साहित्य से सुवासित हिंदी फिल्मी गीत (ललित आलेख) : अनुपमा श्रीवास्तव 'अनुश्री'

"वियोगी होगा पहला कवि ,आह से उपजा होगा गान" शब्दों का यह सफर सदियों से चल रहा है हमारा हमसफर बनकर, गीतों, गजलों, कविताओं में ढलकर। काव्य अनुभूत जिंदगी है। ऐसी शाब्दिक अभिव्यक्ति जो हमारे ह्रदय के भावों की सघनता, गहनता को परिभाषित और मुखर करती है।

साहित्य की सुभाषित, सुवासित, सर्वोत्कृष्ट और सुंदर विधा जिसे सुनकर जिंदगियाँ मुस्कानें पहनती हैं, तो कभी झरझर बारिश होती है पलकों पर। काव्य एक ऐसी विधा जो संकीर्णता से परे शाश्वतता के दर्शन करा दे।

लेकिन सच्ची कलम वही जो सायास नहीं, अनायास ह्रदय के मंच पर अंकित हो जाए। काव्य उन्मेष में स्वयं को तिरोहित समाहित करने के लिए , साहित्यिक खुशबू और सौंदर्य से सराबोर उन फिल्मी गीतों के लिए ह्दय गवाक्ष खोल दिए जाएँ, वक्त के धारों को यही बाँध दिया जाए और गीत और कविताओं की भाव गंगा में गोते लगाए जाएँ , उन सौभाग्य प्राप्त फिल्मी कवियों को जिन्होंने अपने गीतों में कवित्त को स्थान देकर मनोरम और ललित गीतों की सुरीली , मूल्यवान भेंट हमें दी है। जो साहित्यिक सौंदर्य,अलंकारिकता, कलात्मकता और लालित्य के साथ ह्रदय को झंकृत करते हुए रुह में प्रविष्ट करते हैं और ताउम्र हमारे साथ चलते हैं। इनकी उम्र हमारी उम्र से कई गुना अधिक होती है। भाषा के माध्यम से अंतरंग की अनुभूति /अभिव्यक्ति कराने वाली ललित कला के रूप में काव्य को परिभाषित करते हैं, जब ऐसे माधुर्य और लालित्य का अनुभव ,भाषायी सौष्ठव और प्रांजलता का अनुभव फिल्मी गीत कराते हैं , तो मन ढूँढता है कि यह किस गीतकार ,कवि की कलम की उपज है।

जब-जब साहित्य ने फिल्मी गीतों को संस्पर्श किया है मनोभूमि को उर्वर कर दिया है और हमारे तन- मन को आनंद से परिपूर्ण।

भाषा का सौंदर्य , भावों का आनंद बढ़ गया है। ऐसे गीतों के दायरे में कविता कुछ यूँ बहती है गुलजार की कलम से- पलकों पर चलते-चलते जब ऊँघने लगती हैं ,सो जा आँखें सोती हैं तो उड़ने लगती हैं। सौधें से आकाश पे नीले बजरे बहते हैं ,पाँखी जैसी आँखें सपने चुगने लगती हैं " वहीं "आ धूप मलूँ मैं तेरे हाथों में" और " जाने क्या सोचकर नहीं गुजरा, एक पल रात भर नहीं गुजरा" या "नैनों की बाँसुरी कोई सुनाए, एक पग मीरा जैसी ,एक पग राधा जैसी" या " एक ही ख्वाब कई बार देखा है मैंने, चिट्ठी है या कविता! इसमें पूछा भी जा रहा है! कहीं" जरी वाले आसमान के तले जयघोष है कि " आजा जिंदे शामियाने के तले " वहीं ये दिल की इमारत बनती है दिल से, दिलासों को छूकर ,उम्मीदों से मिल के।

न मिट्टी न गारा ,न सोना सजाना। जहाँ प्यार देखो, वहीं घर बनाना। गीतों में कवित्त का दिलासा देता हुआ, फिल्म बसेरा का यह गीत जहाँ खूबसूरत बोलों के साथ दर्शन की अभिव्यक्ति हो रही है।

