Parichay Mahakavya

महाकाव्य का परिचय

महाकाव्य

संस्कृत काव्यशास्त्र में महाकाव्य का सूत्रबद्ध लक्षण आचार्य भामह ने प्रस्तुत किया है और परवर्ती आचार्यों में दंडी, रुद्रट तथा विश्वनाथ ने अपने अपने ढंग से इसका विस्तार किया है। आचार्य विश्वनाथ का लक्षणनिरूपण इस परम्परा में अंतिम होने के कारण सभी पूर्ववर्ती मतों के सारसंकलन के रूप में उपलब्ध है।

महाकाव्य के लक्षण

आचार्य विश्वनाथ के अनुसार महाकाव्य के लक्षण इस प्रकार हैं :

जिसमें सर्गों का निबंधन हो वह महाकाव्य कहलाता है। महाकाव्य में देवता या सदृश क्षत्रिय, जिसमें धीरोदात्तत्वादि गुण हों, नायक होता है। कहीं एक वंश के अनेक सत्कुलीन भूप भी नायक होते हैं। शृंगार, वीर और शान्त में से कोई एक रस अंगी होता है तथा अन्य सभी रस अंग रूप होते हैं। उसमें सब नाटकसंधियाँ रहती हैं। कथा ऐतिहासिक अथवा सज्जनाश्रित होती है। चतुर्वर्ग (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) में से एक महाकाव्य का फल होता है। आरम्भ में नमस्कार, आशीर्वाद या वर्ण्यवस्तुनिर्देश होता है। कहीं खलों की निन्दा तथा सज्जनों का गुणकथन होता है। न अत्यल्प और न अतिदीर्घ अष्टाधिक सर्ग होते हैं जिनमें से प्रत्येक की रचना एक ही छन्द में की जाती है और सर्ग के अन्त में छंदपरिवर्तन होता है। कहीं-कहीं एक ही सर्ग में अनेक छंद भी होते हैं। सर्ग के अंत में आगामी कथा की सूचना होनी चाहिए। उसमें संध्या, सूर्य, चंद्रमा, रात्रि, प्रदोष, अंधकार, दिन, प्रातःकाल, मध्याह्न, मृगया, पर्वत, ऋतु, वन, सागर, संयोग, विप्रलम्भ, मुनि, स्वर्ग, नगर, यज्ञ, संग्राम, यात्रा और विवाह आदि का यथासंभव सांगोपांग वर्णन होना चाहिए (साहित्यदर्पण, परिच्छेद 6,315-324)।

आचार्य विश्वनाथ का उपर्युक्त निरूपण महाकाव्य के स्वरूप की वैज्ञानिक एवं क्रमबद्ध परिभाषा प्रस्तुत करने के स्थान पर उसकी प्रमुख और गौण विशेषताओं का क्रमहीन विवरण उपस्थित करता है। इसके आधार पर संस्कृत काव्यशास्त्र में उपलब्ध महाकाव्य के लक्षणों का सार इस प्रकार किया जा सकता है :

कथानाक

महाकाव्य का कथानक ऐतिहासिक अथवा इतिहासाश्रित होना चाहिए।

विस्तार

कथानक का कलवेर जीवन के विविध रूपों एवं वर्णनों से समृद्ध होना चाहिए। ये वर्णन प्राकृतिक, सामाजिक और राजीतिक क्षेत्रों से इस प्रकार संबंद्ध होने चाहिए कि इनके माध्यम से मानव जीवन का पूर्ण चित्र उसके संपूर्ण वैभव, वैचित्र्य एवं विस्तार के साथ उपस्थित हो सके। इसीलिए उसका आयाम (अष्टाधिक सर्गों में) विस्तृत होना चाहिए।

विन्यास

कथानक की संघटना नाट्य संधियों के विधान से युक्त होनी चाहिए अर्थात् महाकाव्य के कथानक का विकास क्रमिक होना चाहिए। उसकी आधिकारिक कथा एवं अन्य प्रकरणों का पारस्परिक संबंध उपकार्य-उपकारक-भाव से होना चाहिए तथा इनमें औचित्यपूर्ण पूर्वापर अन्विति रहनी चाहिए।

नायक

महाकाव्य का नायक देवता या सदृश क्षत्रिय हो, जिसका चरित्र धीरोदात्त गुणों से समन्वित हो - अर्थात् वह महासत्त्व, अत्यंत गंभीर, क्षमावान् अविकत्थन, स्थिरचरित्र, निगूढ़, अहंकारवान् और दृढ़व्रत होना चाहिए। पात्र भी उसी के अनुरूप विशिष्ट व्यक्ति, राजपुत्र, मुनि आदि होने चाहिए।जिस प्रकार रामायन के नायक श्रि राम है और महाभारत के नायक राधेय कर्ण है|

रस

महाकाव्य में शृंगार, वीर, शांत एवं करुण में से किसी एक रस की स्थिति अंगी रूप में तथा अन्य रसों की अंग रूप में होती है।

फल

महाकाव्य सद्वृत होता है - अर्थात् उसकी प्रवृत्ति शिव एवं सत्य की ओर होती है और उसका उद्देश्य होता है चतुवर्ग की प्राप्ति।

शैली

शैली के संदर्भ में संस्कृत के आचार्यों ने प्राय: अत्यंत स्थूल रूढ़ियों का उल्लेख किया है। उदाहरणार्थ एक ही छंद में सर्ग रचना तथा सर्गांत में छंदपरिवर्तन, अष्टाधिक सर्गों में विभाजन, नामकरण का आधार आदि। परंतु महाकाव्य के अन्य लक्षणों के आलोक में यह स्पष्ट ही है कि महाकाव्य की शैली नानावर्णन क्षमा, विस्तारगर्भा, श्रव्य वृत्तों से अलंकृत, महाप्राण होनी चाहिए। आचार्य भामह ने इस भाषा को सालंकार, अग्राम्य शब्दों से युक्त अर्थात् शिष्ट नागर भाषा कहा है।

