+6. उपदेश व भजन : पंडित लखमीचंद (हरियाणवी कविता) : हिन्दी कविता 

उपदेश व भजन : पंडित लखमीचंद

Updesh Va Bhajan : Pandit Lakhmi Chand


अकलबन्द इस दुनियां के

अकलबन्द इस दुनियां के मैं बिन टोहये पावैं सै , एक दमड़ी की कीमत ना पर लाल बणे चाहवैं सैं ।।टेक।। कुछ तै खता हो मात-पिता की जन सुत लाड लड़ाते, 12 वर्ष तै उपर होज्यां धन्धे सिर ना लाते, बैठ चौकड़ी चांडाला की खोटा सतसंग पाते, मात-पिता कहैं काम करण की नहीं कमा कै लाते, बेटा समझ कै धमका दे तै ये झट जूता ठावें सैं ।।1।। लिखै पढै ना खेती ना क्यारी ना रीत बंडया की चालै, शौकीन काया पड़ै काम बिन लेज्यां देश निकाले, इसे उत घरवासे तै तै सच्चे राम उठाले, न्यूं के काम करया जा मरकै, भीख मांग कै खाले, कहैं कितै मोटर सीखूंगा, दिल्ली सिखलावैं सै ।।2।। दस दिन पाछै जाण पटी मोटर कै भी नामा लागै, घरक्यां सेती मेल करै 100-200 नै ठग भागै, यारी और अस्नाई नै लूटै, बुरा कर्म ना त्यागै, लिखे पढे़ बिन अकल नहीं, बिन अकल निमत नहीं जागै, सांग भजन उपदेशां के गुण अवगुण कर गावै सै ।।3।। सतगुरू सतगुण सतसंग सत का सांगी सांग करै सै, भजन चौपाई छन्द लामणी लयसुर बीच भरे सै, प्रचीन इतिहास बड़यां की तार कै मिसल धरै सै, जिनै गाणा नहीं बजाणा आवै वे बकते उत फिरैं सै, लखमीचन्द की छाप धरैं घणे पागल मुंह बावै सै ।।4।।

अष्ट वसु और ग्यारा रूद्र बारा सूर्य

अष्ट वसु और ग्यारा रूद्र बारा सूर्य भाई, न्यारे-न्यारे नाम गिणांदू या ईश्वर की चतुराई ।।टेक।। बसु :- द्रोण बसु है सब तै बड़ा प्राण प्रेम से न्यारा, ध्रुव अर्क और सूर्य का भी तेज बतावैं भारया, दोष वास्तव उस तै छोटा गिणना न्यारा-न्यारा, विभय बसु भीष्म कहलाए हाल सुणांदू सारा, शान्तनु के वीर्य से जिन्हैं जणगी गंगे माई ।।1।। रूद्र :- रैवत अज भोम भोव ये रुद्र कहलाए हैं, बाम पांचवैं छट्ठे उग्र ये लेख सदा पाए हैं, बरसा कपि अजंग पाद ये रूद्र दरसाए हैं , अहीर बुध और रूप ये कवियों नै गाए हैं, सब से छोटा महारूद्र जिन्हैं पार्वती परणाई ।।2।। सूर्य :- विवस्वान आर्यमापूका सूर्य गगन अटारी, चौथे तुष्टा पांचवैं सविता छट्टै भग बलकारी, सातमें धातमा बाम आठवें नौमै वर्ण खिलारी, दसवें मित्र ग्यारवें शुक्र अरू तेज कर्म से भारी, बारा सूर्य बाराए राशी ज्योतिष नै फरमाई ।।3।। सुबह श्याम मध्या काल जो सुमरन करते मन से, तीन ताप और आशा तृष्णा दूर हटादे मन से, द्वितिया दूरमत कुमत सुत ये हटज्यां दूर बिघ्न से, तीन लोक और सात द्वीप ये न्यारे चौदह भवन से, माईचंद पड़ा तेरे चरणों मैं प्रभु करो मेरी रिहाई ।।4।।

आईए री आईए-2 तेरे भक्त खड़े दरबार

आईए री आईए-2 तेरे भक्त खड़े दरबार, दर्शन दे सिंह पै सवार ।।टेक।। सृष्टी रचाई तनै शक्ति को रट कै, ब्रह्मा जी नै ध्याई माई बैठ गई छंट कै, तू ही भूमि भार उतार ।।1।। ब्रह्मा के घर मैं ब्रह्माणी तूं, इन्द्र के घर इन्द्राणी तूं , तुझे नमस्कार हर बार ।।2।। गन्धर्व विद्या का वरदान तू है, वेदों में झण्डा निशान तू है, तू ही वर्षा बीच फुव्वार ।।3।। गुरू लखमीचन्द की श्यानी तूं है, असुरों को मारा मरदानी तूं है, तू ही तो तेग तलवार ।।4।।

आओ हे मनावैंगे बसन्त सखी री

आओ हे मनावैंगे बसन्त सखी री ।।टेक।। बसन्त सम्बन्धी ग्रीष्म तपैंगे, फेर हम माला मेघ की जपैंगे, शर्द बलवान छुपाए नहीं छुपैंगे, शर्द तै आवैंगे हेमन्त सखी री ।।1।। ज्ञान के कलसे भरे गए रिस रित, हेमन्त गये तै आवैंगे शिशु ऋत, ये सब मिलकै होवैं एक रंग मिश्रित, शिशु सै ऋतुओं का अन्त सखी री ।।2।। बाले बसन्त को आओ हे पुकारैंगे, तन मन धन हम सब वारैंगे, पितृ देव ऋषि ऋण तारैंगे, ल्याओ डांरगे फूल अनन्त सखी री ।।3।। काले बसन्त को आओ हे मनावैंगे, फेर मन इच्छित फल पावैंगे, लखमीचन्द जो हरि गुण गावैंगे, हो अगला जन्म सुखन्त सखी री ।।4।।

आडै परिन्दा भी ना फटैक बुढ़िया

आडै परिन्दा भी ना फटैक बुढ़िया 12-12 कोस, तनै कित ज्यान गवादी आण कै री ।।टेक।। इब के तेरे मरण में अन्तर, कुछ चल सकै ना जादू जन्त्र , सिंह किस के हों मिन्त्र, कुछ तै करणा चाहिए होश, तू आई सै मरण की ठाण कै री ।।1।। मेरा तन रुई की तरह लोढया, तू आई सै ले कै मरण का ओड़ा, बैरण भूख नै ना छोड़या, मेरा जीवन जोगा जोश, क्योंकि दया नहीं सै इस डाण के री ।।2।। मै अपणे धर्म पै अड़ा रहू सूं, सब क्याहें तै लड़या रहूं सूं, जगंल के मैं पड़या रहूं सूं, अपना कालजा मोस कितके न्याय करावैगी छाण कै री ।।3।। सोच लखमी चन्द कुछ मन्द भागी, या मेरे चोट जिगर पै लागी, जब तू मौके उपर थ्याागी, इसमैं मेरा भी के दोष, तनै ज्यान गवाई आड़ै आण कै री ।।4।।

आहरे नाएके क्यों कर ना मारे

आहरे नाएके क्यों कर ना मारे रात को ।।टेक।। इसकी चौसर बिछी, प्रेम की बाजी लगी, हम नाफरामोसी में अपना दाव हारे रात को ।।1।। किस का खाना और किसका पीना किसको कब आती है नींद , साफ उड़ जाती है यू ही करवटें बदलते रात को ।।2।। चम्पे का जोड़ा पहन कर, जब वो निकली महेरू( नारी ), चांद भी नजर आया नहीं, गैरत के मारे रात को ।।3।। अह अहलाई, उनसे, जाकै यह कहो , मै बोलू नहीं, अगर वे आ कर पुकारें रात को ।।4।।

इस मोह तृष्णा के बस मैं या फसगी ज्यान

इस मोह तृष्णा के बस मैं या फसगी ज्यान झमेले मैं, बाजीगर की बजी बांसुरी गंगा जी के मेले मैं ।।टेक।। उस बाजीगर नै मन्त्र पढ ऐसा खेल रचाया जी, जल पै थल और थल पै सृष्टी अद्भूत उसकी माया जी, उस बाजीगर नै मन्त्र पढ कै ऐसा बिरवा फैलाया जी, उस बिरवे मैं बास करैं और रग-रग मैं समाया जी, आहु से अग्नि तेज जल है इतना इलम अकेले मैं ।।1।। फेर उस बाजीगर नै मन्त्र पढ कै ऐसी माया फेर दई, मखबर कूख बणा शक्ति सबके अन्दर ढेर दई, तीन लोक और चौदह भवन में अपणी सृष्टी बखेर दई, मोह माया और तृष्णा ठगणी सबके मन में गेर दई, गुण की गऊ औगुण का झोटा जुड़ै पाप के ठेले मैं ।।2।। फेर उस बाजीगर नै मन्त्र पढ एक ऐसी बेल बणाई जी, अवध्या अस्त ले गई दिन पै दिन लहराई जी, बेल कै लागे फूल भूल कोए पीला कोये जरदाई जी, कोये काची कली टूटी कोए पाकी कोए गदराई जी, कोये-कोये बिकता लाखों मैं कोये सस्ता दो धेले मैं ।।3।। उस बाजीगर धोरै एक बकरी जो भूखी रोज मिमाती है, हरे न्योले और सूले खरे फल बेल को खाती है, जितने दुकानदार इस मेले मैं सब पे टैक्स लगाती है, कर-कर कै सैल जमाने की बाजीगर धोरै आती है, हुक्म बजाती बाजीगर के, आकै बंधै तुमेले मै ।।4।। संकट का धर्म साथ धर्मराज घर जाना हो, ये भूल-चूक यो किला पाप का जिसकै याद निशाना हो, उस बकरी नै कोये नहीं छोड़या याणा हो चाहे स्याणा हो, देवी देवता प्रसन्न होज्यां सनातन ग्रन्थों का गाणा हो, दिया जिगर भून ना रहया खून इस मानसिंह के चेले मैं ।।5।।

इसी भक्तिनी हरीचरण की

इसी भक्तिनी हरीचरण की दास भी हो जाया करै, किसे समय में पूर्ण सच्ची आश भी हो जाया करै ।।टेक।। सच्चा कहणा योहे सै जगत का, ख्याल कुछ चाहिए अगत का, लगन करे तै भगवन भगत का, खास भी हो जाया करै ।।1।। ध्रुव भगत नै बालेपण मैं, दर्शन होगे थे कोकला बन मै, रटते-रटते हरी भजन मैं , पास भी हो जाया करैं ।।2।। मनैं इब भेद पाट्या सै जिताए तै, मनु स्मृति के बताए तै, किसे की बहू बेटी सताए तै, घर का नाश भी हो जाया करैं ।।3।। लखमीचन्द भूल मत मद मैं , रहणा चाहिए काल की हद मैं, ज्ञान का स्वरूप मोक्ष के पद मैं, बास भी हो जाया करैं ।।4।।

उठो-उठो हे सखी

उठो-उठो हे सखी, लागो हरि के भजन मैं ।।टेक।। सखी भगति का ढंग निराला, कहैं सैं उन बन्दा का मुंह काला, जिनके हाथ के मैं माला, और पाप रहै मन मैं ।।1।। भगति करणी चाहिए इसी, धरू भगत नै की थी जिसी, जैसे वैं सप्त ऋषि रहे चमक गगन मैं ।।2।। जिन नै हर की माला टेरी, उन बन्दां नै मोक्ष भतेरी, दोनू बख्तां श्याम सवेरी, एक बार दिन मैं ।।3।। हे सखी डूब गई पढ गुण कै, फेर तू रोवैगी सिर धुण कै, लखमीचन्द साज नै सुणकै, उठैं लोर सी बदन मैं ।।4।।

