

करत जो राय साह कै सेवा । तिन्ह कहँ आइ सुनाव परेवा ॥
सब होइ एकमते जो सिधारे । बादसाह कहँ आइ जोहारे ॥
है चितउर हिंदुन्ह कै माता । गाढ़ परे तजि जाइ न नाता ॥
रतनसेन तहँ जौहर साजा । हिंदुन्ह माँझ आहि बड़ राजा ॥
हिंदुन्ह केर पतँग कै लेखा । दौरि परहिं अगिनी जहँ देखा ॥
कृपा करहु चित बाँधहु धीरा । नातरू हमहिं देह हँसि बीरा ॥
पुनि हम जाइ मरहिं ओहि ठाऊँ । मेटि न जाइ लाज सौं नाऊँ ॥

दीन्ह साह हँसि बीरा, और तीन दिन बीच ।
तिन्ह सीतल को राखै, जिनहिं अगिनि महँ मीच? ॥14॥

(राय=राजा, परेवा=चिड़ियाँ,यहाँ दूत, जौहर=लड़ाई के समय
की चिता जो गढ़ में उस समय तैयार की जाती थी जब
राजपूत बड़े भारी शत्रु से लड़ने निकलते थे और जिसमें हार
का समाचार पाते ही सब स्त्रियाँ कूद पड़ती थीं, पतँग कै
लेखा=पतंगों का सा हाल है, बीरा देहु=बिदा करो कि हम
वहाँ जाकर राजा की ओर से लड़ें)

रतनसेन चितउर महँ साजा । आइ बजार बैठ सब राजा ॥
तोवँर बैस, पवाँर सो आए । औ गहलौत आइ सिर नाए ॥
पत्ती औ पँचवान, बघेले । अगरपार, चौहान, चँदेले ॥
गहरवार, परिहार जो कुरे । औ कलहंस जो ठाकुर जुरे ॥
आगे ठाढ़ बजावहिं ढाढी ।पाछे धुजा मरन कै काढी ॥
बाजहिं सिंगी, संख औ तूरा । चंदन खेवरे, भरे सेंदूरा ॥
सजि संग्राम बाँध सब साका । छाँडा जियन, मरन सब ताका ॥

गगन धरति जेइ टेका, तेहि का गरू पहार ।
जौ लहि जिउ काया महँ, परै सो अँगवै भार ॥15॥

(कुरै=कुल, दाढ़ी=बाजा बजानेवाली एक जाति, खेवे=खौर
लगाए हुए, अँगवै=ऊपर लेता है, सहता है)

गढ़ तस सजा जौ चाहै कोई । बरिस बीस लगि खाँग न होई ॥
बाँके चाहि बाँक गढ़ कीन्हा । औ सब कोट चित्र कै लीन्हा ॥
खंड खंड चौखंड सँवारा । धरी विषम गोलन्ह कै मारा ॥
ठाँवहि ठाँव लीन्ह तिन्ह बाँटी । रहा न बीचु जो सँचरे चाँटी ॥
बैठे धानुक कँगुरन कँगुरा । भूमि न आँटी अँगुरन अँगुरा ॥
औ बाँधे गढ़ गज मतवारे । फाटै भूमि होहिं जौ ठारे ॥
बिच बिच बुर्ज बने चहुँ फेरी । बाजहिं तबल, ढोल औ भेरी ॥

भा गढ़ राज सुमेरु जस, सरग छुवै पै चाह ।
समुद न लेखे लावै, गंग सहसमुख काह? ॥16॥

(तस=ऐसा, खाँग=सामान की कमी, बाँके चाहि बाँक=
विकट से विकट, मारा=माला, समूह, बीचु=अंतर,खाली
जगह, सँचरे=चले, चाँटी=चींटी, ठारे=ठाढ़े,खड़े, सहसमुख=
सहस्त्र धारावाली)

बादशाह हठि कीन्ह पयाना । इंद्र भँडार डोल भय माना ॥
नबे लाख असवार जो चढ़ा । जो देखा सो लोहे -मढ़ा ॥
बीस सहस घहराहिं निसाना । गलगंजहिं भेरी असमाना ॥
बैरख ढाल गगन गा छाई । चला कटक धरती न समाई ॥
सहस पाँति गज मत्त चलावा । धँसत अकास, धरत भुइँ आवा ॥
बिरिछि उचारि पेडि सौं लेहीं । मस्तक झारि डारि मुख देहीं ॥
चढ़हिं पहार हिये भय लागू । बनखँड खोह न देखहिं आगू ॥

कोइ काहू न सँभारै, होत आव तस चाँप ।
धरति आपु कहँ काँपै, सरग आपु कहँ काँप ॥17॥

(इंद्र-भँडार=इंद्रलोक, बैरख=बैरक, झंडे, पेडि=पेडी,तना,
आगू=आगे, चाँप=रेलपेल,धक्का)

चलीं कमानै जिन्ह मुख गोला । आवहिं चली, धरति सब डोला ॥
लागे चक्र बज्र के गढ़े । चमकहिं रथ सोने सब मढ़े ॥
तिन्ह पर विषम कमानैं धरीं । साँचे अष्टधातु कै ढरीं ॥
सौ सौ मन वै पीयहिं दारू । लागहिं जहाँ सो टूट पहारू ॥
माती रहहिं रथन्ह पर परी । सत्रुन्ह महँ ते होहिं उठि खरी ॥
जौ लागै संसार न डोलहिं । होइ भुइकंप जीभ जौ खोलहिं ॥
सहस सहस हस्तिन्ह कै पाँती । खींचहि रथ, डोलहिं नहिं माती ॥

नदी नार सब पाटहिं जहाँ धरहि वै पाव ।
ऊँच खाल बन बीहड़ होत बराबर आव ॥18॥

(कमानें=तोपें, चक्र=पहिए, दारू=बारूद;शराब, बषाबर=समतल)

कहौं सिंगार जैसि वै नारी । दारू पियहिं जैसि मतवारी ॥
उठै आगि जौ छाँडहि साँसा । धुआँ जौ लागै जाइ अकासा ॥
कुच गोला दुइ हिरदय लाए । चंचल धुजा रहहिं छिटकाए ॥
रसना लूक रहहिं मुख खोले । लंका जरै सो उनके बोले ॥
अलक जँजीर बहुत गिउ बाँधे । खींचहिं हस्ती, टूटहिं काँधे ॥
बीर सिंगार दोउ एक ठाऊँ । सत्रुसाल गढ़भंजन नाऊँ ॥

तिलक पलीता माथे, दसन बज्र के बान ।
जेहि हेरहिं तेहि मारहिं, चुरकुस करहिं निदान ॥19॥

(कहौं सिंगार...मतवारी=इन पद्यों में तोपों को स्त्री के रूपक
में दिखाया है, तरिवन=ताटंक नाम का कान का गहना, टूटहिं
काँधे=साथियों के कंधे टूट जाते हैं, बीर सिंगार=वीररस, बान=
गोले, हेरहिं=ताकती हैं, चुरकुल=चकनाचूर)

जेहि जेहि पंथ चली वै आवहिं । तहँ तहँ जरै, आगि जनु लावहिं ॥
जरहिं जो परवत लागि अकासा । बनखँड धिकहिं परास के पासा ॥
गैंड गयदँ जरे भए कारे । औ बन-मिरिग रोझ झवँकारे ॥
कोइल, नाग काग औ भँवरा । और जो जरे तिनहिं को सँवरा ॥
जरा समुद्र पानी भा खारा । जमुना साम भई तेहि घारा ॥
धुआँ जाम, अँतरिख भए मेघा । गगन साम भा धुँआ जो ठेघा ॥
सुरुज जरा चाँद औ राहू । धरती जरी, लंक भा दाहू ॥

धरती सरग एक भा, तबहु न आगि बुझाइ ॥
उठे बज्र जरि डुंगवै, धूम रहा जग छाइ ॥20॥

(धिकहिं=तपते हैं, परास के बनखँड=पलाश के लाल फूल जो
दिखाई देते हैं वे मानों वन के तपे हुए अंश हैं, गैंड=गैंडा, रोझ=
नीलगाय, झवँकारे=झाँवरे, ठेवा=ठहरा, रुका, डुंगवै=ड़ूँगर,पहाड़,
उठे बज्र जरि....छाइ=वज्र से (जैसे कि इंद्र के वज्र से) पहाड़
जल उठे)

