प्रारब्ध : राजगोपाल

Prarabdha : Rajagopal

प्रारब्ध
राजगोपाल

रायपुर, छतीसगढ़
१९७८-७९

एक पग पीछे ...

शून्य अनंत है...जन्म से पहले और अवसान के बाद. इस शून्य से जुड़ा है समय... और समय से जुड़ा है प्रारब्ध. प्रारब्ध का अर्थ होता है भाग्य. शून्य, समय, और प्रारब्ध तीनों दिखायी नहीं देते हैं. इन्हे केवल आभास किया जा सकता है. यह सभी तत्व सृष्टि मे अदृश्य हैं किन्तु बहुत प्रबल हैं.

आइये अब एक पग आगे बढ़ते हैं और इस रचना मे श्याम और शशि के प्रारब्ध का विमोचन करते हैं. यह काव्य-कथा एक ऐसे व्यक्ति की जीवन यात्रा है जो एकाकी ही नव-रसों का आभास करता हुआ ढूँढता रहा जन-समाज मे अपनी पहचान. इस यात्रा के सात सर्ग हैं- जन्म, कर्म, परिचय, समीपता, प्रकृति, साहचर्य, और परिणय. प्रयाण के इन पड़ावों मे थोड़ी दार्शनिकता है, कटाक्ष है, सुख-दुख का अनुभव है, और सात्विक प्रणय है. इस लंबे खंड-काव्य मे ५०५ पद हैं जो आपस मे इतनी सहजता से गुंथे हुये हैं कि आपको इस रचना का एक-एक पात्र सजीव लगेगा. यह रचना १९७८-७९ मे लिखी गयी थी, जिसका जिसका डिजिटैजेशन २०२४ मे हुआ है. आशा है आप इस कृति के प्रसंगों मे अपने आस-पास का परिवेश देख सकेंगे और उसे अनुभव कर पायेंगे. इस प्रयास के साथ ...

सादर.
राजगोपाल
मेक्सिको सिटी, जुलाई २०२४


सर्ग-१ : जन्म

तिमिर उठा जब जग शांत हुआ यह सिसकते श्रृंगार का शरण है इस पीड़ा में पग उठते नहीं हैं करुणा का यह थका चरण है ।।१।। स्थितियों का कैसा दुस्साहस था मैं नभ के नीचे सृजित हुआ, इंद्र, इंदु, मार्तंड सभी ने सींचा तृणों में एक अनाथ अंकुर पल्लवित हुआ ।।२।। वह क्या जाने शैशव क्या होता है कैसा आनंद श्वेत-सुधा पीने का कितना होता है पीड़ा का गर्त और कैसा मर्म क्षुब्ध-क्षुधा जीने का ।।३।। अर्ध-दिवस भर यहीं पड़ा रहा मुरझाया सा यह शिशु अंकुर किसी की आहट सुन सिकुड़ जाता था आत्म-क्षोभ में यह क्षणभंगुर ।।४।। धरा पर पड़ा नभ देखता रहा, सुनता रहा पूजा के बजते शंख मुझ पर से कितनी उड़ीं सरिकायें पर किसी ने नहीं दिए अपने पंख ।।५।। कब तक वसुधा अपना शरण देती सभी की पीड़ा अपनी-अपनी है कल किसी ने धरा से उठा लिया सोचा नहीं, जीवन की पीड़ा कितनी है ।।६।। अब अंबुज अंक ही शयनिका बनी जीवन पर-दया-दृष्टि का ऋणी हुआ आज उसे ‘श्याम’ नाम मिला यह तुषार किसी का मणि हुआ ।।७।। जब जीवन का एक वर्ष हुआ सौम्य शांत पग कुछ चंचल हुए पाँव घर की परिधि में दौड़े तब मेरे चक्षु कुछ चपल हुए ।।८।। मेरे नयनों ने जननी को पहचाना जब मुँह क्षीर सा स्नेह निगल गया तब आनंद में अतीत छिप गया फिर वह टूटा सुमन खिल गया ।।९।। बाल्यकाल की विमुक्त क्रीडा में उषा से निशा तक खेलता रहा कभी अपने आलय से आँगन तक चारु-चन्द्र को पकड़ता दौड़ता रहा ।।१०।। श्वास-श्वास में सुमन-स्नेह था सज-संवरने की नयी आशा थी, अनायास टिके किसी के बाहुबल पर यह शैशव की परिभाषा थी ।।११।। उँगलियों में श्वेत दंडिका अटक गयी फिर धरा पर श्री लिख गया अभय यह वाग्देवी से परिचय पर्व था कहने तमसो मा ज्योतिर्गमय ।।१२।। अभ्यासों में बंध गयी फिर लेखनी, अंगुलियाँ अक्षरों को अंकित करती रहीं जब कभी मन मुड जाता कहीं बड़ी उँगलियों से आँखें डरती रहीं ।।१३।। अब वही लेखनी मित्र हो गयी अकेला मैं उसके घर घूम आया दूसरी सुबह मेरे सहगामी मिल गये इसी तरह नित सूरज पूरब से पश्चिम आया ।।१४।। कभी अधर हिलते कभी पलक झुकते कारण-अकारण कभी नयन नमते पीड़ा-पुष्प की पंखुड़ियों में श्रृंगार होता देवी के आँगन में सब हँसते रहते ।।१५।। भुजाओं पर भार जब बहुत होता अपने दुःख को तब बांट लेते जीवन को जीवन का समर्थन मिलता फिर क्यों न हम सब सुखी होते ।।१६।। नित्य खेलते थे चक्रव्यूह तोडना वह जीवन कितना उछ्रंखल था अपनों में विजय-पराजय होती पर भी मन में कितना कोलाहल था ।।१७।। कितने दीपदान किये शारदा को सुर-असुर सभी के पहने वेश श्रृंगार, करुणा, हास्य, वीभत्स सभी में अभिनय के कुछ छोड़ गए अवशेष ।।१८।। जब स्वाध्याय में तल्लीन हो गये जिव्हा ने छोड़ दिया वाद-प्रतिवाद तपस्या में सारा सुख छूट गया विश्वास था, मिलेगा प्यारा आशीर्वाद ।।१९।। पीड़ा में जीवन को बल मिलता है यह विवेक विद्द्या का पुष्कर है जिसकी किरणों में श्रम की तपन है उसका ही क्षितिज में चमकता दिनकर है ।।२०।। जीवन का प्रथम स्तर पूर्ण हुआ अब नये रसों मे घुलना था प्रज्ञा को बाधाओं के बंधन से मुक्त कर जीवन मे लाना था ।।२१।। देखो मन की चंचलता मचल उठी झूलते हुये कर कटि पकड़ लिये चपल चक्षुओं ने झुक कर देखा इस नये प्रयाण ने पग जकड़ लिये ।।२२।। स्वविवेक आगे बढ़ना आत्मबोध है दुख की उदधि मे मिला सुख परिष्कृत है अब क्यों डरना है पीड़ा से हर शंखों का जल देव-तीर्थ है ।।२३।। काल छीन नये पृष्ठों मे बंध गयी सोची हुई कर्मठता की नयी कल्पना फिर साध्यों के साथ-साथ जीवन मे भेदने लगी सुपथ क्षुधा की संवेदना ।।२४।। जो पथ से परिवर्तित कर दे वह क्षुधा कितनी भयानक है असहाय अश्रु-अंक मे पड़ा हुआ यह जीवन एक विवश कथानक है ।।२५।। विचार छिप जाते थे अचेतन मे सब शून्य था मस्तिष्क के अंदर कदाचित हर भूखा मानव मृग है केवल देह-वर्ण का अंतर है ।।२६।। कुछ जीने-करने की अभिलाषा थी कोटि योनियों बाद जन्म लिया है जब सृष्टि ने देह मे प्राण फूंका है जीने के लिये कहीं कुछ तो दिया है ।।२७।। आनंद-अंक मे जन्म लिया है किसने कहा यह जीवन अबला है मन की राह पकड़ चला चल श्रम से ही बांझ भाग्य भी फला है ।।२८।। मिल गया आज जीने का अविलंब अब अस्तित्व-बोध के लिये आधार चाहिये बिखरा जीवन रोये भी कैसे जगती मे दुख का भी अधिकार चाहिये ।।२९।। जीने के लिये जब पीठ पर दिन लादा सुबह अनमना उठा, साँझ थका सोया बिक गया पेट किसी सड़क पर इस शून्य मे मैंने क्या पाया-क्या खोया ।।३०।। प्रभात का प्रकाश निमंत्रण दे जाता श्रम, श्रृंगार समझ सँवर जाता था दिन भर का किया हुआ अर्जन संध्या भूख पर बिखर जाता था ।।३१।। दिनचर्या घूमने लगी काल-चक्र पर बतलाओ और कितना तन जल सकता है यदि यही जीवन जगती है तो कहीं छिपा ठौर भी मिल सकता है ।।३२।। जब सारा जग सो जाता था अंधेरे मैं कुछ सोचा करता था मध्यम प्रकाश उनींदी आँखों मे झाँकता ऐसे ही जीने की विधा सीख जाता था ।।३३।। जैसा भी हो आगे कुछ बनना था यही सृष्टि है और निशा-उषा जीना था अपनी अस्मिता से तो कुछ पी ली पीड़ा की पीयूषा ।।३४।। काल तोड़ तप किया ज्ञान-शक्ति का फिर खिला छिपा सुमन सा मन वरदान मिला और जीवन कर्मसात हुआ कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।।३५।। जीवन का एक अंश सफल हुआ यह श्रम-विद्या का बंधन था दृढ़ निश्चय से फल पाने का जीवन मे इसका कटु स्पंदन था ।।३६।। और भी विद्यार्जन की आशा थी आजीवन और-और का अंत नहीं है अब समझ सका हूँ यह कैसी तृष्णा है जिस का कोई नियत पंथ नहीं है ।।३७।। दिन पीठ पर और रात गगन तले यहाँ कभी कांटे, कभी चुभते कुमुद हैं रात है अपनी, दिन तपता है चारों ओर अब ज्येष्ठ-आषाढ़ क्या, सभी शरद हैं ।।३८।। तन-मन की पीड़ा लिये न रुका समय जग-झाँकता समझा जीवन का सार जब भी अवसर मिलता पाँव पसार कुछ पढ़ता और संवार लेता आकार ।।३९।। उम्र का भी विचित्र विभाजन है शैशव, किशोर, और उन्मत्त यौवन कभी जननी का अंक, कभी वसुधा का वक्ष कभी युग बीता देखते दर्पण ।।४०।। जब कहीं दूर प्रणय दिखा चक्षु चंचल हुये, अधर कंपित हुये पग दौड़ने लगे, देखने धरा पर स्वर्ग केवल कल्पना मे ही तन-मन स्नेह-पूरित हुये ।।४१।। कैसी होती है शशि की शीतलता कैसा होता है सुमन का मन जीवन मे यह कैसा अनुभव था हुआ जब सौन्दर्य-स्नेह का स्पंदन ।।४२।। समय निकाल कल्पनाओं मे खो जाता आभास कर लेता क्षितिज पर संगिनी का कभी गीली मिट्टी मे कोई चित्र बनाता जब देखता दिवा स्वप्न अनुबंधिनी का ।।४३।। पढ़ते-पढ़ते लिख जाता था कभी मणि-मुक्ता सा श्रृंगार गीत किसी उपवन के आम्र-शरण मे बैठा कुछ गाता-दोहराता रहता अनदेखा प्रीत ।।४४।। श्रम स्नेह-स्नेह मे सफल हुआ, किन्तु क्या यह जीवन पीड़ा से मुक्त हुआ श्रम, श्रृंगार, स्नेह, सभी साथ थे फिर भी भाग्य नहीं सशक्त हुआ ।।४५।। मैं अपना ही जीवित शव था अशांत देह नहीं सुख पाता है यह जीवन पेड़ पर टंगा वेताल है पीठ पर लेते ही निर्लज्ज लौट जाता है ।।४६।। उड़ता सुख फिर गिरा गुरुत्व पर जब देह तपा अंबिका का सृष्टि ही जननी है, सृष्टि ही काल है कैसे मैं प्राण पकड़ता आराधिका का ।।४७।। निशांत मे खो गयी ममता की मणि टूट गया अब जीवन का आधार जिस के अंक मे अब तक पला वह छोड़ गयी अपार दुखों का भार ।।४८।। विक्षिप्त सा दौड़ता रहा दिशाहीन किन्तु मिली नहीं जो छूट गयी थी भीड़ के बीच विषाद कलरव मे फिर जुड़ी नहीं जो टूट गयी थी ।।४९।। चतुर्भुजाओं पर निकला महाप्रयाण दिन दोपहरी ही ढला जा रहा था नंगे पग अबोध ही बढ़ते जा रहे थे अंदर निशब्द उर जला जा रहा था ।।५०।। अनल का अंक सजा हुआ था वही जो जीवन-मरण का साक्षी है जब अंत होना है सभी का यह क्षुद्र देह क्यों आकांक्षी है ।।५१।। मैंने हाथों से चिता को अग्नि दिया तब सोचा यह जीवन क्यों व्यर्थ मिला जब निर्वासित था जीने का अधिकार मिला आज उसे जगती मे मरने का अर्थ मिला ।।५२।। लौटने कदम उठते नहीं थे सच, जो चला गया वह धन्य है यह शेष देह-प्राण कहाँ रहे दिखता जग कितना अद्भुत अरण्य है ।।५३।। पग बाजार से दूर निकाल आये विश्व के बीच मैं अकेला था कुछ जिया था जीवन, कुछ जीना था , जो देखा वह मर्म का मेला था ।।५४।। नित सुबह का अकेलापन तक्षक सा मन डस जाता था दोपहरी तपती थी घर-बाहर और साँझ मुझे देख हँस जाता था ।।५५।। एक सुबह उदास तरंगिणी तट पर बीती अर्थहीन देखता रहा जल का बहाव देर तक भटका हुआ खड़ा रहा निस्तब्ध बटोरता बीते पलों के भाव ।।५६।। साँझ-सवेरे ऐसे ही काल समायी यह समय था मन मंथन का स्मृतियाँ रौंद गयी जीवन वह तोड़ गयी धागा बंधन का ।।५७।। कल संभला, आज कुछ आत्मबल मिला जो इतिहास बन गया वह अभिनय था उस संगिनी को छोडना अधर्म है जिससे हुआ पीड़ा का परिणय था ।।५८।। मैं देबारा रस लेने चला था जीवन मे बिखरे हुये फूलों का अब कर्म-कांड मे पुनः बंधा करने प्रायश्चित अपने भूलों का ।।५९।। जब उषा उठी श्रम सँवर गया थका सा होता दिवस का समापन नित निशा समेत लेती दिनचर्या लौट कर छा जाता वही अकेलापन ।।६०।।

