सैरे-जहाँ : अख़लाक़ मुहम्मद ख़ान 'शहरयार'

Saire-Jahan : Akhlaq Mohammed Khan Shahryar

भूमिका : महताब हैदर नक़वी

शहरयार उर्दू के बड़े शायर हैं। उनकी शायरी, उर्दू शायरी की महान परम्परा से जुड़ी हुई बड़ी शायरी है। उन्होंने हिन्दी एवं उर्दू दोनों भाषाओं के पाठकों को एक साथ प्रभावित किया है। वही कारण है कि उनके कविता संग्रह प्रकाशित होकर पाठकों से दाद वसूल कर चुके हैं। दरअस्ल शहरयार की शायरी अपने विषय भाव, सामाजिक सरोकारों एवं भाषा के आधार पर हिन्दी-उर्दू के बीच की खाई को पाटने का काम करती है। यही कारण है कि उनका नाम हिन्दी-उर्दू पाठकों में आदर के साथ लिया जाता है।

छठी दहाई के आस पास जब शहरयार का पहला काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ तो 'सीने म3 जलन आंखों में तूफ़ान सा क्यों है' जैसी ग़ज़लों के आधार पर उर्दू के आधुनिकता वादी लेखकों के प्रसिद्ध प्रगतिशील शायर एवं लेखक अली सरदार जाफ़री ने 'ये जो आसमां पे सितारा है' जैसी नज़्मों के आधार पर उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की और उन्हें प्रगतिशील शायर साबित किया है कि वह अपनी संवेदनशीलता एवं अपने सरोकारों के कारण किसी एक 'वाद' की गिरफ़्त में नहीं आती, बल्कि वह सबके लिए समान रूप से प्रशंसीय होती है।

शायरी इंसान के एकांत के क्षणों में जन्म लेती है, जो इन क्षणों में रंग भरने का काम करती है और यह रंग इंसानी ज़िन्दगी से प्रेम और उसके सरोकारों से पैदा होता हैं यही वजह है कि इंसानीं ज़िन्दगी में पैदा होने वाली कोई हलचल शहरयार के दिल को छुए बग़ैर नहीं रहती। निरन्तर बदलती हुई दुनिया को वह किसी भी तरह से स्वीकार नहीं कर पाते। वह इसे जीवन की त्रासदी समझते हैं और उस पर प्रश्न चिन्ह लगते हैं

तुम्हारे शहर में कुछ भी हुआ नहीं है क्या
कि तुमने चीखों को सचमुच सुना नहीं है क्या
मैं इक ज़माने से हैरान हूँ कि हाकिमे-शहर
जो हो रहा है उसे देखता नहीं है क्या

जीवन मूल्यों में होता हुआ निरन्तर ह्रास और उपभोक्तावादी संस्कृति के परिणाम उनके दिल में कुछ खोने का एहसास तो पैदा करते हैं परन्तु जीवन से उन्हें मायूस नहीं करते बल्कि भले दिनों के ख़्वाब देखने के लिए प्रेरित करते हैं। शहरयार की शायरी का मुख्य स्रोत यही है। यही त्रासदी उन्हें तेज़ आँधी में भी जीवन-मूल्यों का दिया जलाये रखने के लिए प्रेरित करती है।

तेज़ हवा में जला दिल का दिया आज तक
ज़ीस्त से इक अहद था पूरा किया आज तक

तुमको मुबारक शामिल होना बंजारों में
बस्ती की इज़्ज़त न डुबोना बंजारों में
अपनी उदासी, पाने साथ में मत ले जाना
नामक़बूल है रोना धोना बंजारों में

शायर का अपने समाज के प्रति प्रेम उसे व्यवस्था विरोधी बना देता है। क्योंकि उसका चिंतन अपने समाज के लिए प्रतिबद्ध होता है। जिसे वह पूरी ज़िम्मेदारी के साथ पूरा करता है। ज़िन्दगी के साथ शायर का यही अहद है जिसके कारण वह तेज़ आँधी में भी दिया जलाने का काम करता है। बदले हुए सामाजिक परिवेश में समाज के प्रति शहरयार का यह अहद (प्रतिज्ञा) और सरोकार अक्सर व्यंग्य बाण नहीं छोड़ सकता, उसे संवेदन शून्य ही कहा जा सकता हैं शहरयार की व्यंग्यात्मक शैली प्रदूषित माहौल को उजागर करने का बेहतरीन अस्त्र है। वह अपनी व्यंग्यात्मक शैली से दो काम लेते हैं। एक यह कि वह स्वस्थ एवं उजले सामाजिक वातावरण में फैले काले एवं बदनुमा धब्बों की तरफ संकेत करते हैं, दूसरे यह कि उसके रहस्य का भी पता लगाते हैं।

जो बुरा था कभी वह हो गया अच्छा कैसे
वक़्त के साथ मैं इस तेज़ी से बदला कैसे

हंसों आसमां बे उफ़क़ हो गया
अंधेरे घने और गहरे हुए

तमाम शहर आग की लपेट में है भागिए
हुज़ूर कब से मीठी नींद सो रहे हैं भागिए
तमाम अहले-शहर, शहर छोड़कर चले गये
झुके हुए हैं सर अज़ीम बिल्डिंगों के देखिये
अब और कुछ न देखिये, अब और कुछ न सोचिये
तमाम शहर आग की लपेट में है भागिए।

ज़िन्दगी की इस त्रासदी से शहरयार कभी विचलित नहीं होते और न ही उसके प्रति ग़ैर संजीदा अख्तयार करते हैं। वह खिलंड़रे पन के विपरीत संजीदा (ज़िन्दगी के प्रति) रवैया रखते हैं। इसलिए वह भयानक परिस्थितियों में भी ख़्वाब देखना बंद नहीं करते। उनकी आंखें दीवारों में छेद करके उस पर के दृश्य को देख लेती हैं। और उसके रहस्य का पता लगा देती है यही कारण है की उनकी शायरी नये सामाजिक संदर्भों में अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है।

शहरयार अपने चिंतन के साथ साथ शायरी के कला पक्ष को भी बहुत अधिक महत्व देते हैं। उनकी शायरी सामाजिक परिवेश से सीधी जुड़ी होने के बावजूद उसमे कहीं भी न ति सपाटपन पैदा होता है और न ही फौरी और हंगामी समस्याओं का खबरनामा मालूम होती है। इसका मुख्य कारण यह है कि वह अपनी शायरी में उन तमाम उपमानों का रयोग करते हैं जो शायरी को कलात्मक बनाते हैं। उनकी नज़्में और ग़ज़लें दोनों विधाएं भाषा के खुरदुरे पन से दूर हमें गीतात्मकता की तरफ ले जाती है। शहरयार ने फिल्मों के लिए भी गीत लिखे हैं, जिनको सुनकर यह आभास होता है कि फिल्मों में अच्छी और सच्ची शायरी पेश की जा सकती है।

