यहाँ से देखो : केदारनाथ सिंह

Yahan Se Dekho : Kedarnath Singh


कविता क्या है

हाथ की तरफ उठा हुआ हाथ देह की तरफ झुकी हुई आत्मा मृत्यु की तरफ़ घूरती हुई आँखें क्या है कविता कोई हमला हमले के बाद पैरों को खोजते लहूलुहान जूते नायक की चुप्पी विदूषक की चीख़ बालों के गिरने पर नाई की चिन्ता एक पत्ता टूटने पर राष्ट्र का शोक आख़िर क्या है क्या है कविता ? मैंने जब भी सोचा मुझे रामचन्द्र शुक्ल की मूछें याद आयीं मूंछों में दबी बारीक-सी हँसी हँसी के पीछे कविता का राज़ कविता के राज पर हँसती हुई मूँछें !

एक ठेठ देहाती कार्यकर्ता के प्रति

वक़्त-बेवक्त वह साइकिल दनदनाता हुआ चला आता है कई बार मैं झुँझला उठता हूँ उसके इस, तरह आने पर उसके सवालों और उसके तम्बाकू पर तिलमिला उठता हूँ मैं मैं बेहद परेशान हो जाता हूँ उसकी ग़लत-सलत भाषा उसके शब्दों से गिरती धूल और उसके उन बालों पर जो उसके माथे से पूरी तरह उड़ गये हैं। कई बार उसकी भूकम्प-सी चुप्पी मुझे अस्तव्यस्त कर देती है उसकी साइकिल में हवा हमेशा कम होती है हमेशा उसकी बग़ल में होता है एक और कोई चेहरा जिस थाने पर बुलाया गया है मुझे थाने से चिढ़ है मैं थाने की धज्जियाँ उड़ाता हूं मैं उस तरफ़ इशारा करता हूँ जिधर थाना नहीं है जिधर पुलिस कभी नहीं जाती मैं उस तरफ़ इशारा करता हूँ वह धीरे से हँसता है और मेरी मेज़ हिलने लगती है मेरी मेज़ पर रखी किताबें हिलने लगती हैं मेरे सारे शब्द और अक्षर हिलने लगते हैं मैं उसे रोकता नहीं न कहता हूं कल परसों दोपहर शाम वह उठता है और दरवाज़ो को ठेलकर चला जाता है बाहर मेरी उम्मीद उसका पीछा नहीं करती सिर्फ़ कुछ देर तक चील की तरह हवा में मँडराती है और झपट्टा मारकर ठीक उसी जगह बैठ जाती है जहाँ से वह चला गया था

टूटा हुआ ट्रक

मैं पिछली बरसात से उसे देख रहा हूँ वह वहाँ उसी तरह खड़ा है टूटा हुआ और हैरान और अब उससे अँखुए फूट रहे हैं मैं देख रहा हूँ एक छोटी-सी लतर स्टीयरिंग की ओर बढ़ी जा रही है एक ज़रा-सी पत्ती भोंपू के पास झुकी है जैसे उसे बजाना चाहती हो एक बहुत महीन और बेआवाज़-सी ठोंक-पीट लगातार जारी है समूचे ट्रक में कोई नट खोला जा रहा है कोई तार कसा जा रहा है टूटा हुआ ट्रक पूरी तरह सौंप दिया गया है घास के हाथों में और घास परेशान है पहिये बदलने के लिए मेरे लिए यह सोचना कितना सुखद है कि कल सुबह तक सब ठीक हो जाएगा मैं उठूँगा और अचानक सुनूँगा भोंपू की आवाज़ और घरघराता हुआ ट्रक चल देगा तिनसुकिया या बोकाजान... शाम हो रही है टूटा हुआ ट्रक उसी तरह खड़ा है और मुझे घूर रहा है मैं सोचता हूँ अगर इस समय वो वहाँ न होता तो मेरे लिए कितना मुश्किल था पहचानना कि यह मेरा शहर है और ये मेरे लोग और वो वो मेरा घर!

