तांबे का घुड़सवार : अलेक्सांद्र पूश्किन

(मूल रूसी भाषा से अनुवाद : मदनलाल मधु)

The Bronze Horseman : Alexander Pushkin


पीटर्सबर्ग का एक क़िस्सा कुछ शब्द इस क़िस्से में बयान की गयी घटना सच्चाई पर आधारित है । इसकी सारी तफ़सीलें तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं से ली गयी हैं। विज्ञासु पाठक व० न० बेर्ख़ की इतिहास -पुस्तक से इनकी तुलना कर सकते हैं। प्रस्तावना खड़ा था शून्य तट पर वह निकट सुनसान लहरों के, बहुत-से ख़्याल मन में स्वप्न थे ऊंचे विचारों के, नज़र थी दूर तक जाती नदी के पाट चौड़े पर दिखाई दे रही थी नाव एकाकी जहां जर्जर नदी थी तेज़ तूफ़ानी, किनारों पर जमी काई कहीं थे झोंपड़े-झुग्गी, कहीं दलदल, कहीं खाई, घरौंदों, झोंपड़ों में थे ग़रीबों के लगे डेरे कुहासे से ढके जंगल, वनों के दूर तक घेरे, न किरणें घुस सकें जिनमें, न सूरज रास्ता पाये जहां सब ओर सरसर, सब तरफ़ वन गूजता जाये I अचानक ख़्याल यह आया स्वीडन को यहां से दे चुनौती हम डरायेंगे, नया, अब इस जगह पर शहर हम अपना बसायेंगे बड़े दम्भी पड़ोसी का यहां से मुंह चिढ़ायेंगे, किया निर्णय प्रकृति ने यह उचित हम मान उसको लें कि यूरोप के लिए हम एक खिड़की अब यहां खोलें, समन्दर के किनारे पांव हम अपने जमायेंगे नयी इस राह, लहरों पर अनेकों पोत आयेंगे, बहुत मेहमान होंगे और झण्डे फड़फड़ायेंगे बड़ा विस्तार होगा, खूब मौजें हम मनायेंगे । अभी सौ साल बीते पर, निखर यह तो गया कैसा बहुत कम शहर दुनिया में कि जिनका रूप है ऐसा, अंधेरे थे वनों के, जिस जगह थीं दलदलें गहरी वहीं पर गर्व से ऊंचा खड़ा है रूप का प्रहरी, जहां नीचे तटों पर जाल टूटे फ़िन बिछाते थे बहुत ही भाग्य - वंचित जो बुरा जीवन बिताते थे, वहीं पर, उन तटों पर जिन्दगी अब जगमगाती है वहां निर्माण की शोभा छटा अनुपम दिखाती है, वहां पर महल अब ऊंचे खड़े हैं, बुर्ज, मीनारें, धनी तट, विश्व भर के पोत अब लंगर वहां डालें, कि नेवा पर चढ़ाया जा चुका है कवच पाषाणी अनेकों पुल बने, बस में हुआ, धीरे बहे पानी, अनेकों द्वीप थे, इसमें जज़ीरे थे कई बिखरे वहां उपवन हरे उभरे चमन सुन्दर, नये, निखरे, निराली शान है सचमुच, नयी इस राजधानी की नहीं तुलना किसी से हो सके इस राज रानी की, पुराने मास्को का रंग बिल्कुल पड़ गया फीका बुढ़ापे पर विजय मानो हुई थी यह जवानी की । प्यार तुम्हें बेहद करता हूं, ओ तुम पीटर की रचना, प्यारा मुझको रूप तुम्हारा सुघड़ धीर-गम्भीर बना, नेवा की संयत धारा भी प्यारी पत्थर तट-कारा भी, प्यारे लोहे के जंगले भी, जिनपर नक़्क़ाशी सुन्दर, चिन्तन में डूबी रातें भी पारदर्श झुटपुटे शाम के तम-प्रकाश की मृदु घातें भी, और चांद के बिना चमक जो छाई रहती है नभ पर, अपने कमरे में मैं इससे बिना दीप के भी पढ़ता ऊंचे-ऊंचे भवन ऊंघते, सड़कें निर्जन, नीरवता, मुझे स्पष्ट सब कुछ दिखता और "एडमिरल्टी" के ऊपर इस्पाती छड़-डंड चमकता । स्वर्णिम नभ पर तम की चादर, छाये