तालस्ताय और साइकिल : केदारनाथ सिंह

Tolstoy Aur Saikil : Kedarnath Singh


ताल्सताय और साइकिल

आपने कभी सोचा है महान ताज में क्यों नहीं रही वह पहली-सी चमक? वह पहली-सी गूंज रोम के घंटे में? वह आश्चर्य पहला सा दीवार में चीन की? पर क्यों क्यों आपकी गली से गुजरती हुई एक जर्जर साइकिल की छोटी-सी घंटी में वही जादू है जो उस दिन था जब ताल्सताय ने पहले पहल देखी थी साइकिल और ताल्सताय चूंकि ताल्सताय थे इसलिए वे एक उदास घोड़े से कर सकते थे बातें कर सकते थे कोशिश एक रंगीन चित्र को कागज से उठा कर जेब में रखने की दे सकते थे आदेश समुद्र की लहरों को एक अभय मुद्रा में हाथ उठा कर पर ताल्सताय गिर सकते थे साइकिल से साइकिल सीखते हुए यास्नाया पोलियाना की उस कच्ची सड़क पर उस दिन जो साइकिल ने धूल झाड़ कर इतिहास में प्रवेश किया तो जैसे आज तक हर आदमी के पीछे पीछे घंटी बजाती हुई उससे बाहर निकलने का रास्ता खोज रही है…

पांडुलिपियाँ

भूरी और उदास वह एक जर्जर - सी पांडुलिपि थी शायद पिछली सदी की इतनी जर्जर थी वह कि मैंने डरते-डरते पहला पन्ना खोला और क्या आप विश्वास करेंगे मुझे उसके भीतर सुनाई पड़ी एक स्त्री की चीख जो किसी अक्षर के नीचे दबी पड़ी थी पर सबसे रोमांचक अनुभव मुझे उस समय हुआ जब मैं खड़ा था एक प्राचीन हस्तलेख के सामने और उसके भीतर से एक आवाज ने जैसे मुझे पहचाना और लगा जैसे पूछा हो- 'कैसे हो केदारनाथ ?' मैं हिला ज़रूर पर चकित नहीं हुआ क्योंकि चमत्कार नहीं होतीं पांडुलिपियाँ वे बोलना - बतियाना चाहती हैं आदमी से अकेलेपन की यातना झेलनी पड़ती है उन्हें भी और कई बार सदियों तक अकसर सोचता हूँ वह क्या होता है उनकी स्याही में कि पन्ना - पन्ना बिखर जाने के बाद भी वे सदियों तक ताकती रहती हैं किसी राहुल की राह किसी तिब्बत के मठ में ! मेरा अनुरोध है कभी आप आएँ और मेरे साथ चलें उन थकी-पुरानी फटी- उदास पांडुलिपियों की दुनिया में आप पाएँगे वहाँ शब्दों ने पीसकर समय को बराबर कर दिया है और अब वहाँ सारा समय एक जगह इस तरह कि आपको लगेगा जैसे ब्रह्मसूत्र पढ़ रहा है मुक्तिबोध को और शाकुंतल का हिरन कुछ कह रहा है पद्मावत के तोते से और बीजक का कोई पद किसी पोथी से छिटककर मनु से बहस कर रहा है और रासो की कोई सबसे पुरानी प्रति धीरे-धीरे गुनगुना रही है किसी युवा कवि की अप्रकाशित कोई कविता हैरान न हों आप यही आपसदारी जिन्दा रखती है पांडुलिपियों को खो जाने के बाद भी कहते हैं चीन के महाकवि ली पै लिखते थे कविताएँ खजूर के पत्तों पर और बहा देते थे नदी में फिर पानी जो उनका पहला पाठक होता था बढ़ा देता था उन्हें किसी अगले पाठक की ओर इस तरह बच जाती थीं वे हालाँकि ध्यान से देखें तो सारी पांडुलिपियों पर कहीं न कहीं लगा होता है धूल के कॉपीराइट का- एक मजबूत ठप्पा जिसके विरोध में कहीं सब छिपाए रखती हैं किसी बेचैन हाथ की हलकी-सी गरमाहट अपने पन्नों के भीतर के किसी चोरपन्ने में पर मुझे लगता है इस समय वही खतरे में है वही एक हाथ की ज़रा-सी गरमाहट जिसे भीतर जुगाए हुए दुनिया की असंख्य गुमशुदा पांडुलिपियाँ- कहीं आज भी पड़ी हैं किसी पेड़ की छाल किसी नदी के कंठ किसी जेल की दीवार या किसी पत्थर की स्मृति में ।

