Parichay Mahakavya

महाकाव्य का परिचय

महाकाव्य

महाकाव्य (Maha kavya) में किसी ऐतिहासिक या पौराणिक महापुरुष की संपूर्ण जीवन कथा का आद्योपांत वर्णन होता है। उदाहरणस्वरूप: पद्मावत, रामचरितमानस, कामायनी, साकेत आदि महाकाव्य हैं। चंदबरदाई कृत पृथ्वीराज रासो को हिंदी का प्रथम महाकाव्य कहा जाता है।

आधुनिक युग में महाकाव्य के प्राचीन प्रतिमानों में परिवर्तन हुआ है। अब इतिहास के स्थान पर मानव-जीवन की कोई भी घटना, कोई भी समस्या, इसका विषय हो सकती है। महान् पुरुष के स्थान पर समाज का कोई भी व्यक्ति इसका नायक हो सकता है। परन्तु उस पात्र में विशेष क्षमताओं का होना अनिवार्य है। हिन्दी के कुछ प्रसिद्ध महाकाव्य के उदाहरण हैं: 'पद्मावत', 'रामचरितमानस', 'साकेत', 'प्रियप्रवास', 'कामायनी', 'उर्वशी', 'लोकायतन' आदि।

परिभाषा एवं अर्थ

महाकाव्य का शाब्दिक अर्थ 'महान काव्य' होता है, अर्थात ऐसा काव्य जिसकी कथावस्तु, नायकत्व, देशकाल एवं वातावरण और भाषा शैली महान हो उसे महान काव्य कहते हैं। सर्वप्रथम आदिकवि वाल्मीकि रचित 'रामायण' में महाकाव्य के लक्षणों को उजागर किया गया है।

अग्निपुराण में महाकाव्य की परिभाषा देते हुए कहा गया है, 'सर्गबन्धो महाकाव्यम्'। अर्थात जिस काव्य में सर्गों का बंधन हो उसे महाकाव्य कहा जाता है।

सर्वप्रथम आचार्य भामह ने 'काव्यालंकार' में महाकाव्य की परिभाषा देते हुए लिखा है, "महाकाव्य सर्गबद्ध होता है, वह महानता का द्योतक होता है, उसमें निर्दोष शब्दार्थ, अलंकार और सद्वस्तु होनी चाहिए; उसमें विचार-विमर्श, दूत, प्रयाण, युद्ध, नायक का अभ्युदय - यह पांच संधियाँ हों। बहुत गूढ़ न हो, उत्कर्षयुक्त हो। चतुर्वर्ग-आदेश होने पर भी प्रधानत: अर्थ उपादिष्ट हो। लोग स्वभाव का वर्णन और सभी रसों का पृथक चित्रण हो। नायक के कुल, बल, शास्त्र-ज्ञान आदि का उत्कर्ष जताकर और किसी के उत्कर्ष के लिए नायक का वध नहीं करना चाहिए।"

आचार्य दंडी ने 'काव्यादर्श' में महाकाव्य की परिभाषा देते हुए लिखा है, "जिसका कथानक इतिहास सम्मत अथवा प्रसिद्ध कथानक हो, जिसका नायक चतुर तथा उदात्त हो, जो विविध अलंकारों तथा रसों से पूर्ण हो, वृहद तथा पंचसंधियों से युक्त हो, उसे महाकाव्य कहते हैं।"

रुद्रट के अनुसार, "महाकाव्य का नायक द्विजकुल-सम्पन्न, सर्वगुण संपन्न, महान, उदात्त, शक्ति-संपन्न, नीतिज्ञ तथा कुशल राजा होना चाहिए। उनके अनुसार यदि महाकाव्य की कथावस्तु उत्पाद्य है तो इस के आरंभ में सन्नगरी-वर्णन, नायक वंश की प्रशंसा तथा उसमें अलौकिक तथा अति प्राकृति तत्वों का समावेश होना चाहिए।" परंतु बाद के आचार्य इनसे सहमत नहीं हैं।

हेमचंद्र के अनुसार महाकाव्य की परिभाषा, "महाकाव्य संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश की प्रायः ग्रामीण भाषा में निबद्ध, विभिन्न सर्गों के अंत में विभिन्न वृतों के प्रयोग, स्कन्द-बद्ध, संधियुक्त तथा शब्दार्थ-वैचित्रय से पूर्ण होता है।"

