उत्तर कबीर और अन्य कविताएँ : केदारनाथ सिंह

Uttar Kabeer Aur Anya Kavitayen : Kedarnath Singh


पोस्टकार्ड

यह खुला है इसलिए खतरनाक है खतरनाक है इसलिए सुंदर इसे कोई भी पढ़ सकता है वह भी जिसे पढ़ना नहीं सिर्फ़ छूना आता है इस पर लिखा जा सकता है कुछ भी बस, एक ही शर्त है। कि जो भी लिखा जाय पोस्टकार्ड की अपनी स्वरलिपि में लिखा जाय पोस्टकार्ड की स्वरलिपि कबूतरों की स्वरलिपि है असल में यह कबूतरों की किसी भूली हुई प्रजाति का है उससे टूटकर गिरा हुआ एक पुरातन डैना इसका रंग तुम्हारी त्वचा के रंग से बहुत मिलता है पर नहीं तुम दावा नहीं कर सकते कि जो तुम्हें अभी-अभी देकर गया है डाकिया वह तुम्हारा और सिर्फ़ तुम्हारा पोस्टकार्ड है पोस्टकार्ड का नारा है- लिखना असल में दिखना है समूची दुनिया को जिसमें अंधे भी शामिल हैं एक कोरा पोस्टकार्ड खुद एक संदेश है मेरे समय का सबसे रोमांचक संदेश।

गाँव आने पर

अब आ तो गया हूँ पर क्या करूँ मैं ? एक बूढ़े पक्षी की तरह लौट-लौटकर मैं क्यों यहाँ चला आता हूँ बार-बार ? पृथ्वी पर ऊब क्या उतनी ही पुरानी है जितनी दूब ? यह हवा मुझे घेरती क्यों है ? क्यों यहाँ चलते हुए लगता है अपनी सॉंस के अंदर के किसी गहरे भरे मैदान में चल रहा हूँ। कौन हैं ये लोग जोकि मेरे हैं ? इनके चेहरों को देखकर मुझे अपनी घड़ी की सुई ठीक क्यों करनी पड़ती है बार-बार ? जो मेरे नहीं है आख़िर वे भी तो मेरे ही हैं चाहे जहाँ भी रहते हों फिर क्यों यह ज़िद कि यही–यही सिर्फ यही मेरा घर है ? अपनी सारी गर्द और थकान के साथ अब आ तो गया हूँ पर यह कैसे साबित हो कि उनकी आँखों में मैं कोई तौलिया या सूटकेस नहीं मैं ही हूँ क्या करूँ मैं ? क्या करूँ,क्या करूँ कि लगे कि मैं इन्हीं में से हूँ इन्हीं का हूँ कि यही हैं मेरे लोग जिनका मैं दम भरता हूँ कविता में और यही यही जो मुझे कभी नहीं पढेंगे छू लूँ किसी को ? लिपट जाऊँ किसी से ? मिलूँ पर किस तरह मिलूँ कि बस मैं ही मिलूँ और दिल्ली न आये बीच में क्या है कोई उपाय कि आदमी सही-साबूत निकल जाए गली से और बिल्ली न आए बीच में?

नदियाँ

वे हमें जानती हैं। जैसे जानती हैं वे अपनी मछलियों की बेचैनी अपने तटों का तापमान जो कि हमीं हैं बस हम भूल गए हैं हमारे घर कभी उनका भी आना-जाना था उनकी नसों में बहता है पहाड़ों का खून जिसमें थोड़ा-सा खून हमारा भी शामिल है और गरम-गरम दूध टपकता हुआ भूरे दरख्तों की छाल से पता लगा लो दरख्तों की छाल और हमारी त्वचा का गोत्र एक ही है परछाइयाँ भी असल में नदियाँ ही हैं हमीं से फूटकर हमारी बग़ल में चुपचाप बहती हुई नदियाँ हर आदमी अपनी परछाई में नहाता है और लगता है नदी में नहा रहा है जो लगता है वह भी उतना ही सच है जितना कोई भी नदी पुल - पृथ्वी के सारे के सारे पुल एक गहरा षड्यंत्र हैं नदियों के ख़िलाफ़ और नदियाँ उन्हें इस तरह बर्दाश्त करती हैं जैसे कैदी जंजीरों को हालाँकि नदियाँ इसीलिए नदियाँ हैं कि वे जब भी चाहती हैं उलट-पुलट देती हैं सारा कैलेंडर और दिशाओं के नाम हमारे देश में नदियाँ जब कुछ नहीं करतीं तब वे शवों का इंतज़ार करती हैं अँधेरे को चीरते हुए आते हैं शव वे आते हैं अपनी चुप्पियों की चोट से जीने की धार को तीव्रतर करते हुए नदियाँ उन्हें देखती हैं और जैसे चली जाती हैं कहीं अपने ही अंदर किन्हीं जलमग्न शहरों की गंध की तलाश में नदियाँ जोकि असल में शहरों का आरंभ हैं और शहर जोकि असल में नदियों का अंत मुझे याद नहीं मैंने भूगोल की किस किताब में पढ़ा था अंत और आरंभ अपने विरोध की सारी ऊष्मा के साथ जिस जगह मिलते हैं कहीं वहीं से निकलती हैं सारी की सारी नदियाँ ।