ऊंच नीच कर सब जीवों में

ऊंच नीच कर सब जीवों में भिन्न-2 रूप दिखाये, रिषभदेव सत स्वरूप हरि नैं पुत्रों को सिखलाये ।।टेक।। चेत अचेत प्राणियों में अस्थावर शुद्ध होते, इनसे बड़े सर्पादिक जंगम जीव ठिकाणां टोहते, पशुओं मैं पशु ज्ञान युक्त फेर मनुष्य जंग झोते, मनुष्यों मैं वो श्रेष्ठ मनुष्य जो सुकर्म के फल बोते, जैसे कर्म करे बन्दे नै वैसे ही फल पाये ।।1।। मनुष्यों से श्रेष्ठ भूतगण आदि फेर गन्धर्व गण मानो, गंधर्वों गणों से सिद्धगण अच्छे फेर गण किन्नर पिछाणों, किन्नर गणों से भी असुर गण अच्छे फेर देवता जानो, देवताओं में इन्द्र बड़े फेर ब्रह्मपुत्र दक्ष बखानो, दक्षादि नै सृष्टि बढा कै यज्ञ के कर्म कराये ।।2।। दक्षादि से शिव शंकर बड़े जो ब्रह्मा से बर पाते, ब्रह्मा से सत विष्णु बड़े जो उनका पूजन चाहते, सत विष्णु से बड़े ब्राह्मण गण जो सबके पूज्य कहाते, ब्रह्म रूप सतगुण की खुराक जो ब्राह्मण भोजन खाते, यज्ञ हवन तप भजन व्रत मैं ब्राह्मण बिन होते ना मन के चाहे ।।3।। वेद रूपी प्राचीन मूर्ती जो ब्राह्मण धारण करते, मन इन्द्री को रोक पवित्र सतगुण हृदय धरते, सत्य दया तप संतोष प्रताप जो आठ गुणों में फिरते, राज द्रव धन इच्छा बिन न्यूं सबर से कारज सरते, इन ब्राह्मणां बीच वास विष्णु का न्यूं ब्राह्मण बड़े बताये ।।4।। बेशर्म बेहया कुकर्मी आपे को बड़ा जिताते, ब्राह्मण बीच बास विष्णु का जिनको नीच बताते, ले खड़ताल हारमोनियम ढोलक कहकै पोप खिजाते, लखमीचन्द की भी धी बेटी करैं औरां नै तै घणां सताते, एक दयानन्द का ओड़ा ले कै हम सुते आण जगाये ।।5।।

ओम भजन बिन जिन्दगी व्यर्था गई

ओम भजन बिन जिन्दगी व्यर्था गई, ना रही ना रहै किसे की सदा ना रही ।।टेक।। ओम ब्रह्म निराकार की मूरती, रटे बिन ज्यान वासना मैं झुरती, जिनकी सुरति भजन मैं वा फिदा ना रही ।।1।। राजा बैणूं अधर्म से नहीं हिले थे, जिनके दुनियां मैं हुक्म पिले थे, जिनके चक्र चलैं थे, वैं अदा ना रही ।।2।। उथड़गी गढ़ कोठां की नीम, काल कै ना लगते बैद्य हकीम, राजा भीम बली की बन्दे गदा ना रही ।।3।। लखमीचन्द वेद का लेख, सृष्टि या ज्ञान से देख, जिनकी लगी मेख में रेख, ब्रह्म से वैं जुदा ना रही ।।4।।

करैंगे तै बोही जा के हाथ

करैंगे तै बोही जा के हाथ बीच काम है, मरैगा भी बोहे जा का कल्पित नाम है ।।टेक।। कल्पना से बणा घर और बार डेरा, कल्पना करे तै पांचों तत्वों नै लाया घेरा, कल्पना तजे तै मेरा मन सुखधाम है ।।1।। कल्पना से राजा बना नगरी तो खड़ी है पास, कल्पना से दूजे आगै चरण का तूं है दास, कल्पना के रूप सांस हाड मांस चाम है ।।2।। कल्पना मैं फंस कै तजै पुण्य नहीं पाप किए, कल्पना से मान गुमान दुख-सुख सम जान लिए, कल्पना से जिए बिन ना जीव को आराम है ।।3।। कल्पना के माता-पिता कल्पना के सुत दारा, कल्पना के लखमीचन्द और कल्पना का भाई चारा, प्रभु वेद नै उचारा थारा नाम सुन्दर श्याम है ।।4।।

कृष्ण जी अवतार धार कै

कृष्ण जी अवतार धार कै गऊ चराया करते, गऊ के दूध नै अमृत करकै पिया खाया करते ।।टेक।। राजा बसु नै धर्म के कारण ले ली राम सुमरनी, इन्द्र नै वरदान दिया जगह स्वर्ग केसी बरनी, गऊ सेवा झोटे जोड़ कै बता दी खेती करनी, मौके पै बारिस होज्या़ तै धन दान दे धरणी, गऊ सेवा कर निषध देश मैं दुधां न्हाया करते ।।1।। एक राजा दलीप धर्म के कारण फल सुकर्म का बोग्या, गऊ के बदले शरीर सौंप दिया मुक्ति मार्ग टोहग्या, गऊओं की सेवा की पांडुओं नै किया सुख भोग्या, कुछ सै सत्संग ऋषि मुनियों का कुछ कृष्ण भी संग होग्या, सूर्यदेव से मिली टोकणी ऋषि खीर बणाया करते ।।2।। कामधेनु समुद्र से निकली न्यूं वेद पुराण कहैं थे, सुरभी गऊ देवत्या धोरै अमृत खान कहैं थे, गऊ सेवा से ऋषि मुनियों का सिद्ध ध्यान कहैं थे, एक गऊ नन्दनी वशिष्ठ के धोरै सब से महान कहैं थे, चाहे तीन लोक भोजन के छिकलो ऋषि जमाया करते ।।3।। पहले सूद्र सेवा करैं थे, बनिया खेती क्यारी, क्षत्री सबकी रक्षा करैं थे ब्राह्मण वेदाचारी, धर्म सनातन भूल गए फिरै दुनियां मारी-मारी, लखमीचन्द कहै घणे फंड चालगे अक्कल न्यारी-न्यारी, पहले तीन वर्ण से गऊ ब्राह्मण सिद्ध पूजे जाया करते ।।4।।

कृष्ण जी महाराज आज्या

कृष्ण जी महाराज आज्या, पृथ्वी के सरताज आज्या, गोकल बृजराज आज्या, भारत के मैदान में ।। टेक।। जती मर्द रहे ना सती बहू, बिकन लगे हाड मांस और लहू, गऊ मिश्री का कूजा हुया करै थी, सारै जग बूझा हुया करै थी, घर-2 पूजा हुया करै थी, सारे हिन्दुस्तान मैं ।।1।। करण लगे आपस के मैं बैर, घर-घर बहै पाप की नहर, पैर पदम सिर मुकुट बिराजै, कांधै मुंज जनेऊ साजै, शंख घड़ावल घंटा बाजै, घोर सुनै असमान मैं ।।2।। थारे बिन हो रहया सै बुरा हाल, करो कुछ भक्तों की प्रतिपाल, बाल जती इच्छा के भोगी, समदर्शी ऋषि साधन के योगी, गऊ गीता गायत्री होगी तीनों नष्ट जहान मैं ।।3।। कहै लखमीचन्द मुश्किल हो रहया सै जीणा, भारत का जा सै लुटया लखीना, किसा खाणा पीणा बणा ठेट का, मां तै न्यारा जणा पेट का, हे कृष्ण जी पनाह पेट का, माणस की जबान में ।।4।।

कुटिल कुचलना एबदार नर

कुटिल कुचलना एबदार नर लंगड़ा लुला काणां, सब तै खोटी तरियां जिसमैं तेरा दासी का बाणां ।। टेक।। खोटी बात कहणियां माणस सब तै खोटा हो सै, छोटी बात कहणियां माणस बडे तै छोटा हो सै, जाणूं सूं पर कह ना सकती दर्द भी मोटा हो सै, एक बाप कै सौ बेटे सबका महर मलोहटा हो सै, या कदे तै रीत दिवाकर कुल की राज करै बड्डा स्याणा ।।11। रामचन्द्र की कृपा तै मेरा होग्या मोक्ष मैं डेरा , जै ना ईश्वर अनुकूल होए तो लगै जन्म का फेरा, जन्म भी हो तै सूर्य कुल मै सिर पटराणी का सेहरा, सीता केसी बहू मिलै सुत रामचन्द्र सा मेरा, जिस घर मैं इसे बहू बेटे हो तो मोक्ष का ठीक ठिकाणा ।।2।। श्री रामचन्द्र मनैं मात समझ कै आच्छी कार करै सै, रामचन्द्र के सुख मैं दुख हो तूं कौड त्यौहार करै सै , र कई बै तै इस कौशल्या तै भी बढ़ कै प्यार करै सै, हम मां मौसी सैं तीनों के मै एक व्यवहार करै सै, कौशल्या केकई सुमित्रा हम सबकी आज्ञा पाणा ।।3।। जै ज्यादा तकरार करी तनै मार-मार हन दूंगी , कौशल्या जै प्राण तजै तै मैं अपणा मन दूंगी, रामचन्द्र के उपर कै वार मैं ज्यान सुधा तन दूंगी , श्री रामचन्द्र का तिलक सुणुं तै मुंह मांग्या धन ढूंगी, राम के भक्त खुश हों सुण कै लखमीचन्द का गाणा ।।4।।

गऊ ब्राह्मण साधु की सेवा

गऊ ब्राह्मण साधु की सेवा मैं हित-चित से आनन्द से, आज काहल के बख्त नै देखें कृष्ण लखमीचन्द सैं ।।टेक।। खटकड़ तै परवा की ढ़ब मैं सदाब्रत चलरया सै, कोढ़ी कंगले लंगड़े लूलां तक का दुख टलरया सै, ब्राह्मण लोग आनन्द से रहते वेद पाठ चलरया सै, हो दूर अन्धेरा ज्ञान का दीपक जाटी में बलरया से, धर्म सनातन जगा दिया इब पाप की वृद्धी बन्द सै ।।1।। कुए बावड़ी धर्मशाला और प्याऊ तलक सम्भालै, गऊओं के दुख दूर करै सै जित-2 डेरा डालै पढ़े लिखे बिन वेद नै समझै धर्म कै मार्ग चालै, हट कै मन्दिर फेर चिणा दिए धजा शिखर मै हालै, जो लखमीचन्द नै सिर्फ सांगी समझै उसकी बुद्धी मन्द सै ।।2।। मोर मुकट पीताम्बर थारी इसा कवि जगत मैं होग्या, दूर अन्धेरा करया दूसरा रवि जगत मैं होग्या, चित्र सैन गन्धर्व से बढ़ कै कवि जगत मैं होग्या, व्यास पुत्र शुकदेव सा त्यागी अभी जगत मै होग्या, ये लखमीचन्द तो मनुष्य नहीं यो तै नन्द बालमुकन्द सै ।।3।। राधा रूकमण गोपनियां संग रास करणियां यो सै, गऊ ब्राह्मण साधु की सेवा खास करणियां यो सै, सब जीवां के घट-घट भीतर बास करणियां यो सै, दंत वकर शिशपाल कंस का नाश करणियां यो सै, कहै देबीराम भजन से कटता जो जन्म मरण का फन्द सै ।।4।।