महाकाव्य के लक्षण एवं स्वरूप

महा काव्य का सूत्रबद्ध लक्षण आचार्य भामह ने काव्यप्रकाश में प्रस्तुत किया है। और परवर्ती आचार्यों में दंडी, रुद्रट तथा विश्वनाथ ने अपने अपने ढंग से इसका विस्तार किया है। आचार्य विश्वनाथ का लक्षण निरूपण इस परम्परा में अंतिम होने के कारण सभी पूर्ववर्ती मतों के सारसंकलन के रूप में उपलब्ध है।

प्राचीन आचार्यों के अनुसार महाकाव्य के लक्षण इस प्रकार हैं-

महाकाव्य में जीवन का चित्रण व्यापक रूप में होता है।

इसकी कथा इतिहास-प्रसिद्ध होती है।

इसका नायक उदात्त और महान् चरित्र वाला होता है।

इसमें वीर, शृंगार तथा शान्तरस में से कोई एक रस प्रधान तथा शेष रस गौण होते हैं।

महाकाव्य सर्गबद्ध होता है, इसमें कम से कम आठ सर्ग होने चाहिए।

महाकाव्य की कथा में धारावाहिकता तथा हृदय को भाव-विभोर करने वाले मार्मिक प्रसंगों का समावेश भी होना चाहिए।

आचार्य विश्वनाथ ने 'साहित्य-दर्पण' में महाकाव्य के लक्षण एवं परिभाषा इस प्रकार दी हैं-

जिसमें सर्गों का निबंधन हो वह महाकाव्य कहलाता है।

महाकाव्य में देवता या सदृश क्षत्रिय, जिसमें धीरोदात्तत्वादि गुण हों, नायक होता है। कहीं एक वंश के अनेक सत्कुलीन भूप भी नायक होते हैं।

महाकाव्य में शृंगार, वीर और शान्त में से कोई एक रस अंगी होता है तथा अन्य सभी रस अंग रूप होते हैं। उसमें सब नाटकसंधियाँ रहती हैं।

महाकाव्य की कथा ऐतिहासिक अथवा सज्जनाश्रित होती है।

चतुर्वर्ग (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) में से एक महाकाव्य का फल होता है।

आरम्भ में नमस्कार, आशीर्वाद या वर्ण्यवस्तुनिर्देश होता है।

महाकाव्य में कहीं खलों की निन्दा तथा सज्जनों का गुणकथन होता है।

महाकाव्य में न अत्यल्प और न अतिदीर्घ अष्टाधिक सर्ग होते हैं जिनमें से प्रत्येक की रचना एक ही छन्द में की जाती है और सर्ग के अन्त में छंदपरिवर्तन होता है।

कहीं-कहीं एक ही सर्ग में अनेक छंद भी होते हैं।

महाकाव्य के सर्ग के अंत में आगामी कथा की सूचना होनी चाहिए।

महाकाव्य में संध्या, सूर्य, चंद्रमा, रात्रि, प्रदोष, अंधकार, दिन, प्रातःकाल, मध्याह्न, मृगया, पर्वत, ऋतु, वन, सागर, संयोग, विप्रलम्भ, मुनि, स्वर्ग, नगर, यज्ञ, संग्राम, यात्रा और विवाह आदि का यथासंभव सांगोपांग वर्णन होना चाहिए।

महाकाव्य के तत्त्व

आचार्य विश्वनाथ का महाकाव्य के स्वरूप की वैज्ञानिक एवं क्रमबद्ध परिभाषा प्रस्तुत करने के स्थान पर, उसकी प्रमुख और गौण विशेषताओं का क्रमहीन विवरण उपस्थित करता है। संस्कृत काव्यशास्त्र में उपलब्ध महाकाव्य के लक्षणों के आधार पर, इसके प्रमुख तत्व निम्न हैं-

