शाम होने वाली है : अख़लाक़ मुहम्मद ख़ान 'शहरयार'

Sham Hone Wali Hai : Akhlaq Mohammed Khan Shahryar


मुग़्नी तबस्सुम के लिए

ऎ अज़ीज़ अज़ जान मुग़्नी तेरी परछाई हूँ लेकिन कितना इतराता हूँ मैं आज़मी का मरना नज्मा का बिछड़ना तेरे बल-बूते पर यह सब सह गया भूल कर भी यह ख़याल आया नहीं मुझको कि तन्हा रह गया तेरी उल्फ़त में अजब जादू-असर है तेरी परछाईं रहूँ जब तक जियूँ यह चाहता हूँ ऎ ख़ुदा! छोटी-सी कितनी बेज़रर यह आरज़ू है आरज़ू यह मैंने की है इस भरोसे पर कि तू है। आज़मी= ख़लीलुर्रहमान आज़मी (कवि के दोस्त); नज्मा= कवि की पत्नी; बेज़रर= हानि न पहुँचाने वाली

दिल में तूफ़ान है और आँखों में तुग़यानी है

दिल में तूफ़ान है और आँखों में तुग़यानी है ज़िन्दगी हमने मगर हार नहीं मानी है। ग़मज़दा वो भी हैं दुश्वार है मरना जिन को वो भी शाकी हैं जिन्हें जीने की आसानी है। दूर तक रेत का तपता हुआ सहरा था जहाँ प्यास का किसकी करश्मा है वहाँ पानी है। जुस्तजू तेरे अलावा भी किसी की है हमें जैसे दुनिया में कहीं कोई तेरा सानी है। इस नतीजे पर पहुँचते हैं सभी आख़िर में हासिले-सैरे-जहाँ कुछ नहीं हैरानी है। शाकी= शिकायत करने वाला; सानी=बराबर

शिकवा कोई दरिया की रवानी से नहीं है

शिकवा कोई दरिया की रवानी से नहीं है रिश्ता ही मेरी प्यास का पानी से नहीं है। कल यूँ था कि ये क़ैदे-ज़्मानी से थे बेज़ार फ़ुर्सत जिन्हें अब सैरे-मकानी से नहीं है। चाहा तो यकीं आए न सच्चाई पे इसकी ख़ाइफ़ कोई गुल अहदे-खिज़ानी से नहीं है। दोहराता नहीं मैं भी गए लोगों की बातें इस दौर को निस्बत भी कहानी से नहीं है। कहते हैं मेरे हक़ में सुख़नफ़ह्म बस इतना शे'रों में जो ख़ूबी है मआनी से नहीं है। क़ैदे-ज़मानी=समय की पाबन्दी; सैरे-मकानी= दुनिया की सैर; ख़ाइफ़=डरा हुआ;अहदे-ख़िज़ानी= पतझड़ का मौसम; मआनी=अर्थ

जो बुरा था कभी अब हो गया अच्छा कैसे

जो बुरा था कभी अब हो गया अच्छा कैसे वक़्त के साथ मैं इस तेज़ी से बदला कैसे। जिनको वह्शत से इलाक़ा नहीं वे क्या जानें बेकराँ दश्त मेरे हिस्से में आया कैसे। कोई इक-आध सबब होता तो बतला देता प्यास से टूट गया पानी का रिश्ता कैसे। हाफ़िज़े में मेरे बस एक खंडहर-सा कुछ है मैं बनाऊँ तो किसी शह्र का नक़्शा कैसे। बारहा पूछना चाहा कभी हिम्मत न हुई दोस्तो रास तुम्हें आई यह दुनिया कैसे। ज़िन्दगी में कभी एक पल ही सही ग़ौर करो ख़त्म हो जाता है जीने का तमाशा कैसे।

तमाम शह्र में जिस अजनबी का चर्चा है

तमाम शह्र में जिस अजनबी का चर्चा है सभी की राय है, वह शख़्स मेरे जैसा है। बुलावे आते हैं कितने दिनों से सहरा के मैं कल ये लोगों से पूछूंगा किस को जाना है। कभी ख़याल ये आता है खेल ख़त्म हुआ कभी गुमान गुज़रता है एक वक़्फ़ा है। सुना है तर्के-जुनूँ तक पहुँच गए हैं लोग ये काम अच्छा नहीं पर मआल अच्छा है। ये चल-चलावे के लम्हे हैं, अब तो सच बोलो जहाँ ने तुम को कि तुम ने जहाँ को बदला है। पलट के पीछे नहीं देखता हूँ ख़ौफ़ से मैं कि संग होते हुए दोस्तों को देखा है। मआल=नतीजा या परिणाम; संग=पत्थर