किनारा, बसेरा, आँधी, लेकिन आदि फिल्मों में गुलजार का काव्यात्मक शिल्प।

इसी तरह कुछ संगीतकारों उषा खन्ना ,रवीद्र जैन ,चित्रगुप्त आदि ने बोलों को , शब्दों को महत्ता दी है । भाषा का मान रखा है। उसके बाद धुनों की मीनारें खड़ी की हैं शब्दों पर। ऐसे सदियों से आज तक हमारे लबों पर सजे हैं। हमारे हृदय में बसे हैं।

कविवर "नीरज" की कलम जब पाती लिखती है फूलों के रंग से तो, कई सारे सुंदर, सुष्मित और कवितानुमा गीतों का कारवाँ गुजर जाता है कि "साँस तेरी मदिर- मदिर जैसे रजनीगंधा। प्यार तेरा मधुर- मधुर चाँदनी की गंगा.... और हम खड़े देखते रह जाते हैं इस कमाल की कलम को।

"योगेश" के कवि रूप का दर्शन होता है "रजनीगंधा" के गीतों में , पसंद अपनी अपनी में- तुम जो मिले हो, गीत सजे हैं मन वीणा के मधुर तार बजे हैं। मुखरित हो गए सरगम के स्वर और वहीं - अनजाने होठों पर क्यों पहचाने गीत हैं ,वे लिख देते हैं। "मिली" में उनका लिखा हुआ यह अद्भुत गीत मिलता है कि -

आए तुम याद मुझे, गाने लगी हर धड़कन,
ख़ुशबू लाई पवन, महका चंदन।

जिस पल नैनों में सपना तेरा आए,
उस पल मौसम पर मेहंदी रच जाए ,
जब मैं रातों को तारे गिनता हूँ
और तेरे कदमों की आहट सुनता हूँ ,
लगे मुझे हर तारा तेरा दर्पण।

"आनंद महल" में उनका लिखा हुआ यह गीत - सपना, देखें मेरे खोये खोये नैना।
मितवा मेरे आ, तू भी सीख ले सपने देखना " तमाम फिल्मी गीतों में यह मन को खींचता है।

व्यवसायिक गीतों के द्विअर्थी, अश्लील, चलताऊ भाषायी प्रारूप में जब कभी कविता विशुद्ध रूप कुछ घुल जाता है तो "इंदीवर" भी रच देते हैं - चंदन सा बदन, चंचल चितवन और साँझ ढली चढ़ आई रे बदरिया वहीं पूरब और पश्चिम में-

मुख चमके ज्यों हिमालय की चोटी,
हो न पड़ोसी की नीयत खोटी।

"साहिर" - यह महलों, ये तख्तों, ये ताजों की दुनिया और नवीन बिंबों / उपमानों से सजी आँखें - उस मुल्क की सरहद को कोई छू नहीं सकता, जिस मुल्क की सरहद की निगहबान हैं आँखें।

साहित्यिक रसधार "अमित खन्ना" के गीतों में नजर आती है और उनका कहना सच लगता है कि " साज छुपा है जब सीना ए दिल में, गीत तुम्हारे हैं फिर क्यों मुश्किल में" और मन का मयूर झूम उठता है इस गीत पर जब उनकी कलम की उजास से उतरता है- सुमन सुधा रजनी चंदा ,आज अधिक क्यों भाये और भैरवी के गीत-

शबनम के क़तरों से नाज़ुक ये पल
हथेली से अपनी गिरने न दो
मौसमों से कहो यूँ बसंत ही रहें
समय ढ़लने न दो ,इसे बदलने न दो।

कुछ इस तरह दो दिल मिले।

ऐसे ही सुंदर कवित्त से पूर्ण ललित गीतों में सर्वश्रेष्ठ लगता है "शंभू सेन" द्वारा लिखा हुआ गीत - नव कल्पना, नव रूप से रचना रची जब नार की। सत्यम शिवम सुंदरम से शोभा बढ़ी संसार की।" भरत व्यास" रचते हैं कमाल के शब्द कौशल , जादुई कारीगरी .... तुम महासागर की सीमा, मैं किनारे की लहर। तुम उषा की लालिमा हो ,भोर का सिंदूर हो, मेरे प्राणों की हो गुंजन ... क्या शब्दविन्यास प्राणों को गुंजित करने वाला।

अपनी कलम कूची लिए चित्रकार को ढूंढ रहे हैं -

तपस्वियों सी हैं अटल ये पर्वतों की चोटियाँ
ये बर्फ़ की घुमेरदार घेरदार घाटियाँ।
ध्वजा से ये खड़े हुए हैं वृक्ष देवदार के।
गलीचे ये गुलाब के बगीचे ये बहार के।
ये किस कवि की कल्पना का चमत्कार है........!