1. कथानक- महाकाव्य का कथानक ऐतिहासिक अथवा इतिहासाश्रित होना चाहिए।

2. विस्तार- कथानक का कलेवर जीवन के विविध रूपों एवं वर्णनों से समृद्ध होना चाहिए। ये वर्णन प्राकृतिक, सामाजिक और राजीतिक क्षेत्रों से इस प्रकार संबंद्ध होने चाहिए कि इनके माध्यम से मानव जीवन का पूर्ण चित्र उसके संपूर्ण वैभव, वैचित्र्य एवं विस्तार के साथ उपस्थित हो सके। इसीलिए उसका आयाम (अष्टाधिक सर्गों में) विस्तृत होना चाहिए।

3. विन्यास- कथानक की संघटना नाट्य संधियों के विधान से युक्त होनी चाहिए अर्थात् महाकाव्य के कथानक का विकास क्रमिक होना चाहिए। उसकी आधिकारिक कथा एवं अन्य प्रकरणों का पारस्परिक संबंध उपकार्य-उपकारक-भाव से होना चाहिए तथा इनमें औचित्यपूर्ण पूर्वापर अन्विति रहनी चाहिए।

4. नायक- महाकाव्य का नायक देवता या सदृश क्षत्रिय हो, जिसका चरित्र धीरोदात्त गुणों से समन्वित हो - अर्थात् वह महासत्त्व, अत्यंत गंभीर, क्षमावान् अविकत्थन, स्थिरचरित्र, निगूढ़, अहंकारवान् और दृढ़व्रत होना चाहिए। पात्र भी उसी के अनुरूप विशिष्ट व्यक्ति, राजपुत्र, मुनि आदि होने चाहिए।जिस प्रकार रामायन के नायक श्रि राम है और महाभारत के नायक राधेय कर्ण है|

5. रस- महाकाव्य में शृंगार, वीर, शांत एवं करुण में से किसी एक रस की स्थिति अंगी रूप में तथा अन्य रसों की अंग रूप में होती है।

6. फल- महाकाव्य सद्वृत होता है - अर्थात् उसकी प्रवृत्ति शिव एवं सत्य की ओर होती है और उसका उद्देश्य होता है चतुवर्ग की प्राप्ति।

7. शैली- शैली के संदर्भ में संस्कृत के आचार्यों ने प्राय: अत्यंत स्थूल रूढ़ियों का उल्लेख किया है। उदाहरणार्थ एक ही छंद में सर्ग रचना तथा सर्गांत में छंदपरिवर्तन, अष्टाधिक सर्गों में विभाजन, नामकरण का आधार आदि। परंतु महाकाव्य के अन्य लक्षणों के आलोक में यह स्पष्ट ही है कि महाकाव्य की शैली नानावर्णन क्षमा, विस्तारगर्भा, श्रव्य वृत्तों से अलंकृत, महाप्राण होनी चाहिए। आचार्य भामह ने इस भाषा को सालंकार, अग्राम्य शब्दों से युक्त अर्थात् शिष्ट नागर भाषा कहा है।

महाकाव्य के जिन लक्षणों का निरूपण भारतीय आचार्यों ने किया, शब्दभेद से उन्हीं से मिलती-जुलती विशेषताओं का उल्लेख पश्चिम के आचार्यों ने भी किया है। अरस्तू ने त्रासदी (ट्रेजेडी) से महाकाव्य की तुलना करते हुए कहा है कि 'गीत एवं दृश्यविघान के अतिरिक्त महाकाव्य और त्रासदी, दोनों के अंग भी समान ही हैं।' अर्थात् महाकाव्य के मूल तत्त्व चार हैं -

1. कथावस्तु

2. चरित्र

3. विचारतत्व

4. पदावली (भाषा)

1. कथावस्तु

महाकाव्य की कथावस्तु एक ओर शुद्ध ऐतिहासिक यथार्थ से भिन्न होती है ओर दूसरी ओर सर्वथा काल्पनिक भी नहीं होती। वह प्रख्यात (जातीय दंतकथाओं पर आश्रित) होनी चाहिए और उसमें यथार्थ से भव्यतर जीवन का अंकन होना चाहिए।

महा काव्य का आयाम विस्तृत होना चाहिए जिसके अंतर्गत विविध उपाख्यानों का समावेश हो सके। "उसमें अपनी सीमाओं का विस्तार करने की बड़ी क्षमता होती है" क्योंकि त्रासदी की भांति वह रंगमंच की देशकाल संबंधी सीमाओं में परिबद्ध नहीं होता।

