जिप्सी : अलेक्सांद्र पूश्किन

(मूल रूसी भाषा से अनुवाद : मदनलाल मधु)

The Gypsies : Alexander Pushkin


एक भीड़-सा शोर मचाता जाता है बेसाराबिया में, वह यायावर जिप्सी दल, फटे तम्बुओं में सब डेरा डालेंगे वहां, जहां पर नदी बह रही है कल-कल । आज़ादी-सा ख़ुशी भरा यह रात्रि-शिविर नींद शान्त है इनकी नीले गगन तले, क़ालीनों से अर्ध-ढकी गाड़ियां खड़ीं और उन्हीं के बीचोंबीच अलाव जले, यहां बड़ा परिवार जमा, भोजन पकता घोड़े चरते, वहीं, निकट मैदान हरा, तम्बू के ही पास पालतू भालू भी आज़ादी से मस्त धूल में लोट रहा। स्तेपी में तो जैसे जीवन धड़क रहा यहां सुखी जिप्सी परिवारों की हलचल, सुबह बढ़ें ये आगे, ललनायें गायें, बच्चे चंचल शोर मचाते जायेंगे ठोक-पीट कुछ होगी, घन गुंजायेंगे, किन्तु अभी खानाबदोश इन लोगों पर हुआ नींद का जादू, सन्नाटा बढ़ता, गहरी नीरवता में कुत्तों की भौं-भौं और हिनहिनाना घोड़ों का सुन पड़ता। नहीं कहीं पर दीप एक भी अब जलता सब कुछ शान्त गगन में केवल शशि चलता, नभ की ऊंचाई से वह एकाकी ही शान्त शिविर को इस क्षण आलोकित करता । एक वृद्ध ही जागे अपने तम्बू में अंगारों के सम्मुख है वह तो बैठा, कम होती उनकी गर्मी से तन गर्मा ताक रहा मैदान, दूर तक नज़र टिका, रात्रि भाप से जो है मानो ढका-ढका । है जवान बेटी ज़ेम्फ़ीरा बूढ़े की वह स्वतन्त्रता, आज़ादी की दीवानी, दूर, देर तक वीराने में वह घूमे और हमेशा करती अपनी मनमानी, आयेगी वह वापिस, रात घिरी लेकिन शीघ्र चांद भी छिपे दूज का छोड़ गगन, ज़ेम्फ़ीरा तो नहीं, अभी तक कहीं नहीं ठण्डा होता जाता बूढ़े का भोजन । लो, वह आई, पर उसके पीछे-पीछे एक युवक भी तेजी से बढ़ता आये, बूढ़ा जिप्सी उसे न जाने-पहचाने किन्तु तभी बेटी यह उसको बतलाये - "बापू मेरे साथ इसे अपनी इच्छा से लाई हूं टीले के पीछे, स्तेपी में मिलन हुआ, रात बिताने को डेरे में लिया बुला, बनना चाहे हमीं जिप्सियों जैसा यह इसने तोड़े हैं कुछ क़ानूनी बन्धन बहुत कठिन है, मुश्किल में इसका जीवन, साथी इसे बनाया, साथ निभाऊंगी होगी मुझको ख़ुशी, काम यदि आऊंगी, मेरे संग रहेगा, यह मेरा बनकर बना रहेगा मेरा साथी, जीवन भर ।" बूढ़ा मैं ख़ुश, रात बिताओ तुम इस तम्बू में सुबह, भोर तक यहीं हमारे ही संग में, फिर तुम जैसा भी चाहो, निर्णय करना रहना चाहो रहना, जाना तुम वरना । रूखा-सूखा जो हम खायें, तुम खाओ मिले हमें जो कपड़ा-लत्ता, तुम पाओ, हो यदि निर्णय रहो हमारे ही बन के हो जाना अभ्यस्त हमारे जीवन के निर्धनता, आवारापन, बिन बन्धन के, किन्तु सुबह, कल, पौ फटते हम चल देंगे, साथ हमारे तुम भी सब के संग चलना, जो भी चाहो, तुम अपना धंधा चुनना, गाने गाओ, कूट-कूट लोहा गढ़ना या ले भालू गांव-गांव में तुम फिरना । अलेको साथ रहूंगा तुम लोगों के, यह निर्णय । ज़ेम्फ़ीरा मेरा बनकर सदा रहेगा अब यह तय नहीं छीन पायेगा कोई प्रियतम, मीत, प्रणय, किन्तु हो चुकी देर ... दूज का चांद ढला, मैदानों के ऊपर सब दिशि तम फैला, और नींद अब मुझको बरबस रही सुला ... ...................... सुबह हो गयी । दबे-दबे पांवों बूढ़ा गिर्द शान्त तम्बू के वह था घूम रहा । "जागो बेटी, सूरज ऊपर को उठता, जागो तुम मेहमान कि इसका वक़्त हुआ !.. बच्चो, आलस तन्द्रा को दो दूर भगा !.." शोर मचाते जिप्सी अब निकले बाहर तम्बू गये समेटे, घोड़े जोत दिये, चलने को तैयार कि सारे लोग हुए। एक साथ चल पड़ा कारवां लोगों का खाली मैदानों में जमघट लोगों का । दोनों ओर गधों के टोकरियां लटकें जिनमें बच्चे खेल रहे मन बहलायें, पति-पत्नी औ' भाई-बहनें, वृद्ध, युवा इनके पीछे, सब पैदल चलते जायें, हल्ला-गुल्ला, शोर-शराबा और धुनें जिप्सी - गीतों की भी उनमें गूंज रहीं, भालू की जंजीर बड़ी बेचैनी से खनके, गूंजे भालू की चिंघाड़ यहीं, रंग-बिरंगे चटकीले चिथड़े पहने अध- नंगे हैं बच्चे भी, सब बूढ़े भी, भौंकें कुत्ते, मश्कबीन करती पीं-पीं और गाड़ियों के पहिये करते चीं-चीं, गड़बड़, बेढंगा सब उल्टा टेढ़ा है फिर भी इनमें हलचल धड़कन, स्पन्दन है नहीं हमारी तरह बुझा इनका मन है, दास-गीत-सा नीरसता में पगा हुआ नहीं एक ढर्रे सा इनका जीवन है ! ........................ निर्जन जो मैदान हुआ था अब फिर से उसे अलेको ताक रहा था दुखी-दुखी, क्यों उदास मन उसका, दुख का क्या कारण पूछे खुद से, किन्तु न यह हिम्मत उसकी, कृष्णलोचनी ज़ेम्फ़ीरा थी संग उसके वह बिल्कुल आज़ाद, मुक्त था बन्धन से, प्यारा प्यारा सूर्य रश्मियां मधुर, सुखद लुटा रहा था ऊपर से नभ-आंगन से, क्यों उदास है क्यों व्याकुल उसका मन है ? किस चिन्ता में डूबा, वह यों अनमन है ? विहग रहे आज़ाद न चिन्ता, श्रम करता जहां देर तक बसे, न ऐसा घर रचता, लम्बी रातें, सो शाखा पर सुख पाता और सुबह जब सूर्य गगन में आ जाता, तब मानो आदेश ईश का वह सुनकर चौंक जागता और चहक गाना गाता । जब वसन्त की सुन्दरता, सुषमा लुटती लुप्त ग्रीष्म की तपिश, उमस जब हो जाती, कुहर-कुहासा, बूंदा-बांदी, धुंध, घटा मौसम बुरा-बुरा, जब पतझर ले आती - लोग उदासी, सूनापन अनुभव करते किन्तु विहग तब दूर कहीं उड़ जाता है, नील समुन्दर पार, क्षेत्र में गर्म कहीं वह वसन्त आने तक समय बिताता है। वह स्वतन्त्र, निश्चिन्त विहग के ही जैसा वह मौसम का पक्षी, वह निर्वासित था, नहीं कहीं पर पाया नीड़ भरोसे का बंधे, टिके जीवन से रहा अपरिचित था । जिधर चल पड़ा, उसी दिशा में राह बनी जहां रात आ घिरी बसेरा वहीं किया, सुबह हुई, जागा तो ईश्वर इच्छा को उसने अपना वह सारा दिन सौंप दिया, उसके मन का चैन और आलस उर का जीवन- चिन्ता से अनजाना बना रहा, किन्तु कभी तो दूर कहीं जगमग करता ख्याति - सितारा, प्यारा मन भरमाता था, कभी-कभी सुख-वैभव का, रंग-रलियों का बरबस भाव उमड़कर मन में आता था । लेकिन उसके एकाकी जीवन- नभ पर मेघ, बवंडर भी घिर आते थे अक्सर, पर वह बरखा-बारिश में भी उसी तरह सोता था निश्चिन्त कि जब निर्मल अम्बर, वह क़िस्मत की अंधी, कपटी ताक़त की करता हुआ उपेक्षा, जीता जाता था; पर मेरे भगवान, आत्मा में उसकी चाहों का कैसा रेला बल खाता था, उसके व्यथित हृदय में, उसके अन्तर में आवेशों का था कैसा तूफ़ान भरा ! बहुत समय से, बहुत दिनों तक क्या उनको वश में किया ? नहीं, जागेंगे, ठहर ज़रा ! ...................... ज़ेम्फ़ीरा मेरे मित्र, कहो, क्या तुमको रंज नहीं उसका, जो कुछ सदा-सदा को छोड़ दिया ? अलेको लेकिन मैंने क्या छोड़ा ? ज़ेम्फ़ीरा अपना वतन, लोग अपने औ' शहर नगर यह सब कुछ ही कम है क्या ? अलेको दुख इसका क्या हो सकता ? काश जान तुम यह सकतीं, काश, कल्पना