कुदाल

उसे दरवाज़े पर रखकर चला गया है माली उसका वहाँ होना अटपटा लगता है मेरी आँखों को पर जाते हुए दिन की धुँधली रोशनी में उसकी वह अजब अड़बंग-सी धूलभरी धज आकर्षित करती है मुझे काम था सो हो चुका है मिट्टी थी सो खुद चुकी है जड़ों तक और अब कुदाल है कि एक चुपचाप चुनौती की तरह खड़ी है दरवाज़े पर सोचता हूँ उसे वहाँ से उठाकर ले आऊँ अंदर और रख दूँ किसी कोने में ड्राइंग रूम कैसा रहेगा- मैं सोचता हूँ न सही कुदाल एक अलंकार ही सही यदि वहाँ रह सकती है नागफनी तो कुदाल क्यों नहीं ? पर नहीं मेरे मन ने कहा कुदाल नहीं रह सकती ड्राइंग रूम में इससे घर का संतुलन बिगड़ सकता है फिर मेरा ध्यान गया रसोईघर की ओर पर वहाँ पवित्रता का जो एक ताज़ा धुला हुआ गहरा आतंक था मुझे लगा कुदाल उसके सामने बिलकुल लाचार है फिर किया क्या जाय मैंने सोचा कि तभी खयाल आया उसे क्यों न छिपा दूँ पलंग के नीचे के अँधेरे में इससे साहस थोड़ा दबेगा ज़रूर पर हवा में जो भर जाएगी एक रहस्य की गंध उससे घर की गरमाहट कुछ बढ़ेगी ही लेकिन पलंग के नीचे कुदाल ? मैं ठठाकर हँस पड़ा इस अद्भुत बिंब पर अंत में कुदाल के सामने रुककर मैंने कुछ देर सोचा कुदाल के बारे में सोचते हुए लगा उसे कंधे पर रखकर किसी अदृश्य अदालत में खड़ा हूँ मैं पृथ्वी पर कुदाल के होने की गवाही में पर सवाल अब भी वहीं था वहीं जहाँ उसे रखकर चला गया था माली मेरे लिए मेरी सदी का सबसे कठिन सवाल कि क्या हो - अब क्या हो कुदाल का क्योंकि अँधेरा बढ़ता जा रहा था और अँधेरे में धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा था कुदाल का कद और अब उसे दरवाज़े पर छोड़ना खतरनाक था सड़क पर रख देना असंभव मेरे घर में कुदाल के लिए जगह नहीं थी ।

नमक

एक शाम शहर से गुज़रते हुए नमक ने सोचा मैं क्यों हूँ नमक और जब कुछ नहीं सूझा तो वह चुपके से घुस गया एक घर में घर सुंदर था जैसा कि आम तौर पर होता है अक्तूबर के शुरू में एक चम्मच में गिरते हुए नमक ने सोचा चलो, अब सब ठीक हो जाएगा फिर ज़रा दम लेने के बाद वह उठा चूल्हे के पास तक गया और धीरे से घुल गया दाल में सब्ज़ी में और ठीक समय पर जब सज गई मेज़ और शुरू हुआ खाना तो सबसे अधिक खुश था नमक ही जैसे उसकी जीभ अपनी ही बोटी के स्वाद का इंतज़ार कर रही हो कि ठीक उसी समय पुरुष जोकि सबसे अधिक चुप था धीरे से बोला- "दाल फीकी है" "फीकी है ?" स्त्री ने आश्चर्य से पूछा "हाँ, फीकी है- मैं कहता हूँ दाल फीकी है” पुरुष ने लगभग चीखते हुए कहा अब स्त्री चुप कुत्ता हैरान बच्चे एकटक एक-दूसरे को ताकते हुए फिर सबसे पहले पुरुष उठा फिर बारी-बारी मेज़ से उठ गए सब एक नमक को छोड़कर दाल में पड़े-पड़े एक छिलके के नीचे से आँख उठाकर नमक ने देखा बच्चों की ओर बच्चे कुत्ते की ओर देख रहे थे कुत्ता देख रहा था जाती हुई स्त्री की ओर न सही दाल कुछ-न-कुछ फीका ज़रूर है सब सोच रहे थे लेकिन वह क्या है ? नमक को लगा उस समूचे घर में एक कुत्ते के अलावा इसे कोई नहीं जानता ।