महा काव्य में अनेक घटनाओं का सहज समावेश हो सकता है जिससे एक ओर काव्य को घनत्व और गरिमा प्राप्त होती है और दूसरी ओर अनेक उपाख्यानों के नियोजन के कारण रोचक वैविध्य उत्पन्न हो जाता है।

महा काव्य में कथानक का यह विस्तार अनियंत्रित नहीं होना चाहिए। उसमें एक ही कार्य होना चाहिए जो आदि मध्य अवसान से युक्त एवं स्वत: पूर्ण हो। समस्त उपाख्यान इसी प्रमुख कार्य के साथ संबंद्ध और इस प्रकार से गुंफित हों कि उनका परिणाम एक ही हो।

इसके अतिरिक्त त्रासदी के वस्तुसंगठन के अन्य गुण- पूर्वापरक्रम, संभाव्यता तथा कुतूहल, भी महाकाव्य में यथावत् विद्यमान रहते हैं।

महाकाव्य की परिधि में अद्भुत एवं अतिप्राकृत तत्त्व के लिये अधिक अवकाश रहता है और कुतूहल की संभावना भी महाकाव्य में अपेक्षाकृत अधिक रहती है।

कथानक के सभी कुतूहलवर्धक अंग, जैसे स्थितिविपर्यय, अभिज्ञान, संवृति और विवृति, महाकाव्य का भी उत्कर्ष करते हैं।

2. पात्र

महाकाव्य के पात्रों के सम्बंध में अरस्तू ने केवल इतना कहा है कि 'महाकाव्य और त्रासदी में यह समानता है कि उसमें भी उच्चतर कोटि के पात्रों की पद्यबद्ध अनुकृति रहती है।' त्रासदी के पात्रों से समानता के आधार पर यह निष्कर्ष निकालना कठिन नहीं कि महा काव्य के पात्र भी प्राय: त्रासदी के समान - भद्र, वैभवशाली, कुलीन और यशस्वी होने चाहिए। रुद्रट के अनुसार महाकाव्य में प्रतिनायक और उसके कुल का भी वर्णन होता है।

3. प्रयोजन और प्रभाव

अरस्तू के अनुसार महाकाव्य का प्रभाव और प्रयोजन भी त्रासदी के समान होना चाहिए, अर्थात् मनोवेगों का विरेचन, उसका प्रयोजन और तज्जन्य मन:शांति उसका प्रभाव होना चाहिए। यह प्रभाव नैतिक अथवा रागात्मक अथवा दोनों प्रकार का हो सकता है।

4. शैली, भाषा और छंद

अरस्तू के शब्दों में महाकाव्य की शैली का भी "पूर्ण उत्कर्ष यह है कि वह प्रसन्न (प्रसादगुण युक्त) हो किंतु क्षुद्र न हो।" अर्थात् गरिमा तथा प्रसादगुण महा काव्य की शैली के मूल तत्त्व हैं और गरिमा का आधार है असाधारणता। उनके मतानुसार महाकाव्य की भाषाशैली त्रासदी की करुणमधुर अलंकृत शैली से भिन्न, लोकातिक्रांत प्रयोगों से कलात्मक, उदात्त एवं गरिमावरिष्ठ होनी चाहिए।

महाकाव्य की रचना के लिये अरस्तू आदि से अंत तक एक ही छंद, वीर छंद के प्रयोग पर बल देते हैं क्योंकि उसका रूप अन्य वृत्तों की अपेक्षा अधिक भव्य एवं गरिमामय होता है जिसमें अप्रचलित एवं लाक्षणिक शब्द बड़ी सरलता से अंतर्भुक्त हो जाते हैं।

परवर्ती विद्वानों ने भी महाकाव्य के विभिन्न तत्वों के संदर्भ में उन्हीं विशेषताओं का पुनराख्यान किया है जिनका उल्लेख आचार्य अरस्तू कर चुके थे।