आवै डोलत सरग पतारा । काँपै धरति, न अँगवै भारा ॥
टूटहिं परबत मेरु पहारा । होइ चकचून उड़हिं तेहि झारा ॥
सत-खँड धरती भइ षटखंडा । ऊपर अष्ट भए बरम्हंडा ॥
इंद्र आइ तिन्ह खंडन्ह छावा । चढ़ि सब कटक घोड़ दौरावा ॥
जेहि पथ चल ऐरावत हाथी । अबहुँ सो डगर गगन महँ आथी ॥
औ जहँ जामि रही वह धूरी । अबहुँ बसै सो हरिचँद-पूरी ॥
गगन छपान खेह तस छाई । सूरुज छपा, रैनि होइ आई ॥

गएउ सिकंदर कजरिबन, तस होइगा अँधियार ।
हाथ पसारे न सूझै, बरै लाग मसियार ॥21॥

(चकचून=चकनाचूर, सत-खँड....षटखंडा=पृथ्वी पर की इतनी
धूल ऊपर उड़कर जा जमी कि पृथ्वी के सात खंड या स्तर के
स्थान पर छः ही खंड रह गए और ऊपर के लोकों के सात के
स्थान पर आठ खंड हो गए, जेहि पथ...आथी=ऊपर जो लोक
बन गए उन पर इंद्र ऐरावत हाथी लेकर चले जिसके चलने
का मार्ग ही आकाशगंगा है, आथी=है, हरिचंद पूरी=वह लोक
जिसमें हरिश्चंद्र गए, मसियार=मशाल)

दिनहिं राति अस परी अचाका । भा रवि अस्त, चंद्र रथ हाँका ॥
मंदिर जगत दीप परगसे । पंथी चलत बसेरै बसे ॥
दिन के पंखि चरत उड़ि भागे । निसिके निसरि चरै सब लागे ॥
कँवल सँकेता, कुमुदिनि फूली । चकवा बिछुरा, चकई भूली ॥
चला कटक-दल ऐस अपूरी । अगिलहि पानी, पछिलहि धूरी ॥
महि उजरी, सायर सब सूखा । वनखँड रहेउ न एकौ रूखा ॥
गिरि पहार सब मिलि गे माटी । हस्ति हेराहिं तहाँ होइ चाँटी ॥

जिन्ह घर खेह हेराने, हेरत फिरत सो खेह ।
अब तौ दिस्ट तब आवै अंजन नैन उरेह ॥22॥

(अचाका=अचानक,एकाएक, सँकेता=संकुचित हुआ, अपूरी=
भरा हुआ, अगिलहि पानी...धूरी=अगली सेना को तो पानी
मिलता है पर पिछली को धूल ही मिलती है, उजरी=उजड़ी,
जिन्ह घर खेह...खेह=जिनके घर धूल में खो गए हैं,अर्थात्
संसार के मायामोह में जिन्हें परलोक नहीं दिखाई पड़ता है,
उरेह=लगाये)

एहि विधि होत पयान सो आवा । आइ साह चितउर नियरावा ॥
राजा राव देख सब चढ़ा । आव कटक सब लोहे-मढ़ा ॥
चहुँ दिसि दिस्टि परा गजजूहा । साम-घटा मेघन्ह अस रूहा ॥
अध ऊरध किछु सूझ न आना । सरगलोक घुम्मरहिं निशाना ॥
चढ़ि धौराहर देखहि रानी । धनि तुइ अस जाकर सुलतानी ॥
की धनि रतनसेन तुइँ राजा । जा कह तुरुक कटक अस साजा ॥
बेरख ढाल केरि परछाहीं । रैनि होति आवै दिन माहीं ॥

अंध-कूप भा आवै, उड़त आव तस छार ।
ताल तलावा पोखर धूरि भरी जेवनार ॥23॥

(रूहा=चढ़ा, सुलतानी=बादशाहत, की धनि...राजा=या तो राजा
तू धन्य है, बैरख=झंडा, परछाहीं=परछाईं से, जेबनार=लोगों को
रसोई में)

राजै कहा करहु जो करना । भएउ असूझ, सूझ अब मरना ॥
जहँ लगि राज साज सब होऊ । ततखन भएउ सजोउ सँजोऊँ ॥
बाजे तबल अकूत जुझाऊ । चड़ै कोपि सब राजा राऊ ॥
करहिं तुखार पवन सौं रीसा । कंध ऊँच, असवार न दीसा ॥
का बरनौं अस ऊँच तुखारा । दुइ पौरी पहुँचै असवारा ॥
बाँधे मोरछाँह सिर सारहिं । भाँजहि पूछ चँवर जनु ढारहिं ॥
सजे सनाहा, पहुँची, टोपा । लोहसार पहिरे सब ओपा ॥

तैसे चँवर बनाए औ घाले गलझंप ।
बँधे सेत गजगाह तहँ,जो देखै सो कंप ॥24॥

(सँजोऊ=तैयारी, अकूत=एकाएक,सहसा अथवा बहुत से,
जुझाऊ=युद्ध के, तुखार=घोड़ा, रीसा=ईर्ष्या,बराबरी, पौरी=
सीढ़ी के डंडे, मोरछाँह=मोरछल, सनाहा=बकतर, पहुँची=
बचाने का आवरण, ओपा=चमकते हैं, गलझंप=गले की
झूल (लोहे की), गजगाह=हाथी की झूल)

राज-तुरंगम बरनौं काहा? आने छोरि इंद्ररथ-बाहा ॥
ऐस तुरंगम परहिं न दीठी । धनि असवार रहहिं तिन्ह पीठी!॥
जाति बालका समुद थहाए । सेत पूँछ जनु चँवर बनाए ॥
बरन बरन पाखर अति लोने । जानहु चित्र सँवारे सोने ॥
मानिक जड़े सीस औ काँधे । चँवर लाग चौरासी बाँधे ॥
लागे रतन पदारथ हीरा । बाहन दीन्ह, दीन्ह तिन्ह बीरा ॥
चढ़हिं कुँवर मन करहिं उछाहू । आगे घाल गनहिं नहिं काहू ॥

सेंदुर सीस चढ़ाए, चंदन खेवरे देह ।
सो तन कहा लुकाइय अंत होइ जो खेह ॥25॥

(इंद्ररस-बाहा=इंद्र का रथ खींचनेवाले, बालका=घोड़े, पाखर=झूल,
चौरासी=घुघुरुओं का गुच्छा, बाहन दीन्ह....बीरा=जिनको सवारी के
लिये घोड़े दिए उन्हें लड़ाई का बीड़ा भी दिया, घाल गनहिं नहिं=
कुछ नही समझते, सेंदूर=यहाँ रोली समझना चाहिये, खेवरे=खौरे,
खौर लगाए हुए)

गज मैमँत बिखरे रजबारा । दीसहिं जनहुँ मेघ अति कारा ॥
सेत गयंद, पीत औ राते । हरे साम घूमहिं मद माते ॥
चमकहिं दरपन लोहे सारी । जनु परबत पर परी अँबारी ॥
सिरी मेलि पहिराई सूँडैं । देखत कटक पाँय तर रूदैं ॥
सोना मेलि कै दंत सँवारे । गिरिवर टरहिं सो उन्ह के टारे ॥
परबत उलटि भूमि महँ मारहिं । परै जो भीर पत्र अस झारहिं ॥
अस गयंद साजै सिंघली । मोटी कुरुम-पीठि कलमली ॥

ऊपर कनक-मंजुसा लाग चँवर और ढार ।
भलपति बैठे भाल लेइ औ बैठे धनुकार ॥ 26॥

(रजबारा=राजद्वार, दरपन=चार-आईन;बकतर, लोहे सारी=
लोहे की बनी, अँबारी=मंडपदार हौदा, सिरी=माथे का गहना,
रूँदैं=रौंदते हैं, कलमली=खलबलाई, मँजूसा=हौदा, ढार=ढाल,
भलपति=भाला चलानेवाले, धनुकार=धनुष चलाने वाले)

असु-दल गज-दल दूनौ साजे । औ घन तबल जुझाऊ बाजे ॥
माथे मुकुट,छत्र सिर साजा । चढ़ा बजाइ इंद्र अस राजा ॥
आगे रथ सेना सब ठाढ़ी । पाछे धुजा मरन कै काढ़ी ॥
चढ़ा बजाइ चढ़ा जस इंदू । देवलोक गोहने भए हिंदू ॥
वैसे ही राजा रत्नसेन के साथ हिन्दू लोग चले ।
जानहु चाँद नखत लेइ चढ़ा । सूर कै कटक रैनि-मसि मढ़ा ॥
जौ लगि सूर जाइ देखरावा । निकसि चाँद घर बाहर आवा ॥
गगन नखत जस गने न जाहीं । निकसि आए तस धरती माहीं ॥