एक ज़रूरी चिट्ठी का मसौदा

लिखूंगा एक ना एक दिन जरूर लिखूंगा वो है एक ज़रुरी चिट्ठी जो मुझे लिखनी है पृथ्वी के सारे निवासियों के नाम इतने दिन हो गए टालते टालते पर लगता है अब अधिक नहीं टाल पाऊंगा अभी कुछ दिन पहले तक मेरे पास सबके पते थे कुछ किताबों में खो गए कुछ सूचनाओं की आंधी में हो गए लापता बाद में पता चला कई बार पते भी लापता हो जाते हैं फिर भी लिखूंगा एक-एक गंध एक-एक स्पर्श को लिखूंगा लिखूंगा मेरे शहर में दुख रोज़- बेरोज़ नाखून की तरह बढ़ता जा रहा है मेरा पड़ोसी अक्सर जग पड़ता है आधी रात और चिल्लाता है- बचाओ! बचाओ ! शायद उसने दुख को देख लिया है लिखूंगा कि उससे संपर्क किया जाए ताकि दुख का, दुनिया के सारे दुख की जड़ का पता चल सके फिर लिखूंगा कि खुशी भी इन दिनों उतनी ही अटपटी और असहाय लगती है फिर भी मैं खुश हूं क्योंकि मिलना चाहता हूं दुनिया के एक-एक शख्स से और यद्यपि मैं किसी से कभी नहीं मिला फिर भी हवा की तरह, पानी की तरह मैं सबको जानता हूं और जिसे जानता हूं, उसे भूलने का गुण पहले ही भूल चुका हूं यह एक सजा है लिखूंगा, जो सिर्फ मुझे दी गई है इस सजा में थोड़ा-थोड़ा हिस्सा सबका होना चाहिए अन्त में लिखूँगा कि पृथ्वी के एक छोटे-से नागरिक के नाते मेरा सुझाव है कि हो सके तो हर एक धड़कन के साथ एक अदृश्य तार जोड़ दिया जाए कि एक को प्यास लगे तो हर कंठ में जरा-सी बेचैनी हो अगर एक पर चोट पड़े तो हर आँख हो जाए थोड़ी-थोड़ी नम और किसी अन्याय के विरुद्ध अगर एक को क्रोध आए तो सारे शरीर झनझनाते रहें कुछ देर तक लिखूंगा एक-एक सांस एक-एक धड़कन को लिखूंगा एक न एक दिन जरूर लिखूंगा बस जरा फुर्सत तो मिले

पानी की प्रार्थना

प्रभु, मैं - पानी - पृथ्वी का प्राचीनतम नागरिक आपसे कुछ कहने की अनुमति चाहता हूं यदि समय हो तो पिछले एक दिन का हिसाब दूँ आपको अब देखिए न इतने दिनों बाद कल मेरे तट पर एक चील आई प्रभु , कितनी कम चीलें दिखती हैं आजकल आपको पता तो होगा कहाँ गईं वे ! पर जैसे भी हों कल एक वो आई और बैठ गई मेरे बाजू में पहले चौंककर उसने इधर उधर देखा फिर अपनी लम्बी चोंच गड़ा दी मेरे सीने में और यह मुझे अच्छा लगता रहा प्रभु लगता रहा जैसे घूँट घूँट मेरा जन्मांतर हो रहा है एक चील के कंठ में कंठ से रक्त में रक्त से फिर एक नई चील में फिर काफ़ी समय बाद दिन के कोई तीसरे पहर एक जानवर आया हकासा पियासा और मुझे पीने लगा चभर चभर इस अशिष्ट आवाज के लिए क्षमा करें प्रभु यह एक पशु के आनन्द की आवाज थी जिससे बेहतर कुछ नहीं था उसके जबड़ों के पास इस बीच बहुत से चिरई चुरुंग मानुष अमानुष सब गुजरते रहे मेरे पास से होकर बल्कि एक बार तो ऐसा लगा कि सूरज के सातों घोड़े उतर आए हैं मेरे करीब -- प्यास से बेहाल पर असल में जो आया वह एक चरवाहा था अब कैसे बताऊँ प्रभु -- क्योंकि आपको तो प्यास कभी लगती नहीं कि वह कितना प्यासा था फिर ऐसा हुआ कि उसने हड़बड़ी में मुझे चुल्लूभर उठाया और क्या जाने क्या उसे दिख गया मेरे भी तर कि हिल उठा वह और पूरा का पूरा मैं गिर पडा नीचे शर्मिंदा हूं प्रभु और इस घटना पर हिल रहा हूं अब तक पर कोई करे तो भी क्या समय ऐसा ही कुछ ऐसा है कि पानी नदी में हो या किसी चेहरे पर झाँककर देखो तो तल में कचरा कहीं दिख ही जाता है अन्त में प्रभु अन्तिम लेकिन सबसे जरूरी बात वहाँ होंगे मेरे भाई बन्धु मंगलग्रह या चाँद पर पर यहाँ पृथ्वी पर मैं यानि आपका मुँह लगा यह पानी अब दुर्लभ होने के कगार तक पहुंच चुका है पर चिन्ता की कोई बात नहीं यह बाजारों का समय है और वहाँ किसी रहस्यमय सृोत से मै हमेशा मौजूद हूं पर अपराध क्षमा हो प्रभु और यदि मै झूठ बोलूं तो जलकर हो जाऊं राख कहते हैं इसमें --- आपकी भी सहमति है !!