तो कैसे छाये, अपना चोला, रूप बदलती, उषा यहां आये, जाये सिर्फ़ आध घण्टे तक नभ में रात यहां रहने पाये । मैं कठोर तेरे जाड़े का, मैं ठण्डक का मतवाला ठहरा-ठहरा पवन चले जब और कटे कसकर पाला, चौड़े नेवा तट पर स्लेजें तेजी से दौड़ी जायें गाल युवतियों के गुलाब से भी बढ़कर रंगत पायें, नाच - रंग की शामें, उनकी चमक-दमक प्यारी लगती किसी छड़े के यहां मज़े की महफ़िल जब बढ़िया जमती, झाग उड़ाते शेम्पेनों के जाम सामने जब आते "पंच मेली" के नीले शोले जब सब को रंग में लाते, यह सेना का नगर, यहां का जीवट भी मुझको प्यारा अच्छा लगता मुझे मार्स मैदान, वहां का नज़्ज़ारा, घुड़सवार भी जहां, जहां पर आयें पैदल सेनायें एक ढंग की सभी पेरेडें, फिर भी वे मन को भायें, वहां कतारें लगातार यों उनकी आगे बढ़ती हैं। जैसे लहरें ऊपर चढ़ती, नीचे कभी उतरती हैं, क़दम मिलाकर सैनिक चलते, और विजयध्वज फहराते शिरस्त्राण उनके तांबे के चमक अनोखी दिखलाते उनपर चिह्न लड़ाई के, सूराख नज़र ढेरों आते। प्यारी लगती है तू मुझको, जंगी, युद्ध-राजधानी रुचें धुएं के बादल तेरे, तोप गरज भी तूफ़ानी, बेटा राजमहल में जिस दिन जनती है प्यारी रानी या कि विजय पा आनेवाली सेना की हो अगवानी, उस दिन रूस हमारा सारा फिर से जशन मनाता है सभी जगह पर हंसी-खुशी का तब आलम छा जाता है, या वसन्त आ गया निकट, नेवा यह अनुभव करती है तोड़ बर्फ़ की नीली परतें, वह सागर को बढ़ती है, मस्ती में आ जाना इसका यह भी मुझे सुहाता है, तरह-तरह से नगर तुम्हारा मेरा हृदय लुभाता है। ओ पीटर के शहर और भी तुम चमको, संवरो, निखरो जैसा है दृढ़ अटल रूस, बस, तुम भी वैसे अटल रहो, रहे तुम्हारी ही मुट्ठी में कुदरत की अंधी ताक़त कभी न टूटे आसमान से कोई बिजली या आफ़त, नहीं पुराना गाना अब तो फ़िनलैंडी लहरें गायें राग शत्रुता, बन्दीजन का, भूल सदा को वे जायें, गहरी, मीठी निद्रा में इस जगह सो रहा है पीटर ! शान्त रहे यह शहर, नगर ! किन्तु घटी थी एक कारुणिक घटना इसके जीवन में याद अभी तक बिल्कुल ताज़ा है सजीव इसकी मन में.... प्यारे मित्रो, लिखूं इसे, मैं अपनी क़लम उठाता हूं, बेशक दर्द भरा यह किस्सा, फिर भी तुम्हें सुनाता हूं। पहला भाग बुझा-बुझा था नगर, उदासी का सा आलम छाया था मास नवम्बर, पतझर की ठण्डक ने रंग दिखाया था, नेवा की लहरें पाषाणी घाटों से टकराती थीं ग़ुस्से से फुंकार रही थीं, भीषण शोर मचाती थीं, नेवा थी बेचैन इस तरह जैसे विस्तर में रोगी दायें-बायें करवट बदले जैसे व्याकुल दुख-भोगी । रात लगी थी ढलने था सब ओर अंधेरा तमस - तिमिर, बरखा ग़ुस्से से हमले करती थी मानो खिड़की पर हवा ज़ोर से चीख रही थी, दर्द भरा था उसका स्वर । इसी समय येव्गेनी दावत से वापस घर में आया... इस जवान नायक का मेरे मन को नाम यही भाया, प्यारा लगता है कानों को और नाम यह चिर जाना, मेरी क़लम जानती इसको, यह उसका चिर पहचाना। नहीं ज़रूरत मैं उसका कुलनाम आपको बतलाऊं बेशक इसके बारे में मैं