जो कहते हैं कहीं दरिया नहीं है

जो कहते हैं कहीं दरिया नहीं है सुना उन से कोई प्यासा नहीं है। दिया लेकर वहाँ हम जा रहे हैं जहाँ सूरज कभी ढलता नहीं है। न जाने क्यों हमें लगता है ऎसा ज़मीं पर आसमाँ साया नहीं है। थकन महसूस हो रुक जाना चाहें सफ़र में मोड़ वह आया नहीं है। चलो आँखों में फिर से नींद बोएँ कि मुद्दत से उसे देखा नहीं है।

तेरे आने की ख़बर आते ही डर लगने लगा

तेरे आने की ख़बर आते ही डर लगने लगा ग़ैर का लगता था जो वह अपना घर लगने लगा क्या हरीफों में मेरे सूरज भी शामिल हो गया ज़र्द से सन्नाटे का मजमा बाम पर लगने लगा याद आना था किसी इक ख़्वाब आंखें करबला जो जुदा तन से हुआ वो मेरा सर लगने लगा जाने क्या उफ्ताद पड़ने को है मुझ पर दोस्तो मोतबर लोगों को अब मैं मोतबर लगने लगा।

अब वक़्त जो आने वाला है किस तरह गुज़रने वाला है

अब वक़्त जो आने वाला है किस तरह गुज़रनेवाला है वो शक्ल तो कब से ओझल है ये ज़ख़्म भी भरनेवाला है दुनिया से बग़ावत करने की उस शख़्स से उम्मीदें कैसी दुनिया के लिए जो ज़िन्दा है दुनिया से जो डरने वाला है आदम की तरह आदम से मिले कुछ अच्छे-सच्चे काम करे ये इल्म अगर हो इंसाँ को कब कैसे मरने वाला है दरिया के किनारे पर इतनी ये भीड़ यही सुनकर आई इक चाँद बिना पैराहन के पानी में उतरने वाला है

तुमको मुबारक शामिल होना बंजारों में

तुमको मुबारक शामिल होना बंजारों में बस्ती की इज़्ज़त न डुबोना बंजारों में उनके लिए ये दुनिया एक अजायब घर है हिर्सो-हवस के बीज न बोना बंजारों में अपनी उदासी अपने साथ में मत ले जाना ना-मक़बूल है रोना धोना बंजारों में उनके यहां ये रात और दिन का फ़र्क़ नहीं है उनकी आंख से जागना सोना बंजारों में यकसां और मसावी हिस्सा सबको देना जो कुछ भी तुम पाना खोना बंजारों में हिजरत की ख़ुशबू से उनकी रूह बंधी है हिजरत से बेज़ार न होना बंजारों में।

जाने क्या देखा था मैंने ख़्वाब में

जाने क्या देखा था मैंने ख़्वाब में फंस गया फिर जिस्म के गिरदाब में तेरा क्या तू तो बरस के खुल गया मेरा सब कुछ बह गया सैलाब में मेरी आंखों का भी हिस्सा है बहुत तेरे इस चेहरे की आबो-ताब में तुझ में और मुझ में तअल्लुक है वही है जो रिश्ता साज़ और मिज़राब में मेरा वादा है कि सारी ज़िन्दगी तुझ से मैं मिलता रहूंगा ख़्वाब में।

मैंने जिसको कभी भुलाया नहीं

मैंने जिसको कभी भुलाया नहीं याद करने पे याद आया नहीं अक्से-महताब से मुशाबह है तेरा चेहरा तुझे बताया नहीं तेरा उजला बदन न मेला हो हाथ तुझ को कभी लगाया नहीं ज़द में सरगोशियों की फिर तू है ये न कहना तुझे जगाया है बा-ख़बर मैं हूँ तू भी जानता है दूर तक अब सफ़र में साया नहीं।