पंचनामा

उस भयानक हादसे के कोई छह घंटे बाद उस गीले कछार में आ गई पुलिस भोंपू बजाती हुई उतनी देर लाशें इंतज़ार करती रहीं उतनी देर ठप्प रहा जीवन और मृत्यु का सारा काम-काज उतनी देर स्वर्ग और नरक सब प्रतीक्षा करते रहे पुलिस के आने की और जब वह आ गई तो शुरू हुई लाशों की शिनाख्त और चकित था मैं कि हर लाश को बस थोड़ी-सी पूछताछ के बाद कितनी आसानी से मिल जाता था उसका घर उसका पता एक खोई हुई माँ एक गुज़रा हुआ पिता उसे फिर से मिल जाता था कितनी आसानी से इस तरह हर लाश का मानो फिर से जन्म हो रहा था फिर से नामकरण जो लाशें अधिक भाग्यशाली थीं उन्हें तुरत-फुरत मिल गया उनका नाम उनका पता पर जो ज़रा कम भाग्यशाली थीं उन्हें पीठ के बल लेटकर लंबा इंतज़ार करना पड़ा कड़ी धूप में और जब शिनाख्त पूरी हुई तो अंत में बच गई एक अंतिम लाश जो पहचान से बिलकुल परे थी पुलिस ने आवाज़ दी "है कोई जो पहचान ले इस अंतिम लाश को ?" पुलिस की आवाज़ मानो उस अंतिम लाश को ढाढ़स बँधाती हुई देर तक टँगी रही हवा में पर उत्तर न तो पूरब से आया न पच्छिम से दक्खिन से आने का सवाल ही नहीं था अब दोष किसे दूँ पुलिस को कि लाश को ? पुलिस को तो अंत तक उम्मीद थी कि भीड़ को ठेलता हुआ अचानक कोई आएगा और कहेगा- "यह मेरी लाश है।"

दवा की तलाश में एक बेचैन आत्मा

इसलिए कि सात बजे थे और उस शहर में जल्दी बंद हो जाती थी केमिस्ट की दुकान और इसलिए कि उस शाम एकदम अकारण तेज़ हो उठा था उसके जीने का दुख वह हड़बड़ाकर उठी उसने मेज़ से उठाया अपना बटुआ और उन दरवाज़ों को ठेलकर जो पहले से ही खुले थे निकल पड़ी बाहर ठीक सात बजे नहीं, उस दिन उसने कंघी नहीं की न ही कपड़े बदले न यही देखा कि जो बटुआ उसके हाथ में था वह असल में उसके हाथ में था ही नहीं इस तरह जाते-जाते उसके जाने का क्या हुआ अब इतने समय बाद मैं कुछ नहीं कह सकता ...................