वीरकाव्य (महाकाव्य) का आधार सभी ने जातीय गौरव की पुराकथाओं को स्वीकार किया है।

जॉन हेरिंगटन वीरकाव्य के लिये ऐतिहासिक आधारभूमि की आवश्यकता पर बल देते हैं और स्पेंसर वीरकाव्य के लिये वैभव और गरिमा को आधारभूत तत्त्व मानते हैं।

फ्रांस के कवि आलोचकों पैलेतिए, वोकलें और रोनसार आदि ने भी महाकाव्य की कथावस्तु को सर्वाधिक गरिमायम, भव्य और उदात्त करते हुए उसके अंतर्गत ऐसे वातावरण के निर्माण का आग्रह किया है जो क्षुद्र घटनाओं से मुक्त एवं भव्य हो।

महाकाव्य के मूल तत्व

भारतीय और पाश्चात्य आलोचकों के महाकाव्य निरूपण की तुलना करने पर स्पष्ट हो जाता है कि दोनों में ही महाकाव्य के विभिन्न तत्वों के संदर्भ में एक ही गुण पर बार-बार शब्दभेद से बल दिया गया है और वह है - भव्यता एवं गरिमा, जो औदात्य के अंग हैं।

वास्तव में, महाकाव्य व्यक्ति की चेतना से अनुप्राणित न होकर समस्त युग एवं राष्ट्र की चेतना से अनुप्राणित होता है। इसी कारण उसके मूल तत्त्व देशकाल सापेक्ष न होकर सार्वभौम होते हैं। जिनके अभाव में किसी भी देश अथवा युग की कोई रचना महाकाव्य नहीं बन सकती और जिनके सद्भाव में, परंपरागत शास्त्रीय लक्षणों की बाधा होने पर भी, किसी कृति को महाकाव्य के गौरव से वंचित करना संभव नहीं होता। ये मूल तत्त्व हैं -

1. उदात्त कथानक

2. उदात्त कार्य अथवा उद्देश्य

3. उदात्त चरित्र

4. उदात्त भाव और

5. उदात्त शैली।

इस प्रकार औदात्य अथवा महत्तत्व ही महाकाव्य का प्राण है।

महाकाव्य की विशेषताएं

1. महाकाव्य का नायक कोई पौराणिक या ऐतिहासिक हो और उसका धीरोदात्त होना आवश्यक है।

2. महाकाव्य में जीवन की संपूर्ण कथा का सविस्तार वर्णन होना चाहिए।

3. महाकाव्य में श्रृंगार, वीर और शांत रस में से किसी एक की प्रधानता होनी चाहिए। यथास्थान अन्य रसों का भी प्रयोग होना चाहिए।

4. महाकाव्य में सुबह शाम दिन रात नदी नाले वन पर्वत समुद्र आदि प्राकृतिक दृश्यों का स्वाभाविक चित्रण होना चाहिए।

5. महाकाव्य में आठ या आठ से अधिक सर्ग होने चाहिए, प्रत्येक सर्ग के अंत में छंद परिवर्तन होना चाहिए तथा सर्ग के अंत में अगले अंक की सूचना होनी चाहिए।

महाकाव्य का विकास

महाकाव्य के विकास का इतिहास का अध्ययन हम दो रूपों में करते हैं। प्रथम- रूपगत विकास, और द्वितीय- शैलीगत विकास।

रूपगत विकास

रूपगत के अन्तर्गत सबसे पहले वैदिक काल आता है जिनमें आख्यान, देवस्तुति, भावप्रधनता इत्यादि आते हैं। इस काल के अन्तर्गत रामायण, महाभारत एवं आख्यान तत्त्वों की प्रधनता आती है। लौकिक महाकाव्य में कालिदास एवं परवर्ती काव्यकारों ने भावपक्ष की अपेक्षा कलापक्ष की उदात्तता पर बल दिया है।

शैलीगत विकास

महाकाव्यों के शैलीगत विकास में-

प्रसादात्मक शैली में रामायण, महाभारत, कालिदास, अश्वघोष आदि के काव्यों में प्राप्त होती है।

अलंकारात्मक शैली, भारवि, माघ, श्रीहर्ष आदि के काव्यों में प्राप्त होती है।

श्लेषात्मक शैली, द्वयर्थक काव्यों में प्राप्त होती है। द्वयर्थक काव्य ध्नंजयकृत- द्विसन्धनकाव्य, कविराजसूरिकृत- राघवपाण्डवीय, राघवचूड़ामणि दीक्षित कृत- राघवायादव पाण्डवीय।

