जौहर : श्यामनारायण पाण्डेय

Jauhar : Shyam Narayan Pandey


दसवीं चिनगारी : पुनर्युद्ध

नव वसन्त के कुसुम-शरों से मार भगाया गया शिशिर । अर्धचन्द्र देकर जग के उस पार लगाया गया शिशिर ॥ छिपा काल की गोदी में, जब हारा शिशिर वसन्त शक्त से । दोनों ऋतुओं के संगर से तरू भी तर हो गये रक्त से ॥ इसीलिए जो पल्लव निकले, शोणित - स्नात लाल ही निकले । या तरु-तरु की डाल - डाल से बनकर ज्वलित ज्वाल ही निकले ॥ जान पराजय वीर शिशिर के गाँव फूँकना रंच न भूले । वही लगी है आग भयंकर, ये पलाश के फूल न फूले ॥ लाल-लाल आखें कर कोयल, बौरे आमों की डाली पर, मधु की विजय सुनाती फिरती; मस्त विजय थी सुरवाली पर ॥ यशोगान करते अलि गुन-गुन, झूल टहनियों के झूलों पर । कानों में कुछ कह जाती थीं, बैठ तितलियाँ नव फूलों पर ॥ मन्द मन्द मलयानिल वन - वन, यश - सौरभ लेकर बहता था । सबसे मिलकर नव वसन्त के गौरव की गाथा कहता था ॥ केवल पिक के ही न, विजय पर सभी खगों के गान सुरीले । वन - उपवन भर देते गा - गा, डाल - डाल पर गायन गीले ॥ उधर मृदुल मधु की दोपहरी गूँज रही थी विहग-गान से । इधर कहारों की तलवारें निकल रही थीं ग्यान -स्यान से ॥ परदें उठे सूरमे निकले, मानो निकले सिंह माँद से । काँपीं, दशो दिशाएँ थरथर हर हर के हुंकार - नाद से ॥ एक साथ ही सिंहनाद कर बोल दिया धावा डेरों पर । आग बरसने लगी अचानक, खिलजी के निर्दय घेरों पर ॥ अरि की आँखें तलवारों की चकाचौंध से मन्द हो गयीं । हर हर की उद्दाम बोलियाँ नभ तक और बुलन्द हो गयीं ॥ क्षण भर तक तो वैरी - सेना, थकित - चकित - सी रही देखती । और रही व्याकुल आँखों से लाल रक्त से मही देखती ॥ किन्तु दूसरे ही क्षण उनकी तलवारें शिर काट रही थीं । रुण्ड - मुण्ड से समर - मेदिनी, नाच-नाचकर पाट रही थीं ॥ जहाँ एक क्षण पहले मंगल- गान - कृत्य होनेवाला था । कौन जानता, वहाँ मृत्यु का भयद नृत्य होनेवाला था ॥ पतझड़ के पत्ते तक से, शिर धड़ से अलग हुए जाते थे । अरावली - से अचल सूरमे, जड़ से बिलग हुए जाते थे । योधा भालों की नोकों पर, सने खून से जीभ निकाले । निकली आँखों से भय भर - भर, विकल मर रहे थे मतवाले ॥ खून फेंकता मुँह से कोई, आँखें अलग निकल आई थीं । वीर बरछियाँ निगल रही थीं, जो सौ बार निगल आई थीं ॥ भगा कटार चुराकर उर में, दो डग भी न भागने पाया । वीर तड़पकर वहीं सो गया, उसे किसी ने नहीं जगाया ॥ वीर राजपूतों की टोली, आँख मूँद कर वार रही थी । कभी छुरा, तो कभी दुधारी, कभी निकाल कटार रही थी ॥ खून वैरियों का करने से खून चढ़ गया था वीरों पर । हिंसा से आँखें जलती थीं, जय सवार थी रणधीरों पर ॥ कभी कभी आगे पीछे हो, गोरा बादल पिल पड़ते थे । देख पैंतरे उन दोनों के, अरि- सेनानी हिल पड़ते थे । तरबूजे में छुरी जिस तरह, बिना दबाये ही घुस जाती । उसी तरह बादल की बरछी, बिना घुसाये ही घुस जाती ॥ हाथी-घोड़ों के सवार शर खा- खाकर बद - बद गिरते थे । कठिन कटारों के प्रहार से, पैदल भी भद - भद गिरते थे ॥ काट रहा उस पार और इस पार सिपाही काँप रहे थे । गोरा था इस पार और उस पार बहादुर हाँफ रहे थे ॥ एक साँस में ही गोरा ने कण्ठ काटकर साफ कर दिये । वैरी के अपराध युद्ध में प्राण-दण्ड ले माफ कर दिये ॥ तब तक शत्रु सवारों की भी सेना वहाँ तुरन्त आ गयी । रावल के उन नर - सिंहों की मानो मौत दुरन्त आ गयी ॥ देख सवारों को चिनगारी रोम रोम से लगी निकलने । दोनों आँखें लाल हो गयीं, लगी क्रोध से काया जलने ॥ भौंहें कुटिल कमान हो गयीं, पलकें उठीं उतान हो गयीं । गोरा की असि - दीप्त भुजाएँ फड़क काल समान हो गयीं ॥ प्रलय - मेघ - सा गरज म्यान से एक प्रखर तलवार निकाली । साथ-साथ हुंकृति के उसने गोहुवन - सी फुफकार निकाली ॥ और दूसरे ही क्षण अरि के हय पर कूद सवार हो गया । अश्वारोही गिरा धरा पर, जीवन के उस पार हो गया ॥ तुरत एड़ मारी गोरा ने, तमक तुरंग तूफान बन गया । नभ की ओर छलाँग मारकर, उड़ा राम का बाण बन गया ॥ गोरा के डर से घोड़े ने अपने ही घोड़ों को घेरा । लूट लिया उनका साहस सब, बना प्रखर उद्दण्ड लुटेरा ॥ वाजि - गईनों से मिल-मिलकर छप-छप करने लगी दुधारी । गिरी सवारों पर बिजली- सी, गोरा की करवाल-कुमारी ॥ गरम-गरम शोणित पी-पीकर वमन सवारों पर करती थी । तो भी नहीं सवार - रक्त से, उदर - दरी उसकी भरती थी ॥ भूखी बाघिन - सी गिरती थी , फिरकी - सी दल पर फिरती थी । इतनी थी तैराक, पैर के बिना रक्त - सरिता तिरती थी ॥ जान उसी की बची युद्ध से, जिसने भगकर जान बचायी । औरों ने तो रण करने से अपनी मरकर जान बचायी ॥ गिरे शत्रुओं के शत कोड़े, अंगुल भर बढ़ सके न घोड़े । गोरा की तलवार - चोट से साथ सवारों के तन छोड़े ॥ इतने में अंकुश के बल से मत्त हाथियों का दल आया । देख अकेला ही गोरा को शिर उतारता बादल आया ॥ पथिक, पद्मिनी के समक्ष की वही प्रतिज्ञा उस दिन वाली । आज सामने ही दोनों के अट्टहास करती मतवाली ॥ रोम रोम दोनों के तत्क्षण, अंग-अंग के खड़े हो गये । बढ़े ओज-बल, देह - यन्त्र के पुरजे-पुरजे कड़े हो गये ॥ रिक्त वाम कर देख वीर का विकल हो उठी कठिन दुधारी । बोली अभी निकाल म्यान से मुझको रहने दे न कुमारी ॥ आज रक्त - सिन्दूर लगा लूँ, आज सुहागिन बनकर घूमूँ । मिल लूँ गले बिदा के पहले, सहेलियों के पद-कर चूमूँ ॥ रँगी रक्त से चुनरी पहनूँ, नृत्य करूँ अरि- कण्ठ छाँट दूँ । साग-पात की तरह काटकर बाजि - गजों से भूमि पाट दूँ ॥ यह कहकर तलवार म्यान से बायें कर में आप आ गयी । युद्धस्थल में प्रखर धार की एक भयंकर ज्योति छा गयी ॥ दोनों हाथों की तलवारें मस्त गजों में घूम रही थीं । डूब - डूब शोणित - सागर में बारबार भू चूम रही थीं ॥ एक पी रही रक्त, दूसरी कर्त्तन में बेजोड़ लगी थी । कौन काटती अधिक गजों को, दोनों में यह होड़ लगी थी ॥ कभी छपाछप कभी तैरती कभी डूबतीं उत्तरा जातीं । बैरी-दल के रुधिर सिन्धु में, और कभी डूबी रह जातीं ॥ एक डूबकर उतरा आयी, डूबी एक हेलकर आयी । मत्त हाथियों के शोणित से, होली एक खेल कर आयी ॥ कभी नाचती चलीं साथ ही, दोनों कभी हाथ से धायीं । कभी चमकती उठीं रुधिर के नद में कूद नहाकर आयीं ॥ क्षण भर में ही घटा गजों की गोरा- असि - आँधी से फूटी । उसके कर्कश कर-प्रहार से द्विरद शृङ्खला तड़ से टूटी ॥ पर धोखे से एक करी ने वार किया पीछे से आकर । हरके से चल पड़ा मत्त गज हलचल हाहाकार मचाकर ॥ घोड़े को तो पकड़ लिया, पर पा न सिंह को सका वहाँ पर । बल्कि गिरा दो टुकड़े होकर और मत्त गज गिरे जहाँ पर ॥ तुन्दिल गज के देह - भार से पिसकर अश्व पिसान हो गया । एक घड़ी का मित्र तुरंगम, मरकर एक निशान हो गया ॥ लेकिन घेर लिया गोरा को, मतङ्गों ने सभी ओर से । उस दुर्जय रणमत्त सिंह को चले चीरने कोर - कोर से ॥ पर उसकी दोनों तलवारें दो तड़ितों - सी तड़प रही थीं । मत्त मतङ्गों पर गिर - गिरकर, प्राण बराबर हड़प रही थीं ॥ गौरैयों में बाज पड़ा था, विहगों में खगराज पड़ा था। मानो घन तम के के घेरों में प्राची का दिनराज पड़ा था ॥ कभी रक्त से तर हो जाता, खूनी शेर-बबर हो जाता । भैरव प्रलयंकर हो जाता, दन्ती-दल भर-भर हो जाता ॥ झुण्ड काटकर तुण्ड उड़ाया, पूँछ काटकर मुण्ड उड़ाया । अपनी खरतर तलवारों से छपछप विकल वितुण्ड उड़ाया ॥ मर-मर समर मतङ्ग गिरे या नभ के बादल घिरे धरा पर । या हिल-हिल भूचाल-वेग से काले पर्वत गिरे धरा पर ॥ अङ्ग - अङ्ग पर थका वीर का, जीवन - स्वर का ताल आ गया । तर-तर चला पसीना तन से, गोरा का भी काल आ गया ॥ हँफर - हँफर वह हाँफ रहा था गरम रक्त बह रहा व्रणों से । उसके नीचे की जमीन भी भींग रही थी स्वेद-कणों से ॥ वीर साँस लेने को ठहरा, साँसों से संसार भर गया । तब तक अहि के सदृश किसी का बाण कलेजा पार कर गया ॥ मूर्च्छित होकर गिरा धरा पर, कोलाहल करते अरि धाये । मूक चेतना -हीन वीर पर सबने सब हथियार चलाये ॥ एक साथ ही गिरीं कटारें, एक साथ सौ-सौ तलवारें । रक्त-कलित गोरा के तन पर बरछों की अगणित फुफकारें ॥ पहले चोटी काट दी गई, लोथों से भू पाट दी गई। निर्दयता से प्राणहीन की बोटी- बोटी काट दी गई ॥ निकली बोटी - बोटी से ध्वनि मिटो जवानो, सती-मान पर । वीर, मर मिटो आन-बान पर, वीर, मर मिटो स्वाभिमान पर ॥ अजर अमर है गोरा मरकर, बसा हुआ जग के प्राणों में । उसकी कथा कही जाती अब तक गढ़ के पाषाणों में ॥ पथिक, रुधिर से लथपथ बादल, गोरा की विधवा से बोला-- चाची, चाचा के सङ्गर के भय से खिलजी का दल डोला ॥ शीश खेत की तरह काटकर अपना असि - जौहर दिखलाया । शव-शय्या पर स्वयं सो गये, नहीं जागते बहुत जगाया ॥ चाचा ने रुख जिधर किया, शिर काट - काटकर ढेर लगाया । मुरदों में छिप मौन हो गये नहीं बोलते बहुत बुलाया ॥ यह कहकर बालक बादल की आँखों में भर आया पानी । देख बाल की बिकल वेदना बोल उठी गोरा की रानी ॥ लाल, न तुम क्षण भर भी रोना रोने से मैं तर न सकूँगी ॥ प्रियतम के उन्मुक्त पदों को पावक - पथ से धर न सकूँगी ॥ एकाकी ही स्वर्गपुरी में नाथ प्रतीक्षा करते होंगे । अपनी रानी से मिलने की क्षण-क्षण इच्छा करते होंगे ॥ इससे अभी चिता के पथ से मैं जाऊँगी, चिता सजाओ । उठो, फूल शव पर बरसाओ, गीत विदा के मिल-मिल गाओ ॥ वासन्ती सन्ध्या ने सब पर, अपनी काली चादर डाली । खुलीं गगन की अगणित आँखें विल्प रही पर कोयल काली ॥ तम - परदों के भीतर खोते, खोतों में थी मौन उदासी । दक्ष-यज्ञ के हवन - कुण्ड में कूद पड़ी यह कौन उमा - सी ॥ उस नीरव निस्तब्ध निशा में, गढ़ पर एक चिता बलती थी । गोरा की प्यारी को लेकर धधक - धधक ज्वाला जलती थी ॥ चारों ओर चिता के बैठे, राजपूत-परिजन-सेनानी । विरह-ताप उर में जलता था, आँखों से चलता था पानी ॥ कहते ही उन दोनों की आँखों में आँसू आये । दोनों ने सिसक-सिसककर, तन पर मोती बरसाये ॥ अरि चला गया, पर उसकी रानी पर आँख गड़ी थी। इस कारण एक बरस तक, रानी को व्यथा बड़ी थी ॥ दोनों के रो लेने पर, आख्यान चला रानी का । जड़-चेतन सभी दृगों से निकला प्रवाह पानी का ॥ मातृ-मन्दिर, सारंग, काशी । वसन्तपञ्चमी १९९८

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