गऊ माता की सेवा करियो

गऊ माता की सेवा करियो भारत के नर नारी, चारों वेद बडाई करते ऋषि मुनि ब्रह्मचारी ।।टेक।। तेतीस करोड़ देवता सारे गऊ माता में रहते, तेतीस मुख्य देवता हों वैं बुरी भली नै लहते, उपनिषद और मनुस्मृति छ: यों शास्त्र कहते, गऊ माता के हृदय के मैं सात समुद्र बहते, कोई दूध का कोई शहद का कोई घी का कोए खारी ।।1।। पीठ मै बासा विश्वकर्मा पेट में सन्त कंवारा, पुड़यां मैं बासा लक्ष्मी जी का भेद बतादूं सारा, चारों थण धर्म के खम्बे बहती अमृत धारा, अग्न देवता करै ताड़ना गऊ खाती है चारा, नाभी धोरै बसै पृथ्वी जाणैं दुनियां सारी ।।2।। गणेश नाक में शिव शंकर मस्तिक में बास करै, अश्विन कुमार रहे कान में सुनने की ख्यास करै, धर्मराज सीगां में रहता जो दुख का त्रास करै, चांद सूरज दो रहें सामने आंखा में प्रकाश करै, यमदूतां नै कह सुण कै गऊ मदद करैगी थारी ।।3।। मंगल बुध शनिचर राहूं बृहस्पति तेज अकल मैं, भैरू और मरीचि रहैं अगले पायां की हलचल मैं, कान्धै सरस्वती कंठ में विष्णु राहु केतू गल मैं, टांट में बासा ब्रह्मा का जो सबसे भारी बल मैं , वरण कुबेर साक्षी देते अपनी बारी-बारी ।।4।। पूंछ में बांसा शेष नाग का आठ बसु फैरे सैं, दस दिगपाल रहैं पायां में गऊ आगे नै पैर धरै सै, गंगाजल गऊ का मुत्र सब बन्दे धूंट भरैं सै, लखमीचन्द कहै वैं पार उतरगे जो गऊ की सेवा करैं सैं, जिस घर मै गऊ माता रहै उड़ै कदे ना आवै हारी ।।5।।

गंगा जी निस्तारैगी, मनै शरण लई

गंगा जी निस्तारैगी, मनै शरण लई तेरी आ ।।टेक।। गंगा जी के खेत में हिंडोले दिए गढा, राजकवंर पाटड़ी पै बैठया, कृष्ण जी रहे झूला ।।1।। नाती गोती कुटम्ब कबीला सब मिल तो मै न्हांय, शेष महेश मुनी नारद जी रहे मस्तक तिलक चढा ।।2।। ब्रह्मा विष्णु शिवजी तक रहे औकांर गुण गा, शक्ति मात गणेश गोद लिए गंग दर्श को जा ।।3।। शुक्राचार्य गुरू ब्रहस्पति रहे मस्तक तलक चढा सब देव के इन्द्र राजा रहे फूल वर्षा ।।4।। कोए कह ब्रह्मा की पुत्री कोए बसुओं की मां, कोए कह पर्वत से उतरी पता किसी को ना ।।5।। मुआसी नाथ भजन करै निस दिन, रहे मान सिंह चित ला, लखमीचन्द शरण गंगे तेरी कस दिन क सहाय ।।6।।

चमकै-चमकै री मां बिजली गगन मैं

चमकै-चमकै री मां बिजली गगन मैं, बादल छाए ।।टेक।। कामनी बनी हूं सुन्दर नैना अंजन स्यारे, पति के बहम मै फिरूं रोवती कहाँ गए पति हमारे, मारे-मारे री, निशाने मोरे तन मैं ।।1।। सखी सहेली कट्ठी हो कै बागां के मैं आगी, गहरी लोर उठी सामण की तन मैं बेदन जागी, लागी-लागी री मां, लागी मोरे मन मैं ।।2।। दर्दां नैं सताई री मां चीसै मोरी पांसू, कहां बाप कै बेटी रंग मैं, कहाँ है म्हारी सासू, आंसू छाई री सखी, नैनन मैं ।।3।। गोदी मै भतीजा मौरा संग मैं छोटा भैय्या, कहै लखमीचन्द तार कै मटकी खागे दही कन्हैया, कहां गई गईया री, बिचर रही बन मैं ।।4।।

जगत सै रैन का सपना रे

जगत सै रैन का सपना रे ।।टेक।। ना तूं किसे का ना कोए तेरा, सपने समान समझ घर डेरा, चिड़िया कैसा रैन बसेरा, जिसनै तू सोचता अपना रे ।।1।। दन्त बकर शीशपाल कित गए, जिनके भरे खजाने रित गए, वे भी काल के मुंह में चित गए, होया चांद ज्यूं छिपना रे ।।2।। पांडो निर्भय डोला करते, सबके आगै बोल्या करते, रे जो पृथ्वी नै तोल्या करते, होया बड़े योध्यां का खपना रे ।।3।। काल अचानक मारै छन मैं, सब रहज्या तेरी मन की मन, सोच मानसिंह चौथे पन मैं, चाहिए ॐ नाम जपना ।।4।।

जब ब्रह्मचारी शादी करते

जब ब्रह्मचारी शादी करते तीस वर्ष के हो करकै, दस और बारा साल की कन्या ठीक कर्म से टोह करकै ।।टेक।। कुल जाति और गोत्र देखकै, जिसतै ब्याह करणा चाहवै, निस्तारा योनि गृह मित्रता भृकुटि नाड़ी गण पावै, एक व्रत और एक संकल्प मन चित कर दृष्टि लावै, जती मर्द और सति स्त्री कदे नहीं दुखड़ा पावै, बड़े प्रेम से आयु बीतै दाग जिगर के धो करकै ।।1।। विवाह के समय पुत्री से माता पतिभर्ता के धर्म बता, चूड़ी पराह सुहाग भाग की परम नियम शुभ कर्म बता, पति नै समझ परमेश्वर के तुल्य पुत्री सेवक नरम बता, सास सुसर और छोटे बड़े की करणी चाहिए शर्म बता, पतिभ्रता करै धर्म की रक्षा अपने अंग ल्हको करकै ।।2।। पतिव्रत धर्म के पालन मैं भी याद वेद का करैं, अतिथि सेवा दान पुण्य और करो सो कर्तव्य नेक करैं, गऊ ब्राह्मण साधु की सेवा शुभ कर्मां की देख करैं, वेद रीत से ठीक समय पै पुत्र पैदा एक करैं, तीन काल की सन्धया करणी बीज धर्म का बो करकै ।।3।। खिला पिला और लाड-लडा कै पुत्र को बलवान करैं, फेर उपनयन करा लड़के का गुरू के द्वारा ज्ञान करैं, पुत्र, स्त्री, दुनियां आप फेर सबको एक समान करै, कहै लखमीचन्द फेर बाण प्रस्थ बण हरि भजन का ध्यान करैं, प्राण इन्द्री मन जीतले एक आसन पै सो करकै ।।4।।

जड़ चेतन में व्यापक है तूं ही

जड़ चेतन में व्यापक है तूं ही, कन्द मूल फूल डाली माता, पांच तत्व गुण तीन शरीर में तू ही, बाग तू ही माली माता ।।टेक।। तैयार रच कै संसार करै तूं, दुष्टों का संहार करै तू, जब सृष्टी का संहार करै तू किनै ज्यान बचाली री माता, दुष्ट दिए तनै मार ज्यान से, करै सन्तों की पृत पाली री माता ।।1।। तेरीए शक्ति ब्रह्मा विष्णु मैं, तीन लोक और चौदह भवन में, वृद्ध तरूण और मरण मैं, तेरी ज्योती निराली री माता, आत्मा बीच निवास है तेरी, कोए जगह ना खाली री माता ।।2।। तू ही छाया तू ही धूप बनादे, तू असूरों नै बेवकूफ बनादे, तू ही निर्धन से भूप बनादे, तू ही खजाना ताली री माता, पल भर मैं चाहे जो करदे सब जग की रखवाली माता ।।3।। ताज चाहवै जिसके सिर धरदे, धन के रीते खजाने भरदे, लखमीचन्द नै ज्ञान का वर दे, तू ही लक्ष्मी काली री माता,। भव सागर से पार करै, जिनै धर कै ध्यान मना ली माता ।।4।।

जंगल मैं के चरण चली लग

जंगल मैं के चरण चली लग गऊ माता की लार, एक गऊ कै दस बेटी थी दसां का परिवार ॥टेक।। ब्रह्म का ज्ञान हृदय मैं भरकै, देवता रटया करैं ये चित धरकै, गऊ के दूध से यज्ञ करकै यो रच्या गया संसार ।।1।। जब सृष्टि रचणे की जची, चौरासी लाख मूर्ति खिंची, सब से पहले दूब रची जो गऊ के खाण का न्यार ।।2।। गऊ जंगल मैं चरया करै थी, ध्यान पाली का धरया करै थी, जी चाहे जित चरया करै थी कर आपस मैं प्यार ।।3।। कहै लखमीचन्द धर्म की साख उठली, अनर्थी बणगे आँख फूटली, यज्ञ हवन तप दया छूटली न्‍यूं मींह बरसण की हार ।।4।।

जिननै करी दगा की कार

सवैया :- चतुर बीर का हो मर्द निखटू, बीर मर्द का ना मिलता है जोड़ा, जै जोड़ा भी मिलज्याम तै धन नहीं मिलता, धन भी मिलज्याल तै, पुत्र का तोड़ा । पुत्र भी मिलज्या तै यश नहीं मिलता, यश भी मिलज्या तै, यो जीवन है थोड़ा, कहै तुलेराम यो नर मूर्ख न्यूंये हांडे जा सै दोड़ा-दौड़ा, किसे-2 भागवान नै साराए सुख मिलता इकठोड़ा ।। * * * जिननै करी दगा की कार, दगा उनके गल आण पड़ी ।।टेक।। दगा करग्या भष्मासुर भूप, बणग्या बेअकला बेकूफ, विष्णु नै रूप जनाना धार, दुष्ट की दिनी काट लड़ी ।।1।। जिननै ना करी दगा तै संख्या, सिर पै बजा काल का डंका, लंका दई रेत मैं डार, दगा तै रावण नै सिया हड़ी ।।2।। सुकनी रहा था आड़ै एक आण, धो का तीर दिया था ताण, जाण करदी पांडो की हार, जड़ै देखै थी सभा खड़ी ।।3।। दगा तू मत करिये मति मन्द, दगा तै घलैगा बिपत का फन्द, लखमीचन्द सुमर करतार, या बीती जा सै घड़ी-घड़ी ।।4।।

जिननै ना योग क्रिया का ज्ञान

जिननै ना योग क्रिया का ज्ञान, नफा के कान पड़ावण तै ।।टेक।। उरे तै गया चला आया परे तै , के कायदा न्यूयें जियें मरें तै , सेवा करे तै डटज्या ध्यान, समझ कै गुरू बणावण तै ।।1।। भीष्म योगी घरां रहया, कान पड़ाए ना बण में गया, योगी कहा गया कृष्ण भगवान, हटया कद रास रचावण तै ।।2।। गाड़ दयो ज्ञान रूप की धूणी, तोड़ दयो मोह ममता की जूणी, ना तै होज्या दूणी अकल बिरान, टांट पै लटा बधावण तै ।।3।। लखमीचन्द गुण खोसया करै सै, पहलम मोह ममता नै मोशया करैं सै, ना तै न्यूऐ भोसया करै श्वान, घर-घर अलख जगावण तै ।।4।।