शहरयार की शायरी हमें जीवन के प्रति प्रेम, उसकी समस्याओं से जूझते रहने, उसके रहस्यों का पता लगाने और नई दुनिया के ख़्वाब देखते रहने का संदेश देती है।



दामे-उल्फ़त से छूटती ही नहीं

दामे-उल्फ़त से छूटती ही नहीं ज़िन्दगी तुझको भूलती ही नहीं कितने तूफ़ाँ उठाए आँखों ने नाव यादों की डूबती ही नहीं तुझसे मिलने की तुझको पाने की कोई तदबीर सूझती ही नहीं एक मंज़िल पे रुक गई है हयात ये ज़मीं जैसे घूमती ही नहीं लोग सर फोड़कर भी देख चुके ग़म की दीवार टूटती ही नहीं

तुम्हारे शहर में कुछ भी हुआ नहीं है क्या

तुम्हारे शहर में कुछ भी हुआ नहीं है क्या कि तुमने चीख़ों को सचमुच सुना नहीं है क्या तमाम ख़ल्के-ख़ुदा इस जगह रूकी क्यों है यहाँ से आगे कोई रास्ता नहीं है क्या लहू-लुहान सभी कर रहे हैं सूरज को किसी को ख़ौफ़ यहाँ रात का नहीं है क्या मैं एक ज़माने से हैरान हूँ कि हाकिमे-शहर जो हो रहा है उसे देखता नहीं है क्या उजाड़ते हैं जो नादाँ इसे उजड़ने दो कि उजड़ा शहर दोबारा बसा नहीं है क्या

कभी अपने से मुझको खुशनुमा होने नहीं दोगे

कभी अपने से मुझको खुशनुमा होने नहीं दोगे कि तुम मेहनत को अपनी राएगां होने नहीं दोगे मुसाफ़िर की तरह आओगे इक दिन दिल-सराय में रहोगे इस तरह इसको मकां होने नहीं दोगे ज़मीं पर रेंगते रहने को तन्हा छोड़ जाओगे किसी हालात में मुझको आसमां होने नहीं दोगे मेरी कश्ती को जब मझधार में लाये तो कह देते सिवा अपने किसी को बादबां होने नहीं दोगे बहुत से मोड़ दानिस्ता नहीं आने दिये मैंने कहानी को मेरी तुम दास्तां होने नहीं दोगे

वो बेवफ़ा है हमेशा ही दिल दुखाता है

वो बेवफ़ा है हमेशा ही दिल दुखाता है मगर हमें तो वही एक शख़्स भाता है न ख़ुश-गुमान हो इस पर तू ऐ दिल-ए-सादा सभी को देख के वो शोख़ मुस्कुराता है जगह जो दिल में नहीं है मिरे लिए न सही मगर ये क्या कि भरी बज़्म से उठाता है तिरे करम की यही यादगार बाक़ी है ये एक दाग़ जो इस दिल में जगमगाता है अजीब चीज़ है ये वक़्त जिस को कहते हैं कि आने पाता नहीं और बीत जाता है।

अहले-जहां ये देख के हैरान हैं बहुत

अहले-जहां ये देख के हैरान हैं बहुत दस्ते-सितम है एक, गरेबान हैं बहुत हमने तमाम उम्र संवारा उन्हें मगर गेसू-ए-ज़ीस्त फिर भी परीशान हैं बहुत ये और बात दिल को हैं बेमेहरियां ही याद हम पर वगरना आपके एहसान हैं बहुत शर्मिंदा दोस्त ही से नहीं शहरयार हम दुश्मन से भी तो आज पशेमान हैं बहुत।

तुमको मुबारक शामिल होना बंजारों में

तुमको मुबारक शामिल होना बंजारों में बस्ती की इज़्ज़त न डुबोना बंजारों में उनके लिए ये दुनिया एक अजायब घर है हिर्सो-हवस के बीज न बोना बंजारों में अपनी उदासी अपने साथ में मत ले जाना ना-मक़बूल है रोना धोना बंजारों में उनके यहां ये रात और दिन का फ़र्क़ नहीं है उनकी आंख से जागना सोना बंजारों में यकसां और मसावी हिस्सा सबको देना जो कुछ भी तुम पाना खोना बंजारों में हिजरत की ख़ुशबू से उनकी रूह बंधी है हिजरत से बेज़ार न होना बंजारों में।

शोहरत ही मिली है देखो ज़रा रुसवाई में

शोहरत ही मिली है देखो ज़रा रुसवाई में हम इतने बड़े माहिर थे जख़्म-नुमाई में कुछ दूर ही आये होंगे हम ये ध्यान आया क्यों लम्बे सफ़र पर निकले आब्ला-पाई में यह रूह, बदन-दीदार गिराना चाहती थी और जिस्म रहा मसरूफ हवस-पैदाई में रुकने के मक़ाम जहाँ भी आएं रुक जाओ यूँ ज़ीना ज़ीना उतरो दिल गहराई में पानी पे लिखी तहरीरें जल्दी पढ़ डालो मुमकिन है खलल आ जाये फिर बीनाई में।

हौसला दिल का निकल जाने दे

हौसला दिल का निकल जाने दे मुझको जल जाने पिघल जाने दे आँच फूलों पे न आने दे मगर ख़सो-ख़ाशाक को जल जाने दे मुद्दतों बाद सबा आई है मौसमे दिल को बदल जाने दे छा रही हैं जो मेरी आँखों पर उन घटाओं को मचल जाने दे तज़्किरा उसका अभी रहने दे और कुछ रात को ढल जाने दे

दयार-ए-दिल न रहा बज़्म-ए-दोस्ताँ न रही

दयार-ए-दिल न रहा बज़्म-ए-दोस्ताँ न रही अमाँ की कोई जगह ज़ेर-ए-आसमाँ न रही रवाँ हैं आज भी रग रग में ख़ून की मौजें मगर वो एक ख़लिश वो मता-ए-जाँ न रही लड़ें ग़मों के अँधेरों से किस की ख़ातिर हम कोई किरन भी तो इस दिल में ज़ौ-फ़िशाँ न रही मैं उस को देख के आँखों का नूर खो बैठा ये ज़िंदगी मिरी आँखों से क्यूँ निहाँ न रही ज़बाँ मिली भी तो किस वक़्त बे-ज़बानों को सुनाने के लिए जब कोई दास्ताँ न रही।