पानी में घिरे हुए लोग

पानी में घिरे हुए लोग प्रार्थना नहीं करते वे पूरे विश्वास से देखते हैं पानी को और एक दिन बिना किसी सूचना के खच्चर बैल या भैंस की पीठ पर घर-असबाब लादकर चल देते हैं कहीं और यह कितना अद्भुत है कि बाढ़ चाहे जितनी भयानक हो उन्हें पानी में थोड़ी-सी जगह ज़रूर मिल जाती है थोड़ी-सी धूप थोड़ा-सा आसमान फिर वे गाड़ देते हैं खम्भे तान देते हैं बोरे उलझा देते हैं मूंज की रस्सियां और टाट पानी में घिरे हुए लोग अपने साथ ले आते हैं पुआल की गंध वे ले आते हैं आम की गुठलियां खाली टिन भुने हुए चने वे ले आते हैं चिलम और आग फिर बह जाते हैं उनके मवेशी उनकी पूजा की घंटी बह जाती है बह जाती है महावीर जी की आदमकद मूर्ति घरों की कच्ची दीवारें दीवारों पर बने हुए हाथी-घोड़े फूल-पत्ते पाट-पटोरे सब बह जाते हैं मगर पानी में घिरे हुए लोग शिकायत नहीं करते वे हर कीमत पर अपनी चिलम के छेद में कहीं न कहीं बचा रखते हैं थोड़ी-सी आग फिर डूब जाता है सूरज कहीं से आती हैं पानी पर तैरती हुई लोगों के बोलने की तेज आवाजें कहीं से उठता है धुआं पेड़ों पर मंडराता हुआ और पानी में घिरे हुए लोग हो जाते हैं बेचैन वे जला देते हैं एक टुटही लालटेन टांग देते हैं किसी ऊंचे बांस पर ताकि उनके होने की खबर पानी के पार तक पहुंचती रहे फिर उस मद्धिम रोशनी में पानी की आंखों में आंखें डाले हुए वे रात-भर खड़े रहते हैं पानी के सामने पानी की तरफ पानी के खिलाफ सिर्फ उनके अंदर अरार की तरह हर बार कुछ टूटता है हर बार पानी में कुछ गिरता है छपाक........छपाक.......

बनारस

इस शहर में वसंत अचानक आता है और जब आता है तो मैंने देखा है लहरतारा या मडुवाडीह की तरफ़ से उठता है धूल का एक बवंडर और इस महान पुराने शहर की जीभ किरकिराने लगती है जो है वह सुगबुगाता है जो नहीं है वह फेंकने लगता है पचखियाँ आदमी दशाश्‍वमेध पर जाता है और पाता है घाट का आखिरी पत्‍थर कुछ और मुलायम हो गया है सीढि़यों पर बैठे बंदरों की आँखों में एक अजीब सी नमी है और एक अजीब सी चमक से भर उठा है भिखारियों के कटरों का निचाट खालीपन तुमने कभी देखा है खाली कटोरों में वसंत का उतरना! यह शहर इसी तरह खुलता है इसी तरह भरता और खाली होता है यह शहर इसी तरह रोज़ रोज़ एक अनंत शव ले जाते हैं कंधे अँधेरी गली से चमकती हुई गंगा की तरफ़ इस शहर में धूल धीरे-धीरे उड़ती है धीरे-धीरे चलते हैं लोग धीरे-धीरे बजते हैं घनटे शाम धीरे-धीरे होती है यह धीरे-धीरे होना धीरे-धीरे होने की सामूहिक लय दृढ़ता से बाँधे है समूचे शहर को इस तरह कि कुछ भी गिरता नहीं है कि हिलता नहीं है कुछ भी कि जो चीज़ जहाँ थी वहीं पर रखी है कि गंगा वहीं है कि वहीं पर बँधी है नाँव कि वहीं पर रखी है तुलसीदास की खड़ाऊँ सैकड़ों बरस से कभी सई-साँझ बिना किसी सूचना के घुस जाओ इस शहर में कभी आरती के आलोक में इसे अचानक देखो अद्भुत है इसकी बनावट यह आधा जल में है आधा मंत्र में आधा फूल में है आधा शव में आधा नींद में है आधा शंख में अगर ध्‍यान से देखो तो यह आधा है और आधा नहीं भी है जो है वह खड़ा है बिना किसी स्‍थंभ के जो नहीं है उसे थामें है राख और रोशनी के ऊँचे ऊँचे स्‍थंभ आग के स्‍थंभ और पानी के स्‍थंभ धुऍं के खुशबू के आदमी के उठे हुए हाथों के स्‍थंभ किसी अलक्षित सूर्य को देता हुआ अर्घ्‍य शताब्दियों से इसी तरह गंगा के जल में अपनी एक टाँग पर खड़ा है यह शहर अपनी दूसरी टाँग से बिलकुल बेखबर!

