जौहर : श्यामनारायण पाण्डेय

Jauhar : Shyam Narayan Pandey


इक्कीसवीं चिनगारी : दर्शन

पावन 'निकुम्भ' के अन्दर द्रुममय 'द्रुमग्राम' बसा है। दक्षिण 'भैंसही' लहरती, उत्तर बहती 'तमसा' है ॥ वह विह्वल वीर पुजारी, यद्यपि 'द्रुमग्राम'-निवासी । पर पावन करती रहती उसको शंकर की 'काशी' ॥ सहसा उससे उसकी माँ की पावन गोदी छूटी। पीड़ा ने अँगड़ाई ली, यौवन में किस्मत फूटी ॥ जननी-पद के जाते ही उसकी मति थरथर डोली । उसका घर फूँक किसी ने सावन में खेली होली ॥ वह व्यथा दूर करने को कविता में बोला करता । सहचरी सती 'गायत्री' के सँग-सँग डोला करता ॥ 'जौहर' समाप्त होते ही मिल सतियों की माला में, उसकी वह साधु प्रिया भी कूदी 'जौहर' - ज्वाला में ॥ एकाकी गुरु-मन्दिर में पहरों तक जप तप करता । गायत्री-गुरु-मन्त्रों से अन्तर के कल्मष हरता ॥ फिर भी जब शान्ति न पायी, तब अटल समाधि लगायी । देखा समाधि के भीतर, जननी की छाया आयी ॥ बोली - "न दुखी हो बेटा, मैं तुझसे दूर नहीं हूँ । अपने हीरे को दुख दूँ, मैं ऐसी क्रूर नहीं हूँ ॥ बेटा, मैं तेरे तन-मन के सुख-दुख देखा करती । मुरझाये लाल न मेरा, क्षण-क्षण मुख देखा करती ॥ अब एक मान कहना तू, जा, सती चरण-अर्चन कर । बेटा, अति शान्ति मिलेगी, रज से पावन तन मन कर"॥ यह कह सुत से जननी ने, रानी की कही कहानी । दोनों के उर में ज्वाला, चारों आँखों में पानी ॥ शत वर्षों का जीवन हो, यह आशीर्वाद तुझे है । उठ, पूजा कर, जाती हूँ, होती अब देर मुझे है ॥ यह कहकर छाया सरकी, उसकी समाधि भी टूटी । कर पूजा - पाठ पुजारी ने जीवन की निधि लूटी ॥ की परिक्रमा पुर भर की, रख द्वार-द्वार पर अक्षत । पुर-सुर-पुर जन वन्दन कर, वह चला तीर्थ - पथ पर नत ॥ वह उठा 'विष्णु मन्दिर' से, गुरुजन को माथ नवाया । 'नारायण गृह' के सन्निधि वह 'कूप - जगत' पर आया॥ बाहर पुर की वधुओं ने उस मातृहीन को देखा । आँखों में पानी भर-भर उस चिर नवीन को देखा ॥ बोलीं, जल पोंछ दृगों के, उसकी सब दूर बला हो । माँ - बाप बिना पागल है, उसका भगवान भला हो ॥ गुरुदेव-कुटी पर आकर गुरु-पद पर शिर रख बोला । मैं चला तीर्थ यात्रा को, गुरु का भी आसन डोला ॥ 'वनदेवी' के मन्दिर में कर पाठ, मना देवी को वह चला तीर-सा पथ पर उर-भाव जना देवी को ॥ बढ़ चला पुजारी ऊबड़- खाभड़ कण्टक-मय पथ से । कुश के तीखे डाभों पर नृप दशरथ के से रथ से ॥ ऊसर, बंजर, नद, नाले, वीरान विपिन पथरीले । बिलमा न सके यात्री को, क्षण भर भी पथ कँकरीले ॥ पथ के कंकड़-पत्थर क्या हट गुरु गिरि तक जाते थे । योगी के पथ के काँटे भी बगल दबक जाते थे ॥ झुर-झुर बयार बहती थी, घन-माला छाया करती । माँ सी अनुकूल नियति भी उसको बहलाया करती ॥ तरु अगल बगल हो जाते, ऊँची भू सम हो जाती । जाते जल जल सूख नदी के, पथ की बाधा खो जाती ॥ वह 'गाधिनगर' से होता 'काशी' आया पूजन कर ऊँची अटारियाँ देखीं पग-पग पर अर्चित शंकर ॥ श्रुति पाठ कण्ठ करने की वटु-ध्वनि से पावन होता। रोहित की करुण कहानी की स्मृति से सावन होता ॥ हर महादेव, हर गंगे, हर विश्वनाथ, हर काशी । जन-जन के रव से विह्वल हो गया नवल संन्यासी ॥ मुखरित घाटों के दर्शन कर, स्नान किया गंगा में । जल के भीतर सन्ध्या की, गोदान किया गंगा में ॥ पार्थिव-पूजन कर मन्दिर में शिव को माथ नवाया । सोने का मन्दिर देखा, अर्चित हर से वर पाया ॥ अभिराम 'मातृ-मन्दिर' में, 'माधव निकुंज' उपवन में, निशि भर थम चला पुजारी, रख 'विन्ध्यवासिनी' मन में ॥ कर 'अष्टभुजी' को जोड़ा, ले 'विन्ध्यवासिनी' से वर । सेंदुर-चूरी-चुनरी ली, चल पड़ा अधीर कलेवर ॥ रघुवीर-दूत - सा पहुँचा अभिराम त्रिवेणी-तट पर । काशी से ध्यान लगा था युग पूत 'अक्षयवर वट' पर ॥ गंगा-यमुना बहनों को घुल घुलकर मिलते देखा । जल-तल की सरस्वती को खुल-खुलकर खिलते देखा ॥ माणिक-मोती-नीलम के थीं हार पिरोतीं बहनें । लर टूट-टूट जाती थी, पर विमन न होतीं बहनें ॥ पहनेगा कौन इसे रे, श्रम पड़ता धार-तती को । बनने पर मिल जाता तो पहनाता हार सती को ॥ जलपान किया, दर्शन कर डुबकी जल - बीच लगायी। सूर्यार्घ्य दिया, सन्ध्या की, पद - गति में आँधी आयी ॥ यमुना के तीरे-तीरे उड़ चला राम गुण गाता । मीरा के नटनागर को उर-आसन पर पधराता ॥ वृन्दावन के, गोकुल के उस चरवाहे घनतन को, कर उठा किया अभिवादन, उस राधा-रमा-रमण को ॥ वह चला 'बेतवा' तट से, क्षण भर से पहुँचा झाँसी । लक्ष्मीबाई रानी के सन्निधि आया संन्यासी ॥ सन सत्तावन में जिसकी तलवार तड़ित-सी चमकी । जो स्वतन्त्रता-बलिवेदी पर मख-ज्वाला-सी दमकी॥ मुसकायी वह झाँसी के कण-कण में लक्ष्मीबाई । उसने पूजा की, कुछ दिन झाँसी में धुनी रमाई ॥ वह गढ़ की ओर चला था जैसे ही वीर पुजारी । वैसे ही मिला पथिक भी, जो साधु - मिलन अधिकारी ॥ वह पथिक पुजारी से मिल, पद रज छू छूकर बोला- "क्यों कहाँ चला मृगछाला, मन तीर्थाटन पर डोला ? क्यों किसे पूजने जाते, वह कौन कहाँ पर बोलो । मेरा भी मन विह्वल है, क्षण भर थम गतश्रम हो लो ॥ इस कम्बल के आसन को पद रज से पावन कर दो। अन्तर की तीव्र तृषा को आख्यान - अमृत से भर दो"॥ अधिकारी देख पथिक को बैठा कम्बल पर ज्ञानी । अथ से इति तक रो-रोकर रानी की कही कहानी ॥ सुन पूत कथा रानी की जड़ सदृश पथिक निश्चल था । अन्तर की श्रद्धा उमड़ी, आँखों में जल ही जल था ॥ उसने भी साथ पुजारी के गढ़ पर जाना चाहा । आँसू से सती-पदों को धो फूल चढ़ाना चाहा ॥ आगे चल पड़ा पुजारी अनुरक्त पथिक को लेकर । श्रद्धा से हठ करने पर पूजा की थाली देकर ॥ वह उड़ा विहग-सा पथ पर होता 'शिवपुरी' नगर से । आ गया समीप किले के अनजाने अगम डगर से॥ बेसुध हो गया पुजारी क्षण-क्षण पुलकित हो - होकर । गढ़ गिरि को माथ नवाया भू-रज लुण्ठित हो - होकर ॥ भू पर पद रखते डरता, लाचार पुजारी बढ़ता | यदि शिर में गति होती, तो गढ़ पर शिर के बल चढ़ता ॥ अविराम मन्त्र-सा पढ़ता, करता दण्डवत निरन्तर। वह चढ़ने लगा किले के दुर्गम पथरीले पथ पर ॥ उर में उत्साह भरा, पर रह-रहकर सिहरन-कम्पन। डगमग डगमग पग भू पर वह पुलकित तन, पुलकित मन ॥ रानी की पाहन - प्रतिमा, सरवर के एक किनारे । अपलक क्षण भर तक देखी डूबे जल में दृग-तारे ॥ वह पुलक सोचता आया, था बेसुध पथ पर योगी । सोने का मन्दिर होगा, हीरे की प्रतिमा होगी ॥ पर वहाँ किसी हिन्दू ने छतरी भी नहीं बनायी । धिक्, हिन्दु-सूर्य-वैभव पर तत्काल रुलाई आयी ॥ रोते ही उस प्रतिमा को साष्टाङ्ग किया अभिवादन । फिर लोट गया रानी के जड़ चरणों पर व्याकुल मन ॥ पहरों तक पद पर सोये, पहरों तक पद पर रोये । आँखों के गङ्गाजल से अघ जनम जनम के धोये ॥ उठकर तीर्थों के जल से रोते ही ही स्नान कराया । कम्पित कर से प्रतिमा को रोते ही हार पिन्हाया ॥ चरणों पर फूल चढ़ाकर घी-दीप जलाया रोते । अधिकाधिक पद-पूजन को उर-भाव विकल थे होते ॥ नैवेद्य, धूप, धूप, मधु, चन्दन, अक्षत से पद-पूजा की। मानस की श्रद्धा उमड़ी, सब ओर सती की झाँकी ॥ निर्मल कपूर की, घी की, जल उठी आरती जगमग । घण्टों की, घड़ियालों की धीर-ध्वनि से मुखरित जग ॥ वह लिये आरती कर पर केकी-सा नाच रहा था । वरदान सती की प्रतिमा के मुख पर बाँच रहा था ॥ घण्टों के बाद कहीं पर ध्वनि रुकी यजन - घण्टों की । तत्काल पुजारी ने भी रुक ज्वलित आरती रोकी ॥ पश्चों के आगे घूमी, सबने झुक शीश नवाये । जग के सब प्रान्तों के नर थे सती पूजने आये ॥ अपनी-अपनी भाषा में, अपनी-अपनी बोली में । स्तुति की सबने रानी की अपनी-अपनी टोली में ॥ पर पथिक पुजारी दोनों हिन्दी भाषा में बोले । जो सबसे अधिक मधुर थी, जिसको सुन जड़ भी डोले ॥ दो चार शब्द कह पाये, रुँध गये गले दोनों के । श्रद्धा पर श्रद्धा उमड़ी, आँसू निकले दोनों के ॥ सब चले गये पूजा कर, रुक रोते पथिक- पुजारी । उस प्रतिमा की आँखों से भी जलधारा थी जारी॥ कुछ देर बाद पाहन की प्रतिमा के पद-कर डोले । रानी ने वरद विलोचन पाहन-प्रतिमा में खोले ॥ प्रत्यक्ष सती - दर्शन से जीवन के सब फल पाये । रानी के मृदुल पदों पर आँसू के फूल चढ़ाये ॥ बोली, वर माँग पुजारी, उसने वरदान न माँगा । केवल आँसू के स्वर में जौहर का गायन माँगा ॥ नभ से सुमनावलि बरसी, अविराम दुन्दुभी बाजी । उस साधु-पुजारी के गुण, गा उठी पुलक सुर-राजी ॥ प्रभो, पुजारी की पूजा यह, वीर सती का जौहर - व्रत । रवि-मयंक सम अजर अमर हो, मुख-मुख में मुखरित सन्तत ॥ छन्द छन्द की गति-लय-ध्वनि में प्रभो, तुम्हारी गीता है । शब्द - शब्द में, अर्थ अर्थ में, महिमा परम पुनीता है ॥ पाञ्चजन्य की ध्वनि स्वर-स्वर में जगा रही सन्तानों को । हुं-हुं-हुंकृति तुक-तालों में उठा रही बलिदानों को ॥ ह्रस्व-दीर्घ में लघिमा-गरिमा, मात्राओं में बाँके तुम । सन्धि-सन्धि में शक्ति-संग तुम, सबल सहायक माँ के तुम ॥ महाकाव्य की पंक्ति-पंक्ति में, चरण चरण में झाँक रहे । आदि-अन्त के बीच गरुड़ को वर्ण-वर्ण में हाँक रहे ॥ भारत के पुण्यों का फल, जो 'जौहर' में अवतार हुआ । नाच उठी कविता विह्वल हो, जन जन का उपकार हुआ ॥ इसीलिए है विनय, चाप ले चरणों में टंकार करो । 'जौहर' के छन्दों में गरजो, वर्णो में हुंकार करो ॥ गूँज उठे ध्वनि वेद-पाठ की जड़-चेतन संवाद करें । द्वार-द्वार के पक्षी भी सूत्रों पर वाद-विवाद करें ॥ ललनाएँ सब रतन-पद्मिनी के जीवन का मनन करें। 'जौहर' के जौहर को समझें, पति-पद का अनुगमन करें ॥ नर में पत्नीव्रत का बल हो, पातिव्रत-बल नारी में । जौहर की सतियों का साहस वृद्धा-युवति-कुमारी में ॥ विष्णु मन्दिर, द्रुमग्राम (आजमगढ़) वटसावित्री व्रत, २००० -शुभम् -

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