सर्ग-२ : कर्म

धीरे-धीरे ऐसे ही बीमार साँसे कुछ कर सकने के योग्य हुयी अपने हाथों अपनी सेवा करने तन-मन से आरोग्य हुयी ।।६१।। सोचा अब नव जीवन जीना है साहस का श्रेय तो विपदायें सहना है पशु तो पीड़ा मे ही जीता है किन्तु विवेक है तो किस से डरना है ।।६२।। यह आत्मबोध का निर्णय था जो बिखेर गया उल्लास उमंग सुख पाना था अंजलि मे प्रेम मे पिरोना था अंग-अंग ।।६३।। नव जीवन को नया परिवेश चाहिये था उदर-भरण का नया उपदान नव पथ से मंगल आलय जाना था ज्योति-पर्व मानना था कर के श्रमदान ।।६४।। मैं नव-रथ का सारथी बना उषा को साथ लिये दौड़ पड़े अश्व नव जीवन का लहराया ध्वज कनखियों से झाँकता रह गया विश्व ।।६५।। जीवन का अर्थ समझना था अब इस हेतु तन-मन से प्रयास किया वही पीड़ा आज प्रबुद्ध हुयी जिसका जीवन मे मृदु आभास हुआ ।।६६।। पग भटके फिर स्थिर खड़े हुये मैं पाठशाला मे शिक्षक बना कैसा पुण्य मिला जीवन मे जब कर सका देवी की अभ्यर्थना ।।६७।। पहले मैं भी उछ्रंखल था आज मेरे भी कई शिष्य बने मैं नित्य वचन सुनता था कभी यह उनके भविष्य बने ।।६८।। विषय बदलते, रुचि अनुभव बदलते घूमती जाती समय-सारिणी भाषा, विज्ञान, अंक, सभी मे बहती जाती वह सरस सुभाषिणी ।।६९।। कभी आनद लेता अंताक्षरी का कभी घेर लेता उन्हे प्रश्न-परिधि मे कभी बीत जाता दिन कथा-कौमुदी मे डूबता समय कभी ज्ञान की क्षीर-निधि मे ।।७०।। शरद की सुबह जब ठिठुरते रहते गिन-गिन कर तन-तोड़ व्यायाम कराता फिर आँगन मे वृहद वृत्त बनाये कैसी होती है सुबह-शाम सुनाता ।।७१।। कितना रस होता है उन पुष्पों मे जो आतुर होते हैं खिल जाने को कभी भ्रमरों का, कभी हवा का स्पर्श कितना उन्मत्त करता है बहल जाने को ।।७२।। कभी शिष्यों पर छाप छोड़ जाती उँगलियाँ गाल पर पाँच निशान पथ पर लौट आता था बहका ज्ञान और स्मरण दिला जाता भूला स्वाभिमान ।।७३।। कभी राह पर, कभी घर पर होता रहता समकालिक प्रवचन थकते नहीं थे श्रवण रात तक कंठ वाचाल होता, खुले रहते सुलोचन ।।७४।। तर्जनी पकड़ कभी साथ खेलता सिखाता उन्हे कैसे बनना है एकनिष्ठ श्रेष्ठ शिष्य का धर्म यही है पकड़ गुरु-तर्जनी पकड़ लेना प्रकोष्ठ ।।७५।। प्रायः अवकाश मे चले जाते तट पर बनाने अपनी पर्ण-कुटी सारा दिन खाते-खेलते देखते धरा पर स्वर्ग फिर भी तृप्त नहीं होते यह बाल हठी ।।७६।। सच कितना सुख मिलता है जब उर उल्लासित हुआ करता है जीवन का श्रिंग तब दिखता है जब उसमे आदर्श निखरता है ।।७७।। प्रेम की निस्वार्थ उपासना ही परिमल प्रसाद है पुण्य-पर्व का कुंठित अकेला जीना निरर्थक है जब तक हुआ नहीं स्वर-सर्व का ।।७८।। गुरुवृत्ति मे ही बीता अर्ध-दशक यह पड़ाव अति सौम्य-शांत था सुख पाने का अब यही एक प्रशांत, प्रबुद्ध, प्रगल्भ प्रांत था ।।७९।। सप्त-शतक जन परिधि मे बसा यह सुवासित सुमन का वन-ग्राम था तृण-वर्ण वसुधा के वक्ष पर यह बहती तरंगिणी का धाम था ।।८०।। स्वाभिमानी शिखरों के ऊपर अनंत व्योम के नीचे मुक्त यह ऐसा ही कार्य स्थल था जो रहा मोह-माया से विरक्त ।।८१।। नित नयी उषा उमंग लाती घर-आँगन मे सँवरता नित्य-कर्म शांत होती दोपहरी, संध्या स्नेह जगाती चौपालों पर होती रातें सुनते नित देव-धर्म ।।८२।। भोर हुये गाँव निखर जाता शरद के कोहरे मे नव-वधु सा रवि बटोर लेता था उन्हे फिर हरित तृणो से मधुर मधु सा ।।८३।। सुबह आँगन से आलय तक खंड-खंड धुल जाता था शुचि-शुभ्र होकर आराधना मे भोगा दुख घुल जाता था ।।८४।। साँझ को घरों से उठता धुआँ और विहंगो का कलरव मोहक लगता था गोधूलि वेला मे ग्राम्य-वधुओं का मुक्त-विहार आकर्षक लगता था ।।८५।। निर्जन मे पशुओं का पड़ाव वृक्ष तले बजती बंसी का स्वर जगती से परे जीने का सुख देती तोड़ कर छिपी हुई पीड़ा का डर ।।८६।। चारु-चंद्र की चंचल किरणों मे कभी तरंगिनी तट उत्सव होता सभी स्नेह से साथ-साथ आते जहां सुख-दुख का अनुभव होता ।।८७।। जब खेतों की अंजलि उदार होती जन-मानस मे छा जाता गर्व सबकी जिव्हा मे होता मीठा रस होता घर-घर मे प्रकाश पर्व ।।८८।। कितना रस होता है स्नेह-शांति के अनुबंधन मे यही स्वर्ग है धरा पर जहां सुख है सृष्टि के कण-कण मे ।।८९।। यहाँ बिखरे सतरंगी सौन्दर्य मे जीवन का हर आयाम स्नेहमय था पीड़ा के पथ से हट कर यह विद्यालय ही मेरा आलय था ।।९०।। पथ पर ही छोड़ आया था आँखों मे जमे अतीत के दृश्य नव जीवन के नव निकेतन मे मैं था, आचार्य थे, और मेरे शिष्य ।।९१।। सुबह बीत जाती कल्पनाओं मे यौवन छा जाता शिष्यों के मध्य आचार्य के साथ छा जाती संध्या तिमिर मे होता स्वाध्याय सानिध्य ।।९२।। आचार्य का गौर-वर्ण गरिमामय थका देह पार कर चुका था कई दशक अनुभव मे डूबा जीवन का पल-पल प्रदीप्त हुआ था पीड़ा परख-परख ।।९३।। मेरा साहस स्तब्ध रह गया देख कर पथ उनके प्रयाण का कितना दूभर होता है जीवन मे देखना खिलखिलाते प्राण का ।।९४।। अकेले छड़ी लिए चलते थे मापते हुये स्वधर्म का गर्त सच एक-दूसरे के मन को समझना ही होता है जगती मे जीने का अर्थ ।।९५।। यह कर्मों का बंधन था जहां निष्ठा का सत्व था करुणा, वात्सल्य, और स्नेह मे छिपा उनका उर उलास का तत्व था ।।९६।। अर्चना-आराधना मे आकार लिये वे प्रारूप थे कृष्ण-केशव के मर्म-मंथन से मिली मणि-मूर्ति साक्षात होती है सृजन-देव के ।।९७।। अनन्य सुख मिलता था सेवा मे श्रम ही उनके जीवन का परिष्कार था नम्र भाव से सभी के उर मे बस जाना ही उनके जीवन का संस्कार था ।।९८।। छोटे-बड़े सभी के अधरों पर होते अतुलनीय आनंदमूर्ति आचार्य कितना दर्शन था उनके ज्ञान मे अपार स्नेहमय होता उनका साहचर्य ।।९९।। यह मेरा सौभाग्य था मैं शिष्य बना प्रखर बुद्धि का उस जलधि मे मैं भी डूबा ढूँढने मुक्ता स्वयं सिद्धि का ।।१००।।

