असमिया कविताएँ हिन्दी में : उत्पल डेका

Asamiya Poetry in Hindi : Utpal Deka


कारपोरेट गेम

खोपड़ी के अन्दर एक पृथ्वी चश्मे के बग़ैर भी नज़र आती है हैरतअंगेज पृथ्वी जो खेल हम खेल रहे थे वह ख़त्म नहीं हुआ था बड़े अक्षरों में लिखे विज्ञापन के पीछे रहते हैं छल के आँसू इन्वेस्टमेण्ट में जीवन लहू चूसना हमारा धर्म शोषण और शासक की हड्डी में उगे नंगे बच्चे भूख से चीख़ते हैं गैरों के मुँह से निवाला छीनकर सुखी होने का खेल रोचक है कुछ पा जाने का सुख मिलता है इसमें !

परिक्रमा

बात थामती है समय की जड़ जिस खिड़की पर सूरज बैठता है उसकी छुअन से जिंदा होती है अधपकी बात कौन किसे मात देता है समय के विवर्तन में कौन करता है संग्राम किसका अधिकार कौन करता है संधि या छल सब कुछ है आपेक्षिक गंवाता है कौन रिश्ता करता है कौन विनिमय बोझिल सांस को संभालकर कौन सजाता है खुद को चित्र की तरह किसके लिए नग्न रातें छोड़ देती हैं राह? किसके लिए यह छाया-रोशनी कौन किसका रकीब हमारे उर्वर मन में किसके लिए है यह तन्हाई मृत्यु के उस पार दुख नहीं रहता।

रंगहीन शहर

चक्कर काटने वाली बातें थोड़ा सुस्ता रही हैं घूमती रहती हैं वे इस कान से उस कान तक सीमांत के उस पार की चिड़िया होंठों पर बह आया किस्सा सुनाती है कोंपल और सूखे पत्ते का शाम का हाट सांस में कांपता है शहर की चाहत ने उसके हाथ-पैर को पंगु बना दिया है देखने के लिए शहर की नहीं हैं अपनी आंखें सुनने के लिए नहीं समय कहने के लिए नहीं है मुंह चाहने के लिए नहीं कोई अपना देखी है जिसने सृजन की प्रसव वेदना धारण किए हैं जो समय के कुछ निराश्रित चित्र लहू-मांस के जो ठिठका रहता है सब कुछ भूलकर आलोक की प्रार्थना के लिए जीवित हैं पंछी, नदी, पेड़ अभी भी है शहर।

संयोग

प्रेम किसी भी समय खुद को पाया जा सकता है पलक झपकते ही मदिरा संग बातें की जा सकती है छाया की तरह घर पिता का बुझा हुआ चेहरा बाजार का थैला मां के सपने सब लटकते रहते हैं अंधेरे कोने में। भोजन क्षुधा की लपटें जलाती हैं मेरी माटी, मेरे खेत मेरा देश। मृत्यु किसी एक बसंत में टूटकर गिर जाता है आखिरी पत्ता।

कारपोरेट गेम

खोपड़ी के अन्दर की दुनिया बिना चश्मे के दिखती है अजीब दुनिया हमने जो खेल खेला वह ख़त्म नहीं हुआ बड़े अक्षरों में छपे विज्ञापनों के पीछे पानी की चिपकी हुई बून्दें हैं निवेश का जीवन खून चूसना हमारा धर्म है शोषकों और शासकों की हड्डियों में पले बच्चे भूख से रोते हैं मज़े के लिए दूसरों के मुँह से निवाला छीनने का खेल दिलचस्प है

दिसम्बर

सितारे इस बारे में बात करते हैं चाँदनी के सपने देखते हैं यरूशलेम की स्वप्निल - संध्या में मरियम सितारों का इन्तज़ार करती रहती है अब दिसम्बर आ गया है सर्दियों के कोहरे को चीरते हुए ठण्डी हवा के झोंके दिल को कँपकँपा देते हैं खासी पहाड़ियों पर शान्ति की रोशनी और प्रेम के गीत मुझे सलीब पर चढ़ाए गए पेड़ों की ओर ले जाते हैं सान्ताक्लॉज़ मुझे देखकर हाथ हिलाते हैं और कहते हैं — मैरी क्रिसमस

नदी की कहानी

हर बार जब मैं अपने-सामने होता हूँ मुझे लगता है कि जब भी मैं वापस आऊँगा खुला रहेगा एक दरवाज़ा मेरे भीतर जिससे होकर तुम अन्दर आ सकोगे मुझे तलाश है अपनी वाणी की जो सदियों से दबी हुई है ।

फ़्रेम

हर कोई वापस आता है एक दिन ख़ुद के लिए आसानी से भूल जाता है अच्छी तरह से डिज़ाइन की गई तस्वीरें जीवन के प्रमुख समय में खो गए रिश्ते बहुत से लोगों को नाराज़ न करें अपने आप को पुनर्जीवित करें किसी की आँख में ज़िन्दगी की कहानी खो जाती है क़िस्सों की भीड़ में आसमान बारिश और सिगरेट के धुएँ की तरह व्यथित संघर्षों से विकृत समय चित्र की तरह बोलता है

मालकोस

एक संगीत लेख की तरह एक जुलाहा पक्षी कपिलिपरिया साधु गाता है मैने सुना है मौन का हर स्वर दोपहर को गाया जाने वाला गीत इसके बिना और क्या है ? शब्द उलझकर खो जाते हैं गुमनामी के किसी कोने में शायद मैं उन्हें अतीत की परिचित आवाज़ों के बीच कभी नहीं पाऊँगा

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