सोने का मुर्ग़ा : अलेक्सांद्र पूश्किन

(मूल रूसी भाषा से अनुवाद : मदनलाल मधु)

The Golden Cockerel : Alexander Pushkin


किसी राज्य में, किसी देश में किसी अजाने से प्रदेश में, ज़ार ददोन राज करता था जिससे हर राजा डरता था, बड़ा भयंकर था यौवन में बड़ा सूरमा रण-आंगन में, बड़े मोर्चे उसने मारे उससे लड़ सब दुश्मन हारे । वक़्त बुढ़ापे का जब आया मिले चैन, यह दिल ने चाहा, किन्तु तभी तो आस-पास के राजा दुश्मन जो हताश थे, हर दिन उसको लगे सताने अपनी ताक़त, अकड़ दिखाने । सीमाओं की रक्षा के हित सेना दौड़ानी पड़ती नित सेना नायक ज़ोर लगाते फिर भी दुश्मन बाज़ न आते, लगता रिपु दक्षिण से आये वह पूरब से फ़ौज बढाये ! यहां अगर वह मुंह की खाता तो नौसेना ले चढ़ आता, ज़ार ददोन दुखी हो रोता और नींद भी अपनी खोता, लानत है, यह भी क्या जीना हर दिन घूंट ज़हर के पीना । एक उपाय ध्यान में आया तुरत नजूमी को बुलवाया, वह था ज्ञानी ज्ञान बहुत था समझदार, विद्वान बहुत था। उसने अपना थैला खोला दायें बायें उसे टटोला मुर्ग़ निकाला स्वर्ण- सुनहरा और कहा- "यह देगा पहरा, इसको ऊंची सी सलाख पर कहीं बिठा दो ऊंचाई पर, शान्त रहेगा सब कुछ जब तक मौन रहेगा यह भी तब तक, खतरा नज़र अगर आयेगा शत्रु निकट यदि मंडरायेगा, देखेगा सेनायें बढ़ती तेरी सीमाओं पर चढ़तीं, तत्क्षण वह कलगी सीधी कर चिल्लायेगा जोर लगाकर, खूब जोर से पंख हिलाये खुद वह घूम उधर ही जाये।" ज़ार हुआ बेहद आभारी कहा "कृपा यह बड़ी तुम्हारी, मालामाल तुम्हें कर दूंगा यह एहसान नहीं भूलूंगा, मुंह मांगा इनाम पाओगे वह ही दूंगा, जो चाहोगे ।" सोने का मुर्ग़ा सलाख पर बैठा, पहरा देता डटकर, खतरा नज़र कहीं जो आता सजग उसी क्षण वह हो जाता, हिलता डुलता, पंख हिलाता खुद भी घूम उधर ही जाता, ऊंचे कुकडूं-कूं चिल्लाता खतरा है, वह यह बतलाता । ज़ार मजे से अब सोता था वह बेचैन नहीं होता था, शान्त पड़ोसी दुश्मन सारे वे क्या करते अब बेचारे, किया ज़ार ने ऐसा हीला हुआ सभी का कस-बल ढीला । साल दूसरा बीता जाये कभी न मुर्ग़ा शोर मचाये, किन्तु अचानक शोर मचा जो गया जगाया तभी ज़ार को- "ज़ार उठो तुम पिता हमारे !" सेनापति यह अर्ज गुज़ारे, "जागो जागो, पिता दुहाई कोई बड़ी मुसीबत आई।" "क्या है, कौन मुसीबत आई ?" पूछे वह लेता जम्हाई । सेनापति उसको बतलाये "जी हुजूर मुर्ग़ा चिल्लाये, सभी जगह दहशत डर छाया," ज़ार निकट खिड़की के आया, देखा - मुर्ग़ा पंख हिलाये वह पूरब की राह दिखाये, "जल्दी करो न देर लगाओ झटपट घोड़ों पर चढ़ जाओ।" भारी सेना दे बेटे को पूरब में भेजा जेठे को, मुर्ग़ा फिर से शान्त हो गया नगर स्तब्ध औ' ज़ार सो गया। गये बीत इस तरह आठ दिन ख़बर न कोई, भारी पल, छिन, हुई कहीं पर झड़प, लड़ाई नहीं सूचना कोई आई, पर मुर्ग़ा फिर से चिल्लाये ज़ार और सेना भिजवाये, भेजा अब छोटे बेटे को ताकि मदद दे वह जेठे को । मुर्ग़ा शान्त हो गया फिर से मगर न आई ख़बर उधर से । आठ दिवस यों बीते फिर से बुरा हाल लोगों का डर से, मुर्ग़ा फिर से शोर मचाये ज़ार स्वयं ले सेना जाये, पूरब में थी उसकी मंजिल क्या बीतेगी, डरता था दिल । चले रात को दिन को लशकर सैनिक चूर हुई सब थककर, कहीं न कोई लड़ा मरा था नहीं किसी का खून गिरा था दिया न कहीं पड़ाव दिखाई कब्र एक भी नजर न आई, सोचे ज़ार और घबराये नहीं समझ में कुछ भी आये, यह था सचमुच अजब तमाशा कभी न की थी जिसकी आशा । दिवस आठवां डूबे दिनकर सेना तब पहुंची पर्वत पर घाटी में चंदवा रेशम का दिखा ज़ार को यह क़िस्सा क्या ? सभी ओर