फिर भी इतना कह पाऊं, शायद इसने किसी समय में ऊंचा नाम कमाया था करामज़ीन की पुस्तक में कुलनाम कभी यह आया था, लेकिन अब ऊंचे समाज ने यह कुलनाम भुलाया है इसके ऊपर पड़ी हुई अब तो विस्मृति की छाया है। कोलोम्ना में रहता है वह कहीं नौकरी करता है वह, ऊंचे बड़े-बड़े लोगों से कन्नी काटे कतराये, कभी बड़ा था कुल उसका, यह शोक नहीं दिल में लाये वह अतीत पर गर्व न करता और न उसपर इतराये । तो घर पर आया येव्गेनी, झाड़ा अपना कोट, उतारे कपड़े लेटा बिस्तर में, किन्तु देर तक किसी तरह भी नींद नहीं उसको आयी तरह-तरह के ख़्याल उमड़ते आते थे मस्तक, उर में। लेकिन वह क्या सोच रहा था ? सोच रहा था यही- ग़रीबी निर्धनता का है मारा, कठिनाई से बड़े जतन से, उसने कुछ आदर पाया और ग़रीबी से भी उसने पाया है कुछ छुटकारा, भाव कभी यह भी आता था, कृपा ईश की हो जाती- बुद्धि अधिक यदि वह पा जाता, मिल जाता ज़्यादा पैसा आखिर तो कुछ नहीं अजब यह होता जीवन में ऐसा, ढेरों काहिल, सुस्त बहुत से, पर जिनकी तक़दीर चढ़ी, अक़्ल नाम की चीज़ गांठ में कम है, फिर भी भाग्य - कड़ी चमक रही, उनके जीवन में सुख-वैभव है, मौज बड़ी । सोच रहा था साल सिर्फ़ दो हुए काम उसको करते देख रहा था घबराहट से तेवर मौसम के चढ़ते, आता था यह ख़्याल - नदी में शायद पानी बहुत बढ़ा नेवा के ऊपर से शायद लिये गये पुल सभी उठा । अपनी प्रिय पराशा से अब भेंट नहीं हो पायेगी कुछ दिन विरह-वेदना उनको अब तो हाय, सतायेगी, बरबस निकली आह हृदय से, ख़्याल जिस समय यह आया, कवि की तरह उड़ानों में तब मन को उसने उलझाया : "शादी कर लूं ? या कि नहीं मैं? करूं न क्यों ऐसा आखिर ? यह सच ऐसा करने से कुछ गुज़रेगी भारी मुझपर, लेकिन क्या है, मैं जवान हूं, ताक़त, हिम्मत रखता हूं दिन से लेकर बहुत रात तक मैं मेहनत कर सकता हूं, जैसे-तैसे मामूली-सा बन जायेगा घर-डेरा वहां पराशा के संग रहकर सुख पायेगा मन मेरा, साल एक-दो बीतें शायद मुझे नौकरी और मिले पांव कहीं पर जमें ढंग से, जीवन में सुख-कुसम खिले - सौंपू तभी पराशा को मैं घर भर की ज़िम्मेदारी पाले-पोसे बच्चों को, हो उसकी यह चिन्ता प्यारी... अन्त समय के आने तक हम इसी तरह जीते जायें, रहे हाथ में हाथ प्यार का हम जीवन भर सुख पायें जब दुनिया से कूच करें तो पोते हमको दफ़नायें ...." ऐसे सपने रहा सजाता, और बहुत था भारी मन ऐसी थी यह रात कि उसको अखर रहा था सूनापन, चाह रहा था यही- न ऐसे हवा दर्द से चिल्लाये और न ग़ुस्से में खिड़की से ऐसे बारिश टकराये .... नींद भरी थीं भारी पलकें, आंख लगी उसकी आखिर धीरे-धीरे छंटा अंधेरा, रात बुरी बीती आखिर, फीका-फीका दिन निकला मुरझाया-सा .... बहुत भयानक, दुख की गहरी छाया - सा । नेवा सारी रात रही थी तूफ़ानों से टकराती किसी तरह पहुंचे सागर को, पार न, पर, वह तो पाती, जीते प्रबल थपेड़ों को वह ऐसा उससे नहीं हुआ.. उलझे, जूझे झंझा से यह कस-बल उसमें नहीं रहा... सुबह लोग बहुतेरे आये सभी, तटों पर