साहित्य अकादेमी महत्तर सदस्यता

Sahitya Akademy Fellowship

वर्तमान युग के लब्धप्रतिष्ठ संस्कृत कवि तथा समीक्षक महामहोपाध्याय प्रोफ़ेसर सत्यव्रत शास्त्री को अपने सर्वोच्च सम्मान महत्तर सदस्यता से विभूषित करते हुए साहित्य अकादेमी अपूर्व गौरव का अनुभव कर रही है । पाणिनीय शास्त्र में निष्णात होते हुए भी प्रो. शास्त्री ने अतीव प्रतिभाशाली कवि के रूप में प्रतिष्ठित होकर इस अविचारित धारणा को निरस्त कर दिया है कि व्याकरण और काव्य परस्पर विरोधी विधाएँ हैं। प्राचीन काव्य शास्त्र के प्रति श्रद्धावान् होते हुए भी रूढ़िबद्ध काव्य के प्रति प्रो. शास्त्री की श्रद्धा नहीं है। उनकी दृष्टि में सामान्य भणिति से भिन्न उक्ति विशेष ही काव्य है, जो अर्थगाम्भीर्य तथा सालंकार प्रांजल पदावली से अनुप्राणित होकर सहृदय को आनन्द से आप्लावित करता है।

प्रो. सत्यव्रत शास्त्री का जन्म 29 सितम्बर 1930 को लाहौर में हुआ था, जो अब पाकिस्तान का अंग है। संस्कृत वैदुष्य की महती थाती उन्हें उत्तराधिकार में प्राप्त हुई है। शास्त्रिवर ने भर्तृहरि के वाक्यपदीय के सन्दर्भ में दिक्काल की अवधारणा' सरीखे दुरूह शास्त्रीय विषय पर डॉ. सूर्यकान्त के निर्देशन में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से 1955 में पी-एच.डी. की महनीय उपाधि प्राप्त की। वाराणसी प्रवास की अवधि में डॉ. शास्त्री को उस समय के पं. शुकदेव झा, महामहोपाध्याय गोपीनाथ कविराज तथा पं. दुण्डिराज शास्त्री जैसे सर्वतन्त्र स्वतन्त्र पण्डितों के सान्निध्य का सौभाग्य मिला। उन धुरन्धर पण्डितों के चरणों में बैठकर उन्होंने महाभाष्य, नव्यन्याय तथा वेदान्त के क्षीरोदधि का अवगाहन किया । सुखद संयोग है कि डॉ. शास्त्री की औपचारिक शिक्षा की परिणति संस्कृत विद्या की प्राचीन प्रतिष्ठित स्थली वाराणसी में हुई ।

डॉ. शास्त्री 1959 में शिक्षा के महत्त्वपूर्ण केन्द्र दिल्ली विश्वविद्यालय में आ गए। तीस वर्ष से अधिक तक डॉ. शास्त्री ने दिल्ली विश्वविद्यालय की नाना रूपों में सेवा की। सहायक आचार्य के रूप में जो यात्रा आरंभ हुई थी, उसकी परिणति विभागाध्यक्ष तथा आचार्य (प्रोफेसर) एवम् अध्यक्ष कला संकाय के रूप में हुई। यह तीन दशक की अवधि प्रो. शास्त्री के सर्वाधिक अभ्युत्थान का युग था । उनकी काव्य प्रतिभा तथा बौद्धिक, साहित्यिक एवं प्रशासनिक क्षमताएँ उत्तरोत्तर चरम विकास को प्राप्त हुईं। प्रो. शास्त्री के साहित्यिक एवं प्रशासनिक कौशल से लाभान्वित होने के लिए 1983 में उन्हें श्री जगन्नाथ संस्कृत विश्वविद्यालय, पुरी का कुलपति नियुक्त किया गया। नवस्थापित विश्वविद्यालय को अल्पकाल में सुदृढ़ आधार प्रदान करना उनकी महती उपलब्धि थी। शास्त्री महोदय के पाण्डित्य की कीर्ति तब तक चतुर्दिक् फैल चुकी थी। अतः जर्मनी, कनाडा, बैल्जियम, थाईलैंड आदि देशों ने अपने-अपने विश्वविद्यालयों में संस्कृत अध्ययन को अधिक प्राणवान् एवं व्यवस्थित बनाने के लिए डॉ. शास्त्री को अभ्यागत आचार्य के रूप में निमंत्रित किया। उनके वैदुष्य से उन विभागों में नवजीवन का संचार हुआ। थाईलैंड के राज परिवार में संस्कृत विद्या के प्रवेश का समूचा श्रेय प्रो. शास्त्री के पाण्डित्य और अध्यवसाय को है ।