महाकाव्य के सम्बन्ध में पश्चिमी मत

महाकाव्य के जिन लक्षणों का निरूपण भारतीय आचार्यों ने किया, शब्दभेद से उन्हीं से मिलती-जुलती विशेषताओं का उल्लेख पश्चिम के आचार्यों ने भी किया है। अरस्तू ने त्रासदी (ट्रेजेडी) से महाकाव्य की तुलना करते हुए कहा है कि "गीत एवं दृश्यविघान के अतिरिक्त (महाकाव्य और त्रासदी) दोनों के अंग भी समान ही हैं।" अर्थात् महाकाव्य के मूल तत्त्व चार हैं - कथावस्तु, चरित्र, विचारतत्व और पदावली (भाषा)।

कथावस्तु

कथावस्तु के संबंध में उनका मत है कि

(1) महाकाव्य की कथावस्तु एक ओर शुद्ध ऐतिहासिक यथार्थ से भिन्न होती है ओर दूसरी ओर सर्वथा काल्पनिक भी नहीं होती। वह प्रख्यात (जातीय दंतकथाओं पर आश्रित) होनी चाहिए और उसमें यथार्थ से भव्यतर जीवन का अंकन होना चाहिए।

(2) उसका आयाम विस्तृत होना चाहिए जिसके अंतर्गत विविध उपाख्यानों का समावेश हो सके। "उसमें अपनी सीमाओं का विस्तार करने की बड़ी क्षमता होती है" क्योंकि त्रासदी की भांति वह रंगमंच की देशकाल संबंधी सीमाओं में परिबद्ध नहीं होता। उसमें अनेक घटनाओं का सहज समावेश हो सकता है जिससे एक ओर काव्य को घनत्व और गरिमा प्राप्त होती है और दूसरी ओर अनेक उपाख्यानों के नियोजन के कारण रोचक वैविध्य उत्पन्न हो जाता है।

(3) किंतु कथानक का यह विस्तार अनियंत्रित नहीं होना चाहिए। उसमें एक ही कार्य होना चाहिए जो आदि मध्य अवसान से युक्त एवं स्वत: पूर्ण हो। समस्त उपाख्यान इसी प्रमुख कार्य के साथ संबंद्ध और इस प्रकार से गुंफित हों कि उनका परिणाम एक ही हो।

(4) इसके अतिरिक्त त्रासदी के वस्तुसंगठन के अन्य गुण -- पूर्वापरक्रम, संभाव्यता तथा कुतूहल—भी महाकाव्य में यथावत् विद्यमान रहते हैं। उसकी परिधि में अद्भुत एवं अतिप्राकृत तत्त्व के लिये अधिक अवकाश रहता है और कुतूहल की संभावना भी महाकाव्य में अपेक्षाकृत अधिक रहती है। कथानक के सभी कुतूहलवर्धक अंग, जैसे स्थितिविपर्यय, अभिज्ञान, संवृति और विवृति, महाकाव्य का भी उत्कर्ष करते हैं।

पात्र

महाकाव्य के पात्रों के सम्बंध में अरस्तू ने केवल इतना कहा है कि "महाकाव्य और त्रासदी में यह समानता है कि उसमें भी उच्चतर कोटि के पात्रों की पद्यबद्ध अनुकृति रहती है।" त्रासदी के पात्रों से समानता के आधार पर यह निष्कर्ष निकालना कठिन नहीं कि महाकाव्य के पात्र भी प्राय: त्रासदी के समान - भद्र, वैभवशाली, कुलीन और यशस्वी होने चाहिए। रुद्रट के अनुसार महाकाव्य में प्रतिनायक और उसके कुल का भी वर्णन होता है।

प्रयोजन और प्रभाव

अरस्तू के अनुसार महाकाव्य का प्रभाव और प्रयोजन भी त्रासदी के समान होना चाहिए, अर्थात् मनोवेगों का विरेचन, उसका प्रयोजन और तज्जन्य मन:शांति उसका प्रभाव होना चाहिए। यह प्रभाव नैतिक अथवा रागात्मक अथवा दोनों प्रकार का हो सकता है।

भाषा, शैली और छंद

अरस्तू के शब्दों में महाकाव्य की शैली का भी "पूर्ण उत्कर्ष यह है कि वह प्रसन्न (प्रसादगुण युक्त) हो किंतु क्षुद्र न हो।" अर्थात् गरिमा तथा प्रसादगुण महाकाव्य की शैली के मूल तत्त्व हैं और गरिमा का आधार है असाधारणता। उनके मतानुसार महाकाव्य की भाषाशैली त्रासदी की करुणमधुर अलंकृत शैली से भिन्न, लोकातिक्रांत प्रयोगों से कलात्मक, उदात्त एवं गरिमावरिष्ठ होनी चाहिए।

हाकाव्य की रचना के लिये वे आदि से अंत तक एक ही छंद - वीर छंद - के प्रयोग पर बल देते हैं क्योंकि उसका रूप अन्य वृत्तों की अपेक्षा अधिक भव्य एवं गरिमामय होता है जिसमें अप्रचलित एवं लाक्षणिक शब्द बड़ी सरलता से अंतर्भुक्त हो जाते हैं। परवर्ती विद्वानों ने भी महाकाव्य के विभिन्न तत्वों के संदर्भ में उन्हीं विशेषताओं का पुनराख्यान किया है जिनका उल्लेख आचार्य अरस्तू कर चुके थे। वीरकाव्य (महाकाव्य) का आधार सभी ने जातीय गौरव की पुराकथाओं को स्वीकार किया है। जॉन हेरिंगटन वीरकाव्य के लिये ऐतिहासिक आधारभूमि की आवश्यकता पर बल देते हैं और स्पेंसर वीरकाव्य के लिये वैभव और गरिमा को आधारभूत तत्त्व मानते हैं। फ्रांस के कवि आलोचकों पैलेतिए, वोकलें और रोनसार आदि ने भी महाकाव्य की कथावस्तु को सर्वाधिक गरिमायम, भव्य और उदात्त करते हुए उसके अंतर्गत ऐसे वातावरण के निर्माण का आग्रह किया है जो क्षुद्र घटनाओं से मुक्त एवं भव्य हो।