कर सकतीं ! कैसी घुटन वहां पर है, उन नगरों में ! रेल-पेल लोगों की औ' भारी जमघट, नहीं पहुंचता उन तक मधुमय मधुर पवन पुष्प - सुरभि जब फूलें सुन्दर वन- उपवन, उन्हें प्यार से लज्जा, चिन्तन से डरते और तिजारत आज़ादी की वे करते, अपने आराध्यों के सम्मुख झुक जायें बदले में धन-दौलत, ज़ंजीरें पायें, क्या कुछ छोड़ा और तजा है क्या मैंने ? बस, विश्वासघात की पीड़ा, मन-बन्धन दौड़-धूप का धका-पेल का पागलपन, चमक-दमक से ढका हुआ लज्जित जीवन। ज़ेम्फ़ीरा किन्तु वहां पर ऊंचे-ऊंचे महल खड़े रंग-बिरंगे, जहां-तहां क़ालीन पड़े, खेल-तमाशे वहां, दावतें क्या कहने! वहां लड़कियां कपड़े भी बढ़िया पहने !.. अलेको ऐसे जशनों और ख़ुशी के क्या माने ? मजा भला क्या, लोग प्रेम से अनजाने, और लड़कियां... तुम तो हो सबसे बढ़कर, बिना हार - सिंगार, बिना भूषण सुन्दर बिना मोतियों के तुम मोती-सी मनहर । मेरे मन की मीत, दगा तुम मत करना बस इतना अनुरोध, कपट, छल से डरना, सुख-दुख, प्यार-मुहब्बत में साथी रहना सहज बनेगा निर्वासन का दुख सहना । बूढ़ा बेशक तुमने धन-दौलत में जन्म लिया फिर भी हममें रमे, प्यार करते हमको, किन्तु चैन के, सुख के होते आदी जो नहीं रास आती आज़ादी, उन सब को । क़िस्सा एक सुना, वह तुम्हें सुनाता हूं : गर्म देश से निर्वासित कोई आया "छोड़ो देश" यही राजा ने फ़रमाया, नाम भला-सा था, पर याद न अब आता याद अगर आ जाता, वह भी बतलाता । था वह बूढ़ा, उसकी खासी उम्र ढली पर जवान दिल और आत्मा बहुत भली, गाने का गुण उसे मिला अद्भुत, अनुपम थी आवाज़ कि जैसे निर्झर स्वर, सरगम । यहां, इसी डेन्यूब नदी पर रहता था कभी न कड़वी, बुरी बात वह कहता था, लोग हमारे, सभी प्यार उसको करते उसकी बातों पर, क़िस्सों पर वे मरते, नहीं किसी को कभी सताया, ठुकराया बच्चे-सा भोला, झेंपू, दुर्बल काया, लोग पराये उसे खिलाते, बहलाते उसके लिये शिकार मछलियां ले आते, जाड़ा आता और नदी जब जम जाती तेज़ हवा चलती, हिम-आंधी जब आती, रोयोंवाली खालें उसको पहनाते देव-तुल्य बूढ़े को ऐसे गर्माते, किन्तु न इस जीवन का आदी हो पाया, नहीं रास निर्धनता का जीवन आया, हुआ सूखकर कांटा, मुख भी मुरझाया, और यही कहता, कुछ मैंने बुरा किया इसीलिये ईश्वर ने दिन यह दिखलाया, आशा करता रहा, मिलेगी मुक्ति उसे मुक्त कभी होगा निर्वासित जीवन से, रहा तड़पता, याद वतन को वह करता अश्रु बहाता रहा और आहें भरता, इस डेन्यूब नदी तट पर दुख बहुत सहे याद वतन की कभी न भूले, बनी रहे, कहा मृत्यु से पहले - मेरा व्याकुल शव दुखी हड्डियां दक्षिण को तुम ले जाना वहीं, गर्म धरती में उनको दफ़नाना, नहीं परायी धरती उसको रुची कभी क्या जीने की बात, न चाहा मरना भी । अलेको बुरा भाग्य था ऐसा तेरे बेटों का अरे रोम, जिसका दुनिया में नाम बड़ा, जिसने गीत मुहब्बत, देवों के गाये अर्थ ख्याति का क्या यह कोई बतलाये ! यह गिरजों की गूंज, प्रशंसा के गाने जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी जाते पहचाने ? क़िस्सा या यह लोग सताये कभी गये। धुएं भरे तम्बू में जिप्सी जिसे कहे ? .................... बीत गये दो साल घूमते यों इनके बहुत चैन जिप्सी जीवन में था मन को, लोगों के मन खिलते, जब जिप्सी आते बीत मज़े से इनके भी यों दिन जाते, तोड़ सभ्यता की सब कड़ियां, सब बन्धन था स्वतन्त्र, आज़ाद अलेको का जीवन, पश्चाताप न कोई चिन्ता थी मन में बड़ा लुत्फ़ था मस्त, घुमक्कड़ जीवन में, वह था पहले जैसा औ' परिवार वही मन अतीत के लिये न होता दुखी कभी, बंजारों के जीवन का अभ्यस्त हुआ डेरों, रैन बसेरों में मन मस्त हुआ, नहीं हड़बड़ी यहां न थी अफ़रा-तफ़री चैनभरी ज़िन्दगी बड़ी इनकी सफ़री, भाषा इनकी थी विपन्न, संगीतमयी वह भी अब उसके मन के अनुकूल हुई । भालू, मांद, गुफ़ा का जो रहनेवाला उसके संग ही अब उसने डेरा डाला, मोल्दावी लोगों के घर के पास कहीं किसी गांव में, या स्तेपी में दूर कहीं, बज उठती डुगडुगी, भीड़ होती विह्वल वहां नाचता मोटा भालू उछल उछल, बीच-बीच में गला फाड़ चिल्लाता वह गुस्से में आकर ज़ंजीर चबाता वह, लाठी टेके, बूढ़ा क़दम बढ़ाता था धीरे-धीरे डफली संग जाता था, ले भालू को साथ अलेको भी गाये ज़ेम्फ़ीरा इस बीच गांव में हो आये, झोली में जो लोग उसे दें, वह लाये, रात घिरे, कुछ नाज पतीली में डालें, उसे उबालें और साथ तीनों खा लें। सोता बूढ़ा शान्त तभी होता डेरा तम्बू में खामोशी छाती, अंधेरा... .................. बैठ धूप में बूढ़ा तन गर्माता था ठण्डे खून रक्त-मांस में गर्मी लाता था, निकट पालने के बैठी बेटी गाये सुने अलेको, चेहरे का रंग उड़ जाये । ज़ेम्फ़ीरा मेरे बुड्ढे खसम मेरे बूढ़े मियां, आग में झोंक दो चाहे टुकड़े करो, आग से न डरूं घाव हंसकर सहूं बात खुलकर कहूं, बन्द होगी नहीं मेरी अब तो ज़बां मेरे बुड्ढे खसम मेरे बूढ़े मियां । तुझसे करती घृणा, तू पराया बना लाख कर तू मना, दूसरे से मुहब्बत, मैं ख़ुद भी वहां मेरा बांका जहां, मेरे बुड्ढ़े खसम, मेरे बूढ़े मियां । अलेको चुप रहो, गीत ऐसे न भायें मुझे बोल फूहड़ तुम्हारे जलायें मुझे । ज़ेम्फ़ीरा तुम को भाते नहीं ? तो बताती हूं यह - गीत अपने लिये मैं तो गाती हूं यह । आग में झोंक दो चाहे टुकड़े करो, मैं तो कुछ न कहूं मैं तो चुप ही रहूं, कौन है वह न होगा तुम्हें यह गुमां, मेरे बुड्ढ़े खसम मेरे बूढ़े मियां । है बहारों से उसमें अधिक ताज़गी गर्म दिन से अधिक दिल में गर्मी रमी, उसमें साहस बहुत वह तो बांका जवां प्यार उस जैसा मुझको मिलेगा कहां ? मेरे बुड्ढे खसम मेरे बूढ़े मियां रात खामोश थी प्यार करती रही, अपनी बांहों में मैं उसको भरती रही तेरी, खूसट की खिल्ली भी उड़ती रही, फब्तियां तुझपर हमने कसी थीं वहां, मेरे बुड्ढे खसम मेरे बूढ़े मियां । अलेको बस, खामोश रहो ज़ेम्फ़ीरा! बहुत हो चुका ... ज़ेम्फ़ीरा अर्थ गीत का मेरे तुमने समझ लिया क्या ? अलेको ओ ज़ेम्फ़ीरा ! ज़ेम्फ़ीरा बुरा मनाओ, अगर चाहते बुरा मनाना, तेरे ही बारे में गाती हूं यह गाना । ( जाते हुए गाती है: "मेरे बुड्ढे खसम मेरे बूढ़े मियां", आदि ) बूढ़ा हां, हां, मुझको याद आ गया, याद आ गया वक़्त हमारे में यह गाना रचा गया था, लोगों का दिल इससे बहलाया जाता जहां-तहां पर यह यों ही गाया जाता, रहते थे हम तब कागूला के तट पर और रात जब जाड़े की आती घिर कर, मारीऊला मेरी गीत यही गाती बिटिया को भी संग झुलाती वह जाती, बीते वर्ष अनेक समय ने अपना रंग दिखाया है बुद्धि मन्द कर डाली मेरी, उसने मुझे बुढ़ाया है, किन्तु गीत यह मन पर अब भी है अंकित शब्द अभी तक