इसे गुनाह कहें या कहें सवाब का काम

इसे गुनाह कहें या कहें सवाब का काम नदी को सौंप दिया प्यास ने सराब का काम हम एक चेह्रे को हर ज़ाविए से देख सकें किसी तरह से मुकम्मल हो नक्शे-आब का काम हमारी आँखे कि पहले तो खूब जागती हैं फिर उसके बाद वो करतीं है सिर्फ़ ख़्वाब का काम वो रात-कश्ती किनारे लगी कि डूब गई सितारे निकले तो थे करने माहताब का काम फ़रेब ख़ुद को दिए जा रहे हैं और ख़ुश हैं उसे ख़बर है कि दुश्वार है हिजाब का काम सराब = मरीचिका, जाविए = कोण नक्शे-आब = जल्दी मिट जाने वाला निशान हिजाब = पर्दा

कुछ देर रही हलचल मुझ प्यास से पानी में

कुछ देर रही हलचल मुझ प्यास से पानी में फिर थी वही जौलानी दरिया की रवानी में ये हिज्र की रातें भी होती हैं अजब रातें दिन फूल खिले देखे कल रात की रानी में आंखें वहीं ठहरी हैं पहले जहां ठहरी थीं वैसा ही हसीं है तू था जैसा जवानी में मीठी है कि कड़वी है सच्चाई बस इतनज है रहता है रिहाई तक इस क़ैदे-मकानी में।

बुझने के बाद जलना गवारा नहीं किया

बुझने के बाद जलना गवारा नहीं किया, हमने कोई भी काम दोबारा नहीं किया। अच्छा है कोई पूछने वाला नहीं है यह दुनिया ने क्यों ख़याल हमारा नहीं किया। जीने की लत पड़ी नहीं शायद इसीलिए झूठी तसल्लियों पे गुज़ारा नहीं किया। यह सच अगर नहीं तो बहुत झूठ भी नहीं तुझको भुला के कोई ख़सारा नहीं किया। ख़सारा= नुक़सान

कटेगा देखिए दिन जाने किस अज़ाब के साथ

कटेगा देखिए दिन जाने किस अज़ाब के साथ कि आज धूप नहीं निकली आफ़ताब के साथ तो फिर बताओ समंदर सदा को क्यूँ सुनते हमारी प्यास का रिश्ता था जब सराब के साथ बड़ी अजीब महक साथ ले के आई है नसीम, रात बसर की किसी गुलाब के साथ फ़िज़ा में दूर तक मरहबा के नारे हैं गुज़रने वाले हैं कुछ लोग याँ से ख़्वाब के साथ ज़मीन तेरी कशिश खींचती रही हमको गए ज़रूर थे कुछ दूर माहताब के साथ

सुनो ख़ुश-बख़्त लोगो! लम्हए-नायाब आया है

सुनो ख़ुश-बख़्त लोगो! लम्हए-नायाब आया है ज़मीं पर पैरहन पहने बिना महताब आया है। बना सकता है तुममें कोई काग़ज़-नाव बतलाओ सुना है शहर में, ऎ शहरियो सैलाब आया है।

जो मंज़र देखने वाली हैं आँखें रोने वाला है

जो मंज़र देखने वाली हैं आँखें रोने वाला है कि फिर बंजर ज़मीं में बीज कोई बोने वाला है। बहादुर लोग नादिम हो रहे हैं हैरती में हूँ अजब दहशत-ख़बर है शहर खाली होने वाला है।

सबसे जुदा हूँ मैं भी, अलग तू भी सबसे है

सबसे जुदा हूँ मैं भी, अलग तू भी सबसे है इस सच का एतराफ़ ज़माने को कब से है। फिर लोग क्यों हमारा कहा मानते नहीं सूरज को ख़ौफ़-सायए-दीवारे-शब से है।

दोस्त अहबाब की नज़रों में बुरा हो गया मैं

दोस्त अहबाब की नज़रों में बुरा हो गया मैं वक़्त की बात है क्या होना था, क्या हो गया मैं। दिल के दरवाज़े को वा रखने की आदत थी मुझे याद आता नहीं कब किससे जुदा हो गया मैं। कैसे तू सुनता बड़ा शोर था सन्नाटों का दूर से आती हुई ऎसी सदा हो गया मैं। क्या सबब इसका था, ख़ुद मुझ को भी मालूम नहीं रात ख़ुश आ गई, और दिन से ख़फ़ा हो गया मैं। भूले-बिसरे हुए लोगों में कशिश अब भी है उनका ज़िक्र आया कि फिर नग़्मासरा हो गया मैं। वा=खुला