सारांश

भारतीय और पाश्चात्य आलोचकों के उपर्युक्त निरूपण की तुलना करने पर स्पष्ट हो जाता है कि दोनों में ही महाकाव्य के विभिन्न तत्वों के संदर्भ में एक ही गुण पर बार-बार शब्दभेद से बल दिया गया है और वह है - भव्यता एवं गरिमा, जो औदात्य के अंग हैं। वास्तव में, महाकाव्य व्यक्ति की चेतना से अनुप्राणित न होकर समस्त युग एवं राष्ट्र की चेतना से अनुप्राणित होता है। इसी कारण उसके मूल तत्त्व देशकाल सापेक्ष न होकर सार्वभौम होते हैं -- जिनके अभाव में किसी भी देश अथवा युग की कोई रचना महाकाव्य नहीं बन सकती और जिनके सद्भाव में, परंपरागत शास्त्रीय लक्षणों की बाधा होने पर भी, किसी कृति को महाकाव्य के गौरव से वंचित करना संभव नहीं होता।

मूल तत्त्व

(1) उदात्त कथानक
(2) उदात्त कार्य अथवा उद्देश्य
(3) उदात्त चरित्र
(4) उदात्त भाव और
(5) उदात्त शैली।
इस प्रकार औदात्य अथवा महत्तत्व ही महाकाव्य का प्राण है।

संस्कृत महाकाव्यों की उत्पत्ति एवं विकास

संस्कृत महाकाव्य के उद्भव और विकास का निरूपण अधेलिखित है-

महाकाव्य के विकास का इतिहास हम दो रूपों में करते हैं। (१) रूपगत विकास, (२) शैलीगत विकास

रूपगत विकास

रूपगत विकास के अन्तर्गत सबसे पहले वैदिक काल आता है जिनमें आख्यान, देवस्तुति, भावप्रधनता इत्यादि आते हैं। वीरमहाकाव्य के अन्तर्गत रामायण, महाभारत एवं आाख्यान तत्त्वों की प्रधनता आती है। लौकिक महाकाव्य में कालिदास एवं परवर्ती काव्यकारों ने भावपक्ष की अपेक्षा कलापक्ष की उदात्तता पर बल दिया है।

शैलीगत विकास

महाकाव्य के शैलीगत विकास में प्रसादात्मक शैली में रामायण, महाभारत, कालिदास, अश्वघोष आदि के काव्यों में प्राप्त होती है। अलंकारात्मक शैली, भारवि, माघ, श्रीहर्ष आदि के काव्यों में प्राप्त होती है। श्लेषात्मक शैली, द्वयर्थक काव्यों में प्राप्त होती है। द्वयर्थक काव्य ध्नंजयकृत- द्विसन्धनकाव्य, कविराजसूरिकृत-राघवपाण्डवीय, राघवचूड़ामणिदीक्षितकृत-राघवायादव- पाण्डवीय।

महाकाव्य का उद्भव

महाकाव्यों का उद्भव ऋग्वेद के आख्यान सूक्तों- इन्द्र, वरुण, विष्णु और उषा आदि के स्तुतिमंत्रों तथा नराशंसी गाथाओं से हुआ है। ब्राह्मण आदि ग्रन्थों में इन अख्यान आदि का विस्तृत रूप मिलता है। यही स्वरूप आगे चलकर महाकाव्य के रूप में बदल गया। क्रौंचवध से दुःखी मनवाले महाकवि वाल्मीकि के वाणी से निकला व्याध-शाप (मा निषाद प्रतिष्ठां त्वम्...) वाल्मीकिकृत रामायण के रूप में आदि काव्य के गौरव को प्राप्त कर लिया तथा इसके प्रणेता वाल्मीकि को आदिकवि का गौरव प्राप्त हुआ। वाल्मीकिकृत रामायण तथा रामायण के बाद वेदव्यासकृत महाभारत भी परवर्ती कवियों का उपजीव्य काव्य बन गये।

भारतीय परम्परा वेद को ही काव्य, शास्त्र आदि का उत्पत्तिस्थल मानती रही है। वैदिक मनीषी की सर्वाधिक मनोहर कल्पनायें ऋग्वेद के उषस् सूक्तों में समस्त काव्यात्मक उन्मेष के साथ निकली हुई है। देवस्तुति के अतिरिक्त नाराशंसियों में भी काव्यात्मक रूप झलकता है। तत्कालीन उदार राजाओं की प्रशंसा में नितान्त अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशस्तियाँ नाराशंसी कहलाती है। ऐतरेयब्राह्मण की सप्तम पंचिका में शुनःशेप आख्यान एवं अष्टम पंचिका में ‘ऐन्दमहाभिषेक’के अनेक अंश सुन्दर काव्य की छटा बखिरते हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण वैदिक साहित्य में काव्यतत्त्वों का अस्तित्त्व तो दृष्टिगोचर होता है किन्तु महाकाव्य शैली का पूर्ण परिपाक कहीं पर भी दृष्टिगोचर नहीं होता। संस्कृत महाकाव्य धरा की मूल उद्गम स्थली आदिकाव्य रामायण ही है, जिसमें महाकाव्य की सभी विशेषताओं का दर्शन हो जाता है। संस्कृत साहित्य के महाकाव्यों की विकास-परम्परा में संस्कृत व्याकरण के ‘मुनित्रय’ - पाणिनि, वररुचि तथा पतंजलि का स्थान अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। आचार्य रुद्रट द्वारा रचित ‘काव्यालंकार सूत्र’ के टीकाकार नेमिसाधु ने पाणिनि द्वारा रचित महाकाव्य ‘जाम्बवतीजय’ या ‘पातालविजय’ का उल्लेख किया है। पतंजलि के महाभाष्य (ईस्वी पूर्व द्वितीय शती) में काव्यगुणों से सम्पन्न पद्य उपलब्ध होते हैं। इन सब प्रमाणों के आधर पर महाकाव्य का उदय ईस्वी पूर्व की अष्टम शती में ही पाणिनि द्वारा हो चुका था। सूक्तिग्रन्थों में राजशेखर ने पाणिनि को ‘व्याकरण’ तथा ‘जाम्बवतीजय’ दोनों का रचयिता माना है-

नमःपाणिनये तस्मै यस्मादाविरभूदिह।
आदौ व्याकरणं काव्यमनु जाम्बवतीजयम्।

वररुचि के नाम से भी अनेक श्लोक विभिन्न सुभाषित संग्रहों में प्राप्त होते हैं। पतंजलि ने वररुचि के बनाये गये किसी महाकाव्य (वाररुचं काव्यं) का उल्लेख महाभारत में किया है-