यही भाषा की प्रांजलता, सहजता, नैसर्गिकता और आँचलिकता " रवीद्र जैन" की कलम में ढलती है और बटोहिया को, सुंदर भाव और मधुरता की दिशा में ही ले जाती है ।

नदिया के पार के सभी गाने" सोना नदी की माटी ,झोली में भर ले ," वहीं सोना करे, झिलमिल झिलमिल ,वृष्टि पड़े तापुर तुपुर , जाते हुए ये पल ,मन जितना उड़ना चाहे ,तन उतना मरता जाए। या फिर" मेरी प्रीत का काजल, तुम अपने नैनों में मले आना, जब दीप जले आना " और " राम तेरी गंगा मैली के गीत" झरने तो बहते हैं कसम ले पहाड़ों की जो कायम रहते हैं।

इसी रौ में बॉलीवुड की चुनिंदा महिला गीतकारों में एक "माया गोविंद " लिखती हैं "कजरे की बाती ,अंसुअन के तेल में। "सावन को आने दो में ही "मदन भारती" की कलम से- दिन की गर्मी सोच रही, है शीतल अँधियारा। गगन ये सोचे, चाँद सुखी है, चंंदा कहे सितारे। साथी दुख में ही सुख है छिपा रे।

इसी फिल्म के गीत - तेरे बिन सूना " अभिलाष " लिख रहे हैं -

ओस की बूँदे अँखिया मूँदें,
कलियों का श्रृँगार करें।

इस फिल्म में गीतकार "फौक़ जामी " की कलम लिखती है- रात की चाँदनी एक नई बहार लेकर आई है ।
कुदरत ने खोले हैं आँखों पर राज नये और " पूरन कुमार होश" जैसे कुछ गुमशुदा गीतकारों की सिद्धहस्त रसभरी कलम लिखती है -

बोले तो बाँसुरी कहीं बजती सुनाई दे।
ऐसा बदन कि कृष्ण का मंदिर दिखाई दे।

चेहरा तमाम नग़्मगी
आँखे तमाम लय
देखूँ उसे तो
ज़िन्दगी गाती दिखाई दे" ... किस तरह की रस माधुरी हमारे कानों में उड़ेल देती है, यह काव्यात्मक अभिव्यंजना और बिंबो की सुमधुर सर्जना। ऐसे गीत कहाँ है ,यह तो हम सबको पड़ेगा ढूँढना! "

इंदीवर "ने भी यहाँ रच दिया है कवित्त तिलिस्म -

कजरारे चंचल नैनो में सूरज चाँद का डेरा।
रूप के इस पावन मंदिर में हंसा करे बसेरा।
प्यासे गीतों की गंगा का तू ही है किनारा।
नहीं भूलेगा मेरी जान ये किनारा वो किनारा।

यानी एक राजकमल भी जिनके संगीत में ऐसे गुमशुदा गीतकार , जिनके गीत लेकिन बहुत जाने पहचाने, कालजयी बन पड़े । ऐसा प्रतीत होता है कि जिन गीतकारों ने "कम लिखा है, कमाल का लिखा है।"

ये फिल्म सुमधुर गीत- संगीत से सजा एक ऐसा साज है जिसे जहाँ से भी छेड़ो, रूह को झंकृत करता है। ललित और सुमधुर गीतों की यह श्रृँखला है जिसके जादू से कोई भी साहित्य प्रेमी, कवि अछूता नहीं रह सकता। "

संतोष आनंद "की कलम शब्दों को यूँ अर्थ देती है- कहाँ से कहाँ आ गए चलते चलते कि दिल बन गया दर्द की राजधानी, यूँ लगने लगी आजकल जिंदगानी।