भिखारी ठाकुर

विषय कुछ और था शहर कोई और पर मुड़ गई बात भिखारी ठाकुर की ओर और वहाँ सब हैरान थे यह जानकर कि पीते नहीं थे वे क्योंकि सिर्फ़ वे नाचते थे और खेलते थे मंच पर वे सारे खेल जिन्हें हवा खेलती है पानी से या जीवन खेलता है मृत्यु के साथ इस तरह सरजू के कछार-सा एक सपाट चेहरा नाचते हुए बन जाता था कभी घोर पियक्कड़ कभी वर की ख़ामोशी कभी घोड़े की हिनहिनाहट कभी पृथ्वी का सबसे सुंदर मूर्ख और ये सारे चेहरे सच थे क्योंकि सारे चेहरे हँसते थे एक गहरी यातना में अपने मुखौटे के ख़िलाफ़ और महात्मा गाँधी आकर लौट गए थे चम्पारन से और चौरीचौरा की आँच पर खेतों में पकने लगी थीं जौ-गेहूँ की बालियाँ पर क्या आप विश्वास करेंगे एक रात जब किसी खलिहान में चल रहा था भिखारी ठाकुर का नाच तो दर्शकों की पाँत में एक शख़्स ऐसा भी बैठ था जिसकी शक्ल बेहद मिलती थी महात्मा गाँधी से इस तरह एक सांझ से दूसरी भोर तक कभी किसी बाज़ार के मोड़ पर कभी किसी उत्सव के बीच की खाली जगह में अनवरत चलता रहा वह अजब बेचैन-सा चीख़-भरा नाच जिसका आज़ादी की लड़ाई में कोई ज़िक्र नहीं पर मेरा ख़याल है चर्चिल को सब पता था शायद यह भी कि रात के तीसरे पहर जब किसी झुरमुट में ठनकता था गेहुंअन तो नाच के किसी अँधेरे कोने से धीरे-धीरे उठती थी एक लंबी और अकेली भिखारी ठाकुर की आवाज़ और ताल के जल की तरह हिलने लगती थीं बोली की सारी सोई हुई क्रियाएँ और अब यह बहस तो चलती रहेगी कि नाच का आज़ादी से रिश्ता क्या है और अपने राष्ट्रगान की लय में वह ऐसा क्या है जहाँ रात-बिरात जाकर टकराती है बिदेसिया की लय।

लयभंग

जब सुबह-सुबह सूरज जलाता है अपना स्टोव और आदमी अपनी बीड़ी तो कितना अजब है कि दोनों को यह पता नहीं होता कि असल में यह एक बेचैन-सी कोशिश है उस सम्वाद को फिर से शुरू करने की जो एक शाम चलते-चलते सदियों पहले कहीं बीच रस्ते में टूट गया था।

हस्ताक्षर

बालू पर हवा के असंख्य हस्ताक्षर थे और उन्हें देखकर हैरान था मैं कि मेरा हस्ताक्षर हवा के हस्ताक्षर से कितना मिलता है! कैसे हुआ यह ? क्या मैंने हवा की नकल की है या हवा ने चुरा लिया है मेरा हस्ताक्षर ? दोनों में से एक न एक को जाली ज़रूर होना चाहिए मैंने सोचा पर अब सवाल यह था कि तय कैसे हो और हो तो किस अदालत में कि कौन सा हस्ताक्षर जाली है मेरा या हवा का?

कुएँ

कुएँ क्या हुए? उस बस्ती में जहाँ कुओं को लेकर एक भयानक चुप्पी थी मैंने लोगों से पूछा कुओं को ढँक लिया है घास ने— किसी एक ने उत्तर दिया जिसने उत्तर दिया उसका चेहरा लगभग अदृश्य था क्यों, कुओं ने क्या बिगाड़ा घास का? मैंने पूछा बिगाड़ा कुछ नहीं, बस घास का फ़ैसला कि अब कुएँ नहीं रहेंगे हद है, अगर कुएँ नहीं रहेंगे तो पानी कहाँ पिएँगे लोग? मैंने झल्लाकर पूछा लोगों का क्या कहते हैं उन्हें पता चल गया है किसी जादुई सोते का— उसी आवाज़ ने फिर हस्तक्षेप किया फिर क्या करें कुओं का? क्या उन्हें क्रेन से उठाएँ और रख आएँ संग्रहालय में मैंने धीरे से पूछा नहीं, नहीं...अबकी लोग चिल्लाए छोड़ दो कुओं को जहाँ वे हैं जैसे वे हैं गिरने दो अपने-आप अतल में गिर जाने दो कुओं को लोगों की आवाज़ में निर्जल कुओं की ठंडी गूँज थी।

दृश्ययुग-1

मन हुआ चुप रहूँ फिर कुछ मिनट बाद चुप्पी खलने लगी फिर किसी ने मेरे अन्दर जैसे गाने की ज़िद की यह कोई अन्य था जिसे मैं जानता नहीं था पर छू सकता था फिर यह सच कि छूना हाथ का अपना एकाधिकार है जीभ के प्रतिवाद से निरस्त हो गया फिर एक विवाद शुरू हुआ समूचे शहर में स्वाद और ध्वनि और दृश्य और स्पर्श के बीच और इस पूरी युद्ध-भूमि में स्पर्श का भयानक अकेलापन मैंने देखा और जब देखा न गया तो एक कवच की तरह उसी को पहनकर चला गया दफ़्तर।