देखि अनी राजा कै जग होइ गएउ असूझ ।
दहुँ कस होवै चाहै चाँद सूर के जूझ ॥27॥

(असुदल=अश्वदल, देवलोक ...इंद्र=जैसे इंद्र के साथ देवता
चलते हैं, सूर के कटक=बादशाह की फौज, रैनि मसि=रात की
अँधेरी, चाँद=राजा रत्नसेन, नखत=राजा की सेना, अनी=सेना,
होवै चाहै=हुआ चाहता है)

43. राजा-बादशाह-युद्ध-खंड

इहाँ राज अस सेन बनाई । उहाँ साह कै भई अवाई ॥
अगिले दौरे आगे आए । पछिले पाछ कोस दस छाए ॥
साह आइ चितउर गढ़ बाजा । हस्ती सहस बीस सँग साजा ॥
ओनइ आए दूनौ दल साजे । हिंदू तुरक दुवौ रन गाजे ॥
दुवौ समुद दधि उदधि अपारा । दूनौ मेरू खिखिंद पहारा ॥
कोपि जुझार दुवौ दिसि मेले । औ हस्ती हस्ती सहुँ पेले ॥
आँकुस चमकि बीजु अस बाजहिं । गरजहिं हस्ति मेघ जनु गाजहिं ॥

धरती सरग एक भा, जूहहि ऊपर जूह ।
कोई टरै न टारे, दूनौ बज्र-समूह ॥1॥

(बाजा=पहुँचा, गाजे=गरजे, दधि=दधिसमुद्र, उदधि=पानी
का समुद्र, खिखिंद=किष्किंधा पर्वत, सहुँ=सामने, पेले=जोर
से चलाए, जूह=यूथ,दल)

हस्ती सहुँ हस्ती हठि गाजहिं । जनु परबत परबत सौं बाजहिं ॥
गरु गयंद न टारे टरहीं । टूटहिं दाँत, माथ गिरि परही ॥
परबत आइ जो परहिं तराहीं । दर महँ चाँपि खेह मिलि जाहीं ॥
कोइ हस्ती असवारहि लेहीं । सूँड समेटि पायँ तर देहीं ॥
कोइ असवार सिंघ होइ मारहिं । हनि कै मस्तक सूँड उपारहिं ॥
गरब गयंदन्ह गगन पसीजा । रुहिर चूवै धरती सब भीजा ॥
कोइ मैमंत सँभारहिं नाहीं । तब जानहिं जब गुद सिर जाहीं ॥

गगन रुहिर जस बरसै धरती बहै मिलाइ ।
सिर धर टूटि बिलाहिं तस पानी पंक बिलाइ ॥2॥

(तराहीं=नीचे, दर=दल, चाँपि=दबकर, गरब=मदजल,
गुद=सिर का गूदा, मिलाइ=धूल मिलाकर)

आठौं बज्र जुझ जस सुना । तेहि तें अधिक भएउ चौगुना ॥
बाजहिं खड़ग उठै दर आगी । भुइँ जरि चहै सरग कहँ लागी ॥
चमकहिं बीजु होइ उजियारा । जेहि सिर परै होइ दुइ फारा ॥
मेघ जो हस्ति हस्ति सहुँ गाजहिं । बीजु जो खड़ग खड़ग सौं बाजहिं ॥
बरसहिं सेल बान होइ काँदो । जस बरसै सावन औ भादों ॥
झपटहिं कोपि, परहिं तरवारी । औ गोला ओला जस भारी ॥
जूझे बीर कहौं कहँ ताईं । लेइ अछरी कैलास सिधाईं ॥

स्वामि-काज जो जूझे, सोइ गए मुख रात ।
जो भागे सत छाँडि कै मसि मुख चढ़ी परात ॥3॥

(आठौं बज्र=आठों वज्रों का, दर=दल में, फारा=फाल,टुकड़ा,
सेल=बरछे, होइ=होता है, काँदो=कीचड़, मुख रात=लाल मुख
लेकर, सुर्खरू होकर, मसि=कालिमा,स्याही, परात=भागते हुए)

भा संग्राम न भा अस काऊ । लोहे दुहुँ दिसि भए अगाऊ ॥
सीस कंध कटि कटि भुइँ परे । रुहिर सलिल होइ सायर भरे ॥
अनँद बधाव करहिं मसखावा । अब भख जनम जनम कहँ पावा ॥
चौंसठ जोगिनि खप्पर पूरा । बिग जंबुक घर बाजहिं तूरा ॥
गिद्ध चील सब माँडो छावहिं । काग कलोल करहिं औ गावहिं ॥
आजु साह हठि अनी बियाही । पाई भुगुति जैसि चित चाही ॥
जेइँ जस माँसू भखा परावा । तस तेहि कर लेइ औरन्ह खावा ॥

काहू साथ न तन गा, सकति मुए सब पोखि ।
ओछ पूर तेहि जानब, जो थिर आवत जोखि ॥4॥

(काऊ=कभी, लोहे=हथियार, अगाऊ=आगे,सामने, तूरा=तुरही,
माँडो=मंडप, अनी सेना, सकति=शक्ति भर,भरसक, पोखि=
पोषण करके, ओछ=ओछा,नीच, पूर=पूरा, जोखि आवति=
विचारता आता है, जो थिर आवत जोखि=जो ऐसे शरीर
को स्थिर समझता आता है)

चाँद न टरै सूर सौं कोपा । दूसर छत्र सौंह कै रोपा ॥
सुना साह अस भएउ समूहा । पेले सब हस्तिन्ह के जूहा ॥
आज चाँद तोर करौं निपातू । रहै न जग महँ दूसर छातू ॥
सहस करा होइ किरिन पसारा । छेंका चाँद जहाँ लगि तारा ॥
दर-लोहा दरपन भा आवा । घट घट जानहु भानु देखावा ॥
अस क्रोधित कुठार लेइ धाए । अगिनि-पहर जरत जनु आए ॥
खडंग-बीजु सब तुरुक उठाए । ओडन चाँद काल कर पाए ॥

जगमग अनी देखि कै धाइ दिस्टि तेहि लागि ।
छुए होइ जो लोहा माँझ आव तेहि आगि ॥5॥

(चाँद=राजा, सूर बादशाह, समूहा=शत्रुसेना की भीड़,
छातू=छत्र, दर लोहा=सेना के चमकते हुए हथियार,
ओडन=ढाल,रोकने की वस्तु, ओडन चाँद....पाए=
चंद्रमा के बचाव के लिये समय-विशेष (रात्रि) मिला
जब सूर्य सामने नहीं आता, जगमग=झलझलाती
हुई, जगमग ....लागि=राजा ने गढ़ पर से बादशाह
की चमकती हुई सेना को देखा, छुए....आगि=यदि
लोहा सूर्य के सामने होने से तप जाता है तो जो
उसे छुए रहता है उसके शरीर में भी गरमी आ
जाती है, अर्थात् सूर्य के समान शाह की सेना का
प्रकाश देख शस्त्रधारी राजा को जोश चढ़ आया)

सूरुज देखि चाँद मन लाजा । बिगसा कँवल, कुमुद भा राजा ॥
भलेहि चाँद बड़ होइ दिसि पाई। दिन दिनअर सहुँ कौन बड़ाई?॥
अहे जो नखत चंद सँग तपे । सूर के दिस्टि गगन महँ छपे ॥
कै चिंता राजा मन बूझा । जो होइ सरग न धरती जूझा ॥
गढ़पति उतरि लड़ै नहिं धाए । हाथ परै गढ़ हाथ पराए ॥
गढ़पति इंद्र गगन-गढ़ गाजा । दिवस न निसर रैनि कर राजा ॥
चंद रैनि रह नखतन्ह माँझा । सुरुज के सौंह न होइ, चहै साँझा ॥

देखा चंद भोर भा सूरुज के बड़ भाग ।
चाँद फिरा भा गढ़पति, सूर गगन-गढ़ लाग ॥6॥

(कँवल=बादशाह, कुमुद=कुमुद के समान संकुचित,
दिन...बड़ाई=दिन में सूर्य के सामने उसकी क्या
बड़ाई है? तपे=प्रतापयुक्त थे, जो होइ सरग..
झूझा=जो स्वर्ग (ऊँचे गढ़) पर हो वह नीचे
उतरकर युद्ध नहीं करता, हाथ परै गढ़=लूट हो
जाय गढ़ में, भा गढ़पति=किले में हो गया,
सूर्य के सामने नहीं आया)

