तीसरा सप्तक : केदारनाथ सिंह

Teesra Saptak : Kedarnath Singh


अनागत

इस अनागत को करें क्या जो कि अक्सर बिना सोचे, बिना जाने सड़क पर चलते अचानक दीख जाता है किताबों में घूमता है रात की वीरान गलियों बीच गाता है। राह के हर मोड़ से होकर गुज़र जाता दिन ढले— सूने घरों में लौट आता है, बाँसुरी को छेड़ता है खिड़कियों के बंद शीशे तोड़ जाता है किवाड़ों पर लिखे नामों को मिटा देता बिस्तरों पर छाप अपनी छोड़ जाता है। इस अनागत को करें क्या जो न आता है, न जाता है! आजकल ठहरा नहीं जाता कहीं भी, हर घड़ी, हर वक़्त खटका लगा रहता है कौन जाने कब, कहाँ वह दीख जाए हर नवागंतुक उसी की तरह लगता है! फूल जैसे अँधेरे में दूर से ही चीख़ता हो इस तरह वह दरपनों में कौंध जाता है हाथ उसके हाथ में आकर बिछल जाते स्पर्श उसका धमनियों को रौंद जाता है। पंख उसकी सुनहली परछाइयों में खो गए हैं पाँव उसके कुहासे में छटपटाते हैं। इस अनागत को करें क्या हम कि जिसकी सीटियों की ओर बरबस खिंचे जाते हैं।

दुपहरिया

झरने लगे नीम के पत्ते बढ़ने लगी उदासी मन की, उड़ने लगी बुझे खेतों से झुर-झुर सरसों की रंगीनी, धूसर धूप हुई मन पर ज्यों — सुधियों की चादर अनबीनी, दिन के इस सुनसान पहर में रुक-सी गई प्रगति जीवन की । साँस रोक कर खड़े हो गए लुटे-लुटे-से शीशम उन्मन, चिलबिल की नंगी बाँहों में भरने लगा एक खोयापन, बड़ी हो गई कटु कानों को 'चुर-मुर' ध्वनि बाँसों के वन की । थक कर ठहर गई दुपहरिया, रुक कर सहम गई चौबाई, आँखों के इस वीराने में — और चमकने लगी रुखाई, प्रान, आ गए दर्दीले दिन, बीत गईं रातें ठिठुरन की ।

पूर्वाभास

धूप चिड़चिड़ी, हवा बेहया, दिन मटमैला मौसम पर रंग चढ़ा फागुनी, शिशिर टूटते पत्तों में टूटा, पलाश वन ज्यों फैला एक उदासी का नभ शोले चटक फूटते जिस में अरमानों से गूँजा हिया — आएगा कल बसन्त, मन के भावों के गीतकार-सा गा जाएगा सबका कुछ-कुछ, मौन छाएगा गन्ध स्वरों से, गुड़ की गमक हवा को सरसा जाती जैसे पूस माह में, नदिया होंगीं व्यक्त तटों की हरियाली में खिल, उघड़ा-सा कहीं न दीखेगा जीवन, लगते जो योगी वे अनुभूति-पके तरु फूटेंगे, जकड़ा-सा तब भी क्या चुप रह जाएगा प्यार हमारा ? कुछ न कहेगा क्या वसन्त का सन्ध्या-तारा ?

फागुन का गीत

गीतों से भरे दिन फागुन के ये गाए जाने को जी करता! ये बाँधे नहीं बँधते, बाँहें- रह जातीं खुली की खुली, ये तोले नहीं तुलते, इस पर ये आँखें तुली की तुली, ये कोयल के बोल उड़ा करते, इन्हें थामे हिया रहता! अनगाए भी ये इतने मीठे इन्हें गाएँ तो क्या गाएँ, ये आते, ठहरते, चले जाते इन्हें पाएँ तो क्या पाएँ ये टेसू में आग लगा जाते, इन्हें छूने में डर लगता! ये तन से परे ही परे रहते, ये मन में नहीं अँटते, मन इनसे अलग जब हो जाता, ये काटे नहीं कटते, ये आँखों के पाहुन बड़े छलिया, इन्हें देखे न मन भरता!

पात नए आ गए

टहनी के टूसे पतरा गए ! पकड़ी को पात नए आ गए ! नया रंग देशों से फूटा वन भींज गया, दुहरी यह कूक, पवन झूठा — मन भींज गया, डाली-डाली स्वर छितरा गए ! पात नए आ गए ! कोर डिठियों की कड़ुवाई रंग छूट गया, बाट जोहते आँखें आईं दिन टूट गया, राहों के राही पथरा गए, पात नए आ गए !