ज्वाला तेरी आश लगी है

ज्वाला तेरी आश लगी है, जन को री ।।टेक।। रहा तेरे संत द्वारे टेर, कहां लगा दी देर, मेहर जिन जिन-जिन पै फेरी, बज्जर करया तन को री ।।1।। जंग का बाजा बजा-बजा कै, असुर तनै मारे रिझा-रिझा कै, सजा कै भूरा केहरी तैयार हुई रण को री ।।2।। तू हमनै दर्शन दायक, सेवा मैं दास खड़ा तेरे पायक, क्या हम समझे ना इस लायक, रक्षा करो मेरी री, बुद्धि दो तन को री ।।3।। तेरी भक्ति करणी की थी शुरू, तेरी भक्ति से होगे पार ध्रुव, गुरू मानसिंह नै भी टेरी, खुशी हुई मन को री ।।4।।

तनै रचा दिया जग सारा मैया हे

तनै रचा दिया जग सारा मैया हे, देवी कद हो दर्श तुम्हारा ।।टेक।। द्वापर मैं द्रोपदी होकै, दुष्ट तेरा देखैं थे सत टोहकै, खून में बैठ गई सिर धो कै, कृष्णा हे देवी, नहीं दिन लागण दिये अठारहा ।।1।। एक दिन रावण अपणा बदन छिपाकै, तनै लेग्या लंका मैं ठाकै, जा कै करया लंका मैं घारा, सीता हे देवी, जा दुष्ट हनन कर डारा ।।2।। हम तेरी आस करैं निस दिन, बेड़ा पार करैगी किस दिन, जिस दिन महकासुर को मारया, मैया हे देवी, तेरा भगत कदे नहीं हारा ।।3।। तूं ही भक्तों के दुख हरैगी, धन से रीते खजाने भरैगी, बेड़ा तू ही तो करैगी पार, नैय्या हे देवी, डोल रही मझधार ।।4।। लखमीचन्द की भी करिये सहाई, धर्मपुत्र नै भी तूं ही मनाई, तेरा भाई नन्द का दुलारा, कृष्णा हे देवी, कृष्ण नै रट कै कंस को संहारा ।।5।।

तुम गाओ राग मलाहर

तुम गाओ राग मलाहर हे सखियो, बरसन की रूत आई मेरे राम जी ।।टेक।। चार सखी चारों ओड़ कै, चार खड़े मुख मोड़ कै, पांच झुलावण हार हे सखियो, बरसण की रूत आई मेरे राम जी ।।1।। इस पद में पदचिन्ह ला, रही नारद जी की बीन गा, एक बटेऊ तीन राह, कोए स्रोता करो विचार, बरसन की रूत आई मेरे राम जी ।।2।। पांच सखी सिर जोड़ कै , पांच खड़ी मुख मोड़ कै, पांच झुलावण हार, बरसण की रूत आई मेरे राम जी ।।3।। लखमीचन्द बात कही फल बीज की, सखी मारी मरगी तीज की, एक सही करतार हे सखियों, बरसण की रूत आई मेरे राम जी ।।4।।

तू भी चलै नै म्हारे साथ

तू भी चलै नै म्हारे साथ गऊ न्यूं उठ कै बोली ।। टेक।। मोह लोभ के बस में हो कै यो जग मरने हारा, आपे के मैं आप समावै आप उतरने हारा, वहां नहीं कोए हठ करने हारा, लकड़ी ले कै हाथ, जगह में सारी टोहली ।।1।। भूखे प्यासे मरते नैं बेशक दियो जगा, हम जाणै सै रस विष नै करती नहीं दगा, तेरे लंगड़ेपण का लकम लगा चर-चर कै हरे पात, बणैं नै म्हारी हमजौली ।।2।। जब हम चर कै आवैं तेरे ओड़ की करया करैं तकरार, हम पैदा हुई तेरे तै तूं म्‍हारी जननी हार, तनै लगड़ेपण में मिल्या ना न्यार, पिन्जर कर लिया गात, कती मां बुढिया होली ।।3।। म्हारे संग पेट भरै तै म्हारा के करले, इसी नहीं कोए बेहूदी तुझ बुढ़िया तै लड़ले, लखमीचन्द गुरू चरण पकड़ले, गऊ, गंगा जगमात, चीज सै लोगो अनमोली ।।4।।

दई उमर गवा रे, खेल के मैं

दई उमर गवा रे, खेल के मैं ।।टेक।। खेल बिना और काम ना सीख्या, आया बुढ़ापा तू पाछै झीख्या , एक तनैं दीख्या रंग नवा रै, इस खेल के मैं ।।1।। पहलम चेता ना निरभाग, भजन बिना रहा काग का काग, तेरै गई लाग हवा रै, खेल के मैं ।।2।। एक दिन चलै धार कै मौन, लगैं तेरे जख्म जिगर पै हौंण, फेर दे कौंण दवा रै खेल के मैं ।।3।। लखमीचन्द न्यूऐं उमर गंवाई, मरती बर चेतन लगा भाई, तनै ली स्यांही लवा रै खेल के मैं ।।4।।

देवी कारज सारिए री

देवी कारज सारिए री, सुरती तेरे चरण मैं लागी ।।टेक।। एक हुया नौरंग शाह अभिमानी, दुष्ट की खोदी नाम निशानी, भवन से लिकड़ी बहार भवानी, असुर नैं तूं मारिए हे री, बारणैं तोवै फोड़ कै आगी ।।1।। तू चाहे जो करदे छन-पल मैं, फांसी काट घली जो गल मैं, जा कै असुरों के दल मैं , मात ललकारिए हे री, डर कै ज्यान दृष्टां की जागी ।।2।। हे री तेरा तै बहोत घणां सै ढेठ, मार दिए असुर गए जो फेट, हाजिर लिये खड़या तेरे भेंट, मनैं तू पुकारिये हे री यू तेरा दास खड़या मन्द भागी ।।3।। लखमीचन्द रटै तनै चा मैं, मार दिये असूर मिले जो राह मैं, या म्हारी नाव पड़ी दरिया मैं , इसनै तू पार उतारिये हे री, तनै सब रटैं सन्त बैरागी ।।4।।

दो का साल महीना आसौज

दो का साल महीना आसौज देग्या काल दिखाई, शुक्ल पक्ष तिथि ग्यास प्रेम लई स्वर्ग की राही ।।टेक।। शनिवार के दिन ऋषि नै किया उड़ै जा कै, रविवार और द्वितीया के दिन देख्या ना अन्न खा कै, मन बुद्धी नै रोक बैठग्या सुख से आसन ला कै , कन्ठारे पै पहुंच गया श्री जमना जी मैं न्हा कै, हरे लाल गुलाबी सारे जित देते रंग रूसनाई ।।1।। जमना मैं ले लिकड़ गऊ फेर चरण घास में आगी, आंख खुली जब देखण लाग्या कती पास में आगी, गऊ ब्रह्मण साधु की सेवा समझ दास में आगी, चलो ऋषि जी टेम हो लिया कहण खास में आगी, फेर हाथ जोड़ पाहयां में पड़ग्या बता गऊ सै क जमना माई ।।2।। गऊ की बाणी सुणी प्रेम से कठिन व्रत किया था, अन्न छोड़या और फल खाया जल जमना का पीया था, पितामह भीष्म की तरियां कुल 11 दिन जिया था, हवन से बचा हुया दूध गऊ का ढलते दिन लिया था, चार घड़ी बेहोश रहया फेर टेम मरण की आई ।।3।। आंख खोल कै देखन लाग्या हटकै लिया सम्भाला, ब्याही बीर बैठगी जड़ मैं सांस सबर का घाल्या, गल की कौली भर कै रोई मनै छोड़ कित चाल्या, न्यू बोल्या धौला बाणां करले गोरी ले तुलसी की माला, तेरे कहे मैं रहया करैंगे मेरे तीन बाहन दो भाई ।।4।। के बुझैगी जोर चलै ना काल बली छलरा सै, लागै नहीं दवाई गोरी जिगर मेरा जल रहा सै, छत्तीस लाख करया चन्दे का पुनः गऊआं का फलरा सै, तेरै दो बेटे दिए हर नै घर में दीवा बलरया सै, साल 42 मौज करी कर चाल्या मन की चाही ।।5।। के छोटा के बड्डा सारा जांटी गाम खड़ा था जड़ मैं, रोहाराट माचगी कुटुम्ब तमाम खड़ा था जड़ मैं, भगत की रक्षा करण नै सुन्दर श्याम खड़ा था जड़ मैं, इस झगड़े नै देखे पहरोरिया देबीराम खड़ा था जड़ मैं, कलेवार सूरज सा गैहग्या जुड़गे लोग लुगाई ।।6।। नोट :- उपरोक्त भजन में 17-10-1945 को पं0 जी के स्वर्गवास के वक्त का आंखों देखा हाल ब्यान है।

धर्मसिंह कै चार चरण थे

धर्मसिंह कै चार चरण थे तीन ठिकाणैं लागे, देखणियां कै ख्याल रहया ना समझणियाँ सरमागे ।।टेक।। कर्म धर्म और राजनीति का करया मनु जी नै निरणां, यज्ञ दान हवन तप व्रत का ठीक संकल्प करणां, गऊ गंगा गायत्री हृदय श्रदा सहित सुमरणां, मात पिता अतिथि की सेवा नित्य प्रति हृदय धरणा, सेवन, पूजन, भजन करण नैं ऋषि ब्रह्मा छन्द बणागे ।।1।। एक बैणूं के कुकर्म से धरती सब बीजां नै खागी, पृथू मथण लगे पृथ्वी नै फेर गऊ रूप बण भागी, तीन लोक में जगह मिली ना डर कै पायां लागी, फेर दूध रूप कर बीज उगल दिया हटकै धर्म बचागी, राजा पृथू पालन कर प्रजा का उजड़ा देश बसागे ।।2।। पृथू कुल की चौथी पीढ़ी मैं हुए प्राचीन बरही राजा, जाकै दस पुत्र प्रचेता जिननै तप का करया तगाजा, नारद जी से ज्ञान लिया जगत से तोड़ मुल्हाजा, फेर पुत्रों नै शिव शंकर मिले हुया विष्णु पद में साझा, हारे धर्म जितावण नै सुत दाता दक्ष कहागे ।।3।। कच्छ, मच्छ, बराह नरसिंह बावना परशुराम हरी हर जी, रिषभदेव, पृथू, कपील, ब्यास और लक्ष्मण रामचन्द्र जी, कुन्ती सुत नर अर्जुन कृष्ण हर वासुदेव के घर जी, प्राचीन जो मर्याद बान्धगे ऐसा नै जस कर जी, कैरों कंस जरासन्ध मारे वे गऊ रक्षा पद पागे ।।4।। लखमीचन्द कलयुग मैं छाग्या घोर अन्धेरा काला, चोर जार ठग बेईमान रहे बान्ध पाप का पाला, कोए सदाब्रत स्कूल खुलाओ कोए प्याऊ धर्मशाला, कोए कहै पुन दान करो कोए लेण देण का टाला, बहुत से ऊत चन्दा करकै ल्हुकमा पैसे खागे ।।5।।

