ज़मीन पक रही है : केदारनाथ सिंह

Zameen Pak Rahi Hai : Kedarnath Singh


सूर्य

वह रोटी में नमक की तरह प्रवेश करता है ताखे पर रखी हुई रात की रोटी उसके आने की ख़ुशी में ज़रा-सा उछलती है और एक भूखे आदमी की नींद में गिर पड़ती है एक बच्चा जगता है और घने कोहरे में पिता की चाय के लिए दूध ख़रीदने नुक्कड़ की दुकान तक अकेला चला जाता है एक पतीली गर्म होने लगती है एक चेहरा लाल होना शुरू होता है एक ख़ूँख़ार चमक तंबाकू के खेतों से उठती है और आदमी के ख़ून में टहलने लगती है मेरा ख़याल है वह आसमान से नहीं किसी जानवर की माँद से निकलता है और एक लंबी छलाँग के बाद किसी गंजे तथा मुस्टंड आदमी के भविष्य में ग़ायब हो जाता है अकेला और शानदार वह आदमी के सिर उठाने की यातना है आदमी का बुख़ार आदमी की कुल्हाड़ी जिसे वह कंधे पर रखता है और जंगल की ओर चल देता है मेरी बस्ती के लोगों की दुनिया में वह अकेली चीज़ है जिस पर भरोसा किया जा सकता है सिर्फ़ उस पर रोटी नहीं सेंकी जा सकती!

दुश्मन

इक्कीसवें दिन जबकि मौसम साफ़ था और मेरी दाढ़ी बढ़ी हुई मैंने सूरज की ओर देखा और सिर हिलाया क्योंकि यही एक काम था जो उस समय किया जा सकता था एक आदमी शहर के दूसरे छोर पर मेरा इंतज़ार कर रहा था एक साइकिल धूप में खड़ी थी जो साइकिल से ज़्यादा एक चुनौती थी मेरे फेफड़ों के लिए और मेरी भाषा के पूरे वाक्य-विन्यास के लिए मुझे आदमी का चीख़ना चमत्कार की तरह लगता है मैंने अपने समय के सबसे मजबूत आदमी को अँधेरे से कूदकर एक माचिस के अंदर जाते हुए देखा है मेरी मुश्किल यह है मैं चीज़ों को जानता हूँ जानना चीज़ों के ख़िलाफ़ आदमी की मांसपेशियों का लगातार हमला है जिसके लिए हर बार एक नए मोर्चे की तलाश करनी पड़ती है दुश्मन कहीं दिखाई नहीं पड़ता रेडियो उसके नाम का ज़िक्र कभी नहीं करता नमक और पानी सिर्फ़ दो शब्द मेरे पास है तीसरा हमेशा उसके पास रहता है पर कितना अजीब है कि सारी सुविधाओं के बावजूद इस समय टेलीफ़ोन के किसी भी नंबर पर उससे संपर्क नहीं किया जा सकता!

रोटी

उसके बारे में कविता करना हिमाक़त की बात होगी और वह मैं नहीं करूँगा मैं सिर्फ़ आपको आमंत्रित करूँगा कि आप आएँ और मेरे साथ सीधे उस आग तक चलें उस चूल्हे तक—जहाँ वह पक रही है एक अद्भुत ताप और गरिमा के साथ समूची आग को गंध में बदलती हुई दुनिया की सबसे आश्चर्यजनक चीज़ वह पक रही है और पकना लौटना नहीं है जड़ों की ओर वह आगे बढ़ रही है धीरे-धीरे झपट्टा मारने को तैयार वह आगे बढ़ रही है उसकी गरमाहट पहुँच रही है आदमी की नींद और विचारों तक मुझे विश्वास है आप उसका सामना कर रहे हैं मैंने उसका शिकार किया है मुझे हर बार ऐसा ही लगता है जब मैं उसे आग से निकलते हुए देखता हूँ मेरे हाथ खोजने लगते हैं अपने तीर और धनुष मेरे हाथ मुझी को खोजने लगते हैं जब मैं उसे खाना शुरू करता हूँ मैंने जब भी उसे तोड़ा है मुझे हर बार वह पहले से ज़्यादा स्वादिष्ट लगी है पहले से ज़्यादा गोल और ख़ूबसूरत पहले से ज़्यादा सुर्ख़ और पकी हुई आप विश्वास करें मैं कविता नहीं कर रहा सिर्फ़ आग की ओर इशारा कर रहा हूँ वह पक रही है और आप देखेंगे—यह भूख के बारे में आग का बयान है जो दीवारों पर लिखा जा रहा है आप देखेंगे दीवारें धीरे-धीरे स्वाद में बदल रही हैं।