भीड़ लगाये, देख रहे छींटे, फ़व्वारे, टीलों-सी उठती लहरों के बल खाते जल के नज़्ज़ारे । किन्तु दिशा से खाड़ी की भंझा का ऐसा ज़ोर बढ़ा मार थपेड़े नेवा को, अब उसने पीछे दिया हटा, उबल रही ग़ुस्से से नेवा पीछे हटती जाती थी द्वीपों को जलमग्न करे अपना उन्माद दिखाती थी । मौसम ने कुछ और बिगड़कर अब अपने तेवर बदले उफन पड़ी मानो नेवा भी उछले, कूदे, वह उबले, और अचानक किसी दरिन्दे-सी ग़ुस्से से पगलाकर झपट पड़ी वह शहर, नगर पर बुरी तरह से झल्लाकर । नेवा यों दीवानी-सी हो बढ़ती आती थी आगे लोग डरे, घबराये सिर पर पांव सभी रखकर भागे, नेवा के तट निर्जन, सारे बदल गये वीरानों में सभी ओर पानी ही पानी, पानी था तहखानों में, पानी ऐसे चढ़ा कि उसमें डूब गयीं सारी नहरें कैसे निज अस्तित्व बचायें, जब हों तूफ़ानी लहरें, पेत्रोपोल मगन पानी में, नजर इस तरह से आये, ज्यों जलदेव कमर तक डूबा पानी में तैरा जाये । सभी ओर पानी का घेरा, निर्मम लहरें, जल रेला वह चोरों सा तोड़ खिड़कियां घुसा, घरों में खुल खेला, छोटी-छोटी नावें दौड़ें, वे शीशों से टकरायें उनको तोड़ें, दूर-दूर तक वे तो उनको बिखरायें । जहां-जहां तक दृष्टि जा सके दृश्य नज़र ऐसे आयें - कहीं झोंपड़े टूटे-फूटे या छप्पर बहते जायें, बहें कहीं शहतीर कहीं पर गोदामों के माल बहें कहीं ग़रीबों की कुछ चीजें, जो उनकी दुख-कथा कहें, ग़ज़ब किया तूफ़ान बाढ़ ने पुल भी सभी बहाये हैं क़ब्रों से ताबूत और शव उनके संग बह आये हैं, कोप ईश्वर का वे देखें, लोग दिलों में सभी डरें दण्ड अभी क्या और मिलेगा, क्या दुर्गति प्रभु और करें, चारा, नष्ट अनाज हो रहा, हाय! कहां ये पायेंगे ? उजड़ रहे घर-दर जो इतने भला कहां से आयेंगे ? बात भयंकर उसी वर्ष की। ज़ार कि अब जो नहीं रहा, दुख में डूबा, परेशान - सा, छज्जे में आ खड़ा हुआ, और कहा उसने लोगों से- "ईश्वर जैसा जो चाहें उनकी इच्छा के सम्मुख तो नहीं ज़ार कुछ कर पायें।" बैठ गया ख़्यालों में खोया, दूर दृष्टि थी दर्द भरी देख रहा था। सभी ओर से कैसी दुख की घटा घिरी, जितने थे मैदान दूर तक, वे सब बने बड़ी झीलें सड़कें नद-नालों में बदलीं, जो झीलों से कहीं मिलें, एक द्वीप-सा घिरा हुआ जल में था केवल महल खड़ा वह एकाकी, सूना-सूना, शोकग्रस्त-सा दुखी बड़ा, देखा ऐसा दृश्य ज़ार ने निर्णय मन में तुरत किया बड़े अफ़सरों और जनरलों को उसने झट हुक्म दिया, जहां बाढ़ का जोर अधिक था, वे खुद पानी में उतरें जहां-जहां जोख़िम, ख़तरा था, वे लोगों की मदद करें, जो बैठे थे छिपे घरों में, बाहर आते डरते थे उन्हें बचाने वे बढ़ते थे, उनकी रक्षा करते थे । इसी समय की बात, चौक पीटर में घटना यही घटी जहां एक कोने में ऊंची, नयी इमारत एक खड़ी, और बग़ल में जिसकी केवल थोड़ी-सी ऊंचाई पर पंजे ऊपर किये, खड़े दो सन्तरियों से शेर-बबर, एक शेर पर पत्थर के था येव्गनी बैठा चढ़कर सीने पर हाथों को बांधे था बेचारा, नंगे सिर, चेहरे का रंग उड़ा हुआ था और न वह तो