महाकाव्य का उद्भव या उत्पत्ति

महाकाव्य का उद्भव ऋग्वेद के आख्यान सूक्तियों- इन्द्र, वरुण, विष्णु और उषा आदि के स्तुतिमंत्रों तथा नराशंसी गाथाओं से हुआ है। ब्राह्मण आदि ग्रन्थों में इन अख्यान आदि का विस्तृत रूप मिलता है। यही स्वरूप आगे चलकर महाकाव्य के रूप में बदल गया।

क्रौंचवध से दुःखी मनवाले महाकवि वाल्मीकि के वाणी से निकला 'व्याध शाप'-

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वंगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौंचमिथुनादेकं वधीः काममोहितम्॥

अर्थात हे दुष्ट, तुमने प्रेम मे मग्न क्रौंच पक्षी को मारा है। जा तुझे कभी भी प्रतिष्ठा की प्राप्ति नहीं हो पायेगी और तुझे भी वियोग झेलना पड़ेगा।

उसके बाद उन्होंने प्रसिद्ध महाकाव्य "रामायण" लिखी, जिसे 'वाल्मीकि रामायण' के नाम से भी जाना जाता है, और 'आदिकवि वाल्मीकि' के नाम से अमर हो गये। अपने महाकाव्य "रामायण" में उन्होंने अनेक घटनाओं के समय सूर्य, चंद्र तथा अन्य नक्षत्र की स्थितियों का वर्णन किया है।

भारतीय परम्परा वेद को ही काव्य, शास्त्र आदि का उत्पत्तिस्थल मानती रही है।

वैदिक मनीषी की सर्वाधिक मनोहर कल्पनायें ऋग्वेद के उषस् सूक्तों में समस्त काव्यात्मक उन्मेष के साथ निकली हुई है।

देवस्तुति के अतिरिक्त नाराशंसियों में भी काव्यात्मक रूप झलकता है।

तत्कालीन उदार राजाओं की प्रशंसा में नितान्त अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशस्तियाँ नाराशंसी कहलाती है।

ऐतरेयब्राह्मण की सप्तम पंचिका में शुनःशेप आख्यान एवं अष्टम पंचिका में ‘ऐन्दमहाभिषेक’ के अनेक अंश सुन्दर काव्य की छटा बखिरते हैं।

इस प्रकार सम्पूर्ण वैदिक साहित्य में काव्यतत्त्वों का अस्तित्त्व तो दृष्टिगोचर होता है किन्तु महाकाव्य शैली का पूर्ण परिपाक कहीं पर भी दृष्टिगोचर नहीं होता।

संस्कृत महाकाव्य धरा की मूल उद्गम स्थली आदिकाव्य रामायण ही है, जिसमें महाकाव्य की सभी विशेषताओं का दर्शन हो जाता है।

संस्कृत साहित्य के महाकाव्यों की विकास-परम्परा में संस्कृत व्याकरण के ‘त्रिमुनि’ - पाणिनि, वररुचि तथा पतंजलि का स्थान अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है।

आचार्य रुद्रट द्वारा रचित ‘काव्यालंकार सूत्र’ के टीकाकार नेमिसाधु ने पाणिनि द्वारा रचित महाकाव्य ‘जाम्बवतीजय’ या ‘पातालविजय’ का उल्लेख किया है।

पतंजलि के महाभाष्य (ईस्वी पूर्व द्वितीय शती) में काव्यगुणों से सम्पन्न पद्य उपलब्ध होते हैं।

इन सब प्रमाणों के आधर पर महाकाव्य का उदय ईस्वी पूर्व की अष्टम शती में ही पाणिनि द्वारा हो चुका था। सूक्तिग्रन्थों में राजशेखर ने पाणिनि को ‘व्याकरण’ तथा ‘जाम्बवतीजय’ दोनों का रचयिता माना है-