दृश्ययुग-2

उसे देखकर कहना भूल गया एक बात थी जो तभी भूल गई थी जब चला था घर से और फिर कई दिनों तक याद रहा वही एक भूलना जो बाद में पता चला एक चेहरा था जो न जाने कब देखने के जल में चुपचाप घुल गया और बचा रहा देखना जिसमें मिलना छूना सूँघना चाहना सब घुलते गए धीरे-धीरे।

कुछ टुकड़े

1. जिससे मिलने गया था उससे मिलकर जब बाहर आया सोचा, ये जो विराट इमारत है ब्रह्माण्ड की क्यों न हिला दूँ इसकी कोई ईंट इस अद्‍भुत्त विचार से रोमांचित अभी मैं खड़ा ही था कि ठीक मेरे सामने एक छोटा पत्ता टूटकर गिरा और मैंने देखा ब्रह्माण्ड हिल रहा है। 2. उस बूढ़े भिखारी को आज भी देखा पर आज उस पर दया नहीं आई दया आई तो ख़ुद पर कि देखो न इस गावदी को कि बीसवीं शताब्दी के इस अन्तिम दशक में भी एक भिखारी पर दया करने की हिमाक़त करता है। 3. और यह तो आप जानते ही होंगे पर मेरा दुर्भाग्य कि मैंने इतनी देर से और बस अभी-अभी जाना कि मेरे समय के सबसे महान‍ चित्र पिकासो ने नहीं मेरी गली के एक बूढ़े रंगरेज़ ने बनाए थे।

कुछ और टुकड़े

1. अकेली चुप्पी भयानक चीज़ है जैसे हवा में गैंडे का अकेला सींग पर यदि दो लोग चुप हों पास-पास बैठे हुए तो उतनी देर भाषा के गर्भ में चुपचाप बनती रहती है एक और भाषा। 2. बरसों तक साथ-साथ रहने के बाद जब वे विधिवत अलग हुए तो सारे फ़ैसले में यह छोटी-सी बात कहीं नहीं थी कि जहाँ वे लौटकर जाना चाहते हैं वह अपना अकेलापन वे परस्पर गँवा चुके हैं बरसों पहले। 3. जन्म-मृत्यु सूचना के उस नए दफ़्तर में पहले तय हुआ जन्म का रजिस्टर अलग हो मृत्यु का अलग फिर पाया गया यह अलगाव बिल्कुल बेमानी है।

जड़ें

जड़ें चमक रही हैं ढेले ख़ुश घास को पता है चींटियों के प्रजनन का समय क़रीब आ रहा है दिन भर की तपिश के बाद ताज़ा पिसा हुआ गरम-गरम आटा एक बूढ़े आदमी के कन्धे पर बैठकर लौट रहा है घर मटमैलापन अब भी जूझ रहा है कि पृथ्वी के विनाश की ख़बरों के ख़िलाफ़ अपने होने की सारी ताक़त के साथ सटा रहे पृथ्वी से।

खर्राटे

मेरी आत्मा एक घर है जहाँ अपने लम्बे उदास खर्राटों के साथ यह दुनिया सोती है और मैं सोता हूँ उसके बाहर मैदान में और मैदान चूँकि मैदान के बाहर कहीं जा नहीं सकता इसलिए कँटीली झाड़ियों पर टिका देता है सिर और एक पत्थर जैसी गरिमा और धैर्य के साथ सहता है मेरे खर्राटों को जिन्हें गिरगिट-झींगुर सब सुनते हैं एक मुझे छोड़कर।

सुखी आदमी

आज वह रोया यह सोचते हुए कि रोना कितना हास्यास्पद है वह रोया मौसम अच्छा था धूप खिली हुई सब ठीक-ठाक सब दुरुस्त बस खिड़की खोलते ही सलाखों से दिख गया ज़रा-सा आसमान और वह रोया फूटकर नहीं जैसे जानवर रोता है माँद में वह रोया।

ठंड में गौरैया

ठंड पर लिखी जाने वाली इस कविता में यह गौरैया कहाँ से आ गई सबसे पहले? भला वह क्यों नहीं जो चला जा रहा है सड़क पर अपने कोट का कॉलर ठीक करता हुआ?

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