Mahakavya
महाकाव्य

संस्कृत काव्यशास्त्र में महाकाव्य का सूत्रबद्ध लक्षण आचार्य भामह ने प्रस्तुत किया है और परवर्ती आचार्यों में दंडी, रुद्रट तथा विश्वनाथ ने अपने अपने ढंग से इसका विस्तार किया है। आचार्य विश्वनाथ का लक्षणनिरूपण इस परम्परा में अंतिम होने के कारण सभी पूर्ववर्ती मतों के सारसंकलन के रूप में उपलब्ध है। के अनुसार महाकाव्य के लक्षण इस प्रकार हैं :
जिसमें सर्गों का निबंधन हो वह महाकाव्य कहलाता है। महाकाव्य में देवता या सदृश क्षत्रिय, जिसमें धीरोदात्तत्वादि गुण हों, नायक होता है। कहीं एक वंश के अनेक सत्कुलीन भूप भी नायक होते हैं। शृंगार, वीर और शान्त में से कोई एक रस अंगी होता है तथा अन्य सभी रस अंग रूप होते हैं। उसमें सब नाटकसंधियाँ रहती हैं। कथा ऐतिहासिक अथवा सज्जनाश्रित होती है। चतुर्वर्ग (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) में से एक महाकाव्य का फल होता है। आरम्भ में नमस्कार, आशीर्वाद या वर्ण्यवस्तुनिर्देश होता है। कहीं खलों की निन्दा तथा सज्जनों का गुणकथन होता है। न अत्यल्प और न अतिदीर्घ अष्टाधिक सर्ग होते हैं जिनमें से प्रत्येक की रचना एक ही छन्द में की जाती है और सर्ग के अन्त में छंदपरिवर्तन होता है। कहीं-कहीं एक ही सर्ग में अनेक छंद भी होते हैं। सर्ग के अंत में आगामी कथा की सूचना होनी चाहिए। उसमें संध्या, सूर्य, चंद्रमा, रात्रि, प्रदोष, अंधकार, दिन, प्रातःकाल, मध्याह्न, मृगया, पर्वत, ऋतु, वन, सागर, संयोग, विप्रलम्भ, मुनि, स्वर्ग, नगर, यज्ञ, संग्राम, यात्रा और विवाह आदि का यथासंभव सांगोपांग वर्णन होना चाहिए (आचार्य विश्वनाथ : साहित्यदर्पण, परिच्छेद 6,315-324)।