जौहर : श्यामनारायण पाण्डेय

Jauhar : Shyam Narayan Pandey


बारहवीं चिनगारी : चित्तौड़ी

रात आधी हो रही थी, मौन दुनिया सो रही थी । मोतियों के तरल दाने नियति तृण पर बो रही थी॥ घन कुहासा पड़ रहा था, छिप गये तारे सुधाकर । रात मानो सो गयी थी, दीप आँचल से बुझाकर ॥ नियति के उग चाँद सूरज, तिमिर - पलकों में छिपे थे। गिरि - सरोवर सजल तरु - दल सघन अलकों में छिपे थे ॥ छा रही निस्तब्धता थी, झीगुरों के बन्द गायन । हो रहा था आज गढ़ पर वीर - साहस का पलायन ॥ देख गढ़ का शिथिल साहस, पद्मिनी का गान गूँजा । साथ ही गढ़ के हृदय में देश का अभिमान गूँजा ॥ वीर गढ़ पर वीर नगरी, झुक रही पर आज पगरी । प्राण - रुदन जगा रहा है, वीरते, तू आज जग री ॥ परिचिता मेवाड़ से है, परिचिता इस प्राण से है, परिचिता तू देश के प्रत्येक कण पाषाण से है ॥ परिचिता तू गुहिल - वंशज क्षत्रियों के बाण से है । परिचिता खरतर भयङ्कर राजपूत कृपाण से है ॥ सहचरी - वरदान की है, तू सखी बलिदान की है। एक ही सहयोगिनी तू दुर्ग के अभिमान की है ॥ घोर दानवता - विपिन में, क्रूर दावा - सी सुलग री । वीर गढ़ पर वीर नगरी, झुक रही पर आज पगरी ॥ जिस तरह रावण-निधन-हित जग उठी थी राम - उर में । मौत बनकर कंस की तू जिस तरह घनश्याम-उर में ॥ राजपूतों के हृदय में आज वैसे ही समा जा । फूँक दे अरि-व्यूह आँखों में चिता ले आज आ जा ॥ प्राण हाथों पर लिये हैं, गर्व से मस्तक उठाये । जा न सकती आन चाहे, आन पर ही जान जाये ॥ धूल-मिट्टी की सखी तू, पद्मिनी के हृदय लग री । वीर गढ़ पर वीर नगरी, झुक रही पर आज पगरी ॥ विजय की आशा न हो तो भी न रुक, आ, मत लजा तू । सखि, अमित निर्भीकता से समर की भेरी बजा तू ॥ एक ओर सुहागिनी सिन्दूर की होली जलावें । धधकती जलती चिता की आग में चौताल गावें ॥ एक ओर अबीर और गुलाल हो नर-रक्त ही का । हो न इस मेवाड़ का गत फाग से यह फाग फीका ॥ जन्म से है साथ तेरा, तू न हम सबसे अलग री । वीर गढ़ पर वीर नगरी, झुक रही पर आज पगरी ॥ मौन काली यामिनी में, गूँजता था गान का स्वर । एक बिजली दौड़ती थी, दुर्ग-अन्तर में निरन्तर ॥ जो जगे मधु गीत सुन सुन, पैंतरे दे दे उछलते । फेरते हथियार नभ में, आग आँखों से उगलते ॥ हो रहे सन्नद्ध प्रतिपल, वीर मरने मारने को । तीव्र तलवारें विकल थीं, छपक शीश उतारने को ॥ सो गये, जो स्वप्न ही में वैरियों से लड़ रहे थे । सूरमे अरि-व्यूह पर चढ़ बाढ़ सदृश उमड़ रहे थे ॥ एक ओर अमर मृतों से वीर घरती पट रही थी। देख अत्याचार अरि का गगन-छाती फट रही थी ॥ एक ओर चिता धधकती व्योम से लपटें लिपटतीं । रानियाँ घूँघट निकाले हाथ जोड़े मौन जलतीं ॥ दुर्ग जलती पद्मिनी को ले धँसा पाताल में था । रक्त पी न डकार लेता, रोष इतना काल में था ॥ खुल गयीं आँखें अचानक उठ गये गये योधा भभरकर । एक क्षण रुक तब गये फिर बाहुओं में शक्ति भरकर ॥ आग आँखों में, भृकुटि में कुटिलता, कम्पन अधर में। ले बढ़े दो डग रुके, फिर भाँजते करवाल कर में ॥ पद्मिनी के गीत ने तो भर दिया उत्साह जड़ में । अग्रसर चेतन हुए तो क्या हुए उन्मत्त रण में ॥ इधर दुर्ग उबल रहा था, वैरियों से जल रहा था। आग अपने विवृत-मुख से बार बार उगल रहा था ॥ उधर गढ़ के निकट ही अव्यक्त कलकल हो रहा था । भूँकते थे श्वान जगकर गगन छलछल हो रहा था ॥ उस अटल निस्तब्धता में रात तक भी सो रही थी। चींटियों की पाँत - सी पाषाण सेना ढो रही थी ॥ आज चित्तौड़ी शिखर ऊँचा बनाया जा रहा था। प्रात ही गढ़ फूँकने को वह सजाया जा रहा था ॥ बिछ रहे प्रस्तर शिखर पर, बिछ रहे गिरि खण्ड काले । उस अँधेरी रात में भी, दमकते खर कुन्त - भाले ॥ नियम था, ऊपर धरा से एक पत्थर जो चढ़ा दे । ले सुरा, ले रतन, उसको एक अंगुल भी बढ़ा दे ॥ मधु-रतन के लोभ से सब खेल प्राणों पर सिपाही । ढो रहे गिरि-खण्ड आतुर, ले रहे थे वाहवाही ॥ दो प्रहर में पाहनों से पट गया वह शिखर इतना । वीरसू चित्तौड़ गढ़ का था समुन्नत शृङ्ग जितना ॥ तुरत बिछवायी गयीं उस पर विकट तोपें सटाकर । कँप उठा गढ़ सिहर थरथर, हँस पड़ी काली ठठाकर ॥ हाँ, न अब थी देर, विहगों की अचानक नींद टूटी। किरण दर्शन के प्रथम ही, निशि भगी काली कलूटी ॥ चहचहाकर उड़ गये पक्षी, लगीं तोपें गरजने । धाँय-धाँ-धाँ, धाँय - धाँ की ध्वनि लगी रह-रह तरजने ॥ नाद सुनकर राजपूतों के हृदय की शक्ति जागी । जग उठा उत्साह उर का, मातृ-पद-अनुरक्ति जागी ॥ पद्मिनी के पतिव्रत के जल उठे अङ्गार तड़के । मौत ध्वनि के साथ थिरकी, सूरमों के रोम फड़के ॥ पथिक, न यदि आख्यान कहूँ तो क्या अब तुम्हें व्यथा होगी । निर्दय अरि की निर्दयता की आगे दुखद कथा होगी ॥ खिलजी-तोपों की ज्वाला से जलकर नगर मसान हुआ । रण के बाद चिताएँ धधकीं, सारा गढ़ सुनसान हुआ ॥ बोला पथिक पुजारी जी से, गाथा तो पूरी होगी । सविनय कहने पर, कहने को प्रभु को मजबूरी होगी ॥ अधर - पँखुरियाँ डोलीं, थिरकी गालों पर मुसुकान-प्रभा । धीरे-धीरे चली कहानी, दमकी पथिक-वदन पर भा ॥ वीर पुजारी ने घुल- घुल, ह्रस्व-दीर्घ-गति-यति-संकुल, गढ़-विनाश की कथा कही, सन्तानों की व्यथा कही ॥ मातृ-मन्दिर, सारंग, काशी । मेष संक्रान्ति, १९९९

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