यथार्थता कथं नाम्नि या भूद वररुचेरिह।
व्यध्त्त कण्ठाभरणं यः सदारोहणप्रियः ॥

वररुचि-प्रणीत महाकाव्य का नाम ‘कण्ठाभरण’ है। वररुचि ने पाणिनि का अनुकरण ‘वार्तिक’ लिखकर ही नहीं किया प्रत्युत काव्यरचना से उसकी पूर्ति की। पतंजलि ने अपने महाभाष्य में दृष्टांत के रूप में बहुत से श्लोकों या श्लोकखण्डों को उद्धृत किया जिनके अनुशीलन से संस्कृत-काव्यधरा की प्राचीनता सिद्ध होती है। काव्य अपने सुन्दर निर्माण तथा रचना के निमित्त शान्त वातावरण, आर्थिक समृद्धि तथा सामाजिक शान्ति की जितनी अपेक्षा रखता है उतनी ही वह किसी गुणग्राही आश्रयदाता की प्रेरणा की भी। प्राचीन भारतवर्ष के इतिहास में वह युग शकों के भयंकर आक्रमणों से भारतीय जनता, धर्म तथा संस्कृति के रक्षक मालव संवत के ऐतिहासिक संस्थापक शकारि मालवगणाध्यक्ष विक्रमादित्य का है। इसी युग में भारतीय संस्कृति के उपासक कालिदास का काव्याकाश में उदय होता है। कालिदास को वस्तुतः प्रौढ़, परिष्कृत, प्रांजल एवं मनोज्ञ काव्यशैली का प्रवर्तक कहा जा सकता है। कालिदासजी ने जो काव्यादर्श उपस्थित किया वह परकालीन कवियों एवं लेखकों के लिये अनुकरणीय हुए।

संस्कृत महाकाव्य के तीन समूह

संस्कृत महाकाव्य को तीन समूहों में विभाजित किया जा सकता है-

(१) कालिदास के पहले का समय जिसमें कथानक की प्रधनता रही। रामायण और महाभारत इस समय के आदर्श काव्य हैं।

(२) कालिदास का समय जिसमें आडम्बरों से रहित, सहज एवं सरल ढंग से भाव तथा कला का सुन्दर समन्वय स्थापित करके काव्य की धरा प्रवाहित हुई। जैसे : ‘रघुवंशम्’ और ‘कुमारसंभवम्’ आदि।

(३) कालिदास के बाद का समय जिसमें काव्यलेखन भाषा और भाव की दृष्टि से कठिन होता हुआ दिखाई पड़ता है जिसकी परम्परा भारवि से प्रारम्भ होकर ‘श्रीहर्ष’ की रचना तक अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाती है और एक वैदग्ध तथा पाण्डित्यपूर्ण परम्परा का निर्माण होता है।

विद्वानों ने कालिदास के पूर्ववर्ती कवि व्यास और वाल्मीकि को ऋषिकोटि में माना है। इनकी रचनाओं में सरलता और स्वाभाविकता का पुट है। संस्कृत साहित्याकाश में महाकवि ‘भारवि’ का नाम विशेष उल्लेखनीय रहेगा क्योंकि संस्कृत के महाकाव्यों की परम्परा में समय और कवित्व दोनों दृष्टियों से कालिदास के षद भारवि का प्रमुख स्थान है। इनका एक मात्रा कालजयी महाकाव्य ‘किरातार्जुनीयम्’ है जो अपनी अर्थपूर्ण उक्तियों के लिए विद्वान्मण्डली में लोकप्रिय हो गया। इसके षद उसी स्तर का महत्त्वपूर्ण महाकाव्य माघ का ‘शिशुपालवध्म्’ है। संस्कृत-महाकाव्यों की परम्परा में कालक्रम के अनुसार सबसे अन्तिम और महत्त्वपूर्ण काव्य बारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में लिखा गया महाकवि श्रीहर्ष का ‘नैषधीयचरितम्’ है। इन्होंने अपने महाकाव्य को तत्कालीन समाज में प्रचलित परम्परा के अनुरूप ही आगे बढ़ाया और उस शैली के विकास को चरम तक पहुँचा दिया।

संक्षेप में महाकाव्य के विकास पर दृष्टिपात करने से ज्ञात होता है कि आरम्भिक युग में नैसर्गिकता का ही काव्य में मूल्य था, वही गुण आदर की दृष्टि से देखा जाता था। कालान्तर में कवियों ने अपने काव्य में अक्षराडम्बर तथा अंलकारविन्यास की ओर दृष्टिपात किया और उन्हें ही काव्य का जीवन मानने लगे।

संस्कृत के महाकाव्य

रामायण (वाल्मीकि) नायक -राम
महाभारत (वेद व्यास)- नायक-अर्जुन
बुद्धचरित (अश्वघोष)-नायक-बुद्ध्
भट्टिकाव्य (भट्टि)
कुमारसंभव (कालिदास)
रघुवंश (कालिदास)- नायक -राम
कर्णभारम (भास)
शिशुपाल वध (माघ)
नैषधीय चरित (श्रीहर्ष)
रघुवंश, कुमारसम्भव, कर्णभारम, शिशुपालवध और नैषधचरित को 'पंचमहाकाव्य' कहा जाता है।

प्राकृत और अपभ्रंश के महाकाव्य

प्रवरसेन द्वितीय रचित सेतुबंध,
सर्वसेन रचित हरिविजय काव्य,
रावण वही (रावण वध),
लीलाबई (लीलावती),
सिरिचिन्हकव्वं (श्री चिह्न काव्य),
उसाणिरुद्म (उषानिरुद्ध),
कंस वही (कंस वध),
पउमचरिउ (पद्मचरित),
स्वयंभू द्वारा रचित रिट्ठणेमिचरिउ (अरिष्टनेमिचरित),
महापुराण,
महाकवि पुष्पदन्त कृत जसहरचरिउ (यशोधरचरित) और णायकुमार चरिउ (नागकुमार-चरित)।

