जौहर : श्यामनारायण पाण्डेय

Jauhar : Shyam Narayan Pandey


सत्रहवीं चिनगारी : अर्चना

अचल अर्वली की अवली में दुर्ग - शिखर था एकाकी । नभ को छूने में उसको था, कहने ही भर को बाकी ॥ दिन में दिनकर की किरणों से, निशि में नभ के तारों से । युग-युग से वह खेल रहा था, निशि - वासर अङ्गारों से ॥ चरण रसातल के सीने पर, उन्नत मस्तक अम्बर में । कसमस अङ्ग दिशाओं में थे, पाहन पानी अन्तर में ॥ उसके तरु कम्पित दल के मिस चँवर डुलाया करते थे । गौरव रक्षा के हित पाहन प्राण घुलाया करते थे ॥ गले लगाकर उसे चाँदनी रात-रात भर सोती थी । अमा अङ्क में लें दुलार से ओसों के मिस रोती थी । उर में झञ्झावात छिपाये मौन मौन कुछ बोल रहा । अपने सेर - बटखरों से वह मानवता को तोल रहा ॥ अब भी तो भग्नावशेष वह, पावन कथा सुनाता है । कान चाहिए सुनने को, रानी की व्यथा बताता है ॥ हाँ, तो गढ़ पर वीर नगर था, विमल संगमरमर के घर । टँगे द्वार पर भाले-बरछे; वीरध्वजा उड़ती फरफर ॥ पुर के चारो ओर राजपथ, एक वृत्त था बना हुआ । वृत्त - बिन्दु पर पंथ मिलते, उस पर वितान था तना हुआ ॥ पथ के अगल-बगल वीरों के धवल मनोहरं धाम बने । धाम -कलस अभिराम बने, भीतर सुरभित आराम बने ॥ मुखर चौमुहानी पर चञ्चल सैनिक एक खड़ा रहता । पथ बतलाया करता था, पथिकों से सजग बड़ा रहता ॥ उसी चौमुहानी से सर पर एक मनोहर पथ जाता । कभी-कभी उस पर रावल का प्रजाभिनन्दित रथ जाता ॥ सर के भीटों पर शीशम - तरु, आम नीम की छाया थी । दिन के डर से तरु के नीचे सोयी तम की काया थी ॥ विपों की डाली-डाली पर विह्वल खग कूँजा करते । विहग-स्वरों में मिल - मिलकर मधुपों के स्वर गूँजा करते । चिकने- चिकने पाषाणों से सर के चारो घाट बने । पशुओं को भी जल पीने के लिए मनोहर बाट बने ॥ स्वर्ग - सीढ़ियों से भी सुन्दर, बनी सीढ़ियाँ सर की थीं। जल पीने के लिए तृषातुर, एक एक पर लटकी थीं ॥ जितनी भू से नभ की दूरी, उतनी उसकी गहराई । तो भी उसमें श्वेत अरुण जलजातों की थी अधिकाई ॥ यमुना के जल से भी निर्मल, पावन गङ्गा-जल से भी । लघु-लघु लोल लहरियाँ उठतीं; जल चल, चलदल-दल से भी ॥ अचपल जल के दर्पण में तरु झाँक - झाँक मुख देख रहे । प्रतिबिम्बित हो या सर के अन्तर के सुख-दुख देख रहे ॥ सरोजिनी के अधर चूमकर दिन में दिनकर तर जाता । शशि- तारों के साथ रात को जल में गगन उतर आता ॥ पर जब-जब मारुत-कर-कम्पित जल की चादर हिल उठती । तब - तब सर-सरसीरुह वीरुध की शोभा खिल-खिल उठती ॥ हिलते कमल, पराग बिखरते, सुरभि हवा ले उड़ जाती । कमल - कोष से उड़ मधुपावलि विरह-गीत गुनगुन गाती ॥ झूम-झूम उठते तट के तरु, गले पवन को लगा-लगा । दल से दल मिल, मिल गा उठते राग रागिनी जगा - जगा ॥ चारो कोनों पर नीलम के पीनकाय गजराज बने । उन पर कर में लिये बँसुरिया बाँके से ब्रजराज बने ॥ वाल्मीकि आश्रम समीप राघव परित्यक्ता सीता थी । विरहाकुल दमयन्ती की पाहन की मूर्ति पुनीता थी ॥ दशमुख रावण की प्रतिमा बीसों कर में तलवार लिये । देव - देवकी के समीप बैठा था कंस कटार लिये ॥ सावित्री की भींगी गोदी में मृत सत्यावान बने । भैंसे पर यमराज, दाहिने एकलिङ्ग भगवान बने ॥ सर के चारों ओर मनोहर ललित और भी काम वने । लिये वानरों की सेना पुष्पक-विमान पर राम बने ॥ यन्त्र किसी ने खोल दिया, छर-छर-छर फौवारे छूटे | बूँद-बूँद जल छहर उठे, या अम्बर के तारे टूटे ॥ चले फुहारे डाल-डाल से, पात पात से जल बरसे। देख फुहारों का जल - वर्षण, सावन के बादल तरसे ॥ गज हिल - हिल सूँड़ों से पानी लगे छिड़कने छहर -छहर । बजी बाँसुरी मोहन की, जब छिद्रों से जल चले लहर ॥ प्रतिमा हिली, सजल सीता की आँखों से सरके आँसू । विरह - विकल दमयन्ती के नयनों से भी ढरके आँसू ॥ चले फुहारे दशो मुँहों से, बीसो खर तलवारों से । मुखरित सर, कम्पित रावण की प्रतिमा की ललकारों से ॥ देव-देवकी के नयनों के निर्झर से झर-झर पानी । हिली कंस की मूर्ति, हिली खरतर कटार, खर- खर पानी ॥ कंस-हाथ से छूट व्योम में उड़ी भवानी पानी की । निष्ठुर की पाहन-प्रतिमा में भी हलचल नभ - वाणी की ॥ बरस पड़ीं सावित्री की आँखें, मृत, सत्यावान चपल । गिरे सतत यम के हाथों से एकलिङ्ग के ऊपर जल ॥ हिला विमान वानरों की आँखों से अश्रु - उफान चले । राघव के चक्रीकृत धनु से रह-रह जल के बाण चले ॥ सर के ही जल घूम मूर्तियों में फिर सर में आ जाते । अलग ब्रह्म से हो, उसमें ही जैसे जीव समा जाते ॥ उसी मनोहर सर के दक्षिण, शिव का मन्दिर सजा-बजा । कंचन के त्रिशूल से लगकर फहर रही थी रक्त-ध्वजा ॥ रतनजटित अर्घे के अन्दर, जलती छवि-ज्वाला हर की । एकादश रुद्रों के बीच प्रतिष्ठित मूर्ति दिगम्बर की ॥ शिव- समीप ही सती भवानी मुँह पर घूँघट किये हुए । कंचन - मृगछाला पर बैठीं, गोदी में सुत लिये हुए ॥ अगल-बगल भीतर - बाहर चाँदी के घंटे टँगे हुए । मन्दिर के चारो कोनों पर रखे नगारे रँगे हुए ॥ घरी - घंट थे, अनहद रव भी, जिनके रव से छके हुए । झाँझ और करताल रखे थे, रखे दमामे ढके हुए ॥ जलता था दीपक अखण्ड वह, शिखा-धूम-पाँती न हटी । युग-युग से था दीप जल रहा, घी न घटा, बाती न घटी ॥ आँधी और बवंडर आये, कनक दीप पर बुझ न सका । आज न जाने क्या होगा, तूफान अभी कर कुछ न सका ॥ निशिदिन सहनाई बजती थी, नौबत - स्वर में असुरारी । राग राग के शब्द शब्द में, हर हर शंकर त्रिपुरारी ॥ माला फूल चढ़े दम्पति पर मधुप फूल पर झूम उड़े ॥ मलय- त्रिपुण्ड शम्भु-प्रतिमा पर, अगर-धूप के धूम उड़े | दमक रहे शत-शत प्रकाश से हीरक कोने कोने के । मन्दिर के मणिकान्त द्वार पर नन्दी बैठे सोने के ॥ चारो द्वारों के परदों में लगी मोतियों की झालर । मन्दिर के बाहर भीतर सब ओर उमाशंकर हर हर ॥ जिसने दर्शन किये मूर्ति के, उसकी सारी भीति भगी । आज उसी मन्दिर के आँगन में भक्तों की भीड़ लगी ॥ सन्ध्या की पूजा न हुई थी, सूरज छिपता जाता था । धीरे धीरे तम स्याही से भूतल लिपता जाता था ॥ उसी अमर गोधूली में, सर के तट पर रानी आयी । देख सती का रूप अचानक, पङ्कज - माला मुरझायी ॥ पश्चिमीय सागर में जैसे रवि की किरण उतरती थी । वैसे ही रानी भी सर में धूमिल - बदन उतरती थी । उतर सजल सीढ़ी को पद से शोभित किया सयानी ने । जल न सके रानी, इससे रख लिया हृदय में पानी ने ॥ विश्ववन्द्य अपने चरणों से पावन कर सर का पानी । अस्थिर अरुण सरोज उगाती चढ़ी सीढ़ियों पर रानी ॥ जिस सीढ़ी पर पद रख देती वह पावन हो जाती थी । पाहन जनम सफल हो जाता, पुलकित तन हो जाती थी ॥ सर के कमलों को चिन्तित कर, हाथ पाँव धो-धो जल में, चलीं सजल सखियाँ भी पीछे, चाँद छिपाकर अञ्चल में ॥ मधुर राग से रानी कहती, सखियाँ दुहरातीं मधु - स्वर । हर-हर शंकर हर-हर शंकर, हर-हर शंकर हर शंकर ॥ जय असुरारी जय त्रिपुरारी, विश्वम्भर जय हर शंकर । हर-हर शंकर हर-हर शंकर, हर-हर शंकर शंकर हर ॥ उमारमण जय अलख दिगम्बर, शम्बरारि-हर प्रलयंकर । हर-हर शंकर हर-हर शंकर, हर-हर शंकर हर शंकर ॥ उँगली धर-धरकर सीढ़ी पर रो-रोकर, चढ़नेवाली । शिव-मन्दिर की ओर व्यथा से उझक - उझक बढ़नेवाली - ॥ नन्ही-नन्ही कन्याएँ भी कहती जातीं हल छंकल । हल-हल छंकल, हल-हल छंकल, हल - हल छंकल हल छंकल ॥ गूँज उठी कोने कोने में, हर हर शंकर की वाणी । पग-पग पर शिव शंकर भजती, मन्दिर पर पहुँची रानी ॥ किया दूर ही से अभिवादन शिव-प्रतिमा का रानी ने । और सती के चरणों पर गिरकर रो दिया सयानी ने । पुलकित सतियों की आँखों से भी अविराम चले आँसू । पाषाणों की युगल मूर्त्तियों से भी बह निकले आँसू ॥ क्षण भर बाद उठी महरानी, पुलक रोम तन के चमके । मोमबत्तियाँ जलीं, सौगुने मन्दिर के हीरे दमके ॥ किया समर्चन सती-चरण का, समय बिताया रोने में । चन्दन अक्षत फूल चढ़ाये, दीप जलाया कोने में ॥ अगर-धूप की अगियारी दी, हार पिन्हाया देवी को । आँसू के जल के दर्पण में, प्यार दिखाया देवी को ॥ भर-भर माँग भवानी की, सतियों ने रखा सिंधोरों को । जिनसे शिर के बाल बँधे थे रखा पास उन डोरों को ॥ घी - कपूर से सजी आरती उठी, बजी घंटी टुन-टुन । नीराजान-लौ हर-गौरी को लगी मनाने शिर धुन-धुन ॥ कर्कश रव से ताल-ताल से झाँझ और करताल बजे । मलय - दण्ड से बजे नगारे, बम - बम सबके गाल बजे ॥ घंटों के टन-टन स्वर में था घंटी का टुनटुन मिलता । घरी-घंट के मधु लय-स्वर में मन्त्रों का गुनगुन मिलता ॥ सहनाई का मादक स्वर भी हर-हर उमा अलाप रहा। लेकिन आज एक विस्मय था, राग राग था काँप रहा ॥ एक घड़ी के बाद कहीं पर सती आरती बन्द हुई । घरी-घंट-घड़ियाली के भी, टन-टन की ध्वनि मन्द हुई ॥ माथ नवा करवद्ध सती से करने लगी विनय रानी । नयनों से जल उमड़ रहा था, सतियों की गद्गद् वाणी ॥ माँ तू रख ले लाज हमारी, हम सब कृपा - भिखारी हैं। हम असहाय, अनाथ, दीन हैं, हम विपदा की मारी हैं ॥ नारी का उर ही नारी की व्यथा जान सकता है माँ । नर का उर नारी-उर की क्या कथा जान सकता है माँ ॥ दक्ष-यज्ञ के हवन कुण्ड में, प्राण दिये तूने जैसे । साहस दे, जौहर-ज्वाला में हम भी जलें मरें वैसे ॥ आशुतोष के कानों में कह दे क्षण भर ताण्डव कर दें । जरा तीसरा नयन खोल दें, हुँकृति से संसृति भर दें ॥ रानियाँ गौरी-चरण छू - छू मनाती जा रही थीं। कौन जाने मौन क्या वरदान पाती जा रही थीं ॥ पर चिता की आग की लपटें उन्हें हिल-हिल बुलातीं । भीम ज्वाला के भयंकर कम्प से उत्साह पातीं ॥ झुलसती छाती गगन की, जल रही थी आग हा हा । वीर आहुति दे रहे थे, आन पर सर्वस्व स्वाहा ॥ पथिक, आगे की कहानी की न पीड़ा सह सकूँगा । आज रो लूँ खोलकर जी, फिर किसी दिन कह सकूँगा ॥ पर पथिक के हठ पकड़ने पर चली आगे कहानी। हृदय में ज्वाला जलाकर लोचनों में तरल पानी ॥ थी कथा जौहर - चिता की, पर न सुध तन की न मन की । सामने तसवीर ही थी, नाचती माँ की बहन की ॥ कुंज-निवास, खजुरी ( आज़मगढ़) मकर-संक्रान्ति, १९९९

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