बसन्त

और बसन्त फिर आ रहा है शाकुन्तल का एक पन्ना मेरी अलमारी से निकलकर हवा में फरफरा रहा है फरफरा रहा है कि मैं उठूँ और आस-पास फैली हुई चीज़ों के कानों में कह दूँ 'ना' एक दृढ़ और छोटी-सी 'ना' जो सारी आवाज़ों के विरुद्ध मेरी छाती में सुरक्षित है मैं उठता हूँ दरवाज़े तक जाता हूँ शहर को देखता हूँ हिलाता हूँ हाथ और ज़ोर से चिल्लाता हूँ – ना...ना...ना मैं हैरान हूँ मैंने कितने बरस गँवा दिये पटरी से चलते हुए और दुनिया से कहते हुए हाँ हाँ हाँ... (1964)

शहर में रात

बिजली चमकी, पानी गिरने का डर है वे क्यों भागे जाते हैं जिनके घर है वे क्यों चुप हैं जिनको आती है भाषा वह क्या है जो दिखता है धुँआ-धुआँ-सा वह क्या है हरा-हरा-सा जिसके आगे हैं उलझ गए जीने के सारे धागे यह शहर कि जिसमें रहती है इच्छाएँ कुत्ते भुनगे आदमी गिलहरी गाएँ यह शहर कि जिसकी ज़िद है सीधी-सादी ज्यादा-से-ज्यादा सुख सुविधा आज़ादी तुम कभी देखना इसे सुलगते क्षण में यह अलग-अलग दिखता है हर दर्पण में साथियों, रात आई, अब मैं जाता हूँ इस आने-जाने का वेतन पाता हूँ जब आँख लगे तो सुनना धीरे-धीरे किस तरह रात-भर बजती हैं ज़ंजीरें (1982)

झरबेर

प्रचंड धूप में इतने दिनों बाअ (कितने दिनों बाअ) मैंने ट्रेन की खिड़की से एखे कँटीली झाड़ियों पर पीले-पीले फल ’झरबेर हैं’- मैंने अपनी स्मृति को कुरेदा और कहीं गहरे एक बहुत पुराने काँटे ने फिर मुझे छेदा

जनहित का काम

वह एक अद्भुत दृश्य था मेह बरसकर खुल चुका था खेत जुतने को तैयार थे एक टूटा हुआ हल मेड़ पर पड़ा था और एक चिड़िया बार-बार बार-बार उसे अपनी चोंच से उठाने की कोशिश कर रही थी मैंने देखा और मैं लौट आया क्योंकि मुझे लगा मेरा वहाँ होना जनहित के उस काम में दखल देना होगा। (1981)

यह अग्निकिरीटी मस्तक

सब चेहरों पर सन्नाटा हर दिल में पड़ता काँटा हर घर में गीला आँटा वह क्यों होता है ? जीने की जो कोशिश है जीने में यह जो विष है साँसों में भरी कशिश है इसका क्या करिए ? कुछ लोग खेत बोते हैं कुछ चट्टानें ढोते हैं कुछ लोग सिर्फ़ होते हैं इसका क्या मतलब ? मेरा पथराया कन्धा जो है सदियों से अन्धा जो खोज चुका हर धन्धा क्यों चुप रहता है ? यह अग्निकिरीटी मस्तक जो है मेरे कन्धों पर यह ज़िन्दा भारी पत्थर इसका क्या होगा ?