हिले-डुले किन्तु न अपनी चिन्ता उसको, अपने दुख में नहीं घुले, उसे नहीं थी इतनी सुध भी, कैसे भूखी लहर उछल सराबोर कर गयी कभी की, उसके जूते, उनके तल, उसके मुंह पर बारिश कैसे कोड़े-से बरसाती थी हवा थपेड़े मार रही थी, ग़ुस्से से चिल्लाती थी, टोप उड़ा कब हवा ले गयी, उसे न यह भी पता चला इसकी क्या चिन्ता हो सकती, क्या इसकी परवाह भला । उसकी परेशान नज़रें थीं एक दिशा में जमी हुई बांध टकटकी देख रही थीं आंखें मानो थमी हुई, वहां धधकती गहराई से जैसे टीलों-सी लहरें ऊपर उठें गरजती मानो वे ग़ुस्से से उबल पड़ें, था तूफ़ान वहां पर भारी, थे मकान गिरते जाते उनके टुकड़े जहां-तहां थे पानी में बहते आते, हे प्रभु मेरे, हे ईश्वर ! अत्याचार न इतना कर ! हाय, निकट पागल लहरों के, हाय, निकट उस खाड़ी के जहां बाड़ है बिना रंग की, निकट बेद की झाड़ी के, है छोटा-सा एक घरौंदा, रहती वहीं पराशा है वही कल्पना, उसका सपना, उसकी जीवन आशा है, विधवा मां, बेटी उस घर में.... यह सब सच है या सपना या कि हमारा जीवन ही है मानो झूठा स्वप्न बना ? इस धरती पर व्यंग्य गगन का यह तो जैसे कोप-जना ? येव्गेनी पर तो जैसे था, जादू-टोना किया गया उसे संगमरमर में जैसे गाड़ा या जड़ दिया गया, वह बुत बना हुआ बैठा था, नदी कर रही मनमानी उसके चारों ओर न कुछ भी, था केवल पानी, पानी, लेकिन उसकी ओर पीठ कर, अडिग, अटल ऊंचाई पर जहां न नेवा पहुंच पा रही ग़ुस्से से उन्मत्त, बिफर, तांबे के घोड़े पर अपना हाथ उठाये बैठा था भला देवता को क्या चिन्ता, यदि था पानी चढ़ा हुआ । दूसरा भाग सभी ओर बरबादी करके तृप्त हुई नेवा आखिर बेशर्मी के हंगामों से चूर हुई वह तो थककर, खुश होती अपने ग़ुस्से पर वापिस वह लौटी जाये माल लूट का जहां-तहां पर बेदर्दी से बिखराये, जैसे क्रूर, लुटेरे डाकू, किसी गांव में घुस आयें, तोड़ें-फोड़ें, मारें काटें, गले दबायें, चिल्लायें, गाली बकें, डरायें सबको, जुल्म करें वे धमकायें, माल लूट का लेकर भागें, किन्तु हृदय में घबरायें पीछा करनेवाले पहुंचें, कहीं न वे पकड़े जायें, इसीलिये हड़बड़ी करें औ' भागे जायें ताबड़ तोड़, माल लूट का जो गिर जाये, देते उसे वहीं पर छोड़ । उतर गया जब थोड़ा पानी, सड़क लगी कुछ-कुछ दिखने येव्गेनी तब जल्दी-जल्दी, लगा नदी तट को बढ़ने, आशा और निराशा मन में, थी शंका, दिल धड़क रहा हालत क्या मां-बेटी की है, क्या दोनों ने वहां सहा ? नदी शान्त कुछ हुई, किन्तु थी अभी विजय से मदमाती अभी क्रुद्ध लहरों में वह थी अपना ग़ुस्सा दिखलाती, लहरों के नीचे तो जैसे अब भी ज्वाला जलती थी अब भी आपे से बाहर थी, ढेरों झाग उगलती थी, बुरी तरह से हांफ रही थी, सांस न टिककर ले पाये उस घोड़े-सा दम फूला था, भाग युद्ध से जो आये । सभी ओर येव्गेनी देखे, नाव नज़र उसको आई भागा उसकी ओर कि जैसे कोई निधि उसने पाई, तुरत पुकार लिया मांझी को, जो दिलेर था मस्त, निडर दस कोपेक ले नाव बढ़ा दी उसने पागल लहरों पर । बहुत अनुभवी मांझी