कटक असूझ अलाउदिं-साही । आवत कोइ न सँभारै ताही ॥
उदधि-समुद जस लहरैं देखी । नयन देख, मुख जाइ न लेखी ॥
केते तजा चितउर कै घाटी । केते बजावत मिलि गए माटी ॥
केतेन्ह नितहिं देइ नव साजा । कबहुँ न साज घटै तस राजा ॥
लाख जाहिं आवहिं दुइ लाखा । फरै झरै उपनै नव साखा ॥
जो आवै गढ़ लागै सोई । थिर होइ रहै न पावै कोई ॥
उमरा मीर रहे जहँ ताईं । सबहीं बाँटि अलंगैं पाईं ॥

लाग कटक चारिहु दिसि, गढ़हि परा अगिदाहु ।
सुरुज गहन भा चाहै, चाँदहि जस राहु ॥7॥

(उदधि समुद्र=पानी का समुद्र, केतेन्ह...साजा=न जाने
कितनों को नए नए सामान देता है, तस राजा=ऐसा
बड़ा राजा वह अलाउद्दीन है, अलंगै=बाजू,सेना का
एक एक पक्ष, अगिदाह=अग्निदाह, सुरुज गहन ....
राहु=सूर्य (बादशाह)- चंद्रमा (राजा) के लिए
ग्रहण-रूप हुआ चाहता है, वह चंद्रमा (राजा) के
लिये राहु-रूपहो गया है)

अथवा दिवस, सूर भा बसा । परी रैनि, ससि उवा अकसा ॥
चाँद छत्र देइ बैठा आई । चहुँ दिसि नखत दीन्ह छिटकाई ॥
नखत अकासहि चढ़े दिपाहीं । टुटि टुटि लूक परहिं, न बुझाहीं ॥
परहिं सिला जस परै बजागी । पाहन पाहन सौं उठ आगी ॥
गोला परहिं, कोल्हु ढरकाहीं । चूर करत चारिउ दिसि जाहीं
ओनई घटा बरस झरि लाई । ओला टपकहिं, परहिं बिछाई ॥
तुरुक न मुख फेरहिं गढ़ लागे । एक मरै, दूसर होइ आगे ॥

परहिं बान राजा के, सकै को सनमुख काढ़ि ।
ओनई सेन साह कै रही भोर लगि ठाढ़ि ॥8॥

(भा बासा=अपने डेरे में टिकान हुआ, नखत=राजा के सामंत
और सैनिक, लूक=अग्नि के समान बाण, उठ=उठती है, कोल्हु=
कोल्हू, ढरकाहीं=लुढ़काए जाते हैं, सकै को.....काढ़ि=उन बाणों
के सामने सेना को कौन आगे निकाल सकता है)

भएउ बिहानु, भानु पुनि चढ़ा । सहसहु करा दिवस बिधि गढ़ा ॥
भा धावा गढ़ कीन्ह गरेरा । कोपा कटक लाग चहुँ फेरा ॥
बान करोर एक मुख छूटहिं । बाजहिं जहाँ फोंक लगि फूटहिं ॥
नखत गगन जस देखहिं घने । तस गढ़-कोटन्ह बानन्ह हने ॥
बान बेधि साही कै राखा । गढ़ भा गरुड़ फुलावा पाँखा ॥
ओहि रँग केरि कठिन है बाता । तौ पै कहै होइ मुख राता ॥
पीठि न देहिं घाव के लागे । पैग पैग भुइँ चाँपहिं आगे ॥

चारि पहर दिन जूझ भा, गढ़ न टूट तस बाँक ।
गरुअ होत पै आवै दिन दिन नाकहि नाक ॥9॥

(गरेरा=घेरा, एक मुख=एक ओर, बाजहिं=पड़ते हैं, फोंक=तीर
का पिछला छोर जिसमें पर लगे रहते हैं, बाजहिं जहाँ ...फूटहि=
जहाँ पड़ते है पिछले छोर तक फट जाते हैं, ऐसे जोर से वे
चलाए जाते हैं, रँग=रण-रंग, नाक=नाका, मुख्य-स्थान)

छेंका कोट जोर अस कीन्हा । घुसि कै सरग सुरँग तिन्ह दीन्हा ॥
गरगज बाँधि कमानैं धरीं । बज्र-आगि मुख दारू भरीं ॥
हबसी रूमी और फिरंगी । बड़ बड़ गुनी और तिन्ह संगी ॥
जिन्हके गोट कोट पर जाहीं । जेहि ताकहिं चूकहिं तेहि नाहीं ॥
अस्ट धातु के गोला छूटहिं । गिरहिं पहार चून होइ फूटहिं ॥
एक बार सब छूटहिं गोला । गरजै गगन, धरति सब डोला ॥
फूटहिं कोट फूट जनु सीसा । ओदरहिं बुरुज जाहिं सब पीसा ॥

लंका-रावट जस भई, दाह परी गढ़ सोइ ।
रावन लिखा जरै कहँ, कहहु अजर किमि होइ ॥10॥

(सुरँग=सुरंग, जमीन के नीचे खोदकर बनाया हुआ मार्ग,
गरगज=परकोटे का वह बुर्ज जिसपर तोप चढ़ाई जाती है,
कमानैं=तोपें, दारू=बारूद, फिरंगी=पुर्त-गाली भारत में सबसे
पहले आए पुर्तगालियों के लिये प्रयुक्त हुआ) गोट=गोले,
ओदरहिं=ढह जाते हैं, रावट=महल, अजर=जो न जले)

राजगीर लागै गढ़ थवई । फूटै जहाँ सँवारहिं सबई ॥
बाँके पर सुठि बाँक करेहीं । रातिहि कोट चित्र कै लेहीं ॥
गाजहिं गगन चढ़ा जस मेघा । बरिसहिं बज्र, सीस को ठेला? ॥
सौ सौ मन के बरसहिं गोला । बरसहिं तुपक तीर जस ओला ॥
जानहुँ परहिं सरग हुत गाजा । फाटे धरति आइ जहँ राजा ॥
गरगज चूर चूर होइ परहीं । हस्ति घोर मानुष संघरहीं ॥
सबै कहा अब परलै आई । धरती सरग जूझ जनु लाई ॥

आठौ बज्र जुरे सब एक डुंगवै लागि ।
जगत जरै चारिउ दिसि, कैसैहि बुझै न आगि ॥11॥

(थवई=मकान बनानेवाले, चित्र=ठीक,दुरुस्त, तुपक=बंदूक,
बाजा=पड़ते हैं, धरती सरग=आकाश और पृथ्वी के बीच,
डुंगवा=टीला)

तबहूँ राजा हिये न हारा । राज-पौरि पर रचा अखारा ॥
सोह साह कै बैठक जहाँ । समुहें नाच करावै तहाँ ॥
जंत्र पखाउज औ जत बाजा । सुर मादर रबाब भल साजा ॥
बीना बेनु कमाइच गहे । बाजे अमृत तहँ गहगहे ॥
चंग उपंग नाद सुर तूरा । महुअर बंसि बाज भरपूरा ॥
हुडक बाज, डफ बाज गँभीरा । औ बाजहिं बहु झाँझ मजीरा ॥
तंत बितंत सुभर घनतारा । बाजहिं सबद होइ झनकारा ॥

जग-सिंगार मनमोहन पातुर नाचहिं पाँच ।
बादसाह गढ़ छेंका, राजा भूला नाच ॥12॥

(समुहें=सामने, मादर=मर्दल,एक प्रकार का ढोल, रबाब=
एक बाजा, कमाइच=सारंगी बजाने की कमान, उपंग=एक
बाजा, तूरा=तूर, तुरही, महुअर=सूखी तुमड़ी का बना बाजा
जिसे प्रायः सँपेरे बजाते हैं, हुडुक=डमरू की तरह का बाजा
जिसे प्रायः कहार बजाते हैं, तंत=तंत्री, घनतार=बड़ा झाँझ)

बीजानगर केर सब गुनी । करहिं अलाप जैस नहिं सुनी ॥
छवौ राग गाए सँग तारा । सगरी कटक सुनै झनकारा ॥
प्रथम राग भैरव तिन्ह कीन्हा । दूसर मालकोस पुनि लीन्हा ॥
पुनि हिंडोल राग भल गाए । मेघ मलार मेघ बरिसाए ॥
पाँचवँ सिरी राग भल किया । छठवाँ दीपक बरि उठ दिया ॥
ऊपर भए सो पातुर नाचहिं । तर भए तुरुक कमानैं खाँचहिं ॥
गढ़ माथे होइ उमरा झुमरा । तर भए देख मीर औ उमरा ॥

सुनि सुनि सीस धुनहिं सब, कर मलि मलि पछिताहिं ।
कब हम माथ चढ़हिं ओहि नैनन्ह के दुख जाहिं ॥13 ॥

(ऊपर भए; तर भए=ऊपर से; नीचे से, गढ़ माथे=किले
के सिरे पर, उमरा झुमरा=झूमर,नाच)