नर करले भजन राम का

नर करले भजन राम का उमर रही थोड़ी सी ।।टेक।। तूं किसी गफलत की नींद पड़ा सै, तेरा दुश्मन नै माल हड़या सै , नर तेरे सिर पै काल खड़ा है, दे रहया मरोड़ी सी ।।1।। इन बातां मैं नहीं फीक सै, पराई आच्छी नहीं सीख सै, तेरी नहीं करणी ठीक सै धींग धसोड़ी सी ।।2।। लिखी कर्मों की नहीं टैलगी, तेरी कुछ ना पेश चलैगी, तनै चलती बार मिलैगी, काट की घोड़ी सी ।।3।। भक्ति करणी सै कार आनन्द की, फांसी कटज्या यम के फन्द की, लखमीचन्द छन्द की ठोक दे जोड़ी सी ।।4।।

नर सोच समझ कै चाल

नर सोच समझ कै चाल, या जिन्दगी चार दिन की ।।टेक।। पाप की लाठी दूर बगाले, उस ईश्वर तै ध्यान लगा ले, जगाले ज्ञान रूप की झाल, सुस्ती तार तन की ।।1।। भाई क्यूं खोवै करी कराई, चाहिये ना तकनी चीज पराई, नर रहज्या धरी धराई ढाल, तलवार रन की ।।2।। क्यूं तू प्याली पीवै विष की, भक्ति कर कै घूंट ले रस की, के जाणै किस की काल, ममता मार मन की ।।3।। गुरू मानसिंह भोगै आनन्द, कटज्या जन्म-जन्म के फन्द, लखमीचन्द सुर ताल, आस ना पल छन की ।।4।।

निर्गुण है अलख नाम सगुण में

निर्गुण है अलख नाम सगुण में अनन्त हो सै, निर्गुण सगुण सम इनके, न आदि अन्त हो सै ।।टेक।। ना हरी के हजार नाम, ना कृष्ण के करोड़ भाई, औरां नै जितावै ज्ञान तेरी झूठी सै मरोड़ भाई, ईश्वर के प्रमाण गिणावै, ये ‍नुगरां के जोड़ भाई, शेष,महेष, गणेश विधि तक कोन्या पाया ओड़ भाई, नेती-नेती वेद पुकारैं, जो अगम निगम के तन्त हों सैं ।।1।। पहले कथन सुधारो अपणा, पाछै खोलो साज भाई, बे प्रमाण कथन करते क्यों, घर कर लिया राज भाई, ईश्वर के तू नाम गिणावै, आती कोन्या लाज भाई, एक ही सनातन है, और एक ही समाज भाई, कवियों के घर दूर मारणे, झूठों के ही दन्त हो सैं ।।2।। चाहे जन्म पत्री का खेल देख,ज्योतिष के हैं राम भाई, ज्योतिष के श्री कृष्ण कन्हैया, रंग कृष्ण श्याम भाई, फेर नाम करण संस्कार करया, धरया एक-एक का नाम भाई, जिसी करै उसी कहण लागज्यां न्यू भोकै है तमाम भाई, धर्म सनातन एक पुरातन करणी से ही पन्त हो सै ।।3।। आदि अन्त लघू करकै गुरू धर दे मध्य भाई अब भी मलीन बुद्धी साफ होगी कद भाई, छन्द का कुछ ज्ञान नहीं, तनै ला दिए अक्षर दग्ध भाई, कवियों नै विचार कर कै तेरी कविता करदी रद भाई, कहै लखमीचन्द तनै के बेरा किस कुणबे घरां बसंत हो सै ।।4।।

परम हंस और शुकर स्वरूप जी

परम हंस और शुकर स्वरूप जी ईश्वर कहलाए हैं, अहंकार के त्यागण के ये 24 कर्म बताए हैं ।।टेक।। भक्ति और अनवर्ता करना तृष्णा रहित रहो भाई, लोक-परलोक में सब मनुष्यों के दुख-सुख देख रहो भाई, तत्व जिज्ञासा तय करना मत काम कर्म लहो भाई, ईश्वर निमित सब करम करो,उसकी कथा सुनो और कहो भाई, जो भगतां नै बड़ा मानते उनके समसंग चाहे हैं ।।1।। हरी कीर्तन बैर रहित बणकै नै सब सम जान लियो, इन्द्री राक आत्मा डाटो विषय छोड़ मन तान लियो, आदि अन्त वेदान्त शास्त्र विचार निरंजन ज्ञान लियो, मेर तेर दियो त्याग सभी की इसमें आनन्द जान लियो, प्राण इन्द्री और मन के जीते नित हरी रग सवाए हैं ।।2।। शास्त्र में श्रद्धा ब्रहमचारी का कर्तब कर्म का त्याग नहीं, सर्वत्र हरी के अनुभव करकै पवन अनन बैराग नहीं तत्व ज्ञान करो समाधी साधन दिल पै रहता दाग नहीं कहे वचन को नेम मै रखैं फेर इसमैं कोए लाग नहीं, इसी भांति अहंकार तजो यही उपाए फरमाए हैं ।।3।। कर्म का बन्धन हृदय में से बिना भाग नहीं खुलता है, लखमीचन्द गुरू शिक्षा बिन नहीं अमीरस घुलता है, बिना चौकसी बिना उपाए के फिरै जगत में डुलता है, बिन सतसंग उपदेश धर्म बिन नहीं प्रेम सत खुलता है, धीरज मन ज्ञान का होणा अहंकार नहीं पाए हैं ।।4।।

पृथ्वी की नदियों मैं उत्तम गंगे

पृथ्वी की नदियों मैं उत्तम गंगे धाम कहैं सैं, सच्चा ज्ञान करण की खातिर ऋग यजु श्याम कहैं सैं ।।टेक।। वेदों मैं परमेष्टि ब्रह्म को अम्भोजल कहते हैं, चन्द्रमा मैं शरद जमां न्यूयें श्रदा जल लहते हैं, मरै गति से वीर्य रूप जल शरीरों में रहते हैं, खान पान अस्नान ध्यान से वहां आपए जल बहते हैं, चार गति से सर्वव्यापक न्यूयें भेद तमाम कहैं सैं ।।1।। ये गंगा जल उस अम्भोजल के अंग से मैं से आता है, उस मैं सब नदी मिल कै गंगा जल हो न्यू गंगे माता है, सूर्यदेव अपणी किरणों से जल समुद्र से ठाता है, भांप रूप बण उस अम्भोजल मैं ठीक चला जाता है, जल से मिलकै जीव चला जा तै मोक्ष मकाम कहैं सैं।।2।। महाभारत में श्री भीष्म जी नै बाण सैया पै सोकै, गंगाजी का कथ्या चरित्र निर्मल चित से हो कै, सगहड़ का कुटुम्ब मोक्ष कर दीन्हा पाप दाग सब धोकै, परम पावनी मोक्ष दायनी भेद समझ ल्यो टोह कै, इसका गऊ गायत्री सेवा केसा फल हो न्यूं गंगा नाम कहैं सैं ।।3।। इसनै ज्ञानी पुरुष रटैं हर गंगे माता मूर्ख को हलचल है, आयुर्वेद के प्रमाणों से गंगा जल निर्मल है, सूर्य बिना पांच तत्वों का सिद्ध करना निष्फल है, सूर्य का प्रकाश वेद में बतलाया अम्भोजल है, कहै लखमीचन्द जरे-जरे मैं रमण से राम कहैं सैं ।।4।।

प्रभु तेरी कुदरत से सब

प्रभु तेरी कुदरत से सब बन गए काम, हरे राम, हरे राम, राम, राम, राम ।।टेक।। अपणे भगत की लाज बचाई, गर्म खम्ब पै कीड़ी चलाई, हिरणाकुश मारया अन्याई, कर दिया काम तमाम ।।1।। द्रोपदी के चीर बढ़ाए, दुशासन के मान घटाए, विदुर घर जाकै भोजन खाए, छोड़े दुर्योधन के काम ।।2।। पार तार दिए सदन कसाई, एक तारी थी मीरा बाई, ध्रुव भगत की करी थी सहाई, लिया गिरतों को थाम ।।3।। गुरू मान सिंह के चरणा दहूँ, लखमीचन्द शरण में रहूँ, औम कहूं के शिव कहूं, सैं तेरे संहसर नाम ।।4।।

पुरूष की मूर्ती पृथ्वी जल और वायु

पुरूष की मूर्ती पृथ्वी जल और वायु तेज आकाश तू ही, प्राण समोच्छेदर में रहता आत्म का प्रकाश तू ही ।। टेक।। जल वायु आकाश पृथ्वी, अग्न में रहता जन है तू , ब्रह्म विभूति प्रजापति, और आत्म विभूति मन है तू, ब्रह्म लोक में सृष्टि रचता, ऐसा आत्म घन है तू, इन सब का संयोग मिला के, पिंड ब्रह्मांड मिलन है तू, रचता तू ही पालन करता, जगत का नियम विनाश तू ही ।।1।। अहं पुरूष में लोक मैं इन्द्रपुरूष बीच आदान कहा, लोक में सूर्य पुरूष में शक्ति लोक में रूद्र है ढंग नया, रोष पुरूष में, शशि लोक में पुरूष बीच आनन्द सहा, वसु लोक में पुरूष से सुख है दुख से सौ-2 कोस गया, अश्विनी कुमार लोक में जैसे सुन्दर कान्ती बास तूं ही ।।2।। जितने लोक में तारा गण हैं, पुरूष मैं उत्साह एक धणी, बसु लोक में पांच विषय और पुरुष मैं इन्द्री दस जणी, लोक में छाया अन्धकार पुरूष मैं मोह की तेग तणी, जैसे लोक में ज्योति है वैसे पुरूष में ज्ञान मणि, जैसे लोक में सृष्टी रचता और गर्भाधान में खास तू ही ।।3।। सतयुग बचपन त्रेता योवन द्वापर लोक में वृद्ध समैं, कलयुग रोगी अन्त मैं मरणां जो सुक्ष्म के बीच रमैं, इसी प्रकार लोक पुरूष मै अंग उखड़ै कभी फेर जमै, वेद शास्त्र उपनिषद् से कुछ ऐसी मिलती खबर हमें, कहै लखमीचन्द रटो सर्वव्यापक कहीं दूर नहीं है पास तू ही ।।4।।

फर्क नै खो दिए जी बन्दे

फर्क नै खो दिए जी बन्दे जितने परणधारी थे ।। टेक।। फरक करया शिव आत्म ज्ञाता नै, भाई उस त्रिलाकी दाता नै, विषय के पार्वती माता नै, सेल चभो दिए जी, सजनों भोले शिव पुरारी थे ।।1।। फरक चित्र विचित्र करगे, फरक के कारण दुखड़ा भरगे, सूखे पीपल मैं जल मरगे, काटें वो दिए जी, सिर पै चढ़े दोष भारी थे ।।2।। फरक करया राजा दुर्योधन नै, भतेरा समझाया कृष्ण नै, फेर सिर काट -काट अर्जुन नै, जाणैं कड़ै ल्हको दिए जी, वे भीष्म कर्ण द्रोणाचारी थे ।।3।। मान सिंह गुरू कर काम अकल से, लखमीचन्द अलग रहै छल से, फरक करया था इन्द्र नै राजा नल से, नगर डबो दिए जी, भरे चोटी तक जल जारी थे ।।4।।