शास्त्रिवर के प्रथम खण्डकाव्य बृहत्तरं भारतम् का प्रकाशन 1959 में हुआ, जिसमें नामानुरूप बृहत्तर भारत के नाम से ख्यात दक्षिण पूर्व एशिया के सांस्कृतिक एवम् ऐतिहासिक गौरव का ललित संस्कृत पद्य में मनोरम गान है। शास्त्रिवर्य के नवीन प्रतिपाद्य के प्रति भावी अनुराग का यह पूर्वाभास था।

प्रो. सत्यव्रत शास्त्री बृहत्काय सर्जनात्मक साहित्य के यशस्वी प्रणेता हैं, जिसमें तीन महाकाव्य, चार खण्डकाव्य, पद्यबद्ध पत्रों के दो खण्ड, एक गद्यकाव्य तथा अनेक लघुकाव्य समाविष्ट हैं, जिनमें से प्रत्येक अपनी- अपनी दृष्टि से रुचिकर तथा महत्त्वपूर्ण है। अपने प्रथम महाकाव्य बोधिसत्त्वचरिम् (1959) में तो, जिसने बोधिसत्त्व के अवदानों को सरस काव्य का परिधान प्रदान कर संस्कृत काव्य के लिए नए द्वार खोले हैं, डॉ. शास्त्री ने महाकाव्य के आधारभूत तत्त्व वस्तु, नेता और रस से संबंधित काव्यशास्त्रीय मान्यताओं को आमूलचूल नकार दिया है, यद्यपि नव्य विधि से रचित यह काव्य साहित्य रसिकों के कंठ का हार है।

श्रीरामकीर्तिमहाकाव्यम् (1990) में प्रो. शास्त्री की काव्य प्रतिभा अत्युच्च बिन्दु का स्पर्श करती है। रामकथा के एक विदेशी (थाई) रूपान्तर को काव्य का आधार बनाने में विराट् राम साहित्य में नवीन भंगिमा का आधान हुआ है। थाई रूपान्तर की अतिशय भिन्नता के निरूपण से काव्य में जो तरंगायमान ओज स्पन्दित है, वह इसकी विशिष्ट विभूति है। रामकीर्ति महाकाव्य का कुछ ऐसा गौरव है कि इसके तीन संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं, सात भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ है और देश, विदेश में इसे दस पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है।

सिख इतिहास पर आधारित श्रीगुरुगोविन्दसिंहचरितम् (1967) संस्कृत के सिख साहित्य में गौरवशाली अध्याय का सूत्रपात करता है। इसके चार सर्गों के अल्प कलेवर में दशम गुरु की उदात्त जीवन गाथा समग्रता से मुखरित है। मनोरम वैविध्य तथा काव्य सौन्दर्य से दीप्त थाईदेशविलासम् (1979) प्राचीन श्यामदेश (थाइलैंड) के सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक गौरव का कवित्वपूर्ण उपाख्यान है जिसमें पर्यटक निर्देशिका की भंगिमा भी है। नपुंसकलिंगस्य मोक्षप्राप्तिः में मनोरंजक एकांकी के व्याज से संस्कृत व्याकरण की एक जटिल समस्या का समाधान प्रस्तुत है। कोऽहम् तथाकथित आधुनिक मानव के खंडित एवं कपटपूर्ण व्यक्तित्व के चित्रण द्वारा नवीन भाव संपदा को अभिव्यक्त करने की संस्कृत भाषा की अद्भुत क्षमता को रेखांकित करता है। यात्रा - साहित्य को समृद्ध बनाने में शास्त्री जी का महत्त्वपूर्ण योगदान है। शर्मण्यदेश: सुतरां विभाति (1976) कवि की जर्मनी यात्रा का काव्यमय विवरण है। हंगरी कितनी दूर कितनी पास (2012) तथा चरन् वै मधु विन्दति (2012) में कवि की हंगरी, मलेशिया, इंडोनेशिया, स्पेन आदि देशों की सांस्कृतिक यात्राओं का हृदयहारी तथा शिक्षाप्रद वृत्तांत हिन्दी में सविस्तार निबद्ध है।