हिंदी के महाकाव्य

1. चंदबरदाईकृत पृथ्वीराज रासो को हिंदी का प्रथम महाकाव्य कहा जाता है।
2. मलिक मुहम्मद जायसी - पद्मावत
3. तुलसीदास - रामचरितमानस
4. आचार्य केशवदास - रामचंद्रिका
5. मैथिलीशरण गुप्त - साकेत
6. अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' - प्रियप्रवास
7. द्वारका प्रसाद मिश्र - कृष्णायन
8. जयशंकर प्रसाद - कामायनी
9. रामधारी सिंह 'दिनकर' - उर्वशी
10. रामकुमार वर्मा - एकलव्य
11. बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' - उर्मिला
12. गुरुभक्त सिंह - नूरजहां, विक्रमादित्य
13. अनूप शर्मा - सिद्धार्थ, वर्द्धमान
14. रामानंद तिवारी - पार्वती
15. गिरिजा दत्त शुक्ल 'गिरीश' - तारक वध
16. नन्दलाल सिंह 'कांतिपति' - श्रीमान मानव की विकास यात्रा।

तमिल के महाकाव्य

शिलप्पादिकारम, मणिमेकलै, जीवक चिन्तामणि, वलैयापति, कुण्डलकेसि।

महाकाव्य और खण्डकाव्य में अन्तर

महाकाव्य और खण्डकाव्य में प्रमुख अन्तर निम्नलिखित हैं–
1. महाकाव्य का आकार विशाल होता है, जबकि खण्डकाव्य का आकार सीमित होता है।
2. महाकाव्य में नायक के जीवन का सम्पूर्ण अंकन किया जाता है, जबकि खण्डकाव्य में नायक के जीवन के किसी एक खण्ड का अंकन किया जाता है।
3. महाकाव्य में अनेक छन्दों का प्रयोग किया जाता है, जबकि खण्डकाव्य में एक ही छन्द का प्रयोग किया जाता है।
4. महाकाव्य के प्रधान रस श्रृंगार, वीर और शान्त हैं। खण्डकाव्य के प्रधान रस श्रृंगार और करूण हैं।
5. रामायण, महाभारत, कामायनी, पृथ्वीराज रासो, पद्मावत, साकेत, उर्वशी आदि महाकाव्य के उदाहरण हैं। पञ्चवटी, जयद्रथ वध, सुदामा चरित, हल्दीघाटी का युद्ध, मेघदूत आदि खण्डकाव्य के उदाहरण हैं।

संस्कृत महाकाव्य के नाम और परिचय

संस्कृत महाकाव्य परम्परा का प्रारम्भ आर्ष महाकाव्यों - महर्षि वाल्मीकि के रामायण तथा उसके बाद महर्षि वेदव्यास रचित महाभारत से माना जाता है। महाकवि कालिदास, अश्वघोष, भारवि, भट्टि, कुमारदास, माघ इत्यादि महाकवि इस परम्परा में उल्लेखनीय हैं।

संस्कृत महाकाव्य के नाम और परिचय
1. रामायण

आदिकवि महर्षि वाल्मीकि द्वारा 24हजार पद्यों में विरचित सप्तकाण्डात्मक आदिकाव्य ‘रामायण’ में इक्ष्वाकुवंशीय भगवान् श्रीराम के जन्म, विवाह, वनगमन, सीतापहरण, सीतान्वेषण, सुग्रीवमैत्री, राक्षसवध, लंकाधिपति रावणवध, सीता अग्निपरीक्षा, लवकुशोत्पत्ति, सीताभूमिप्रवेश तथा श्रीराम के महाप्रयाण तक के सम्पूर्ण चरित को विस्तार के साथ काव्यात्मक शैली में चित्रित किया गया है।

2. महाभारत

महाभारत की रचना कृष्णद्वैपायन बादरायण महर्षि वेदव्यास द्वारा की गयी। इसमें 18 पर्व हैं- आदि, सभा, वन, विराट्, उद्योग, भीष्म, द्रोण, कर्ण, शल्य, सौप्तिक, स्त्री, शान्ति, अनुशासन, अश्वमेध, आश्रमवासी, मौसल, महाप्रास्थानिक, स्वर्गारोहण। इन पर्वों में 1920अध्याय तथा लगभग 84हजार श्लोक हैं।

महाभारत के परिशिष्ट हरिवंशपुराण में लगभग 12हजार श्लोक जोड़े गये। इस प्रकार महाभारत में लगभग एक लाख श्लोक होने से इसको शतसाहस्रीसंहिता भी कहा जाता है। इसमें कौरवों तथा पाण्डवों के मध्य हस्तिनापुर के साम्राज्य के लिए हुए कौटुम्बिक संघर्ष का वर्णन है।

महाभारत के तीन संस्करण हुए- व्यासरचित जयसंहिता, वैशम्पायन द्वारा परिष्कृत भारतसंहिता तथा सौति द्वारा परिवर्द्धित महाभारतसंहिता।

महाभारत की रचना 400 ई0पू0 मानी जाती है, परन्तु इसके मौलिक रूप का अविर्भाव इतिहासकार बुद्धपूर्व मानते हैं। महाभारत को भी रामायण के सदृश आर्ष तथा उपजीव्य महाकाव्य माना जाता है।

3. कुमारसम्भव

महाकवि कालिदास संस्कृत के सर्वमान्य कवि माने जाते हैं। इनकी सात कृतियाँ प्रसिद्ध हैं- दो महाकाव्य- रघुवंश और कुमारसम्भव; दो खण्डकाव्य- ऋतुसंहार और मेघदूत तथा तीन नाटक- मालविकाग्निमित्र, विक्रमोर्वशीय तथा अभिज्ञानशाकुन्तल।

4. रघुवंश

वाल्मीकि-रामायण, विष्णुपुराण, वायुपुराण में उपलब्ध सूर्यवंशीय राजाओं के चरितों को आधार बनाकर महाकवि कालिदास ने ‘रघुवंश’ नामक 19सर्गों के महाकाव्य की रचना की। इसमें सूर्यवंशीय राजा दिलीप से प्रारम्भ कर अग्निवर्ण तक 32राजाओं का उल्लेख मिलता है। इसके प्रारम्भिक 9सर्गों में श्रीराम के चार पूर्वजों- दिलीप, रघु, अज और दशरथ का वर्णन है; 10वें सर्ग से 15वें सर्ग तक श्रीराम के सम्पूर्ण चरित का तथा अन्तिम 4सर्गों में श्रीराम के वंशजों का वर्णन मिलता है।