छवौ राग गावहिं पातुरनी । औ पुनि छत्तीसौ रागिनी ॥
औ कल्यान कान्हरा होई । राग बिहाग केदारा सोई ॥
परभाती होइ उठै बेगाला । आसावरी राग गुनमाला ॥
धनासिरी औ सूहा कीन्हा । भएउ बिलावल, मारू लीन्हा ॥
रामकली, नट, गौरी गाई । धुनि खममाच सो राग सुनाई ॥
साम गूजरी पुनि भल भाई । सारँग औ बिभास मुँह आई ॥
पुरबी, सिंधी, देस, बरारी । टोडी गोंड सौं भई निरारी ॥

सबै राग औ रागिनी सुरै अलापहि ऊँच ।
तहाँ तीर कहँ पहुँचै दिस्टि जहाँ न पहूँच?॥14॥

(पहूँच=पहुँचती है)

जहवाँ सौंह साह कै दीठी । पातुरि फिरत दीन्हि तहँ पीठी ॥
देखत साह सिंघासन गूँजा । कब लगि मिरिग चाँद तोहि भूजा ॥
छाँडहिं बान जाहिं उपराही । का तैं गरब करसि इतराही? ॥
बोलत बान लाख भए ऊँचे । कोइ कोट, कोइ पौरि पहूँचे ॥
जहाँगीर कनउज कर राजा । ओहि क बान पातुरि के लागा ॥
बाजा बान, जाँघ तस नाचा । जिउ गा सरग, परा भुइँ साँचा ॥
उडसा नाच, नचनिया मारा । रहसे तुरुक बजाइ कै तारा ॥

जो गढ़ साजै लाख दस, कोटि उठावै कोटि ।
बादशाह जब चाहै छपै न कौनिउ ओट ॥15॥

(फिरत=फिरते हुए, सिंघासन=सिंहासन पर=गूँजा=गरजा,
मिरिग=मृग अर्थात् मृगनयनी, भूजा=भोग करेगा, भए
ऊँचे=ऊपर की ओर चलाए गए, साँचा=शरीर, उडसा=
भंग हो गया, तारा=ताल, ताली)

राजै पौरि अकास चढ़ाई । परा बाँध चहुँ फेर लगाई ॥
सेतुबंध जस राघव बाँधा । परा फेर, भुइँ भार न काँधा ॥
हनुवँत होइ सब लाग गोहारू । चहुँ दिसि ढोइ ढोइ कीन्ह पहारू ॥
सेत फटिक अस लागै गढ़ा । बाँध उठाइ चहूँ गढ़ मढ़ा ॥
खँड खँड ऊपर होइ पटाऊ । चुत्र अनेक, अनेक कटाऊ ॥
सीढ़ी होति जाहिं बहु भाँती । जहाँ चढ़ै हस्तिन कै पाँती ॥
भा गरगज कस कहत न आवा । जनहुँ उठाइ गगन लेइ आवा ॥

राहु लाग जस चाँदहिं तस गढ़ लागा बाँध ।
सरब आगि अस बरि रहा, ठाँव जाइ को काँध ॥16॥

(अकास चढ़ाई=और ऊँचे पर बनवाई, चहुँ फेर लगाई=चारों
ओर लगाकर, मढ़ा=घेरा, पटाऊ=पटाव, गगन लेइ=आकाश तक,
को काँध=उस जगह जाने का भार कौन ऊपर ले सकता है?)

राजसभा सब मतै बईठी । दखि न जाइ, मूँदि गइ दीठी ॥
उठा बाँध, चहुँ दिसि गढ़ बाँधा । कीजै बेगि भार जस काँधा ॥
उपजै आगि आगि जस बोई । अब मत कोई आन नहिं होई ॥
भा तेवहार जौ चाँचरि जोरी । खेलि फाग अब लाइय होरी ॥
समदि फाग मेलिय सिर धूरी । कीन्ह जो साका चाहिय पूरी ॥
चंदन अगर मलयगिरि काढा । घर घर कीन्ह सरा रचि ठाढा ॥
जौहर कहँ साजा रनिवासू । जिन्ह सत हिये कहाँ तिन्ह आँसू?॥

पुरुषन्ह खड़ग सँभारे, चंदन खेवरे देह ।
मेहरिन्ह सेंदुर मेला, चहहिं भई जरि खेह ॥17॥

(मतै=सलाह करने के लिये, कीजै बेगि...काँधा=जैसा भारी
युद्ध आपने लिया है उसी के अनुसार कीजिए,यही सलाह
सबने दी, समदि=एक दूसरे से अंतिम बिदा लेकर, साका
कीन्ह=कीर्ति स्थापित की है, चाहिय पूरी=पूरी होनी चाहिए,
सरा=चिता, जौहर=गढ़ घिर जाने पर जब राजपूत गढ़ की
रक्षा नहीं देखते थे तब स्त्रियाँ शत्रु के हाथ में न पड़ने
पाएँ इसके लिये पहले ही से चिता तैयार रखते थे,(जब
गढ़ से निकलकर पुरुष लड़ाई में काम आ जाते थे तब
स्त्रियाँ चट चिता में कूद पड़ती थी, यही जौहर कहलाता
था) खेवरे=कौर लगाई, मेहरिन्ह=स्त्रियों, खेह=राख)

आठ बरिस गढ़ छेंका रहा । धनि सुलतान कि राजा महा ॥
आइ साह अँबराव जो लाए । फरे झरे पै गढ़ नहिं पाए ॥
जौ तोरौं तौ जौहर होई । पदमिनि हाथ चढ़ै नहिं सोई ॥
एहि बिधि ढील दीन्ह, तब ताईं । दिल्ली तै अरदासै आईं ॥
पछिउँ हरेव दीन्हि जो पीठी । सो अब चढ़ा सौंह कै दीठी ॥
जिन्ह भुइँ माथ गगन तेइ लागा । थाने उठे, आव सब भागा ॥
उहाँ साह चितउरगढ़ छावा । इहाँ देस अब होइ परावा ॥

जिन्ह जिन्ह पंथ न तृन परत, बाढ़े बेर बबूर ।
निसि अँधियारी जाइ तब बेगि उठै जौ सूर ॥18॥

(आइ साह अँवराव...पाए=बादशाह ने आकर जो आम के पेड़
लगाए वे बड़े हुए,फलकर झड़ भी गए पर गढ़ नहीं टूटा, जो
तोरौं=बादशाह कहता है कि यदि गढ़ को तोड़ता हूँ तो,
अरदासैं=अर्जदाश्त,प्रार्थनापत्र, हरेव=हेरात प्रदेश का पुराना
नाम, थान उठे=बादशाह की जो स्थान स्थान पर चौकियाँ
थी वह उठ गईं, जिन्ह....बबूर=जिन जिन रास्तों में घास
भी उगकर बाधक नहीं हो सकती थी उनमें बादशाह के
रहने से बेर और बबूल उग आए हैं)

44. राजा-बादशाह-मेल-खंड

सुना साह अरदासै पढ़ीं । चिंता आन आनि चित चढ़ी ॥
तौ अगमन मन चीतै कोई । जौ आपन चीता किछु होई ॥
मन झूठा, जिउ हाथ पराए । चिंता एक हिये दुइ ठाएँ ॥
गढ़ सौं अरुझि जाइ तब छूटै । होइ मेराव, कि सो गढ़ टूटै ॥
पाहन कर रिपु पाहन हीरा । बेधौं रतन पान देइ बीरा ॥
सुरजा सेंति कहा यह भेऊ । पलटि जाहु अब मान हु सेऊ ॥
कहु तोहि सौं पदमिनि नहिं लेऊँ । चूरा कीन्ह छाँडि गढ़ देऊँ ॥

आपन देस खाहु सब औ चंदेरी लेहु ।
समुद जो समदन कीन्ह तोहि ते पाँचौ नग देहु ॥1॥

(चीते=सोचे,विचारे, चिंता एक...ठाएँ=एकहृदय में दौ ओर
की चिंता लगी, गढ़ सौं...टूटै=बादशाह सोचता है कि गढ़
लेने में जब उलझ गए हैं तब उससे तभी छूट सकते हैं
जब या तो मेल हो जाय या गढ़ टूटे, पाहन कर
रिपु....हीरा=हीरे पत्थर का शत्रु हीरा पत्थर ही होता
है अर्थात् हीरा हीरे से ही कटता है, पान देइ बीरा=
ऊपर से मेल करके, मानहु सेऊ=आज्ञा मानो, चूरा
कीन्ह=एक प्रकार से तोड़ा हुआ गढ़, खाहु=भोग
करो, समदन कीन्ह=बिदा के समय भेंट में दिए थे)