जब वर्षा शुरू होती है

जब वर्षा शुरू होती है कबूतर उड़ना बन्द कर देते हैं गली कुछ दूर तक भागती हुई जाती है और फिर लौट आती है मवेशी भूल जाते हैं चरने की दिशा और सिर्फ रक्षा करते हैं उस धीमी गुनगुनाहट की जो पत्तियों से गिरती है सिप् सिप् सिप् सिप् जब वर्षा शुरू होती है एक बहुत पुरानी सी खनिज गन्ध सार्वजनिक भवनों से निकलती है और सारे शहर में छा जाती है जब वर्षा शुरू होती है तब कहीं कुछ नहीं होता सिवा वर्षा के आदमी और पेड़ जहाँ पर खड़े थे वहीं खड़े रहते हैं सिर्फ पृथ्वी घूम जाती है उस आशय की ओर जिधर पानी के गिरने की क्रिया का रुख होता है ।

दिशा

हिमालय किधर है? मैंने उस बच्‍चे से पूछा जो स्‍कूल के बाहर पतंग उड़ा रहा था उधर-उधर-उसने कहाँ जिधर उसकी पतंग भागी जा रही थी मैं स्‍वीकार करूँ मैंने पहली बार जाना हिमालय किधर है?

बढ़ई और चिड़िया

वह लकड़ी चीर रहा था कई रातों तक जंगल की नमी में रहने के बाद उसने फैसला किया था और वह चीर रहा था उसकी आरी कई बार लकड़ी की नींद और जड़ों में भटक जाती थी कई बार एक चिड़िया के खोंते से टकरा जाती थी उसकी आरी उसे लकड़ी में गिलहरी के पूँछ की हरकत महसूस हो रही थी एक गुर्राहट थी एक बाघिन के बच्चे सो रहे थे लकड़ी के अंदर एक चिड़िया का दाना गायब हो गया था उसकी आरी हर बार चिड़िया के दाने को लकड़ी के कटते हुए रेशों से खींच कर बाहर लाती थी और दाना हर बार उसके दाँतों से छूट कर गायब हो जाता था वह चीर रहा था और दुनियाँ दोनों तरफ़ चिरे हुए पटरों की तरह गिरती जा रही थी दाना बाहर नहीं था इस लिये लकड़ी के अंदर ज़रूर कहीं होगा यह चिड़िया का ख़्याल था वह चीर रहा था और चिड़िया खुद लकड़ी के अंदर कहीं थी और चीख रही थी।

फ़र्क़ नहीं पड़ता

हर बार लौटकर जब अंदर प्रवेश करता हूँ मेरा घर चौंककर कहता है ‘बधाई’ ईश्वर यह कैसा चमत्कार है मैं कहीं भी जाऊँ फिर लौट आता हूँ सड़कों पर परिचय-पत्र माँगा नहीं जाता न शीशे में सबूत की ज़रूरत होती है और कितनी सुविधा है कि हम घर में हों या ट्रेन में हर जिज्ञासा एक रेलवे टाइम टेबुल से शांत हो जाती है आसमान मुझे हर मोड़ पर थोड़ा-सा लपेटकर बाक़ी छोड़ देता है अगला क़दम उठाने या बैठ जाने के लिए और यह जगह है जहाँ पहुँचकर पत्थरों की चीख़ साफ़ सुनी जा सकती है पर सच तो यह है कि यहाँ या कहीं भी फ़र्क़ नहीं पड़ता तुमने जहाँ लिखा है ‘प्यार’ वहाँ लिख दो ‘सड़क’ फ़र्क़ नहीं पड़ता मेरे युग का मुहाविरा है फ़र्क़ नहीं पड़ता अक्सर महूसूस होता है कि बग़ल में बैठे हुए दोस्तों के चेहरे और अफ़्रीका की धुँधली नदियों के छोर एक हो गए हैं और भाषा जो मैं बोलना चाहता हूँ मेरी जिह्वा पर नहीं बल्कि दाँतों के बीच की जगहों में सटी है मैं बहस शुरू तो करूँ पर चीज़ें एक ऐसे दौर से गुज़र रही हैं कि सामने की मेज़ को सीधे मेज़ कहना उसे वहाँ से उठाकर अज्ञात अपराधियों के बीच में रख देना है और यह समय है जब रक्त की शिराएँ शरीर से कटकर अलग हो जाती हैं और यह समय है जब मेरे जूते के अंदर की एक नन्हीं-सी कील तारों को गड़ने लगती है।