बन्दे करले भजन हरी का दिल नै

बन्दे करले भजन हरी का दिल नै खोल कै जी ।।टेक।। एक धुरू भक्त हो लिया, जिसनै दाग जिगर का धो लिया, बच्चे पण मैं राम टोह लिया, बण मैं डोल कै जी ।।1।। दधिचि था ब्रह्मा का जाया,जिसनै ऋषियों का कहण पुगाया, अपणी ओउ्म नाम पै काया,दे दी छोल कै जी ।।2।। भक्ति सै चीज अनूठी,इस बात नै ना समझो झूठी, एक हरिशचन्द्र धर्म की बूटी, पीग्या घोल कै जी ।।3।। लखमीचन्द जग सारे का,यकीन रहया ना भाई चारे का, आजकल गल काटैं प्यारे का, मीठा बोल कै जी ।।4।। तन का उठै ना एक धेला, एक दिन उड़ज्या हंस अकेला, लखमीचन्द मानसिंह का चेला, छन्द धरै टटोल कै जी ।।5।।

बालक छोडे़ रोवते

बालक छोडे़ रोवते, चाकी में छोडया चून, नगोड़े झगडे तनै बहुत सताई रे ।।टेक।। या खेती बणी खुभात की, चैन पड़ै ना दिन रात की, साथण छोड़ी साथ की, सब संखियां का मजबून, नगोड़े इखड़े तनै बहुत सताई रे ।।1।। सखी दिन में ईख नुलावणा, सांझै पड़ै घर आवणा, पीस और पो कै खावणा, जले दुख दर्दां नैं भून, नगोड़े इखड़े तनैं बहुत सताई है ।।2।। दुख दर्दां नैं काया जाकड़ी, आले गोसे आली लाकड़ी, कार जमीदारे की पाकड़ी, ना रहा बदन में खून, नगोड़े इखड़े तनै बहुत सताई रे ।।3।। बड़े खोटे कर्म किए, लखमीचन्द बड़े दुख में जिए, मेरी मरती की दया लिए, मेरे राम किसे नै मत दिए जली बीरा आली जून, नगोड़े इखड़े तनै बहुत सताई रे ।।4।।

भजन बिन बन्दे काम नहीं

भजन बिन बन्दे काम नहीं जस का ।।टेक।। तृष्णा दूर गई ना खेदी, जिसनै कुबध करी उसनै ए सेधी, ओ त्रिलोकी भेदी बन्दे तेरी नस-नस का ।।1।। मतना रूप देख कै जीले, इब जख्म जिगर के सीले, अमृत कर पीले प्याला प्रेम रस का ।।2।। मैं के गलै सदा छुरा सै, राह चलना ना ठीक कुराह सै, बणा बुरा सै बैर आपस का ।।3।। मिले ज्ञान गुणियां मैं, सत्‍संग मिलै ऋषि मुनियां मैं, कहै लखमीचन्द दुनियां मैं जीणा सै दिन दस का ।।4।।

भूल गये रंग रास

भूल गये रंग रास, भूल गये जकड़ी, तीन चीज याद रहैगी नूंण तेल लकड़ी ।।टेक।। बालक थे बालकां मैं खेल्या करते, कसरत मुगदर दन्ड पेल्या करते, कदे घेर घिराला खेल्या करते पता दाब छकड़ी ।।1।। जवान हुये जब अन्धकार के कुएं मैं ओन्दे गये, तृष्णा के जाल के मैं चौगरदे तै फान्दे गए, फेर मोह के डोरे बान्धे गये जिसका नाम रखड़ी ।।2।। वृद्ध अवस्था हुई जब सारे शस्त्र छूट लिए, कामदेव नै पागल करकै जी भरकै लूट लिये, जब दांहू गोडे टूट लिए फेर हर की माला पकड़ी ।।3।। गुरू लखमीचन्द ना रटी ओम नाम की माला, अपनी आंख्यां देख्यां हमनै सब तै मोटा चाला, उसे का तार उसे का जाला उलझी पड़ी मकड़ी ।।4।।

मनुष्य जन्म मुश्किल से मिलता

मनुष्य जन्म मुश्किल से मिलता करोड़ों बन्ध छूट कै गुरू का सत्संग करो प्रेम से ज्ञान की घार पूंट कै ।।टेक।। मात पिता यज्ञ कर्म करावैं जो शुभ घरबारी हो सै, जै वेद रीत से संस्कार करै तै सुत अधिकारी हो सै, पांच वर्ष तक रक्षा करनी सबसे भारी हो सै, फेर गुरू धारणा उपनन करादे तै पूत पुजारी हो सै, फेर उस चेले नै चाहिए गुरू की सेवा करें जा टूट कै ।।1।। वो लड़का मात-पिता का लोभ छोड़ कै बात ज्ञान की सुणता, सतगुरू बाणी कहैं प्रेम की अक्षर-अक्षर गुणता, बारह वर्ष तक विद्या पढ़ कर दूध नीर तब छणता, बारह वर्ष और कष्ट भोगकर जब ब्रह्मचारी बणता, पर निन्दा, पर धन, पर त्रिया, ये लेज्या नहीं लूटकै ।।2।। इतना ज्ञान होण तै जिसनैं तजी जगत की आशा, राज पाट धनमाल स्त्री छोड़ दिया घरवासा, धूप ना छाया, गर्मी ना सर्दी, भूख लगै नहीं प्यासा, मन मैं इन्द्री और मन बुद्धि मैं जहां जीभ का बासा, इस दुनियां तै बिछड़न खातिर जा न्यारा बैठ उठ कै ।।3।। मनुष्य जन्म ले इस ढंग से जो ईश्वर के गुण गावै, काम क्रोध मद लोभ विषय पास कभी नहीं आवै, जीव का दर्शन फेर आत्मा जब परमात्मा पावै, कहै लखमीचन्द शरीर त्याग कै जब आनन्द रंग छावै, ना तै वीर्य के बल प्राण निकल्जयां, दसवां द्वार फूट कै ।।4।।

मनुष्य जन्म ले करकै

मनुष्य जन्म ले करकै हरी गुण गाना चाहिए, देह की खातिर विष्य भोग से ध्यान हटाना चाहिए ।।टेक।। विषय भोग तो विष्टा भोगी बराह तलक भी मिलते, श्रेष्ठ चीज दुनियां में तप सै जो मार्ग सिर चलते तप से अन्त:करण शुद्ध हो दुख देही के टलते, जब शुद्ध हो अन्तःकरण प्रेम आनन्द के रंग खिलते, ऋषि महात्माजन लोगों का कहा बजाणा चाहिए ।।1।। भाई बन्ध और कुटम्ब कबीला मात-पिता सुत दारा, अपणा उसका तेरा मेरा यो सब झूठा परिवारा, विषय भोग के फन्द में फंस कै कुछ ना चालै चारा, अन्तःकरण पै मैल चढ़ै बणै बोझ भरोटा भारा, बस इसको नर्क कहैं दुनियां में गात बचाणा चाहिए ।।2।। ऋषि महात्मा उसको कहते जो सुहृदय सभी को लखते, शान्ति स्वरूप बण श्रेष्ठ भजन कर सदाचार गुण रखते, सर्दी गर्मी दुख देही पै दण्ड भुगत कै पकते, अन्धकार दुख तेज स्वरूप सुख मुख से ना कह सकते, अपणा-पराया दुख-सुख सब एक समान चाहिए ।।3।। सब जीवों में जो 'मैं ईश्वर हूँ' वो जीव आत्मा जानों, मुझ में प्रीति करो प्रेम से सोई पुरूषार्थ मानों, विषय वासना इस दुनियां से अलग राखनी ठानों, देह के दुख दूर करने को धनलक्ष्मी से मन तानों, कह लखमीचन्द ऋषि महात्मा उन्हें बताणा चाहिए ।।4।।

मर्द व्यवाहरी नै सरता कोन्यां

मर्द व्यवाहरी नै सरता कोन्यां गृहस्थी आले खेल बिना, घरबारी दुख पाया करै सै बीर मर्द के मेल बिना ।।टेक।। आठों पहर कलेश रह उड़ै आनन्द दूर भागज्या, कलिहारी के अन्न पाणी की चिन्ता खाण लागज्या, हर रूसै कोए पुत्र ना लक्ष्मी वास त्याग्ज्या, हो शील सुभा की सती स्त्री तै सूता भाग जागज्या, जीव ब्रह्म जै करै एकता सरज्या माया हेल बना ।।1।। सातों रस रसना मैं हो तै अमृत ज्यों बाणी झड़कै, कलिहारी के बोल आत्मा मैं बिजली की तरियां कड़कै, बीर बेहूदी मर्द कुलछणा कोए मत जाइयो जड़कै, समझणियां माणस ज्यान बचाले मन चित बुद्धि तै लड़कै, कड़वे बोल बिना शास्त्र यो माणस मरज्या सेल बिना ।।2।। घरवासा जब चलया करै हो बीर मर्द की एक सलाह, दो की सन्धि बीच मैं कारण त्रिगुण माया दी फला, बिना मर्दां के उन बीरां का होता देख्या नहीं भला, मीरांबाई पार उतरगी वैं खुद कृष्ण जी बणे मलाह, यो चन्दा रात नैं करै चान्दनी के सरज्या बाती तेल बिना ।।3।। बड़े प्रेम से रची सृष्टि एक दूजे का संग करकै, गृहस्थ आश्रम चलणा चाहिए हृदय बीच उमंग करकै, नीच आत्मा जा फिरै भटकती आपस मैं जंग करकै, बिना मोक्ष मरज्या गी बावली गुरू लखमीचन्द नै तंग करकै, राम समझ कर पति की सेवा के फल लागै बेल बिना ।।4।।

मानज्यां मन बेईमान पछतावैगा

मानज्यां मन बेईमान पछतावैगा, शिवजी के कद मन गुण गावैगा ।।टेक।। ठिकाणे बिना ना तेरी ठीक लगणी, तृष्णा तेरे तै नहीं दूर भगणी, पांच-पांच सात तेरे सोनी जगणी, लूट-लूट खाले तनैं दस ठगणी, पांच रास्तां तै नर ठग-ठग लावैगा ।।1।। छ:यां के संजोग तै मन एक तू बणा, चारों ओड़ां खेंचणे तै डोरी ज्यूं तणा, वे भी मन सै भूल मैं तूं जिसनै जणां, ढाहवैगा तै वोहे मन जिसनै चिणां , इन पाचों का संग तज सुख पावैगा ।।2।। जीव के संजोग तै माया मिलगी, पाप के मैं पुन की कोए छाया मिलगी, इसीलिए आदमी की काया मिलगी, भूलग्या मन बेईमान तनै माया मिलगी, बन्धन के मैं आण घिरा इब कित जावेगा ।।3।। लखमीचन्द गुरू जी का जो दास रहैगा, सृष्टी मैं केवल एक आकाश रहैगा, दसों इन्द्री जीत ना निराश रहैगा, गुरू का बताया भेद पास रहैगा सच्चे घर पहुंचग्या तै ना फेर आवेगा ।।4।।

मेट मेरी भूल मनशा देवी तूं

मेट मेरी भूल मनशा देवी तूं, ननेरे आली री ।।टेक।। रहती दूर गावों के तीजन मैं, मारे असुर चढी जब रन मैं तेरा बण में घर निजमूल, माई जंगल के मैं डेरे आली री ।।1।। माई मेरे हाथ शीश पै धरिये, हेरी मेरा ज्ञान से हृदय भरिये, करिये तू कबूल, ल्याया भेंट सै जो तेरे आली री ।।2।। करो मेरे दिल का दूर अन्देशा, माई मेरी रक्षा करो हमेशा, खुशबु चम्पा केसा फूल, उजले चिकने मोहन चेहरे आली री ।।3।। लखमीचन्द पता टोहवैंगे, वृथा जिन्दगी ना खोवैंगे, मेरे फल होवैंगे वसूल, कृपा रहैगी जै तेरे आली री ।।4।।