तेरी फितरत

क्या होती है इबादत ये जानती हूँ मैं ! इस दुनियां के सारे रंग पहचानती हूँ मैं !! मैं रुसवा हो गयी हर गाँव हर गली ! मगर किसकी बदौलत ये जानती हूँ मैं !! आँखों में दिए आँसू बेचारगी के ! तेरी फितरत अजब है पहचानती हूँ मैं !! दिया है जिंदगी ने क्या खूब ये सिला ! मेरी अपनी है दौलत सहेजती हूँ मैं !! अपने दामन को देख के स्याह हो गए हम ! क़त्ल के छीटें कहाँ गिरे है जानती हूँ मैं !! चले क्यों है उनके अश्कों को पौछ्नें ! आँसू अपनी ही आँख में आंएगे ये जानती हूँ मैं !! कदम-कदम पर साथ देती हैं तेरी रुसवाईयां ! तेरे नक्श हमें भी छोड़ जायेंगे ये मानती हूँ मैं !!
नज़्में

बदन के आस-पास

लबों पे रेत हाथों में गुलाब और कानों में किसी नदी की काँपती सदा ये सारी अजनबी फ़िज़ा मेरे बदन के आस-पास आज कौन है।

नींद से आगे की मंज़िल

ख़्वाब कब टूटते हैं आँखें किसी ख़ौफ़ की तारीकी से क्यों चमक उठती हैं दिल की धड़कन में तसलसुल बाक़ी नहीं रहता ऎसी बातों को समझना नहीं आसान कोई नींद से आगे की मंज़िल नहीं देखी तुमने।

ख़लीलुर्रहमान आज़मी की याद में

धूल में लिपटे चेहरे वाला मेरा साया किस मंज़िल, किस मोड़ पर बिछड़ा ओस में भीगी यह पगडंडी आगे जाकर मुड़ जाती है कतबों की ख़ुशबू आती है घर वापस जाने की ख़्वाहिश दिल में पहले कब आती है इस लम्हे की रंग-बिरंगी सब तस्वीरें पहली बारिश में धुल जाएँ मेरी आँखों में लम्बी रातें घुल जाएँ।

ख़्वाब को देखना कुछ बुरा तो नहीं

बर्फ़ की उजली पोशाक पहने हुए इन पहाड़ों में वह ढूंढ़ना है मुझे जिसका मैं मुन्तज़िर एक मुद्दत से हूँ ऎसा लगता है, ऎसा हुआ तो नहीं ख़्वाब को देखना कुछ बुरा तो नहीं।

सफ़र की इब्तिदा नए सिरे से हो

सफ़र की इब्तिदा नए सिरे से हो कि आगे के तमाम मोड़ वह नहीं हैं चींटियों ने हाथियों की सूँड में पनाह ली थके-थके से लग रहे हो, धुंध के ग़िलाफ़ में, उधर वह चांद रेगे-आसमान से तुम्हें सदाएँ दे रहा है, सुन रहे हो तुम्हारी याददाश्त का कोई वरक़ नहीं बचा तो क्या हुआ गुज़िश्ता रोज़ो-शब से आज मुख़्तलिफ़ है आने वाला कल के इन्तज़ार का सजाओ ख़्वाब आँख में जलाओ फिर से आफ़ताब आँख में सफ़र की इब्तिदा नए सिरे से हो।

ज़मीन से दूर

इस ख़ला से ज़मीं का हर गोशा जितना दिलकश दिखाई देता है उसने ख़्वाबों में भी नहीं देखा वह नहीं आएगा ज़मीन पे अब।

लम्बी चुप का नतीजा

मेरे दिल की ख़ौफ़-हिकायत में यह बात कहीं पर दर्ज करो मुझे अपनी सदा सुनने की सज़ा लम्बी चुप की सूरत में मेरे बोलने में जो लुकनत है इस लम्बी चुप का नतीजा है। लुकनत=तुतलाहट

सवारे-बेसमंद

ज़मीन जिससे छुट गई बाब ज़िन्दगी का जिस पे बन्द है वो जानता है यह कि वह सवारे-बेसमंद है मगर वो क्या करे, कि उसको आसमाँ को जाने वाला रास्ता पसन्द है। सवारे-बेसमंद=बिना घोड़े का सवार; बाब=दरवाज़ा