सर्ग-३ : परिचय

छोटा सा घर था ग्राम्य परिधि मे एक शयनिका थी पुष्पों का आँगन था बरामदा-दीवारें सभी मिट्टी की थीं वहाँ केवल प्रकृति का दर्शन था ।।१०१।। हरित-तृणों के कोमल स्पर्श पर छांव थी छत पर लताओं की सृष्टि ने सजाया था वह निवास जैसे छवि हो पुराण कथाओं की ।।१०२।। जब वसंत मे वन पल्लवित होता वह घर सुरलोक सा सुंदर होता प्रखर ग्रीष्म मे कठोर वज्र होता श्रावण मे सरोज, और शरद मे मणिधर होता ।।१०३।। कभी वह माँ शारदा का तीर्थ होता कभी होता स्नेह-सगाई का कल्पना केंद्र वहीं पर समा जाती थी त्रिधा जहां कभी भास्कर, कभी उतरता सुरेन्द्र ।।१०४।। इतने प्रशांत आलय मे दो ही थे आचार्य और उनकी सुमुखी आत्मजा सागर सा स्नेह था उनके उरों मे वही थी सुमन-सखा और अंबुजा ।।१०५।। वन-पुष्पों मे वह पारिजात सी शशि ग्राम्य वनिताओं मे परिमल प्राज्ञी थी नख से शिख तक सुंदरता की वह प्रणय भरी साम्राज्ञी थी ।।१०६।। वह तड़ित सी तेजस्विनी सौन्दर्य की इंदुमुखी इंद्राणी थी स्वप्न-सरोवर की कुमुद कमल नयना मृदु अधरों की सुमधुर भाषिणी थी ।।१०७।। कृष्ण-केशों की छांव मे खचित थे कोमल कादम्बरी कपोल गले मे पड़े थे कुछ स्वर्ण- हार स्वर थे जैसे वसंती कोकिला के बोल ।।१०८।। अधर पद्म से पुलकित होते कर थे कुटज-कचनार से स्नेहिल वह तुषार से ढँकी पारिजात थी जो प्रणय से हुयी थी बोझिल ।।१०९।। कभी वह चाँदनी सी शीतल कभी सांध्य समीर सी चंचला श्रावण की प्रणय झड़ी सी मादक वह थी वसुधा की स्नेहिल वत्सला ।।११०।। वह किसी की मित्र, किसी की भगिनी कहीं अग्रजा, कहीं अनुजा थी कभी शिष्या, पुत्री, और पौत्री थी किसी की प्रणति, किसी की भुजा थी ।।१११।। शैशव से यौवन तक जीवन मे वह सुखों की आकांक्षिणी थी उपवन मे खिली सुंदर सुमन सी सदा मधु भरी उन्मत्त विनोदिनी थी ।।११२।। कोहरे मे ही शुचि-शुभ्र हुयी वह देवालय मे करती थी देवस्तुति फिर सूर्यमुखी दर्पण देख सज जाती प्रणय भरी मधुमति ।।११३।। गृह-कार्य से निवृत्त हुयी वह जुट जाती सेवा मे तन-मन से वही तो उसके सब कुछ थे उन्हे छोड़ लगते सब निर्जन थे ।।११४।। नित्य जब आचार्य पाठशाला जाते वह कभी साहित्य साथ हो जाती दोपहरी डूब जाती वनिताओं संग संध्या फिर आचार्य साथ हो जाती ।।११५।। कितना सुख था उसके जीवन मे मैं सोच कर ही घबराता था उनसे मन लगाने का प्रश्न ही नहीं था क्योंकि इसका उत्तर नहीं मिल पाता था ।।११६।। कैसा होता है माप-दंड सुख का मैं अनभिज्ञ उसे कैसे माप सकता था मेरा सुख तो एक शलभ पुंज था जो अँधियारे ही मर जाता था ।।११७।। जो स्वयं से अपरिचित था जिसका अपना कोई वंश नहीं था उस शिलाखंड पर सुमन कैसे खिलता जिसमे स्नेह का अंश नहीं था ।।११८।। किसी पर आरोप-प्रत्यारोप कैसा जीवन की अपनी अलग परिधि है कोई किनारा ढूंढ लेता, कुछ डूब जाते हैं यह तो नयन-नीर की एक जलधि है ।।११९।। यह जीवन पीड़ा मे ही कृष्ण हुआ जो देख मयंक भी छिप जाता था कहाँ ढूँढता जगती मे स्नेह-सगाई वह तो सुंदरता देख छिप जाता था ।।१२०।। श्रम के इतने कम अर्जन मे कैसे सुखी होगा कोई सह-जीवन फिर वह अशक्त क्यों आकांक्षी हो पाने प्रणय के अगणित मधु-कण ।।१२१।। संतोष कर लिया था सीमा मे ही सोचा यत्न करना अब व्यर्थ है जब जीवन स्वयं से निराश हुआ तब प्रणय मांगना भी अनर्थ है ।।१२२।। बात बीत गयी, अब उड़ चला समय स्वधाय मे या शिष्यों संग रात होती संध्या जब आचार्य के घर होती कभी शशि भी वहाँ साथ होती ।।१२३।। ऐसे ही दिनचर्या सरकती जाती केवल विचार-विषय बदलते जाते कभी घर की, कभी जग की बातें ज्ञान-व्यंग्य मे पिरोते जाते ।।१२४।। कभी धर्मग्रंथों के पृष्ठों मे खो जाते कभी होता तर्क-वितर्क का पुष्प-पात कभी रामायण की रजनी होती उषा होती जब शशि गाती सुप्रभात ।।१२५।। शशि के कंठ मे कितना प्रणय होता जब वह गाती छलकते प्रेम का पार्श्व-गीत उतर आती सरस्वती स्वर्ग से बिखेरने सुरों मे नवरसों का प्रीत ।।१२६।। मन्मथ का रथ जिसके सुरों से होता उन्मत्त जिसकी सुंदरता देख गगन भी हो जाता वशी सूर्य डूबने से पहले जिसे झाँकता कनखियों से वह थी धरा पर सुंदर शुभ्र श्वेत शशि ।।१२७।। वसंत की कोकिला भी चुप हो जाती जब बौरों से स्वर टकराता था तड़ित-प्रभंजन सब शांत होता अब शशि का गान स्वरित होता था ।।१२८।। करुणा का कुसुम खिल जाता था प्रणय-पारिजात बिखर जाता था वह जन-जन का मन मथ जाता था सारा जग शशिमय संवर जाता था ।।१२९।। सच कहूँ, उसके अधरों को छू कर निकला स्वर मेरे जीवन का गीत था जो भी दुख भोगा था मैंने वह मर्म उसके आलाप सा पुनीत था ।।१३०।। जब शशि गाती थी मंच पर सुख व्योम सा अनंत लगता था उसके स्वरों की पृष्ठभूमि मे मृत मंचन भी जीवंत लगता था ।।१३१।। मैंने प्रणय को समीप से देखा था जब मृगतृष्णा का अभिनय था निर्देशन मेरा और संगीत पार्श्व था मेरा यह शशि से पहला परिचय था ।।१३२।। देर रात तक के मंचन मे निस्सार नयनों ने सब कुछ देख लिया पीड़ा मे जीतने अश्रु ढले थे उन्हे सौन्दर्य ने आज सोख लिया ।।१३३।। पटाक्षेप की हर्ष-ध्वनि मे देर रात तक वहाँ न बैठ पाया तन-मन हृदय उद्वेलित सा था मैं दबे पाँव घर लौट आया ।।१३४।। मैं थका सा अनमना सो गया मन के कुछ दबी क्रांति थी आँखों मे प्रेम के वलय बन रहे थे न जाने यह सच्चाई या कोई भ्रांति थी ।।१३५।। जिसने सूर्य का उदय देखा है हिमांशु का मध्य-रात्रि यौवन देखा है शरद, वसंत, और पतझर देखा है सच उसने ही सम्पूर्ण जीवन देखा है ।।१३६।। सुबह की लालिमा मे आँखें खुली मैं सामान्य दिनचर्या मे व्यस्त हो गया चलते-चलते मंचन की प्रसंशा सुनता कर्म, धर्म, और मन से मस्त हो गया ।।१३७।। मन समझ नहीं पाया था कि यह यश-सम्मान किसका है स्वर का है या कर का है मेरा है या यह सारा उसका है ।।१३८।। संतोष मिला सभी दिशाओं से मैं प्रसंशा पथ का पथिक बना अभी तक जो पीड़ा संग जिया आज मधु का रसिक बना ।।१३९।। आज आचार्य के घर आमंत्रण था शायद जीवन मे यह पहला आव्हान था मैं संकोच मे धैर्य से पग बढ़ता गया मेरे जीवन का यह पहला सम्मान था ।।१४०।। दुख-सुख का इतिहास साथ लिये जो विश्व मे अकेला चला था जब ठौर तक आ पहुंचा जिसे जन-जन का समर्थन मिला था ।।१४१।। दुख के झंझावत मे गिरता-उठता जीवन का अंश-अंश आहत था जिसके घाव बरसों से भरे नहीं थे आज उसी का विशेष स्वागत था ।।१४२।। कौन बाँच सका है भाग्य पृथा से झूठ के उजाले मे सच ढल जाता था जिसने भी इन लकीरों मे भविष्य पढ़ा वह मृगतृष्णा सा छल जाता था ।।१४३।। वह कैसे जानता सुख की भाषा जो अब तक पीड़ा मे ही पला था जी रहा था जिसकी सांत्वना मे आज उसका ही द्वार खुला था ।।१४४।। इस अप्रत्याशित सुख मे मैं सिर झुकाये कितने चित्र खींच चुका था जब पथ पर के पलक उठे मैं आचार्य निवास पहुँच चुका था ।।१४५।। सुमधुर सुगंध मे लिपटा हुआ उनका पर्ण-पल्लव से बना आलय था जिसमे विवेक और वाणी का निवास था जहां करुणा मे स्वर और सुख मे लय था ।।१४६।। वहाँ स्मृतियाँ क्षणदा सी कौंध गयी देख कर हवा मे झूलते गेंदे मैं फिर ममता के घर लौट आया जहां सुख मे बनाये थे मैंने घरौंदे ।।१४७।। कितना मृदुल होता है मातृ अंक जहां स्नेह का अनंत स्पर्श होता है इतना कोमल तो शतदल भी नहीं होता है जिस पर आद्या का आसन होता है ।।१४८।। जब मातृ-प्रेम से बांध जाता था तो अनायास कर केशों मे उलझ जाता था फिर कुंतल के सुमन-वृंद से पंखुड़ियाँ तोड़ता ऐसे ही प्रेम का अर्थ समझ जाता ।।१४९।। जब अधर कपोल पर फिसलते थे मन छू जाता था वात्सल्य जब अंग-अंग सँवरता था निखरता जाता था प्रेम का बाहुल्य ।।१५०।। अकस्मात हवा का झोंका आया वहाँ फूलों का गुच्छा तेज हिल गया मेरे पग कुछ और आगे बढ़े मैं भी उन फूलों मे मिल गया ।।१५१।। आँगन मे तृणों पर बैठी शशि ने सांजली सत्कार किया मैं किंकर्तव्य सा पल भर खड़ा रहा फिर उन मृदु शब्दों को मैंने स्वीकार किया ।।१५२।। मैं शशि का अनुगामी बना ऐसे ही छत दीवार झाँकता रहा जहां वह बैठी, पास ही मैं भी बैठा धीरे-धीरे संकोच की गांठें खोलता रहा ।।१५३।। आज इस प्रशांत आलय मे मैं था और साक्षात इन्दु थी आचार्य पयस्विनी तट पर थे यहाँ जो थी वह मेरी प्रेम-बंधु थी ।।१५४।। देर तक नयन शशि-मुख देखते रहे वह श्वेत-श्याम का संगम था सुर-सौंदर्य बांधने को शब्द ही नहीं यहाँ सरस्वती का आव्हान भी कम था ।।१५५।। साँझ ढले दूर पक्षियों का चहकना स्तब्ध उरों को उन्मत्त करता था बंद कमरे मे मूक मन को वह प्रणय प्राण प्रदत्त करता था ।।१५६।। देर तक नयन-अधर सब कुछ शांत थे किन्तु वह शांति भी जीवंत थी बीते दिनों की शांति से हट कर यह शांति अर्थों मे अनंत थी ।।१५७।। ऐसी शांति मे कितना सुख मिलता है जो व्याप्त होती है मुक्त व्योम मे लेकिन सौभाग्य कहाँ छिपा रहता है कर्म मे, मर्म मे, या प्रेम मे ।।१५८।। मैं पुनः रसिक विचारों मे तल्लीन हुआ, कभी मरा हुआ सुख जैसे जीवित हो गया जब शशि कुंड मे जल लिये खड़ी थी मैं उस तीर्थ मे समाहित हो गया ।।१५९।। उस अंबुज अंजलि मे भरा तीर्थ क्या सच ही कोई अमृत था यह किस मंथन का रत्न था छल हो या यथार्थ हो, यह परिष्कृत था ।।१६०।। विचार टूटे, फिर व्यवहार से जुड़े शशि का कंठ अब कुछ कह उठा ‘आप कैसे हैं’ यह सुन कर ही आज मेरा स्नेह सिहर उठा ।।१६१।। मैं कैसा था, आज कैसा हूँ वयस्क हूँ या मन से रोता बच्चा हूँ इसका जीवन मे कोई परिमाण नहीं है जैसा भी हूँ, बस अच्छा हूँ ।।१६२।। ‘आपका निर्देशन अच्छा था’ शशि के अधर कुछ हट गये मृदु शब्दों के उस मिठास मे प्रणय के मेघ बरस कर छंट गये ।।१६३।। ‘इसमे सहयोग आपका था’ मेरा यह प्रत्युत्तर था न जाने यह यश किसका था उसमे और मुझमे कितना अंतर था ।।१६४।। कुछ पल वह स्तब्ध हो गयी लगा आज अकेला मैं संतुष्ट था जिस की बरसों से प्रतीक्षा थी वह प्रणय आज तन-मन से पुष्ट था ।।१६५।। कैसा लगता है जब कोई प्रणय समीप बस जाता है दूर से देख कर पीड़ा को कोई सुंदर सुमन हँस जाता है ।।१६६।। मैं तन्मयता ताड़ता बैठा रहा आभास करता मेरे संकुचित अधर इस यौवन मे भी कितना कंपन था लज्जा से झाँकता रहा वह इधर-उधर ।।१६७।। शशि निस्तब्ध केश कुरेदती रही देखते हुये फूलों का चुंबन बहुरंगी ‘आप बैठिये’ मैं अभी आयी कह कर चाँदनी हुयी श्वेतांगी ।।१६८।। मैं फिर एकांत मे खोया यह मौसम भी उदास था जो देखा मैंने क्या वह स्वप्न था या यह अलौकिक प्रणय का आभास था ।।१६९।। पल मे आहट से शांति भंग हुयी उभरता मृदु भाव अकुलाने लगा धीरे-धीरे आचार्य का आगमन हुआ मन्मथ फिर से प्रेम-पुष्प बरसाने लगा ।।१७०।। अब औपचारिक अनुबंधों मे बंधे उठ कर मैंने किया गुरु सत्कार आगे कुशल-क्षेम से जग तक की बातों मे खो गया वह स्नेह-सरोकार ।।१७१।। समय गुम हुआ जगती की बातों मे कभी हँसते, कभी हो जाते मौन कभी लगते प्रश्नों का हल ढूंढते करते तर्क-वितर्क न जाने कौन-कौन ।।१७२।। कितना पुण्य है आचार्य जी का जिसने सुखदा को जन्म दिया है अपने जीवन के साथ-साथ पर-जीवन भी धन्य किया है ।।१७३।। जब भोज समय का सानिध्य हुआ मैं भी उनका स्वजन बना था प्रणय संग आज पेट भरने के लिये शशि के हाथों भोजन बना था ।।१७४।। सांध्य-वंदना समाप्त कर सभी बैठे पट पर, जहां आचार्य मध्य थे शशि पूछीं ‘कैसा है स्वाद’ अधर कुछ कहते, किन्तु बाध्य थे ।।१७५।। एक-चौथाई शतक वर्षों मे यह जिव्हा हेतु देव-भोज था जिसमे मधु था, अमृत था आज थाल मे खिला सरोज था ।।१७६।। शशि बलपूर्वक परोसती रही किन्तु अन्न-पर्ण पर ध्यान कहां था जब भूख सौंदर्य से भर गया था अन्न के लिये स्थान कहां था ।।१७७।। मैंने कल्पनाओं मे पकवान मिला लिया जिसे खाते-खाते थक गया सबसे अंत मे उठा और आँखें मूँदे दीवार से टिक गया ।।१७८।। मैं धरा पर था या उड़ता गगन मे इसका मुझे किंचित बोध नहीं था आज मैंने प्रेयसी का सुख जान लिया किन्तु लुटा ममता का गोद नहीं था ।।१७९।। मन आज गगन छू रहा था लेकिन भाग्य धरा से नहीं उठा था मैं जिसके गोद मे पला था शायद मेरा यहीं अंश बंटा था ।।१८०।। कभी लगता वात्सल्य मिटा नहीं है वह प्रेम और श्रद्धा का समर्पण है क्या प्रणय उसका प्रतिरूप है? क्या शशि मुख मे उसका दर्शन है ।।१८१।।