सुरजा पलटि सिंघ चढ़ि गाजा । अज्ञा जाइ कही जहँ राजा ॥
अबहूँ हिये समुझु रे, राजा । बादसाह सौ जूझ न छाजा ॥
जेहि कै देहरी पृथिवी सेई । चहै तौ मारै औ जिउ लेई ॥
पिंजर माहँ ओहि कीन्ह परेवा । गढ़पति सोइ बाँच कै सेवा ॥
जौ लगि जीभ अहै मुख तोरे । सँवरि उघेलु बिनय कर जोरे ॥
पुनि जौ जीभ पकरि जिउ लेई । को खोले, को बोले देई?॥
आगे जस हमीर मैमंता । जौ तस करसि तोरे भा अंता ॥

देखु! काल्हि गड़ टूटै, राज ओहि कर होइ ।
करु सेवा सिर नाइ कै, घर न घालु बुधि खोइ ॥2॥

(उघेलु=निकाल, हमीर=रनथंभौर का राजा,हमीरदेव जो
अलाउद्दीन से लड़कर मारा गया था, तस=वैसा, घर न
घालु=अपना घर न बिगाड़)

सरजा! जौ हमीर अस ताका । और निवाहि बाँधि गा साका ॥
हौं सक- बंधी ओहि अस नाहीं । हौं सो भोज विक्रम उपराहीं ॥
बरिस साठ लगि साँठि न काँगा । पानि पहार चुवै बिनु माँगा ॥
तेहि ऊपर जौ पै गढ़ टूटा । सत सकबंधी केर न छूटा ॥
सोरह लाख कुँवर हैं मोरे । परहिं पतँग जस दीप- अँजोरे ॥
जेहि दिन चाँचरि चाहौं जोरी । समदौं फागु लाइ कै होरी ॥
जौ निसि बीच, डरै नहिं कोई । देखु तौ काल्हि काह दहुँ होई ॥

अबहिं जौहर साजि कै कीन्ह चहौं उजियार ।
होरी खेलौं रन कठिन, कोइ समेटै छार ॥3॥

(ताका=ऐसा बिचारा, साँठि=सामान, काँगा कम होगा,
समदौं=बिदा के समय का मिलना मिलूँ, जो निसि
बीच....दहुँ होई=(सरजा ने जो कहा था कि `देखु
काल्हि गढ़ टूटै ' इसके उत्तर में राजा कहता है
कि) एक रात बीच में पड़ती है (अभी रात भर
का समय है) तो कोई डर की बात नहीं; देख
तो कल क्या होता है?)

अनु राजा सो जरै निआना । बादसाह कै सेव न माना ॥
बहुतन्ह अस गढ़ कीन्ह सजवना । अंत भई लंका जस रवना ॥
जेहि दिन वह छेंकै गढ़ घाटी । होइ अन्न ओही दिन माटी ॥
तू जानसि जल चुवै पहारू । सो रोवै मन सँवरि सँघारू ॥
सूतहि सूत सँवरि गढ़ रोवा । कस होइहि जौ होइहि ढोवा ॥
सँवरि पहार सो ढारै आँसू । पै तोहि सूझ न आपन नासू ॥
आजु काल्हि चाहै गढ़ टूटा । अबहुँ मानु जौ चाहसि छूटा ॥

हैं जो पाँच नग तो पहँ लेइ पाँचो कहँ भेंट ॥
मकु सो एक गुन मानै, सब ऐगुन धरि मेट ॥4॥

(अनु=फिर, सजवना=तैयारी, रवना=रावण, अन्न माटी होइ=
खाना पीना हराम हो जायगा, सँघारू=संहार, नाश, ढोवा=लूट,
मकु सो एक गुन....मेट=शायद)

वह तुम्हारे इस एक ही गुण से सब अवगुणों को भूल जाय ।
अनु सरजा को मेटै पारा । बादसाह बड़ अहै तुम्हारा ॥
ऐगुन मेटि सकै पुनि सोई । औ जो कीन्ह चहै सो होई ॥
नग पाँचौ देइ देउँ भँडारा । इसकंदर सौं बाँचै दारा ॥
जौ यह बचन त माथे मोरे । सेवा करौं ठाढ़ कर जोरे ॥
पै बिनु सपथ न अस मन माना । सपथ बोल बाचा-परवानाँ ॥
खंभ जो गरुअ लीन्ह जग भारू । तेहि क बोल नहिं टरै पहारू ॥
नाव जो माँझ भार हुँत गीवा । सरजै कहा मंद वह जीवा ॥

सरजै सपथ कीन्ह छल बैनहि मीठै मीठ ।
राजा कर मन माना, माना तुरत बसीठ ॥5॥

(को भेट पारा=इस बात को कौन मिटा सकता है कि,
भँडारा=भंडार से, जो यह बचन=जो बादशाह का इतना
ही कहना है तो मेरे सिर मत्थे पर से, बाचा-परवाँना=
बचन का प्रमाण है, नाव जो माँझ...गीवा=जो किसी
बात का बोझ अपने ऊपर लेकर बीचमें गरदन हटाता
है, छल=छल से, बसीठ माना=सुलह का सँदेस मान लिया)

हंस कनक पींजर-हुँत आना । औ अमृत नग परस-पखाना ॥
औ सोनहार सोन के डाँडी । सारदूल रूपे के काँडी ॥
सो बसीठ सरजा लेइ आवा । बादसाह कहँ आनि मेरावा ॥
ए जगसूर भूमि-उजियारे । बिनती करहिं काग मसि-कारे ॥
बड़ परताप तोर जग तपा । नवौ खंड तोहि को नहिं छपा?॥
कोह छोह दूनौ तोहि पाहाँ । मारसि धूप, जियावसि छाहाँ ॥
जो मन सूर चाँद सौं रूसा । गहन गरासा, परा मँजूसा ॥

भोर होइ जौ लागै उठहिं रोर कै काग ।
मसि छूटै सब रैनि कै, कागहि केर अभाग ॥6॥

(सोनहार=समुद्र का पक्षी, काँडी=पिंजरा? बिनती करहिं
काग मसि कारे=हे सूर्य! कौए बिनती करते हैं कि उनकी
कालिमा ( दोष,अवगुण) दूर कर दे अर्थात् राजा के दोष
क्षमा कर, कोह=क्रोध, छोह=दया, अनुग्रह, धूप=धूप से,
छाहाँ=छाँह में,अपनी छाया में, परा मँजूसा=झाबे में
पड़ गया अर्थात् घिर गया, कागहि केर अभाग=कौए
का ही अभाग्य है कि उसकी कालिमा न छूटी)

करि बिनती अज्ञा अस पाई । "कागहु कै मसि आपुहि लाई ॥
पहिलेहि धनुष नवै जब लागै । काग न टिकै, देखि सर भागै ॥
अबहूँ ते सर सौंहैं होहीं । देखैं धनुक चलहिं फिरि त्योंहीं ॥
तिन्ह कागन्ह कै कौन बसीठी । जो मुख फेरि चलहिं देइ पीठी ॥
जो सर सौंह होहिं संग्रामा । कित बग होहिं सेत वै सामा?॥
करै न आपन ऊजर केसा । फिरि फिरि कहै परार सँदेसा ॥
काग नाग ए दूनौ बाँके । अपने चलत साम वै आँके ॥

"कैसेहु जाइ न मेटा भएउ साम तिन्ह अंग ।
सहस बार जौ धोवा तबहुँ न गा वह रंग ॥7॥

(कागहु कै मसि...लाई=कौवै की स्याही तुम्हीं ने लगा ली है
(छल करके) वे कौए नहीं हैं, पहिलेहि...भागै=जो कौवा होता
है वह ज्योंही धनुष खींचा जाता है भाग जाता है, अबहूँ..
होहों=वे तो अब भी यदि उनके सामने बाण किया जाय
तो तुरंत लड़ने के लिये फिर पड़ेंगे, धनुक=युद्ध के लिये
चढ़ी कमान, टेढ़ापन, कुटिलता, सर=शर,तीर, ताल=
सरोवर, जो सर....सामा=जो लड़ाई में तीर के सामने
आते हैं वे श्वेत बगले काले कैसे हो सकते हैं? करै
न आपन....सँदेसा=तू अपने को शुद्ध और उज्ज्वल
नहीं करता, केवल कौवों की तरह इधर का उधर
सँदेसा कहता है (कवि लोग नायिकाओं का कौए
से सँदेशा कहना वर्णन करते हैं), अपने चलत...
आँके=वे एक बात पर दृढ़ रहते हैं और सदा वही
कालिमा ही प्रकट करते हैं पर तू अपने को और
का और प्रकट करके छल करता है)

