प्रणय-पटल (पुरानी छवि नयी अनुभूति) : राजगोपाल

Pranay-Patal : Rajagopal


कितने क्षण

लगता है बिना तुम्हारे क्षण-क्षण सूना सृष्टि तुम ही हो पर दिन-रात अलग है सुख की सीमा तुम हो उस पार तो सारा जग है रात अंधेरी गुम-सुम, उजियाले वह दर्पण भी सूना लगता है बिना तुम्हारे क्षण-क्षण सूना शून्य मे कल्पना भर रही आह मन मे चाँदनी सी समा जाओ लिये चाह मन मे ढूंढते कस्तूरी भटक रहा आज यह जीवन सूना लगता है बिना तुम्हारे क्षण-क्षण सूना रम्य रजनी मे रति संग सारा जग रमा है बिछा दो आंचल इस चाँदनी मे सब क्षमा है श्रृंगार बिना धरा पर है यह विस्तृत गगन सूना लगता है बिना तुम्हारे क्षण-क्षण सूना भोर मे लजाती खिल रही कलियाँ कोमल आकाशदीप तले जलता उर कर दो शीतल जुगनुओं की झिलमिलाहट मे यह उपवन सूना लगता है बिना तुम्हारे क्षण-क्षण सूना

नीरज नयन

मन की बातें कह देते हैं नीरज नयन सारा विश्व देखा इन वृहद दृगों मे प्राची का प्रणय टकराया इन पगों से थके पथिक का वह अंक बना शयन मन की बातें कह देते हैं नीरज नयन वही पथिक कल इन आँखों मे डूबा दिशाहीन मृग सा जीवन से ऊबा मृगतृष्णा और जीवन मे तुम्हारा ही किया चयन मन की बातें कह देते हैं नीरज नयन तनिक नयनों से तुम संकेत करो कभी सर्वस्व तुम्हारा, यह प्राण भी धरो अभी आ जाओ, नयन मिला कर, कर ले परचन मन की बातें कह देते हैं नीरज नयन जगा कर विभा से कब मुझमे प्रात भरेगी व्याकुल है मन आ कर कब वह स्पर्श करेगी सोचता है मिट्टी सा तन, छू कर उसे कब होगा कंचन मन की बातें कह देते हैं नीरज नयन

पथिक

किस पथ खोया है मन, पथिक तुम बतलाओ कितने चौराहे लांघ यहाँ तुम तक पहुंचा बरसों यह मन रह गया स्वयं मे ही सकुचा शब्द दबे कंठ मे, आँखों से ही कुछ जतलाओ किस पथ खोया है मन, पथिक तुम बतलाओ अनकही कहने उसे आज मन है आतुर प्रणय का भार लिये बूढ़ा हो रहा है उर सुनकर उसकी कथा-व्यथा तनिक स्वप्नों को सहलाओ किस पथ खोया है मन, पथिक तुम बतलाओ उंगली पकड़ कांधे से उर मे छिप जाऊँ सदियों का उन्माद लिये चुप वहीं सो जाऊँ उनींदी आँखों मे बस कर कुछ पल बहला जाओ किस पथ खोया है मन, पथिक तुम बतलाओ मन ढूँढता है किस पथ प्रणय पड़ा निर्वासित गगन देखता बैठा है कब से घर जाने लालायित तुम ही आद्या, अदिति, अनंता उसे देहरी तक ले आओ किस पथ खोया है मन, पथिक तुम बतलाओ

सदियों बाद

सदियाँ बटोर सोया है जीवन तुम्हारे गोद मे ‘कल’ के कोलाहल से दूर चुप है ‘आज’ शांति मे बीत जायेगी यह रात जुगनुओं की कान्ति मे भीग जायेंगे पल साथ तुम्हारे अँधियारे आमोद मे सदियाँ बटोर सोया है जीवन तुम्हारे गोद मे आँखों मे जमे अश्रु भी कभी झर जायेंगे जीवन मे उभरे घाव कल तक भर जायेंगे जी लें प्रथम-प्रणय की स्मृतियाँ व्यंग्य-विनोद मे सदियाँ बटोर सोया है जीवन तुम्हारे गोद मे प्रणय को मौन कर अब मुख से न बोलेंगे बात बगल मे धर कर कभी मधुकोष न खोलेंगे खींच लेंगे समय ऐसे ही बचते-बचाते प्रतिरोध मे सदियाँ बटोर सोया है जीवन तुम्हारे गोद मे रख दे पलकों पर बहु-प्रतीक्षित स्नेह-चुंबन पोंछ दे संचित पीड़ा के सारे अश्रु कण जगा लें आज दोबारा सम्बन्धों मे प्रणय-बोध सदियाँ बटोर सोया है जीवन तुम्हारे गोद मे