चीटियों की रुलाई

सुनो - इस शहर को यहाँ से उठाओ और रख दो मेरे कन्धे पर मै इसे कहीं ले जाना चाहता हूं मै ले जाना चाहता हूं इस शहर को इस शहर से दूर जैसे गौरैया ले जाती है अपना मटर का दाना सुनो आज सुबह उठा तो आसमान मेरी खिड़की से इस तरह दिखा जैसे कोई तौलिया सूख रहा हो कौए की आवाज़ ऐसी सुनाई पड़ी जैसे भोंपू की आवाज़ हो एक जाता हुआ वायुयान ऐसा लगा जैसे वह आता हुआ वायुयान हो मेरी तरफ ! सुनो लगता है यह शहर अपनी जगह से खिसककर किसी गलत अक्षांस पर आगया है कि अपनी धुरी से उतर गये हैं इसके चक्के और इस इतने बड़े शहर में अब इतनी भी जगह नहीं कि एक गर्भवती चींटी कहीं रख दे अपना अंडा सुनो , देर बहुत हो चुकी है बस जरा हाथ बढाओ और इस शहर को इसकी नींव की सारी ऊष्मा समेत यहाँ से उठाओ और रख दो मेरे कन्धे पर मैं इसे ले जाना चाहता हूं किसी मैकेनिक के पास और वह अगर न मिले तो किसी बूढ़े खब्ती के पास ही ले जाना चाहता हूं इसे सुनो मुझे खब्ती बड़े काम के लगते हैं इन दिनों नहीं मुझे कोई भ्रम नहीं कि मैं इसे ढोकर पहुँचा दूंगा कहीं और या अपने किसी करिशमे से बचा लूंगा इस शहर को मै तो बस इसके कौऔं को उनका उच्चारण इसके पानी को उसका पानीपन इसकी त्वचा को उसका स्पर्श लौटाना चाहता हूं मै तो बस इस शहर की लाखोंलाख चीटियों की मूक रुलाई का हिंदी अनुवाद करना चाहता हूं सुनो , क्या तुम सुन रहे हो उसे ?

बारिश में स्त्री

-कि अचानक आ गई बारिश छाता नहीं था उसके पास मेरे पास होने का सवाल ही नहीं था सो भींगते रहे हम भींगते हुए वह एक किताब की तरह खुली थी जिसके अक्षर पूरी तरह धूल-पुंछ गए थे और खुशखत बारिश मानो नए सिरे से उसके वक्ष पर कन्धों पर ठुड्डी पर बालों पर लिखे जा रही थी कोई तरल इबारत जिसे पढ़ रही थीं मेरी आँखें और सुन रहे थे मेरे कान पानी के इतिहास का वह एक दुर्लभ क्षण था जब मेरी आँखों के आगे एक नई वर्णमाला का जन्म हो रहा था एक स्त्री-शरीर से शरीर की अपनी वह एक चम्पई स्याही थी जिसमें छप छप छप छप छपते जा रहे थे अक्षर और अपनी त्वचा से छनकर वह उन्नत शरीर अपनी सारी समृद्धि में धीरे-धीरे बदलता जा रहा था पानी के अपने एक महावाक्य में एक तृप्त मेंढक बारिश के बीच टर्राना भूलकर अवाक् देखे जा रहा था इस समूचे दृश्य को