कहीं ज़रा सा अँधेरा भी कल की रात न था

कहीं ज़रा सा अँधेरा भी कल की रात न था गवाह कोई मगर रौशनी के साथ न था। सब अपने तौर से जीने के मुद्दई थे यहाँ पता किसी को मगर रम्ज़े-काएनात न था कहाँ से कितनी उड़े और कहाँ पे कितनी जमे बदन की रेत को अंदाज़-ए-हयात न था मेरा वजूद मुनव्वर है आज भी उस से वो तेरे क़ुब का लम्हा जिसे सबात न था मुझे तो फिर भी मुक़द्दर पे रश्क आता है मेरी तबाही में हरचंद तेरा हाँथ न था

तमाम शहर में जिस अजनबी का चर्चा है

तमाम शहर में जिस अजनबी का चर्चा है सभी की राय है वो शख्स मेरे जैसा है बुलावे आते हैं कितने दिनों से सहरा से मैं कल ये लोगों से पूछूंगा किस को जाना है कभी ख़याल यह आता है खेल खत्म हुआ कभी गुमान गुज़रता है एक वक्फा है सुना है तर्के-जुनूँ तक पहुंच गये हैं लोग ये काम अच्छा नहीं पर मआल अच्छा है ये चलचलाव के लम्हें हैं अब तो एक बोलो जहां ने तुमको कि तुमने जहां को बदला है पलट के पीछे नहीं देखता हूँ ख़ौफ़ से मैं कि संग होते हुए दोस्तों को देखा है

यूँ खिजिल होना न होता दोस्तो इंकार पर

यूँ खिजिल होना न होता दोस्तो इंकार पर कोई पाबंदी लगी होती अगर इज़हार पर नाम अब तक दे न पाया इस तअल्लुक को कोई जो मेरा दुश्मन है क्यों रोता है मेरी हार पर धूप से बचने की कोशिश में कटेगी रात भर कोई शक़ कर के तो देखे साया-ए-अशज़ार पर शहर की जानिब न होने पाए सन्नाटों का रुख़ है मेरी आवाज़ राजी आज इस बेगार पर बारिशें अनपढ़ थीं पिछले नक़्श सारे धो दिये हाँ तेरी तस्वीर ज्यों की त्यों है दिल-दीवार पर।

हिज्र की लम्बी रात का ख़ौफ़ निकल जाये

हिज्र की लम्बी रात का ख़ौफ़ निकल जाये आंखों पर फिर नींद का जादू चल जाये बड़ी भयानक साअत आने वाली है आओ जतन कर देखें, शायद टल जाये रौशन तो कर देना लौ सरगोशी की जब मेरी आवाज़ का साया ढल जाये मैं फिर काग़ज़ की कश्ती पर आता हूँ दरिया से कहला दो ज़रा सम्भल जाये या मैं सोचूं कुछ भी न उसके बारे में या ऐसा हो दुनिया और बदल जाये जितनी प्यास है उससे ज़ियादा पानी हो मुमकिन है ऐ काश ये ख़तरा टल जाये।

महफिल में बहुत लोग थे मै तन्हा गया था

महफिल में बहुत लोग थे मै तन्हा गया था हाँ तुझ को वहाँ देख कर कुछ डर सा लगा था ये हादसा किस वक्त कहाँ कैसे हुआ था प्यासों के तअक्कुब* सुना दरिया गया था आँखे हैं कि बस रौजने दीवार* हुई हैं इस तरह तुझे पहले कभी देखा गया था ऐ खल्के-खुदा तुझ को यकीं आए-न-आए कल धूप तहफ्फुज* के लिए साया गया था वो कौन सी साअत थी पता हो तो बताओ ये वक्त शबो-रोज* में जब बाँटा गया था

इसे गुनाह कहें या कहें सवाब का काम

इसे गुनाह कहें या कहें सवाब का काम नदी को सौंप दिया प्यास ने सराब का काम हम एक चेह्रे को हर ज़ाविए से देख सकें किसी तरह से मुकम्मल हो नक्शे-आब का काम हमारी आँखे कि पहले तो खूब जागती हैं फिर उसके बाद वो करतीं है सिर्फ़ ख़्वाब का काम वो रात-कश्ती किनारे लगी कि डूब गई सितारे निकले तो थे करने माहताब का काम फ़रेब ख़ुद को दिए जा रहे हैं और ख़ुश हैं उसे ख़बर है कि दुश्वार है हिजाब का काम सराब = मरीचिका, जाविए = कोण नक्शे-आब = जल्दी मिट जाने वाला निशान हिजाब = पर्दा

जाने क्या देखा था मैंने ख़्वाब में

जाने क्या देखा था मैंने ख़्वाब में फंस गया फिर जिस्म के गिरदाब में तेरा क्या तू तो बरस के खुल गया मेरा सब कुछ बह गया सैलाब में मेरी आंखों का भी हिस्सा है बहुत तेरे इस चेहरे की आबो-ताब में तुझ में और मुझ में तअल्लुक है वही है जो रिश्ता साज़ और मिज़राब में मेरा वादा है कि सारी ज़िन्दगी तुझ से मैं मिलता रहूंगा ख़्वाब में।

इबादत रात दिन दिन इक शख्स की ऐसे नहीं की थी

इबादत रात दिन दिन इक शख्स की ऐसे नहीं की थी खुला हम पे महब्बत आज से पहले नहीं की थी वफ़ा करने की आदत थी सो हम करते रहे सबसे किसी मतलब से या इनआम के बदले नहीं की थी बस इक कौंदा सा लपका और खीरा हो गई आंखें तेरी जानिब नज़र हमने इरादे से नहीं की थी बसर ये उम्र हमने अपनी मर्ज़ी के मुताबिक की बसर करते हैं जैसे लोग यां वैसे नहीं की थी।

खुश्की का नाम तक नहीं रू-ए-ज़मीन पर

खुश्की का नाम तक नहीं रू-ए-ज़मीन पर और लोग पूछते हैं कि बरसात कब हुई ये शहर भी अजीब है चलता नहीं पता किस वक़्त दिन ग़ुरूब हुआ रात कब हुई किस सादगी से मुझको ये समझा रहे हैं सब मेरे अदू की जीत मेरी मात कब हुई। आदाबे-ज़िन्दगी पे हुई खुल के गुफ्तगू मरने के मसअले पे कोई बात कब हुई।