कुछ ऐसे साहित्यकार, कवि, गीतकार हुए जिन्होंने फिल्मी गीतों की तरफ रुख किया.. कुछ चले भी लेकिन अंततः उन्हें भी घोर बाजारवाद ,घोर व्यवसायिकता, अश्लीलता, फूहड़ता, आइटम सोंग्स के चलते अपनी कलम का रुख फिल्मी गीतों से, वापस मोड़ना पड़ा। सच यह है कि साहित्य और फिल्मी गीतों की जुगलबंदी जरा कम ही होती है। अगर फिल्मी गीतों में साहित्य की आमद बनी रहे तो दर्शकों/ श्रोताओं की रूचि में भी शुचिता यानी परिष्कृतता , उत्कृष्टता, आएगी।भाषा अपने पूर्ण सौंदर्य और भाव के साथ आरूढ़ होगी ऐसे गीतों को जब पीढ़ी अपनाएगी तो संस्कृति और अपनी सभ्यता को साथ पाएगी।

दोष देने से कुछ नहीं होगा ,करने से होगा। जो चीज हम समाज में चाहते हैं ,सबसे पहले वह हमें अपने में देखना है ,लाना है सकारात्मक बदलाव और परिणाम।

कैफी आजमी ने "भोर आई गया अंधियारा " फिल्म बावर्ची में बड़ा खूबसूरत पिरोया है ... उनकी काव्यात्मकता की कुछ चमक फिल्म अनुपमा- ऐसी भी बातें होती हैं और शोला और शबनम में- जाने क्या ढूँढती रहती है ये आँखें मुझ में , इसी जैसे कुछ गीतों में हैं।

निदा फ़ाज़ली के गीतों को सुनने पर लगता है कि यह आसमान, ये बादल , ये रास्ते ये हवा सब अपनी जगह ठिकाने पर आ गए हैं कहीं कोई बवंडर, कोई सस्तापन नहीं है कि किसी से शिकायत नहीं है। और विजय हो रही है इन गीतों की जब लिख रहे हैं निदा -शाखों पे लहराएँ, मौसम हरे हरे, चाँदी सी बरसाएँ, बादल भरे -भरे या "फिर दुआएँ दे रहे हैं पेड़, मौसम जोगिया सा है" ...ऐसे प्रतीकों /बिंबो से पूर्ण फिल्मी गीतों की जब साहित्य से जुगलबंदी होती है तो हमें कल्पनाओं/ भावनाओं की उत्कृष्ट ऊँची उड़ान पर ले जाती है और काव्य परिभाषित हो जाता है कि वह शाश्वतता की ओर ले जाता है।

ऐसे गीत जिनमें साहित्य को चिन्हित ,विंबित और प्रतिष्ठित किया गया है कि रचनाकार की कलम धन्य हुई और धन्य हुए श्रोता इन गीतों को सुनकर, अपना कर ।

"बसंत देव "की कलम फिल्म उत्सव- पाती की जाली से झाँक रही थी कलियाँ और छोड़ चले नैनों को ,किरणों के पाँखी या कि मेरे मन बाजा मिरदंग, मंजीरे खनके अंग- अंग। मदन रंग लायो रे... और बड़ा सुंदर सा "नीलम के नभ छाए.... गीतों के भाषा सौंदर्य ,बिंब प्रधान लालित्य से हम सभी अभिभूत हो जाते हैं आज भी। कविवर "प्रदीप" का हरिश्चंद्र तारामती का- सूरज रे जलते रहना । जगत उद्धार में अभी देर है। अभी तो दुनिया में अंधेर है।

कुछ "शैलेंद्र" के लोक जीवन को ध्वनित करते हुए गीत... सजनवा बैरी हो गए हमार.. या "मेरे साजन है उस पार", ओ मेरे माँझी ले चल पार....और" चलत मुसाफिर मोह लिया रे पिंजरे वाली मुनिया"

असद भोपाली ने आँचलिकता को शब्दों का सुंदर पैरहन पहनाया " कहे तोसे सजना , पग पग लिए जाऊँ,तोहरी बलइयाँ। बदरिया सी बरसूँ, घटा बन के छाऊँ।