ने, तूफ़ानी लहरों से डटकर, बड़ी देर तक लिया मोर्चा, उसे भरोसा था खुद पर नाव कभी लहरों में दबती, आती ऊपर कभी उभर, उसे निगलने को व्याकुल था, हर क्षण, हर पल, उर्मि- उदर किन्तु नाव, नाविक, येव्गेनी पहुंच गये तट पर आखिर । परिचित सड़क सामने उसके, दौड़ा वह दुख का मारा जानी-पहचानी जगहों को, देखे, घूरे बेचारा, वह उनको पहचान न पाये, सचमुच दृश्य भयानक था खण्डहर और तबाही में, सब बदला यहां अचानक था, कुछ पानी के साथ बह गया, कुछ था इधर-उधर बिखरा कोई घर था टेढ़ा-मेढ़ा, कोई बिल्कुल टूट गिरा, कुछ तो बिल्कुल लुप्त हो गये, शेष न उनका नाम-निशान खिसक गये कुछ तो नींवों से, कैसे हो उनकी पहचान, सभी ओर शव पड़े हुए थे, जैसे हो यह रण-आंगन येव्गेनी को होश न कुछ भी, बहुत विकल था उसका मन, व्यथित यातना से था इतना, वह सन्नाटे में आया मूक, मौन, सुध-बुध बिसराये, भागा जाये घबराया, उसी दिशा में, जहां भाग्य ने रेखा गुप्त बनायी थी मुहरबन्द ख़त में क्या जाने कैसी ख़बर छिपायी थी, नगर-छोर पर जो बस्ती थी उसी तरफ़ भागा जाये यह खाड़ी, घर यहीं निकट था, नजर न लेकिन वह आये .... कहां गया वह ?.. कोई इतना बतलाये .. रुका ठिठककर पीछे गया, लौटकर आया वह तो इसी जगह पर फिर, यहां-वहां देखे... बढ़ जाये .... फिर से देखे इधर-उधर यही जगह है, ठीक यही है, जहां खड़ा था उनका घर ; सरपत की झाड़ी तो यह है। फाटक था इस जगह, यहां शायद वह बह गया बाढ़ में, पर मकान भी गया कहां ? सभी तरह के उलटे-सीधे ख़्याल बुरे मन में आयें इधर-उधर वह चक्कर काटे लिये हृदय में चिन्तायें, ऊंचे-ऊंचे मन समझाये, किसी तरह से बेचारा सहसा माथा ठोंका उसने, हंसा जोर से दुखियारा । सहमे हुए नगर पर रजनी की काली चादर छाई किसी तरह भी नींद न लोगों को लेकिन जल्दी आई, जो कुछ बीत चुका था दिन में, उसकी चर्चा करते थे जो बीती थी उसे याद कर डरते और सिहरते थे । फीके, थके-थके मेघों से किरण सुबह की जब निकली शान्त नगर पर फैला दी जब उसने ज्योति प्रभा उजली, पिछले दिन के दुख के मानो चिह्न हुए सब अनजाने लाल उषा ने उन्हें ढक दिया, बुने अरुण ताने-बाने । पहलेवाले ढर्रे पर ही लौट जिन्दगी फिर चल दी दिखने लगी गली, सड़कों पर पहले जैसी हलचल भी, किये कठोर कलेजे अपने, लोग घरों से अब निकले बाबू और कर्मचारी भी, सब दफ़्तर की ओर चले, व्यापारी लोगों ने भी तो अब हिम्मत से काम लिया गोदामों को खोला, जो था बचा माल वह जमा किया, जो कुछ घाटा हुआ, उसे वे पूरा जल्दी पुनः करें बेचें महंगा माल तिजोरी अपनी ख़ाली पुनः भरें। लोग अहाते लांघ रहे थे कहीं किश्तियों में चढ़कर बैरन ख़वोस्तोव, कवि, प्रभु-प्यारा, करता था कुछ और, मगर, वह अपने ख़्यालों में खोया, रचता था बस, काव्य अमर उसने छन्दों में कह डाला, जो बीती नेवा तट पर । लेकिन वह येव्गेनी मेरा, हां, येव्गेनी बेचारा ... दिल पर ऐसी चोट पड़ी अब पागल था दुख का मारा, नेवा की विद्रोही लहरें, उनका ऊंचा कोलाहल तेज़ पवन के प्रबल थपेड़े