सर्ग-४ : समीपता

पता नहीं इतने नक्षत्रों मे उस मणि का अस्तित्व कहां है उस प्रदीप्ति को सादर प्रणति है विश्व मे वह नारीत्व जहां है ।।१८२।। आज फिर अतीत की स्मृतियाँ आँखों को जूठी कर गयी अकस्मात शशि को छूती उँगलियाँ आंसुओं को मीठी कर गयी ।।१८३।। फिर मैं हथेली टेक खड़ा हुआ कुछ देर आचार्य समीप ही विश्राम किया शशि भी पास ही बैठी रही मैंने फिर उस प्रणय को थाम लिया ।।१८४।। कुछ समय तक इधर-उधर की बात हुयी कभी अधर, कभी चक्षु चपल हुये मैं शांत था, थका हुआ था गिने नहीं कितने पल निकल गये ।।१८५।। जब मेरे पलक बोझिल होने लगे अनुमति लेते मन द्रवित हुआ चढ़ती रात अकेले ही घर जाना था सारा प्रणय आँखों से स्त्रावित हुआ ।।१८६।। सबसे मिल कर अनंत आनद मिला लेकिन कहीं टूटा अन्तर्मन था मैं आज भी आकेला ही था यह सारा केवल एक समर्थन था ।।१८७।। रात गहराई, घरों के द्वार बंद हुये किसी छत से रौशनी झाँकती थी कभी दूर कोई पक्षी चहकता था कहीं खिली पारिजात महकती थी ।।१८८।। निर्जन राह पर मैं फिर अकेला वही जीवन साथ लिये चल रहा था न जाने हर नये मोड पर वह इतिहास आज भी क्यों पल रहा था ।।१८९।। मैं तेज कदम रख रहा था अचानक दूर से श्वान भोंकने लगे मैं जब यथार्थ के निकट पहुंचा वे मुझे विचित्र सा घूरने लगे ।।१९०।। घर मे पाँव धो कर मैंने पैर पसारे आँखें बंद कर ली फिर स्मृतियों मे गिरता-उठता साँसों की गति मंद कर ली ।।१९१।। जिसने पीड़ा मे प्रणय ढूंढा है सुप्त शीला मे शिव देखा है उड़ती धूल मे सुमन थामा है उसने ही जीवन का वैभव परखा है ।।१९२।। मैं सोचता रहा जिसने छल मे सत्य पहचाना है विजन शांति मे सौन्दर्य पाया है प्रखर प्रभंजन मे पथ ढूंढा है उसमे ही जीने का शौर्य समाया है ।।१९३।। न जाने रात कब बीत गयी जब आँख खुली मैं वहीं पड़ा था पहली बार जीवन मे नींद इतनी गहराई सुबह सूरज पीठ पर लदने तैयार खड़ा था ।।१९४।। मैं सुख-सरिता के बाढ़ मे मलबे सा अटक गया था चलता जीवन कभी रुकता नहीं है फिर मैं क्यों राह भटक गया था ।।१९५।। जल बहने के लिये कटाव चाहिये दुख झेलने हेतु सामर्थ्य अपार चाहिये उसे अंगीकार करने हृदय चाहिये, किन्तु सुख पाने के लिये केवल अधिकार चाहिये ।।१९६।। मैं दोबारा दिनचर्या मे जुट गया सुबह-दोपहरी कटती शिष्यों के बीच कभी संध्या सड़कों पर होती निशा बिछती नयन-नीर सींच-सींच ।।१९७।। जब मैं जन-जन मे घुलता-मिलता सारा अतीत भूल जाता था खुल कर हँसता-चिल्लाता जगती मे तब जीवन को अनुकूल पाता था ।।१९८।। किन्तु कब तक भीड़ मे मिला रहता दीवारों के बीच कभी तो बंद होना था मैं चाहे कितना भी गतिशील रहूँ प्रेम का उन्माद तो मंद होना था ।।१९९।। जब थका हुआ दिन अनचाहे आँखों के पार उतर जाता था विलक्षण विभावरी के वक्ष पर हर बीता क्षण सँवर जाता था ।।२००।। इसी कालचक्र मे में लुढ़कता जाता जीवन कभी प्रणय-प्रसंग मे, कभी स्मृतियों मे सोचता यदि कोई प्रेयसी होती तो मैं भी घूम आता मादक ऋतुओं मे ।।२०१।। उषा की चढ़ती लालिमा मेरे कर्मों की अन्वेषणा थी रजनी के ललाट पर शीतल इन्दु मेरे प्रणय की सजीव प्रेरणा थी ।।२०२।। ऐसा ही जीवन मे अनमना सा दिन-रात साथ लिये जीता रहा क्या यह जीवन केवल पेट से बंधा है इस प्रश्न का ही उत्तर ढूँढता रहा ।।२०३।। बहुत दिन बीते इस जीवन के यहाँ अनायास समय थक जाता था दिन बीते पर शशि से मिला नहीं न जाने क्या सोच कर यूं ही रुक जाता था ।।२०४।। समय व्यतीत हो जाता आचार्य संग अर्थ-व्यर्थ मे मन बहल जाता था यदि कभी शशि-समीप निमंत्रण मिला, तुच्छ समय सौंदर्य कल्पना मे समय निकल जाता था ।।२०५।। सुबह सरिता तट पर सृष्टि देखता रहता बैठा रेत मे लकीरें खींच लेता था संध्या पेड़ों पर विहंगों का प्रेम देख प्रणय के अंकुर सींच लेता था ।।२०६।। किसी शाम जब मैं भी पथ पर दूर निकल जाता था अकस्मात मैं गोधूलि वेला मे रति-रमणी से मिल लेता था ।।२०७।। एक संध्या शिलाखंड पर शांत बैठा था अनायास शची नयनों मे सँवर गयी अचानक आँखें उँगलियों से बंद हुयी उस की मृदुता तन मे तड़ित सी उतर गयी ।।२०८।। मैंने तत्क्षण उसके कर पकड़ लिये कुछ कोमल कुमुद सा प्रतीत हुआ अभी तक मुझे वह स्वप्न सा ही लगा किन्तु मैंने आज प्रणय का मीत छुआ ।।२०९।। जब खुले धुंधले चक्षु मेरे मैं रक्तहीन खंड-खंड हुआ क्या शशि का हाथ पकड़ अनर्थ हुआ या वह सुप्त प्रणय प्रचंड हुआ ।।२१०।। मैं निःशब्द, निस्सार खड़ा रहा क्या अब तक हम धरा पर थे? इन हथेलियों मे जो गुंथे थे वे श्वेतांगी शशि के कर थे ।।२११।। नयन मुख की ज्योति देखते रहे अंग नख से शिख तक कांपते रहे यह जीवन आज अविश्वसनीय था किन्तु शशि के अधर हँसते रहे ।।२१२।। यह मन की कैसी क्रांति थी न जाने हम मे कैसी उमंग थी यह अर्थ है या अनर्थ है आज जीवन नयी दिशा के संग थी ।।२१३।। शशि मे कितनी उष्णता थी जो जग-समाज झुलसा गयी ऐसे पुरुष से प्रेम कर के आज वह स्वतंत्र हुलसा गयी ।।२१४।। अंधेरा धीरे-धीरे घना होता गया वृक्षों पर विहग-वृंद शांत था हल्की उष्णता लिये बह रही थी हवा इस एकांत मे यह मन बहुत आक्रांत था ।।२१५।। एकाएक अरण्य शांति मे आवाज़ आयी ऐसे लगा जो रोता है वह शिशु होता है हँसता है वह प्रणय हुआ करता है किन्तु जो अकेला जीता है पशु होता है ।।२१६।। मेरे अधर निस्तब्ध निरुत्तर थे क्या प्रेम-प्रणय ही जीवन का दर्शन है यह मेरी कल्पना है या यथार्थ है या जगती मे यह केवल मंचन है ।।२१७।। शशि धीरे-धीरे चलने लगी मैं भी हिमखंड सा सरकने लगा क्या हर सुमन मे मधु होता है? इसे उस प्रणय मे परखने लगा ।।२१८।। दोनों हथेलियाँ बंधी हुई थी द्रवित हुआ था उर का कण-कण प्रेम के प्रगल्भ प्रांत मे केवल स्वरित हो रही थी एक धड़कन ।।२१९।। कुछ दूर चलने पर राह मे शशि का कंठ फिर ध्वनित हुआ मैं तो कंठ हीन श्रोता था न जाने क्यों यह प्रणय इतना त्वरित हुआ ।।२२०।। यहाँ-वहाँ सृष्टि मे फैला प्रेम है हर प्राण मे, मुझ मे और तुम मे है यह रक्त है बहता जीवन मे क्यों इसे हम बहने से थामे हैं? ।।२२१।। जिसने प्रणय ढूंढ लिया उसका ही जीवन सार्थक बना जिसमे पीड़ा सहने की क्षमता है वही जगती मे प्रेम-प्रवर्तक बना ।।२२२।। सृष्टि मे जीव परस्पर आश्रित हैं जीवन मे स्नेह का समर्पण चाहिये जैसे मयंक को रजनी का, वैसे ही जीवन का जीवन को समर्थन चाहिये ।।२२३।। जो जीवन मे अनजान बना रहता है उस पर दीमकें बीमठ उठा लेती हैं फिर किसी भुजंग के बाहों मे पिस कर वह विष नाम तक मिटा देती है ।।२२४।। हम दोनों मे कला छिपी है क्या हम इसका स्वर्गवास चाहेंगे? या कला का समर्थक ढूंढ उसका उर मे निवास चाहेंगे ।।२२५।। शशि कहती रही, उधर चौराहा आ गया अब उसके अधर कुछ हट गये स्नेह समर्थन का अर्थ समझा कर हम दोनों के राह आगे बंट गये ।।२२६।। रक्त जम गया था उँगलियों मे दब कर उन मृदु फलकों मे वह आभास अंग-अंग मे अंतरंग हुआ बंद हुआ फिर मोती सा पलकों मे ।।२२७।। धीरे-धीरे शशि अदृश्य हो गयी मैं थका हुआ अपने घर लौट आया आज मौन ही जीवन चूर हुआ सारी रात न सो पाया न ही बैठ पाया ।।२२८।। आज शाम का यह अनुभव क्या सच कला का बोध था? यह समर्थन क्या मान्य होगा? या यह केवल प्रणय पर शोध था ।।२२९।। मैं नित्य सुबह वह हथेली देखता जो उस संध्या के मौन मे मूर्छित था मिला नहीं था उन मूक प्रश्नों का उत्तर जो अब तक हम दोनों तक ही चर्चित था ।।२३०।। जीवन नियम से चल रहा था अब मेरी परिधि भी खिंच चुकी थी पाठशाला से घर तक की यात्रा प्रणय द्वार तक पहुँच चुकी थी ।।२३१।। कभी सुबह उठ कर सौंदर्य देखने निकल जाता था वनफूलों के महकती बयार के संग सुमन सी शशि से मिल आता था ।।२३२।। कभी सांध्य चंचला के साथ पथ पर अकेला चला जाता था कहीं दूर जब शशि मिल जाती उसे साथ लिये लौट आता था ।।२३३।। ऐसे ही जीना और समर्थन पाना मेरे जीवन का अनुक्रम था मैं निर्भय इस पड़ाव तक पहुँच गया संभवतः यही मेरा पराक्रम था ।।२३४।। आज शशि मेघनर्तकी सी सँवर गई उसका कण-कण लगता कंचन था शाला मे सहस्त्र कला प्रेमी थे आज व्यंग्य ‘स्वयंवर’ का मंचन था ।।२३५।। जब मंच का इंद्रधनुष उठा कला का अभिनय आरंभ हुआ हम दोनों की पार्श्व भूमिका थी जहां पुनः प्रणय-स्पर्श प्रारम्भ हुआ ।।२३६।। यह नाटक हास्य से परिपूर्ण था अपने आप मे एक अनूठा था दर्शकों की हर्ष ध्वनि मे न जाने कितने बार यह मंच टूटा था ।।२३७।। यह उन उरों का स्वयंवर था जिनमे अकस्मात हुआ था प्रेम आज उसका ही अनुबंधन था जो आरंभ हुआ था पूछते कुशल-क्षेम ।।२३८।। वर-वधु ने केवल मुख देखा था व्यवहार तो अंतरंग मे बंद था बिना परखे ही परस्पर कर लिया संकल्प वह तो केवल पल भर का संबंध था ।।२३९।। जीवन को हंसिकाओं मे बांधे उनका यह प्रणय अकारथ था इसलिये नायक बेचारा क्या करता परिणीता की बात-बात से आहत था ।।२४०।। उस पर जब कटु-शब्द बरसते वह निस्तब्ध हुआ सुनता रहता कभी वामा उसके पीछे भागती वह जीवन समझ उसे सहता रहता ।।२४१।। दर्शक नायक की विवशता पर हँसते कहते कैसी वधू और कैसा वर है अगणित नाट्य प्रेमियों के कोलाहल मे यह वही व्यंग्य स्वयंवर है ।।२४२।। हर्ष ध्वनि के बीच नाटक समाप्त हुआ कोई मुंह फेरा, किसे ने गुणगान किया कहीं आलोचना हुई, कहीं यश मिला किन्तु सभी ने स्वयंवर जान लिया ।।२४३।। जैसा भी हो आज मुझे भी ज्ञान मिला अभिनय मे भी हृदय होता है यदि उसमे श्रद्धा और स्नेह गुंथा हो उसका बिन्दु-बिन्दु निर्भय होता है ।।२४४।। मंचन के पार्श्व मे ही हमने परस्पर उरों का स्वर सुना था मैं अकेला था पर विशाल सृष्टि मे मैंने भी एक सुमन चुना था ।।२४५।। जब सारी भीड़ लौटने लगी दोनों हाथ पकड़े मंच से उतर गये उस वसंती नभ के नीचे बौरों के सुगंध मे फिर सिहर गये ।।२४६।। हम दोनों आचार्य साथ लौटने लगे निशा की शांति मे मौन तोड़ते घर पहुँच कर शशि की स्मृतियाँ लिये खोया निशांक मे भविष्य के टुकड़े जोडते ।।२४७।। बरसों से जो कठोर हो गया हो उसकी पीड़ा सबला होती है जिसका हृदय चरणों से कुचला हो वह निर्लज्ज शिला होती है ।।२४८।। ज्येष्ठ, आषाढ़ सभी ऋतुओं मे उसे एक सा अनुभव होता है वह मर्महीन होता है लेकिन जब शंख बजते हैं शिव होता है ।।२४९।। उस पर जब सुमन चढ़ते हैं श्वेत तिलक खिंच जाता है दीपों के प्रकाश मे वही पत्थर प्रणति का दिव्य स्थल बन जाता है ।।२५०।। उस शिव को आँखों मे बंद किये मैंने मुंह तक चादर ढाँक लिया विचारों के परिधि मे ही मैंने अपना जीवन आंक लिया ।।२५१।। रात गहराती गयी मैं सोता रहा सुबह तक घिरे विचारों से थक गया कभी पीड़ा उफनी, कभी हर्ष हुआ अपार ऐसे ही जीवन शशि-प्रसंग मे अटक गया ।।२५२।।