इसके स्मृति में हैं संचित । .................. रात, बड़ी नीरवता छाई चांद, चांदनी निर्मल, दक्षिण नभ में चमकें, मधुर यामिनी, ज़ेम्फ़ीरा ने बूढ़े को झकझोर जगाया "हुआ अलेको को क्या देखो", यह बतलाया, "सुनो, नींद में वह कैसे आहें भरता वह रोता है, देख, जिया मेरा डरता ।" बूढ़ा इसे न छेड़ो अच्छा है चुप ही रहना। मैंने सुना रूसियों का ऐसा कहना - अर्धरात्रि को भूत-प्रेत कोई आता सुप्त व्यक्ति की छाती पर वह चढ़ जाता, पौ फटने से पहले भागे दूर बला बैठी रहो यहीं तुम ऐसा ठीक, भला । ज़ेम्फ़ीरा बापू मेरे ! वह फुसफुसा रहा: " ज़ेम्फ़ीरा !" बूढ़ा सपने में भी वह तो केवल तुम्हें ढूंढ़ता सबसे प्यारी तुम्हीं, हृदय में नाम गूंजता । ज़ेम्फ़ीरा आग प्यार की बुझी, न वह अब मुझे सुहाये अनुभव होती ऊब हृदय आज़ादी चाहे, मैं तो... लेकिन चुप! क्या तुमने ध्यान दिया है ? किसी और का उसने अब तो नाम लिया है... बूढ़ा किसका नाम लिया है उसने ? ज़ेम्फ़ीरा तुम सुनते हो ? वह कैसे आहें भरता है दांत पीसता !.. तोबा मेरी, जी डरता है ! मैं तो उसे जगा देती हूं.... बूढ़ा नहीं, नहीं, मत उसे जगाओ भूत-प्रेत को नहीं भगाओ, अपने आप चला जायेगा... ज़ेम्फ़ीरा लेकिन उसने करवट ली है, जाग गया है मुझे बुलाया, मुझे पुकारा नाम लिया है, मैं जाती हूं पास उसी के, तुम सो जाओ है थकान दिन भर की, सोकर उसे मिटाओ । अलेको बतलाओ, तुम कहां गयी थीं ? ज़ेम्फ़ीरा बापू के संग बैठी थी मैं, पास, यहीं थी । भूत-प्रेत था शायद जिसने तुम्हें सताया निद्रा में था जिसने तुमको विकल बनाया, दांत पीसते और रहे तुम मुझे बुलाते अपनी बेचैनी से मुझको रहे डराते । अलेको तुमको ही देखा सपनों में, ऐसे लगा कि बीच हमारे..... क्या बतलाऊं, बहुत बुरे थे सपने सारे ! ज़ेम्फ़ीरा सपने झूठे होते, मत विश्वास करो तुम । अलेको मेरे तो विश्वास सभी डगमगा चुके हैं- सपनों से क्या मीठी बातों से मैं डरता नहीं भरोसा तेरे दिल का भी मैं करता । बूढ़ा मेरे भोले मित्र, सदा क्यों आहें भरते ? किस कारण किसलिये दुखी अपने को करते ? लोग यहां आज़ाद, बहुत है निर्मल अम्बर, ख्याति नारियों की फैली, वे बेहद सुन्दर मत रोओ, दुख से मुरझा जाता है अन्तर । अलेको बापू, मुझको अब वह प्यार नहीं करती है। बूढ़ा वह बच्ची है, धीरज से तुम काम तनिक लो नहीं घुलाओ तुम अपने को व्यर्थ दुखी हो, आग प्यार की तेज़ तुम्हारे दिल में जलती नारी चंचल, चपल तबीयत रहे मचलती, देखो, दूर गगन में कैसे मुक्त वहां पर चांद अकेला बड़े मजे से घूम रहा है, सभी जगह पर प्रभा, चांदनी को छिटका कर धरती के कण-कण को मानो चूम रहा है। झांक एक बदली में जगमग उसे कर दिया बदली आई और, अंक में उसे भर लिया, नभ में उसकी जगह कौन उसको दिखलाये - "यहीं रुके रहना", यह उसको कौन बताये ! इसी तरह युवती को कोई कह दे कैसे प्रेम इसी से करना, मत तुम और किसी से ? काम तनिक लो, तुम धीरज से । अलेको कितना प्यार मुझे करती थी ! सिर्फ़ मुहब्बत का मेरी ही दम भरती थी, बड़े प्यार से मेरे साथ चिपक जाती थी, शून्य रात में वीराने में इसी तरह से घण्टों जाते बीत, नहीं वह उकताती थी, उमग उमग कर, वह बच्चों-सी मचल मचलकर मुझसे प्यारी बातें करती रहती अक्सर, या बौछार चुम्बनों की मुझपर कर देती मेरे मन की पीड़ा, सब चिन्ता