धानों का गीत

धान उगेंगे कि प्रान उगेंगे उगेंगे हमारे खेत में, आना जी, बादल ज़रूर ! चन्दा को बाँधेंगे कच्ची कलगियों सूरज को सूखी रेत में आना जी, बादल ज़रूर ! आगे पुकारेगी सूनी डगरिया पीछे झुके बन-बेंत संझा पुकारेंगी गीली अखड़ियाँ भोर हुए धन खेत; आना जी, बादल ज़रूर ! धान कँपेंगे कि प्रान कँपेंगे कँपेंगे हमारे खेत में, आना जी, बादल ज़रूर ! धूप ढरे तुलसी-बन झरेंगे, साँझ घिरे पर कनेर, पूजा की वेला में ज्वार झरेंगे धान-दिये की बेर, आना जी बादल ज़रूर ! धान पकेंगे कि प्रान पकेगे पकेंगे हमारे खेत में, आना जी, बादल ज़रूर ! झीलों के पानी खजूर हिलेंगे, खेतों में पानी बबूल, पछुवा के हाथों में शाखें हिलेंगे, पुरवा के हाथों में फूल, आना जी बादल ज़रूर ! धान तुलेंगे कि प्रान तुलेंगे, तुलेंगे हमारे खेत में, आना जी बादल ज़रूर !

शारद प्रात

सुबह उठा तो ऐसा लगा कि शरद आ गया, आँखों को नीला-नीला आकाश भा गया, धूप गिरी ऐसे गवाक्ष से जैसे काँप गया हो शीशा मेरे रोम-रोम ने तुम को पता नहीं क्यों बहुत असीसा, शरद तुम्हारे खेतों में सोना बरसाए, छज्जों पर लौकियाँ चढ़ाए, टहनी-टहनी फूल लगाए, पत्ती-पत्ती ओस चुआए, मेड़ों-मेड़ों दूब उगाए शरद तुम्हारे बालों में गुलाब उलझाए, छिन पल्ले का छोर ताल की ओर उड़ाए; दूर-दूर से — हल्के-हल्के धानों के रुमाल हिलाए बाँसों में सीटियाँ बजाए, गलियारों में हाँक लगाए, मन पर, बाँहों पर, कन्धों पर हरसिंगार की डाल झुकाए, पास कुएँ के खड़े आँवले की शाखों को ख़ूब कँपाए, नदी तीर की नयी रेतियों से — दिन की सलवटें मिटाए, लहरों में काँपता भोर का दिया सिराए, तुलसी के तल धूप दिखाए, चूल्हे पर उफने गरमाए, सँग-सँग बैठा आँच लगाए, साथ-साथ रोटियाँ सिंकाए, शरद तुम्हारे तन पर छाए, मन पर छाए, नये धान की गन्ध सरीखा — घर आँगन, जँगल-दरवाज़ों में बस जाए शरद कि जो मेरी खिड़की से भी — भिनसारे दिख जाता है, खिंची धूप की टेढ़ी-मेढ़ी रेखाओं से मेरे इस सागौन वृक्ष के पात-पात पर नाम तुम्हारा लिख जाता है ।

कुहरा उठा

कुहरा उठा साये में लगता पथ दुहरा उठा, हवा को लगा गीतों के ताले सहमी पाँखों ने सुर तोड़ दिया, टूटती बलाका की पाँतों में मैंने भी अन्तिम क्षण जोड़ दिया, उठे पेड, घर दरवाज़े, कुआँ खुलती भूलों का रंग गहरा उठा । शाखों पर जमे धूप के फाहे, गिरते पत्तों के पल ऊब गए, हाँक दी खुलेपन ने फिर मुझको डहरों के डाक कहीं डूब गए, नम साँसों ने छू दी दुखती रग साँझ का सिराया मन हहरा उठा । पकते धानों से महकी मिट्टी फ़सलों के घर पहली थाप पड़ी, शरद के उदास काँपते जल पर हेमन्ती रातों की भाप पड़ी, सुइयाँ समय की सब ठार हुईं छिन, घड़ियों, घण्टों का पहर उठा !

शामें बेच दी हैं

शामें बेच दी हैं भाई, शामें बेच दी हैं मैंने शामें बेच दी हैं! वो मिट्टी के दिन, वो धरौंदों की शाम, वो तन-मन में बिजली की कौंधों की शाम, मदरसों की छुट्टी, वो छंदों की शाम, वो घर भर में गोरस की गंधों की शाम वो दिनभर का पढना, वो भूलों की शाम, वो वन-वन के बांसों-बबूलों की शाम, झिडकियां पिता की, वो डांटों की शाम, वो बंसी, वो डोंगी, वो घाटों की शाम, वो बांहों में नील आसमानों की शाम, वो वक्ष तोड-तोड उठे गानों की शाम, वो लुकना, वो छिपना, वो चोरी की शाम, वो ढेरों दुआएं, वो लोरी की शाम, वो बरगद पे बादल की पांतों की शाम वो चौखट, वो चूल्हे से बातों की शाम, वो पहलू में किस्सों की थापों की शाम, वो सपनों के घोडे, वो टापों की शाम, वो नए-नए सपनों की शामें बेच दी हैं, भाई, शामें बेच दी हैं, मैंने शामें बेच दी हैं। वो सडकों की शाम, बयाबानों की शाम, वो टूटे रहे जीवन के मानों की शाम, वो गुम्बद की ओट हुई झेपों की शाम, हाट-बाटों की शाम, थकी खेपों की शाम, तपी सांसों की तेज रक्तवाहों की शाम, वो दुराहों-तिराहों-चौराहों की शाम, भूख प्यासों की शाम, रुंधे कंठों की शाम, लाख झंझट की शाम, लाख टंटों की शाम, याद आने की शाम, भूल जाने की शाम, वो जा-जा कर लौट-लौट आने की शाम, वो चेहरे पर उडते से भावों की शाम, वो नस-नस में बढते तनावों की शाम, वो कैफे के टेबल, वो प्यालों की शाम, वो जेबों पर सिकुडन के तालों की शाम, वो माथे पर सदियों के बोझों की शाम वो भीडों में धडकन की खोजों की शाम, वो तेज-तेज कदमों की शामें बेच दी हैं, भाई, शामें बेच दी हैं, मैंने शामें बेच दी हैं।

