जौहर : श्यामनारायण पाण्डेय

Jauhar : Shyam Narayan Pandey


नवीं चिनगारी : मुक्ति

एक पहर दिन बीत गया था, रवि की प्रखर ज्योति निखरी थी । वन-तरु-तरु के पल्लव-दल पर, जल पर, भूतल पर बिखरी थी ॥ खिलजी - भय से भीत बटोही अचल - पथों में घूम रहे थे । बाँध मुरेठे चरवाहे सब विरहा गा गा झूम रहे थे ॥ गाय, बकरियाँ, बकरे, भैंसे, भैंस चर रही थीं झाड़ों में । शेर, तेंदुए, बाघ, रीछ सब विचर रहे थे झंखाड़ों में ॥ धूल धूसरित काले तन पर, जल पीने के चिह्न व्यक्त थे कर में धनुष, तीर, तरकस में लिये क्रोध से भील रक्त थे ॥ लकड़ी, कंडे, साग-पात ले देहाती नगरों में आये । लाद लादकर लदुओं पर, कुछ सौदागर गलियों में छाये ॥ सौदा दे दे ठगते जाते, गाहक का धन हरते बनिये । और सती के बारे में इङ्गित कर बातें करते बनिये ॥ गाँवों में बेकार, जिन्हें कुछ आज खेत पर काम नहीं था । उन्हें पद्मिनी की चिन्ता से, रंचमात्र आराम नहीं था ॥ खेतों की मेड़ों पर बैठे, पाँच सात मिल खलिहानों में । बातचीत करते किसान थे, साँय - साँय फुस-फुस कानों में ॥ इधर उधर मिल मिल कहते थे, जाने क्या होनेवाला है । आज दुर्ग - चित्तौड़ पद्मिनी रानी को खोनेवाला है ॥ उधर डोलियों के आने से पागल अरि करता नर्तन था । उसका दुख था दूर हो गया, मुखमुद्रा में परिवर्तन था ॥ मणिमय, झालरदार, मनोहर हीरक-ताज शीश पर जगमग । सोने के तारों की अचकन, दमक रहे दमदम जिसके नग ॥ पन्ना- कलित अँगूठी पहनी, कामदार नव जूते पहने । बने पहनते उससे जितने उसने उतने पहने गहने ॥ बार बार पानी से धो धो, मुख पर सुरभित तेल लगाये । पहन गले में मुक्ता माला, तन में इतर-फुलेल लगाये ॥ सज-बजकर जब ठीक हो गया, दर्पण में अपना मुख देखा । दाढ़ी के कुछ बाल पके थे, उतरे मुँह से झुक झुक देखा ॥ कामी इतना दुखी हो गया, आँखों में भर आया पानी । अनायास ही मुख से निकला, बीती मेरी हाय जवानी ॥ मूर्च्छित हो, कुछ देर सोचकर, लगा फेंकने बाल नोचकर । पथिक, खून ही खून हो गया, सारा तन-पट तून हो गया ॥ देख अलाउद्दीन खून को किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया । बोल उठा कामी कराहकर, प्रश्न बड़ा ही गूढ़ हो गया ॥ पर तत्क्षण बिस्तर के नीचे देखी नव खिजाब की गठरी । हिली खून से लथपथ दाढ़ी, विहस उठी पागल की ठठरी ॥ तुरत खोल गठरी दाढ़ी पर, वारंवार खिजाब लगाया। परम परिश्रम कर कामी ने वन-बकरे-सी उसे बनाया ॥ पुनः मुकुर के संमुख जाकर सुषमा देखी अपने मुख की । मलिन वदन खिल उठा हर्ष से, रही न सीमा उसके सुख की ॥ एक बार फिर तन की शोभा देखी आँखें फाड़ फाड़कर। बड़े गर्व के साथ निहारा, अंग-अंग को झाड़ झाड़कर ॥ तभी राजकुल के दो बालक, गोरा बादल ठीक आ गये । सोता था दरबान इसलिए, कमरे में निर्भीक आ गये ॥ उन्नत शिर कर बोला बादल, रानी एक विनय करती है । रतन-मिलन की भीख माँगती, बारबार अनुनय करती है ॥ केवल एक घड़ी तक रानी रतन सिंह से बात करेगी । फिर आकर अपनी सुषमा से इन मणियों को मात करेगी ॥ अब तो रानी हाथों में है, बादशाह के ही अधीन है । राजमहल की श्री क्षण भर को बनी रतन के लिए दीन है ॥ अरि दाढ़ी पर हाथ फेरकर क्षण भर तक तो मौन रह गया । सोचा- 'उसको छीन सके वह वीर मही पर कौन रह गया ॥ रानी एक घड़ी की ही तो, इच्छा करती मिल लेने की । दे उसका दिल उसको शायद, मुझे चाह हो दिल देने की' ॥ बोला- 'तुम भी ठीक कह रहे, एक घड़ी से क्या होता है । छोड़ दिया जायेगा रावल, अरे आदमी ! क्या सोता है ।। दरवाजे पर ही मरता है, मूरख दरबानी करता है' । कहकर चाँटे चार चार लगाये, 'अपनी मनमानी करता है ? अभी जेल के दरवाजों के ताले खोल निकाल रतन को । रानी के दर्शन करने दे, अधिक न दुख में डाल रतन को ॥ रहम चाहिए करना उस पर, उसकी प्यारी छूट रही है । नहीं जानता, भाग्य- सुराही बेचारे की फूट रही है' ॥ वैरी की बातें सुनकर वे दोनों बालक हँसकर पल में । उससे ले आदेश, चले फिर बालकेसरी अपने दल में ॥ इधर डोलियाँ रखी हुई थीं, घाती मौन कहार खड़े थे । आँखों से बातें करते थे, प्रतिक्षण उनके कान खड़े थे ॥ आते देख वीर बादल को सबने कुटिल कटार निहारी । एक बार तिरछी आँखों से तलवारों की धार निहारी ॥ वीर भुजाएँ लगीं फड़कने, किन्तु न तिल भर डोल सके वे । गूँज रही थी हुंकृति मुख में, पर न रंच भी बोल सके वे ॥ उर में एक रहस्य छिपाये, अपने दल में वीर आ गये । गोरा बादल के आने से मानो सब धन गया पा गये ॥ पंजर-मुक्त केसरी के सम चला रतन कारा से तत्क्षण । देखा चारों ओर क्रोध से, भय से काँप उठे भू-रज-कण ॥ एक युवक उसको डोलों में तुरत घुमा बाहर ले आया । आँख मारकर उसने उसको तरु- झुरमुट में कुछ दिखलाया ॥ रानी को घोड़े पर देखा, रिक्त एक घोड़ा भी देखा । इङ्गित पा चढ़ गया अश्व पर, जग ने वह जोड़ा भी देखा ॥ एक एड़ मारी रावल ने, अश्व कूदकर तीर वन गया । एक एड़ रानी ने मारी, घोड़ा उड़ा समीर बन गया ॥ नहीं किसी ने उन दोनों को उन घोड़ों पर चढ़ते देखा । देख सके कुछ ही नर केवल, दूर क्षितिज पर रज की रेखा ॥ पलक भाँजते दुर्ग-शिखा पर दायें बायें खड़े हो गये । घोड़े ही पर हाथ मिलाकर, क्षण भर विह्वल बड़े हो गये ॥ एक घड़ी के बाद क्रोध से, झुंझला उठा अचानक कामी । कहा— रतन अब क्या करता है, लाल हो गया अघ-पथ गामी ॥ तुरत कमर से असि निकालकर, डेरे से बाहर निकला वह । बढ़ा वेग से उन डोलों पर, मानो बन नाहर निकला वह ॥ आते देख क्रुद्ध खिलजी को, राजपूत तैयार हो गये । वीर कहारों के हाथों में झटके से हथियार हो गये ॥ बढ़कर उठा दिया वैरीने, तुरत उहार एक डोली का । मारे डर के चीख उठा वह, गूँजा रव हर-हर बोली का ॥ भीतर देखा, तो ...हीं, काल बैठा है। ...के लिए काढ़ फण ...व्याल बैठा है ॥ ...बचा रे कोई, ...फिरा हल्ला कर । ...सरकाता घर की ...अल्ला अल्ला कर ॥ ...वीर वैरी के ...वहाँ आ गये । ...हथियारों का ...हार पा गये ॥ ...कहो आगे क्या ...में रण होगा । ...शोणित में मजित ...कण कण होगा ॥ गोरा-बादल बालसिंह के रण की कथा सुनाओ तुम । भेरी-रव में अल्ला अकबर, हर-हर शंकर गाओ तुम ॥ पथिक-वचन सुन उस विरक्त ने बुद - बुदकर माला फेरी । पावन गाथा रुकी, हो गयी सती-ध्यान में कुछ देरी ॥ एक घड़ी के बाद खुले दृग, जप का अन्त सुमेर मिला । पद्मासन का बन्ध खुला, दोनों को साहस ढेर मिला ॥ कथा हुई आरम्भ साथ ही, आँखें चमकीं दोनों की । मूछें तनीं, भुजाएँ फड़कीं, भौंहें तमकीं दोनों की ॥ पौष- अमा, १९९८

  • दसवीं चिनगारी : पुनर्युद्ध
  • आठवीं चिनगारी : डोला
  • मुख्य पृष्ठ : काव्य रचनाएँ : श्यामनारायण पाण्डेय
  • मुख्य पृष्ठ : हिन्दी कविता वेबसाइट (hindi-kavita.com)