जाड़ों के शुरू में आलू

वह ज़मीन से निकलता है और सीधे बाज़ार में चला आता है यह उसकी एक ऐसी क्षमता है जो मुझे अक्सर दहशत से भर देती है वह आता है और बाज़ार में भरने लगती है एक अजीब सी धूम अजीब सी अफ़वाहें मैं देर तक उसके चारों ओर घूमता हूँ और अन्त में उसके सामने खड़ा हो जाता हूँ मैं छूता हूँ किले की तरह ठोस उसकी दीवारें मैं उसका छिलका उठाता हूँ और झाँककर पूछता हूँ — मेरा घर मेरा घर कहाँ है ! वह बाज़ार में ले आता है आग और बाज़ार जब सुलगने लगता है वह बोरों के अन्दर उछलना शुरू करता है हर चाकू पर गिरने के लिए तत्पर हर नमक में घुलने के लिए तैयार जहाँ बहुत सी चीज़ें लगातार टूट रही हैं वह हर बार आता है और पिछले मौसम के स्वाद से जुड़ जाता है ।

मुक्ति

मुक्ति का जब कोई रास्ता नहीं मिला मैं लिखने बैठ गया हूँ मैं लिखना चाहता हूँ 'पेड़' यह जानते हुए कि लिखना पेड़ हो जाना है मैं लिखना चाहता हूँ 'पानी' 'आदमी' 'आदमी' – मैं लिखना चाहता हूँ एक बच्चे का हाथ एक स्त्री का चेहरा मैं पूरी ताकत के साथ शब्दों को फेंकना चाहता हूँ आदमी की तरफ यह जानते हुए कि आदमी का कुछ नहीं होगा मैं भरी सड़क पर सुनना चाहता हूँ वह धमाका जो शब्द और आदमी की टक्कर से पैदा होता है यह जानते हुए कि लिखने से कुछ नहीं होगा मैं लिखना चाहता हूँ।

बारिश

वह अचानक शुरू हुई बकरियाँ उसके लिए बिल्कुल तैयार नहीं थीं वे देर तक—चीखती-चिल्लाती रहीं मगर पानी पूरी ताक़त के साथ गटर और उसके गोश्त में उतरता जा रहा था उनके थन भींगकर भारी हो गए थे यह सींझने की तैयारी थी एक तेज़ और लंबी जिरह की शुरुआत जिसमें खजूर के पत्ते तक हिस्सा ले रहे थे जिरह के बीचोंबीच एक गधा खड़ा था खड़ा था और भीग रहा था पानी उसकी पीठ और गर्दन की तलाशी ले रहा था उसके पास छाता नहीं था सिर्फ़ जबड़े थे जो पूरी ताक़त के साथ बारिश और सारी दुनिया के ख़िलाफ़ बंद कर लिए गए थे यह सामना करने का एक ठोस और कारगर तरीक़ा था जो मुझे अच्छा लगा बौछारें तेज़ होती जा रही थीं पहली बार लगा कोई किसी को पीट रहा है जैसे अँधेरे में दरवाज़े पीटे जाते हैं जो पिट रहा था उसे देखना मुश्किल था सिर्फ़ उसकी पीठ से ख़ून गिर रहा था सिर्फ़ उसके जूते सड़क पर पड़े थे और बारिश पूरी मुस्तैदी के साथ उनकी निगरानी कर रही थी जूते बारिश में भीगकर एक अजब ढंग से ख़ूबसूरत लग रहे थे गधा अब भी उसी तरह खड़ा था सिर्फ़ उसके जबड़े कुछ और सख़्त हो गए थे कुछ और मोटे कुछ और बेडौल गधा इतना भीग चुका था कि अब वह उस पूरे दृश्य के नायक की तरह लग रहा था।

हाथ

उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा दुनिया को हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए

जाना

मैं जा रही हूँ – उसने कहा जाओ – मैंने उत्तर दिया यह जानते हुए कि जाना हिंदी की सबसे खौफनाक क्रिया है

