जौहर : श्यामनारायण पाण्डेय

Jauhar : Shyam Narayan Pandey


उन्नीसवीं चिनगारी : व्रत

थी रात पहर भर और शेष, पौ फटने में थी देर अभी । शासन करता था भूतल पर तमराज धरा को घेर अभी ॥ नव शिशु से तारे सटे हुए, थे अभी गगन की छाती से । मुखरित न हुए थे वन-उपवन, विहगों की वीर प्रभाती से ॥ जौहर - ज्वाला में कूद - कूद; उन सतियों के जल जाने पर । उन भीम भयंकर लपटों में, माँ-बहनों के बल जाने पर ॥ प्रज्वलित वुभुक्षित पावक को उठ माथ नवाया वीरों ने । उठ उठ स्वाहा स्वाहा कर कर दी पूर्णाहुति व्रत-धीरों ने ॥ मल-मलकर तन में चिता-भस्म क्षण भर खेले अङ्गारों से । शिर लगा चिता-रज गरज उठे गढ़ हिला-हिला हुङ्कारों से ॥ मन्दिर मे रखे सिंधोरों को, फेंका जौहर की ज्वाला में । नर-मुण्ड बढ़ाने चले वीर ताण्डव-रत हर की माला में ॥ माँ बहनों के मिट जाने से प्राणों में मोह न माया थी । इसलिए आन पर मिटने को वीरों की व्याकुल काया थी ॥ घायल नाहर से गरजे, ताड़ित विषधर से फुफकार चले । खूँखार भेड़ियों के समान वैरी-दल को ललकार चले ॥ फाटक के लौह किवाड़ खोल बोले जय खप्परवाली की । जय मुण्ड चबानेवाली की जय सिंहवाहिनी काली की ॥ जय नाच नचानेवाली की, जय प्रलय मचानेवाली की । वैरी के वीर कलेजे को जय लहू पचानेवाली की ॥ बोले अरि शोणित पी जाओ, बोले मरकर भी जी जाओ। मेरे गढ़ के घायल शूरो, अरि-दल से लिपट अभी जाओ ॥ जय बोल व्यूह में घुसे वीर, घनमण्डल में जैसे समीर । सरपत में जैसे अग्निज्वाल, दादुर में जैसे वक्र व्याल ॥ ले ले वरदान कपाली से, ले ले बल गढ़ की काली से । अरि शीश काटने लगे वीर, छप छप तलवार भुजाली से ॥ पी खून जगी खूनी कटार, वैरी उर के थी आर पार । अरि कण्ठ-कण्ठ पर कर प्रहार पी रही रक्त तलवार-धार ॥ सौ सौ वीरों के चक्रव्यूह में घूम रहा था एक वीर । सौ सौ धीरों के आवर्त्तन में झूम रहा था एक धीर ॥ वैरी के ऐसे गल गिरते, जैसे टप-टप तरु-फल गिरते । कट - कटकर मस्तक गिरते थे, शोणित सागर में तिरते थे ॥ रावल तलवार उघारी थी, जड़ थी तो भी वह नारी थी। भग - भगकर वह सैनिक-उर में छिपती थी सलज कुमारी थी॥ वह कभी छिपी हय पाँती में, वह कभी गजों को छाती में । वह कभी झमककर उलझ गयी कम्पित घाती आघाती में ॥ वह ज्वाला-सी जरती आयी, वह दावा-सी बरती आयी । वह घुस-घुस वैरी-सेना में लो रक्त वमन करती आयी॥ अरि-व्यूह काटती जाती थी, अरि-रक्त चाटती जाती थी । अरि-दल के रुण्डों मुण्डों से रणभूमि पाटती जाती थी ॥ रावल की खर तलवार देख, रावल-दल की ललकार देख । वैरी थे थकित - चकित - कम्पित, कुण्ठित लुण्ठित संहार देख ॥ घन-सदृश गरज खिलजी बोला, गढ़ गर्जन से डग-डग डोला । पीछे जो हटा कटारी से, काटूँगा उसे दुधारी से ॥ भय से अरि-वीर कढ़े आगे, ले ले शमशेर बढ़े आगे । मुट्ठी भर गढ़ के वीरों पर, रावल के उन रणधीरों पर, तीखे भालों से वार हुए। बरछे वक्षस्थल पार हुए । अगणित खूनी तलवारों से, गढ़ के सैनिक लाचार हुए ॥ सौ जन को काट कटा योधा, सौ जन को मार मरा योधा । शोणित से लथपथ लोथों पर सोया अरि-रक्त-भरा योधा ॥ उस वीर-यज्ञ में जौहर के प्रणवीर लगे स्वाहा होने । माँ के पथरीले अञ्चल पर सानन्द सपूत लगे सोने ॥ दावा- सी अरि की सेना थी, तरु के समान थे राजपूत । जल गये खड़े पर कभी एक डग भी न हटे पीछे सपूत ॥ पतझड़ में तरुदल के समान गिर-गिर कुर्बान हुए योधा । जौहर-व्रत की बलिवेदी पर चढ़ - चढ़ बलिदान हुए योधा ॥ जल गये सजाकर अमर चिता गौरव पर अपने आप वीर । मरते दम तक करते ही थे जौहर - व्रत के जप- जाप वीर ॥ अब शेष बच गया एक रतन, वह भी लड़ने से चूर चूर । उससे सारी खिलजी - सेना लड़ती, पर रहती दूर दूर ॥ तो भी रुख करता जिधर वीर काई - सी सेना फट जाती । धर दबा दिया जिस वैरी को तन से कटि अलग छटक जाती ॥ आँखें निकालकर लाल-लाल, वह जिसे देखता था कराल । वह साहस - बल खो जाता था, निर्जीव वहीं सो जाता था ॥ थक गये अङ्ग पर रावल के, कुण्ठित भी थी तलवार धार । वैरी उस पर धावा बोले, ले ले कुन्तल, ले-ले कटार ॥ गढ़ के बुझते से दीपक को तूफान बुझाने को आया । आँधी के साथ ववण्डर को झंझा ने ले बल दिखलाया ॥ रावल के तन पर एक साथ छप छप छप तलवारें छपकीं । हा, एक हृदय की ओर शताधिक बरछों की नोकें लपकीं ॥ क्षण भर में रावल के तन की थी अलग-अलग बोटी बोटी । चल एक रक्त-धारा निकली गढ़ के ढालू पथ से छोटी ॥ धारा से अस्फुट ध्वनि निकली, इस तरह अमर मरना सीखो। तुम सती मान पर आन-बान पर जौहर व्रत करना सीखो ॥ पावन सतीत्व की रक्षा- के हित प्राण गँवा देना वीरो । तुम सती-चिता के पूत भस्म पर माथ नवा देना वीरो ॥ पथिक, अलाउद्दीन तुरत आया आकुल अरिझुण्ड लिये । चला दुर्ग की ओर रतन का कुन्त - नोक में मुण्ड लिये ॥ शोणित-लथपथ पद से गढ़ की भूमि अपावन करते से । सिंहद्वार से घुसे दुर्ग में, वैरी चकित सिहरते से ॥ मुरदों से भी डर-डरकर गढ़ पर डग भरते थे योधा । इधर उधर भयभीत देख कम्पित पग धरते थे योधा ॥ जौहर - व्रत की याद लिये सतियों के तन का छार लिये । पथिक, हुआ निर्जीव दुर्ग, उर पर मुरदों का भार लिये ॥ मातृ-मन्दिर, सारंग, काशी शिवरात्रि, १९९९

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