5. बुद्धचरित

अश्वघोष प्रथम शताब्दी के कुषाणवंशीय कश्मीर नरेश कनिष्क के गुरु तथा आश्रित कवि थे। इनके दोनों महाकाव्यों की पुष्पिका में प्राप्त विवरण से विदित होता है कि इनका जन्म साकेत में हुआ तथा इनकी माता का नाम सुवर्णाक्षी था। इनको ब्राह्मण कुल का माना जाता है, क्योंकि बौद्ध धर्म में दीक्षित होने के अनन्तर भी इनके काव्यों में शास्त्रों तथा वेदों के अनेक सिद्धान्त मिलते हैं। कालान्तर में पाश्र्व के शिष्य पूर्णयशस् ने इनको बौद्ध धर्म में दीक्षित किया। साधारण जनता को बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों से परिचित कराने के लिए इन्होंने बुद्धचरित और सौन्दरनन्द नामक दो महाकाव्यों की रचना की।

बुद्धचरित में भगवान् बुद्ध के जीवन और उपदेशों का वर्णन करता है। इसमें मूलत: 28 सर्ग थे, किन्तु आज इसके प्रथम चौदह सर्ग ही उपलब्ध हैं। वैसे पूरे महाकाव्य के तिब्बती और चीनी भाषा में अनुवाद भी हो चुके थे, जो उपलब्ध हैं। बुद्धचरित पर रामायण का बहुत अधिक प्रभाव है। इसके कई दृश्य रामायण से समता रखते हैं। घटनाओं का चयन तथा आयोजन करने में अश्वघोष अधिक प्रभाव डालते हैं। बौद्ध होते हुए भी प्राचीन वैदिक परम्पराओं के प्रति उनमें गहन निष्ठा है। बुद्धचरित के पूर्वार्द्ध में बुद्ध के निर्वाण तक का वर्णन है। शेष भाग में उनके उपदेशों तथा उत्तरकालिक जीवन का चित्रण है। प्रथम तथा चतुर्दश सर्ग अपूर्ण है। 14 से 17 सर्ग की पूर्ति किसी अमृतानन्द नामक नेपाली पण्डित द्वारा की गयी।

इस महाकाव्य में भगवान् बुद्ध के गर्भाधान तथा जन्म से प्रारम्भ कर बुद्धत्वप्राप्ति तक का जीवनचरित वर्णित है। प्रथम सर्ग में असित मुनि द्वारा की गयी बुद्धविषयक भविष्यवाणी का वर्णन है। दूसरे सर्ग में महाराज शुद्धोदन द्वारा सिद्धार्थ को अपने प्रासाद में सुखोपभोगों में आसक्त करने का प्रयास किया जाता है। तीसरे सर्ग में रोगी, वृद्ध तथा मृत को देख बुद्ध विरक्त हो जाते हैं। चतुर्थ सर्ग में सुन्दर युवतियों के द्वारा रिझाने का प्रयास किए जाने पर भी पाँचवे सर्ग में सिद्धार्थ महाभिनिष्क्रमण कर जाते हैं। छठे सर्ग में सारथि छन्दक की व्याकुलता चित्रित है। सातवें सर्ग में सिद्धार्थ तपोवन में प्रवेश करते हैं तथा आठवें में सिद्धार्थ के वियोग में स्त्रियों का विलाप चित्रित है। नवम में सिद्धार्थ को शुद्धोदन खोजते हैं। दशम में सिद्धार्थ मगध पहुँचते हैं। एकादश सर्ग में उनके द्वारा कामनिन्दा के अनन्तर द्वादश में अराड ऋषि के आश्रम के पहुँच धर्मोपदेश प्राप्त करना वर्णित है। सिद्धार्थ अराड के उपदेशों पर विचार कर तपस्या प्रारम्भ करते हैं कि त्रयोदश सर्ग में मार (काम) उनकी तपस्या में विघ्न डालता है। बहुत प्रयास करने पर भी सिद्धार्थ से परास्त होता है मार। चौदहवें सर्ग में सिद्धार्थ के बुद्धत्वप्राप्ति का वर्णन है।

इसके बाद के सर्ग जो संस्कृत में नहीं मिलते उनमें बुद्ध के धर्मचक्रप्रवर्तन, शिष्यपरम्परा, पिता से मुलाकात, उपदेशों तथा निर्वाण की प्रशंसा का वर्णन है।

6. सौन्दरनन्द

यह अश्वघोष का दूसरा महाकाव्य है, जिसमें 18 सर्ग हैं। इसमें के सौतेले भाई नन्द की धर्मदीक्षा का वर्णन है। इस महाकाव्य के आरम्भिक भाग में कवि ने नन्द और उसकी पत्नी सुन्दरी के परस्पर अनुराग को शृंगार रस के माध्यम से प्रस्तुत किया है।

नन्द के बुद्ध के विहार में चले जाने पर दोनों की विरह-व्यथा का पृथक्-पृथक् वर्णन किया गया है। नन्द के मानसिक संघर्ष का चित्रण करने में कवि ने पूर्ण सफलता पाई है। बौद्ध धर्म के उपदेशों का अत्यन्त रोचक उपमाओं के द्वारा इसमें प्रतिपादन किया गया है। जो नन्द काम में आसक्त था, वही धर्मोपदेशक बन जाता है। अश्वघोष के दोनों महाकाव्य वैदर्भी रीति में लिखे गए हैं। उनमें अलंकारों का प्रयोग स्वाभाविक रूप से है। अश्वघोष ने बौद्धधर्म के उपदेशों को काव्य का रूप देकर प्रस्तुत किया है, जिससे लोग संन्यास-धर्म के प्रति प्रवृत्त हों। भोग के प्रति अनासक्ति और संसार की असारता दिखाने में कवि को पूरी सफलता मिली है।