पिता के जाने पर

यह वह जगह थी जहाँ अन्त भी धीरे-धीरे घुल जाता है हवा में और वहीं से उठकर चले गए थे वे अपने जर्जर पैरों से सदी को नापते हुए उनके जाने के दूसरे दिन सबसे पहले नल में पानी आया सूँ... सूँ... करता हुआ और यह उनके जाने के बाद की सबसे बड़ी घटना थी जो पृथ्वी पर घटित हुई फिर अख़बारवाला आया और फेंककर चला गया अख़बार सच को जाने बिना उसका इस तरह जाना उतना ही सहज था जितना सुबह-सुबह नल में पानी का आना फिर अगले दिन डाकिया आया और डाल गया एक चिट्ठी जो उनके नाम थी और चकित था मैं कि मृत्यु के बाद भी मृत्यु को नकारती हुई आ सकती है चिट्ठी फिर सातवें दिन कोई पंडित आया और मुझसे कहा गया इस समय वे पहुँचे होंगे स्वर्ग से पहले के उस अन्तिम पड़ाव तक जहाँ भूख और प्यास से चीखती हैं आत्माएँ मेरी समझ में कुछ नहीं आया पर पूछना व्यर्थ था जानना शायद उससे भी व्यर्थ सो जो-जो कहा गया करता गया मैं और चढ़ाता रहा हवा में अन्न और जल और दूध और फल और कहीं एक ही साथ हँसता रहा रोता रहा सारे कर्मकांड पर जब थे तो बातें कम ही होती थीं चुप्पा मैं ही था वे तो बोलते ही रहते थे निरन्तर चाहे चुप ही बैठे हों यह क्या होता है आदमी के भीतर कि उसकी चमड़ी के झूलते चले जाने के साथ-साथ शब्दों में बढ़ने लगती है अर्थ की ‌चमक और होठों की पपड़ियों से छनकर आता है जाने वह क्या कुछ एक शिशु के पहले स्तनपान की महक जैसा इस महक से मेरा परिचय पहली बार तब हुआ जब भरी दोपहरी ‌में मैंने एक दिन उन्हें देखा एक पक्षी से बतियाते हुए मैं टोकना चाहता था पर लगा एक पक्षी से बतियाते हुए पिता को टोकना सुन्दरता के ख़िलाफ़ है और इसलिए इस घूमती हुई पृथ्वी की गति के ख़िलाफ़ भी इसका सबसे तीखा अनुभव मुझे उस समय हुआ जब मैंने उन्हें मुखाग्नि दी वही मुख जिसने मुझे चूमा था बार-बार जला दिया मैंने उसे शास्त्र का आदेश था और मेरे भीतर का संशय दोनों मिलकर मन्त्र पढ़ते रहे...

जे.एन.यू. में हिंदी

जी, यही मेरा घर है और शायद यही वह पत्थर जिस पर सिर रखकर सोई थी वह पहली कुल्हाड़ी जिसने पहले वृक्ष का शिकार किया था इस पत्थर से आज भी एक पसीने की गंध आती है जो शायद उस पहले लकड़हारे के शरीर की गंध है-- जिससे खुराक मिलती है मेरे परिसर की सारी आधुनिकता को इस घर से सटे हुए बहुत-से घर हैं जैसे एक पत्थर से सटे हुए बहुत-से पत्थर और धूप हो की वर्षा यहाँ नियम यह कि हर घर अपने में बंद अपने में खुला पर बगल के घर में अगर पकता है भात तो उसकी ख़ुशबू घुस आती है मेरे किचन में मेरी चुप्पी उधर के फूलदानों तक साफ़ सुनाई पड़ती है और सच्चाई यह है कि हम सबकी स्मृतियाँ अपने-अपने हिस्से की बारिश से धुलकर इतनी स्वच्छ और ऐसी पारदर्शी कि यहाँ किसी का नम्बर किसी को याद नहीं ! विद्वानों की इस बस्ती में जहाँ फूल भी एक सवाल है और बिच्छू भी एक सवाल मैंने एक दिन देखा एक अधेड़-सा आदमी जिसके कंधे पर अंगौछा था और हाथ में एक गठरी ‘अंगौछा’- इस शब्द से लम्बे समय बाद मेरे मिलना हुआ और वह भी जे. एन. यू. में ! वह परेशान-सा आदमी शायद किसी घर का नम्बर खोज रहा था और मुझे लगा-कई दरवाज़ों को खटखटा चुकने के बाद वह हो गया था निराश और लौट रहा था धीरे-धीरे ज्ञान की इस नगरी में उसका इस तरह जाना मुझे ऐसा लगा जैसे मेरी पीठ पर कुछ गिर रहा हो सपासप् कुछ देर मैंने उसका सामना किया और जब रहा न गया चिल्लाया फूटकर-- ‘विद्वान लोगो ! दरवाज़ा खोलो वह जा रहा है कुछ पूछना चाहता था कुछ जानना चाहता था वह रोको.. उस अंगौछे वाले आदमी को रोको... और यह तो बाद में मैंने जाना उसके चले जाने के काफ़ी देर बाद कि जिस समय मैं चिल्ला रहा था असल में मैं चुप था जैसे सब चुप थे और मेरी जगह यह मेरी हिंदी थी जो मेरे परिसर में अकेले चिल्ला रही थी ।