अज़ाब की लज़्ज़त

फिर रेत भरे दस्ताने पहने बच्चों का इक लम्बा जुलूस निकलते देखने वाले हो आँखों को काली लम्बी रात से धो डालो तुम ख़ुशक़िस्मत हो, ऎसे अज़ाब की लज़्ज़त फिर तुम चक्खोगे।

पानी की दीवार का गिरना

बामे-खला से जाकर देखो दूर उफ़क पर सूरज-साया और वहीं पर आस-पास ही पानी की दीवार का गिरना बोलो तो कैसा लगता है?

सज़ा की ख़्वाहिश

मैंने तेरे जिस्म के होते क्यों कुछ देखा मुझको सज़ा इसकी दी जाए।

किस तरह निकलूँ

मैं नीले पानियों में घिर गया हूँ किस तरह निकलूँ किनारे पर खड़े लोगों के हाथों में ये कैसे फूल हैं? मुझे रुख़्सत हुए तो मुद्दतें गुज़रीं।

तसलसुल के साथ

वह, उधर सामने बबूल तले इक परछाईं और इक साया अपने जिस्मों को याद करते हैं और सरगोशियों की ज़र्बों से इक तसलसुल के साथ वज्द में हैं।

सहरा की हदों में दाख़िल

सहरा की हदों में दाख़िल जो लोग नहीं हो पाए शहरों की बहुत-सी यादें हमराह लिए आए थे।

जो इन्सान था पहले कभी

शहर सारा ख़ौफ़ में डूबा हुआ है सुबह से रतजगों के वास्ते मशहूर एक दीवाना शख़्स अनसुनी, अनदेखी ख़बरें लाना जिसका काम है उसका कहना है कि कल की रात कोई दो बजे तेज़ यख़बस्ता हवा के शोर में इक अजब दिलदोज़, सहमी-सी सदा थी हर तरफ़ यह किसी बुत की थी जो इन्सान था पहले कभी। यख़बस्ता= ठंडी; सदा=पुकार,आवाज़

मेरे हाफ़िज़े मेरा साथ दे

किसी एक छत की मुंडेर पर मुझे तक रहा है जो देर से मेरे हाफ़िज़े मेरा साथ दे ये जो धुन्ध-सी है ज़रा, हटा कोई उसका मुझको सुराग़ दे कि मैं उसको नाम से दूँ सदा।

रेंगने वाले लोग

चलते-चलते रेंगने वाले ये लोग रेंगने में इनके वह दम-ख़म नहीम ऎसा लगता है कि इनको ज़िल्लतें मुस्तहक़ मेक़्दार से कुछ कम मिलीं।

मैं डरता हूँ

मैं डरता हूँ, मैं डरता हूँ, उन लम्हों से उन आने वाले लम्हों से जो मेरे दिल और उसके इक-इक गोशे में बड़ी आज़ादी से ढूँढ़ेंगे उन ख़्वाबों को, उन राज़ों को जिन्हें मैंने छिपाकर रखा है इस दुनिया से।

उस उदास शाम तक

लज़्ज़तों की जुस्तजू में इतनी दूर आ गया हूँ चाहूँ भी तो लौट के जा नहीं सकूंगा मैं उस उदास शाम तक जो मेरे इन्तज़ार में रात से नहीं मिली।

देर तक बारिश होती

शाम को इंजीर के पत्तों के पीछे एक सरगोशी बरहना पाँव इतनी तेज़ दौड़ी मेरा दम घुटने लगा रेत जैसे ज़ायक़े वाली किसी मशरूब की ख़्वाहिश हुई वह वहाँ कुछ दूर एक आंधी चली फिर देर तक बारिश हुई। मशरूब=पेय

ज़िन्दा रहने की शर्त

हर एक शख़्स अपने हिस्से का अज़ाब ख़ुद सहे कोई न उसका साथ दे ज़मीं पे ज़िन्दा रहने की ये एक पहली शर्त है।

अजीब काम

रेत को निचोड़कर पानी को निकालना बहुत अजीब काम है बड़े ही इनहमाक से ये काम कर रहा हूँ मैं। इनहमाक=तन्मयता