सर्राटे औ' उथल-पुथल, यह सब कानों में बजता, वह गुमसुम चलता जाता था कोई स्वप्न भयानक मानो हर क्षण उसे सताता था। बीत गया सप्ताह एक, फिर बीता ऐसे पूरा मास लौटा कभी न घर येव्गेनी खाली पड़ा रहा आवास । गृह-स्वामी ने यह देखा तो झटपट निर्णय और किया निर्धन कवि को भाड़े पर घर उसने अपना चढ़ा दिया। लेने को सामान वहां से कभी न येव्गेनी आया वह अजनबी बना जग के हित, सब ने उसको ठुकराया । पैदल इधर-उधर वह दिन भर आवारा घूमा करता सोता कहीं घाट पर, टुकड़े मांग पेट अपना भरता । तन पर फटे-पुराने कपड़े चिथड़े होते जाते थे नीच, दुष्ट बच्चे पीछे से पत्थर भी बरसाते थे, कहां चला जाता सड़कों पर, ध्यान न उसको रहता था कोचवान, गाड़ीवानों के वह चाबुक भी सहता था, बाढ़ और तूफ़ान भयानक दिल में बैठा था जो डर वही निरन्तर शोर गूंजता, उसे न जग की तनिक खबर । किसी तरह से बीत रहे थे बहुत दुखी थे उसके दिन नहीं दरिन्दों का जीवन था और न मानव का जीवन, वह दुनिया से दूर नहीं था, किन्तु न था जग का वासी वह जीवित मृत, भूत-प्रेत भी और नहीं था संन्यासी .... एक बार क्या हुआ, घाट पर नेवा के था नींद मगन वह येव्गेनी । गर्मी बीती, पतझर के दिन, तेज़ पवन, एक बड़ी दीवार कि लहरें ऐसे तट से टकरायें चढ़ें घाट पर, करें शिकायत और झाग वे बिखरायें, चिकनी- चिकनी घाट - पैड़ियां उनसे यों मारें टक्कर, जैसे कोई सिर पटके न्यायालय के निर्मम दर पर किन्तु अदालत ध्यान न दे, न ले दुखिया की सार, ख़बर । जागा येव्गेनी बेचारा । थे मौसम के चिह्न बुरे घोर उदासी, पानी टपके और हवा भी बैन करे, रात्रि - तिमिर में कहीं दूर से, पवन रुदन के उत्तर में पहरेदार, सन्तरी कोई, चिल्लाता ऊंचे स्वर में.... जगा चौंककर जब येव्गेनी, स्मृतियां सभी सजीव हुईं बड़ी भयानक यादें आंखों के सम्मुख सब घूम गयीं, जल्दी से उठ खड़ा हुआ, वह चला क़दम ले चले जिधर किन्तु देखने लगा ध्यान से एक जगह सहसा रुककर, धीरे-धीरे घुमा रहा था सभी ओर वह दृष्टि, नज़र, भय की बड़ी भयानक छाया अंकित थी उसके मुख पर । भवन सामने वही, स्तम्भ भी, वही सन्तरी शेर-बबर जो सचमुच के लगते थे, था उठा हुआ पंजा ऊपर, निकट वही चट्टान, स्मारक, सभी ओर था अंधेरा लोहे के जंगले ने जिसको सभी ओर से था घेरा, तांबे के घोड़े पर अपना आसन देव जमाये था दूरी पर वह एक दिशा में अपना हाथ बढ़ाये था । सहसा सिहर उठा येव्गेनी, उसे झुरझुरी-सी आई पर्दा-सा हट गया, भयानक व्यथा-कथा मन पर छाई, यही जगह है, जहां बाढ़ ने अपना रंग दिखाया था हिंसक लहरों ने ग़ुस्से में जुल्म बहुत-सा ढाया था, यही जगह है, यही चौक है, शेरों को भी पहचाना ऊंचाई पर जो निश्चल था, बुत-सा उसको भी जाना, तांबे का सिर वही, अटल है जिसके चारों ओर तिमिर वही, वही, जिसकी इच्छा से बसा नगर सागर तट पर ... बड़ा भयानक वह लगता है अंधकार में घिरा हुआ ! कौन कहे, उसके मस्तक में ख़्याल समाये हैं क्या क्या ! उसके मन में, उसके भीतर कैसी शक्ति धड़कती है ! उसके घोड़े में