सुई और तागे के बीच में

माँ मेरे अकेलेपन के बारे में सोच रही है पानी गिर नहीं रहा पर गिर सकता है किसी भी समय मुझे बाहर जाना है और माँ चुप है कि मुझे बाहर जाना है यह तय है कि मैं बाहर जाउंगा तो माँ को भूल जाउंगा जैसे मैं भूल जाऊँगा उसकी कटोरी उसका गिलास वह सफ़ेद साड़ी जिसमें काली किनारी है मैं एकदम भूल जाऊँगा जिसे इस समूची दुनिया में माँ और सिर्फ मेरी माँ पहनती है उसके बाद सर्दियाँ आ जायेंगी और मैंने देखा है कि सर्दियाँ जब भी आती हैं तो माँ थोड़ा और झुक जाती है अपनी परछाई की तरफ उन के बारे में उसके विचार बहुत सख़्त है मृत्यु के बारे में बेहद कोमल पक्षियों के बारे में वह कभी कुछ नहीं कहती हालाँकि नींद में वह खुद एक पक्षी की तरह लगती है जब वह बहुत ज्यादा थक जाती है तो उठा लेती है सुई और तागा मैंने देखा है कि जब सब सो जाते हैं तो सुई चलाने वाले उसके हाथ देर रात तक समय को धीरे-धीरे सिलते हैं जैसे वह मेरा फ़टा हुआ कुर्ता हो पिछले साठ बरसों से एक सुई और तागे के बीच दबी हुई है माँ हालाँकि वह खुद एक करघा है जिस पर साठ बरस बुने गये हैं धीरे-धीरे तह पर तह खूब मोटे और गझिन और खुरदुरे साठ बरस

सन् ४७ को याद करते हुए

तुम्हें नूर मियाँ की याद है केदारनाथ सिंह? गेहुँए नूर मियाँ ठिगने नूर मियाँ रामगढ़ बाजार से सुरमा बेच कर सबसे आखिर मे लौटने वाले नूर मियाँ क्या तुम्हें कुछ भी याद है केदारनाथ सिंह? तुम्हें याद है मदरसा इमली का पेड़ इमामबाड़ा तुम्हे याद है शुरु से अखिर तक उन्नीस का पहाड़ा क्या तुम अपनी भूली हुई स्लेट पर जोड़ घटा कर यह निकाल सकते हो कि एक दिन अचानक तुम्हारी बस्ती को छोड़कर क्यों चले गए थे नूर मियाँ? क्या तुम्हें पता है इस समय वे कहाँ हैं ढाका या मुल्तान में? क्या तुम बता सकते हो? हर साल कितने पत्ते गिरते हैं पाकिस्तान में? तुम चुप क्यों हो केदारनाथ सिंह? क्या तुम्हारा गणित कमजोर है? 1982

पृथ्वी रहेगी

मुझे विश्वास है यह पृथ्वी रहेगी यदि और कहीं नहीं तो मेरी हड्डियों में यह रहेगी जैसे पेड़ के तने में रहते हैं दीमक जैसे दाने में रह लेता है घुन यह रहेगी प्रलय के बाद भी मेरे अन्दर यदि और कहीं नहीं तो मेरी ज़बान और मेरी नश्वरता में यह रहेगी और एक सुबह मैं उठूंगा मैं उठूंगा पृथ्वी-समेत जल और कच्छप-समेत मैं उठूंगा मैं उठूंगा और चल दूंगा उससे मिलने जिससे वादा है कि मिलूंगा।

पानी एक रोशनी है

इंतज़ार मत करो जो कहना हो कह डालो क्योंकि हो सकता है फिर कहने का कोई अर्थ न रह जाए सोचो जहां खड़े हो, वहीं से सोचो चाहे राख़ से ही शुरू करो मगर सोचो उस जगह की तलाश व्यर्थ है जहां पहुंचकर यह दुनिया एक पोस्ते के फूल में बदल जाती है नदी सो रही है उसे सोने दो उसके सोने से दुनिया के होने का अंदाज़ मिलता है पूछो चाहे कितनी बार पूछना पड़े चाहे पूछने में जितनी तकलीफ़ हो मगर पूछो पूछो कि गाड़ी अभी कितनी लेट है अंधेरा बज रहा है अपनी कविता की किताब रख दो एक तरफ़ और सुनो-सुनो अंधेरे में चल रहे हैं लाखों-करोड़ों पैर पानी एक रोशनी है अंधेरे में यही एक बात है जो तुम पूरे विश्वास के साथ दूसरे से कह सकते हो