मंज़र कितना अच्छा होगा

मैं सुबह सवेरे जाग उठा तू नींद की बारिश में भीगा, तन्हा होगा रस्ता मेरा तकता होगा मंज़र कितना अच्छा होगा।

जीने की हवस

सफ़र तेरी जानिब था अपनी तरफ़ लौट आया हर इक मोड़ पर मौत से साबक़ा था मैं जीने से लेकिन कहाँ बाज़ आया।

एक सच

शोर समाअत के दर पे है, जानते हो मौत के क़दमों की आहट पहचानते हो होनी को कोई भी टाल नहीं सकता यह इक ऎसा सच है, तुम भी मानते हो।

बदन पाताल

हवस-आकाश के नीचे भी उतरूँ बदन-पाताल में ता-देर ठहरूँ मैं अपने आप को जी भर के देखूँ।

तुझे कुछ याद आता है

मैं तेरे जिस्म तक किन रास्तों से होके पहुँचा था ज़मीं, आवाज़ और गंदुम के ख़ोशों की महक मैं साथ लाया था तुझे कुछ याद आता है।

सुबह से उदास हूँ

हवा के दरमियान आज रात का पड़ाव है मैं अपने ख़्वाब के चिराग़ को जला न पाऊंगा ये सोच के बहुत ही बदहवास हूँ मैं सुबह से उदास हूँ।

ऎ तन्हाई!

कुछ लोग तो हों जो सच बोलें यह ख़्वाहिश दिल में फिर आई है तेरा करम, ऎ तन्हाई!

फ़िरक़ापरस्ती

नीम पागल लोग इस तादाद में कुछ असर आए मेरी फ़रयाद में।

सज़ा पाओगे

बेची है सहर के हाथों रातों की सियाही तुमने की है जो तबाही तुमने किस रोज़ सज़ा पाओगे।

लम्बे बोसों का मरकज़

वह सुबह का सूरज जो तेरी पेशानी था मेरे होठों के लम्बे बोसों का मरकज़ था क्यों आँख खुली, क्यों मुझको यह एहसास हुआ तू अपनी रात को साथ यहाँ भी लाया है।

जागने का लुत्फ़

रे होठों पे मेरे होठ हाथों के तराज़ू में बदन को तोलना और गुम्बदों में दूर तक बारूद की ख़ुशबू बहुत दिन बाद मुझको जागने में लुत्फ़ आया है।

सच बोलने की ख़्वाहिश

ऎसा इक बार किया जाए सच बोलने वाले लोगों में मेरा भी शुमार किया जाए।

सहर का खौफ़

शाम का ढलना नई बात नहीं इसलिए ख़ौफ़ज़दा हूँ इतना आने वाली जो सहर है उसमें रात शामिल नहीं यह जानता हूँ।

जीने की लत

मुझसे मिलने आने वाला कोई नहीं है फिर क्यों घर के दरवाज़े पर तख़्ती अब है जीने की लत पड़ जाए तो छूटती कब है।

अज़ल की नग़्मगी

छिपाई उसने न मुझसे कभी कोई भी बात मैं राज़दार था उसका, वो ग़मग़ुसार मेरा कई जनम का बहुत पायदार रिश्ता था मेरे सिवा भी हज़ारों से उसकी क़ुरबत थी शिमाख़्त उसकी अगर थी तो बस मुहब्बत थी सफ़र में ज़ीस्त के वह तेज़गाम था इतना रुका न वाँ भी जहाँ पर क़्याम करना था ख़बर ये मुझको मिली कितनी देर से कि उसे अजल की नग़्मगी मसहूर करती रहती थी दिले-कुशादा में उसने अजल को रक्खा था अज़ाबे-हिज्र मुक़द्दर में मेरे लिक्ख़ा था सो बाक़ी उम्र मुझे यह अज़ाब सहना है फ़लक को देखना हरदम, ज़मीं पर रहना है ख़बर ये मुझको मिली कितनी देर से कि उसे अजल की नग़्मगी मसहूर करती रहती थी।

असद बदायूँनी की मौत पर

ख़्वाहिशे-मर्ग की सरशारी में यह भी नहीं सोचा जीना भी एक कारे-जुनूं है इस दुनिया के बीच और लम्बे अनजान सफ़र पर चले गए तन्हा पीछे क्या कुछ छूट गया है मुड़के नहीं देखा।

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