भी जाने कैसी आग धधकती है। बतलाओ गर्वीले घोड़े जाते सरपट उड़े किधर कहां टिकाओगे सुम अपने, उतरोगे किस धरती पर ? ओ लोगों के भाग्य-विधाता, महाप्रतापी, बोलो तो क्या यह नहीं किया था तुमने ? राज तनिक यह खोलो तो, लोहे की डाली लगाम औ' ऊपर रूस उठाया था इस घोड़े की तरह उसे भी ऊंचे शिखर चढ़ाया था ? इसी देवता की चौकी के गिर्द बेचारे पागल ने चक्कर एक लगाया, उसने विह्वलता से व्याकुल ने, उसके चेहरे पर भी उसने दौड़ाई वहशी नज़रें जिसने अपने भुज-बल से कर ली आधी दुनिया वश में। उसे सांस मुश्किल से आये, लगा कि जैसे दम घुटने लोहे के ठण्डे जंगले पर माथा टिका दिया उसने, आंखों में तो उसकी मानो धुंध, कुहासा सा छाया और हृदय को जैसे जलते अंगारों ने दहकाया, खून उबलने लगा, क्रोध से उसका चेहरा लाल हुआ, उस गर्वीले बुत के सम्मुख बड़ा अजब-सा हाल हुआ, दांत पीसने लगा, उंगलियां सब भींचीं उसने कसकर ऐसी हालत, भूत-प्रेत हो चढ़ा हुआ जैसे सिर पर, ग़ुस्से में धीरे से बोला- "बड़े बने हो निर्माता ज़रा रुको तो, अक्ल ठिकाने हूं लाता !.." इतना ही बस कहा, भागने लगा पांव सिर पर रखकर, उसको लगा कि ज़ार भयंकर ग़ुस्से से मानो भरकर उसकी ओर घुमा चेहरे को, डाले उसपर कड़ी नज़र... खाली चौक, अकेला ही वह ऐसे भागा जाता था भाग रहा था अपने पीछे मानो यह सुन पाता था- घन-गर्जन होता हो या फिर धरती ही थर्राती हो ऐसे टापें पड़ें ज़ोर से सड़क धसकती जाती हो । फीकी-सी चांदनी चांद की उसमें वह जगमगा रहा घुड़सवार तांबे का उसके पीछे अपना हाथ उठा, बेहद तेजी से अपना घोड़ा दौड़ाता आता था सारी रात जिधर भी वह बेचारा पागल जाता था, घुड़सवार तांबे का, पीछा सभी जगह पर करता था सभी जगह पर टापों का भारी बोझल स्वर बजता था । इस दिन से यदि इसी चौक में भूले से वह आ भटका हाल बुरा हो जाता उसका, रंग उड़ता था चेहरे का, रख छाती पर हाथ थाम वह दिल को झट अपने लेता मन की घोर व्यथा को मानो इसी तरह थपकी देता, अपनी फटी-पुरानी टोपी वह उतारता था सिर से, सहमा-सहमा, घबराया-सा और नज़र नीची करके खिसक वहां से जाता था... एक द्वीप छोटा-सा बिल्कुल सागर तट पर दिखता था कभी देर हो जाती कोई मछुआ वहां उतरता था, आग जलाता औ' बेचारा हंडिया वहीं चढ़ाता था खाता-पीता और वहीं पर अपनी रात बिताता था, या फिर छोटा-मोटा बाबू नाव इधर ले आ जाता छुट्टी के दिन बड़े मज़े से वह अपना दिल बहलाता । था यह निर्जन द्वीप, यहां पर सभी ओर था वीराना ऐसी ऊसर भूमि, घास का भी मुश्किल था उग पाना, घास-फूस का एक झोंपड़ा यहां बाढ़ में बह आया पानी पर यों लगता जैसे किसी झाड़ की हो छाया, लाद उसे पिछले वसन्त में ले आये वे बजरे पर वह था ख़ाली टूटा-फूटा बिखरा-बिखराया, जर्जर, मिला उन्हें उसकी चौखट पर वह दीवाना पड़ा हुआ नहीं सांस थी, था शव ठण्डा, वह बेचारा मरा हुआ, इस हालत में उसे वहां से उठवाया और ख़ुदा के लिये कहीं पर दफ़नाया । १८३३

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