उस आदमी को देखो

उस आदमी को देखो जो सड़क पार कर रहा है वह कहाँ से आ रहा है मुझे नहीं मालूम कहाँ जायेगा यह बताना कठिन है पर इतना साफ़ है वह सड़क के इस तरफ खड़ा है और उस तरफ जाना चाहता है उसका एक पाँव हवा में उठा है और दूसरा उठने का इंतजार कर रहा है जो उठा है मैं सुन रहा हूँ वह दुसरे से कह रहा है 'जल्दी करो जल्दी करो यह सड़क है' और सडक ऐसी चीज है मित्रों जो हमेशा वहीं पड़ी रहती है और चूँकि वह हमेशा वहीं पड़ी रहती है इसलिए हर आदमी को हर बार नये सिरे से पार करनी पड़ती है अपनी सड़क तो वह आदमी जो सड़क पार कर रहा है हो सकता है तीन हजार सात सौ सैंतिस्वी बार पार कर रहा हो फिर वही सड़क जिसे कल वह फिर पार करेगा और उसके अगले दिन फिर और हो सकता है अगले असंख्य वर्षों तक वह बार बार उसी को और सिर्फ़ उसीको पार करता रहे देखो देखो वह अब भी वहाँ खड़ा है उत्सुक और नाराज और मुझे यह अच्छा लग रहा है मुझे आदमी का सड़क पार करना हमेशा अच्छा लगता है क्योंकि इस तरह एक उम्मीद सी होती है की दुनिया जो इस तरफ़ है शायद उससे कुछ बेहतर हो सड़क के उस तरफ़ |

ऊँचाई

मैं वहाँ पहुँचा और डर गया मेरे शहर के लोगो यह कितना भयानक है कि शहर की सारी सीढ़ियाँ मिलकर जिस महान ऊँचाई तक जाती हैं वहाँ कोई नहीं रहता !

बुनने का समय

उठो मरे सोये हुए धागों उठो उठो कि दर्ज़ी की मशीन चलने लगी है उठो कि धोबी पहुँच गया है घाट पर उठो कि नंग-धडंग बच्चे जा रहे हैं स्कूल उठो मेरी सुबह के धागों और मेरी शाम के धागों, उठो उठो कि ताना कहीं फँस रहा है उठो कि भरनी में पड़ गयी हैं गाँठ उठो कि नावों के पाल में कुछ सूत कम पड़ रहे हैं उठो झाड़न में मोज़ों में टाट में दरियों में दबे हुए धागों उठो उठो कि कहीं कुछ गलत हो गया है उठो कि इस दुनिया का सारा कपड़ा फिर से बुनना होगा उठो मेरे टूटे हुए धागों, उठो और मेरे उलझे हुए धागों, उठो उठो की बुनने का समय हो रहा है

सुबह हो रही है, मैंने हवा से कहा

सुबह हो रही है, मैंने हवा से कहा और मैंने सुना रोशनी मेरे छज्जे पर पानी की तरह बज रही थी सुबह-सुबह मैंने एक बूढ़े आदमी को हँसते हुए देखा और मैंने कहा हँसों और जिन्दा रहो मैंने अखबार वाले से कहा अखबार ज़रूरी है पर उससे भी ज्यादा ज़रूरी है वह काली कुतिया जो वहाँ धूप में अपने तीन बच्चों को दूध पिला रही है मैंने दूध वाले से कहा दूध को बचाओ क्योंकि हो सकता है अगला महायुद्ध उसी के लिए लड़ा जाए मैंने कुम्हार से कहा चाक को नहीं अपने घड़े को देखो और देखो-देखो वह किस तरह तुम्हारे हाथ की लकीरों में ढलता जा रहा है 'नमस्कार' मैंने उस आदमी से कहा जो मेरी बग़ल से जा रहा था 'नमस्कार' उसने कहा और भीड़ में गायब हो गया इस तरह मैंने सबसे सबकुछ कहा सिर्फ नहीं कह सका उसी से वह जो मुझे कहना था सिर्फ उसी से।

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