एक और गीत है "अंबर की पाक सुराही"- अमृता प्रीतम" फिल्म कादंबरी।अमीर खुसरो का गीत- मैं तुलसी तेरे आँगन की- " छाप तिलक सब छीनी रे मोसे" अपने भाषा सौंदर्य व साहित्यिक गरिमा के साथ उपस्थित है कुछ यूँ

शब्द/ भाव और संवेदनाओं की मीनार कविताओं में दिखाई पड़े, मानवता प्रेम का दरिया बहे।

वही "मजरूह" लिख रहे हैं - बुझे तो ऐसे बुझे, जैसे किसी गरीब का दिल जले तो ऐसे कि जैसे चिराग जलते हैं या "फिर तारों में सजके, अपने सूरज से, देखो धरती चली मिलने" ... अद्भुत शाब्दिक प्रवाह और जादूगरी।

हसरत जयपुरी की कलम की हसरत है कुछ शेर सुनाने की.. "जहाँ एक दिल सौ अफसाने " में वह लिखते हैं- आईना तुमको देख कर हैरान हो गया, एक बेजुबान तुमसे पशेमान हो गया... एक सब्जपरी दिल में है, ये उनसे मुखातिब हैं।

"बाल कवि बैरागी" ने अपने साहित्यिक अनुराग को इन मधुर गीतों में संजो दिया है - तू तरुवर मैं शाख,तू चंदा मैं और चाँदनी । चार पहर की चाँदनी मेरे संग बिता, केसरिया धरती लगे ,अंबर लालम लाल।

पं नरेंद्र शर्मा की मसि साहित्यिक ज्योति से ओतप्रोत - सत्यम शिवम सुंदरम और

"पात पात बिरवा हरियाला,
धरती का मुख हुआ उजाला
सच सपने कल के,
ज्योति कलश छलके"

सूरज का सातवाँ घोड़ा में धर्मवीर भारती के गीत ।

अधुनातन गीतकारों में भी कुछ अच्छे गीतकार हैं जिनकी कलम से कुछ ऐसे गीत लिखे जा रहे हैं जिन्हें सुनकर कलम की प्रशंसा किए बगैर रहा नहीं जा सकता.. प्रसून जोशी-

जैसे आँखों की डिबिया में निंदिया
पर निंदिया में मीठा-सा सपना
और सपने में मिल जाये फ़रिश्ता-सा कोई
जैसे बिना मतलब का प्यारा रिश्ता हो कोई ,
खो न जाए ये तारे जमीं पर... मणिकर्णिका में "
मेरी नस- नस तार कर दो
और बना दो एक सितार
राग भारत मुझपे छेड़ो
झन-झनाओ बार- बार।

और जयदीप साहनी "आजा नचले" में -

हलचल हुई,जरा शोर हुआ
और "तानाबाना, तानाबाना बुनती हवा
बूंदें भी तो आये नहीं, बाज़ यहाँ
साज़िश में शामिल , सारा जहाँ है
हर ज़र्रे-ज़र्रे की ये इल्तिज़ा है
ओ रे पिया"

मनोज मुंतशिर - तेरी मिट्टी में मिल जावा, कौसर मुनीर- फिल्म 82" लहरा दो" और सूफियाना गीत भी आए हैं जो भाव और अर्थ की दृष्टि से बेहतरीन।

सार संक्षेप अवगाहन किया जाए तो यही है कि अगर फिल्मी गीतों को साहित्य से परे, हाशिए पर या दोयम दर्जे का दर्जा न देकर... शामिल किया जाए तो उससे पहले उनका थोड़ा विश्लेषण करना, भाव शुचिता का ध्यान रखना, भाषा और भावों की प्रांजलता, लालित्य और सौंदर्य को यथोचित मान- सम्मान , गरिमा के साथ गीत में प्रतिष्ठित करना आवश्यक होगा। ऐसा होता है तो गीत- गीत में ,शब्द- शब्द बोल उठेंगे। आखर- आखर सुना जाएगा। हृदय डोल उठेंगे।

कि ये तेरी मेरी जिंदगी , सुरों में है ढली हुई।
दुखों की पंचम, कभी सुखों की कभी रागिनी (देव कोहली)

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