गर्मी में सूखते हुए कपड़े

कपड़े सूख रहे हैं हज़ारों-हज़ार मेरे या न जाने किस के कपड़े रस्सियों पर टँगे हैं और सूख रहे हैं मैं पिछले कई दिनों से शहर में कपड़ों का सूखना देख रहा हूँ मैं देख रहा हूँ हवा को वह पिछले कई दिनों से कपड़े सुखा रही है उन्हें फिर से धागों और कपास में बदलती हुई कपड़ों को धुन रही है हवा कपड़े फिर से बुने जा रहे हैं फिर से काटे और सिले जा रहे हैं कपड़े आदमी के हाथ और घुटनों के बराबर मैं देख रहा हूँ धूप देर से लोहा गरमा रही है हाथ और घुटनों को बराबर करने के लिए कपड़े सूख रहे हैं और सुबह से धीरे-धीरे गर्म हो रहा है लोहा। (1976)

माँझी का पुल

मैंने पहली बार स्कूल से लौटते हुए उसकी लाल-लाल ऊँची मेहराबें देखी थीं यह सर्दियों के शुरू के दिन थे जब पूरब के आसमान में सारसों के झुंड की तरह डैने पसारे हुए धीरे-धीरे उड़ता है माँझी का पुल वह कब बना था कोई नहीं जानता किसने बनाया था माँझी का पुल यह सवाल मेरी बस्ती के लोगों को अब भी परेशान करता है ‘तुम्हारे जन्म से पहले’ — कहती थीं दादी ‘जब दिन में रात हुई थी उससे भी पहले’— कहता है गाँव का बूढ़ा चौकीदार क्या यह सच नहीं है कि एक सुबह इसी तरह किनारे की रेती पर पड़ा हुआ मिला था माँझी का पुल बंसी मल्लाह की आँखें पूछती हैं! लाल मोहर हल चलाता है और ऐन उसी वक़्त जब उसे खैनी का ज़रूरत महसूस होती है बैलों के सींगों के बीच से दिख जाता है माँझी का पुल झपसी की मेड़ें— उसने बारहा देखा है— जब चरते-चरते थक जाती हैं तो मुँह उठाकर उस तरफ़ देखने लगती हैं जिधर माँझी का पुल है माँझी के पुल में कितने पाए हैं? उन्नीस—कहता है जगदीश बीस—रतन हज्जाम का ख़याल है कई बार यह संख्या तेईस या चौबीस तक चली जाती है क्या दिन के पाये रात में कम हो जाते है? क्या, सुबह-सुबह बढ़ जाते हैं माँझी के पुल के पाए? माँझी के पुल में कितनी ईंटें है? कितने अरब बालू के कण? कितने खच्चर कितनी बैलगाड़ियाँ कितनी आँखें कितने हाथ चुन दिए गए हैं माँझी के पुल में मेरी बस्ती के लोगों के पास कोई हिसाब नहीं है सचाई यह है मेरी बस्ती के लोग सिर्फ़ इतना जानते हैं दुपहर की धूप में जब किसी के पास कोई काम नहीं होता तो पके हुए ज्वार के खेत की तरह लगता है माँझी का पुल मगर पुल क्या होता है? आदमी को अपनी तरफ़ क्यों खींचता है पुल? ऐसा क्यों होता है कि रात की आख़िरी गाड़ी जब माँझी के पुल की पटरियों पर चढ़ती है तो अपनी गहरी नींद में भी मेरी बस्ती का हर आदमी हिलने लगता है? एक गहरी बेचैनी के बाद मैंने कई बार सोचा है माँझी के पुल में कहाँ है माँझी? कहाँ है उसकी नाव? क्या तुम ठीक उसी जगह उँगली रख सकते हो जहाँ हर पुल में छिपी रहती है एक नाव? मछलियाँ अपनी भाषा में क्या कहती हैं पुल को? सूंस और घड़ियाल क्या सोचते हैं? कछुओं को कैसा लगता है पुल जब वे दुपहर बाद की रेती पर अपनी पीठ फैलाकर उसकी मेहराबें सेंकते हैं? मैं जानता हूँ मेरी बस्ती के लोगों के लिए यह कितना बड़ा आश्वासन है कि वहाँ पूरब के आसमान में हर आदमी के बचपन के बहुत पहले से चुपचाप टँगा है माँझी का पुल मैं सोचता हूँ और सोचकर काँपने लगता हूँ उन्हें कैसा लगेगा अगर एक दिन अचानक पता चला वहाँ नहीं है माँझी का पुल! मैं ख़ुद से पूछता हूँ कौन बड़ा है वह जो नदी पर खड़ा है माँझी का पुल या वह जो टँगा है लोगों के अंदर? माँझी : उतर प्रदेश और बिहार की सीमा पर स्थित एक गाँव, जहाँ घाघरा नदी पर रेलवे का पुराना पुल है।

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