जौहर : श्यामनारायण पाण्डेय

Jauhar : Shyam Narayan Pandey


बीसवीं चिनगारी : प्रवेश

सूरज निकला लाल-लाल, भूतल पर रवि-किरणें उतरीं । गरम चिता के पूत भस्म पर मुरदों के तन पर बिखरीं ॥ गढ़ के तरु-तरु की डालों पर, खगावली बोली बोली । नभ तक धूम मचानेवाली खूब जली गढ़ की होली ॥ खेल रक्त से फाग सो गये क्यों तुम शोणित से लथपथ | जगो जगाती तुम्हें प्रभाती, जग-जग चले सजग जग-पथ ॥ सिंहद्वार से घुसे जा रहे, चोर कुबेरपुरी अन्दर । खोज रहे व्याकुल आँखों से किसको लिये छुरी अन्दर ॥ जगो, तुम्हारी अलका में पर-तापी घुसते जाते हैं । उठो, तुम्हारी स्वर्गपुरी में पापी घुसते जाते हैं ॥ जगो, तुम्हारी काशी में हत्यारों ने घेरा डाला । उठो तुम्हारे तीर्थराज पर निठुरों ने डेरा डाला ॥ जगो, तुम्हारी जन्मभूमि को रौंद लुटेरे लूट रहे । उठो तुम्हारी मातृ-भूमि के जीवन के स्वर टूट रहे ॥ जगो, तुम्हारे अन्न वस्त्र पर राह बनाई जाती है । उठो, तुम्हारी हरियाली में आग लगाई जाती है ॥ जगो, तुम्हारे नन्दन को वैरी शोणित से सींच रहे । उठो, द्रौपदी का अञ्चल सौ-सौ दुःशासन खींच रहे ॥ जगो, सदलबल रावण आया, कहीं न चोंच डुबो पाये । उठो, तुम्हारी पञ्चवटी में सीता-हरण न हो पाये ॥ जगो, विरोधी घूम-घूम घर - घर के दाने बीन रहे । उठो तुम्हारे आगे की थाली बरजोरी छीन रहे ॥ जगो, तुम्हारी रतन-राशि पर अरि का कठिन लगा ताला । उठो, डाकुओं ने जननी की निधियों पर डाका डाला ॥ रावण के हाथों पर जैसे शंकर का कैलास हिला । उठो, तुम्हारी हुंकृति पर वैसे ही हिले अधीर किला ॥ जगो, दबाकर अँगड़ाई लो, हँफर हँफर गढ़ हाँफ उठे । शेषनाग - सी करवट लो सारी भू थर-थर काँप उठे ॥ जगा-जगा खग हार गये, पर जग न सके योधा गढ़ के । थके बिचारे कौवे भी जाग्रति के मन्तर पढ़-पढ़ के ॥ गीधों ने भी उन्हें हिलाया, पर न नींद उनकी टूटी। कैसे अमर शहीद जागते; गढ़ की थी किस्मत फूटी ॥ रावल - शिर ले कुन्त-नोंक पर ध्यान लगाये थाती पर । कलरव की परवाह न कर अरि चढ़ा किले की छाती पर ॥ अत्याचारी के दर्शन से गढ़ का कण-कण काँप उठा । हा, पापी के पाप - भार से दुर्ग-धरातल हाँफ उठा ॥ उस नृशंस ने दुर्ग-शिखर पर एक वृद्ध नारी देखी । उस वृद्धा के जर्जर तन पर एक फटी सारी देखी ॥ फटे पुराने चिथड़ों में माँ का शरीर था ढँका हुआ । सतत घूमने से मुरदों में, अङ्ग अङ्ग था थका हुआ ॥ तो भी तन से तेज निकलता, रोम रोम से पावनता । लकुट लिये थी, जरा-भार से झुकी हुई थी देह - लता ॥ बोल उठा माँ से अभिमानी, कहाँ पद्मिनी रानी है । मुझे महल का पता बता दो, मेरी विकल जवानी है ॥ तब कुछ करो, विकल प्रश्नों का पहले उत्तर दे लो तुम । एक एक अक्षर पर मुझसे एक - एक मणि ले लो तुम ॥ जननी ने आँखों से इंगित चिता-धूम की ओर किया । जहाँ रानियाँ जलती थीं, उस ओर तर्जनी- छोर किया ॥ और पके नयनों से झर-झर आँचल पर आँसू बरसे । सती - विरह से विकल हो गई, लकुट गिरा कम्पित कर से ॥ दृष्टि पड़ी उस अधमाधम की धूम - राशि पर जैसे ही । ड़प उठी बिजली, प्रकाश से चकाचौंध भी वैसे ही ॥ धूम - राशि से ज्योति, ज्योति से निकली सती कटार लिये । बढ़ी अधम की ओर मौत-सी, आँखों में अङ्गार लिये॥ देख कुन्त पर रावल का शिर उसे रोष पर रोष हुआ । चली महाकाली-सी उस पर, रह-रहकर घन घोष हुआ ॥ चकाचौंध के खर प्रकाश से गिर-गिर आँखें बन्द हुईं । बार-बार गर्जन तर्जन से अधम शक्तियाँ मन्द हुईं ॥ त्राहि-त्राहि कर वृद्धा की गोदी में छिप जाना चाहा । जीवन हर लेनेवाली से ही जीवन पाना चाहा || पर न वहाँ वृद्धा को देखा, अष्टभुजी मुँह बाये थी । लाल जीभ लपलपा रही थी, मानो काल जगाये थी ॥ बिखरे खुले केश हिलते थे. शोणित-स्नात कटारी थी । रुधिर-भरा खप्पर हाथों पर, आँखों में चिनगारी थी ॥ गर में नर-मुण्डों की माला, खून चू रहा था तरतर । एक - एक हुंकृति में विप्लव, प्रलय काँपता था थरथर ॥ अष्टभुजी काली की काली मूर्ति देखकर काँप गया । भगने तक की सुधि न रही, अन्तिम जीवन अरि भाँप गया ॥ सिंहवाहिनी अष्टभुजी तड़पी, दहाड़कर सिंह चला । काली का कुन्तल अरि के उर में घुस जाने को मचला ॥ साथ साथियों के अधमाधम गिरा चेतना हीन हुआ । अष्टभुजी के भय से वह अपने में आप विलीन हुआ ॥ जग-जगकर वैरी खिलजी को उठा झुण्ड के झुण्ड भगे । मानो गढ़ की स्वर्गपुरी से सभय नरक के कुण्ड भगे । जीवित मुरदा वीर दुर्ग से उठा महल में आया है । दिल्ली में था शोर, कर्म का खिलजी ने फल पाया है ॥ हिन्दू-मुसलमान ही क्या, सब थूक थूक उस पर बोले । पर - नारी को गया छेड़ने, धिक्, पापी सेना को ले॥ मातृ-पितृ-कुल का कलंक पत्नी के उर का दर्द हुआ । पत्नी रोती थी मेरा यह मर्द मुआ नामर्द हुआ ॥ भाई उसको नहीं देखता, बहन समीप न जाती थी । उसके तन की पीड़ा ही उठ-उठ उसको समझाती थी । था परिवार भरा पर दुख सुनने वाला कोई न रहा । उसकी तन-पीड़ा पर शिर धुननेवाला कोई न रहा ॥ गढ़ का वही दृश्य पापी के सदा सामने रहता था । मुझे बचा लो, मुझे बचा लो, भभर-भभरकर कहता था ॥ इसके आगे क्या पापी का हाल हुआ मालूम नहीं । पर हाँ, आगे उस निर्दय की रही धरा पर धूम नहीं ॥ तब से उसने कहीं न अपने मुख की कालिख दिखलायी । आये गये मेघ, पर कालिख धुली न अव तक धुल पायी ॥ उसकी पाप-कथा से मन में कहीं न पाप समा जाये । बन्द कथा होती उसकी अघ-छाया कहीं न आ जाये ॥ पथिक, एक आश्चर्य सुनो, अब तक तुमने न सुना होगा । मुक्त सती अब भी गढ़ पर आती तुमने न गुना होगा ॥ अर्धरात्रि के मौन प्रहर में सतियों के सँग आती है । स्वर्गपुरी से गढ़ तक जौहर- व्रत की महिमा गाती है ॥ दुर्ग - शिखर पर देव- लोक की अब भी ज्योति उतरती है । भग्न खंडहरों में बादल-सा बालक ढूँढ़ा करती है ॥ वह सतीत्व पर मिटनेवाले गोरे को न कहीं पाती । वह पुरुषों में आन, नारियों में अभिमान नहीं पाती॥ कहीं नरों में पत्नी-व्रत, पातिव्रत- बल ललनाओं में नहीं देखती, खोज - खोज थकती नगरों में, गाँवों में ॥ प्रथम घृणा करती, पर फिर चिन्ता से व्याकुल होती है । अपनी हिजड़ी सन्तानों पर फूट फूटकर रोती है ॥ तुड़वा सकी न कापुरुषों से जननी की जंजीरों को । समाधियों से जगा रही है जौहर के रणधीरों को ॥ सती-वचन पर गत गौरव से प्रीति जोड़नी ही होगी । पराधीनता की बेड़ी ललकार तोड़नी ही होगी ॥ पथिक, रहो तैयार, सती की भेरी बजनेवाली है । जौहर व्रत-सी नर-नारी की सेना सजनेवाली है ॥ जभी खुले, बन्दी माँ का यह बन्धन कभी खुलेगा ही । जभी धुले, माँ का कलंक हम सब से कभी धुलेगा ही॥ अब पथिक, कथा रानी की मैं कह न सकूँगा आगे । कितने ही सुनते होंगे कायर नर नीच अभागे ॥ रानी की अमर कथा क्या सुन सकते सोनेवाले । पर उन्हें सुनानी होगी, जो हैं सुन रोनेवाले॥ अब चलो, सती के इंगित संचित धन से रख मन में । अब चलो, देर होती है मन को रख सती-चरण में ॥ यह कह गोमुखी उठायी, पहरों तक फेरी माला । बुद-बुद पावन मन्त्रों से अपने उर को भर डाला ॥ मृगछाला बगल दबाया, ले सजल कमण्डलु कर में । वनदेवी के चरणों को रख लिया पुलक अन्तर में॥ अनुरक्त पथिक को लेकर गढ़ - गिरि की ओर पुजारी तूफान विकल आँधी- सा चल पड़ा सुमिरिनीधारी ॥ वनदेवी धाम, निकुम्भ, आजमगढ़ महारात्रि, नवरात्र २०००

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