जौहर : श्यामनारायण पाण्डेय

Jauhar : Shyam Narayan Pandey


आठवीं चिनगारी : डोला

अन्धकार दूर था, झाँक रहा सूर था। कमल डोलने लगे, कोप खोलने लगे ॥ लाल गगन हो गया, मुर्ग मगन हो गया । रात की सभा उठी, मुसकरा प्रभा उठी ॥ घूम घूमकर मधुप, चूम चूमकर मधुप । गा रहे बिहान थे, गूँज रहे गान थे । रात - तिमिर लापता, चाँद का न था पता । तुहिन-बिन्दु गत कहीं, छिप गये नखत कहीं ॥ पवन मन्द बह चला, मधु मरन्द बह चला । अधखिले खिले कुसुम, डाल पर हिले कुसुम ॥ विविध रंग-ढंग के, विविध रूप-रंग के । बोलते विहंग थे; बाल-विहग संग थे॥ भानु - कर उदित हुए, कंज खिल मुदित हुए । न्याय भी उचित हुए, कुमुद संकुचित हुए ॥ भासमान बढ़ चला, ताप - मान बढ़ चला । रजत - रश्मियाँ उतर, खेलने लगीं बिखर ॥ काँच में खिलीं कहीं, ज्योति में मिली कहीं । पंक में धँसीं कहीं, फूल में हँसीं कहीं ॥ जान गमन रात का, जान समय प्रात का, वीर सब उछल पड़े; महल से निकल पड़े॥ दिवस के विकास में, किरण के प्रकाश में, गोलियाँ दमक उठीं; बर्छियाँ चमक उठीं ॥ सात सौ सवारियाँ, तीव्रतर कटारियाँ, तेग तबर आरियाँ, चल पड़ीं दुधारियाँ ॥ मखमली उहार थे, स्यूत रतन-तार थे । सूरमे कहार थे, जो ज्वदित अँगार थे ॥ दुर्ग की तरी प्रबल, राजकेसरी प्रबल, जयति बोलने लगे; श्रृंग डोलने लगे ॥ जयति जय - निनाद से, जयति जयति-नाद से, गूँजने नगर लगा; एक एक घर लगा ॥ जय उमे, गणेश जय, रुद्र हर महेश जय । जय निशुम्भमर्दनी, जय महिषविमर्दनी ॥ जय असुर - विदारिणी, जय त्रिशूलधारिणी । देवि । पथ प्रशस्त कर, शत्रु-व्यूह त्रस्त कर ॥ मा, न तनिक देर कर, आज तू अहेर कर । गरज गरज हेरकर, अहित मार घेरकर ॥ जयति-जयति बोलकर, बाहु - शक्ति तोलकर, हाँ, कहार चल पड़े; वीर-उर उछल पड़े ॥ वीर बहू बन चले, कुन्त कर वहन चले । राजपूत जन चले, काल - दूत तन चले ॥ मत्त सिंह-दल चला, हाँ, अकूत बल चला । साथ चलीं डोलियाँ, गूँज उठीं बोलियाँ ॥ दुर्ग का महारथी, समर - शूर सारथी, बोल उठा ताव से, राजसी प्रभाव से- तुम अजर, बढ़े चलो, तुम अमर, बढ़े चलो । तुम निडर, बढ़े चलो, आन पर चढ़े चलो ॥ काँप रहा हाड़ हो, घोर विपिन झाड़ हो । सामने पहाड़ हो, सिंह की दहाड़ हो ॥ शेषनाग हो अड़ा, क्यों न काल हो खड़ा । पड़ रहे तुषार हों, झड़ रहे अंगार हों ॥ पर न तुम रुको कभी, पर न तुम झुको कभी । नाग पर चले चलो, आग पर चले चलो ॥ तुम अजर, बढ़े चलो, तुम अमर, बढ़े चलो । तुम निडर, बढ़े चलो, आन पर चढ़े चलो ॥ वेश की शपथ तुम्हें, देश की शपथ तुम्हें । मददगार राम है, लौटना हराम है । एक गति बनी रहे एक मति बनी रहे । जोश भी न कम रहे, बाढ़ पर कदम रहे ॥ क्यों न चलें गोलियाँ, पर न रुके डोलियाँ । घूमते हुए चलो, झूमते हुए चलो ॥ तुम अजर, बढ़े चलो, तुम अमर, बढ़े चलो । तुम निडर, बढ़े चलो, आन पर चढ़े चलो ॥ कौन कह रहा निबल, कौन कह रहा कि टल । झाड़ दो उसे अभी, गाड़ दो उसे अभी ॥ लक्ष्य तो महान है, एक इम्तहान है । पर न रंच भय करो, राह रक्तमय करो ॥ विघ्न ठेलते चलो, हाँ, ढकेलते चलो । मस्त रेलते चलो, खेल खेलते चलो ॥ तुम अजर, बढ़े चलो, तुम अमर, बढ़े चलो । तुम निडर, बढ़े चलो, आन पर चढ़े चलो ॥ राजसद्मिनी न है, आह, पद्मिनी न है । एक देवता कहो, स्वर्ग का पता कहो । कौन चाहता उसे, कौन डाहता उसे । दो उसे दुरा अभी, भोंक दो छुरा अभी ॥ यही आन बान है, राजपूत - शान है । लक्ष्य जानकर चलो, वक्ष तानकर चलो ॥ तुम अजर, बढ़े चलो, तुम अमर, बढ़े चलो । तुम निडर, बढ़े चलो, आन पर चढ़े चलो ॥ आसमान फट चले, मेदिनी उलट चले । आग की लपट चले, अंग अंग कट चले ॥ गर त्रिकूटधर गिरे, सूर छूटकर गिरे । चाँद फूटकर गिरे। व्योम टूटकर गिरे ॥ पर न एक दम रुको, पर न एक दम झुको । चाह पर चले चलो, राह पर चले चलो ॥ तुम अजर, बढ़े चलो, तुम अमर, बढ़े चलो । तुम निडर, बढ़े चलो, आन पर चढ़े चलो ॥ मेघ गरजता रहे, पवन तरजता रहे । समय बरजता रहे, अन्त का पता रहे ॥ त्रिपुर-सुर विरुद्ध हो, दिग्दिगन्त क्रुद्ध हो । भूलकर न भय करो, युद्ध में विजय करो॥ प्रश्न है जटिल महा, शत्रु है कुटिल महा । आन बान पर चलो, खेल जान पर चलो ॥ तुम अजर, बढ़े चलो, तुम अमर, बढ़े चलो । तुम निडर, बढ़े चलो, आन पर चढ़े चलो ॥ अब न शत्रु दूर है, जो कि महाक्रूर है । अब न बोलते चलो, विष न घोलते चलो ॥ भूत से शिविर खड़े, अरि-समूह - शिर खड़े । तेग तबर लो छिपा, रंग - जबर लो छिपा ॥ क्षण दुधार मन्द हों, हाँ, उहार बन्द हों । ध्वनि न अनारी उठे, नाद कहारी उठे ॥ दुर्ग से उतर गये, एक सिन्धु तर गये । अरि - शिविर समीप है, सामने महीप है ॥ मौन वीर हो गये, मौन धीर हो गये । पर समीर हो गये, तुरत तीर हो गये ॥ एक ही निदेश सें, एक ही निमेष में । बोलियाँ सकुच गयीं, डोलियाँ पहुँच गयीं ॥ सात सौ सवारियाँ, हैं सभी कुमारियाँ । सुन नवीन नारियाँ, हो गये मगन मियाँ ॥ अरि अधीर हो उठा, व्यस्त चीर हो उठा । वह कुलाँचने लगा, मस्त नावने लगा ॥ मौलवी कहाँ गया, वह नबी कहाँ गया । देर क्यों निकाह में, पद्मिनी - विवाह में ॥ राज आज ही मिला, ताज आज ही मिला । आज त्राण पा गया, आज प्राण पा गया ॥ काजी बुलवाया गया वहाँ, हाजी बुलवाया गया वहाँ । जल्दी से ब्याह रचाने को गाजी बुलवाया गया वहाँ ॥ हँसा पथिक, हँस पड़ा पुजारी, हँसी हँसी में हास बढ़ गया । पथिक पुजारी के विनोद में खिलजी का इतिहास बढ़ गया ॥ अरि खिजाब की, रतन-मुक्ति को गाथा से प्लावित कर वाणी । डोली - भीतर की दुलहिन की, अट्टहास कर कही कहानी ॥ हँस हँस सुनता पथिक विनोदी, मगन पुजारी की बातों को । गोरा - बादल के कौशल को, वार कहारों को घातों को ॥ मातृ मन्दिर, सारंग, काशी। सौम्यसिताष्टमी, १९९८

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