"अब सेवा जो आइ जोहारे । अबहूँ देखु सेत की कारे ॥
कहौं जाइ जौ साँच, न डरना । जहवाँ सरन नाहिं तहँ मरना ॥
काल्हि आव गढ़ ऊपर भानू । जो रे धनुक, सौंह होइ बानू"
पान बसीठ मया करि पावा । लीन्ह पान, राजा पहँ आवा ॥
जस हम भेंट कीन्ह गा कोहू । सेवा माँझ प्रीति औ छोहू ॥
काल्हि साह गढ़ देखै आव । सेवा करहु जेस मन भावा ॥
गुन सौं चलै जो बोहित बोझा । जहँवाँ धनुक बान तहँ सोझा ॥

भा आयसु अस राजघर, बेगि दै करहु रसोइ ।
ऐस सुरस रस मेरवहु जेहि सौं प्रीति-रस होइ ॥8॥

(अब सेवा...जोहारे=उन्होंने मेल कर लिया है, तू अब भी देख
सकता है कि श्वेत हैं या काले अर्थात् वे छल नहीं करेंगे, जो
रे धनुक ..बानू=जो अब वह किले में मेरे जाने पर किसी
प्रकार की कुटिलता करेगा तो उसके सामने फिर बाण
होगा (धनुष टेढ़ा होता है और बाण सीधा), गुन=गून,
रस्सी, जहँवा धनुक ....सोझा=जहाँ कुटिलता हुई कि
सामने सीधा बाण तैयार है)

45. बादशाह -भोज- खंड

छागर मेढ़ा बड़ औ छोटे । धरि धरि आने जहँ लगि मोटे ॥
हरिन, रोझ, लगना बन बसे । चीतर गोइन, झाँख औ ससै ॥
तीतर, बटई, लवा न बाँचे । सारस, कूज, पुछार जो नाचे ॥
धरे परेवा पंडूक हेरी । खेहा, गुडरू और बगेरी ॥
हारिल, चरग, चाह बँदि परे । बन-कुक्कुट, जल-कुक्कुट धरे ॥
चकई चकवा और पिदारे । नकटा, लेदी, सोन सलारे ॥
मोट बड़े सो टोइ टोइ धरे । ऊबर दूबर खुरुक न, चरे ॥

कंठ परी जब छूरी रकत ढुरा होइ आँसु ।
कित आपन तन पोखा भखा परावा माँसु?॥1॥

(रोझ=नीलगाय, लगना=एक वनमृग, चीतर=चित्रमृग, गोइन=कोई
मृग, झाँख=एक प्रकार का बड़ा जंगली हिरन; जैसे - ठाढ़े ढिग बाघ,
बिग, चिते चितवत झाँख मृग शाखा मृग सब रीझि रीझि रहे हैं,
ससे=खरहे, पुछार=मोर, खेहा=केहा, बटेर की तरह की एक चिड़िया,
जुडरू=कोई पक्षी, बगेरी=भरद्वाज,भरुही, चरग=बाज की जाति की
एक चिड़िया, चाह=चाहा नामक जलपक्षी, पिदारे=पिद्दे, नकटा=एक
छोटी चिड़िया सोन, सलारे=कोई पक्षी, खुरुक=खटका)

धरे माछ पढिना औ रोहू । धीमर मारत करै न छोहू ॥
सिधरी, सौरि, धरी जल गाढे । टेंगर टोइ टोइ सब काढे ॥
सींगी भाकुर बिनि सब धरी । पथरी बहुत बाँब बनगरी ॥
मारे चरख औ चाल्ह पियासी । जल तजि कहाँ जाहिं जलबासी?॥
मन होइ मीन चरा सुख-चारा । परा जाल को दुख निरुवारा?॥
माँटी खाय मच्छ नहिं बाँचे । बाँचहि काह भोग-सुख-राँचे?॥
मारै कहँ सब अस कै पाले । को उबार तेहि सरवर-घाले?॥

एहि दुख काँटहि सारि कै रकत न राखा देह ।
पंथ भुलाइ आइ जल बाझे झूठे जगत सनेह ॥2॥

(पढिना=पाठीन मछली, पहिना, रोहू, सिधरी, सौरी टेंगरा,
सींगी, भाकुर, पथरी, बनगरी, चरख, पियासी=मछलियों
के नाम, बाँब=बाम मछली जो देखने में साँप कि तरह
लगती है, चाल्ह=चेल्हवा मछली, निरुवारा=छुड़ाए, राँचे=
अनुरक्त,लिप्त, तेहि सरवर-घाले=उस सरोवर में पड़े हुए
को कौन बचा सकता है,(जीवपक्ष में संसार-सागर में पड़े
हुए का कौन उद्धार कर सकता है, एहि दुख...देह=इसी
दुख से तो मछली ने शरीर में काँटे लगाकर,रक्त नहीं रखा)

देखत गोहूँ कर हिय फाटा । आने तहाँ होव जहँ आटा ॥
तब पीसे जब पहिले धोए । कपरछानि माँडे, भल पोए ॥
चढ़ी कराही, पाकहिं पूरी । मुख महँ परत होहि सो चूरी ॥
जानहुँ तपत सेत औ उजरी । नैनू चाहि अधिक वै कोंवरी ॥
मुख मेलत खन जाहिं बिलाई । सहस सवाद सो पाव जो खाई ॥
लुचुई पोइ पोइ घिउ-मेई । पाछे छानि खाँड-रस मेई ॥
पूरि सोहारी कर घिउ चूआ । छुअत, डरन्ह को छूआ? ॥

कही न जाहिं मिठाई, कहत मीठ सुठि बात ।
खात अघात न कोई, हियरा जात सेरात ॥3॥

(तपत=जलती हुई,गरम गरम, नैनू=नवनीत,मक्खन,
कोंवरी=कोमल, घिउ मेई=घी का मोयन दी हुई, कहत
म मीठ ...बात=उनके नाम लेने से मुँह मीठा हो जाता है)

चढ़े जो चाउर बरनि न जाहीं । बरन बरन सब सुगँध बसाहीं ॥
रायभोग औ काजर-रानी । झिनवा, रुदवा, दाउदखानी ॥
बासमती, कजरी, रतनारी । मधुकर, ढेला, झीनासारी ॥
घिउकाँदौ औ कुँवरबिलासू । रामबास आवै अति बासू ॥
लौंगचूर लाची अति बाँके । सोनखरीका कपुरा पाके ॥
कोरहन,बडहन, जडहन मिला । औ संसारतिलक खँडविला ॥
धनिया देवल और अजाना । कहँ लगि बरनौं जावत धाना ॥

सोंधे सहस बरन, अस सुगंध बासना छूटि ।
मधुकर पुहुप जो बन रहे आइ परे सब टूटि ॥4॥

(काजर-रानी=रानी काजल नाम का चावल, रायभोग,झिनवा,
रुदवा,दाउदखानी,बासमती,कजरी,मधुकर,ढेला,झीनासारी,घिउकाँदो,
कुँवर-बिलास,रामबास,लवँगचूर,लाची,सोनखरिका,कपूरी,संसारतिलक,
खँडविला,धनिया,देवल=चावलों के नाम, पुहुप=फूलों पर)

निरमल माँसु अनूप बघारा । तेहि के अव बरनौं परकारा ॥
कटुवा, बटुवा मिला सुबासू । सीझा अनबन भाँति गरासू ॥
बहुतै सोंधे घिउ महँ तरे । कस्तूरी केसर सौं भरे ॥
सेंधा लोन परा सब हाँडी । काटी कंदमूर कै आँडी ॥
सोआ सौंफ उतारे घना । तिन्ह तें अधिक आव बासना ॥
पानि उतारहिं ताकहिं ताका । घीउ परेह माहिं सब पाका ॥
औ लीन्हें माँसुन्ह के खंडा । लागे चुरै सो बड़ बड़ हंडा ॥

छागर बहुत समूची धरी सरागन्ह भूँजि ।
जो अस जेंवन जेंवै उठै सींघ अस गूँजि ॥5॥

(कटुवा=खंड खंड कटा हुआ, बटुआ=सिल पर बटा या पिसा हुआ,
अनबन=विविध,अनेक, गरासू=ग्रास, कौर, तरे=तले हुए, आँडी=अंठी,
गाँठ, ताकहिं ताका=तवा देखते हैं, परेह=रसा, शोरबा, सरागन्ह=
सिखचों पर,शलाकाओं पर, गूँजि=उठे)