फ़ज़ाएं धुंध से सरगोशियों की और अट जाएं

फ़ज़ाएं धुंध से सरगोशियों की और अट जाएं बदन की ये चटानें मुमकिना हद तके सिमट जाएं समंदर-तह तलक जाना बहुत आसान हो जाये अगर गौहर भरी ये सीपियाँ इक पल को हट जाएं बता सकता है कोई वो मुसाफ़िर कौन होते हैं जो इक रस्ते से आएं और दो सिम्तों में बंट जाएं न जाने आने वाला वक़्त क्यों दुश्मन सा लगता है हवाएं आ के फिर औराक़ माज़ी के पलट जाएं मुनासिब वक़्त है जिन्से-सुख़न को बेच देने का ख़बर किसको है इसके भाव कब और कितने घट जाएं।

मैं प्यासा और भी प्यासा था और सेराब भी था वो

मैं प्यासा और भी प्यासा था और सेराब भी था वो समंदर मैं जिसे समझा था इक सैलाब भी था वो ज़मीं ओर ज़ीना ज़ीना देर तक उतरे सितारे मेरी आंखों का कोई वहम था या ख़्वाब था वो मैं उसकी तेज़ सांसें सुन रहा था नग़मा जैसे मेरु इस ज़िन्दगी का लम्ह-ए-नायाब था वो लबों से धूम बारिश आसमां तक जाती मौज़ें वदन-कश्ती मुसाफ़िर के लिए गिरदाब था वो मुझे रास आ गई थी आखिरश दूरी की क़ुर्बत मेरा रुख़ फिर था सहरा-सम्त महवे-ख़्वाब था वो।

ये हक़ीक़त है मगर फिर भी यकीं आता नहीं

ये हक़ीक़त है मगर फिर भी यकीं आता नहीं दिल मेरा अब भी धड़कता है पे घबराता नहीं रूह के बारे-गरां पर नाज़ करते हैं सभी बोझ अपने जिस्म का कोई उठा पाता नहीं सुर्ख़ फूलों से ज़मीं को ढक गई किसकी सदा सबकी आंखें पूछती हैं, कोई बतलाता नहीं कुर्ब का शफ्फाक आइना मेरा हमराज़ है दूरियों की धुंध से आंखों का कुछ नाता नहीं नींद की शबनम से मैं भी तर, मेरा साया भी तर आसुंओं का सैल मेरी सम्त अब आता नहीं।

हवा तू कहां है ज़माने हुए

हवा तू कहां है ज़माने हुए समंदर के पानी को ठहरे हुए लहू सबका-सब आंख में आ गया हरे फूल से जिस्म पीले हुए जुनूँ का हर इक नक़्श मिटकर रहा हवस के सभी ख़्वाब पूरे हुए मनाज़िर बहुत दूर और पास हैं मगर आईने सारे धुंधले हुए जहां जाइये रेत का सिलसिला जिधर देखिये शहर उजड़े हुए बड़ा शोर था जब समाअत गई बहुत भीड़ थी जब अकेले हुए हंसो आसमां बे-उफ़क़ हो गया अंधेरे घने और गहरे हुए सुनो अपनी ही बाज़गश्तें सुनो करो याद अफ़साने भूले हुए चलो जंगलों की तरफ फिर चलो बुलाते हैं फिर लोग बिछड़े हुए।

शाखे-शजर से पत्ते गिरे जब भी टूट के

शाखे-शजर से पत्ते गिरे जब भी टूट के रोईं तमाम खल्के-ख़ुदा फूट-फूट के ये मंज़िले-मुराद थी इंसान की अगर इंसान क्यों उदास है साये से छूट के सहरा की सल्तनत है हुदूदे-निगाह तक बादल हज़ार बरसे ज़मीनों पे टूट के तन्हा उफ़क़ पे तेग़ से हमला करे हवा जब चाहे आये और उसे ले जाये लूट के सच की सलीब तोड़ दी अहले-सलीब ने सरशार इस क़दर हुए नश्शे से छूट के।

मेरे लहू की चीख को कब कोई आसरा मिला

मेरे लहू की चीख को कब कोई आसरा मिला दश्त भी बेज़बान था, शहर भी बेसदा मिला ख़्वाब में आसमान पर देखा था मैंने इक उफ़क़ आंख खुली तो दूर तक धुंध का सिलसिला मिला तेरी गली को छोड़ कर जाने का क़स्द जब मिला मेरा हरेक रास्ता दश्ते-ख़ला से जा मिला बर्फ पिघल के बह गई, धूप का नाम हो गया लेकिन ये राज़ राज़ है धूप को इससे क्या मिला।

कुछ देर रही हलचल मुझ प्यास से पानी में

कुछ देर रही हलचल मुझ प्यास से पानी में फिर थी वही जौलानी दरिया की रवानी में ये हिज्र की रातें भी होती हैं अजब रातें दिन फूल खिले देखे कल रात की रानी में आंखें वहीं ठहरी हैं पहले जहां ठहरी थीं वैसा ही हसीं है तू था जैसा जवानी में मीठी है कि कड़वी है सच्चाई बस इतनज है रहता है रिहाई तक इस क़ैदे-मकानी में।

दिल में तूफ़ान है और आँखों में तुग़यानी है

दिल में तूफ़ान है और आँखों में तुग़यानी है ज़िन्दगी हमने मगर हार नहीं मानी है। ग़मज़दा वो भी हैं दुश्वार है मरना जिन को वो भी शाकी हैं जिन्हें जीने की आसानी है। दूर तक रेत का तपता हुआ सहरा था जहाँ प्यास का किसकी करश्मा है वहाँ पानी है। जुस्तजू तेरे अलावा भी किसी की है हमें जैसे दुनिया में कहीं कोई तेरा सानी है। इस नतीजे पर पहुँचते हैं सभी आख़िर में हासिले-सैरे-जहाँ कुछ नहीं हैरानी है। शाकी= शिकायत करने वाला; सानी=बराबर