विश्व का सार

इन नयनों मे दिखता है मेरे विश्व का सार मुट्ठी भर आकाश लिये धरा नापते चला नंगे पाँव हाथ भर की बस्ती शहर से दूर पड़ा था छोटा गाँव अप्रत्याशित मिली वह, खुली मुट्ठी, दिखा गगन अपार इन नयनों मे दिखता है मेरे विश्व का सार वह आँखों से नंदिनी, अधरों से रति-कामिनी उर से आदि अनंता, कर्मठ प्रज्ञा की दामिनी प्राण, प्रणय, परिणय साथ पिरोने उसका अगणित आभार इन नयनों मे दिखता है मेरे विश्व का सार खुली है मुट्ठी, न जाना छोड़ कर स्वर्ग कभी न पोछना स्नेह-चुंबन, न सूख सकेंगे अश्रु कभी मणि-कंचन नहीं, लौटा देना वह पारिजात सा प्यार इन नयनों मे दिखता है मेरे विश्व का सार क्या बोलूँ द्रवित हुआ उर, शब्द नहीं आते न मिलते यदि, एकाकी पहले ही तन तज जाते तुम हो शक्ति, सिद्धि, वाणी सुन लो जीवन की पुकार इन नयनों मे दिखता है मेरे विश्व का सार

चाँदनी रात

इस चाँदनी रात मे तुम्हें देखा है तन्मय तुम्हारी छवि लिये देखता रहा चुपचाप तुम ही थे युगों से मेरे क्षितिज का नाप इतने कोलाहल मे तुम से ही बंधा है यह समय इस चाँदनी रात मे तुम्हें देखा है तन्मय मध्य रात्रि यहाँ धरा पर सन्नाटा छाया प्रणय ढूंढते कुछ ने खोया कुछ ने पाया पृथक तुम से नहीं जगती मे रजनी रतिमय इस चाँदनी रात मे तुम्हें देखा है तन्मय दौड़ते शहर मे केवल सूनापन सुन पाते हैं साँझ की हवा से भी आँसू झर जाते हैं यहाँ अपनी ही छाया से क्यों लगता है भय इस चाँदनी रात मे तुम्हें देखा है तन्मय तारों के बीच तुम सा ही है चाँद गोल-गोल प्रात से पहले कुछ मन की गांठें खोल बोल उल्का सा मैं जलता-बुझता मेरा बस इतना ही परिचय इस चाँदनी रात मे तुम्हें देखा है तन्मय

सीमा रेखा

हंस लें जी लें न खींचे यहाँ कोई सीमा रेखा साँझ साथ निशा ले आयी ढूंढती प्रणय दुलारा कहीं छिपा तो नहीं आँचल मे लज्जा का मारा देखो कुछ गिरा धरा पर क्या यह पुष्प मन्मथ ने फेंका हंस लें जी लें न खींचे यहाँ कोई सीमा रेखा छिपा कर रखा था झर गये आँसू के दो कण भी शत-क्रंदनों बाद तुम्हें देखने आ गये वे क्षण भी तुम ही हो जीवन से भरी वह चित्रगुप्त की लेखा हंस लें जी लें न खींचे यहाँ कोई सीमा रेखा दिन मे भी देखा तुम्हारा ही स्वप्न सुंदर बुनता रहा ताना-बाना मन के अंदर इतना नहीं तड़ित प्रभंजन और मेघ-वृष्टि मे भी तुम्हें देखा हंस लें जी लें न खींचे यहाँ कोई सीमा रेखा देखता तुम्हें मन की लहरों मे खो जाता हूँ रात थका फिर उसी नीड़ मे सो जाता हूँ लहरों पर गिरता-उठता ढूँढता रहता हूँ कोई तट रेखा हंस लें जी लें न खींचे यहाँ कोई सीमा रेखा