संस्कृत में निबद्ध प्रथम दैनंदिनी होने के नाते डॉ. शास्त्री को दिने दिने याति मदीयजीवितम् (2009) के द्वारा संस्कृत साहित्य में डायरी लेखन की अभिनव विधा को प्रवर्तन करने का गौरव प्राप्त हैं। तथ्यपरक रचना के रूप में परिकल्पित होती हुई भी यह गद्यकाव्य के गुणों से संपन्न है और लेखक को समर्थ गद्यकार के रूप में प्रतिष्ठित करती है।

प्रो. शास्त्री की व्युत्पत्ति उनकी शक्ति के समान ही उर्वर तथा बहुमुखी है और दोनों के घनिष्ठ सामंजस्य ने उन्हें समन्वित साहित्यिक व्यक्तित्व प्रदान किया है। उनकी समीक्षात्मक कृतियों में व्युत्पत्ति नाना आयामों के साथ भरपूर प्रकट है। द रामायण : ए लिंग्विस्टिक स्टडी (1964) निस्संदेह डॉ. शास्त्री की सर्वोत्कृष्ट आलोचनात्मक कृति है। इसमें वाल्मीकि रामायण की भाषा के सभी कल्पनीय पक्षों का ऐसा सूक्ष्म तथा तलस्पर्शी विवेचन है कि इसके तत्परतापूर्वक परिशीलन के बिना आदिकाव्य की भाषा के मर्म को समझना संभव नहीं है। रामायण का अध्ययन इसके बिना अधूरा है। यद्यपि बृहदाकार योगवासिष्ठ की भाषा तथा कविता का इसी शैली में प्रस्तावित अनुशीलन अभी अपूर्ण है, किन्तु प्रो. शास्त्री द्वारा प्रकाशित तत्संबंधी ग्यारह लेखों की श्रृंखला से आगामी विवेचन के गाम्भीर्य का पूर्वानुमान करना कठिन नहीं है।

व्याकरण तथा भाषा शास्त्र निस्संदेह डॉ. शास्त्री के प्रिय विषय हैं किन्तु दर्शन, धर्म, रामायण, महाभारत, पुराण, अभिलेखशास्त्र, लौकिक साहित्य के अतिरिक्त समवर्ती संस्कृत साहित्य में भी उनकी गहरी अन्तर्दृष्टि है। उनकी सप्त खण्डात्मक, डिस्कवरी ऑफ़ संस्कृत ट्रेजर्स (2005) से, जिसमें प्राचीन संस्कृत साहित्य में अन्तर्निविष्ट ज्ञान निधि एकबारगी अनावृत हुई है, यह तथ्य निर्भ्रान्त प्रमाणित है। वस्तुत: इसमें विशालकाय संस्कृत साहित्य की अन्तरात्मा सहजता से मुखरित है। कालिदास इन मॉडर्न संस्कृत लिटरेचर (1990) तथा न्यू एक्सपेरिमेंट्स इन कालिदास (1994) से कविकुलगुरु के साहित्य के अन्वेषण/अध्ययन के नए द्वार खुले हैं। प्रथम कृति में वर्तमान कालीन कवियों द्वारा अपनी विभिन्न रचनाओं में महाकवि के व्यक्तित्व का आकलन किया गया है, उसका वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन है। न्यू एक्सपेरिमेंट्स इन कालिदास में कालिदास की कृतियों तथा उनके विभिन्न महत्त्वपूर्ण प्रसंगों के आधार पर अर्वाचीन कवियों द्वारा रचित नाना प्रकार के रूप की विवेचना है। स्टडीज इन संस्कृत एंड इंडियन कल्चर इन थाइलैंड (1982) तथा थाईदेश के ब्राह्मण (1982) से थाईलैंड के सामाजिक तथा सांस्कृतिक ताने बाने पर भारतीय सभ्यता और उसकी अक्षय निधि संस्कृत भाषा के दूरगामी प्रभाव की मनोरम झलक देखने को मिलती है। प्रो. शास्त्री की दुरूह विषयों के अनुसंधानों की श्रृंखला में संस्कृत राइटिंग्स ऑफ यूरोपियन स्कॉलर्स (2012) का गौरवमय स्थान है। संस्कृत स्टडीज : न्यू पर्सपेक्टिव्स (2008) में संगृहित विभिन्न संगोष्ठियों में दिए गए मुख्य भाषण अनेक जटिल साहित्यिक समस्याओं को नई दृष्टि से आँकने को प्रेरित करते हैं ।