सर्ग-५ : प्रकृति

मैं दोबारा दिनचर्या का मित्र बना यही संबंध अब आजीवन था जगती का सारा सुख-दुख मुझमे ही छिपा वसंत और सावन था ।।२५३।। समय जब वेग से गतिशील हुआ पलक झपकते दिन ढल जाता था मैं समय के साथ दौड़ता हुआ कभी अतीत मे फिसल जाता था ।।२५४।। नित्य उषा की लालिमा दिखती डूबते सूरज की संध्या सुनहरी होती पवन का प्रसार पावन होता हर सारिका स्वर्ग की परी होती ।।२५५।। आषाढ़ की एक लंबी रात तड़ित प्रभंजन से कवलित थी अनन्य प्राणों की थामे वह रजनी सिसकती हुयी भय से खंडित थी ।।२५६।। मैं भी इस प्रलय मे छिप-छिप कर रो रहा था मेरी प्रार्थना सारी विफल हो गयी शायद वह स्वर्ग भी सो रहा था ।।२५७।। क्षण-क्षण क्षुब्ध कर जाती क्षणदा पल-पल प्रताड़ित करता प्रभंजन कितना वेग था बरसते पानी का कितना मार्मिक था सरिता का गुंजन ।।२५८।। प्रलय निशा को निगल चुका था हवा की मार तृण क्या सह सकता था जो मुंह मे जीवन भरा बैठा है वह जिव्हा से क्या कह सकता था ।।२५९।। सुबह जब सूरज ने देखा मिट्टी की दीवारें धँसी हुयी थी वृक्ष राह पर गिरे पड़े थे मछलियाँ बहते कचरे मे फंसी हुयी थी ।।२६०।। पता नहीं कितने देह दबे रहे मलबे के नीचे से उठ रहा क्रंदन था कितने नर-नारी और शिशुओं का आज मृत्यु से हुआ स्पंदन था ।।२६१।। अनुमान नहीं कितनों के प्राण गये न जाने कितने वत्स छिने थे मिटे थे कितने परिणय श्रृंगार प्रलय दृश्य कितने वीभत्स बने थे ।।२६२।। उस अनंत अंधकार मे छाये क्रूर मेघों का कैसा वृष्टि वमन था तिमिर मे बने इस जलाशय मे यह प्राणियों का दारुण दमन था ।।२६३।। राह पर बने जल कुंभों मे सभी का डूब जाता आधा पाँव कभी निष्प्राण पशु की काया फँसती कभी फिसलता यूं ही भागता गाँव ।।२६४।। फट गयी थी धरा की सुंदर त्वचा जिसका गर्भ खुला हुआ था जो भी दौड़ा लिये प्राण प्रलय मे वह उस मिट्टी मे मिला हुआ था ।।२६५।। पक्षी जो अंबर मे उड़ते थे स्वछंद आज जल मे गले कमल से पड़े रहे उनकी वह स्नेहिल रस-रंग चपलता आज विधा से लड़ते गड़े रहे ।।२६६।। वसुधा से प्रतिशोध लेने उठा था पाताल से उद्वेलित हुआ यम जिसने सर्वनाश किया निष्ठुरता से ऐसा था आषाढ़ का वह तम ।।२६७।। जब विध्वंसिका गगन से दूर गयी सड़क पर फिर शेष दौड़ने लगे गिरते-उठते घायल हो कर भी अपने जीवन अवशेष ढूँढने लगे ।।२६८।। जब कोई अपने परिचित ढूंढ लेता वह कराह कर वहीं रह जाता था कितने मिलने की आशा मे ही निवृत्त हुये कोई रोता था, कोई कठोर हुआ सह लेता था ।।२६९।। मैं उस शत क्रंदन को चीरता काँपता हुआ दिशाहीन दौड़ने लगा जैसे ही मैं आचार्य निवास पहुंचा मेरा उर-स्पंदन बढ़ने लगा ।।२७०।। धरा सुमन समेटी मूक पड़ी थी जो तांडव का आर्त-अंक बनी थी हँसते फूलों की हर वल्लरी टूटी यह विभावरी क्यों आज कलंक बनी थी ।।२७१।। यहाँ प्रवेश द्वार गिरा हुआ था जिसका हृदय पीड़ा से खंडित था टूटे दीवारों की गीली मिट्टी से आज मर्म का वेग प्रचंडित था ।।२७२।। मैं जैसे ही अंदर प्रविष्ट हुआ सने कीचड़ मे फिसल गया न जाने कैसा चिन्ह बना देह पर वह धीरे से रक्त मे घुल गया ।।२७३।। मैं हृदय थामे आगे बढ़ता गया इस आलय की छत-दीवारें बरसों से सही थी अकस्मात मैं अचेत-सा हो गया शशि आँचल ढंके वहाँ सिसक रही थी ।।२७४।। देख मुझे उसकी आँखें भर आयी जो सिकुड़ गयीं थी अश्रु बहाते श्वेत शशि श्यामल हो चुकी थी सिसकती उनके ललाट के सहलाते ।।२७५।। जिसने बरसों से साथ दिया हो सुख-दुख का आधार दिया हो कैसा लगता है उसकी चिर शांति मे मौन रह कर भी जिसने प्यार किया हो ।।२७६।। जिसने दुख सह कर सुख बांटा है वह वेदना का प्रतिनिधि विषधर है जीवन मंथन से जन-जन को ज्ञान दिया है वही सत्य है, शिव है, सुंदर है ।।२७७।। मैं निःशब्द शशि समीप बैठ गया उन की ढलती मुक्तायें बटोरने लगा किन्तु इन आँखों मे जलधि का ज्वार था मैं मूक बना अपनी पीड़ा कुरेदने लगा ।।२७८।। कितनी कोमल थी शशि की आँखें जो नम-नम कर निस्सार हुयी थी उर पर पत्थर रख वह कितना रोयी थी जो रिसती नयनों के पार हुयी थी ।।२७९।। जब कोई सुंदर सुमन रोता है आकाश से अंशुमन अश्रु गिराता है तब चकोर का शत वंदन भी बधिर सा मलय संग बह जाता है ।।२८०।। शशि वहाँ घुटने टेकी बैठी थी मुख पर भीगा श्रृंगार लिये गालों पर जैसे रिसते पानी की धार चित्र खींच गयी कितने आकार लिये ।।२८१।। उसका उतरा मुख देख कर मैंने अपना उर निचोड़ लिया जो अश्रु बरसों से मन मे कुंठित थे आज उन्हे मुक्त बहने छोड़ दिया ।।२८२।। धीरे शशि का आँचल मुख पर से उतरा वह आनंदी आनन आज घायल था उसका हृदय सहमा सा धडक रहा था जैसे वह कोई टूटे पाँव का पायल था ।।२८३।। आज आचार्य सागर से शांत थे उनमे समाये विश्व के सारे वैभव थे उनके उर मे दंडक के श्री राम थे वहीं बसे कुरक्षेत्र के कृष्ण-केशव थे ।।२८४।। उस प्रभंजन की मार से वे मूर्छित हुये थे मैं अकेला यहाँ असहाय हुआ था कैसे समेटता बिखरी आशाओं को जो इस दुर्दिन मे मृतप्राय हुआ था ।।२८५।। बढ़ती निराशा मे नयन नम होते गये किन्तु श्रद्धा और विश्वास बढ़ता गया मैंने शक्ति से बढ़ कर सेवा की कुछ परिणाम तब खुलता गया ।।२८६।। कभी मैंने साँसों को गति दिया मस्तक पर कभी जल सींचा तलवों को रगड़ कर उष्ण किया निराशा को मन से दूर मुट्ठियों मे भींचा ।।२८७।। प्रभु से कितनी बार गिड़गिड़ाया जा कर देव-द्वार पर याचक बना प्राणों की भीख मांगता ईश्वर से मैं जन-जन का प्रवाचक बना ।।२८८।। मैंने सहस्त्र देवों का स्मरण किया कितनी बार-बार धरा पर प्रताड़ित हुआ कभी निराश हुआ, कभी क्षुब्ध हुआ लेकिन वह विश्वास नहीं पराजित हुआ ।।२८९।। धीरे से आचार्य के नयन खुले पल भर पीड़ा मे कुछ शांति मिली मन बंधा जब उन थकी आँखों को बुझते जीवन मे थोड़ी कान्ति मिली ।।२९०।। शशि आंसुओं से भरी आँखों से क्षण भर उन्हे देखती रही अभी तक वह सिसकती रही भय से लिपटी कुछ सोचती रही ।।२९१।। आचार्य के अधर कुछ काँपने लगे जिनमे न मोह, न काम-क्रोध था प्रशांत जीवन के अंतिम क्षणों मे संभवतः यह उनका मुक्ति-बोध था ।।२९२।। अवनि, अंबर, और क्षितिज मौन थे शेष देह और प्राण स्तब्ध थे ‘श्याम, शशि श्वास है, उसे हृदयंगम कर लेना’ यह उन अधरों के निर्णय शब्द थे ।।२९३।। आंखे पुनः बंद हुई, चरणों का चादर मैंने पार्थिव शरीर पर खींच दिया जो जन-जन का दिनकर था उसे भोर ने आज भींच लिया ।।२९४।। शशि उस निर्जीविता मे चीख उठी वह जगती से संबंध तोड़ चुकी थी दुख से भरी गगरी उठाते ही उसे स्वयं के आगे फोड़ चुकी थी ।।२९५।। जिसने बचपन मे उसके बाल सँवारे कमल नयनों को कृष्ण किया था लगाया था स्नेह से माथे पर बिंदी आज उसने यह कैसा प्रश्न दिया था ।।२९६।। उस हाहाकार मे शशि का विलाप जन-जन के कानों से टकराया था दौड़ते हुये आये जो जीवित थे मिल कर तब हृदय न जाने कितना रोया था ।।२९७।। जब तक जग मे मध्यान्ह हुआ कंधों पर लेटी थी वह काया सारा गाँव चल रहा था बिखरा हुआ किन्तु शशि ढूंढती रही उनकी छाया ।।२९८।। आज मैंने दोबारा अग्नि दिया जीवन मे मुझको सामर्थ्य मिला था जीने का पहले जब धधकती लौ देखी थी मुझे अर्थ मिला था मरने का ।।२९९।। सारा जग अभी तक निस्तब्ध था सुमन सी शशि सिंधु सी शांत थी स्मृतियों मे खोयी थी वह मन-आँखों से दुख से दबी-दबी आज वह दिग्भ्रांत थी ।।३००।। कादम्बरी कपोलों पर फिसलते हाथ उष्ण सांत्वनाओं से बहते नीर सुखाते रहे उस पीड़ा की स्मृति-स्मारिका बन कर मेरे अधर उसे जीने का अर्थ समझाते रहे ।।३०१।। अमावस के अँधियारे मे भी ज़िंदगी नक्षत्रों की निशा मे जी लेती है यदि पूर्णिमा का चाँद रोये क्या उस पीड़ा मे चंद्रिका घुल जाती है? ।।