भूँजि समोसा घिउ महँ काढ़े । लौंग मरिच जिन्ह भीतर ठाढ़े ॥
और माँसु जो अनबन बाँटा । भए फर फूल, आम औ भाँटा ॥
नारँग, दारिउँ, तुरँज, जभीरा । औ हिंदवाना, बालम खीरा ॥
कटहर बड़हर तेउ सँवारे । नरियर, दाख, खजूर, छोहारे ॥
औ जावत जो खजहजा होहीं । जो जेहि बरन सवाद सो ओहीं ॥
सिरका भेइ काढ़ि जनु आने । कवँल जो कीन्ह रहे बिगसाने ॥
कीन्ह मसेवरा, सीझि रसोई । जो किछु सबै माँसु सौं होई ॥

बारी आइ पुकारेसि लीन्ह सबै करि छूँछ ।
सब रस लीन्ह रसोई, को अव मोकहँ पूछ ॥6॥

(ठाढ़े=खड़ी,समूची, भए फर...भाँटा=माँस ही अनेक प्रकार के
फल-फूल के रूप में बना है, हिंदवाना=तरबूज,कलींदा, बालम
खीरा=खीरे की एक जाति, खजहजा=खाने के फल, सिरका
भेइ...आने=मानों सिरके में भिगोए हुए फल समूचे लाकर
रखे गए हैं (सिरके में पड़े हुए फल ज्यों के त्यों रहते हैं),
मसेवरा=माँस की बनी चीजें, सीझि=पक्की,सिद्ध हुई, बारी=
काछी या माली, बारी आइ...छूँछ=माली ने पुकार मचाई
कि मेरे यहाँ जो फल-फूल थे वे सब तो मुझे खाली करके
ले लिए अर्थात् वे सब माँस ही के बना लिए गए)

काटे माछ मेलि दधि धोए । औ पखारि बहु बार निचोए ॥
करुए तेल कीन्ह बसवारू । मेथी कर तब दीन्ह बघारू ॥
जुगुति जुगुति सब माँछ बघारे । आम चीरि तिन्ह माँझ उतारे ॥
औ परेह तिन्ह चुटपुट राखा । सो रस सुरस पाव जो चाखा ॥
भाँति भाँति सब खाँडर तरे । अंडा तरि तरि बेहर धरे ॥
घीउ टाँक महँ सोंध सेरावा । लौंग मरिच तेहि ऊपर नावा ॥
कुहुँकुहुँ परा कपूर-बसावा । नख तें बघारि कीन्ह अरदावा ॥

घिरित परेह रहा तस हाथ पहुँच लगि बूड़ ।
बिरिध खाइ नव जोबन सौ तिरिया सौं ऊड़ ॥7॥

(पखारि=धोकर, बसवारू=छौंक, परेह=रसा, खाँडर=कतले,
तरि=तलकर, बेहर=अलग, टाँक=बरतन, कटोरा, सेरावा=ठंढा
किया, नख=एक गंधद्रव्य, अरदावा=कुचला या भुरता, पहुँच
लगि=पहुँचा या कलाई तक, ऊड=विवाह करे या रखे (ऊढ))

भाँति भाँति सीझीं तरकारी । कइउ भाँति कोहँडन कै फारी ॥
बने आनि लौआ परबती । रयता कीन्ह काटि रती रती ॥
चूक लाइ कै रींधे भाँटा । अरुई कहँ भल अरहन बाटा ॥
तोरई, चिचिड़ा, डेंडसी तरी । जीर धुँगार झार सब भरी ॥
परवर कुँदरू भूँजे ठाढ़े । बहुत घिउ महँ चुरमुर काढ़े ॥
करुई काढ़ि करैला काटे । आदी मेलि तरे कै खाटे ॥
रींधे ठाढ़ सेब के फारा । छौंकि साग पुनि सोंध उतारा ॥

सीझीं सब तरकारी भा जेंवन सव ऊँच ।
दहुँ का रुचै साह कहँ, केहि पर दिस्टि पहुँच ॥8॥

(फारी=फाल,टुकड़े, लौआ=घीया, कद्दू, रयता=रायता, रती रती=
महीन महीन, चूक=खटाई, रींधे=पकाए, अरहन=चने की पिसी
दाल जो तरकारी में पकाते समय डाली जाती है रेहन, बाटा=
पीसा, डेंडसी=कुम्हड़े की तरह की एक तरकारी, टिंड,(टिडिस),
तरी=तली, धुँगार=छौंक, चुरमुर=कुरकुरे, करुई काड़ि=कड़वापन
निकालकर (नमक हल्दी के साथ मलकर ), कै खाटै=खट्टे करके,
फारा=फाल,टुकड़े)

घिउ कराह भरि, बेगर धरा । भाँति भाँति के पाकहिं बरा ॥
एक त आदी मरिच सौं पीठा । दूसर दूध खाँड सौ मीठा ॥
भई मुगौछी मरिचैं परी । कीन्ह मुगौरा औ बहु बरी ॥
भईं मेथौरी, सिरका परा । सोंठि नाइ कै जरसा धरा ॥
माठा महि महियाउर नावा । भीज बरा नैनू जनु खावा ॥
खंडै कीन्ह आमचुर परा । लौंग लायची सौं खँडवरा ॥
कढ़ी सँवारी और फुलौरी । औ खँडवानी लाइ बरौरी ॥

रिकवँच कीन्हि नाइ कै, हींग मरिच औ आद ।
एक खंड जौ खाइ तौ पावै सहस सवाद ॥9॥

(बेगर=उर्द या मूँग का रवादार आटा,धुँवाँस, बरा=बड़ा, पीठा=पीसा
गया, मुँगौछी=मूँग का पकवान, मुँगौरा=मूँग की पकौड़ी, मेथौरी=एक
प्रकार की बड़ी, खरसा=एक पकवान, महियाउर=मट्ठे में पका चावल,
नैनू=नवनीत, मक्खन, बरौरी=बढ़ी, रिकवँच=अरुई या कच्चू के पत्ते
पीठी में लपेटकर बनाए हुए बड़े, आद=अदरक)

तहरी पाकि, लौंग औ गरी । परी चिरौंजी औ खरहरी ॥
घिउ महँ भीँजि पकाए पेठा । औ अमृत गुरंब भरे मेटा ॥
चुंबक-लोहँडा औटा खोवा । भा हलुवा घिउ गरत निचोवा ॥
सिखरन सोंध छनाई गाढ़ी । जामी दूध दही कै साढ़ी ॥
दूध दही कै मुरंडा बाँधे । और सँधाने अनबन साधे ॥
भइ जो मिठाई कही न जाई । मुख मेलत खन जाइ बिलाई ॥
मोतीचूर, छाल औ ठोरी । माठ, पिराकैं और बुँदौरी ॥

फेरी पापर भूँजे, भा अनेक परकार ।
भइ जाउरि पछियाउरि; सीझी सब जेवनार ॥10॥

(तहरी=बड़ी और हरी मटर के दानों की खिचड़ी, खरहरी=खरिक,
छुहारा, गुरंब=शीरे में रखे हुए आम, मेटा=मिट्टी के बरतन,मटके,
लोहँडा=लोहे का तसला, मुरंडा=पानी निथार कर पिंडाकार बँधा
दही या छेना, सँधाने=अचार, छाल=एक मिठाई, टोरी=ठौर,
पिराकैं=गोझिया, बुँदोरी=बुँदिया, पछियाउरि=मट्ठे में भिगोई
बुँदिया, सीझी=सिद्ध हुई,पकी)

जत परकार रसोइ बखानी । तत सब भई पानि सौं सानी ॥
पानी मूल, परिख जौ कोई । पानी बिना सवाद न होई ॥
अमृत-पान सह अमृत आना । पानी सौं घट रहै पराना ॥
पानी दूध औ पानी घीऊ । पानि घटे, घट रहै न जीऊ ॥
पानी माँझ समानी जोती । पानिहि उपजै मानिक मोती ॥
पानिहि सौं सब निरमल कला । पानी छुए होइ निरमला ॥
सो पानी मन गरब न करई । सीस नाइ खाले पग धरई ॥

मुहमद नीर गँभीर जो भरे सो मिले समुंद ।
भरै ते भारी होइ रहे, छूँछे बाजहिं दुंद ॥11॥

(जत=जितनी, तत=उतनी, पानी मूल ....कोई=जो कोई विचार
कर देखे तो पानी ही सबका मूल है, अमृत-पान=अमृत पान के
लिये, दुंद=ठक ठक)

  • पद्मावत भाग (6) मलिक मुहम्मद जायसी
  • पद्मावत भाग (4) मलिक मुहम्मद जायसी
  • मुख्य पृष्ठ : काव्य रचनाएँ : मलिक मुहम्मद जायसी
  • मुख्य पृष्ठ : हिन्दी कविता वेबसाइट (hindi-kavita.com)