प्रो. शास्त्री जितने उत्कृष्ट मौलिक लेखक हैं, उतने ही दक्ष अनुवादक भी हैं। उन्होंने अनेक महत्त्वपूर्ण तथा जटिल ग्रंथों का हिंदी, अंग्रेज़ी अथवा संस्कृत में व्याकरण की आधिकारिता तथा कवि की सहजता से सटीक रूपांतर किया है। अपने महाकाव्य बोधिसत्वचरितम्, सुभाषितसाहस्री तथा चाणक्यनीति के हिंदी तथा/अथवा अंग्रेज़ी में अनुवाद के अतिरिक्त डॉ. शास्त्री ने नित्यानंद शास्त्री के दुस्साध्य महाचित्रकाव्य, श्रीरामचरिताब्धिरत्नम् का अंग्रेज़ी में तथा प्रो. ए. ए. मैक्डॉनल के जटिल ग्रंथ ए वैदिक ग्रामर फ़ार स्टुडेंट्स (1971, 1987) का हिंदी में आश्चर्यजनक अन्तर्दृष्टि तथा कौशल से भाषान्तर किया है, यद्यपि उनकी दुर्भेद्य जटिलताओं के कारण उनका सुसंबद्ध अनुवाद करना लगभग असंभव है।

प्रो. सत्यव्रत शास्त्री पर पुरस्कारों तथा सम्मानों की अविराम वृष्टि हुई। है। अब तक उन्हें गौरवमय पद्मभूषण समेत पचासी (85) राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित होने वाले वे अद्यावधि एकमात्र संस्कृत विद्वान् हैं। शास्त्री जी के वैदुष्य से आह्लादित होकर इटली के टोरीनो विश्वविद्यालय ने, सद्भाव के अप्रतिम प्रतीक के रूप में उन्हें मानद डॉक्टरेट से विभूषित किया है, और मैडिटरेनियन अध्ययन अकादमी, एग्रिगेण्टो ने उन्हें आजीवन सदस्यता प्रदान कर सत्कृत किया है। अनेक भारतीय विश्वविद्यालयों ने डॉ. शास्त्री को स्पर्धापूर्वक महामहोपाध्याय, विद्यावाचस्पति, विद्यामार्तण्ड, वाग्भूषण आदि महिमाशाली विरुदों से अलंकृत किया है, पाँच देशी-विदेशी विश्वविद्यालयों ने आपको मानद पी.एच.डी./डी.लिट् आदि उपाधियाँ प्रदान की हैं, किंतु बाज़ी शिल्पाकर विश्वविद्यालय, बैंकाक के हाथ रही जिसने प्रो. शास्त्री को 'संस्कृत जगत् की जीवित किंवदंती' कहकर अभूतपूर्व गौरव से मंडित किया है।

ऐसे प्रतिभाशाली कवि तथा बहुमुखी विद्वान् को महत्तर सदस्यता प्रदान कर साहित्य अकादेमी कृतकृत्य है।

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