सुंदरता

समायी है तुझ मे सृष्टि की सारी सुंदरता आँखों से स्नेह पटल पर झरती हैं मीठी बूंदे शचि सी आनंदी छवि दिखती है आँखें मूँदे स्वप्न मे भी मादक मुद्रा मिटा जाती है नीरवता समायी है तुझ मे सृष्टि की सारी सुंदरता मधु लेने नभ तक क्यों बाहें फैलाता है छोड़ यथार्थ स्वप्नों मे उर भर लाता है लांघ सरित-सागर कह दे मन की भावुकता समायी है तुझ मे सृष्टि की सारी सुंदरता पास नहीं कोई मृगतृष्णा मे ही प्यास बुझा ले मरु मे जलते छालों को आंसुओं से बुझा ले विक्षिप्त दिशाहीन सा दौड़ता जतला दे मन को आकुलता समायी है तुझ मे सृष्टि की सारी सुंदरता उड़ते घन बरस कर भी मन की आग नहीं बुझाते सतरंगी तितलियाँ अब जीवन मे रास नहीं आते जड़ तकिये नहीं समझ पाते हैं विरह की व्याकुलता समायी है तुझ मे सृष्टि की सारी सुंदरता

निराकार

जीवन के पास आकर क्यों जाते हो कथाओं के सारे संवाद आज मूक हुये उस राह देखते हम दिन मे भी उलूक हुये न प्रणय जतला कर भी क्यों प्राण कहलाते हो जीवन के पास आकर क्यों जाते हो किसे देखता यह अंबर युगों से सोया नहीं मुट्ठी भर प्यार ढूँढता धरा पर मन खोया कहीं जगा कर तृष्णा क्यों रजनी संग स्वप्न सुहाते हो जीवन के पास आकर क्यों जाते हो जान लो यह तृषा न बुझेगी स्वप्नों से बात मन की है निभेगी केवल अपनों से छू लेने दो सत्य क्यों उसे आवरण मे छिपाते हो जीवन के पास आकर क्यों जाते हो साकार आँखों-अधरों वाली क्यों निराकार हो हवा सी गुदगुदाती जाती कहाँ आर-पार हो हाथ नहीं आती वह कभी, क्यों व्यर्थ अश्रु बहाते हो जीवन के पास आकर क्यों जाते हो

प्रियधन

कहाँ छिपा है इस जीवन का प्रियधन मांग कुबेर से लाया था मुट्ठी भर कंचन उसकी प्रतिमा मे आभास हुआ था स्पंदन उस लक्ष्मी से हुआ नव-जीवन का बंधन कहाँ छिपा है इस जीवन का प्रियधन देखते दिन बीते उसकी छवि अविरल छलकी वह प्रायः बन आँखों का जल नित अर्ध्य करूँ, उसका उर से अभिनंदन कहाँ छिपा है इस जीवन का प्रियधन छोटी सी आशा है इस जीवन मे संग चलें तो धैर्य रहेगा मन मे धन-वैभव नहीं मधु से भर दो चिरबंधन कहाँ छिपा है इस जीवन का प्रियधन इस तन मे रुधिर सा जाओ समा जी लें जब तक है यहाँ समय थमा मन हृदय की महादेवी तुम्हें शत-शत वंदन कहाँ छिपा है इस जीवन का प्रियधन

भूगोल

तुम ही इस जीवन का हो भूगोल बिन तुम्हारे कहाँ किस पथ चलते हाथ पकड़ ही देहरी पार निकलते न पूछो प्रश्न उत्तर सारे हैं गोल-गोल तुम ही इस जीवन का हो भूगोल तुम्हें देख पथ पर मचलता है यौवन गगन तले हम है और सारा जग निर्जन आँचल के पीछे संवार लो सौंदर्य अनमोल तुम ही इस जीवन का हो भूगोल चलते-चलते ही यह कथा निकली भाग्य की लकीरों मे तुम वहाँ मिली आज भी बजते हैं कानों मे प्रणय के मीठे बोल तुम ही इस जीवन का हो भूगोल अतीत से तुम्हें लिये आज मे समाया छू कर मुख गोल धरा पर स्वर्ग पाया अभिनंदन करता खड़ा हूँ प्रणय के द्वार खोल तुम ही इस जीवन का हो भूगोल

