जौहर : श्यामनारायण पाण्डेय

Jauhar : Shyam Narayan Pandey


पन्द्रहवीं चिनगारी : श्रृंगार

घर - घर होने लगी तयारी, धन्य सती, जौहर व्रत की । पूजा होने लगी वहाँ पर, रानी के पावन मन की ॥ आतुर नर केसरिया बाना धारण करने लगे वहाँ । हाथों में में नंगी तलवारें लगीं खेलने जहाँ तहाँ ॥ अरि-जीवन पी-पीकर अपने प्राण गवाँ देने वाले । करने लगे प्रतीक्षा व्रत की, गढ़ के सैनिक मतवाले ॥ एक वार हुङ्कार करें तो जग डगमग - डगमग होवे । नभ-नक्षत्र गिरें भूतल पर, भू जगमग जगमग होवे ॥ पर न अभी हुंकृति वेला थी, देर शिवाराधन में थी । सजती थीं सुन्दरियाँ गढ़ की, देरी व्रत साधन में थी ॥ सजा रही थीं वीर नारियाँ, अपने तन को फूलों से । रेशम से मणिमय गहनों से, कंचन - कलित दुकूलों से ॥ सोने चाँदी के कोमलतर तारों से निर्मित सारी । लाल-हरित सुरभित रेशम की कसी कंचुकी मन हारी ॥ तेल फुलेल इतर से वासित सुन्दरियों के केश बँधे । केशों में सुहाग थे, उनमें वेदों के उपदेश बँधे ॥ चिकने भालों पर ईंगुर की गोल गोल बेंदी न्यारी । निष्कलंक मुख की छवि से थी, फीकी जग की छवि सारी ॥ नीरस में भी रस भर देतीं, आँजन से आँजी आँखें । अन्तिम था शृङ्गार यही किस दिन के लिए कमी राखें ॥ कनक - फूल कानों में झलके, गल के गहनों के रुनझुन । कटि में कटिकस कलित करधनी, झुनुन-झुनुन रुन-झुनुन - झुनुन ॥ सतियों के कोमल चरणों में उठी महावर की लाली । नूपुर ध्वनि से भीत - चकित, कलरव-मय सन्ध्या मतवाली ॥ आँख लगे न किसी की तन पर, इससे तिल की छाया थी । अपलक रूप देखने को था, मनमोहन की काया थी ॥ पहले तो उनके स्वागत में सुर-सुन्दरियाँ थीं आतुर । पर फिर उनके रूप देखकर भरे अमित ईर्ष्या से उर ॥ इन रूपों की होली होगी, यही सोचकर सुखी हुईं । जौहर - व्रत के लिए विकल इस ओर सरोरुहमुखी हुईं ॥ जौहर की वेला समीप थी, पर रानी में देरी थी । सखियाँ उसे सजाती जातीं, देवदूत की फेरी थी ॥ पावन तीर्थों के वासित जल से नहलाया गया उसे । देह पोछकर नव रेशम का वस्त्र पिन्हाया गया उसे ॥ अगर - धूप के मधुर धूम से बाल सुखाये गये घने । कुञ्चित केशों में कुसुमों के तेल लगाये गये बने ॥ रेशम के चित्रित डोरों से शिर के बिखरे बाल बँधे । फूल त्रिवेणी के मुसकाये, पन्नगियों के जाल बँधे ॥ कमल- तन्तु के मृदु काँटों से केश-राशि की छवि निखरी । रतन-शलाका से अपने हाथों से अपनी माँग भरी ॥ लाल रङ्गका बिन्दु भाल पर आकर एकाकी छाया । शारदीय राका के शशि पर मङ्गल का तारा आया ॥ नील रङ्ग से दोनों भौंहें रंग दीं किसी सहेली ने । किया रसीली आँखों में भी अञ्जन किसी नवेली ने ॥ गोरी - गोरी हथेलियों पर अरुण कमल के चित्र बने । पति-पत्नी के मिलन-विरह के, कर पर चित्र विचित्र बने ॥ किसी सखी के कलित करों से रँगे गये नख रानी के । रूई के फाहों से तन में लगे फुलेल सयानी के ॥ भरी महावर से हाथों में हीरे की प्याली दमकी । फूलों से कोमल रानी के पैरों में लाली दमकी ॥ दोनों पाँवों पर जौहर की ज्वाला की तसवीर बनी । क्रूर चिता की लपटों में भी सुकुमारी गम्भीर बनी ॥ चारों ओर चिता के परिजन चरण - चित्र में खड़े हुए। बोल सके न तनिक पीड़ा से, यद्यपि विह्वल बड़े हुए ॥ कहीं न अङ्ग छिले फूलों से, हलके फूलों के गहने । सखियों के कहने सुनने पर किसी तरह तन पर पहने ॥ रानी के तन पर सजने को, असमय में ही फूल खिले । मुझे सजा लो, मुझे सजा लो, वृन्त - वृन्त के फूल हिले ॥ झूले पुलकित कानों में दो मौलसिरी के फूल सुघर । मुकुर-कपोलों में, उनके प्रतिबिम्ब झलमले इधर-उधर ॥ गौर सलोनी नासा पर नव सोनजुही की कनक - कली । पहचानी जाती न कभी वह, अगर वहाँ उड़ते न अली ॥ अरुण अधर में प्रतिबिम्बित हो जूही की झुलनी झूली । बेसर-पद-उन्मन जूही पर कली मालती की फूली ॥ अड़हुल के फूलों का गजरा, पारिजात की माला थी । झुकी रसा की ओर लता-सी, कुसुम - भार से बाला थी ॥ रजनीगन्धा की कलियों की कलित करधनी झलर - मलर । फूलों के दल से भी कोमल, रानी की छबि जगर मगर ॥ चम्पा और चमेली के फूलों के पायल मधुर-मधुर । मधुपों के मधु-गुञ्जन - मय बेला की कलियों के नूपुर ॥ फूल - लदी अल्हड़ लतिका-सी, तारों भरी त्रियामा सी । रानी की छवि बिखर रही थी, कनक - चुनीसय-तामा सी ॥ रानी का वह रूप देखकर लगती शची पुरानी थी । रति की कौन कहे, चिन्ताकुल बानी-रमा-भवानी थी॥ उसे सजाकर सहेलियों ने रखा सामने मुकुर विमल । देख ललित शृङ्गार हुई वह रतन - मिलन के लिए विकल ॥ पर तत्क्षण दर्पण में ही, जौहर - व्रत की झाँकी देखी । रावल - गौरव को चिन्तित, साकार व्यथा माँ की देखी ॥ और तभी जौहर-व्रत-सूचक शङ्खों के निर्घोष हुए । पुलकित सतियों के अन्तर के व्यक्त वदन पर रोष हुए ॥ उठी महारानी सखियों से अर्चन की थाली माँगी । पूजा - पात्र कमण्डलु माँगा, फूलों की डाली माँगी ॥ नीलम - थाली में पल्लव - दल, चन्दन, अक्षत, घी, आये । धूप-दीप, दूर्वा-हल्दी, मधु, पुंगी-पान, दही आये ॥ पञ्चपात्र मणि-आचमनी के साथ कमण्डलु गङ्गा-जल । रतन - डोलची में गजरे, फल- फूल, साथ मधुपों का दल ॥ रानी की नवस्नात देह की सुरभि उठी कोने कोने । अर्चन के सामान लिये सखियाँ भी चलीं सती होने ॥ देह - सुरभि के साथ सुरभि गहनों की गमकी मतवाली । चारो ओर महारानी के, मधु-रस-पायी मधुपाली ॥ सखियाँ चँवर डुलाती जातीं, पर न मानते ढीठ भ्रमर । रानी स्वयं उड़ाती रहती, पर न दिखाते पीठ भ्रमर ॥ पथ की ओर गमन करने के लिए सती की दृष्टि उठी । हिला दुर्ग, हिल उठी मेदिनी, हिला गगन, हिल सृष्टि उठी ॥ अनायास पशु-पक्षी की भी आकुल आँखें भर आयीं । सिहर उठी रानी भी, सखियाँ सान्ध्य किरण-सी मुरझायीं ॥ अब पथिक, न मुझसे आगे आख्यान कहा जाता है । बाहर न सूझती दुनिया, भीतर जी अकुलाता है ॥ कह इतनी कथा पथिक से, पागल हो गया पुजारी । लोचन - कोनों से निकलीं, दो जल धाराएँ खारी ॥ आकुल हो गया पथिक भी, सुध रही न उसको तन की । उसके नयनों से निकली, आँसू बन पीड़ा मन की ॥ पहरों तक दोनों रोये, तब चली कथा रानी की। दोनों रुक रुक जाते थे, कह विकल व्यथा रानी की ॥ मातृ-मन्दिर, सारंग, काशी। गोपाष्टमी, १९९९

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