नमःपाणिनये तस्मै यस्मादाविरभूदिह।
आदौ व्याकरणं काव्यमनु जाम्बवतीजयम्।

वररुचि के नाम से भी अनेक श्लोक विभिन्न सुभाषित संग्रहों में प्राप्त होते हैं। पतंजलि ने वररुचि के बनाये गये किसी महाकाव्य (वाररुचं काव्यं) का उल्लेख महाभारत में किया है-

यथार्थता कथं नाम्नि या भूद वररुचेरिह।
व्यध्त्त कण्ठाभरणं यः सदारोहणप्रियः॥

वररुचि के महाकाव्य का नाम ‘कण्ठाभरण’ है। वररुचि ने पाणिनि का अनुकरण ‘वार्तिक’ लिखकर ही नहीं किया, परंतु काव्यरचना से उसकी पूर्ति की।

पतंजलि ने अपने महाभाष्य में दृष्टांत के रूप में बहुत से श्लोकों या श्लोकखण्डों को उद्धृत किया जिनके अनुशीलन से संस्कृत-काव्यधरा की प्राचीनता सिद्ध होती है।

प्राचीन भारतवर्ष के इतिहास में वह युग शकों के भयंकर आक्रमणों से भारतीय जनता, धर्म तथा संस्कृति के रक्षक मालव संवत के ऐतिहासिक संस्थापक शकारि मालवगणाध्यक्ष विक्रमादित्य का है। इसी युग में भारतीय संस्कृति के उपासक कालिदास का काव्याकाश में उदय होता है।

कालिदास को वस्तुतः प्रौढ़, परिष्कृत, प्रांजल एवं मनोज्ञ काव्यशैली का प्रवर्तक कहा जा सकता है। कालिदासजी ने जो काव्यादर्श उपस्थित किया वह परकालीन कवियों एवं लेखकों के लिये अनुकरणीय हुए।

संस्कृत महाकाव्य को तीन समूहों में विभाजित किया जा सकता है- कालिदास के पहले का समय, कालिदास का समय और कालिदास के बाद का समय।

कालिदास के पहले का समय जिसमें कथानक की प्रधनता रही। रामायण और महाभारत इस समय के आदर्श काव्य हैं।

कालिदास का समय जिसमें आडम्बरों से रहित, सहज एवं सरल ढंग से भाव तथा कला का सुन्दर समन्वय स्थापित करके काव्य की धरा प्रवाहित हुई। जैसे- ‘रघुवंशम्’ और ‘कुमारसंभवम्’ आदि।

कालिदास के बाद का समय जिसमें काव्यलेखन भाषा और भाव की दृष्टि से कठिन होता हुआ दिखाई पड़ता है जिसकी परम्परा भारवि से प्रारम्भ होकर ‘श्रीहर्ष’ की रचना तक अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाती है और एक वैदग्ध तथा पाण्डित्यपूर्ण परम्परा का निर्माण होता है।

विद्वानों ने कालिदास के पूर्ववर्ती कवि व्यास और वाल्मीकि को ऋषिकोटि में माना है। इनकी रचनाओं में सरलता और स्वाभाविकता का पुट है।

संस्कृत साहित्याकोश में महाकवि ‘भारवि’ का नाम विशेष उल्लेखनीय रहेगा क्योंकि संस्कृत के महाकाव्यों की परम्परा में समय और कवित्व दोनों दृष्टियों से कालिदास के बाद भारवि का प्रमुख स्थान है।

महाकवि ‘भारवि’ का एक मात्र कालजयी महाकाव्य ‘किरातार्जुनीयम्’ है जो अपनी अर्थपूर्ण उक्तियों के लिए विद्वान्मण्डली में लोकप्रिय हो गया।

इसके बाद उसी स्तर का महत्त्वपूर्ण महाकाव्य कवि माघ का ‘शिशुपालवधम्’ है।

संस्कृत-महाकाव्यों की परम्परा में कालक्रम के अनुसार सबसे अन्तिम और महत्त्वपूर्ण काव्य बारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में लिखा गया महाकवि श्रीहर्ष का ‘नैषधीयचरितम्’ है।

नैषधीयचरितम् में श्रीहर्ष ने अपने महाकाव्य को तत्कालीन समाज में प्रचलित परम्परा के अनुरूप ही आगे बढ़ाया और उस शैली के विकास को चरम तक पहुँचा दिया।