शहरबदल

वह एक छोटा-सा शहर था जिसे शायद आप नहीं जानते पर मैं ही कहाँ जानता था वहाँ जाने से पहले कि दुनिया के नक्शे में कहाँ है वह। लेकिन दुनिया शायद उन्हीं छोटे-छोटे शहरों के ताप से चलती है जिन्हें हम-आप नहीं जानते। जाने को तो मैं जा सकता था कहीं भी क्या बुरा था भैंसालोटन ? हर्ज़ क्या था गया या गुंटूर जाने में पर गया मैं गया नहीं ( वैसे भी संन्यास मैंने नहीं लिया था ) कलकत्ते से मिला नहीं छंद जयपुर जा सकता था पर गालता के पत्थरों ने खींचा नहीं मुझे शहर अनेक थे जिनके नामों का ज़ादू उन युवा दिनों में प्याज़ की छौंक की तरह खींचता था मुझे पर हुआ यों कि उन नामों के बारे में सोचते-सोचते जब एक दिन थक गया तो अटैची उठाई और चप्पल फटकारते हुए चल दिया पडरौना -- उसी शहर में जिसके नाम का उच्चारण एक लड़की को लगता था ऊँट के कोहान की तरह अब इतने दिनों बाद कभी-कभार सोचता हूँ मैं क्यों गया पडरौना ? कोई क्यों जाता है कहीं भी अपने शहर को छोड़कर -- यह एक ऐसा रहस्य है जिसके सामने एक शाम ठिठक गए थे ग़ालिब लखनऊ पहुँचकर। पर जो सच है वह सीधा-सा सादा-सा सच है कि एक सुबह मैं उठा बनारस को कहा राम-राम और चल दिया उधर जिधर हो सकता था पडरौना -- वह गुमनाम-सा शहर जहाँ एक दर्ज़ी कि मशीन भी इस तरह चलती थी जैसे सृष्टि के शुरू से चल रही हो उसी तरह और एक ही घड़ी थी जिससे चिड़ियों का भी काम चलता था और आदमी का भी और समय था कि आराम से पड़ा रहता था लोगों के कन्धों पर एक गमछे की तरह। पर शहर की तरह उस छोटे-से शहर का भी अपना एक संगीत था जो अक्सर एक पिपिहिरी से शुरू होता था और ट्रकों के ताल पर चलता रहता था दिन भर जिसमें हवा की मुर्कियाँ थीं और बैलगाड़ियों की मूर्च्छना और धूल के उठते हुए लंबे आलाप और एक विलम्बित-सी तान दोपहरी-पसिंजर की जो अक्सर सूर्यास्त के देर बाद आती थी इस तरह एक दुर्लभ वाद्यवृन्द-सा बजता ही रहता था महाजीवन उस छोटे-से शहर का जिसकी लय पर चलते हुए कभी-कभी बेहद झुंझला उठता था मैं कि वे जो लोग थे उनके घुटनों में एक ऐसा विकट और अथाह धीरज था कि शाम के नमक के लिए सुबह तक खड़े-खड़े कर सकते थे इंतज़ार नमस्कार ! नमस्कार ! मैं कहता था उनसे उत्तर में सिर्फ़ हँसते थे वे जिसमें गूँजता था सदियों का संचित हाहाकार...

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