जौहर : श्यामनारायण पाण्डेय

Jauhar : Shyam Narayan Pandey


सोलहवीं चिनगारी : विदा

पूजा की थाली लेकर रानी पति-सन्निधि आयी । क्षण रही देखती पति को, भीतर की रोक रुलाई ॥ तो भी चारो पलकों में अन्तर की पीड़ा झलकी । अन्तिम जीवन की करुणा आँखों के पथ से छलकी ॥ दिशि-दिशि छा गया अँधेरा, चिनगी - सी गिरी व्रणों पर । ताड़ित सरसों की डाली- सी गिरी रतन-चरणों पर ॥ दोनों प्राणों की स्मृतियाँ, साकार हुईं रोने से। यौवन की मादकताएँ जल हुईं विकल होने से ॥ था विरह मिलन में आया, ज्वाला उठती प्राणों में। रोता था राजमहल भी, पीड़ा थी पाषाणों में ॥ थीं सजल मकड़ियाँ घर की, भूलीं जालों का बुनना । छिपकलियों का जारी था, मरकत - छत पर शिर धुनना ॥ कल दिन में कुररी रोयी, रजनी में कागा बोला । टीले पर कुक्कुर रोये, भय का भी आसन डोला ॥ दिनमणि की व्याकुल किरणें, खिड़की के पथ से आकर । दम्पति - चरणों से लिपटीं, अन्तर की व्यथा जगाकर ॥ सुकुमार सरस-महुए-सी, अलसी-फूलों-सी हलकी । दुख-भार-विकल रानी थी, ले बाढ़ दृगों में जल की ॥ क्षण भीत मृगी-सी काँपी, क्षण जलद-घटा - सी रोयी। क्षण जगी, अचेत हुई क्षण, कोमल चरणों पर सोयी ॥ क्षण मुख निहारती पति का, क्षण मौन सोचती रानी । आँचल से पति के आँसू क्षण मौन पोंछती रानी ॥ क्षणभर नारीत्व जगाकर पति के चरणों को भेंटा । क्षणभर उन मृदुल पदों को बाहों में पुलक लपेटा ॥ सहसा पावन जौहर की तसवीर सामने आयी । काँपी करुणा-प्रतिमाएँ उर-व्यथा वदन पर छायी ॥ पर क्रम क्रम से दोनों में उत्साहित तेज समाया । तन मन की पीड़ा दुबकी, अन्तर में साहस आया ॥ हिल गया मुरेठा शिर का, पुलकित रोमावलि तन की । तन गया वक्ष, केसरिया नव अचकन फटी रतन की ॥ हो गये लाल रावल की भींगी आँखों के डोरे । हो गये गरम लोहे से, पलकों के रक्त कटोरे ॥ तलवार म्यान से निकली, चमचमा उठी मतवाली। असि-चकाचौंध के भीतर थी छिपी किले की काली ॥ बोला, न प्रिये देरी कर, व्रत-भङ्ग न होने पाये । जो हो पर जौहर व्रत का आदर्श न खोने पाये ॥ मैं चला, साथ सखियों के, तू भी धीरे धीरे चल । मैं मिटूँ और तू भी अब जौहर की ज्वाला में जल ॥ यह कह अपनी प्यारी से, यह कह अपने प्राणी से । उठ गया रतन आसन से, यह कह अपनी रानी से ॥ घन फटा मोह-माया का, रानी ने भी दृग खोले । पर ममता झाँक रही थी, अन्तर में करुणा को ले ॥ रानी ने पति - पूजा की, चन्दन - अक्षत बन्दन से । की पुलक आरती विह्वल, की विनय मूक क्रन्दन से ॥ थाली से ले अड़हुल की माला पति को पहनाई। पद पंकज छू छू उनके, की नित के लिए विदाई ॥ पति चला गया डग भरता, चमकाता असि का पानी । अपने उर के राजा को, रह गयी देखती रानी ॥ चल पड़ी महारानी भी, गहनों के फूल गिराती । पद-चिह्न-चिह्न पर पावन, पद्मेश्वर तीर्थ बनाती ॥ पिंजर के शुक शारी ने बन विकल फड़फड़ाये पर । दो चार हरित डैने भी मरकत-गच पर आये झर ॥ आँखें भरकर शुक बोला, अपनी प्यारी शारी से । नारी हो, कहने का है अधिकार तुम्हें नारी से ॥ तुम कहो कि देख किसे हम उत्साहित हो हो बोलें । तुम कहो कि किसका स्वर ले बोली में मिसरी घोलें ॥ हम सीता राम-रमैया, किसके स्वर को दुहरायें । हम राधेश्याम कन्हैया, किस स्वर से रटन लगायें ॥ तुम कहो कि पिंजर में क्या अब भी हम बंद रहेंगे । जौहर के अवसर पर भी, बन्दी हम मन्द रहेंगे ॥ तुम कहो द्वार पिंजड़े का अब भी तो कोई खोले । इस पुण्य-पर्व पर हम भी वैकुण्ठ चलें तुमको ले ॥ यह कहा, और पलकों के अटके जल गिरे धरा पर । शारी की गीली आँखें तो झरने लगीं भराभर ॥ शुक की बातें सुन रानी ने अपने कम्पित कर से। खोला किंवार पिंजर का, निकले विहंग दो फर से ॥ खग गिरे सती-चरणों पर, आँखों से बरसा पानी । दोनों की विह्वल भाषा, दोनों की गद्गद वाणी ॥ रानी के विकल नयन-मृग, गहरे पानी में डूबे । हो गये शिथिल क्षणभर तक, जौहर के सब मनसूबे ॥ कोमल कर से डैनों को सहलाकर बोली रानी । उठ जा तू मेरे सुगना, उठ जा तू सुगी सयानी ॥ उठ जा तू मेरे तोता, उठ जा तू मैना मेरी । हो रहे मलिन डैने हैं, हो रही मुझे भी देरी ॥ उड़ वन्य- शुकों में मिल जा, जा भूल व्यथा पिंजड़े की । सुगनों की पंचायत में कहना न व्यथा पिंजड़े की ॥ रानी थी उन्हें मनाती, पर विकल विहग होते थे । रानी की बातें सुन-सुन दोनों बेसुध रोते थे ॥ पद पर जौहर - ज्वाला की तसवीर देख अकुलाये । जलती रानी को देखा, खग शिथिल अङ्ग मुरझाये ॥ दम तोड़े तड़प-तड़पकर, मृदु चरणों की काशी में । पा गये मुक्ति, तप होगा क्या इतना संन्यासी में ॥ यह देख दशा दम्पति की थी भीत चकित महरानी । बिखरे पंखों पर आँखें, आँखों में छल-छल पानी ॥ रो एक सहेली बोली, सखि, मृगछौना रोता है । भोली - भोली आँखों के आँसू से तन धोता है ॥ हो दशा न शुकदम्पति की, इस नन्हे बालहिरन की । सखि, बड़ी-बड़ी आँखों से पीड़ा बतलाता मन की ॥ यह लाल दूसरे का था, पर लाल बनाया अपना । सखि, क्या इसकी उस माँ का सब पर पड़ रहा कलपना ॥ सखि, बिना खिलाये इसको तू कभी नहीं खाती थी । सोता था, तो सोती थी, पहले ही जग जाती थी ॥ हो गयी मलिन रोमावलि, तो लोचन भर जाते थे । रवि-कर से कुम्हला जाता, तो प्राण तड़प जाते थे ॥ इस लघु मृगछौने ने मन रावल का भी जीता है । तू इसे देख जीती है, यह तुझे देख जीता है ॥ अपने हाथों से बुन-बुन, अपने हाथों से सी-सी । सखि, वसन इसे पहनाती, आती थी इसे हँसी - सी ॥ इसकी वह हँसी कहाँ है, सखि, कहाँ गया भोलापन । क्या छिदा व्यथा - बरमो से जूही के फूलों सा मन ॥ अब इसकी आज मलिनता, देखी न तनिक जाती है । सखि, देख इसे अकुलाया, मेरी फटती छाती है ॥ रानी धीरे से बोली, चल राजमहल के बाहर | सखि, देख न सकती, इसकी आँखों का झरना झर-झर ॥ सखियों के बीच महल के बाहर कृश रानी आयी । नत शीश उठा देखा तो सन्ध्या - सी फिर मुरझायी ॥ हा, राजमहल के बाहर भी बढ़ी वेदना दूनी । बोली वह बिलख सखी से, हा, पिया अँटरिया सूनी ॥ हा, विदा महलिया पिय की, हा, विदा पलंगिया पिय की । हा विदा मिलन की रतियाँ, हा विदा सेजरिया पिय की ॥ हा, विदा प्यार प्रियतम के, हा, विदा दुलार स्वजन के । हा, विदा मनोहर पावन रज-कण प्रिय-नलिन-चरण के ॥ मुसकान विदा प्रियतम की मधुहास विदा प्रियतम के । प्रियतम की सेवा के दिन, मधुमास विदा प्रियतम के ॥ हा, विदा सती की गाथा, आख्यान विदा सीता के । नित के स्वाध्याय विदा अब, हा, ज्ञान विदा गीता के ॥ कहते ही बाढ़ दृगों में, तन भर में सिहरन-कम्पन । हा, रुकी सजल वाणी भी, रुँध गया गला, मन उन्मन ॥ केवल अञ्चल-कोना धर अभिवादन किया महल का । कुछ बात कही मन ही मन, कर उठा फूल-सा हलका ॥ मन्दिर की ओर चली फिर, पथ पर डगमग पग धरती । जल से नत घनमण्डल में विद्युज्ज्वाला-सी बरती ॥ सखियों के अन्तर में भी था भरा व्यथा का सागर । थकते न कभी अञ्चल पर, लोचन-घन जल बरसाकर ॥ सखियों के साथ चली वह, धीरे धीरे सुकुमारी । तारों के साथ सजल क्या विधु की छवि चलती न्यारी ॥ पथिक साथियों को ले रावल इधर चिता सजवाता था । रह-रहकर जौहर-व्रत-सूचक बाजों को बजवाता था । ब्रह्मयोनि की आकृति की ही चिता बनायी जाती थी । जौहर - व्रत की वीर गीतिका स्वर से गायी जाती थी । वेदी बनी कनक अरनी से सुघर बनाया गया उसे । कामधेनु के के पावन गोमय से लिपवाया गया उसे ॥ उस पर काठ बिछे पावनतर, जो गौरव नन्दन के थे । चारों ओर मलय के बल्लों पर कुन्दे चन्दन के थे । अगर धूप घृतमय गुग्गुल के भुरके भुरकाये जाते । उन सूखे काठों पर घी के वर्तन ढरकाये जाते ॥ हीरक-थालों में सुरभित शाकल्य बनाये जाते थे । अनल- समर्चन को कुश, पल्लव, दही सजाये सजाये जाते थे ॥ एक ओर बन रहा चौतरा, तन- तन पर श्रम की बूँदें । ताकि रानियाँ उस पर चढ़कर जौहर - ज्वाला में कूदें ॥ मन्त्रमुग्ध था पथिक देखता, बदन पुजारी का विह्वल । सतत चरौनी के ऊपर से पानी बहता था छल-छल ॥ सजल पुजारी की वाणी भी, धीरे धीरे मन्द हुई । कुछ देरी के लिए सती की करुण कहानी बन्द हुई | मातृ-मन्दिर, सारंग, काशी सौम्यासितत्रयोदशी १९९९

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