जौहर : श्यामनारायण पाण्डेय

Jauhar : Shyam Narayan Pandey


तेरहवीं चिनगारी : ध्वंस

मुण्डमाल हर व्याली जय, मनसिज-काल कपाली जय । खप्परवाली काली जय, जय काली, जय काली जय ॥ एकलिंग रजधानी जय, गढ़ की भूति भवानी जय । अमर पद्मिनी रानी जय, जय रानी, जय रानी जय ॥ अट्टहासवाली की जय, आज कटारों पर आ जा । लौंग धार वाली की जय, खर तलवारों पर आ जा ॥ महा प्रलयकारी की जय, आज भुजाओं पर आ जा । महा-महामारी की जय, सङ्गर भावों पर छा जा ॥ भस्म-विदारक रव की जय, जन-हुङ्कारों से मिल जा । महिष मर्दनी ध्वनि की जय, धनु टङ्कारों में खिल जा ॥ सिंहद्वार के फाटक के एकाएक खुले ताले । पड़े अचानक फाटक पर अरि के प्राणों के लाले ॥ बोल - बोल जय सेनानी, राजपूत सैनिक मानी, हुं हुं हुंकृति कर अरि के दल पर झपटे अभिमानी ॥ भिन्न प्रवाहों के मिलने से जैसे जल में हलचल । वीरों के भिड़ जाने से वैसे ही थल में हलचल ॥ लगे काटने बैरी - शिर, शिर से पटने लगी मही । पाषाणों में बल खाती, गरम रक्त की धार बही ॥ दोनों ओर प्रहारों से क्षण क्षण पिटने लगे बली । तलवारों के वारों से क्षण क्षण मिटने लगे बली ॥ लिपटे एक दूसरे से, जैसे जंगल के नाहर । हृदय रुधिरस्रावी निकले, सैनिक के तन के बाहर ॥ कोई घायल घूम गिरा, कोई योधा झूम गिरा । कोई दुर्जय सेनानी, हथियारों को चूम गिरा ॥ तलवारों की चोटों से लहू - लुहान हुआ कोई । भालों के बिंध जाने से गिर बेजान हुआ हुआ कोई ॥ आँखें फूटीं, अन्ध लड़े, शिर कट गये, कबन्ध लड़े । घमासान कोलाहल में रणधीरों के कन्ध लड़े ॥ क्षण लड़ गये कपालों से, क्षण नङ्गी करवालों से । क्षण भर बरछे भालों से, प्राण बचाये ढालों से ॥ वैरी-दल ने देखा जब राजपूत बढ़ते आते । गरज-गरज पग-पग निर्भय नाहर से चढ़ते आते ॥ तब साहस के साथ अड़ी, खिलजी-सेना रण-माती । तब शत-शत बन्दूकों से चलीं गोलियाँ भन्नाती ॥ बरछे-भाले-तलवारों से लोहा लेने वाले । पुस्तैनी से उनसे ही, शिर लेने देने वाले ॥ क्षण भर तो रुक गये विवश, फिर न रुक सके मतवाले । मर-मर मिट-मिट बढ़े अभय, विजय-मन्त्र पढ़ने वाले ॥ सती सामने दीन बनी, इससे तन की चाह न को । गढ़ की रक्षा के आगे प्राणों की परवाह न की ॥ तिल-तिल बढ़ने लगे वहाँ, हर-हर पढ़ने लगे वहाँ । बोल-बोल जय काली की मर-मर कढ़ने लगे वहाँ ॥ सन-सन गोली आती थी, सीने में घुस जाती थी । राजपूत-सेना तो भी आगे पैर बढ़ाती थी ॥ सनन कण्ठ से निकल गयी सनन कलेजा पार हुई । गिरे सैकड़ों सेनानी सनन-सनन सौ बार हुई ॥ जैसे जल-जल मर मिटते, दीपशिखा पर परवाने । पत्थर गिरने से जैसे, मिटते खेतों के दाने ॥ लाल बादलों से जैसे, केलों पर ओले गिरते । वैसे गढ़ के तरुणों पर गोले पर गोले गिरते ॥ मरते मिटते जाते थे, गढ़ से उतरे आते थे। एक सती के लिए विकल मर-मर बिखरे जाते थे ॥ आन-बान कुल - गौरव पर सङ्गर-दीवाने रहते । वक्ष गोलियों के आगे मरकर भी ताने रहते ॥ पुस्तैनी यह व्रत उनका अर्चित गढ़ बलिदानों से । मिट जायेंगे, पर न कभी हार सुनेंगे कानों से ॥ अङ्ग - अङ्ग से शोणित के फौहारे थे छूट रहे । गोले गिर-गिर वीरों के प्राण बराबर लूट रहे ॥ पर वैरी की सेना पर सेना चढ़ती जाती थी । बोल-बोल जय कल्याणी पग-पग बढ़ती जाती थी ॥ बैरी-दल के गोलों के आघातों से गात भरे । सङ्गर में घायल हो-हो राणा के सुत सात मरे ॥ लक्ष्मण का अन्तिम हीरा, आठ बरस का वीर 'अजय' । घायल हो बाहर निकला गढ़-सुरंग से धीर अभय ॥ वीर-दुर्ग का ढालू पथ, लाशों से था भरा हुआ । खप्परवाली काली के हासों से था भरा हुआ ॥ सिंहद्वार का तो तुमने, सुना समर घनघोर पथिक ! हृदय दबाकर अब धीरे, चलो दूसरी ओर पथिक ! पाठक, तुम भी साथ रहो, जहाँ पथिक जाये, जाओ । पर आगे की दुखद कथा पढ़ने का साहस लाओ । चित्तौड़ी पर से तोपें धाँय-धाँय कर तरज रहीं । वधिर बनाकर नभ को भी, घोर नाद कर गरज रहीं ॥ आँखमिचौनी खेल रही, महामृत्यु गढ़ के ऊपर । महाकाल का था ताण्डव, काँप रहा था गढ़ थरथर ॥ राजमहल के दीप बुझे, और बुझ रहे थे प्रतिपल । महाप्रलय का कोलाहल, महानाश का वेग प्रबल ॥ गड़-गड़ तोपों की ध्वनि से महाक्रान्ति का आवाहन । नग्न नृत्य विप्लव का था , निर्दयता का निर्दयपन ॥ सदा छूटते थे गोले, सदा फूटते बम - गोले । दुर्ग- हृदय पर गिर गिरकर, प्राण लूटते थे गोले ॥ गोले फटे स्फुलिङ्ग उड़े, आग लगी सामान दहे । घोर नाद कर गड़-गड़-गड़,, गोले गिरे मकान ढहे ॥ गोलों से पाषाण पिसें, धूल उड़ी धुधुकार चली । चले विकल उनचास पवन, उठे बवण्डर गली गली ॥ धाँ-धाँ जलने लगे भवन , गढ़ का दहन लगा होने । एक दूसरा ही उलटे, लङ्का दहन लगा होने ॥ तोपों की भीषण ध्वनि में, गढ़- चीत्कार विलीन हुआ । अरि-निष्ठुरता के आगे, दुर्ग विकल बलहीन हुआ ॥ हय-शालाएँ धधक उठीं, फूस सदृश गजशालाएँ । धधके सन्ध्या-पाठ-भवन, धधक धधक मखशालाएँ ॥ जले औषधालय मन्दिर, देव-मूर्त्तियाँ राजभवन । जले पात से विद्यालय, धाँय - धाँय कर उपवन वन ॥ झूल रहा था दुर्ग-शिखर पर पर कोई हिंडोल न था। डग-डग डोल रहा था गढ़, पर कोई भूडोल न था ॥ जंजीरों में कसे हुए जल-जलकर मातंग मरे । आगे-पीछे बँधे हुए, झुलसे खड़े तुरंग मरे ॥ गोले गिरे फटे गढ़ पर, धूल-साथ ही धूम उड़े । गोले गिरे हिले आलय, एक बार भू चूम उड़े ॥ अपने विह्वल लैरू को दूध पिलाती गाय मरी । अपने पुलकित छौने के साथ मृगी असहाय मरी ॥ जिसके विमल दूध से ही, सन्तत मख का चरु बनता । साथ यज्ञमण्डप के उस, कामधेनु का था न पता ॥ गढ़ पर गोला गोली थी, त्राहि त्राहि की बोली थी। निर्दयता से खेल रही, मौत रक्त से होली थी ॥ चीख रही थी मानवता, पर कोई सुनता न रहा । रौद रही थी दानवता, शिर कोई धुनता न रहा ॥ युग-युग से पूजा लेने- वाली गढ़ की काली भी । भक्त-रक्त की ही प्यासी जननी कुन्तल-वाली भी ॥ ध्वंस हो गया वीर नगर गढ़ निर्जीव मसान हुआ । भीषण गोलावारी से दुर्ग शिखर सुनसान हुआ ॥ बीच बीच में कभी-कभी, देख दुर्दशा अरि निर्दय । ताली दे दे, हा-हा-हा, हँस भी पड़ता था निर्भय ॥ तोपों के गर्जन में भी, उसके अट्टहास के रव । गढ़ के कानों में पड़ते जैसे घोर विपिन में दव ॥ बोला पथिक पुजारी से, क्या विषधर सा डंसता भी था । नगर फूँककर ताली दे क्या हत्यारा हँसता भी था ॥ अभी अभी उसकी पशुता का मानव तो बदला लूँगा । निष्ठुर के पाषाण-हृदय में भाला-नोक हला दूँगा ॥ यह कहकर वह उठा वेग से उसे पुजारी ने रोका । कहा, हुआ क्या तुमको यह, आख्यान सात सौ वर्षों का ॥ कहाँ अलाउद्दीन, और अब कहाँ पद्मिनी रानी है । अब तो उसकी निर्दयता की केवल शेष कहानी है ॥ पथिक झेंपकर बैठ गया, पर वेग आँसुओं में आया । तुरत पुजारी जी की भी आँखों में खारा जल छाया ॥ पहर भर के बाद रानी की कथा, साथ पीड़ा को लिये आगे बढ़ी । देख गढ़ का ध्वंस रानी प्रात ही, साथ प्राची - ज्योति के आगे कढ़ी ॥ मातृ-मन्दिर, सारंग, काशी । वसन्तपञ्चमी १९९८

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