7. किरातार्जुनीय

महाकवि भारवि विरचित किरातार्जुनीय महाकाव्य 18सर्गों में उपनिबद्ध है जिसका वृत्तान्त महाभारत के वनपर्व से लिया गया है। भारवि का समय 550 से 600 ई0 के मध्य माना जाता है, क्योंकि 634 ई0 के पुलकेशिन द्वितीय के प्रशस्ति लेखक रविकीर्ति के बीजापुर के ऐहोल ग्राम से मिले शिलालेख में भारवि का उल्लेख मिलता है- स विजयतां रविकीर्तिः कविताश्रितकालिदासभारविकीर्तिः- यहाँ रविकीर्ति ने स्वयं को कलिदास तथा भारवि के समान यशस्वी बताया है। किरातार्जुनीय महाकाव्य में किरातवेशधारी शिव और अर्जुन का इन्द्रकील पर्वत पर युद्ध तथा शिव द्वारा प्रसन्न हो अर्जुन को पाशुपतास्त्र प्रदान करने की घटना प्रधान है।

8. रावणवध/भट्टिकाव्य

भारवि के पश्चात् संस्कृत महाकाव्य परम्परा में महाकवि भट्टि विरचित ‘रावणवध’ महाकाव्य का स्थान आता है। इसको भट्टिकाव्य भी कहा जाता है। इस महाकाव्य में 22 सर्ग हैं। इसमें भगवान् श्रीराम के जन्म से प्रारम्भ कर राज्याभिषेक तक के सम्पूर्ण वृत्तान्त को उपनिबद्ध किया गया है।

9. जानकीहरण

महाकवि कुमारदास द्वारा विरचित जानकीहरण महाकाव्य में 20सर्ग हैं जिनमें रामजन्म से लेकर रावणवध तक का रामचरित उपनिबद्ध है। महाकवि ने अपनी काव्यप्रतिभा से प्राचीन कथानक को नया कलेवर देने का भरपूर प्रयास किया है।

कुमारदास सिंहल द्वीप के निवासी थे। ये 517 से 526 ई0 के मध्य लंका के राजा थे। सिंहल द्वीप के जातीय इतिहास ग्रन्थ महावंश में मोद्गलायन के पुत्र कुमारधातुसेन नामक राजा का उल्लेख मिलता है जिन्होंने 9वर्षों तक पिता की मृत्यु के बाद सिंहल द्वीप पर शासन किया था। महावंश में कुमारदास की कृति का उल्लेख न मिलने से इतिहासकार राजा कुमारधातुसेन तथा कवि कुमारदास को एक मानने के पक्षधर नहीं हैं।

कुमारदास महाकवि कालिदास के रघुवंश महाकाव्य से प्रभावित हैं।

10. शिशुपालवध

महाकवि माघ द्वारा महाभारत के सभापर्व (33 से 45अध्याय) में युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा अपने फुफेरे भाई चेदिनरेश शिशुपाल का वध किए जाने के वृत्तान्त को आधार बनाकर 20सर्गों तथा 1650पद्यों में विरचित ‘शिशुपालवध’ महाकाव्य संस्कृत महाकाव्य परम्परा की बृहत्त्रयी का अमूल्य रत्न माना जाता है। शिशुपाल के वध का यह वृत्तान्त श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध में भी मिलता है।

महाकाव्य के अन्त के पाँच पद्यों में महाकवि ने अपना वंशपरिचय दिया है। इसके अनुसार उनके पितामह ‘सुप्रभदेव’ श्रीवर्मल संज्ञक राजा के महामन्त्री थे। उनके धर्मनिष्ठ पुत्र थे ‘दत्तक’ जिनके पुत्र थे महाकवि माघ। श्रीवर्मल को वर्मलात नामक राजा माना जाता है जो माघ के पितामह सुप्रभदेव के आश्रयदाता थे। इनका राजपूताने के वसन्तगढ़ से 625ई0 का शिलालेख मिलता है। इस आधार पर सुप्रभदेव का समय सातवीं शताब्दी का प्रारम्भ तथा माघ का समय सातवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध सिद्ध होता है। नौंवी शताब्दी के आचार्य वामन के काव्यलंकारसूत्र तथा 850ई0 के आनन्दवर्द्धन के काव्यशास्त्रीय ग्रन्थ ध्वन्यालोक में शिशुपालवध के पद्य उद्धृत होने से माघ का स्थितिकाल इनसे पूर्व सिद्ध होता है।

शिशुपालवध के कतिपय प्राचीन पाण्डुग्रन्थों में प्राप्त पुष्पिकाओं से महाकवि माघ ‘भिन्नमालवास्तव्य’ सिद्ध होते है। भीनमाल वर्तमान समय में राजस्थान में आबूपर्वत तथा लूना नदी के मध्य स्थित है। यह सिरोही जिले की एक तहसील है जो ‘ब्रह्मगुप्तसिद्धान्त’ नामक ज्योतिष के प्रसिद्ध ग्रन्थ के रचयिता ब्रह्मगुप्त की जन्मस्थली है। सातवीं शताब्दी में चीनी यात्री ह्वेनसांग के यात्रावृत्तान्त में इसका उल्लेख गुजरात की राजधानी तथा प्रसिद्ध विद्याकेन्द्र के रूप में मिलता है। शिशुपालवध महाकाव्य में युधिष्ठिर द्वारा राजसूय यज्ञ में सभी ज्येष्ठों की सम्मति से श्रीकृष्ण को प्रथम अघ्र्य दिया जाता है जिसका शिशुपाल विरोध करता है। शिशुपाल श्रीकृष्ण का अपमान कर युद्ध के लिए ललकारता है और श्रीकृष्ण के हाथों मारा जाता है।

