जौहर : श्यामनारायण पाण्डेय

Jauhar : Shyam Narayan Pandey


अठारहवीं चिनगारी : जौहर

हवन होता था, चिता की आग धू-धू जल रही थी। धूम की गति में मिली शाकल्य सुरभि निकल रही थी॥ आँच से जलतीं दिशाएँ, आँच की माला न कम थी। पी रही थी आग घी, पर भूख की ज्वाला न कम थी ॥ आज तक किसने अनल की भूख की ज्वाला बुझायी । जो चला ज्वाला बुझाने बुझ गया, पति भी गँवायी ॥ लाल लाल कराल जीभों को निकाल बढ़ा रही थीं। अग्नि की हिलती शिखाएँ, प्रलय पाठ पढ़ा रही थीं ॥ आज चरु के साथ रावल- वंश का संसार स्वाहा । वीर होता-मन्त्र पढ़ते, आँसुओं की धार स्वाहा ॥ आज इस नरमेध मख में बाल-केलि, दुलार स्वाहा । धधकती जलती चिता में माँ-बहन के प्यार स्वाहा ॥ साथ आहुति के अनल में मेदिनी के के भोग स्वाहा । लो, पिता-माता-प्रिया के योग और वियोग स्वाहा ॥ मन्दिरों के दीप स्वाहा, राजमहल विभूति स्वाहा । आज कुल की रीति पर लो, नीति-भूषित भूति स्वाहा ॥ अमर वैभव से भरे इस ज्वाल में, घर-द्वार स्वाहा । आन-बान सतीत्व पर लो आज कुल परिवार स्वाहा ॥ इस हुताशन में कुसुम - से गात स्वाहा, रूप स्वाहा । लो प्रजा के साथ ही इस- वीर-भू का भूप स्वाहा ॥ पवन से मिल-मिल गले, हँसती चिता में हास स्वाहा । सत्य-रक्षा के लिए जीवन मधुर मधुमास स्वाहा ॥ इधर होता हवन करते, उधर रूपवती खड़ी थी। चौतरे पर गुनगुनाती, आंसुओं की फुलझड़ी थी | आग, मैं तुझमें समाऊँ, अङ्क में ही मुक्ति पाऊँ । आज अपनी लाज तेरी गोद में छिपकर बचाऊँ ॥ पा सकी न शरण कहीं पर, माँ, किसी ने दुख न देखा । द्रौपदी के कृष्ण ने भी मलिन मेरा मुख न देखा ॥ साथ सतियों के इसी से, शरण में आयी हुई हूँ । माँ, न तू मुँह फेरना, मैं दीन ठुकरायी हुई हूँ ॥ माँ, अगर आदेश दे, तो रूप की होली जलाऊँ । आग, मैं तुझमें समाऊँ, अङ्क में ही मुक्ति पाऊँ ॥ आज आँचल में छिपा ले, द्वार की इतनी हया कर । पार जीवन के लगा दे, आज तू इतनी दया कर ॥ आज लपटों से लिपटकर, मैं कहूँ अपनी कहानी। और इन चिनगारियों में फूँक दूँ ऐसी जवानी ॥ ज्वलित तेरे लोचनों से भी करुण आँसू बहाऊँ । आग, मैं तुझमें समाऊँ, अंक में ही मुक्ति पाऊँ ॥ मैं जलूँ, तो राख को तू दे उड़ा क्षिति से गगन पर । पातकी रज छू न पावे, नभ हिले मेरे निधन पर ॥ और विधि से कह, किसी को रूप दे तो शक्ति भी दे । पति मिले तो पति-चरण में भाव भी दे, भक्ति भी दे ॥ माँ, अगर कह दे, नहीं तो देह से ज्वाला जगाऊँ । आग मैं तुझमें समाऊँ, अंक में ही मुक्ति पाऊँ ॥ गीत के अन्तिम चरण के गरम रव ललकार निकले । जल उठी रानी अचानक अङ्ग से अङ्गार निकले ॥ पतिव्रत के तेज जागे, जग उठीं चिनगारियाँ भी । हा, जलीं तन के अनल से साथ की सब नारियाँ भी ॥ तब चिता ने भी बुलाया, क्रूर, लपटों को हिलाया । और ज्वाला को सभय कम्पित रतन ने घी पिलाया ॥ आग हाहाकार करती हरहराती चरु चबाती । रूप ज्वाला में पचाने को चली भू-नभ कँपाती ॥ चार-बार किला हिला, अम्बर हिला, भूडोल आया । सिहरकर दबकीं दिशाएँ, जय सती का बोल आया ॥ देवताओं ने सजल नभ से सती को झाँक देखा, भूलती उनको न उस दिन की सती की रूप रेखा ॥ इधर स्वाहा शब्द निकला, उधर वह कूदी अनल में । जल उठीं लपटें लटों में, बल उठी वह एक पल में ॥ गात छन-छन रूप छन-छन, एक छन तक छन-छनाकर । उड़ गई मिलकर धुएँ में ज्योति जग में जगमगाकर ॥ जल गई रानी रुई-सी, स्मृति सुई सी - गड़ रही है । पथिक, गंगा आंसुओं की, विवश आज उमड़ रही है ॥ लाज अवला की बचा ली, आग, क्या तुझको बखानूँ । छीन ले कोई अगर तुझसे उसे तो वीर जानूँ ॥ हा, सती के बाद ज्वाला में धधकती नारियाँ थीं। खेलती चिनगारियों से, सुमन-सी सुकुमारियाँ थीं ॥ आग में कूदीं अभागिन, प्रथम विधवाएँ बिचारी । प्राणपति के सामने कूदी चिता में प्राण-प्यारी ॥ देखती अपलक तनय को, माँ बली चलती चिता में । हा, पिता के सामने कूदी सुता जलती चिता में ॥ भाइयों को देखती कूदीं, अनल में धीर बहनें । अग्नि-पथ से स्वर्ग पहुँचीं, वीर गढ़ की वीर बहनें ॥ दुधमुँहीं नव बालिकाएँ, जो न कूद सकीं अनल में | आग में फेंकी गईं वे, मातृ-कर से एक पल में ॥ देख भैरव दृश्य जड़ - चेतन सभी लय भाँपते थे । चीखती थी यामिनी, तारे गगन पर काँपते थे ॥ प्रलय के भय से दिशाएँ त्राहि त्राहि पुकारती थीं । इधर ललनाएँ चिता में मौत को ललकारती थीं ॥ इस कठिन व्रत-साधना में, लग सकी क्षण की न देरी । रूप-यौवन की जगह पर राख की थी एक ढेरी ॥ देवियों के भस्म पर नव सुमन बरसाये सुरों ने । रख लिया वह दृश्य अपने में सजग जग के उरों ने ॥ राख को शिर से लगाकर पाप ताप शमन करो तुम । देवियाँ इसमें छिपी हैं, बार-बार नमन करो तुम ॥ इतनी कह कथा पुजारी ने ली साँस, तनीं भौंहें कराल । आँसू के बदले आँखों में लोहू भर आया लाल लाल ॥ वह भीत पथिक से बोल उठा, सुन ली न कहानी रानी की ? अब एक कहानी और सुनो, अन्तिम रण की कुरबानी की ॥ मातृ-मन्दिर सारङ्ग, काशी । माघसित त्रयोदशी, १९९९

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