शिकवा कोई दरिया की रवानी से नहीं है

शिकवा कोई दरिया की रवानी से नहीं है रिश्ता ही मेरी प्यास का पानी से नहीं है। कल यूँ था कि ये क़ैदे-ज़्मानी से थे बेज़ार फ़ुर्सत जिन्हें अब सैरे-मकानी से नहीं है। चाहा तो यकीं आए न सच्चाई पे इसकी ख़ाइफ़ कोई गुल अहदे-खिज़ानी से नहीं है। दोहराता नहीं मैं भी गए लोगों की बातें इस दौर को निस्बत भी कहानी से नहीं है। कहते हैं मेरे हक़ में सुख़नफ़ह्म बस इतना शे'रों में जो ख़ूबी है मआनी से नहीं है। क़ैदे-ज़मानी=समय की पाबन्दी; सैरे-मकानी= दुनिया की सैर; ख़ाइफ़=डरा हुआ; अहदे-ख़िज़ानी=पतझड़ का मौसम; मआनी=अर्थ

यूँ तो करने को यहां कोशिशें हर शख्स ने कीं

यूँ तो करने को यहां कोशिशें हर शख्स ने कीं खेतियाँ दिल की सराबों से न सरसब्ज़ हुई मेरी आवाज़ पे देता नहीं कोई आवाज़ शहर सन्नाटों के सैलाब की ज़द में तो नहीं बे उफ़क़ आसमां भी धुंध में छिप जायेगा चंद दिन और जो आंखें यूँ ही हैरान रहीं जिस्म को आइने-रूह में देखा होता तो ये दुनिया नज़र आती न कभी इतनी हसीं तेज़ आँधी का करम हो तो निजात इनको हो राख की क़ैद में चिंगारियां मुरझाने लगीं।

जो बुरा था कभी अब हो गया अच्छा कैसे

जो बुरा था कभी अब हो गया अच्छा कैसे वक़्त के साथ मैं इस तेज़ी से बदला कैसे। जिनको वह्शत से इलाक़ा नहीं वे क्या जानें बेकराँ दश्त मेरे हिस्से में आया कैसे। कोई इक-आध सबब होता तो बतला देता प्यास से टूट गया पानी का रिश्ता कैसे। हाफ़िज़े में मेरे बस एक खंडहर-सा कुछ है मैं बनाऊँ तो किसी शह्र का नक़्शा कैसे। बारहा पूछना चाहा कभी हिम्मत न हुई दोस्तो रास तुम्हें आई यह दुनिया कैसे। ज़िन्दगी में कभी एक पल ही सही ग़ौर करो ख़त्म हो जाता है जीने का तमाशा कैसे।

जो कहते हैं कहीं दरिया नहीं है

जो कहते हैं कहीं दरिया नहीं है सुना उन से कोई प्यासा नहीं है। दिया लेकर वहाँ हम जा रहे हैं जहाँ सूरज कभी ढलता नहीं है। न जाने क्यों हमें लगता है ऎसा ज़मीं पर आसमाँ साया नहीं है। थकन महसूस हो रुक जाना चाहें सफ़र में मोड़ वह आया नहीं है। चलो आँखों में फिर से नींद बोएँ कि मुद्दत से उसे देखा नहीं है।

तेरे आने की ख़बर आते ही डर लगने लगा

तेरे आने की ख़बर आते ही डर लगने लगा ग़ैर का लगता था जो वह अपना घर लगने लगा क्या हरीफों में मेरे सूरज भी शामिल हो गया ज़र्द से सन्नाटे का मजमा बाम पर लगने लगा याद आना था किसी इक ख़्वाब आंखें करबला जो जुदा तन से हुआ वो मेरा सर लगने लगा जाने क्या उफ्ताद पड़ने को है मुझ पर दोस्तो मोतबर लोगों को अब मैं मोतबर लगने लगा।

क़रार हिज्र में आया सुकून दर्द के साथ

क़रार हिज्र में आया सुकून दर्द के साथ बड़ा अजीब सा रिश्ता है एक फर्द के साथ तुलूअ होता है दिन इसलिए कि धुंध बढ़े हर एक रात जी मंसूब माहे-ज़र्द के साथ सिमट रहा है इलाक़ा हमारी वहशत का है एतराफ़ हमें इसका रंजो-दर्द के साथ उसी की शर्तों पे तय बाक़ी का सफ़र होगा ये अहद कल ही किया रास्ते की गर्द के साथ है कोई जो कभी पूछे ये जाके सूरज से कि और रहना है कब तक हवाए-सर्द के साथ।

चाहता कुछ हूँ मगर लब पे दुआ

चाहता कुछ हूँ मगर लब पे दुआ है कुछ और दिल के अतराफ़ की देखो तो फ़ज़ा है कुछ और जो मकाँदार हैं दुनिया में उन्हे क्या मालूम घर की तामीर की हसरत का मज़ा है कुछ और जिस्म के साज़ पे सुनता था अजब सा नग़मा रूह के तारों को छेड़ा तो सदा है कुछ और पेशगोई पे नजूमी की भरोसा कैसा वक़्त के दरिया के पानी पे लिखा है कुछ और तू वफ़ाकेश है जी-जान से चाहा है तुझे तेरे बारे में पर लोगों से सुना है कुछ और

हुआ ये क्या कि ख़मोशी भी गुनगुनाने लगी

हुआ ये क्या कि ख़मोशी भी गुनगुनाने लगी गई रुतों की हर इक बात याद आने लगी ज़मीने-दिल पे कई नूर के मीनारे थे ख़याल आया किसी का तो धुंध छाने लगी ख़बर ये जबसे पढ़ी है, ख़ुशी का हाल न पूछ सियाह-रात! तुझे रौशनी सताने लगी दिलों में लोगों के हमदर्दियाँ हैं मेरे लिए मैं आज ख़ुश हूँ कि मेहनत मेरी ठिकाने लगी बुरा कहो कि भला समझो ये हक़ीक़त है जो बात पहले रुलाती थी अब हँसाने लगी।

अब वक़्त जो आने वाला है किस तरह गुज़रने वाला है

अब वक़्त जो आने वाला है किस तरह गुज़रनेवाला है वो शक्ल तो कब से ओझल है ये ज़ख़्म भी भरनेवाला है दुनिया से बग़ावत करने की उस शख़्स से उम्मीदें कैसी दुनिया के लिए जो ज़िन्दा है दुनिया से जो डरने वाला है आदम की तरह आदम से मिले कुछ अच्छे-सच्चे काम करे ये इल्म अगर हो इंसाँ को कब कैसे मरने वाला है दरिया के किनारे पर इतनी ये भीड़ यही सुनकर आई इक चाँद बिना पैराहन के पानी में उतरने वाला है