संक्षेप में महाकाव्य के विकास पर दृष्टिपात करने से ज्ञात होता है कि आरम्भिक युग में नैसर्गिकता का ही काव्य में मूल्य था, वही गुण आदर की दृष्टि से देखा जाता था। कालान्तर में कवियों ने अपने काव्य में अक्षराडम्बर तथा अंलकारविन्यास की ओर दृष्टिपात किया और उन्हें ही काव्य का जीवन मानने लगे।

महाकाव्य के उदाहरण
1. संस्कृत के महाकाव्य

रामायण (वाल्मीकि) नायक -राम, महाभारत (वेद व्यास)- नायक-कर्ण, बुद्धचरित (अश्वघोष)-नायक-बुद्ध्, भट्टिकाव्य (भट्टि), कुमारसंभव (कालिदास), रघुवंश (कालिदास) नायक- राम, कर्णभारम (भास), शिशुपाल वध (माघ), नैषधीय चरित (श्रीहर्ष) आदि।

"रघुवंश, "कुमारसम्भव", "कर्णभारम", "शिशुपालवध" और "नैषधचरित"; इन पांच महाकाव्यों को 'पंचमहाकाव्य' कहा जाता है।

2. प्राकृत और अपभ्रंश के महाकाव्य

प्रवरसेन द्वितीय रचित सेतुबंध, सर्वसेन रचित हरिविजय काव्य, रावण वही (रावण वध), लीलाबई (लीलावती), सिरिचिन्हकव्वं (श्री चिह्न काव्य), उसाणिरुद्म (उषानिरुद्ध), कंस वही (कंस वध), पउमचरिउ (पद्मचरित), स्वयंभू द्वारा रचित रिट्ठणेमिचरिउ (अरिष्टनेमिचरित), महापुराण, महाकवि पुष्पदन्त कृत जसहरचरिउ (यशोधरचरित) और णायकुमार चरिउ (नागकुमार-चरित) आदि।

3. हिंदी के महाकाव्य

चंदबरदाई कृत पृथ्वीराज रासो को हिंदी का प्रथम महाकाव्य कहा जाता है। मलिक मुहम्मद जायसी - पद्मावत, तुलसीदास - रामचरितमानस, आचार्य केशवदास - रामचंद्रिका, मैथिलीशरण गुप्त - साकेत, अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' - प्रियप्रवास, द्वारका प्रसाद मिश्र - कृष्णायन, जयशंकर प्रसाद - कामायनी, रामधारी सिंह 'दिनकर' - उर्वशी, रामकुमार वर्मा - एकलव्य, बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' - उर्मिला, गुरुभक्त सिंह - नूरजहां, विक्रमादित्य, अनूप शर्मा - सिद्धार्थ, वर्द्धमान, रामानंद तिवारी - पार्वती, गिरिजा दत्त शुक्ल 'गिरीश' - तारक वध, और नन्दलाल सिंह 'कांतिपति' - श्रीमान मानव की विकास यात्रा आदि।

महाकाव्य एवं खण्डकाव्य में अंतर

1. महाकाव्य में जीवन का समग्र रूप का वर्णन किया जाता है। खण्ड काव्य में जीवन की किसी एक घटना का वर्णन होता है।

2. महाकाव्य में आठ या उससे अधिक सर्ग होते हैं। खण्ड काव्य एक सर्ग में होता है।

3. महाकाव्य में अनेक छन्दों का प्रयोग होता है। खण्ड काव्य के लिये यह आवश्यक नहीं है।

4. महाकाव्य में शांत, वीर अथवा श्रृंगार रस में से किसी एक रस की प्रधानता होती है। खण्ड काव्य में श्रृंगार व करुण रस प्रायः प्रधान होता है।

5. महाकाव्य में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति होती है। खण्ड काव्य में उद्देश्य महान होता है।

6. प्रमुख महाकाव्य रामचरित मानस', 'साकेत', ' पदमावत', 'कामायनी' आदि । प्रमुख खण्ड काव्य 'पंचवटी', 'जयद्रथावध', 'सुदामा' चरित' आदि।

(साभार : mycoaching.in Website)

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