३०२।। तुम पूर्णिमा हो, शुभ्र श्वेत वर्णा हो कभी ऐसा चन्द्र ग्रहण लग जाता है किन्तु जब दुख से छन कर उजियाला होता है सोया अन्तःकरण भी जाग जाता है ।।३०३।। विश्वास की अंजलि मे ढली नयनिकाएं विषाद विष ही नहीं, कभी अमृत भी होती है यह देह तो अनल की अर्चना होती है केवल उर मे छिपी प्रेमिका परिष्कृत होती है ।।३०४।। तुम उस देह की प्रेमिका हो तुम परिष्कृत हो, सत्य हो फिर भीगी आँखों से क्यों ढूंढती हो उसे जो नश्वर हो, मर्त्य हो ।।३०५।। बहुत घुल गयी स्मृतियाँ नयनों मे अब आंसुओं का कोई विकल्प लो तुम्हें संवारना है उस बिछुड़े प्रेम को साथ चलो, जीने का नया संकल्प लो ।।३०६।। शशि फिर अकुलाई से खड़ी हुयी मेरे बाहुओं मे छिपाये ललित ललाट मैंने झरते आंसुओं को पोंछ दिया सींचने फिर जीवन के नये पाट ।।३०७।। मैंने आश्वस्त बाहों मे बांध लिया उसे जो पीड़ा मे मुरझाती पद्मिनी थी झरती आंसुओं मे सन कर आज बनी वह नयी अनुबंधिनी थी ।।३०८।। पल भर शशि इन बाहुपाशों मे बंधी उसकी तपन मुझ मे उतर गयी दुख के दावानल मे तप कर वह स्वर्ग की शची फिर से संवर गयी ।।३०९।। वह मेरे कंधे पर टिकी रही निकल आयी बाहर तोड़ कर दुख का दंभ हम टूटे आलय के आँगन मे बैठे देखते रहे परस्पर नयनों मे बिम्ब ।।३१०।। आज गगन और धरा मौन थे कुहुकने कहीं पक्षी नहीं थे जब मन फिसल गया जगती के व्यूह मे आचार्य के शब्द नव-जीवन के साक्षी थे ।।३११।। जो शैशव से भीड़ मे पला हो क्या उसे एकांत का आभास होता है? किन्तु जीवन के हर मोड पर जीने के लिये केवल अपना मन ही पास होता है ।।३१२।। जिसका उर दुख मे धड़कता है जिसकी आंसुओं मे रक्त होता है जो जगती के छल से उभर जाता है केवल वही धरा पर सशक्त होता है ।।३१३।। जो पर-पीड़ा समझ सकता है उसमे जीने का पौरुष होता है जो दूसरों के दुख से भागता है वह अनजान भी अमानुष होता है ।।३१४।। अचानक दोनों के देह सिहर गये शशि फिर स्मृतियों के भार से झुक गयी नयनों से अब शेष अश्रु-बिन्दु भी ढल गये जिसमे घुल गयी थी कल्पनायें सुखमयी ।।३१५।। सिर पर सांत्वना भरे हाथ फेरता संवारता रहा शशि का बिखरा श्रृंगार जो गिरा रहा था जैसे पारिजात धरा पर खो कर दुख मे अपनी अस्मिता और आकार ।।३१६।। शशि सिसकती हृदय से टिक गयी जहां अकेला मेरा प्राण था द्रवित हो कर उसके आंसुओं से यह नव-जीवन का प्रथम स्नान था ।।३१७।। जब आँगन मे अश्रु-कुंड फूट गया दोनों परस्पर आधार लिए खड़े हुये धीरे से हम मौन के बाहर निकल आये देखने पर्ण प्रलय मे झड़े हुये ।।३१८।। हम पथ पर निकल आये शशि अब भी विचार-शून्य थी वियोग मे दबी वह कंठ से मूक हुयी थी आज मुझे ऐसी भी मित्रता मान्य थी ।।३१९।। आंसुओं मे कैसी शांति होती है यह बूंदे कितनी पवित्र होती हैं जिस मे पाप-पुण्य सब कुछ घुल जाता है ऐसी मर्म-मुक्तायें भी कितनी विचित्र होती हैं ।।३२०।। कभी यह स्नेह के सीप मे मिलती है कभी वियोग के कगार पर चमकती हैं कभी ढल जाती हैं मन की मृगतृष्णा मे कभी आनंद मे कपोल पर फिसलती हैं ।।३२१।। इन आकर्षक मीनक्षी नयनों मे पुतलियों के पीछे कितने अश्रु बिन्दु हैं जो तीर्थ है जीवन मे सुख-दुख के जिसके बिन्दु-बिन्दु पूर्ण इन्दु हैं ।।३२२।। उन श्वेतांगी कपोलों पर फिसली मुक्ताओं का श्रृंगार भी ऋणी होता है जिसकी अंजलि सुख के नीर से भरी हो सच वह कितना धनी होता है ।।३२३।। मेरी हस्त रेखायें भीग गयी थी जिस पर गिरा अश्रु-अमृत था अभाग्य रेखा पर भी एक बूंद ढली वह देव प्रेम सा परिष्कृत था ।।३२४।। जब नयन उठे हथेली पर से कुछ आर्त पथ निकल चुका था कहाँ बटोरते जन समर्थन जीने का क्या छिपाते, जीवन दूध से धुल चुका था ।।३२५।। कितने जन-परिजन बाहर निकाल आये देखने फिर प्रलय का वह दृश्य मैं सिर झुकाये चला जा रहा था पथ पर साथ चलने लगे सारे अभिभावक और शिष्य ।।३२६।। किसी ने इन दृश्यों पर अश्रु बहाये कुछ कहा शुभचिंतकों ने समीप आकर कोई आंखों मे झाँकता मूक हुआ किसी ने कहा ढूंढो भविष्य दीप लेकर ।।३२७।। मैं इस विचित्र वातावरण मे शशि को साथ लिये चलता रहा लेकिन वह भोगा हुआ यथार्थ मेरी स्मृतियों मे पलता रहा ।।३२८।। मैं विचारों का कंकड़ पाँव से मारता धरा को देखता निर्भय चलता रहा मेरी कनिष्ठा दबी रही मृदुता के मध्य जिसकी तपन से दुख मे भी प्रणय जलता रहा ।।३२९।। अब गंतव्य निकट आ पहुंचा यह वही मेरा करुणालय था जहां किसी कोने मे पड़ा था मेरा ह्रदय आज शशि संग वही पुष्पालय था ।।३३०।। प्रवेश द्वार प्रलय ने खोल दिया था आलय का पृष्ठ कटा हुआ था खुरदरे फर्श पर खड़ी थी एक रमणी किन्तु उसका सौंदर्य आज मिटा हुआ था ।।३३१।। जो भी टकराया तिमिर के तांडव से वहीं उसकी समाधि बनी थी तब शशि का सौंदर्य कहाँ छिप सकता था वह तो नव रसों की जलधि बनी थी ।।३३२।। अचानक कुछ स्पर्श हुआ पाँवों मे वह प्रवेश द्वार पर पड़ा सुमन था नये स्नेह का सुस्वागत करने संभवतः यह मेरा टूटा मन था ।।३३३।। मेरी कल्पना के तरुण तृण कैसे उगते जब जड़ ही नष्ट हो गया फूलों के कोपल नहीं निकलते मलबे से प्राण अभी शेष है पर जीवन रुष्ट हो गया ।।३३४।। मैं एक पग और आगे बढ़ा देखने जो कीचड़ मे सने थे कनिष्ठा छूटी, शशि फिसल गयी उस श्वेतांगी पर अगणित चिन्ह बने थे ।।३३५।। शशि मेरा हाथ पकड़ कर खड़ी हुयी वहाँ गिरा था कंठ हार कंचन का मटमैली उँगलियाँ फिसल गईं अर्ध कंठ पर बना प्रतीक वही नव-अनुबंधन का ।।३३६।। आज मैंने पर-जीवन को हृदय दिया था वसुधा का मर्म इसका साक्षी है मेरा उर नव-आलय है शशि का जिसके जीवन का प्रेम आरक्षी है ।।३३७।। मैंने उठा लिया उस स्वर्ण हार को जिसमे सौन्दर्य बंधा था यौवन का शशि के इस टूटे कंठ हार मे अटूट स्नेह बंधा था जीवन का ।।३३८।। छत से छनती किरणों मे शशि मैली दीवार से टिक गयी अब उसे इसी प्रकाश मे जीना था जो बन कर आयी थी पथिक नयी ।।३३९।। लौटते इंद्रधनुषी अश्वरथ की धूल मे शशि मुख पर नया आवरण था वह प्रेम की प्रतिमा बनी बैठी रही किन्तु उसके मन मे सुख-दुख का नव-रण था ।।३४०।। उसके श्यामल नयनों मे सांध्य-सूर्य था कुछ बिखर रहे थे कृष्ण केश कोमल कपोल चमक रहे थे कंचन से अधर सँजोये थे कुछ शेष प्रश्न ।।३४१।। क्षितिज पर बढ़ रही थी लालिमा आज उदासी शशि के मस्तक बिन्दु मे थी किन्तु गंभीरता थी उसके चपल चक्षुओं मे जितनी सौम्यता अथक इन्दु मे थी ।।३४२।। मैं भी इस शांति का हिस्सा बना बैठा देखता रहा श्रृंगार वियोग का सोचता रहा पलकें झुकाये उस निस्सीमता मे कैसा है मंचन सृष्टि मे संयोग का ।।३४३।। कभी वात्सल्य मिला, कभी श्रृंगार मिला जितने देव नामों की संख्या है उतने अनुभव हैं इस जीवन मे, मन कहता है शशि संयोग नहीं तो फिर क्या है ।।३४४।। संयोग था कृष्ण का मिलना कुरुक्षेत्र मे संयोग था श्री राम को विभीषण का मिलना ऐसा ही था यह प्रणय प्रसंग था संयोग था मुझे पुनः जीवन का मिलना ।।३४५।। गगन मे आधा सूर्य अस्त हो चुका था कहीं कोकिला कुहुक उठी कानन से उस संगीत मे नूपुर झनक उठे फिर उड़े मर्म मेघ आनन से ।।३४६।। मैं सचेत हुआ उस झंकृत स्वर से भरा था घट मे नयन नीर जब अश्रु थमे मैंने देखा कोई खड़ा था लिये शेष चीर ।।३४७।। किसी के भुजा पर थी शयनिका किसी के हाथों मे था अक्षय-पात्र अंजान करों मे थी टूटी वीणा संशय नहीं था किसी मे किंचित मात्र ।।३४८।। शयनिका लिपटी थी शोक मे पात्र मे भरे थे बरसते आँखों के नीर मूक हुये थे स्वर सुरमय वीणा के लुढ़क गया था आज जीवन का क्षीर ।।३४९।। वे छोड़ गए थे उन अवशेषों को आज स्मृतियों के इस टूटे आलय मे जिन्हे देख-देख सिहर जाती थी वह सुमन सुमुखी अबला भय से ।।३५०।।