मैं दुखी हूँ सब ये कहते हैं खुशी की बात है

मैं दुखी हूँ सब ये कहते हैं खुशी की बात है अब अंधेरे की ज़बां पर रोशनी की बात है मुद्दतों पहले जुदा हम अपनी मर्जी से हुए लग रहा है दिल को यूँ जैसे अभी की बात है हमने जब भी दस्ताने-शैक़ छेड़ी दोस्तो हर किसी को ये लगा जैसे उसी की बात है ख़ामुशी ने किसलिए आवाज़ का पीछा किया अहले दुनिया तुम न समझोगे ये कैसी बात है शहर में इक शख्स ऐसा है जो सच के साथ है ध्यान से क्यों सुन रहे हो दिल्लगी की बात है।

सुनता हूँ कि नहीं इनकारी है इस बात से

सुनता हूँ कि नहीं इनकारी है इस बात से कोई निसबत थी कभी तुझको मेरी ज़ात से तू मेरे हमराह था दरवाज़े तक शाम के उसके आगे क्या हुआ पूछा जाये रात से पिछली बारिश में मुझे ख़्वाहिश थी सैलाब की अबके तू बतला मुझे क्या माँगूं बरसात से काम आए जो हिज्र के हर आइन्दा मोड़ पर ऐसा इक तोहफा मुझे दे तू अपने हाथ से हाँ मुझको भी देखले जीने की लत पड़ गई हाँ तूने भी कर लिया समझौता हालात से

काश पूछे ये चारागर से कोई

काश पूछे ये चारागर से कोई कब तलक और यूँ ही तरसे कोई कौन सी बात है जो उसमें नहीं उसको देखे मेरी नज़र से कोई सच कहे सुन के जिसको सारा जहां झूठ बोले तो इस हुनर से कोई ये न समझो कि बेज़बान है वो चुप अगर है किसी के डर से कोई हिज्र की शब हो या विसाल की शब शब को निस्बत नहीं सहर से कोई।

ये क्या जगह है दोस्तो ये कौन सा दयार है

ये क्या जगह है दोस्तो ये कौन सा दयार है हद-ए-निगाह तक जहाँ ग़ुबार ही ग़ुबार है हर एक जिस्म रूह के अज़ाब से निढाल है हर एक आँख शबनमी हर एक दिल फ़िगार है हमें तो अपने दिल की धड़कनों पे भी यक़ीं नहीं ख़ोशा वो लोग जिन को दूसरों पे ए'तिबार है न जिस का नाम है कोई न जिस की शक्ल है कोई इक ऐसी शय का क्यूँ हमें अज़ल से इंतिज़ार है।

माहो-अंजुम रहे ग़मीं शब भर

माहो-अंजुम रहे ग़मीं शब भर कोई रोता रहा कहीं शब भर उनके वादे का ज़िक्र क्या कीजे आहटें गूंजती रहीं शब भर ज़िन्दगी जैसे होश में आये रौनकें इस तरह की थीं शब भर ग़म से घबरा गये तो पुरसिश को कितनी परछाइयां उठीं शब भर आस का दर, उम्मीद का दामन वहश्तें देखती रहीं शब भर ख़ुश्क पत्तों के ढेर में किसको निकहतें ढूढ़ती रहीं शब भर था ग़ज़ब जागना तमन्ना का रक्स करती रही ज़मीं शब भर हर पतंगें के पर सलामत हैं शमएं बेबात क्यों जलीं शब भर।

हुजूम-ए-दर्द मिला ज़िंदगी अज़ाब हुई

हुजूम-ए-दर्द मिला ज़िंदगी अज़ाब हुई दिल ओ निगाह की साज़िश थी कामयाब हुई तुम्हारी हिज्र-नवाज़ी पे हर्फ़ आएगा हमारी मूनिस ओ हमदम अगर शराब हुई यहाँ तो ज़ख़्म के पहरे बिठाए थे हम ने शमीम-ए-ज़ुल्फ़ यहाँ कैसे बारयाब हुई हमारे नाम पे गर उँगलियाँ उठीं तो क्या तुम्हारी मदह-ओ-सताइश तो बे-हिसाब हुई हज़ार पुर्सिश-ए-ग़म की मगर न अश्क बहे सबा ने ज़ब्त ये देखा तो ला-जवाब हुई।

जो बात करने की थी काश मैंने की होती

जो बात करने की थी काश मैंने की होती तमाम शहर में इक धूम सी मची होती बदन तमाम गुलाबों से ढक गया होता कि उन लबों ने अगर आबयारी की होती बस इतना होता मेरे दोनों हाथ भर जाते तेरे ख़ज़ाने में बतला कोई कमी होती फ़िज़ा में देर तलक सांसों के शरर उड़ते ज़मीं पे दूर तलक चांदनी बिछी होती मैं इस तरह न जहन्नम की सीढ़ियां चढ़ता हवस को मेरी जो तूने हवा न दी होती।

किसी गली में कि महताब में निहां होगा

किसी गली में कि महताब में निहां होगा मैं दश्त में हूँ तो इस वक़्त तू कहां होगा इसी उम्मीद पे काटा है ये पहाड़ सा दिन कि शब को ख़्वाब में तू मुझ पे मेहरबाँ होगा तू अपने तौर से तय कर विसाल की मंज़िल तेरी तरफ से मेरा दिल न बदगुमां होगा जो इससे अहले-ज़माना ने हाथ खींच लिया ज़रूर कारे-महब्बत में कुछ जियां होगा। ये अहले-शहर ने इक बार भी नहीं सोचा ज़रा सी आग से चारों तरफ धुआं होगा।

इस जगह ठहरूँ या वहां से सुनूँ

इस जगह ठहरूँ या वहां से सुनूँ मैं तेरे जिस्म को कहां से सुनूँ मुझको आग़ाज़े-दास्तां है अज़ीज़ तेरी ज़िद है कि दरमियाँ से सुनूँ रात क्या कुछ ज़मीन ओर बीती पहले तुझसे फिर आसमां से सुनूँ कितनी मासूम सी तमन्ना है नाम अपना तेरी ज़बां से सुनूँ।

मैंने जिसको कभी भुलाया नहीं

मैंने जिसको कभी भुलाया नहीं याद करने पे याद आया नहीं अक्से-महताब से मुशाबह है तेरा चेहरा तुझे बताया नहीं तेरा उजला बदन न मेला हो हाथ तुझ को कभी लगाया नहीं ज़द में सरगोशियों की फिर तू है ये न कहना तुझे जगाया है बा-ख़बर मैं हूँ तू भी जानता है दूर तक अब सफ़र में साया नहीं।