मौत भूख का एक पिता है

मौत भूख का एक पिता है फिर तुझे कैसे ज्ञान नहीं, अधर्म करकै जीणा चाहता राज धर्म का ध्यान नहीं ।।टेक।। ज्ञान बिना संसार दुखी और ज्ञान बिना दुख-सुख खेणा, ज्ञान से ऋषि तपस्या करते ज्ञान से तुझे बिड़ा सेहना, ज्ञान से प्रजा का पालन करना साहूकार से ऋण लेना, ज्ञान से कार व्यवहार चलै और ब्याज मूल तक दे देना, ले कै कर्ज ले मार किसे का फेर रहती सच्ची श्यान नहीं ।।1।। ज्ञान के कारण पृथ्वी जल और वायु आकाश खड़े, ज्ञान बिना सौ कोस पड़े और ज्ञान के कारण पास खड़े, ज्ञान से ऋषि तपस्या करते बण ईश्वर के दास खड़े, मिलै मेरे को मोक्ष होण नै न्यूं करकै पुरी आश खड़े, धर्म रहो ज्यान जाओ मेरी इस देह का मान गुमान नहीं ।।2।। सत्यकाम नै गुरू की गऊओं को कितने दिन तक चरा दिया, जहां गई वहां चला गया प्रेम से उदर भरा दिया, उस सत्यकाम नै गुरू के वचन को धर्म नाव में तिरा दिया, फेर रस की बाणी सुणा सांड नै ब्रह्म का दर्शन करा दिया, ज्ञानी मनुष्य कहो कब कहते पशुओं में जीव जबान नहीं ।।3।। ज्ञान बिना मेरी टांग टूटगी ज्ञान बिना कूदी खाई, ज्ञान बिना मैं बुढ़ी होगी ज्ञान बिना लंगड़ी ब्याई, ज्ञान बिना तू मुझको खावै, दिल में ख्याल करो भाई, लखमीचन्द कहै भूल गए क्यूं धर्म शर्म की सही राही, इसा निराकार का बच्चा बणग्या कह मेरे मैं भगवान नहीं ।।4।।

म्हारा भारत खो दिया फर्क नै

म्हारा भारत खो दिया फर्क नै इसमै, कोए-कोए माणस बाकी सै ।।टेक।। घणे मित्र तै दगा कमाले, चीज लुक्हमा प्यारे की ठाले, बेटी बेच-बेच कै खालें, मुश्किल रीत बरतनी न्याय की सै ।।1।। नहीं कुकर्म करण तै डरते, दिन-दिन नीत बदी प धरते, शर्म ना बुआ बहाण की करते, या मेरी चाची ताई काकी सै ।।2।। बन्दे जो अकलबन्द हों चातर, नहीं मारैंगे ईंट कै पात्थर, सोचले मनुष्य दलण की खातर, सिर काल बली की चाकी सै ।।3।। गुरू मानसिंह छन्द छापतै, लखमीचन्द हो जिगर साफ तै, कलु का कुण्डा भरैगा पाप तै , व्यास नै न्यूं महाभारत में लिख राखी सै ।।4।।

ये मनुष्य विषय सुख मान कर

ये मनुष्य विषय सुख मान कर, परिश्रम उठा लेता है ।।टेक।। इन्द्रियों के बश मैं होकै कर्म का करै ना टाला, चतुर हो विरूध कर्म करता फिरै बण्या मतवाला, एक बार कर्म का आत्मा से बान्धया पाला, बुरे कर्म करने ही से दूजी बार जन्म लिया, आत्म तत्व जानने की इच्छा का ना लेश किया, आत्मा निरादार कर दी ज्ञान में ना ध्यान दिया, क्रिया मैं ख्याल निदान कर मन कर्म बना लेता है ।।1।। कर्म से शरीर बणां बन्धन ही का कारण पाया, पहला कर्म किया हुया मन को बस मैं करणा चाहया, कर्म नै बस करकै मन को उन्हीं कर्मों में फेर लाया, जब तक अज्ञानता से रहा उपाधि करता बेवकूप, हर मैं प्रीति रखता नहीं मनुष्य जीव आत्म स्वरूप, बन्धन से ना छूटता इतणैं अन्धेरा और छाया धूप, कहूं आगे का भेद पहचान कर लिंग मिथुन स्वभा लेता है ।।2।। मिथुन कारण हाथ पैर बाणी कर्म करते रहे, मिथुन कारण नासिका और नेत्र कारण भरते रहे, मिथुन कारण गुदा स्पर्श जिव्हा कारज सरते रहे, हाथ पैर मुख से भजन नासिका से योग कर्म, कर्ण से सतगुण की बाणी नेत्रों से हया शर्म, गुदा से मल त्याग बाव स्पर्श से हो दूर भ्रम, लिंग स्वरूप आत्मा जान कर मुक्ति पद पा लेता है ।।3।। महाभ्रम होता जिनकै विषय धन की चाट लगै, स्त्री पुरूष जन्म के साथी हृदया उपर आंट लगै, विषय भोग करता उतनी आंट उपर गांठ लगै, विषय भोग करने ही से वासना की ख्यास की, न्यारी-न्यारी ग्रन्थी हृदय में भूल के प्रकाश की, मन और इन्द्रियों में मोह की पैदायश की, कहै लखमीचन्द स्वरूप बखान कर, मोह सभी को सता लेता है ।।4।।

रंग-रंग के बणे मकान कोए

रंग-रंग के बणे मकान कोए लिपै कोए चिणै ।। टेक।। कोए कुआ चणै कोए धर्मशाला, कोए हेली पै काट दे चाला, कोए ब्याणह में धन का करदे गाला, किसे कै आज्या बहू नादान, कोए स्याणी झट लाल जणैं ।।1।। कोए बड़ा बणै कोए छोटा, किसे नै नफा रहै किसे नै टोटा, कोए भला बणैं कोए छोटा, कोए मरदां मैं मरद बलवान, किसे की हीणे पै ढाल तनैं ।।2।। कोए यारी करै कोए खवारी, कोए साझै करले कोए न्यारी, कोए सौदागर करै सामान, कोए कोठी पै दाम गिणैं ।।3।। मानसिंह प्याला प्रेम भांग का, किसनै सन्देह फिकर मांग का, लखमीचन्द नै फिकर सांग का, कोए पढ़कै सरदार बणैं ।।4।।

रै बन्दे तेरे भूल लागरी

रै बन्दे तेरे भूल लागरी, तेरा दुनियां में ना कोई ।।टेक।। लिटी खोटी दिल पै धार, जा दी लात रिशी कै मार, भूल मै मरगे थे साठ हजार, रोया कुणबे का मोही ।।1।। पापी क्यों मिलकै खड़या धूल में, सोवै सै क्यों पापी भूल में, क्यों बुचरा फूल में भौरां ले खशबोई ।।2।। नहीं दुर्योधन के काज सरै थे, बदी करण तै नहीं डरै थे, जब 100 पुत्र मरें थे भूल में , पाछे गन्धारी रोई ।।3।। लखमीचन्द दर्शन कर वर्ग के धाम का, कुछ ना बणता देह चाम का, अरे मूर्ख भजन करा ना राम का, ले के जन्म व्यर्था जिन्दगी खोई ।।4।।

लाख चौरासी खत्म हुए ना

लाख चौरासी खत्म हुए ना बीत कलप युग चार गये, नाक मैं दम आ लिया करें क्या मरते-मरते हार गये ।।टेक।। बहुत से पिता हुए हमारे, हम हुये पुत्र याद नहीं, बहुत सी माताओं का दूध पिया वो भी सारा याद नहीं, बहुत सी बहनों ने गोद खिलाये कोए भी घर याद नहीं, बहुत सी सन्तान करी पैदा फेर गए मर्याद नहीं, शुभ अशुभ कर्म करने से स्वर्ग नर्क कईं बार गए ।।1।। कभी अण्डे से पैदा हुए कभी पैदा हुये पसीने से, कहीं जल में डूब मरे कहीं उम्र कटी जल पीने से, कहीं जेर मैं लिपट रहे अपना कर्म करीने से, फेर भी मोक्ष हाथ नहीं आई मौत भली इस जीने से, कभी आर हुये कभी पार हुये कभी डूब बीच मझदार गये ।।2।। कहीं नीर में गलता, कहीं अग्नि में बलता, कहीं जोगी बन कै जोग लिया, हम आये थे भोग भोगने भोगों ने हमको भोग लिया, कहीं खाट मैं पड़े रहे कहीं रोगी बण कै रोग लिया, कहीं खुशियों में मग्न रहे कहीं शोगी बण कै शोग लिया, इस माया के चक्कर में आ ऋषि अपना जन्म बिसार गये ।।3।। काम क्रोध मद लोभ मोह नै करणा चाहूं था बस मैं, ये तो बस में हुये नहीं हम फंसगे इनके बस मैं, आशा तृष्णा मोह ममता नै मार गिराऊ गिरदिश मैं, ये गिरदिश में हुए नहीं हम फंसगे अपंजस मैं, कहै देवी राम गुरू लखमीचन्द भी लम्बे पैर पसार गए ।।4।।

लोक सम्पूर्ण लख अपणे मैं

लोक सम्पूर्ण लख अपणे मैं आपा ही लोक समाना, दुख-सुख करता आप, आत्मा यूं सत बुद्धि का बाना ।।टेक।। लोक सम्पूर्ण लख अपणे मैं आत्म करता लहते हैं, योगी लोक पुरुष एक तकै समदर्शी बण रहते हैं, धातु पुरूष कै जुम्में आप कष्ट नहीं सहते हैं, कर्म आधीन हेतू के संग से लोक मैं जन कहते हैं, ज्ञान का लक्ष्य बणा सतबुद्धि मोक्ष का ठौड़ ठिकाणा ।।1।। आत्मा के अदृष्ट कर्म से धातु रूप बताये, पुरातन कर्मों के द्वारा पुरूष रूप दर्शाये, कर्म से धातु लोक कर्म से पुरूष कर्म से पाये, जन्म-मरण कर्मों के बस हों सब व्यापार रूकाये, सर्व आत्म गत व्यापार शान्त हो तै प्रलय का हो जाणा ।।2।। उस लोक हेतु उत्पति वृद्धी दुख से वियोग होता है, काम क्रोथ मोह इच्छा कर्म से प्रकृति गोता है, काम क्रोध आदि इन्द्री में बल यन्त्र सोता है, प्रवृति से संशय बड़े अहंकार जंग झोता है, असमान उत्पात विप्र तै रक्षा उपाय पिछाणा ।।3।। अहंकार से दबा पुरूष ऊपर को नहीं चढ़ता है, जैसे छोटा दरखत बड़े पेड़ के नीचे नहीं बढ़ता है, प्रवृति से दब कै स्वतः में ध्यान नहीं गड़ता है, इतणै जन्म मरण के फन्दे से अलग नहीं कढता है, लखमीचन्द निवृति बिन के आत्म पद का गाणा ।।4।।