सर्ग-६ : साहचर्य

शशि अब राजनीगंधा सी निखर गयी जली जब तम मे ज्योति कलश उन आँखों मे दिखता ज्योति-बिम्ब ढूँढता रहा तिमिर मे भी स्नेह-सुयश ।।३५१।। दुख निचोड़ कर कर जब कोई रोता है वह अनुभव कितना श्रेष्ठ होता है मन धुल जाता है, पीड़ा बह जाती है वह क्षण जीवन मे सबसे ज्येष्ठ होता है ।।३५२।। सौन्दर्य सृष्टि का स्पष्ट सत्य है उसी सत्य मे ईश्वर है सुख के सुरों मे मादकता है किन्तु दुख के नृत्य मे भक्तिस्वर है ।।३५३।। भोर की भव्यता भानु मे होती है हिमांशु की निहारिका विभावरी होती है लेकिन नर से सुर तक की तृष्णा केवल सुंदर नारी होती है ।।३५४।। फिर वह सुंदरता कैसे मिट सकती है चाहे डूब जाये वह अश्रु जलधि मे वह वनिता वायु सी निकल जायेगी मिलने फिर प्रणय पयोनिधि मे ।।३५५।। धीरे से उन आँखों मे दीप दिखा उसकी दारुण पीड़ा कुछ मंद हुयी नयनों मे जितनी प्रीति घुली थी वह फिर उन पलकों मे बंद हुयी ।।३५६।। स्तब्ध सरिता से बहता पवन यत्न करता रहा लौ बुझाने की वहीं खिड़की से दिखता नक्षत्र अकेला प्रयास करता रहा जीवन समझाने की ।।३५७।। जब नभ मे वह नक्षत्र छिप गया उठ कर देखा कोई द्वार पर रुका था रात का भोजन लिए हाथ मे वह सम्मुख विनम्रता से झुका था ।।३५८।। मैंने स्वीकार किया वह स्नेह समर्थन किन्तु आज दुख से क्षुब्ध क्षुधा थी कहाँ व्यवस्थित करते उन व्यंजनों को उदर मे भरी अश्रु-सुधा थी ।।३५९।। मैं क्षण भर शशि को देख सोचता रहा जब दुख के भंवर मे मन डूबता है बुद्धि, बल, स्नेह, और सुषुम्ना टूट जाती है लेकिन भूख-प्यास का क्रम नहीं टूटता है ।।३६०।। भोजन हेतु मैंने शशि से अनुरोध किया ग्रहण करो यह जीवन की औषधि है आज केवल आभास हुआ है कटुता का जीवन मे क्षण-क्षण एक नयी व्याधि है ।।३६१।। संवेदनहीन से से लौट गये छू कर शब्द अनुग्रह के शशि कर्णों से उँगलियाँ छिप गयी अंग-वस्त्र मे छू कर अन्न का प्रसाद पर्णों से ।।३६२।। जब मैंने शशि से पुनः कहा एक निवाला गले से उतर गया कुछ उसने खाया कुछ मैंने खाया ऐसे ही वह पीड़ा का पहर गया ।।३६३।। जीवन सुख-दुखकी एक तुला है जिसे उठाने हेतु शक्ति चाहिए यदि दुख का पलड़ा भरी हो जाये उसे संतुलित करने युक्ति चाहिए ।।३६४।। अंजलि भर आंसुओं के तर्पण से देव की अर्चना नहीं होती है जो जीवन मंथन की सुधा समर्पित कर दे सृष्टि मे सच, आराधना वही होती है ।।३६५।। अश्रु प्रथम रत्न है इस मंथन का अमृत तो अंत मे निकलना है तब तक तुम्हें सुमेरु बना रहना है कुछ शक्ति पाना है, और जीना है ।।३६६।। दीप देख शलभ पंख लिये दौड़ पड़े जब प्रणय उष्णता मे व्याप्त हुआ एक प्रेमान्ध शलभ गिरा ज्योति पर निशा का एक दृश्य समाप्त हुआ ।।३६७।। अग्नि-कुंड मध्य रखे हम लेट गये अब रो-रो कर थकी पलकें बंद हुईं स्वप्न सजे फिर नव-जीवन के चुपके से निशा नयनों मे निर्बंध हुयी ।।३६८।। निवेदन लिये नयनों मे निद्रा का पल भर भी पलकें गिरी नहीं थी उन आँखों से वे आँखें मिलती रही जो मर कर भी नहीं मरी थी ।।३६९।। कर्म-फल का बंधन ही जीवन है यही समय और साँसों का भाग है इस जीवन मे नव जीवन देना ही जगती मे सबसे उत्कृष्ट त्याग है ।।३७०।। सुमुख सुमन बहुनयनों का प्रेमी है पग-पग की प्रेमिका नूपुर है जिसने रस-रंग, प्रणय, पीड़ा आत्मसात कर लिया सच ऐसा ही मानव जगती मे सुर है ।।३७१।। जिसमे दया, प्रेम, और भक्ति है देव-धर्म के कुछ श्रेष्ठ कार्य हैं वह देह चाहे स्वर्ग मे लीन हो जाये धरा पर आज भी देव-तुल्य आचार्य हैं ।।३७२।। बीच मे रखे अग्नि कुंड से उड़ा अंगार उन विचारों पर जलता चिन्ह छोड़ गया गाल पर जब उठा एक फफोला मैंने तत्क्षण दूसरी ओर मुंह मोड लिया ।।३७३।। मैं बायें करवट पर लेटा शशि मुख देखता सो गया स्मृतियों से निकल कर उस रात मैं जीवंत विचारों मे खो गया ।।३७४।। दुख की अग्नि मे झुलस कर भी नारी कुमुद सी कोमल होती है जलते सूर्य की उष्णता लेकर भी जैसे ज्येष्ठ की ज्योत्सना शीतल होती है ।।३७५।। देवी सी नारी केवल श्रद्धा है श्रृंगार उस पर चढ़ा सुमन है जिसके शब्द श्लोक हैं अश्रु तीर्थ हैं यह मंदिर उसका मधुमन है ।।३७६।। वह सुमन कैसे गिर सकता है जो मंत्र स्पर्श से परिष्कृत है अर्चना-आराधना जगती के संयम हैं लेकिन केवल सुंदरता ही सुर-कृत है ।।३७७।। यह धरा नहीं कोई असुरालय है जहां सभी सुरों से युद्ध करेंगे यह एक प्रगाढ़ प्रेमालय है इस घर मे मन से मन को शुद्ध करेंगे ।।३७८।। मैं और उसे नहीं निहार सका नींद मे पलकें बोझिल हुयी धीरे-धीरे देह अचेत हुआ शशि न जाने कब स्वप्नों मे मिल गयी ।।३७९।। न जाने शशि कब तक सोती रही भोर भी गालों पर थपकियाँ देती रही उस सुंदर मुख पर कभी प्रणय या झलक अलौकिकता की दिखती रही ।।३८०।। ब्रह्मांड मे धरा की सेवा करने निश्चित समय बंधा है देवों का रजनी का रवि से और ऐसे ही जगती मे प्रणय और आँखों का ।।३८१।। रजनी अब भोर के साथ लौट गयी कोयली कहीं दूर कुहुकने लगी उठो जीवन का नव-प्रकाश देखो यह सुन कर उषा सँवरने लगी ।।३८२।। जब आँख खुली सूरज छत पर था लताओं से छन रहा था प्रकाश मध्यम बहती पवन की शीतलता से तरुण हो रहा था श्वास-श्वास ।।३८३।। सृष्टि का सर्व श्रृंगार साथ था पर साथ सोयी शशि नहीं थी मेरे नयन अर्ध वृत्त घूम गये पर कहीं खोयी शशि नहीं थी ।।३८४।। मैं व्यथित हुआ उसे ढूँढने लगा मिली नहीं इस आलय की देवी पग भर घर की परिक्रमा कर ली कहीं खोयी थी वह सुंदर साध्वी ।।३८५।। अकस्मात देहरी पर चमका प्रकाश जो लौटा था टकराकर दर्पण से द्वार पर जा कर देखा आँगन मे शशि निकाल रही थी उपवन से ।।३८६।। कुछ दूर जब वह स्थिर खड़ी हुयी दर्पण मध्य उसका मस्तक बिन्दु दिखा फिर नयन, कपोल, और अधर दिखे क्षण भर मे खिला पूर्णेन्दु दिखा ।।३८७।। श्वेत ललाट पर जड़ा था रक्तिम बिन्दु पवन संग लहरा रहे थे कोमल केश उसके मृदु अधर, कपोल कुमुद से थे जिन्हे देखते रहे यह नयन निर्निमेष ।।३८८।। मेरे पग देहरी लांघ गये देखने सुंदर जीवन पथ नये मुस्कुराहट मे शशि के अधर कुछ हट गये जब दर्पण मे दो चेहरे परस्पर गुंथ गये ।।३८९।। शशि अब नर्तकी सी पीछे घूम गयी तब नीरज नयनों से फिर नयन मिले अधरों पर छाई मुस्कुराहट ऐसे लगी जैसे भ्रमर संग दो सुमन खिले ।।३९०।। मैंने उसे बाहुपाशों मे बांध लिया जो इस आँगन की इंद्रधनुष बनी थी यह सूर्य, वरुण, इंद्र सभी देवों के समतुल्य इस आलय की भाग्य कलश बनी थी ।।३९१।। इन्ही सप्तवर्णी श्रृंगार मे होती सुबह दुपहरी घिर आती इन रंगों के मंथन से दर्पण देखते हुये होती संध्या रंग निथर जाते निशा के मणि-कंचन मे ।।३९२।। अब सुंदरता आत्मसात कर जीना ही साँझ-सवेरे का विवेचन था तन-मन से अतीत फेंक कर जीवन मे प्रणय-सुख का विमोचन था ।।३९३।। आच्छादित नभ तले जब हम घूमते मेघ से भी पहले शशि सजल होती लेकिन जब राह पर मेघ बरसते वह सुधा से धुली उत्पल होती ।।३९४।। लौट कर अग्नि समक्ष बैठ जाते जिसकी तपन से देह सूखता रहता शशि अंगार पर पयः पात्र रखती वह क्षीर देखती, मैं उसे देखता रहता ।।३९५।। जब दूध कंठ से उतर जाता वह क्षुधा अर्चना हेतु प्रसाद बनाती थाल सजता नित्य नये अनुपानों से अपने हाथों से छू कर वह कितना स्वाद जगाती ।।३९६।। खा कर स्वाद-सुगंधित भोजन वरदान मिलता दिवास्वप्न देखने का संभवतः इस मानव जीवन मे यही आनंद है जीने और खाने का ।।३९७।। मैं संतुष्ट हो कर उनींदा हो जाता था जिसे मिला वही तो भोगी है जो सिद्धान्त पर टिका रहा सुख-दुख मे वह तो केवल एक कर्म-योगी है ।।३९८।। जब मेरी उनींदी आँखें खुलती तब शशि से होता कोई वाद-विवाद हम दोनों मे विजय-पराजय होती अंत मे बिखर जाता था प्रेम अगाध ।।३९९।। हम बाहर आँगन मे बैठते देखते रहते डूबते सूरज का पथ छितराई छांव मे भुजाओं पर हाथ रखे नव-जीवन पर करते अपना मत-सम्मत ।।४००।। लौटता सूर्य जब वसुधा को देखता शशि अभिसारिका बन उसे विदा देती मैं शाम घरों से उठती सुगंध मे खो जाता वह रजनीगंधा के पौधे पर मृदा देती ।।४०१।। रात-दिन ऐसे ही बंधे थे समय से यही जीवन था इन टूटे सुमनो का दुख मे भी सोते-उठते सुख ढूंढते रहते यही उपक्रम था बीते बारह दिनों का ।।४०२।। आज आषाढ़ का आकाश स्वछ था जहां लुढ़क रहा था सूर्य-चक्र किन्तु समय के साथ-साथ मन मे जटिल होता जा रहा था जीवन का वक्र ।।४०३।। आज पंचतत्व इस आँगन मे थे लेकिन घिरी एक विषाक्त वेदना थी जो प्राण अन्तरिक्ष मे समा गया था उसकी आज वैकुंठ समाराधना थी ।।४०४।। आज आँगन मे मंडप के नीचे मृत्युभोज हेतु अगणित पर्ण बिछे थे जिसे जाना था वह चला गया किन्तु समाज ने कितने स्वांग रचे थे ।।४०५।। स्वर्ग-नर्क सब मन की मिथ्या है कौन सुर है, कौन असुर है जहां मन को सुख मिलता है वैकुंठ तो वह मौन उर है ।।४०६।। धरा का देव स्वर्ग चला गया यही एक वृहद शोक है वसुधा जिसकी पोषक जननी है यही सभी का देव लोक है ।।४०७।। सारे परोसे मीठे-मधुर पकवान सभी आगंतुकों ने मिल-बाँट लिया किसी ने स्मरण किया, कुछ संतुष्ट हुये क्षण भर के लिये सभी ने स्वर्ग बाँट लिया ।।४०८।। मैं उत्सव देखता रहा, मंत्र सुनता रहा खड़ा-खड़ा मंडप स्तम्भ खरोंचता रहा पंडितों की उस मंत्र प्रतियोगिता मे मैं केवल वैकुंठ का अर्थ सोचता रहा ।।४०९।। ब्रम्ह वहाँ है, सत्य जहां है श्रद्धा-प्रेम जहां है विष्णु वहाँ है महेश है मानव के काम-क्रोध मे फिर स्वर्ग का वह वैकुंठ कहाँ है? ।।४१०।। इन्ही विचारों मे काष्ठ स्तंभ कुरेदते कुछ घायल हुयी मेरी तरुण तर्जनी मैं पीड़ा से वहीं बैठ गया जहां झर रही थी नैनों की निर्झरिणी ।।४११।। मंत्र प्रवाह मे तड़ित सा प्रचंड था आँखों से अमापनीय था उन का वेग जिनके शब्द-शब्द दौड़ रहे थे गगन मे जैसे वे हैं इंद्र-दूत आषाढ़ के मेघ ।।४१२।। बहुत मंत्र स्वर्ग पहुँच चुके थे और कई पहुँचने शेष थे मुझे दिखा नहीं मंत्रों का स्वर्ग-पथ शायद इनके पारदर्शी वेश थे ।।४१३।। जब मंत्रों का उपक्रम पूर्ण हुआ मुक्त हुआ धरा से बंधा प्राण वैकुंठ की अथक खोज के बाद हाथ बढ़े करने उदर कल्याण ।।४१४।। आधा दिन बीत चुका था झुकते-उठते शरीर टूट चुका था अन्त्येष्टि के इस शांति-पर्व मे सच, सब कुछ स्वर्ग पहुँच चुका था ।।४१५।। दिन के अंतिम प्रहर मे केवल कुछ जूठे पर्ण बचे थे और सांत्वना-समर्पण के भाव छिपाये धरा पर मैले आसन बिछे थे ।।४१६।। शशि जब पर्ण उठाने लगी मैं आसन स्तंभाकार लपेटने लगा उजियाला समेट कर रात होने लगी यह मन फिर सतह पर बैठने लगा ।।४१७।। जो भीड़ मे या निर्जन मे बुद्धि-बल दे वह अकेला आत्मबोध होता है बटोर कर ढेर सांत्वना-समर्थन केवल मानवता का मर्म-बोध होता है ।।४१८।। समाज मे रोने से सांत्वना मिलती है सुख मे जीवन को समर्थन मिलता है किन्तु जो अकेला ही जीता है उसे जगती मे कैसा वचन मिलता है? ।।४१९।। जिसने दुख मे ही सुख पाया है निर्जन मे गगन देख रोया है उसे समाज पहचान नहीं सकता है जिसे पता नहीं क्या पाया, क्या खोया है ।।४२०।। उसे क्यों चाहिये जन-सांत्वना कौन देगा अनजान को समर्थन जिसका प्रारब्ध उसे छोड़ गया हो उथले जीवन का कैसा हो मंथन ।।४२१।।