कब हुआ, दुनिया में ऐसा हादिसा

कब हुआ, दुनिया में ऐसा हादिसा मोतकिद है बादे-सर सर की सबा धुंध की ज़द में है ख्वाबों का उफ़क़ देखिये दिखलायें आंखें और क्या ढल गई क्यों आरिज़ों की चांदनी खुल गई कब ग़म की सांसों की घटा साअतों के पेचो-खम के बाद भी कुर्ब का अंजाम दूरी ही रहा खो गये सारे मुसाफ़िर याद के हो गया वीरान दिल का रास्ता बुझ गया आखिर चिराग़े 'आरज़ू' वार भारी था हवा के हाथ का।

मुझे कोई उम्मीद कभी भी नहीं थी बादल से

मुझे कोई उम्मीद कभी भी नहीं थी बादल से मैं प्यासा हूँ मुझे पानी दे इस छागल से कोई तेरे सिवा नहीं जानता है यां क़द्र उसकी मैं उम्र बदलना चाहता हूँ जिस इक पल से मेरे आज की सरगर्मी का है ये इक मंशा रहे कोई न रिश्ता बाक़ी अब मेरा कल से मैं उतना ही इसमें और भी फँसता जाता हूँ मैं जितना निकलना चाहता हूँ शब-दलदल से तेरे हिज्र की लम्बी सब ये कहती हैं कोई इश्क़ करेगा आइंदा किसी पागल से।

हवा चले वरक़-ए-आरज़ू पलट जाए

हवा चले वरक़-ए-आरज़ू पलट जाए तुलूअ' हो कोई चेहरा तो धुँद छट जाए यही है वक़्त कि ख़्वाबों के बादबाँ खोलो कहीं न फिर से नदी आँसुओं की घट जाए बुलंदियों की हवस ही ज़मीन पर लाई कहो फ़लक से कि अब रास्ते से हट जाए गिरफ़्त ढीली करो वक़्त को गुज़रने दो कि डोर फिर न कहीं साअ'तों की कट जाए इसी लिए नहीं सोते हैं हम कि दुनिया में शब-ए-फ़िराक़ की सौग़ात सब में बट जाए।

उम्मीद से कम चश्म-ए-ख़रीदार में आए

उम्मीद से कम चश्म-ए-ख़रीदार में आए हम लोग ज़रा देर से बाज़ार में आए सच ख़ुद से भी ये लोग नहीं बोलने वाले ऐ अहल-ए-जुनूँ तुम यहाँ बेकार में आए ये आग हवस की है झुलस देगी इसे भी सूरज से कहो साया-ए-दीवार में आए बढ़ती ही चली जाती है तन्हाई हमारी क्या सोच के हम वादी-ए-इंकार में आए।

सियाह रात नहीं लेती नाम ढलने का

सियाह रात नहीं लेती नाम ढलने का यही तो वक़्त है सूरज तिरे निकलने का यहाँ से गुज़रे हैं गुज़़रेंगे हम से अहल-ए-वफ़ा ये रास्ता नहीं परछाइयों के चलने का कहीं न सब को समुंदर बहा के ले जाए ये खेल ख़त्म करो कश्तियाँ बदलने का बिगड़ गया जो ये नक़्शा हवस के हाथों से तो फिर किसी के सँभाले नहीं सँभलने का ज़मीं ने कर लिया क्या तीरगी से समझौता ख़याल छोड़ चुके क्या चराग़ जलने का।

ख़्वाहिशें जिस्म में बो देख़ता हूँ

ख़्वाहिशें जिस्म में बो देख़ता हूँ आज मैं रात का हो देखता हूँ सीढ़ियां जाती हुई सूरज तक देखना चाहा था सो देखता हूँ तितलियाँ, फूल, भंवर ख़ुशबू के याद वो आता है तो देखता हूँ ऐ ख़ुदा और न देखे कोई मैं खुली आंख से जो देखता हूँ शर्त गर ये है समंदर तेरी किश्तियाँ सारी डुबो देखता हूँ आईने धुंधले हुए माज़ी के आंसुओं से उन्हें धो देखता हूँ।

फ़िराके-यार में हालात अजब बना ली है

फ़िराके-यार में हालात अजब बना ली है बदन वही है ये चिंगारियों से खाली है रगों में खून की मिक़्दार अब बहुत कम है हमारी आंख में जो है शफ़क़ की लाली है यही तो वक़्त है जुल्मात से निकलने का गदा है ये चांद है, ख़ुर्शीद भी सवाली है ख़ला को तकना शबो-रोज़ का वज़ीफ़ा है निगाह जब से तेरे बाम से हटा ली है ग़मे-जहां में ग़मे-जां से बे-तअल्लुक हूँ बड़े जतन से ये राहे-मफर निकाली है

दिल परेशाँ हो मगर आँख में हैरानी न हो

दिल परेशाँ हो मगर आँख में हैरानी न हो ख़्वाब देखो कि हक़ीक़त से पशेमानी न हो क्या हुआ अहल-ए-जुनूँ को कि दुआ माँगते हैं शहर में शोर न हो दश्त में वीरानी न हो ढूँडते ढूँडते सब थक गए लेकिन न मिला इक उफ़ुक़ ऐसा कि जो धुँद का ज़िंदानी न हो ग़म की दौलत बड़ी मुश्किल से मिला करती है सौंप दो हम को अगर तुम से निगहबानी न हो नफ़रतों का वही मल्बूस पहन लो फिर से ऐन मुमकिन है ये दुनिया तुम्हें पहचानी न हो।

जुनूँ के जितने तक़ाज़े हैं भूले जाते हैं

जुनूँ के जितने तक़ाज़े हैं भूले जाते हैं कि साथ वक़्त के लो हम भी बदल जाते हैं ज़रूर हम से हुई है कहीं पे कोताही तमाम शहर में सन्नाटे फैले जाते हैं कि आन पहुँचा है दरिया तेरे ज़वाल का वक़्त जो हमसे लोग किनारे पे ठहरे जाते हैं ज़मीं ने हम को बहुत देर में क़ुबूल किया जली हुरूफ़ में ये बात लिक्खे जाते हैं वही कि जिससे तअल्लुक बराए-नाम है अब उसी का रास्ता दिन रात देखे जाते हैं।

बैचैन बहुत रूह जो पैकर के लिये है

बैचैन बहुत रूह जो पैकर के लिये है ये आखिरी तोहफा कि समंदर के लिए है किस वास्ते ये तेरी तवज्जो का है मरकज़ इस शाख़ का हर फूल तो सरसर के लिए है जो सामने होता है नहीं दीद के क़ाबिल ये आंख किसी दूर के मंज़र के लिए है आवाज़े-दरा देर से ललकार रही है तलवार जहां भी है तेरे सर के लिए है।