हर लेती, क्या सचमुच ? मेरी ज़ेम्फ़ीरा रही न वैसी आग प्यार की बुझी नहीं वह पहले जैसी ! बूढ़ा सुनो ध्यान से - क़िस्सा तुमको एक सुनाऊं क़िस्सा ही क्या, अपनी बीती तुम्हें बताऊं । बात पुरानी, मास्को का डेन्यूब क्षेत्र में नहीं ज़रा भी डर था, तनिक न भय मंडराता, ( देखो, बीता हुआ दर्द-दुख याद पुनः अब आता जाता। ) तुर्की का सुलतान, उसी से हम घबराते उससे बेहद डरते थे, हम दहशत खाते, राज उस समय था बुजाक पर पाशा करता ऊंचे अकरमान से वह था हुक्म चलाता । मैं जवान था और आत्मा में तब मेरी बड़ी उमंगों, ख़ुशियों का सागर लहराता, काले-काले मेरे घुंघराले बालों में नहीं सफ़ेदी नज़र ज़रा भी तब आती थी, थीं सुन्दरियां बहुत, एक तो मेरे दिल पर ऐसे करती घाव, छुरी ज्यों चल जाती थी, बहुत समय तक रहा दूर से जान छिड़कता रहा याद में उसकी घुलता और तड़पता, किसी तरह भी दिल उसका मैं जीत न पाया लेकिन मेरी बनी कि आखिर वह दिन आया... हाय, जवानी जल्दी से यों मेरी बीती आसमान में चमक दिखा ज्यों टूटे तारा ! और प्यार ने कहीं अधिक जल्दी की मुझसे अपना नाता तोड़ लिया औ' किया किनारा, मारीऊला एक वर्ष में ही उकतायी लहर प्यार की ऊपर उठकर नीचे आयी । एक बार क्या हुआ कि हम कागूला तट पर अपने डेरे डाले थे, जब लोग पराये, वहीं पहाड़ी के दामन में वे भी आये जिप्सी ही थे, तम्बू-डेरे निकट लगाये, साथ-साथ दो रातें हमने वहां बितायीं रात तीसरी आयी तो जैसे परछाई, लुप्त हुए वे मेरी मारीऊला प्यारी छोड़ लाड़ली बिटिया, उनके संग सिधारी, सोता रहा रात भर सुख से, हुआ सवेरा आंख खुली, तो पत्नी बिन था सूना डेरा, ढूंढ़ा, उसे पुकारा, लेकिन चिह्न न पाया बेटी रोये, नीर नयन में मेरे आया, उस दिन से बस, प्यार प्रणय से नाता टूटा जीवन भर के लिये साथ नारी का छूटा, तब से अपना नहीं किसी को कभी बनाया एकाकी रहकर ही अपना समय बिताया, नहीं किसी को अपने दिल का दर्द बताया । अलेको किन्तु नीच का तुमने पीछा नहीं किया क्यों ? दुश्मन से भी बदला तुमने नहीं लिया क्यों ? खंजर उसके सीने में क्यों नहीं उतारा ? छोड़ दिया क्यों नहीं जान से उसको मारा ? बूढ़ा यह किसलिये ? विहग से भी आज़ाद जवानी क़ैद प्रेम ने किसकी और कहां पर मानी ? यह वह सुख, जो समय-समय पर सबको मिलता मुरझाने पर फूल नहीं यह फिर से खिलता । अलेको लेकिन मैं वह नहीं कि यह अधिकार छोड़ दूं अपने जीवन सुख का यों आधार छोड़ दूं, और नहीं कुछ तो बदले का सुख तो लूंगा तड़पाऊंगा मैं दुश्मन को, दुख तो दूंगा । मिल जाता यदि दुश्मन मुझको सागर तट पर सोया हो गहरी निद्रा में सुध-बुध खो कर, तो सच मानो, ध्यान न आये दया-धर्म का दुविधा पास न फटके, कहता तुम्हें कसम खा सोते को ही मैं पानी में धक्का देता वह चिल्लाता सहसा खूब मज़ा मैं लेता, और विषैले, क्रुद्ध ठहाके मैं गुंजाता उसके मन को बींधे, ऐसे तीर चलाता, बहुत समय तक दृश्य याद ये मुझको आते- गोते खाना, चिल्लाना, सब मन बहलाते । ................. जवान जिप्सी एक और .... चुम्बन बस दे दो.... ज़ेम्फ़ीरा समय हो गया - जलन, आग है बहुत मियां में, तुम यह समझो। जिप्सी चुम्बन एक बड़ा लम्बा-सा और विदा लो। ज़ेम्फ़ीरा यही खैर, जो अभी न आया, तुम जाने दो। जिप्सी अब कब होगा मिलन हमारा ? ज़ेम्फ़ीरा आज रात को जब शशि चमके प्यारा-प्यारा, वहां कब्र के पीछे टीले पर आ जाना.... जिप्सी धोखा मत दे देना ! बुद्ध नहीं बनाना । ज़ेम्फ़ीरा आऊंगी, विश्वास करो तुम ! नहीं करूंगी तुमसे कोई कपट बहाना । ................ निद्रामगन अलेको था, उसके मस्तक में स्वप्न भयानक घूम रहा था धुंधला-धुंधला, अन्धकार में चीखा जागा घबराया-सा हाथ बढ़ाने लगा तिमिर में चकराया-सा, किन्तु हाथ रुक गया वहीं पर बढ़ा-बढ़ाया उसने जब बिस्तर को सूना ठण्डा पाया, नहीं निकट थी, पास कहीं, पत्नी की छाया .... उठा तड़प कर औ' ध्वनियों पर कान लगाया... सभी ओर सन्नाटा - उसपर दहशत छाई छुटे पसीने और झुरझुरी उसको आई, उठा और अपने डेरे से आया बाहर सभी ओर छकड़े थे, बहुत विकल था अन्तर, थी नीरवता; खेत पड़े थे सोये-सोये था अंधेरा; चांद-चांदनी तम में खोये, तारे हल्का-सा प्रकाश बस दिखलाते थे नज़र ओस पर चिह्न पांव के कुछ आते थे, बेचैनी से उसी दिशा में क़दम बढ़ाता वह टीले की ओर विकल था बढ़ता जाता। जहां डगर का अन्त वहीं पर एक क़ब्र थी दूरी पर बस वहीं सफ़ेदी-सी दिखती थी, टांगें देती थीं जवाब, थे ख्याल बुरे से घुटने कांप रहे थे, उसके होंठ कांपते, बढ़ता जाये, लेकिन देखो... यह क्या, यह क्या यह सच्चाई या फिर कोई स्वप्न बुरा-सा ? दो परछाइयां उसे पास ही पड़ीं दिखाई, खुसर-फुसर भी उसे निकट ही पड़ी सुनाई हाय, क़ब्र की ऐसी दुर्गति शर्म न आई। पहली आवाज़ वक़्त हो गया... दूसरी आवाज़ ज़रा ठहर जा ! पहली आवाज़ वक़्त हो गया, मेरे प्यारे । दूसरी आवाज़ नहीं, नहीं, कुछ रुक जाओ तुम, सूरज निकले, औ' छिप जायें चांद, सितारे । पहली आवाज़ अच्छा नहीं, देर अब करना । दूसरी आवाज़ प्यार करो तो फिर क्या डरना, रुको ज़रा तो ! पहली आवाज़ नहीं कहीं की रह जाऊंगी, इतना समझो। दूसरी आवाज़ ज़रा रुको तो ! पहली आवाज़ जाग गया पति, तब क्या होगा ? इतना सोचो ! अलेको जाग गया मैं अब तुम बोलो ! किधर भागना चाह रहे, चल दिये कहां यह भी अच्छा, इसी जगह है क़ब्र यहां । ज़ेम्फ़ीरा भागो, मेरे मीत, भाग जल्दी से जाओ .... अलेको रुको, न अपना क़दम बढ़ाओ ! मेरे बांके दोस्त, नहीं, अब तुम बच पाओ ! लो, धरती को गले लगाओ ! ( छाती में छुरा भोंक देता है ) ज़ेम्फ़ीरा अलेको, यह क्या किया ! नौजवान जिप्सी हाय मैं मरा... ज़ेम्फ़ीरा कैसा तुमने ज़ुल्म किया, क्या ग़ज़ब किया है ! रंगे खून से हाथ, कि इसको मार दिया है ! कैसा तुमने सितम किया है ? अलेको कोई बात नहीं, अब इससे इश्क लड़ाओ । ज़ेम्फ़ीरा बहुत डर चुकी अब तक तुमसे, नहीं डराओ ! व्यर्थ धमकियां ये सब तेरी, ज़रा न डरती तू हत्यारा, बहुत घृणा मैं तुझसे करती .... अलेको मरना होगा अब तुमको भी ! (वार करता है) ज़ेम्फ़ीरा जान मुहब्बत में मैंने दी। ...................... पौ फटती थी, पूरब में हो रहा उजाला टीले से कुछ दूर ख़ून से लथपथ खंजर लिये हाथ में वहीं क़ब्र पर बैठा रहा अलेको बुत-सा बना रात भर । दो शव अब निर्जीव पड़े थे उसके सम्मुख बहुत भयानक हत्यारे का लगता था मुख, सहमे-सहमे जिप्सी, आते थे बंजारे, घबराये से उसको ताकें, दुख के मारे क़ब्र खोदते जाते थे वे एक किनारे । दुख में डूबी हुई बीवियां उनकी आयें दोनों मृतकों की आंखों से होंठ छुआयें, बाप अकेला ही बैठा था शीश झुकाये उन दो लाशों पर ही अपनी नज़र