विश्वास तेरा कृष्ण जी,हो नन्द लाला

विश्वास तेरा कृष्ण जी,हो नन्द लाला, हो गोपाला ।।टेक।। तनै विख्यात किया यदु वंश, उस वंश कै बीच मिलाकै अंश, तनै शिशपाल कंस दिए हन जी, हो नन्द लाला हो गोपाला ।।1।। तनै दही दूध ब्रज में पिए, अर्जुन बणा सखा संग लिए, तनै तृप्त किए देव अग्न जी, हो नन्द लाला हो गोपाला ।।2।। रटै तनै ऋषि मुनी सिद्ध साध, प्रभू जी तू ही नियम धर्म मर्याद, तू ही आद अन्त तन मन जी, हो नन्द लाला हो गोपाला ।।3।। प्रभू जी थारा धाम परम परे, जगत को लिख ह्रदय में धरै, तेरा लखमीचन्द करै भजन जी, हो नन्द लाला हो गोपाला ।।4।।

वे नर हुए निधि तै पार

वे नर हुए निधि तै पार, जिन बन्दां की नीत डटी ।।टेक।। एक दधिची हुया ब्रह्मा का जाया, जिसनै ऋषियों का कहण पुगाया, राम नाम पै सौंप दी काया, बणैं थे हाडा के हथियार, वत्रासुर की रांद कटी ।।1।। हरीचन्द चाल्या था बहार लिकड़कै, कुणबे का हाथ पकड़कै जिनके मित्र कईं हजार, ना प्यारां तैं बिपत बंटी ।।2।। जिननै आछी करली करणी, तज कै मेर ली राम सुमरनी, जिननै अपणे लिए मन मार, उनकी आवागमन मिटी ।।3।। गुरू मानसिंह पछेती चेती, धणी बिना उजड़ज्या, खेती, सिर पै भूत रहै असवार, दिनों दिन जा सै उम्र घटी ।।4।।

सजनों बेरा ना के चाला रै

सजनों बेरा ना के चाला रै, घड़ी मैं दे सै गरद मिला ।।टेक।। ब्रह्मा विष्णु शिवजी मोहे, भष्मासुर भी मारे गए, मेर और सुमेर सुणो जिनके शीश तारे गए, जमदग्नी और पुलस्त मुनी पतान्जली विचारे गए, पारशर कनाद रिशी गौतम का फेरा था मन, बालकमकी दुखासा ऋषि, बतीसी मारकंडे जोगी जन अत्री और नारद ऋषि, चन्द्रमा का बिगड़या तन, जिनकी खुड़कै थी रात दिन माला रै, शिवजी की लई खींच कला ।।1।। परचेता और परशुराम, रावण नै भी भेष भरया, देवताओं का चित मोहया, आश्की में बाली मरया, कर्ण कैसे योद्धा खपगे, माया तै ना कोए टरया, दुर्योधन और दुशासन जरासन्ध की बुद्धि हिली, जन्मेजय भी कोढी होग्या, किसे की ना पेश चली, कीचक का था ढेर करया, पांडवों में भीम बली, जो था विराट भूप का साला रै, अग्नी में दिया तुरन्त जला ।।2।। यदू वंशी कट कै मरगे, सगड़ कै था कुटम्ब घणा, ऐसा भी कह सै लोग पटेरे का लोहा बणा, काल के चक्कर मैं आकै गैल पिसगे घुण और चणां, रांझा और मजनू होगे लागी रही नैना छड़ी, ऐश और अमीरी तजी सुख मैं कोन्या कटी घड़ी, राजा रोड़ पागल होग्या, लोलता लगी थी बड़ी, जर-जोरू-जमीन हवाला रै तुरत दे सै रोग फला ।।3।। चोरी जूआ जामनी, झूठ बोलै करै ठगी, देख कै पराया माल तन मैं बे ढब आग जगी दारू सुलफा गांजा पीवै खोटी स्यात आण पडी, लखमीचन्द कथै, आश्की कै जात नहीं, भूख प्यास नींद जावै चैन दिन रात नहीं, हाथ जोड़ माफी मांगू कोए बड़ी बात नहीं, कहै मानसिंह गुरू बसौदी आला रै, बडयां की लियो मान सलाह ।।4।।

सदा रे दिन नहीं बराबर जान

सदा रे दिन नहीं बराबर जान ।।टेक।। सतयुग मैं हरिश्चंदर हुए सजनो, करगे जो राजपाट पुन दान ।।1।। त्रेता मैं रामचन्द्र हुए सजनो, जिनके लक्ष्य धानी बाण ।।2।। द्वापर मैं वैं पांडव हुए सजनों, जिनके बल का नहीं अनुमान ।।3।। कलयुग कुमत छोड़ मन चंचल जी, लखमीचन्द रटले भगवान ।।4।।

सब कहण-कहण के यार है

सब कहण-कहण के यार है, ना तजी किसे तै जाती ।।टेक।। त्रिया से डर मान ऋषि जाकै तपे बनों बीच, योग से समाधि लाई बैठे दोनूं नैन मींच, वैं भी जाकै मोहे बन मैं तेज बल लिया खींच, वेद और पुराण ऐसा वर्णन करते इतिहास, करैं हैं तपस्या उनका स्वर्ग बीच होता वास, वहां भी जाकर भोगने को अप्सरायें मिलती खास, बचना इनसे दुष्वार है, छुपने को जगह नहीं पाती ।।1।। दुरवासा सृंगी मुनि मोहे जानो राजा अंग, वेद के थे ज्ञाता रावण की जा करी मती भंग , कैरों पांडों दोनों मरे त्रिया कारण हुया जंग, इन्द्र चन्दा दोनों चाले अहिल्या से करने भोग, चन्दा कै लगी थी स्याही इन्द्र कै हुया था रोग, उद्यालक नै नारी कारण खाक मैं मिलाया योग, सब मारे आर और पार हैं, दो नैन प्राण के घाती ।।2।। योगी और बैरागी मारे कामनी नै करकै तंग, ओरां नै सिखावैं ज्ञान त्रिया का मत करो संग, दीखणैं मैं योगी दीखैं बरतणें मैं और ही ढंग, मुंड़ का मुण्डावैं घणें शीश पै रखावैं झुंड, देखे हैं फकीर हमनैं होते बिल्कुल रूंड मुंड, गोली गन्डे झाड़े और झपटाँ का भी राखैं फंड, लमपट कामी ठग जार हैं, चेली संग काना बाती ।।3।। शूरे पूरे छत्री मारे वेद पाठी विपर जाण, बड़े-2 ज्ञानियों की त्रिया नै करी है हाण, बन्दर का बणाया मुख नारद की बिगाड़ी श्यान, थोथा तो जतावैं ज्ञान झूठे हैं लवाड़ी जौंण, ब्रह्मा की भी मति हड़ी औरों की तै गति कौण, ऐसा वृक्ष नहीं जिसकै लखमीचन्द लगी ना पौंन, आगै पीछै सभी खवार हैं, कुछ कहणे मैं ना आती ।।4।।

सै जिन्दगी दिन चार, होज्या पार

सै जिन्दगी दिन चार, होज्या पार, रट करतार, की माला ।।टेक।। एक कीचक खोवा खेड़ी, घलगी काल रूप की बेड़ी, छेड़ी द्रोपदी नार, दिया था मार, वो था सरदार, का साला ।।1।। सहम की राड़ करै था ठाली, जिसकी एक पेश ना चाली, उस बाली की ढाल, खाज्या काल, कर मत आल, बन्द कर चाला ।।2।। लाग्या था वो बदी कमावण, बण में गया जानकी ठावण, जल्या रावण का शहर, रही ना खैर, बांधकै बैर हारग्या पाला ।।3।। लखमीचन्द बैठया सूत, अपणा करले दिल मजबूत, यम के दूत करोड़, दे सिर नै फोड़, लेज्यां तोड़, हृदय का ताला ।।4।।

हे बन्दे तू ओस का पानी

हे बन्दे तू ओस का पानी, इस साँस की कदर ना जानी, दुनियां दिवानी-दुनियां दिवानी ।।टेक।। कालेज के मैं मास्टर जी तनै बी०ए० पढ़ावैं थे, माता पिता साधु सन्त तनै समझावैं थे, किसे की तनै एक ना मानी ।।1।। वायदा करकै आया था वो वचन भूलग्या, पाप कपट मैं लाग रहया वो भक्ति भजन भूलग्या , फिर रमता बणग्या भंवर सैलानी ।।2।। इस धरती पै बड़े-बड़े हो-हो कै चले गए, काल बली की चक्कीब के मैं दाणे की ज्यूं दले गए, बाकी रही ना नाम निशानी ।।3।। कहै लखमीचन्द तनै भक्तां के बड़े-बड़े कार सार दिए, नन्दा नाई सदन कसाई वैं भी पार उतार दिए, मेरा करिए बेड़ा पार भवानी ।।4।।

हे त्रिलोकी भगवान

हे त्रिलोकी भगवान, पार तनैं तारे नर नारी जो तेरा बणकै दास रहा ।।टेक।। कैरो छिक लिये चीर तार कै, बैठगे आखिर कार हार कै, मारकै दुर्योधन का मान, सभा मैं जब द्रोपद ललकारी, चीर मैं तूं छुपकै खास रहा ।।1।। जन्म सब दुख मैं काट लिया, भेद तेरा सारा पाट लिया, डाट लिया सूए कै मैं ध्यान, पार तनैं गनका भी तारी, सोच मैं तराए बास रहा ।।2।। तेरा किस-किस नै दर्शन पा लिया, बण सन्यासी शेर सजा लिया, बचाली या मोरध्वज की ज्यान, भगत नै ना हिम्मत हारी, इतनै तेरा विश्वास रहा ।।3।। लखमीचन्द कर ज्ञान शुरू, ज्ञान तै होगे पार ध्रुव, गुरू नारद तै पा लिया ज्ञान, लात जिसकै मौसी नै मारी, भगत के तू हरदम वास रहा ।।4।।

हैं सब बन्दे मेरे त्रिलोकी

हैं सब बन्दे मेरे त्रिलोकी, तेरे दर्शन खातिर झुर रे हैं ।।टेक।। मनैं तेरी पर्वत केसी आड ले, दिल कपटी की बांध ठाड ले , ले काढै तै बाहर काढ ले, जाले यें मकड़ी केसे पुर रे सै ।।1।। मेरी तू ले दया संभल कै, जा कित आख्यां आगे तै टल कै, वो दुश्मन लोग मरैंगे जल कै, जुणसे खुद पाप की चर रे सैं ।।2।। क्यों अपणे दिवे से जलावै, क्यूं दुनियां के लोग हंसावै, उडै दुश्मन की के पार बसावै, जित कै तेरे लठोरे टुर रे सैं ।।3।। भतेरी लाऊं सूं बात ज्ञान पै, कोन्यां जमती मेरे ध्यान पै, लखमीचन्द की एक ज्यान पै, पता ना किस-किस के गुण गुररे सै ।।4।।

हो बर्ण नहीं सकते प्रभु तेरी रजा मैं रजा

हो बर्ण नहीं सकते प्रभु तेरी रजा मैं रजा ।।टेक।। तेरी ओड़ का करूं जिकर मैं, देखूं जमी और शिखर मैं, कदे ना कदे फिकर मैं, पड़कै खाज्यागी कजा ।।1।। तूं सर्वव्यापक गात-गात मैं, आश्रम बर्ण बेदीन जात मैं, सब कुछ तेरे ही हाथ मैं, चाहे इनाम दे चाहे सजा ।।2।। हे सच्चे त्रिलोकी करतार, तनै सब ध्यावै सै संसार, उनके कर दिए बेड़े पार, जिननै हित से भज्या ।।3।। लखमीचन्द फिकर ताजी सै, हटज्या अलग दगा बाजी सै, इतणै परमेश्वर राजी सै, खूब गा और बजा ।।4।।

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