तेज़ हवा जला दिल का दिया आज तक

तेज़ हवा जला दिल का दिया आज तक ज़ीस्त से इक अहद था, पूरा किया आज तक मेरे जुनूँ के लिए तेरी गवाही बहुत चाके-गरेबाँ न क्यों मैंने सिया आज तक कितने समंदर मुझे रोज़ मिले राह में बूंद भी पानी नहीं मैंने पिया आज तक इल्म के इस शहर में कोई नहीं पूछता कारे-सुख़न किस तरह मैंने किया आज तक मेहरो-वफ़ा के सिवा दोस्त नहीं जानते मुझको दिया है सदा, कुछ न लिया आज तक।

नहीं रोक सकोगे जिस्म की इन परवाज़ों को

नहीं रोक सकोगे जिस्म की इन परवाज़ों को बड़ी भूल हुई जो छेड़ दिया कई साज़ों को कोई नहीं मकीन नहीं आया तो हैरत क्या कभी तुमने खुला छोड़ा ही नहीं दरवाज़ों को कभी पार भी कर पाएंगी सुकूत के सहरा को दरपेश है कितना और सफ़र आवाज़ों को मुझे कुछ लोगों की रुसवाई मंज़ूर नहीं नहीं आम किया जो मैंने अपने राज़ों को कहीं हो न गई ज़मीन परिंदों से खाली खुले आसमान पर देखता हूँ फिर बाज़ों को।

मैं चाहता हूँ न आएं, अज़ाब आएंगे

मैं चाहता हूँ न आएं, अज़ाब आएंगे ये जितने लोग हैं ज़ेरे-इताब आएंगे इस इक ख़बर से सरासीमा हैं सभी कि यहां न रात होगी न आंखों में ख़्वाब आएंगे ज़रा-सी देर है ख़ुशबू-ओ-रंग का मेला खिज़ां की ज़द में अभी ये गुलाब आएंगे हरेक मोड़ पे इक हश्र-सा बपा होगा हरेक लम्हा नये इंक़लाब आएंगे पलट के आये नहीं क्यों जुनूँ की वादी से जिन्हें ये ज़ोम था वह कामियाब आएंगे।

जहाँ तक होगा जब तक होगा दिल बहलाएँगे

जहाँ तक होगा जब तक होगा दिल बहलाएँगे हम भी किसी दिन तो तुझे भूले से याद आजाएँगे हम भी करेंगे हम कहाँ तक दूर की आवाज़ का पीछा अभी एक मोड़ ऐसा आएगा पछताएँगे हम भी कहीं भी ज़ीस्त के आसार दिखलाई नहीं देते यही सूरत रही जो चंद दिन, घबराएँगे हम भी अज़ब वहशत थी, घर के सारे दरवाज़े खुले रक्खे हमें मालूम था इक रोज़ धोका खाएँगे हम भी उस इक लम्हे के आने तक ग़मों को मुल्तवी रक्खें वफ़ाएँ करके अपनी याद जब पछताएँगे हम भी

शदीद प्यास थी फिर भी छुआ न पानी को

शदीद प्यास थी फिर भी छुआ न पानी को मैं देखता रहा दरिया तिरी रवानी को सियाह रात ने बेहाल कर दिया मुझ को कि तूल दे नहीं पाया किसी कहानी को बजाए मेरे किसी और का तक़र्रुर हो क़ुबूल जो करे ख़्वाबों की पासबानी को अमाँ की जा मुझे ऐ शहर तू ने दी तो है भुला न पाऊँगा सहरा की बे-करानी को जो चाहता है कि इक़बाल हो सिवा तेरा तो सब में बाँट बराबर से शादमानी को।

जो चाहती दुनिया है वो मुझसे नहीं होगा

जो चाहती दुनिया है वो मुझसे नहीं होगा समझौता कोई ख़्वाब के बदले नहीं होगा अब रात की दीवार को ढाना है ज़रूरी ये काम मगर मुझसे अकेले नहीं होगा खुशफ़हमी अभी तक थी यही कारे-जुनूँ में जो मैं नहीं कर पाया किसी से नहीं होगा तदबीर कोई सोच कोई ऐ दिले-सादा माइल-ब-करम तुझपे वो ऐसे नहीं होगा बेनाम-से इक ख़ौफ़ से दिल क्यों है परेशां जब तय है कि कुछ वक़्त से पहले नहीं होगा।

जां फिर से लरज़ उट्ठी, दिल दर्द से भर आया

जां फिर से लरज़ उट्ठी, दिल दर्द से भर आया इक ऐसा नया मंज़र आंखों को नज़र आया हर गाम पे रस्ते में थीं धूप की दीवारें मुझ जैसा बरहना-सर उनसे भी गुज़र आया दरिया तेरी मौजों की अंगड़ाइयां गिनता हूँ प्यासा हूँ, मुक़द्दर में यह एक हुनर आया बेदार दरीचों पर दस्तक-सी सुनाई दी जब-जब कभी भूले से मैं लौट के घर आया पहले तुझे देखा था परछाईं की सूरत में फिर जिस्म तेरा मेरी रग-रग में उतर आया।

एक पल दो कदम का साथ ही क्या

एक पल दो कदम का साथ ही क्या अब खुला, साये की हयात ही क्या सैंकड़ों ख्वाबों की ज़रब-तक़सीम इसका हासिल रहेगी रात ही क्या कुछ तमन्नाएं, चंद पछतावे हम से लोगों की कायनात ही क्या पहले करते हैं मदह औरों की फिर ये कहते हैं तेरी बात ही क्या देखना आंखों से बहुत कुछ है हम लिखें दिल की वारदात ही क्या।

अभी था बीच समंदर में अब किनारे पे है

अभी था बीच समंदर में अब किनारे पे है ये सारा खेल, ये करतब तेरे इशारे पे है बदन में कितना लहू है ये जांच करवा लो बताना फिर कि जुनूँ कितना किस सहारे पे है सियाह रात को ख़ातिर में लाये तो कैसे ज़मीं हुई यर निगह कब से इक सितारे पे है हवा का अगला क़दम आसमान पर होगा मेरे वजूद का असबात इस नज़ारे पे है मैं इस तरफ हूँ सरासीमा और बहुत ख़ामोश मेरा सफ़ीना उधर दूसरे किनारे पे है।

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