टिकाये। भारी दुख ने पत्थर मानो उसे बनाया वह गुमसुम, गतिहीन मौन, सकते में आया। लोगों ने दोनों लाशों को साथ उठाया दो जवानियों को धरती में संग लिटाया, दूर-दूर से यह सब तकता रहा अलेको कैसे मिट्टी डाल, बन्द कर रहे क़ब्र को, पड़ी आखिरी मुट्ठी, सिर तब तनिक झुकाया वह पत्थर से लुढ़क घास पर नीचे आया। बूढ़े ने तब आकर उसके पास कहा यह : "ओ गर्वीले जाओ, हम से तोड़ो नाता हम जंगल के लोग तुम्हारा ढंग न आता, हम क़ानून, यातना, कोई दण्ड न जानें खून बहायें बदला लें, यह कभी न मानें, दर्द, वेदना, हमें नहीं भाती हैं आहें हत्यारे के साथ नहीं हम रहना चाहें .... जंगल की आज़ादी जीना तुम्हें न आये केवल तुम ख़ुद मुक्त रहो, यह तुम्हें सुहाये, हमको तो आवाज़ तुम्हारी भी अखरेगी उसको सुनने से मन पर भारी गुजरेगी, हम उदार मन, हम विनम्र, हम भोले-भाले तुम हो क्रोधी, साहस से लड़ मरनेवाले, कहता हूं इसलिये, नहीं है साथ हमारा माफ़ी चाहूं, मगर रास्ता अलग तुम्हारा ।" उसने इतना कहा और बस खेमे उखड़ गये, डेरे, रैन-बसेरे सब कुछ क्षण में उजड़ गये, शोर मचाते बंजारे, घाटी से दूर चले और बहुत जल्दी ही वे स्तेपी में जा निकले। क़िस्मत की मारी घाटी में छकड़ा एक बचा जिसके ऊपर फटा-पुराना-सा क़ालीन पड़ा। उसी तरह से, जैसे, जब जाड़ा आने को हो बचे-बचाये कुछ सारस भी उड़ते दक्षिण को, सुबह-सुबह ही धुंध कुहासे में वे दूर उड़ें सर-सर पंख हवा में उनके ऊंचे स्वर गूंजें । गोली लगे किसी को सहसा और पंख टूटे घायल हो गिर जाये नीचे संग साथ छूटे, टूटा पंख विवशता की मानो ज़ंजीर बने दुख, एकाकीपन ही उसकी अब तक़दीर बने । रात घिरी, लेकिन छकड़े में छाया अंधेरा आग न जलती, दीप न जलता था तम का घेरा, छकड़े में हर सांस, सांस हर सुधि थी व्यथा पगी और सुबह तक नहीं किसी की उसमें आंख लगी । उपसंहार शायद उन गीतों-गानों में जादू है ऐसा जो मेरी स्मृतियों के धुंधले-धुंधले मानस पर दुख के काले-काले, सुख के उजले दिवस, पहर यों सजीव-सा कर देता है, जब-तब ,रह रहकर । याद देश, उस धरती की मुझको आ जाती है रहा गूंजता जहां सतत युद्धों का कोलाहल, जहां रूसियों ने तुर्कों को लोहा मनवाया और किया था विस्तृत अपनी सीमा का आंचल, दो सिर के उक़ाब का अब भी डंका बजे जहां उन सीमाओं में स्तेपी में मेरा मिलन वहां, हो जाता था बंजारों से उनके छकड़ों से वे जो चैन, अमन के बन्दे, डरते झगड़ों से, वे प्रकृति से मुक्त, मस्त हैं, बच्चों से चंचल अलस, शान्ति से प्यार उन्हें स्वीकार नहीं हलचल, निर्जन में उनके पीछे बहुधा चल देता था जो मामूली-सा वे देते, खा-पी लेता था, निकट अलावों के उनके ही मैं सो जाता था कूच समय, उनके गीतों का लुत्फ़ उठाता था, प्यारा-प्यारा मारीऊला, सुन्दर, नाम मधुर बहुत दिनों तक रटा रहा वह मेरी जिह्वा पर । किन्तु प्रकृति के तुम स्वतन्त्र, तुम ऐ निर्धन बेटो तुमको भी सुख-चैन नहीं जीवन में मिलते हैं !. तार-तार हो रहे तुम्हारे तम्बू, खेमों में बहुत यातना देनेवाले सपने पलते हैं, हर दिन चलती-फिरती डेरों की ये छायायें वीरानों में भी वे दुख से मुक्ति नहीं पायें, इनको घेरे हुए उमंगें, आशायें, चाहें कैसे सम्भव, भाग्य-थपेड़ों से ये बच जायें । १८२४

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