महाकाव्य का प्रारम्भ किरातार्जुनीय सदृश ‘श्री’ पद से हुआ है- श्रियः पतिः श्रीमति शासितुं जगत्- इस रूप में। प्रथम सर्ग में देवर्षि नारद इन्द्र का सन्देश लेकर श्रीकृष्ण के पास द्वारकापुरी पहुंचते हैं तथा दुराचारी शिशुपाल के पूर्वजन्मों का वृत्तान्त बताकर लोककल्याणार्थ उसके वध के लिए श्रीकृष्ण को प्रेरित करते है। द्वितीय सर्ग में श्रीकृष्ण मन्त्रणा करते हैं बलराम और उद्धव से। उन्हंे इसी समय युधिष्ठिर के राजसूय में जाने का आमन्त्रण भी मिलता है। उद्धव के परामर्श पर शिशुपाल के वध की अपेक्षा वे युधिष्ठिर के राजसूय में सम्मिलित होने को महत्त्व देते हैं। तृतीय सर्ग से त्रयोदश सर्ग तक श्रीकृष्ण का द्वारका से प्रस्थान, मार्ग में रैवतक पर्वत पर सेना का पड़ाव, षड्ऋतुओं का वर्णन, वनविहार, जलक्रीडा, चन्द्रोदय, मधुपान, प्रभात आदि का महाकवि ने मनोरम चित्रण किया है। श्रीकृष्ण यमुना पार कर इन्द्रप्रस्थ पहुंचते हैं। चतुर्दश सर्ग में युधिष्ठिर उनको अपने यज्ञ का रक्षक बना लेते हैं। श्रीकृष्ण की यज्ञ में अग्रपूजा होती है। पन्द्रहवें सर्ग में शिशुपाल श्रीकृष्ण की अग्रपूजा को सह नहीं पाता और उनका अपमान करता है। इससे उत्तेजित दोनों पक्ष के योद्धा युद्ध के लिए उद्यत होते हैं।

शिशुपाल अपने शिबिर में जाकर श्रीकृष्ण पर आक्रमण की योजना बनाता है। सोलहवें सर्ग में शिशुपाल का दूत श्रीकृष्ण के पास पहुंच कर स्तुति तथा निन्दापरक द्वîार्थक सन्देश सुनाता है। सात्यकि दूत को समुचित उत्तर देता है। दूतसंवाद से उत्तेजित श्रीकृष्ण की सेना युद्ध के लिए प्रयाण करती हैं। अठाहरवें तथा उन्नीसवें सर्ग में दोनों सेनाओं के मध्य भीषण युद्ध का वर्णन है। अन्ततः बीसवें सर्ग में श्रीकृष्ण तथा शिशुपाल के मध्य युद्ध में शिशुपाल का वध होता है। शिशुपालवध के साथ महाकाव्य पूर्ण हो जाता है।

11. हरविजय

कश्मीरी कवि रत्नाकर द्वारा विरचित ‘हरविजय’ महाकाव्य में पचास सर्ग हैं तथा 4321पद्य। इसमें मत्स्यपुराण के 179वें अध्याय में प्राप्त अन्धकासुर की कथा को महाकाव्य के रूप में उपनिबद्ध किया गया है। रत्नाकर का समय नवम शताब्दी का उत्तरार्द्ध माना जाता है। रत्नाकर की तीन रचनाएँ मिलती हैं- हरविजय, वक्रोक्तपंचाशिका, ध्वनिगाथापंजिका।

हरविजय महाकाव्य के प्रत्येक सर्ग की पुष्पिका में महाकवि ने लिखा है- ‘इति श्रीबालबृहस्पत्यनुजीविनो वागीश्वराङ्कस्य विद्याधिपत्यपरनाम्नो महाकवे राजानकश्रीरत्नाकरस्य कृतौ रत्नाङ्के हरविजये महाकाव्ये’ इससे स्पष्ट होता है कि महाकवि राजानक रत्नाकर ‘बालबृहस्पति’ की उपाधि से सम्मानित राजा जयापीड के सभापण्डित थे जिनका समय 800ई0 माना जाता है। हरविजय महाकाव्य में परम पराक्रमी अन्धकासुर नामक राक्षस के वध की कथा वर्णित है।

12. श्रीकण्ठचरित

कश्मीर के राजा जयसिंह के सभापण्डित महाकवि मङ्ख द्वारा विरचित श्रीकण्ठचरित महाकाव्य 25सर्गों में उपनिबद्ध है। मङ्ख का समय बारहवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध है, क्योंकि राजा जयसिंह का समय 1129 से 1150 ई0 माना जाता है। इनके गुरु थे आचार्य रुय्यक। श्रीकण्ठचरित महाकाव्य भगवान् शिव द्वारा किए गए त्रिपुरदाह के पौराणिक इतिवृत्त पर आश्रित है। इस पर जोनराज की टीका उपलब्ध होती है। इसके प्रथम सर्ग में शिववन्दना है। दूसरे सर्ग में महाकवि ने सज्जन-दुर्जन का वर्णन किया है। तृतीय सर्ग में कश्मीर का वर्णन किया है। इस महाकाव्य के शेष सर्गों में त्रिपुरदाह की कथा का सरस वर्णन है।

13. नैषधीयचरित

नैषधीयचरित का संस्कृत महाकाव्यों की बृहत्त्रयी में महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसके रचयिता दार्शनिक कवि श्रीहर्ष हैं। नैषधीयचरित का कथानक महाभारत के वनपर्व में 52 से 79अध्याय तक प्राप्त होने वाले नलोपाख्यान पर आश्रित है। इस महाकाव्य में निषध देश के राजा नल तथा विदर्भदेश के राजा भीम की पुत्री राजकुमारी दमयन्ती के मध्य प्रणय प्रसंग को महाकवि ने अपने रोचक वस्तुविन्यास तथा शैली से 22सर्गों में उपनिबद्ध किया है।

14. विक्रमांकदेवचरित

महाकवि बिल्हण द्वारा विरचित ऐतिहासिक महाकाव्य विक्रमांकदेवचरित में चालुक्यवंशीय नरेश विक्रमादित्य षष्ठ को नायक बनाकर 18 सर्गों में चालुक्य वंश का इतिहास उपनिबद्ध किया गया है। महाकाव्य के अन्तिम सर्ग में महाकवि ने अपना जीवनवृत्त स्वयं प्रस्तुत किया है।

15. राजतरङ्गिणी

कश्मीर के प्रसिद्ध कवि कल्हण द्वारा विरचित राजतरङ्गिणी अपने आठ तरंगों में प्राचीन काल से प्रारम्भ कर 12वीं शताब्दी तक के कश्मीर के इतिहास को प्रकाशित करने वाला महत्त्वपूर्ण महाकाव्य है। इसमें कश्मीर का राजनीतिक इतिहास, भौगोलिक विवरण, सामाजिक व्यवस्था, साहित्यिक अवदान तथा आर्थिक दशा का विस्तृत विवेचन है।

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