सम्बोधन

लौटा दो आज बिसुरे स्नेहिल सम्बोधन बेसुध मन पुकारता तुम्हें भीड़ मे खड़ा अधीर अकेले आप ही सुनते झर गये नयनों से नीर कहाँ गया शशि मुख पर वही युगों का सम्मोहन लौटा दो आज बिसुरे स्नेहिल सम्बोधन तुम्हारी छवि मेज़ पर कैसी है निस्पंद धरा पर साकार उस मे ही है मधु-मकरंद प्रणय सुमेरु नहीं, इस छोटे टीले पर कर लो आरोहण लौटा दो आज बिसुरे स्नेहिल सम्बोधन समय लांघ, छू कर मन, चौंका देना सोया प्राण जीवन का है अवसान से पहले यह आव्हान दृगों मे स्वर्ग देखने, मन करता है शिशु सा क्रंदन लौटा दो आज बिसुरे स्नेहिल सम्बोधन देख तुम्हें अँधियारे दीप भी बुझ जाता इतनी सुंदरता देख एकाकी मन भर आता बांध जाओ बाहुपाशों मे न करो इतना प्रणय विमोचन लौटा दो आज बिसुरे स्नेहिल सम्बोधन

यह द्वार

मुड़ कर देखूँ जब, यह द्वार पड़ा है सूना निर्निमेष देखते उसे क्षण-क्षण जैसे युग बीता न आया कोई द्वार वह सपना आँखों मे रीता प्रणय सी तुम काजल जैसे इन दृगों को छूना मुड़ कर देखूँ जब, यह द्वार पड़ा है सूना चाँद कितनी दूर है जानती है जगती सारी उसे पाने रसिकों का बरसों से यत्न है जारी तुम चंद्रिका मेरी, तुम्हें पाने मेरा यह प्रयास दूना मुड़ कर देखूँ जब, यह द्वार पड़ा है सूना मन मूक है, उसकी सुधि मे वह सागर पी ले सारे खारे जल को मधुर बना कर पी ले हँसता है जग विक्षिप्त पर, यह काल बहुत है घूना मुड़ कर देखूँ जब, यह द्वार पड़ा है सूना यह प्राण-प्रणय है कोई वासना नहीं निर्झर आशा है यह जीवन, काल-अकाल सब हर-हर किसने है प्रणय को इस तपते पाषाण पर भूना मुड़ कर देखूँ जब, यह द्वार पड़ा है सूना

नयन नीर

तुम हो प्रिये मेरे नयनों का नीर कभी झरती हो बन पीड़ा की कसकन बह जाती हो कभी बन मादक मधु कण रात चाँदनी लगती हो जैसे पावस प्रणय क्षीर तुम हो प्रिये मेरे नयनों का नीर डरता है मन तम स्वप्नों मे आकर यह जीवन कैसा तुम को खो कर पाकर तुम्हें लगा जैसे जग जीता हो प्रणय वीर तुम हो प्रिये मेरे नयनों का नीर बरसता है प्रणय घिर कर स्मृतियों के घन से झरती हो तुम बन मीठे आँसू कण-कण से फिसलती स्मृतियाँ खींचती है गालों पर लकीर तुम हो प्रिये मेरे नयनों का नीर चुकाते हैं अश्रु विरह-विनोद का मोल उस खारे स्नेहिल जल की हर बूंद अमोल इन आँखों मे भर दो मन्मथ के सारे पुष्प तीर तुम हो प्रिये मेरे नयनों का नीर

उधार

मुझ पर है तुम्हारे प्रणय का उधार छोटे जीवन मे किया तुमने नीड़ का निर्माण इस नीड़ मे परों से सेंके हमने सभी के प्राण दिन-रात बरस चढ़े, तुमसे ही बढ़ा परिवार मुझ पर है तुम्हारे प्रणय का उधार दिवस ढले लगता बच्चे प्रत्याशा मे होंगे नीड़ के लिये दूर भीड़ से झांक रहे होंगे आज कौन विकल यहाँ जतलाने नीड़ का आभार मुझ पर है तुम्हारे प्रणय का उधार कभी छीना रजनी, कभी दिन उठा लाया मणि-मुक्ता नहीं, मुट्ठी भर सुख ही दे पाया बरसों बाद भी माप न सका तुम्हारे उर का विस्तार मुझ पर है तुम्हारे प्रणय का उधार अतीत नहीं तुम्हारे जीवन की परिभाषा तुमसे ही जागा वर्तमान लिये आशा तुम्हें शत-शत नमन, नीड़ मे लाने स्वर्ग उतार मुझ पर है तुम्हारे प्रणय का उधार

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