अद्भुत सुन्दरता गहरा सन्नाटा, नीरवता, सेना सारी कटी पड़ी थी यह क्या घटना यहां घटी थी ? जल्दी-जल्दी क़दम बढ़ाये ज़ार निकट चंदवे के जाये, और वहां पर उसे अचानक दिया दिखाई दृश्य भयानक, दोनों बेटे मरे पड़े थे तन में बरछे तेज गड़े थे, भाई ने भाई को मारा एक-दूसरे का हत्यारा । उनके घोड़े वहीं पास में घूमें रौंदी हुई घास में .... रोये, आंसू ज़ार बहाये - " बेटो ! तुम किस छल में आये, खेत रहे, तुम वीर-बांकुरे आया मेरा अन्त समय रे !" लोग सभी उसके संग रोयें दामन अपने सभी भिगोयें, आह भरे पर्वत घाटी भी रक्त सनी उसकी माटी भी, परदा चंदवे का अति झीना उठा अचानक और हसीना शमाखान की वह शहजादी निकली, अरुण उषा मुस्का दी, जैसे रात्रि-विहग दिनकर को देख मौन होता क्षण भर को, वैसे ही चुप ज़ार हो गया रूप-छटा में मुग्ध खो गया । वह बेटों की मृत्यु- व्यथा की भूल गया यह करुण कथा भी । शीश झुका रानी मुस्काकर बहुत पास ज़ार के आकर, थाम ज़ार का हाथ, हाथ में चदवें में ले गयी साथ में, आदर से उसको बिठलाया खूब खिलाया, खूब पिलाया, ज़रीदार बिस्तर लगवाया करने को आराम लिटाया । इसी तरह से यों हफ्ते भर वह मानो जादू में बंधकर, मस्त रहा, वह मौज मनाता और खुशी में वक़्त बिताता । वक़्त लौटने का तब आया औ' चलने का हुक्म सुनाया, संग लिये शहजादी सुन्दर ज़ार चला वापिस अपने घर । उसके आगे पर अफ़वाहें झूठी सच्ची उड़ती जायें, बड़ी भीड़ ने नगर-द्वार पर स्वागत किया, दिखाया आदर, ज़ार, हसीना थे जिस रथ में लोग पिसे जायें उस पथ में, ज़ार करे सब का अभिवादन बहुत उल्लसित था उसका मन, नज़र सफ़ेद पगड़ी तब आई और भीड़ में दिया दिखाई उसे नजूमी परिचित सहसा जो लगता था श्वेत हंस सा, "मैं अभिवादन करूं तुम्हारा तुमने ही तो मुझे उबारा, आओ निकट हाल बतलाओ बोलो, क्या तुम मुझसे चाहो ?" "याद तुम्हें जो वचन दिया था ? वादा मुझसे कभी किया था ? 'जो चाहोगे, वह ही दूंगा पूरा अपना क़ौल करूंगा। दो शहजादी यह ज़ारीना लाये हो जो साथ हसीना । यह सुन ज़ार बहुत चकराया वह तो बस सकते में आया, "क्या कहते हो ? बुद्धि बिसारी नहीं ठिकाने अक्ल तुम्हारी, सिर सवार शैतान तुम्हारे बात कर रहे बिना विचारे, वचन दिया, यह मैंने माना किन्तु न तुमने इतना जाना, तुम किसके यों मुंह लगते हो ? किससे यों बातें करते हो ? हूं मैं ज़ार, न इसे भुलाओ मत सीमा से बाहर जाओ। लो धन-दौलत ऊंची पदवी चाहे शाही, घोड़ा अरबी, राज तुम्हें आधा दूं, चाहो शहजादी की बात भुलाओ ।" "मुझे चाहिये सिर्फ़ हसीना यह शहजादी, यह ज़ारीना। ज़ार बहुत गुस्से में आया थूका उसने औ' चिल्लाया- "यही जिद्द, भाड़ में जाओ और न कुछ भी मुझसे पाओ, भागो, अपनी जान बचाओ इस बुड्ढे को दूर हटाओ !" बहस करे, बूढ़े ने चाहा ज़ार और भी तब झल्लाया, लोहे का भुजदण्ड उठाकर दे मारा बुड्ढे के सिर पर, बुड्ढा तो बस वहीं गिर गया प्राण पखेरू दूर उड़ गया। भीड़ सहम कांपी थर्रायी हंसी हसीना को पर आयी, हा -हा- हा- हा -ही -ही -ही- ही उसे न कुछ भी शर्म-हया थी, परेशान था ज़ार बहुत ही किसी तरह मुस्काया फिर भी, बढ़ा नगर को अब रथ सत्वर हुई इसी क्षण हल्की सरसर, देखें सब ही नज़र जमाये मुर्ग़ा नीचे उड़ता आये, आया, और ज़ार चंदिया पर बैठ गया वह पांव जमाकर ठोंग मारकर पंख हिलाये कहां गया वह कौन बताये ? रथ से नीचे ज़ार गिर गया आह भरी बस और मर गया। लुप्त हुई शहजादी ऐसे था उसका अस्तित्व न जैसे। क़िस्सा झूठा, गढ़ा गया है। फिर भी इसमें सत्य बड़ा है ! १८३४

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