जौहर : श्यामनारायण पाण्डेय

Jauhar : Shyam Narayan Pandey


चौदहवीं चिनगारी : आदेश

भागती निशि जा रही थी प्रात को, हो गया था डर नगर को रात को । काँपता था गगन, भूतल व्यग्र था, मात करतीं गोलियाँ बरसात को ॥ रात भर तोपें गरजती ही रहीं, धूल से उड़ते रहे गढ़ के भवन । फूटते गोले, बमकती आग थी, पात के सम जल रहे थे मनुज तन ॥ किरण फूटी, प्रात आया बिलखता, नभ खगों की रुदन-ध्वनि से भर गया । तोप-गर्जन रुदन-रव के सामने रुक गया, पर काम अपना कर गया ॥ दुर्ग शोणित से नहा- सा था गया, वीथियों में रक्त के नाले बहे । रुधिर की कल्लोलिनी में बाढ़ थी, खेद, तो भी शत्रु मुख काले रहे ॥ वीर गढ़ वह गेरु- गिरि-सा था हुआ, सुनहली किरणें पड़ीं उस पर सभय । एक छवि वह भी हुई उस दुर्ग की, देख जिसको काँप जाता था हृदय ॥ गगनचुम्बी शिखर रवि के यान को, रोकने के हित खड़ा था आज क्या ? सूर्य-कुल का दुर्ग इतना व्यग्र क्यों, सौंपना था सूर्यवंशी ताज क्या ॥ दुर्ग पर सन्ध्या किसी जन ने न की, हा, न पितरों के लिए तर्पण हुए । आज सद्यः मृत पुरामृत के लिए, आँसुओं के वारि ही अर्पण हुए ॥ मन्दिरों की आज पूजा बन्द थी, इसलिए कि कहीं न उनका था पता । आरती किस देव की हो, देव ही जब दुखी हो, हो गये थे लापता ॥ बीत पायी थी न वेला प्रात की, खंडहरों से शेष जन निकले दुखी । मथ रहा था एक हाहाकार उर, आज सबकी वेदना थी बहुमुखी ॥ फाटकों के बन्द लौह किवाड़ थे, इसलिए वैरी न भीतर आ सके । द्वार दृढ़ दुर्भेद्य इतने थे कि वे आज दिन भर में न तोड़े जा सके ॥ इसलिए सब एक टीले पर जुटे, अब न वह पहला ललित दरबार था । नारियाँ भी थीं नरों के साथ ही, सामने हँसता कुटिल संसार था ॥ एक ओर अनाथिनी सुकुमारियाँ, एक ओर अनाथ नर बैठे सजल । वेदना से अधमरे से हो रहे, मौन, मूर्च्छित, विनत, मनमारे सकल ॥ भाइयों की सामने लाशें पड़ीं, फिर भला रोवें न वे तो क्या करें । क्या न रोता धैर्य ? यदि होता वहाँ, पथिक, हम भी आन पर कैसे मरें ॥ पर बदन पर एक ज्योति विराजती, आन-बान सतीत्व-रक्षा की अमल । परिजनों के शोक से तो व्यग्र थे, पर हृदय में, बाहु में उत्साह-बल ॥ पक्षियों से चित्त उनके उड़ रहे, मिनकता कोई न थी, चुपचाप थे । अब न जीवन की उन्हें परवाह थी, गरल-सम तन में भिने परिताप थे । दासियों के साथ तब तक पद्मिनी, तप्त जन-जन पर घटा-सी छा गयी । खेलता था हास छवि के साथ ही, नवविरह के गीत गाती आ गयी ॥ आज लज्जा से न घूँघट था कढ़ा, आज नभ का चाँद भू पर आ गया । गुदगुदी सी सुखद शीतल चाँदनी, दुर्ग तिनके का सहारा पा गया ॥ सजल विह्वल मौन अभिवादन किया, मूक आशीर्वाद पाती आ गयी । मर मिटे जो वीर थे चित्तौड़ के फूल वह उन पर चढ़ाती आ गयी । गीत में केवल न करुणा थी भरी, झूमती थी वीरता भी गीत में । शारदा का वह मधुर संगीत था, धीरता - गम्भीरता भी गीत में ॥ गीत-स्वर से ही जनों के हृदय के हो गये दुख दूर साहस आ गया। दिव्य दर्शन से सती के तो वहाँ दूसरा ही रंग सब पर छा गया ॥ उठ गये, बोले पुरुष जय-जय सती, जननि तेरे पतिव्रत की जय सदा । नारियों के करुण स्वर ने भी कहा, जय सुहागिन, जय अभागिन, जय सदा ॥ चौमुहानी पर खड़े हैं देर से, पथ दिखा हम चल पड़ें दृग मूँदकर । हम अगम आवर्त्त में हैं फँस गये, किस तरह किस ओर आज बहें किधर ॥ पतिव्रता पति के पदों की धूलि ले, और मन ही मन उन्हीं का ध्यान कर । देख अपने प्राणियों को कह उठी, धन्य हो तुम डट गये अभिमान पर ॥ हृदय से चिन्ता निकालो, फेंक दो, एक साहस और करना है तुम्हें । हृदय में उत्साह भर लो, बढ़ चलो, एक सागर और तरना है तुम्हें ॥ यह तुम्हारा त्याग युग-युग तक अमर, दुर्ग पर अनुराग युग-युग तक अमर । वंश - गौरव को बचाने के लिए, यह तुम्हारा याग युग-युग तक अमर ॥ राजपूतों के लिए तो युद्ध ही, शिवपुरी - वाराणसी कैलास है । स्वर्ग तक सीढ़ी लगा दो दुर्ग से, साथ ही अब चल रहा रनिवास है ॥ मुक्ति आगे से बुलाती है तुम्हें, नरक मुँह बाये सजग पीछे खड़ा । अब बताओ तो करोगे क्या भला, मुक्ति-हित दोगे न क्या जीवन लड़ा ॥ दुर्ग की रक्षा न हो सकती कभी, वैरियों का व्यूह क्या कट जायगा । तनिक सोचो तो महासागर भला, एक मुट्ठी धूल से पट जायगा ॥ विपत्ति में कोई न साथी हो सका, हाथ के हथियार हैं रूठे हुए । रोम तन के भी गड़े काँटे हुए, आज देवी - देवता झूठे हुए ॥ अन्न के भण्डार पर गोले गिरे, अब न खाने के लिए सामान है । जल रहा खलिहान -सा यह दुर्ग है, हाय, रहने के लिए न मकान है॥ दीप मन्दिर का किसी के बुझ गया, प्राण का धन चूर कितनों के यहाँ । लाल गोदी से किसी का छिन गया, धुल गये सिन्दूर कितनों के यहाँ ॥ हा, कहीं सौभाग्य-धन लूटा गया, हा, किसी की कोख खाली हो गयी । पैर से रौंदे गये यौवन कहीं, आज गढ़ की क्रुद्ध काली हो गयी ॥ दुर्ग का वातावरण प्रतिकूल है, नारियों का पतिव्रत भययुक्त है । क्षत्रियों की आन है सन्देह में, वंश - गौरव भी न चिन्ता-मुक्त है ॥ इसलिए मैंने यही निश्चय किया, जल मरूँगी वंश के अभिमान पर । साथ ही पतिदेव ने भी तय किया, मर मिटेंगे गुहिल - कुल की आन पर ॥ पद्मिनी की बात सुनकर नारियाँ, रो पड़ी, आँखें नरों की भी भरीं । रोकने पर भी सती के अरुणतर लोचनों के मेह से बूँदें झरीं ॥ रुदन स्वर के साथ ही सबने कहा, जिधर दोनों हैं उधर ही प्राण हैं । स्वर्ग है माता-पिता के पास ही, लोक के कल्याण ही कल्याण हैं ॥ प्रिय मधुर दरबारियों की बात सुन पद्मिनी का हृदय दूना हो गया । वीर गढ़ था एक अपनी शान का, और वह उन्नत नमूना हो गया ॥ पद्मिनी बोली तुरत उत्साह से, धन्य हो, जीवन तुम्हारे धन्य हैं। त्याग यह, यह राग अपने देश पर, आन-बान सभी तुम्हारे धन्य हैं ॥ अब न रंच विलम्ब होना चाहिए, अब न अपना समय खोना चाहिए । हृदय से भय मोह पीड़ा दूर कर रक्त से भूतल भिगोना चाहिए ॥ भूलकर भी मोह गढ़ का मत करो, आज जौहर का भयङ्कर व्रत करो । त्याग - विक्रम-वीरता निःसीम कर दुर्ग को कर्त्तव्य से उन्नत करो ॥ आज जौहर की चिताएँ जल उठें, आग की लपटें जला दें गगनतल । सब दिशाएँ आग से जलने लगें, चाँद-सूरज और तारे हों विकल ॥ चढ़ चलें ऊपर शिखाएँ वह्नि की, बादलों की देह भी छन-छन करे । हम करें शृङ्गार पहनें आभरण, और गा-गा अनल का अर्चन करें ॥ हों सुहागिन या अभागिन बच्चियाँ, रोहिणी, गौरी अनेक कुमारियाँ । उस धधकती आग में कूदें मरें, इस तरह से व्रत करें हम नारियाँ ॥ और केसरिया पहनकर नर सभी ले प्रखर नंगी दुधारी बढ़ चलें । माँ बहन की ले चिता-रज शीश पर खोल गढ़ के द्वार अरि पर चढ़ चलें ॥ हो गया गढ़-नाश होगा और भी, शक न इसमें, इसलिए छँट जायँ सब । आन-रक्षा की न औषध दूसरी, वैरियों को काटते कट जायँ सब ॥ बोलकर जय राज-रानी की उठे, शीश पर आदेश ले सब चल पड़े । विरह के दुख तो वदन पर व्यक्त थे, पर हृदय पाषाण से भी थे कड़े ॥ इसके बाद हुआ जो उसको वही दुर्ग कर सकता था। उसी दुर्ग में ही इतना बल, गौरव पर मर सकता था ॥ पथिक, न जग के इतिहासों में वह आदर्श कहीं देखा । किसी देश की किसी जाति में यह व्रत - राज नहीं देखा ॥ बोला पथिक, सती की गाथा विस्तृत हो, जल्दी न करें । पर हाँ, जय में देर लगाकर मुझे न आतुर दीन करें ॥ माला फेरी, चली कहानी, आँखों में आया पानी । जप - निषेध पर ध्यान न दे निकली मधुमय भूषित वाणी ॥ - विष्णु-मन्दिर, द्रुमग्राम, आजमगढ़ शारदीय नवरात्र १९९९

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