जौहर : श्यामनारायण पाण्डेय

Jauhar : Shyam Narayan Pandey


ग्यारहवीं चिनगारी : चिंता

मधुऋतु का खून-खराबा, वह कुहू-कुहू की बोली । वीरों का वैरी - दल से वह मस्त खेलना होली ॥ तरु तरु पर पक्षी - क्रन्दन मधुपों का गुनगुन रोना । गोरा की विरह - व्यथा से गढ़ का शिर धुन-धुन रोना ॥ सह सका न मधु का शासन, आतप ने आँखें खोलीं । मुख सूख गये फूलों के, भय से लतिकाएँ डोलीं ॥ आँधी- लू चली, बबण्डर रज - व्यूह बनाकर धाये । फल - भार विनत वन के तरु, भू पर झकझोर गिराये ॥ पीले पीले आमों के काले काले जामुन के, फल गिरे, लूटने दौड़े लड़के रव सुन के उनके ॥ फल लूट लूटकर खाये. लेकिन जलहीन अभागे । लाचार बगीचे से घर, पानी पानी कह भागे ॥ गज - मस्तक - से कटहल - फल, डालों पर लटक रहे थे । पानी के लिए बटोही तालों पर भटक रहे थे ॥ पथ के तरु ठूंठ खड़े थे लू - लपटों से जल - जलकर । गन्दे पानी पीते थे, पशु नदियों में हल - हलकर ॥ टेढ़ी रेखाओं - सी थीं, नदियाँ सब पेट खलाये । कुछ ही ढबरों में ढबरे जल से थीं मान बचाये ॥ रह गया नाम को ही था, गंगा - यमुना में पानी । सरयू के रेतों में तो, आँधी उठती तूफानी ॥ यदि और ताप बढ़ जात तो हिन्द - महासागर भी जलहीन भयंकर होता ऊपर से चढ़ता ज्वर भी ॥ पञ्चाग्नि उमा सी लेती, आतप की उन लपटों में । उच्छ्वास ले रही रानी थी, छिपा मयंक लटों में ॥ थी देह देह पसीने से तर, आँसू से तन की सारी । दोनों के खारे जल से डूबी थी एक कियारी ॥ नभ पर घन इस गरमी की गरमी निकालने आये । जाने कितना पथ चलकर, सन्देश किसी के लाये ॥ बिजली ने तड़प-तड़पकर तप को बरजा समझाया । माना न ताप देने से, बादल ने ने भी धमकाया ॥ तब लगी झड़ी बूँदों की, बादल पर बादल आये । गिरि - सागर पर खेतों पर, हरहर पानी बरसाये ॥ पहले तो लड़ा घनों से, जल सोख लिया आतप ने । पर सतत बरसने से जल पीछे लग गया कलपने ॥ मेड़ों के ऊपर से भी धारा निकली पानी की । उस हत्यारे आतप पर घन ने भी मननानी की ॥ तालों के कूल - दरारों से नये पुराने दादुर । पानी से निकल - निकलकर लग गये साधने सब सुर ॥ घे - घे घरघों - घरघों के मधु रव से मुखर सरोवर । गाये अपने छन्दों में कण्ठों में सातों स्वर भर ॥ थे कहीं घूमते विषधर गोहुवन करइत मतवाले । थे कहीं रेंगते बिच्छू, भूरे - तन काले - काले ॥ मखमली ओढ़ने ओढ़े तरु - तल थी वीरबहूटी । हा, कुचल दिया क्यों किसने, किसकी थीं आँखें फूटीं ॥ सँझवत देने को आँचल में दीप छिपाकर आया । यह क्या, क्यों दीप - शिखा पर शलभों का दल मँडराया ॥ छिपकर तरु के झुरमुट में 'पी कहाँ ' पपीहे बोले । झुरुकी बयार पछुवाँ की, धानों के पौदे डोले ॥ मछली के लिए सरों में बैठे वक ध्यान लगाये । हिल गया कहीं पर पानी, धीरे से पैर उठाये ॥ मेघों से पानी झरझर, आँखों से आँसू झरझर दृग मूँद पद्मिनी रानी जी - जी जाती थी मर - मर ॥ नभ पर व्याकुल बादल था, बिजली की आग छिपाये । भू पर रानी व्याकुल थी, उर में पति राग छिपाये ॥ बैठे समीप रानी के, दिन - रात रतन भी रोता । पति पत्नी की पीड़ा से सारा गढ़ पीड़ित होता ॥ कह - कह निष्ठुरता अरि की, कह - कह वियोग की रातें । दोनों रो - रो उठते थे, कह - कह गोरा की बातें ॥ मरने का उन्हें न दुख था केवल वियोग की पीड़ा । प्रत्यक्ष सामने उनके, करता वियोग था क्रीड़ा ॥ मृग - दम्पति - हत्या का फल दोनों प्राणों ने भोगा । रो - रो कहते, जन्मान्तर में कौन कहाँ पर होगा । पावस रोते ही बीता, लो शीतकाल भी आया । अपने प्रभाव से सबको भय के ही बिना कँपाया ॥ बहुरङ्ग फूल फूले थे । हँसते थे खेत मटर के । पीले-पीले फूलों से थे पीत खेत अरहर के ॥ यव - टूँड़ सुई - से निकले, गड़ गये पिशुन - आँखों में । गदराये खेत चने के, थे चमक रहे लाखों में ॥ नीले नीले फूलों से तीसी के खेत भरे थे । उन खेतों के मेड़ों पर फूलों के दल बिखरे थे ॥ जाते दृग जिधर उधर ही हरियाली ही हरियाली । फल - भार - झुकी सरसों के पौदों की डाली डाली ॥ गमछे की पगड़ी बाँधे, मुँह - बीच भुने साठी ले, जब कभी खड़ा डाँड़ों पर होता किसान लाठी ले, तब आँखें हँस देती थीं, आनन्द - मगन हो जाता ; कुछ देर मेड़ पर बैठे विरही का बिरहा गाता ॥ हिम लिये हवा बहती थी, छोटा दिन हुआ सिकुड़कर । लम्बी कुछ रात बना दी, दिन रात धुएँ ने उड़कर ॥ रानी के दुख से से रजनी ओसों के मिस रोती थी। वह गन्ने के पल्लो को आँसू - जल से धोती थी ॥ उसके आँसू के मोती, पौदों के दल पर बिखरे । नित उन्हे पोंछता सूरज, कवि, और व्यथा कुछ लिख रे ॥ पटहीन देख दुर्बल को नभ की छाती फटती थी। कौड़े - समीप पत्तों पर, भूखे ही निशि कटती थी ॥ कुर्ते में सौ सौ चीरें, सीने को सुई न डोरा । जाड़े के दिन का साथी, हा, कुछ कोदो का पोरा ॥ बीछी के शत डंकों - सी तरु - डाल पात दहलाती । शर - सदृश हवा जब चलती गढ़ की भी देह कँपाती ॥ हा, तब रानी अञ्चल में अपना मुँह ढँक लेती थी। कुछ देर सिसकियाँ भर - भर हा हन्त ! विलप लेती थी ॥ वह कभी कभी कोने में, प्रभु से विनती करती थी । मूर्च्छित होती, उठ जाती, प्रतिक्षण जीती मरती थी ॥ प्रभु, तु अन्तर्यामी है, तू जान रहा दुख मेरा । फिर क्यों देरी होती है, असुरों ने मुझको घेरा ॥ आतप की दोपहरी में, पावस की घोर घटा में । मैं तुझको ढूँढ़ रही हूँ, सरदी की तुहिन - छटा में ॥ इस लघु से लघु जीवन में पीड़ा भरकर क्या पाता । इस अनाथिनी अबला को प्रभु, क्यों इतना कलपाता ॥ मैं सौ सीता - सी व्याकुल, तू आज राम ! बन आ जा। पाञ्चाली विकल सभा में, बनकर घनश्याम समाजा ॥ मेरी पुकार नीरस है, गज की पुकार में करुणा । तव तो तू दौड़ पड़ा था, लेकर आँखों में वरुणा ॥ इस बार न जाने क्या है, उर द्रवित न होता तेरा । मेरी दुनिया चञ्चल है, सौभाग्य विकल है मेरा ॥ जब नहीं पिघलता उर है, तब मत आ प्रभु, जाने दे । अन्यायी जग के ऊपर, मुझको भी मिट जाने दे ॥ नश्वर यह सारा अग - जग, नश्वर यह मेरा तन है । है अर्थ जन्म का मरना, संसृति का लक्ष्य निधन है ॥ जब सबकी यही कथा है, जब मुझे कभी मरना है, तब क्यों न मरूँ जीने को, माँ का भी ऋण भरना है ॥ मैं मर न सकूँगी मरकर, मैं जी न सकूँगी जीकर । इसलिए न अब जीना है, मरना न गरल भी पीकर ॥ लाखों मरते, क्या दुनिया उस मरने पर रोई है ? मैं तो उस तरह मरूँगी, जैसे न मरा कोई है ॥ प्रभु, यहाँ न दर्शन देता, तो मैं ही आ जाऊँगी । प्रभु, सुगम अनल के पथ से मैं तुझको पा जाऊँगी ॥ पर रतन - विरह के दुख से फिर हुई पद्मिनी मूर्च्छित । तत्काल वहाँ पागल - सा आ गया रतन व्याकुल - चित ॥ देखा उदास स्वामी को, जब उसकी मूर्च्छा टूटी। हा, रानी की आँखों से आँसू की धारा फूटी ॥ झलके जलकण आँसू के, पति के भी दृग - कोनों में । दोनों के उर में ज्वाला, पीड़ा उठती दोनों में ॥ क्षण भर तक रोकर पति ने पत्नी - आँखों को खोला । रानी को गोदी में ले, रोते ही रोते बोला- जितना मिलना है मिल लो, जितना रोना है रो लो । वैभव के सुख - सपनों को आँसू के जल से धो लो ॥ हम दोनों के के खिलने का वह मलय मिले न मिले अब । हम दोनों के मिलने का क्षण समय मिले न मिले अब ॥ लेकर असंख्य सेनानी, खिलजी ने घेरा डाला । हा, चारों ओर किले के भूतों ने डेरा डाला ॥ पर हाँ, यह कह देता हूँ, रावल डग भर न हिलेगा । उस नीच अधम पापी को तेरा दर्शन न मिलेगा ॥ मेरे मरने के पहले अभिमान न मर सकता है । मेरे मिटने के पहले सम्मान न मिट सकता है ॥ इसलिए मुझे स्वीकृति दो, मैं सजग करूँ वीरों को । रक्षा - हित मिटनेवाले, गढ़ के उन रणधीरों को ॥ घायल हरिणी - सी रानी, हा ! विकल भरी आँखों से रह गई देखती पति को अपनी उघरी आँखों से ॥ उस विवश देखने का तू कवि, क्या वर्णन करता है । बेकार लेखनी से तू कागद पर मसि भरता है ॥ पति चला गया कह - सुनकर, रो-रोकर शिर धुन - धुनकर । पर देख रही थी रानी, जाने पर भी पति गुनकर ॥ उस महाशून्य में मानो पति के दर्शन होते थे । आँखें तो रोती ही थीं, तन - मन भी तो रोते थे ॥ हा ! उसी तरह पहरों तक, वह पड़ी रही अवनी पर । तन में चञ्चलता आयी, वह उठी खेलकर जी पर ॥ खिड़की से गढ़ के नीचे, फूली आँखों से देखा । थी खिंची मनुज - मुण्डों की काली - सी भैरव रेखा ॥ मिटने को और मिटाने को सेना सजग बड़ी थी । उन अगणित हथियारों में मुँह बाये मौत खड़ी थी ॥ रह सकी न रानी कातर, साहस उर में भर आया । उस पतिव्रता के तन में सौ रवि का तेज समाया ॥ युग - युग की सोई हिंसा, तन - रोम - रोम से जागी । धीरे से पूँछ दबाकर सारी कातरता भागी ॥ क्षण - क्षण अधरों का कम्पन, क्षण - क्षण भावों का नर्त्तन । क्षण-क्षण मुख की मुद्रा का परिवर्त्तन पर परिवर्त्तन ॥ भुजदण्ड तप्त लोहे - से, अङ्गार चुए आँखों से । पति के समीप उड़ती, पर लाचार रही पाँखों से ॥ फिर भी पाँवों की गति में, आँधी की थी गति आई । पति पास चली एकाकी, काली सी ले अंगड़ाई ॥ हा ! अनभ्यास चलने से बह चला लहू चरणों से । हो गये लाल पथ- कण-कण, निकले जब रक्त व्रणों से ॥ पर क्षण भर में ही रानी, स्वामी के पास खड़ी थी । पति- साथ समर -साहस की दीक्षा दे रही बड़ी थी ॥ गढ़ के वासी तो पहले से मर मिटने को कटिबद्ध रहे । वैरी - उर - शोणित पीने को उनके बरछे सन्नद्ध रहे ॥ पर पथिक, देखकर रानी को अधिकाधिक साहस - बल आया । पर कोई बतला सकता, क्यों उनकी आँखों में जल छाया ॥ पथिक बोला — और आगे की कहानी कह चलो तुम । पूत गाथा की त्रिवेणी में मुझे ले बह चलो तुम ॥ जय पुजारी ने किया, गाथा चली अविराम गति से । वीर रानी की कथा में रस बरसता था बिपति से ॥ मातृ-मन्दिर, सारंग, काशी। फाल्गुन सिताष्टमी, १९९८

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