दीप दान

जाना, फिर जाना, उस तट पर भी जा कर दिया जला आना, पर पहले अपना यह आँगन कुछ कहता है, उस उड़ते आँचल से गुड़हल की डाल बार-बार उलझ जाती हैं, एक दिया वहाँ भी जलाना; जाना, फिर जाना, एक दिया वहाँ जहाँ नई-नई दूबों ने कल्ले फोड़े हैं, एक दिया वहाँ जहाँ उस नन्हें गेंदे ने अभी-अभी पहली ही पँखड़ी बस खोली है, एक दिया उस लौकी के नीचे जिसकी हर लतर तुम्हें छूने को आकुल है एक दिया वहाँ जहाँ गगरी रक्खी है, एक दिया वहाँ जहाँ बर्तन मँजने से गड्ढा-सा दिखता है, एक दिया वहाँ जहाँ अभी-अभी धुले नये चावल का गन्धभरा पानी फैला है, एक दिया उस घर में — जहाँ नई फ़सलों की गन्ध छटपटाती हैं, एक दिया उस जँगले पर जिससे दूर नदी की नाव अक्सर दिख जाती हैं एक दिया वहाँ, जहाँ झबरा बन्धता है, एक दिया वहाँ, जहाँ पियरी दुहती है, एक दिया वहाँ, जहाँ अपना प्यारा झबरा दिन-दिन भर सोता है, एक दिया उस पगडण्डी पर जो अनजाने कुहरों के पार डूब जाती है, एक दिया उस चौराहे पर जो मन की सारी राहें विवश छीन लेता है, एक दिया इस चौखट, एक दिया उस ताखे, एक दिया उस बरगद के तले जलाना, जाना, फिर जाना, उस तट पर भी जा कर दिया जला आना, पर पहले अपना यह आँगन कुछ कहता है, जाना, फिर जाना !

बादल ओ!

हम नए-नए धानों के बच्चे तुम्हें पुकार रहे हैं- बादल ओ! बादल ओ! बादल ओ! हम बच्चे हैं, (चिड़ियों की परछाई पकड़ रहे हैं उड़-उड़) हम बच्चे हैं, हमें याद आई है जाने किन जन्मों की- आज हो गया है जी उन्मन! तुम कि पिता हो- इन्द्रधनुष बरसो! कि फूल बरसो, कि नींद बरसो- बादल ओ! हम कि नदी को नहीं जानते, हम कि दूर सागर की लहरें नहीं माँगते। हमने सिर्फ तुम्हें जाना है, तम्हें माँगते हैं। आर्द्रा के पहले झोंके में तुम को सूँघा है- पहला पत्ता बढ़ा दिया है। लिए हाथ में हाथ हवा का- खेतों की मेड़ो पर घिरते तुम को देखा है, ओठों से विवश छू लिया है। ओ सुनो, अन्न-वर्षी बादल ओ सुनो, बीज-वर्षी बादल हम पंख माँगते हैं, हम नए फेन के उजले-उजले शंख माँगते हैं, हम बस कि माँगते हैं बादल! बादल! घर बादल, आँगन बादल, सारे दरवाज़े बादल! तन बादल, मन बादल, ये नन्हें हाथ-पाँव बादल- हम बस कि माँगते हैं बादल, बादल। तुम गरजो- पेड़ चुरा लेंगे गर्जन, तुम कड़को- चट्टानों में बिखर जाएगी वह कड़कन। तुम बरसो- फूट पड़ेगी प्राणों की उमड़न-कसकन! फिर हम अबाध भीजेंगे, झूमेंगे- ये हरी भुजाएं नील दिशाओं को छू आएँगी- फिर तुम्हें वनों में पाखी गाएंगे, फिर नए जुते खेतों से हवा-हवा बस जाएगी! फिर नयन तुम्हें जोहेंगे जूही के जादू-वन में, आमों के पार साँझ के सूने टीलों पर! फिर पवन उँगलियाँ तुम्हें चीन्ह लेंगी- पौधों में, पत्तों में, कत्थई कोंपलों में! तुम कि पिता हो- कहीं तुम्हारे संवेदन में भी तो वही कंप होगा- जो हमें हिलाता है! ओ सुनो रंग-वर्षी बादल, ओ सुनो गंध-वर्षी बादल, हम अधजनमे धानों के बच्चे तुम्हें माँगते हैं।

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