सर्ग-७ : परिणय

दूर से बह कर आती जलधारा मे पाँव की उँगलियाँ निर्मल हो गयी मैंने शशि को गोद मे उठा लिया वह जलधारा फिर अविरल हो गयी ।।४२२।। सुमुखि शशि के कोमल करों से आँगन का छोर-छोर धुल गया जिसके कण-कण मे स्वर्ग का सुख था और धरा का कठोर दुख घुल गया ।।४२३।। उस जल भरे आँगन की सतह पर दिख रहा था चतुर्दशी का चंद्रमा जिस पर बनी थी आकृति आचार्य जैसी जहां झलक रही थी उनकी गरिमा ।।४२४।। इस दृश्य पर जब उसके नयन सधे जलज नयनों मे अश्रु भर गये छलक गयी कुछ बूंदें उस परछाई पर वे फिर स्मृति वलयों मे संवर गये ।।४२५।। शशि मेरी भुजा से टिक गयी इस बंधन के आज आचार्य साक्षी थे जहां स्नेह, सुख, और सुंदरता हो हम दोनों उस जीवन के आकांक्षी थे ।।४२६।। उसे धीरे से मैंने बांध लिया आंसुओं से भीगी बाहुपाशों मे जो सुवासित हो रही थी रजनीगंधा सी वह आज खिली थी श्वासों मे ।।४२७।। मैं शशि को साथ लिये लौट गया अतीत मे नयन बहुत रो लिये आँखों मे कुछ बची हुयी स्मृतियाँ हमने आज निशा को उधार दे दिये ।।४२८।। अगली सुबह आकाश मे मेघ छाये थे सुगंधित बयार मे थोड़ी नमी थी कहीं दूर नवरंगी चहक रही थी यहाँ तरुण तृणों पर प्रीति जमी थी ।।४२९।। हम दोनों बाहर निकाल पड़े देखने नई सुबह की सुंदरता राह मे परस्पर उँगलियाँ उलझ गयी चख ली हमने फिर मन की मधुरता ।।४३०।। सच सृष्टि आज कितनी सुंदर थी कितनी कोमल, शांत, और शीतल थी वह दिखती नहीं थी बोझिल आँखों मे आज हुयी यह स्नेह से निर्मल थी ।।४३१।। आज कल्पना सृष्टि से भी विशाल थी मापने उसे उँगलियाँ निर्बंध खुल गयी उस कल्पना की परिधि शशि तक ही थी इसलिये पहली प्रीति उसके कपोल पर फिसल गयी ।।४३२।। आज इन निष्प्राण सूखे अधरों को श्वेत सुमन सी शयनिका मिली थी जिसने कभी सुमन का सुख नही जाना था उन नयनों को आज प्रेयसी मिली थी ।।४३३।। पग इन्ही कल्पनाओं मे लिपटे बढ़ते गये हाय! शशि के पाँव पर मेरा पाँव पड़ गया वह घबराई सी मुझसे लिपट गयी, और वहाँ विचलित एक भ्रमर सुमन पर से उड़ गया ।।४३४।। मैं क्षण भर शशि को थामे स्तब्ध रहा वह भी निशब्द अधीर खड़ी थी जब मेरा पाँव उठा, मेंने देखा उस मृदुल त्वचा पर रक्त की लकीर पड़ी थी ।।४३५।। वहीं से हम दोनों घर लौट गये लेकिन शशि अब भी काँपती रही मैं पाँव पर बनी लकीर देखता रहा जो मौन उद्वेलित मन मापती रही ।।४३६।। जिस दर्पण मे मंर्म आकृति सँवरती है उसमे बिंबित मुख, मुख नहीं होता है जिसने अकेले ही जीवन जिया है उसे मिला सुख, सुख नहीं होता है ।।४३७।। किन्तु जिसने प्रणय ढूंढ लिया दुख मे वह क्षण दो क्षण मचल जाता है दौड़ जाता है उसे पाने मृगतृष्णा सा लेकिन प्रायः वह उसे छल जाता है ।।४३८।। जो सत्य समझ नहीं पाता है वह प्रणय मे अंधा हुआ उछल जाता है इस प्रेमान्ध दौड़ मे अक्सर प्रीति से ही पाँव कुचल जाता है ।।४३९।। मैं विचारों के पवनयान मे बैठा घूमता रहा सत्य का नभ नया जैसे ही धरा पर पाँव रखा एक हृदयहीन कांटा चुभ गया ।।४४०।। मैं क्षण भर वहीं नीचे बैठ गया शशि गोद मे मेरा पाँव रखी निकालने लगी फिर वह पीड़ा का कारण कितने प्रेम से प्रेयसी सुमुखी ।।४४१।। न जाने कितना कष्ट हुआ जब-जब वह कांटा हिला इस बीच मैं पीड़ा मे भी सुख ढूँढता रहा वहीं शशि के लिए एक प्रश्न मिल गया ।।४४२।। मैंने पूछा जिसने दुख का तीर्थ पिया है क्या वह सुख का अमृत पी सकता है? जिसने स्नेह-सगाई नहीं देखी है क्या वह गृहस्थ जीवन जी सकता है? ।।४४३।। शशि बोली, अब तक तुमने ही मुझसे सुख के अमृत का निवेदन किया है इस स्नेह, श्रृंगार, और प्रणय को बांध एक संयुक्त जीवन का अभिनंदन किया है ।।४४४।। प्रत्युत्तर था यदि उसे जीने का अवसर मिला तो क्या उसका जीना सार्थक है? नहीं देखी है उसने स्वर्ग की अभिसारिका वह महेश, पीड़ा का तांडव नर्तक है ।।४४५।। शशि ने कहा मेरा जीवन सार्थक है तुमने ही यह बोध दिया है स्वर्ग की अभिसारिका बना कर तुमने ही मुझे इस पद पर आसीन किया है ।।४४६।। अगला प्रश्न, यदि उसने जीवन देख भी लिया तो केवल कल्पना मे खो सकता है जिसमे यथार्थ नहीं, सत्य नहीं है क्या वह तुम्हारा हो सकता है? ।।४४७।। भावुक शशि बोली, तुमने जीवन देख लिया है अब मुझे कल्पनाओं मे खो लेने दो तुम मेरे हो, यह प्रण किया है तुमने अब मुझे तुम्हारी हो लेने दो ।।४४८।। शशि उफनती सरिता सी सिसक उठी वह मुझे अविवेकी समझ देखने लगी देखते ही देखते उसकी आँखों से अविरल अश्रु धारा बरसने लगी ।।४४९।। उसकी आँखों से ढले आँसू मेरे मैले तलवों पर गिर गये उसके सिसकते अधर काँपने लगे वे उठ कर फिर प्रश्नों मे घिर गये ।।४५०।। मैं सोचता रहा देव की अर्चना होती है उसका तीर्थ अमृत होता है वह जिसके कंठ उतर जाता है उसे क्या सच स्वर्ग का आभास होता है? ।।४५१।। श्रेष्ठ उपवन वही होता है जो नर-सुर सबको सुमन देता है जग मे उसका ही जीना सार्थक है जो औरों को जीवन देता है ।।४५२।। ऐसा जीवन ही जान्हवी जल है तो यह छल कैसे हो सकता है जिसके हृदय मे इतना प्रणय समाया है वह केवल मेरा ही हो सकता है ।।४५३।। जैसे ही सिसकते स्वर टूटे शशि ने रख दिया मेरे तलवे पर मस्तक और बहते आंसुओं मे पढ़ने लगी जैसे वह है हमारे इतिहास की पुस्तक ।।४५४।। मैंने शशि के सिर पर हाथ रख दिया जो प्रणय-प्रेम को पुष्करिणी थी साथ चल रही थी पहेली बन कर आज वह बनी मेरी अनुबंधिनी थी ।।४५५।। इस सुबह का मौसम मौन था आषाढ़ का मेघ-गर्जन भी शांत था मध्यम बयार तले बह रही थी सरिता आज सच कितना अदभुत निशांत था ।।४५६।। हम इस सौंदर्य को देखते बैठे रहे सुगंधित हवा का एक झोंका आया पत्तों पर जमी बूंदें लुढ़क गयी लेकिन भीगी नहीं हमारी स्वप्नों से भरी काया ।।४५७।। पुनः जब धीमी बयार चली मेरा मुंह ढँक गया आँचल से मैं शशि को साथ लिये लौट आया जो बंधी थी जीवन के पल-पल से ।।४५८।। व्यस्त हुयी हम दोनों की दिनचर्या पंहुच कर अपने घर-आँगन मे साथ-साथ रहना और जीना ही उद्देश्य बन गया था जीवन मे ।।४५९।। निशा का आवरण उठ जाता प्रभाकर जब पत्तों से झाँकता था कभी नयन खुलते जब आकाश मे कोई मेघ से मेघ टकराता था ।।४६०।। कभी मैं बायें करवट उठ जाता शशि के जब पग नूपुर बजते कभी प्यार से उनकी खनक सुनता रहता दूर कहीं उसके सुप्रभात के सुर सजते ।।४६१।। मैं जब शिष्यों के साथ होता शाला मे ही बीत जाता दिन का यौवन हँसते-खेलते और पढ़ते रहते अकेले ही कभी देख लेते मन का दर्पण ।।४६२।। दोपहरी बीत जाती कभी अर्थहीन ढूंढते जगती मे अपना ही जीवन जिसे स्नेह-सगाई सागर सी मिलती है सुख बरसता है वहीं घन-सघन ।।४६३।। पग जब घर की ओर बढ़ते पथ पर ही सुंदर संध्या होती बहुप्रतीक्षित सा जब मैं शशि से मिलता वह प्रेम से मुझे पारिवारिक विद्या देती ।।४६४।। संध्या की लालिमा मे जब बैठे होते कोई प्रसंग मध्य आ जाता था प्रणय छोड़ तब जगती की बातों मे ही न जाने कब अंधेरा छा जाता था ।।४६५।। इसी उपक्रम मे बीत गयी उषा-निशा कभी उत्तर मिले, मिले कभी प्रश्न प्रत्यक्ष प्रणय मिला कभी, विषाद घुला मन मे कभी ऐसे ही बीत गया एक कृष्ण पक्ष ।।४६६।। जब श्रावण का शुक्ल पक्ष सजा मैं संध्या ढूँढता रहा प्रथम चंद्रमा सारा आकाश ढूंढ लिया नयनों से पर दिखी नहीं उसकी मोहक मधुरिमा ।।४६७।। थके चक्षु जब गगन निहारते रहे गर्दन टांगे लगा ऊपर से गगन टूट गया सारी धरा मेरे साथ घूम रही थी मैं वहीं भयभीत सा बैठ गया ।।४६८।। कुछ समय बाद जब सिर स्थिर हुआ हथेलियाँ धरा पर सरकने लगी निशब्द निरर्थक समय गँवाता तृणों को मेरी तर्जनी कुरेदने लगी ।।४६९।। जब शीतल संवेदना हुयी देखा मेरी तर्जनी मिट्टी मे धँसी हुयी थी वहाँ खड़े गेहूं के नव-अंकुर थे शशि के हाथों वह मृदा नर्म हुयी थी ।।४७०।। मैंने तत्क्षण हाथ खींच लिया सभी अंकुर सहमे हुये थे जब तर्जनी हिली मेंने देखा उस पर दो मृदु अंकुर थमे हुये थे ।।४७१।। मैंने उन्हे सहेज कर वहीं रख दिया जहां उनके अन्य मित्र खड़े थे उस स्नेह को स्वजाति मे स्थान मिला किन्तु उनके मुख से मधु चित्र उड़े थे ।।४७२।। क्षण मे वे धनुष से झुक गये शिशु कितना कोमल हृदयी होता है जब जन-गण की रक्षा करना धर्म है यह समाज क्यों इतना निर्दयी होता है ।।४७३।। जो जन-परिधि से परे होता है उसे जग मनुष्य नहीं मानता है उसकी प्रजाति नर-सुर से अलग होती है क्योंकि उसे समाज पहचानता नहीं है ।।४७४।। क्या टूटे हुये सुंदर सुमन मे श्रद्धा-भक्ति और भय नहीं होता है जिसमे सूखने पर भी श्रृंगार होता है विश्व मे विशाल हृदय वही होता है ।।४७५।। ऋतुओं मे झुलसी देह पर जब मेघ बरसते हैं नव-सर्जना होती है वहाँ धीरे से प्रेम पुष्प खिल जाते हैं जिनसे तन-मन सब की अर्चना होती है ।।४७६।। ऐसा ही एक नग्न देह निर्वासित था जिसे शिला सा जीवन जीना पड़ा कितने बार हृदय कुचला, मन टूटा बरसों उसे विषाद का विष पीना पड़ा ।।४७७।। आज उसी विष भरे नील कंठ मे कुछ सुख के शब्द समा गये हैं कल तक जो कुसुम धरा पर बिखर गये थे वे आज वहीं कुसुमा गये हैं ।।४७८।। नर्क नहीं, समाज से डर लगता है यहाँ सत्य पर भी तर्क-वितर्क गंदा होता है किसे बतलायें यहाँ भी हृदय है, प्रणय है भीड़ का अन्तर्मन तो अंधा होता है ।।४७९।। वह चाहे जितने सुकर्म कर ले उसकी जगती मे शत-शुद्धि होती है उसे फिर वहाँ शरण मिलता है ऐसे समाज की औसत बुद्धि होती है ।।४८०।। मेरे जीवन और प्रणय को भी समाज के बीच परखना होगा अन्यथा जन-जन की आंखे हमे नोंच लेंगी जिसका दर्द शशि को भी सहना होगा ।।४८१।। यहाँ जीवन मे स्नेह सँवारने हेतु मन नहीं समाज का दर्पण चाहिये सहजीवन को आजीवन आत्मसात करने हृदय नहीं, विवाह का आवरण चाहिये ।।४८२।। मैंने झुकी पलकें उठाने चाहे यहाँ पलकों से पहले तिमिर उठा था ऊपर गगन रत्न खचित हुआ था, लेकिन इस सन्नाटे मे एक विचार घेर कर बैठा था ।।४८३।। दूसरी सुबह शुक्ल की द्वितीया थी आज शशि बनी थी सुंदर सुभाव सखा हम दोनों शीर्ष पुरोहित के घर पहुंचे हमने वहाँ परिणय का प्रस्ताव रखा ।।४८४।। अनेक प्रश्न उठे, विचार-विमर्श हुआ कभी मेरी ही प्रीति मुझे दबा गयी कुछ प्रश्न सुलझे, कुछ उत्तर उलझ गये इनके निर्णय हेतु ग्राम्य सभा हुयी ।।४८५।। हम दोनों सरित-शिला पर बैठे रहे अनन्य हृदय हितैषियों के बीच हमे सभी ने एक मत से स्वीकार किया हम बैठे अश्रु बहाते रहे आंखे सींच ।।४८६।। दीर्घ विचार विमर्श के उपरांत हमे साथ जेने की अनुमति मिली जिसे प्रकृति ने पाला-पोसा था आज उसे स्वजनों की सम्मति मिली ।।४८७।। मैं, शशि, और सभी श्रद्धेय देव द्वार पर साक्षी ढूँढने पहुँच गये वहीं श्री राम सम्मुख कंठ सज गये दोनों स्नेहिल उर मंत्रों से सिंच गये ।।४८८।। आज बरसों के एकांत जीवन को प्रीति से परिष्कृत प्रेमिका मिली थी अब मरु-भूमि की मृगतृष्णा नहीं हृदय मे परिमल पुष्पिका खिली थी ।।४८९।। जो सर्व सम्पदा का होता है वह अकेला ही नृप होता है कितना भाग्यवान होता है जिसका पूर्व जन्म का ऐसा तप होता है ।।४९०।। जिसने विशाल एकांत हो जीत लिया वह सत्य प्रांत का चक्रवर्ती होता है जिसने भय से जीवन नहीं ढूंढा निर्जन मे वह दुर्बल प्राणान्त का प्रार्थी होता है ।।४९१।। कभी मैं भी था ऐसा सम्राट जिसका दुख से ही अभिषेक हुआ किन्तु जब विवाह हुआ स्नेहिल साम्राज्ञी से जीवन का सुख-दुख अब एक हुआ ।।४९२।। अचानक शंखनाद कानों मे गूँजा शांत विचार झटके से झंकृत हो गये आदेश मिला, हम साष्टांग झुक गये आज सारे अतीत के क्षण अमृत हो गये ।।४९३।। बरसों की अर्चना के बाद अंजलि मे आज नवजीवन का प्रसाद मिला हमारे मस्तक श्रद्धेय चरणों पर झुक गये हमे सभी बड़ों का आशीर्वाद मिला ।।४९४।। भीड़ लौटने लगी घंट-ध्वनियों के साथ हम दोनों सभी के मध्य चलने लगे शिष्यों के नृत्य और गीतों से अनायास प्रणय के पद्य मचलने लगे ।।४९५।। सभी जन देखने बाहर निकल आये जब नव-दंपति की ग्राम्य परिक्रमा हुयी कहीं फल-पुष्प, कहीं पयः पात्र मिला सर्व शुभाशीष लिये शशि आज उर मे समा गयी ।।४९६।। देवालय सम्मुख परिणय यात्रा सम्पन्न हुयी सभी स्वजन-परिजन थके लौटने लगे आमंत्रित कर उन्हे निशा भोज हेतु हमारे पग आलय की ओर बढ़ने लगे ।।४९७।। आज उर मे इतना सुख भरा था वह हर्ष कलश से टपक रहा था अतीत का हर गहरा आयाम कंठहार का कुसुम-कुसुम कह रहा था ।।४९८।। उत्तरार्ध दिवस की दिव्य ज्योति मे जहां धरा की क्षुद्र धूल भी तप रही थी नव-परिणय मे सजी पीत पुष्प-पगा सूखे सुमन दल सी काँप रही थी ।।४९९।। पीड़ा जिसके प्राणों का पोषक हो उसे देह-मोह नहीं होता है जिसके रक्त मे रवि सी उष्णता है वह स्वयं एक अनबुझा अंगार होता है ।।५००।। जो आदि से अंत तक अवनि पुत्र हो वह स्वछंद सुरभि सा उड़ा करता है जिसने नित नियति चक्र देखा है वह हर स्थितियों से लड़ा करता है ।।५०१।। दूर से ही स्नेहालय चमक रहा था जहां नव-प्रणय का गृह-प्रवेश था अतीत की धूमिल स्मृति-धरा पर आज सुख का अभिनंदन विशेष था ।।५०२।। शशि बोली, इन आँखों मे मैंने बस एक ही सपना देखा है स्नेह और आकांक्षाओं से बोझिल तुम्हारे नयनों मे बिम्ब अपना देखा है ।।५०३।। स्नेहिल नयनों मे हम बिम्ब ही देखते रहे न जाने दिवाकर कब उतर गया बरसों हृदय मे छिपा चंचल प्रणय अब रजनी के आँचल मे निथर गया ।।५०४।। हमने कहा स्नेह के हर बिन्दु मे कण मे प्यार से लिख दिया है तुम्हारा नाम तुम्हारे इस स्नेहिल अनुबंधन को मेरे अस्तित्व का शत-शत प्रणाम ।।५०५।।

इस रचना का विलंबित पृष्ठांकन

चंचल वसंत की उस संध्या उल्का सी चमकी आंखों मे भव्या शची सी हुई वह गगन से अवतरित हो गयी इस उर मे युगों से अंतर्निहित ।।१।। उन आँखों का अद्भुत आकर्षण यह जीवन आया तुम्हारे ही शरण खिचीं जब तुम भाग्य मे बन कर चित्रा उतर आयी वह संध्या, बन कर फिर रतिमित्रा ।।२।। स्मृतियों से कभी रिसती है पुरानी आह आँखों से फिर न रुकता है प्रवाह सावन भी बरसा है तुम संग घन-सघन सूखी नहीं है अब तक वह फिसलन ।।३।। शशि तुम्हारी आँखें आज भी कहती हैं प्रणय-अनुराग जीवंत रुधिर मे बहती है झरती है तुमसे आज भी मधु की धारा बिना तुम्हारे तुच्छ है यह धन-वैभव सारा ।।४।। फिर न छूटा कभी तुमसे अभिसार दृगों मे बसा है आज भी तुम्हारा अलंकार छिपा लो जीवन का यह शेष आँचल में जी लेंगे निशा युगों की एक ही पल में ।।५।।

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